सूरज प्रकाश की लंबी कहानी - एक कमज़ोर लड़की की कहानी

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एक कमज़ोर लड़की की कहानी कहानी सूरज प्रकाश वे मेरी पहली फेसबुक मित्र थीं जो मुझसे रू ब रू मिल रही थीं। फेसबुक पर मेरी फ्रेंड लिस्‍ट पर ...

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एक कमज़ोर लड़की की कहानी

कहानी

सूरज प्रकाश

वे मेरी पहली फेसबुक मित्र थीं जो मुझसे रू ब रू मिल रही थीं। फेसबुक पर मेरी फ्रेंड लिस्‍ट पर बेशक काफी अरसे से थीं लेकिन उनसे चैटिंग कभी नहीं हुई थी। कभी उन्‍होंने या मैंने एकाध बार एक दूसरे की पोस्‍ट को लाइक किया हो तो अलग बात है। उन्‍होंने एक बार अपनी वॉल पर लिखा था - खुद के लिए कठोर सज़ा तय की है......इस वर्ष मैं पुस्तक मेले में प्रगति मैदान नहीं जा रही.....कारण! गत वर्ष जो किताबों का अर्धशतक उठा लायी थी और सब के सब पढ़े जाने का प्रण लिया था, मैं उसे पूरा नहीं कर पायी....असल में 10 भी नहीं पढ़ पायी.... इस अपराध में मैं खुद को उस ज्ञान सागर में डुबकी लगाने के अयोग्य समझती हूं।..... दु:खद।

संयोग से उस दिन मैं पुस्‍तक मेले में ही था और अपनी पसंद की कई किताबें लाया था। रात को जब मैंने फेसबुक पर उनकी ये पोस्‍ट देखी, उस वक्‍त मेले से लायी किताबों के पैकेट खोल ही रहा था। मैंने इस पोस्‍ट के जवाब में लिखा था - बेशक आपका मामला दु:खद है लेकिन इतना नहीं कि आप अपनी खरीदी किताबों से ही नाराज़ हो कर बैठ जायें। किताबों को बिना पढ़े अलमारियों में बंद करना उनकी हत्‍या करने जैसा होता है। सारी की सारी न सही, ए़काध किताब अपने सिरहाने ज़रूर रखें, एक किताब आपके रोज़ाना के बैग में रखी रहे और अगर आप यात्राएं करती हैं तो बैग तैयार करते कम से कम दो किताबें ज़रूर साथ ले जायें। मैंने यह भी लिखा था कि ज़रूरी नहीं कि पढ़ लेने के बाद किताब वापिस घर लायी ही जाये।

वे मेरे कमेंट से बेहद खुश हो गयी थीं और तुरंत पूछा था – तो पढ़ ली गयी किताब का क्‍या किया जाये।

बात आगे बढ़ायी थी मैंने – पूरी यात्रा में आपके सम्‍पर्क में आने वाला जो व्‍यक्‍ति आपको सबसे अधिक पसंद आया हो और जिसने मन से आपकी मदद की हो या सेवा की हो, और आपको लगे कि इस आदमी को कुछ न कुछ उपहार दिया जाना चाहिये तो अपने एक खूबसूसूरत कमेंट के साथ वह किताब उसे भेंट कर दें।

- क्‍या ऐसा हो सकता है?

- हां क्‍यों नहीं, अगर आप तय कर लें कि पढ़ी हुई किताबें देनी ही हैं तो बिल्‍कुल हो सकता है। मैंने पिछले बरस अपनी लाइब्रेरी की 4000 किताबें उपहार में दे दीं। मैं जो किताबें पढ़ चुका था, दोबारा नहीं पढ़ी जानी थी, और जो किताबें अब तक नहीं पढ़ पाया वो भी अब पढ़नी नहीं थी, दीमक या रद्दी की दुकान ही उनकी मंज़िल बने, इससे पहले सारी किताबें नये पाठकों को दे दीं।Top of Form ऐस

- मुझे क्‍यों नहीं दीं वे किताबें? वे बेतकल्‍लुफ हो गयीं थीं और लगा, रूठने की मुद्रा में आ गयी हैं। मज़े की बात, मैंने अब तक उनका प्रोफाइल भी नहीं देखा था। नाम वंदना मेहरोत्रा और प्रोफाइल पर नज़र आ रही तस्‍वीर से तीस-बत्‍तीस बरस की शादीशुदा महिला लग रही थीं।

- कैसे बताऊं! आप कहां थीं तब, मैंने तो फेसबुक के ज़रिये ही दीं थीं किताबें!

- कैसे दी थीं किताबें मतलब....अचानक कोई इस तरह अपनी किताबें कैसे दे सकता है। वो भी अनजान आदमियों को?

मुझे बताते हुए संकोच हो रहा था। क्‍या मसला ले कर बैठ गया मैं। वह भी फेसबुक की एक अनजान मित्र से। फिर भी बताया मैंने – मैंने किताबें स्‍कूलों को, दूरदराज के इलाकों में चल रहे पुस्‍तकालयों को और फेसबुक के उन पाठकों को दीं जिन्‍होंने किताबें लेने की इच्‍छा जतलायी। कोशिश की थी कि उन तक उनकी पसंद की किताबें पहुंचें। बेशक मैंने किताबें मंगवाने के लिए डाकखर्च ज़रूर लिया था और हर किताब पर एक मोहर भी लगा दी थी कि इसे पढ़ने के बाद किसी और पुस्‍तक प्रेमी को दे दें।

- कब की बात है?

- पिछले बरस क्रिसमस की।

- अरे, आप तो सचमुच पुस्‍तक प्रेमियों के लिए सांता क्‍लाज बन कर आये। मैं तो सोच भी नहीं सकती कि इस तरह कोई अपनी किताबें अनजान आदमियों को भेंट में दे सकता है।

- अगर मन बना लें तो कुछ भी हो सकता है वंदना जी। अगर पाठकों को मेरी किताबें मिलीं तो मेरी किताबों को भी तो नये पाठक मिले। अगर किताबें आगे की यात्रा पूरी करती रहें तो सोचें उन्‍हें कितने अधिक पाठक मिलेंगे। आपको एक बात बताऊं?

- ज़रूर, अगर बताना चाहें।

- मैंने अपनी सारी किताबें बेटियों की तरह विदा की थीं और मुझे बहुत सुख मिला था कि मेरी सभी बेटियों को अच्‍छे घर-बार मिले।

- वाव, क्‍या तो सोच है आपकी। मैं आपको प्रणाम करती हूं सर, हम कम पढ़े-लिखे लोग इतनी दूर की तो सोच ही नहीं सकते – किताबों को बेटियों की तरह विदा करना। आप सचमुच महान लेखक हैं सर।

Ø

उस दिन की बात वहीं खत्‍म हो गयी थी। बाद में बेशक कई बार फेसबुक पर उनकी हरी बत्‍ती उनके मौजूद होने का संकेत दे रही थी लेकिन मैंने कभी अपनी तरफ से पहल करके उन्‍हें डिस्‍टर्ब नहीं किया था। कभी करता भी नहीं। किसी को भी। सामने वाला बेशक फेसबुक पर है लेकिन पता नहीं कौन-सा ज़रूरी काम कर रहा हो। मैं भी तो फेसबुक पर हरी बत्‍ती होने के बावजूद हर समय लैपटॉप पर नहीं होता।

तब मैंने पहली बार उनका प्रोफाइल पढ़ा था। कुछ समझ ही नहीं आया थ। वर्किंग इन गुरबनिया। फोटो एल्‍बम में भी कुछ तस्‍वीरों के पीछे इसी नाम के लोगो लगे हुए थे। हालांकि गूगल सर्च में जा कर इस कंपनी या जगह के बारे में पता किया जा सकता था, लेकिन टाल गया। मन में हलकी-सी खुशी भी थी कि बहुत दिनों बाद फेसबुक पर कोई ऐसी मित्र बनी है जो किताबों से वास्‍ता रखती है।

Ø

अगली बार मेरी दीवार पर ठक ठक उन्‍होंने ही की थी – हैलो सर, आप बहुत अच्‍छा लिखते हैं।

- ये तो मेरे लिए खबर हैं वंदना जी, वैसे इस शुभ संदेश के लिए आभार।

तभी मैंने पूछा था – ये गुरबनिया क्‍या है और किधर है जी?

- सर, गुरबनिया स्‍टेनलेस स्‍टील बनाने की हॉलैंड की एक कंपनी है। मैं उसमें पीआर हैड के रूप में काम करती हूं।

- इसका मतलब आप भारत में नहीं हैं?

- मैं देशी हूं सर, कंपनी विदेशी है।

- अब पता चला वंदना जी, मैं तो आपको किसी और देश में वासी मान रहा था।

- क्‍यों, आपको पिछली बार बताया तो था कि दिल्‍ली पुस्‍तक मेले में नहीं जा पायी थी।

- हां, याद तो आ रहा है। फिर भी सोचता रहा कि आप देशी, रहती विदेश में होंगी। आखिर अंतर्राष्‍ट्रीय पुस्‍तक मेले में तो कहीं से भी आया जा सकता है।

- जी, प्रोफाइल पर मेरे बारे में बहुत कम जानकारी है। सबको क्‍या बताना और क्‍यों बताना।

- हां सही कहा आपने। दरअसल आपका प्रोफाइल साइलेंट मोड में है। बताता कम और कन्‍फ्यूज ज्‍यादा करता है।

- वो कैसे भला?

- कंपनी के नाम के अलावा सारी बातों के बारे में मौन है आपका प्रोफाइल।

- तो बताये देती हूं कि मैं दिल्‍ली के ऑफिस में बैठ कर विदेशी कंपनी का स्‍टेनलेस स्‍टील बेचती हूं।

- ओके, मैंने टहोका मारा - क्‍या खुद बेचने निकलती हैं, भांडे कलई करवा लो की तर्ज पर कंधे पर विदेशी स्‍टील का झोला थामे।

- बताऊं क्‍या। वे बमकीं - बहुत सारे कार्पोरेट्स हमारे क्‍लायंट हैं।

- ओके, मैं समझा... !

- यही समझे कि ये लेडी जींस टीशर्ट पहने हुए गली-गली घूमते हुए पुराने कपड़ों के बदले विदेशी स्‍टील के बर्तन देती होगी। यू आर वेरी नॉटी सर।

मैंने नाराज़ होने का नाटक किया - इसमें नॉटी होने की बात कहां से आ गयी?

- आप लेखक लोग भी ना.... !

- अब आपने पूरी लेखक बिरादरी को ही घसीट लिया। ये तो ज्‍यादती है...।

- सर, सर एक बात कहूं?

मैं घबराया, पता नहीं क्‍या कह दे या घेर ही ले मुझे। फेसबुक पर रोज़ाना हर तरह के अनुभव होते रहते हैं।

- सर, आप मुझे वंदना कहें।

- एक शर्त पर।

- जी?

- उस स्‍थिति में मेरा नाम या मेरे नाम के आगे जी लगा कर बात करें, या दोस्‍त, दोस्‍त जी, मित्र, मित्र जी भी कह सकती हैं, लेकिन सर सरासर सर नहीं।

- मुश्‍किल है सर आपका नाम लेने में। हो ही नहीं पायेगा। आप इतने सम्‍मानित लेखक हैं। आपको लेखक होने के नाते ही फेसबुक फ्रेंडशिप की रिक्‍वेस्‍ट भेजी थी।

- लेकिन आदर तो आप मुझे पूरा दे ही रही हैं। बिना सर सरासर सर के भी मिलता रहेगा।

- हो ही नहीं पायेगा आपका नाम लेना, बेशक आपसे बात करने में बेहद खुशी हो रही है।

- सुनिये, मैं पहले एक आम आदमी हूं। आप ही की तरह। तय है आप भी लिखती ही होंगी। मेरा लेखक होना मुझे पाठकों और मित्रों से दूर तो न करे कि माला पहना के बिठा दो आदरणीय लेखक जी को। मेरी खुशी और बढ़ेगी अगर समान भाव और सम्‍मान एक साथ मिलें।

- हा हा..।

- मैं बेहद ज़मीनी आदमी हूं घरेलू, सुशील, गृह कार्य में दक्ष जैसा कि शादी के विज्ञापनों में लड़कियों के बारे में लिखा जाता है। डाउन टू अर्थ।

- हा हा..।

- ये हा हा कार क्‍यों भई?

- हर बात के पीछे कोई कारण थोड़े ही होता है! मन किया हँस लिये। साथ में उन्‍होंने एक स्‍माइली नत्‍थी कर दिया।

- मैं आज तक इसका मतलब समझ नहीं पाया हा हा। बात बात में हाहाकार।

- आपकी कहानी दिव्‍या तुम कहां हो मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है।

- रीयली?

- जी सर।

- कब पढ़ी आपने?

- पूछिये कब-कब नहीं पढ़ी?

- मतलब?

- कम से कम दस बार तो पढ़ ही चुकी हूं।

- कहां?

- आपके ब्‍लाग पर।

- और कौन-सी कहानियां पढ़ी हैं?

- ब्‍लाग पर जितनी हैं वे सब।

- कमाल है। मुझे ही नहीं पता कि मेरे इतने घनघोर पाठक भी हैं?

- देख लीजिये।

- वैसे अब मेरा ब्‍लाग नहीं, मैंने अपनी वेबसाइट बनवा ली है।

- पता है मुझे। एक बात बतायें।

- जी।

- आपकी एक कहानी है राइट नम्‍बर रॉंग नम्‍बर।

- हां, है तो।

- उस कहानी में सच कितना और कल्‍पना कितनी है?

- अगर ईमानदारी से कहूं तो वह कहानी शत प्रतिशत सच्‍ची है, बेशक क्राफ्ट के स्‍तर उस घटना में कहानीपन लाने के लिए कुछ संवाद या कहने में एकाध जगह छूट ले ली हो, लेकिन मैं उसे अपनी कमज़ोर कहानी मानता हूं।

- लेकिन हैरानी होती है कि हमारे समाज में ऐसे लोग भी होते हैं?

- होते भी हैं और नहीं भी होते। कम से कम मेरी उस कहानी की नायिका तो वैसी ही थी जैसी कि कहानी में दिखायी गयी है। और क्‍या पढ़ा है मेरा लिखा आपने?

- ब्‍लॉग और वेबसाइट पर मौजूद सब कुछ।

- अब तक कहां छुपी थीं हे महान पाठिका। आप सामने होतीं तो आपको लेमन टी पिलाता।

- ज़रूर पीते, आजकल तो सब कुछ ई हो चला है। ई लेमन टी सही। उन्‍हीं ने बात आगे बढ़ायी – मैं आपको और रमन जी को आज के दौर का सबसे अच्‍छा लेखक मानती हूं।

- रमन जी तो हैं, मुझे उनकी पांत में कहां खड़ा कर दिया?

- दरअसल मैं आपके साहित्‍य तक उनके ज़रिये ही पहुंची थी। वे तो पूरे पढ़े नहीं गये लेकिन आपको कई-कई बार पढ़ लिया।

- वो कैसे?

- मैं रमन जी को पढ़ती रही हूं। एक दिन नेट पर उनका नया लिखा खंगाल रही थी कि उन पर आपका लिखा एक संस्‍मरण नज़र आया। मैंने अपनी याद में इतना अच्‍छा और आत्‍मीय संस्‍मरण नहीं पढ़ा था। खोजते-खोजते आपके ब्‍लॉग पर आ गयी और.. फिर वहीं की हो कर रह गयी।

- वाह। सुख मिला जान कर।

Ø

- आप दिल्‍ली में रहते हैं क्‍या?

- अरे हां, मेरा फेसबुक प्रोफाइल भी तो मौन है मेरे बारे में, मैं मुंबई में रहता हूं।

- अच्‍छा, मैं अक्‍सर जाती हूं मुंबई।

- ये भी खूब कही।

- अगले संडे को जा रही हूं।

- आप अपने हिसाब से संडे मुंबई जा रही हैं और मेरे हिसाब से मुंबई आ रही हैं।

- सही कहा आपने।

- व्‍यक्‍तिगत यात्रा?

- नहीं, ऑफिस के काम से, लेकिन वहां मैं बेहद बिज़ी रहती हूं।

- मैंने कुछ कहा क्‍या?

- नहीं, सॉरी मेरा मतलब..।

- कहां ठहरना होता है, या टिकना, या पांव फैलाना या सैंडिल उतारना और पसरना।

- अंधेरी में कंपनी का गेस्‍ट हाउस है।

- मेरे घर से सिर्फ 7 किमी दूर है अंधेरी।

- कहां रहते हैं आप?

- गोरेगांव।

- अच्‍छा, वो तो पास ही है। हम गोरेगांव एक्‍जीबीशन सेंटर आते हैं। वेस्‍टिन होटल के पास।

- गोरेगांव एक्‍जीबीशन सेंटर वेस्‍टिन होटल के पास तो नहीं लेकिन हब मॉल के पास ज़रूर है। और हां, मेरा घर ज़रूर वेस्‍टिन होटल के पास है।

- दरअसल दो बरस पहले तक मेरे पापा कांदिवली में रहते थे। कई बार वहां जाना होता था।

- मिलना चाहेंगी हमसे?

- रास्‍ते में कांदिवली के रास्‍ते में ओबेराय मॉल आता है, वहां शापिंग बहुत की है हमने।

- कुछ पूछा था मैंने?

- ओह सौरी, मैं.. इस बार के सारे अपांइटमेंट्स पहले से फिक्‍स हैं, अगली बार वादा रहा। जल्‍द ही आऊंगी।

- अब मैं क्‍या कहूं, समय मिले और फोन पर बता देंगी तो आपको अपनी नयी किताब तो भेंट कर सकता हूं वंदना जी। आप जैसी पाठिका सबके हिस्‍से में नहीं आतीं।

- ज़रूर, मुझे अच्‍छा लगता लेकिन जानती हूं, हो ही नहीं पायेगा।

- जब भी संभव हो।

- आप कभी दिल्‍ली आयें तो ज़रूर बताइयेगा।

- दिल्‍ली अभी दूर है, 15 दिन पहले ही आया।

- पुस्‍तक मेले में ना?

- हां, देखिये ना, आप मुंबई आ कर नहीं मिल पा रहीं लेकिन मुझे न्‍यौता दिल्‍ली का दे रही हैं।

- क्‍या करूं, जानते ही हैं ये एमएनसी निचोड़ कर रख देती हैं।

- क्‍या करना होता है आपको?

- क्‍या नहीं करना होता अपने आपको निचोड़े जाने के लिए पेश करने के लिए, हर चीज की प्‍लैनिंग, मीटिंग्‍स, एजेंडा, मिनट्स, आउटपुट, न्‍यूजलेटर, ट्रेनिंग, प्रेजेंटेशन, मीडिया और सब की डेडलाइन हमेशा सिर पर।

- समय चुराना होता है अपनी पसंद के काम के लिए।

- बहुत मुश्‍किल होती है।

- मैं ज़िंदगी भर यही करता रहा तभी लिख पाया।

- क्‍या करते रहे?

- समय चुराता रहा।

- मैं भी समय चुराती हूं लेकिन होता उलटा है।

- माने?

- मैं किसी तरह समय निकाल कर किताब पढ़ती हूं तो पतिदेव कहते हैं कि सुबह कोई एक्‍जाम है क्‍या?

- आपने जो 50 किताबें पिछले बरस ली थीं.. ?

- नहीं पढ़ पा रही।

- उनमें से दो किताबें आने-जाने वाली फ्लाइट के लिए बैग में रख लें, आप पढ़ पायेंगी।

- आजकल मृदुला गर्ग की किताब मैं और मैं पढ़ रही हूं।

- मेरी शुभकामना।

- आभार, लेकिन फ्लाइट में अगर साथ में बॉस बैठा हो जो कि अक्‍सर होता है तो वहीं डिस्‍कशन और प्रेजेंटेशन शुरू हो जाते हैं। कई बार तो लैपटाप खोल कर काम करना शुरू हो जाता है।

- मर गये रे ओबामा, एक किताब उसे थमा देना।

- है तो सरदार, लेकिन हिंदी में बात ही नहीं करता। ये सब उसके लिए आउट आफ कोर्स हैं।

- होता है ऐसा भी।

- माफी चाहूंगी जाने का मन तो नहीं हो रहा लेकिन ऑफिस बंद हो चला है। हमें भी घर जाना होगा। हसबैंड लेने आ चुके हैं।

- बेशक।

- फुर्सत से बात करूंगी। जल्‍दी ही, विदा आज, कल तक के लिए।

- जी।

- शुभ रात्रि।

- वंदना जी आपसे खूब बातें और खूब अच्‍छी बातें हुईं। गॉड ब्‍लेस यू।

Ø

- गुड मार्निंग सर।

- गुड मार्निंग वंदना जी।

- सर, कैसे हैं?

- ठीक हूं, आप?

..

..

इसके बाद फेसबुक पर उनकी हरी बत्‍ती तो जलती रही लेकिन आगे बात नहीं हुई।

Ø

- हाय

- शुभ

- ये जादू वाली कहानी आपकी .......सर आप ये शब्‍द कहां से लाते हैं – फोन रखने के लिए मिश्री की सप्‍लाई बंद हो गयी वाह..।

- आ जाते हैं जब लिखने बैठो।

- मैं तो सोच भी नहीं सकती – और मिश्री की सप्‍लाई बंद हो गयी। वाह सिंपली ग्रेट।

- ये 1988 की कहानी है, खूब पढ़ी जाती रही है।

- हा हा।

- अब ये हा हा कार क्‍यों?

- जब आप ये कहानी लिख रहे थे तो मैं पांच बरस की थी और मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि इस कहानी को आगे चल कर बीस बार न केवल पढूंगी बल्‍कि इस कहानी के जादूगर से बात भी करूंगी। आयम सिम्‍पली ऑनर्ड।

- वंदना जी, कल आप कुछ भूल गयीं।

- क्‍या सर?

- कल इस जादूगर का जनम दिन था।

- सच कहूं तो परसों याद था आपका जनम दिन लेकिन कल सारा दिन आपकी इस कहानी के नशे में बौराई रही कि कुछ भी नहीं सूझा। पता नहीं क्‍या हुआ, ऑफिस में पहुंचते ही पीसी खोला, आपकी वेबसाइट पर गयी, कहानी पढ़ी। एक बार, दो बार, पांच बार, दिन भर एक भी काम नहीं निपटा पायी। सॉरी सर, आज शुभकामना लें। देर से दी गयी कामनाएं ज्‍यादा असरदायी होती हैं हाहाहा।

- स्‍वीकार। कोई बात नहीं।

- सॉरी सॉरी सॉरी हज़ार बार सॉरी। कल सारा दिन न तो दिन याद रहा न तारीख याद रही बेशक आपकी वेबसाइट सारा दिन खुली रही। वैसे भी आपकी कहानी की संगत में थी।

- अब दे दें कामना। कल तो मेरा जादू चल गया हा हा हा हा।

- बहुत बहुत शुभकामनाएं। खूब लिखें, यश कमायें।

- स्‍वीकार मित्र। इस कहानी पर वैसे तो सैकड़ों पर आये पर मेरे एक पाठक का खास पत्र है।

- अच्‍छा क्‍या लिखा है उसने?

- जब यह कहानी छपी थी तो वह बीएससी कर रहा था और जब पत्र लिखा तो पीएचडी कर चुका था। लिखा था उसने कि कम से कम पचास बार कहानी पढ़ चुका है और कितने ही मित्रों को पढ़वा चुका हैl

- मैंने आपको बताया न कि मैं तब पांच बरस की थी और शायद एबीसीडी सीख रही थी। काश, उस समय ये कहानी पढ़ी होती तो मेरे जीवन ने कोई और ही करवट ली होती।

- क्‍या मतलब? आप अपनी पसंद का जीवन नहीं जी रहीं क्‍या? ये नौकरी, ये रुतबा, घर-बार, पढ़ना-लिखना?

- जाने दें। अब सारी बातें.. न तो .. बतायी जा.. सकती हैं.. न समझायी ही..।

- आइ कैन अंडरस्‍टैंड।

Ø

- आपकी वाल पर ये लाइनें पढ़ीं - आंखों-आंखों में खेला था एक खेल.....याद है ना.........तुम हार गये, फिर मैं जीती क्यों नहीं.........तुमने कहा था जाओ जियो अपनी ज़िंदगी....जैसे चाहो....तुम तो जी गये, फिर मैं जीती क्यों नहीं.........हाय रब्‍बा, क्‍या लिखती हैं आप?

- जी, थोड़ी-बहुत तुकबंदी करने की कोशिश कर लेती हूं।

- जानता हूं।

- कैसी लगी ये तुच्‍छ तुकबंदी?

- ये तुकबंदी नहीं, जीवन के मार्मिक पलों की कहानी है।

- लेकिन उतनी नहीं जितनी आपकी कहानी दो जीवन समांतर की भाषा है।

- हां शायद, मेरी वह कहानी खूब पढ़ी जाती है। पता नहीं क्‍या कारण है कि मेरे रचे शब्‍द जिन्‍हें पसंद आते हैं, वे उन्‍हें अपना लेते हैं।

- पढ़ी है मैंने। वैसे आपकी सबसे प्रिय कहानी कौन सी है?

- किसी भी लेखक के लिए बहुत मुश्‍किल होता है बता पाना कि उसकी सबसे प्रिय रचना कौन-सी है। मेरे लिए भी संभव नहीं।

- जी, फिर भी, बताइये ना।

- कोई नहीं, हर लेखक यही कहता है कि सबसे अच्‍छी रचना तो अभी लिखी जानी है।

- ठीक है मत बताइये, मैं भी आपको नहीं बताती कि मुझे आपकी कौन-सी कहानी सबसे प्रिय है। ओके बाय।

Ø

- मुंबई कब आ रही हैं?

- इसी संडे।

- मिलेंगी?

- दावतनामे के लिए शुक्रिया। मैं संडे शाम को सात बजे के करीब पहुंचूंगी।

- ओके।

- मेरे साथ डिनर लेना पसंद करेंगी?

- नहीं।

- साफ साफ मना.......... ?

- मैं स्‍टेनलेस स्‍टील बेचने आ रही हूं।

- मुझे स्‍टेनलेस स्‍टील खरीदने में कोई दिलचस्‍पी नहीं है। अलबत्‍ता सेल्‍स पर्सन से मिलने में ज़रूर दिलचस्‍पी हो सकती है।

- डिनर मीटिंग विद क्‍लायंट्स।

- मंडे?

- दिन में ट्रेनिंग है जिसके लिए आ रही हूं और रात को टीम डिनर।

- बहुत टाइट शेड्यूल है आपका?

- ज़िंदगी का सबसे उदास अध्‍याय।

- ये तो कविता हो गयी।

- एक-एक लमहा बिका हुआ है।

- ऐसा तो न कहें, कमाने के लिए कड़ी मेहनत तो करनी ही पड़ती है।

- यहां तो जब से होश संभाला हर पल दूसरों के नाम हुआ है।

- ट्रेनिंग किधर है?

- अंधेरी ऑफिस में?

- ओके।

- क्‍या करें, ज़िंदगी तो दिन भर मुश्‍किल और मुश्‍किल होती जा रही है, और बिना पूछे बता देती हूं कि डिनर नोवोटेल में है। मेरी प्रिय जगह है वो।

- वो जगह है ही ऐसी।

- मुझे समंदर बहुत पसंद है।

- कल हम भी रात बारह बजे जुहू गये थे।

- क्‍या जनम दिन लहरों के बीच मनाया। वॉव, समंदर की एक-एक लहर आ कर आपको बधाई दे रही होगी। रियली आइ मिस्‍ड इट।

- क्‍या बीच में कुछ पल चुराये नहीं जा सकते?

- इस बार मुश्‍किल है। अगली बार पक्‍का।

- हमममममममममममम, वापसी?

- मंगल की रात। उस दिन भी दो मीटिंग्‍स हैं।

- सारा दिन लोग वंदना जी को सुन कर बोर नहीं हो जायेंगे? उन्‍हें कुछ स्‍पेस दें।

- नहीं मुझे सुन कर कोई बोर नहीं होता।

- भला लोरियां सुन कर भी कोई बोर होता है।

- नहीं तो। आपको लगता है मेरी कंपनी मुझे लोरियां सुनाने के लिए हर तीसरे महीने ढेर सारा पैसा खर्च करके मुंबई बुलाती है?

- वही तो मैं सोच रहा था। मैं आपसे सिर्फ सात किलोमीटर दूर आपको मिस करूंगा।

- मुझे पता है। मैं बहुत प्‍यारी आइ मीन बहुत सारी बातें करती हूं।

- वो मैं जानता हूं।

- कैसे?

- आपके प्रोफाइल पर आपकी तस्‍वीरों का जो कलेक्‍शन है वही आपकी चुगली खा रहा है कि ये लेडी बातें बहुत करती होगी।

- कमाल है, तस्‍वीरें ये भी बता देती हैं?

- यस, वंदना जी स्‍पीकिंग ऑन स्‍टील रॉड्स इन प्‍यारी प्‍यारी आवाज़ एंड अंदाज़।

- हाहाहाहहाहाहाहाहा। सिर्फ रॉड्स नहीं, बल्‍कि एसएस शीट्स, कॉइल्‍स, बार्स एवरी थिंग।

- अब आप सुनिये वंदना जी से इस्‍पाती दुनिया की गतिविधियों की खबरें।

- अभी आठ पेज का न्‍यूज लेटर एडिट कर रही हूं। कैच यू लेटर। बाय सर।

- प्‍लीज टेक यूअर ओन टाइम। एनजॉय।

Ø

.....सुनसान सड़क, घना कोहरा, कड़कड़ाती सर्दी और तेज रफ्तार दुपहिए पर दो जवां दिल....लड़की को सर्दी लग रही थी...लड़के को भी सर्दी लग रही थी पर फिर भी उसने अपनी जैकेट उतार कर लड़की को दे दी और साथ ही दे दिया ..जीवन भर सहेजने को एक अनमोल लम्हा...।

- ये क्‍या है?

- मेरी तुकबंदी। आपको कैसी लगी?

- बिल्कुल फिल्मों की तरह।

Ø

- ई बुक भेजने के लिए थैंक्‍स। मैंने सहेज कर रख ली है, वैसे तो आपकी सारी कहानियां मेरी डेस्‍क टॉप पर ही सेव हैं। आपकी वेबसाइट को भी बुकमार्क कर रखा है।

- ग्रेट फीलिंग फार मी।

Ø

- मैं वापिस आ गयी।

- स्‍वागत, लीजिये आपको अपनी पसंदीदा ग़ज़ल का लिंक भेज रहा हूं।

- किसकी है?

- खुद सुनें।

- ..

- ..

- बेहद खूबसूरत ग़ज़ल का लिंक भेजने के लिए कैसे शुक्रिया कहूं। पता नहीं कैसे अनसुनी रह गयी आज तक जबकि गुलाम अली की ग़ज़लों की कई सीडी हैं मेरे पास –

हम तेरे शहर में आये हैं मुसाफिर की तरह...

सिर्फ इक बार मुलाकात का वादा कर लो।

वाह। सुन कर मैं तृप्‍त हो गयी। डेस्‍क टाप पर सेव कर ली है मैंने।

- एक बात कहूं बुरा तो नहीं मानियेगा?

- ये कम्‍बख्‍त बुरा मानने की शर्त बहुत नागवार गुज़रती है। कह डालिये। बड़े हैं हमसे फिर भी हमारी इज्‍ज़त-आबरू का ख्‍याल रखेंगे।

- अरे, इतनी बड़ी बात नहीं है। आपने अभी कहा कि आपके पास गुलाम अली की ग़ज़लों की कई सीडी हैं, बस यही नहीं सुन पायीं।

- तो?

- कहने को तो आपके पास कई सौ किताबें हैं जिनके नाम भी आपको पता नहीं होंगे।

- आखिर आप आ ही गये लेखकीय बदमाशी पर। लेकिन हम आपको बताना चाहेंगे कि आपके आदेश के अनुसार एक किताब सिरहाने, एक किताब रोज़ाना के ऑफिस के बैग में और दो किताबें मुंबई के बैग में रखी जा चुकी हैं। नाम जानना चाहेंगे?

- नहीं, इतना ही काफी है।

- आपको एक बात और बताना चाहेंगे, आपके पूछे बिना।

- स्‍वागत है, बतायें।

- कल हम बच्‍चों के साथ मॉल गये थे। वहां एक बुक स्‍टोर में गये और वहां हमने उन्‍हें किताबें और सिर्फ किताबें दिलवायीं।

- वाह, ये तो बहुत ही अच्‍छी खबर है।

- और सुनें।

- जी।

- कल रात हमने दोनों बच्‍चों को उन्‍हीं किताबों में से कहानियां पढ़ कर सुनायीं।

- ग्रेट। मन प्रसन्‍न भया।

- सब आपकी सोहबत का असर है। पता नहीं आगे क्‍या-क्‍या गुल खिलाये।

- कम से कम गुल गपाड़ा तो नहीं करेगा।

- ये तो वक्‍त ही बतायेगा। सी यू सून।

- बाय

Ø

- आपने अब तक बताया नहीं।

- क्‍या नहीं बताया?

- आपकी पांच प्रिय कहानियां।

- ओके, मैं बाद में लिख दूंगा।

- अभी आपकी कहानी दो जीवन समांतर एक बार फिर पढ़ने के लिए खोल ली है।

- वाह।

- एक बात बतायें।

- जी।

- नहीं दो। एक बतानी है और एक पूछनी है।

- पहले बताने वाली बतायें, फिर पूछने वाली पूछें।

- आपको विश्‍वास नहीं होगा लेकिन ये सच है कि आपकी कोई न कोई कहानी डेस्‍क टॉप पर खुली हुई मिनिमाइज़ रहती ही है।

- आज आपने मुझे खुश करने वाली खबरें रोज़ सुनाने की कसम खा रखी है क्‍या?

- अब पूछना है कुछ।

- पूछें।

- आपकी कहानियों में टेलिफोन बहुत आता है। एक अहम किरदार की तरह। कोई खास वजह?

- टेलिफोन ने मुझे बहुत सारी सारी और बेहद समझदार दोस्‍त दी हैं अलग-अलग वक्‍त पर। वैसे मेरी कहानियों में घर भी बहुत आता है। सच कहूं तो घर पर लिखी गयी कहानियों का एक अलग से संग्रह भी है - खो जाते हैं घर।

- अच्‍छा?

- जी, सच तो ये है कि घर या फोन मेरे लिए शब्‍द मात्र नहीं, मेरे किरदार हैं। मेरे जीवन का हिस्‍सा हैं। प्राण वायु।

- टेलिफोन की बात तो समझ में आयी लेकिन कहानियों में घर की वजह?

- मैं अपनी ज़िंदगी में अलग-अलग वक्‍त पर अलग-अलग कारणों से और अलग-अलग शहरों में 18 बरस अकेले रहा इसलिए घर बार-बार हांट करता है।

- क्‍या समय के साथ-साथ लेखन में बदलाव आता है या आना चाहिये?

- आता है।

- कैसा?

- कभी अच्‍छा, कभी बुरा।

- वो कैसे?

- बदलाव तो अच्‍छे के लिए होना चाहिये लेकिन तकलीफ तब होती है जब लेखक पहले लिखे गये से बेहतर लिख नहीं पाता और उससे खराब लिखना नहीं चाहता।

- तो?

- तो क्‍या? इस चक्‍कर में कई बार लेखन छूट जाता है।

- ऐसा भी होता है?

- मेरे मामले में तो छूट ही गया।

- कैसे?

- पिछले 8 बरस में सिर्फ दो कहानियां लिखीं।

- मतलब लेखन बहुत साधना और धैर्य मांगता है।

- हां, निरंतरता भी। बेशक वक्‍त के साथ अनुभव अैर ज्ञान बढ़ते हैं लेकिन कई बार हम बदलते वक्‍त के साथ नहीं चल पाते और कहानी के ट्रीटमेंट में पीछे रह जाते हैं।

- आयेंगे अच्छे दिन भी।

- थैंक्‍स, दो उपन्‍यास शुरू करके बैठा हूं, आगे नहीं बढ़ रहे।

- कहां अटक गये?

- मन थिर नहीं है।

- आप जैसे शब्‍दों के जादूगर के साथ भी ऐसा होता है?

- हो रहा है वंदना जी।

- कोई बात नहीं, छोटा-सा ब्रेक ले लीजिये।

- ब्रेक ही तो चल रहा है, लम्‍बाााााााााााााााााााा, आठ बरस से।

- फिर भी कोई बात नहीं, जितना लम्‍बा ब्रेक उतनी ही बेहतर रचना।

- देखें कब तक।

- उपन्‍यास किस विषय पर है?

- एक अतीत पर और एक युवा पीढ़ी के कठिन समय पर।

- दोनों अच्‍छे हैं।

- अतीत वाला छोड़ के अब युवा पीढ़ी पर ही लिखना है।

- ओके, कोई खास पहलु?

- हां उसके कन्‍फ्यूजन, संवाद हीनता, ज़रूरत से ज्‍यादा एक्‍सपोजर और ...

- और?

- बैकग्राउंउ में बालिवुड का संघर्ष।

- बालिवुड ......... हममममममम।

- दरअसल उपन्‍यास मुंबई के संघर्षों पर ही है। एक समस्‍या और है।

- क्‍या?

- पता नहीं कि हिंदी में लिखूंगा या अंग्रेजी में।

- या दोनों में.. .. हा हा हा हा, यही ना?

- ये भी है।

- सुनो - क्यों भागता है मन...अतीत के बीहड़ में...काश यूं होता.... जो बीत गया वो गुज़र भी जाता.... ना कोई याद कचोटती, ना पछतावा जलाता, ना कोई याद करता ना कोई याद आता.....पर नहीं ये मन जाता है उन गलियों में जहां यादों के रंग फैले हैं..... कुछ चंपई से रंग, कुछ चटक लाल, थोड़े गुलाबी पर कुछ धूसर और मटमैले भी.... लौटता है मन उन रंगों में सराबोर और मैं ठगी सी देखती रह जाती हूं .... कितने बंधनों से बांधती हूं इस मन को, कितने प्रलोभन देती हूं....कितना रोकती हूं पर ये भाग जाता है लांघ के हर परिधि, तोड़ के हर बंधन, फांद के हर दीवार और मैं रह जाती हूं “जड़वत“ अपनी जगह... क्योंकि मैं मन सी चंचल तो हूं पर आज़ाद नहीं... निश्चल तो हूं पर अनजान नहीं.......अकेली तो हूं पर वीरान नहीं....!

- बेहतरीन।

- अतीत पर कुछ रेंडम थॉट्स।

- मेरे मन की बात।

- सच!! आपके मन तक पहुंच गयी...मैं तो निहाल हो गयी!

- ग्रीटिंग्‍स टू द गर्ल हू थिंक्‍स द वे आइ थिंक एंड क्राई।

- रीयली आइ क्राई विदाउट टीयर्स।

- वॉव।

- अतीत के ज़ख्‍मों की टीस ऐसी ही होती है।

- आप समझ सकती हैं।

- एक बात और।

- जी?

- वर्तमान कई बार कम टीस नहीं देता।

- देता तो है। चार्ली चैप्‍लिन ने कहा था – मैं बरसात में भीगते हुए रोता हूं ताकि कोई मेरे आंसू न देख ले।

- सही कहा था उसने और ये वही कह सकता था ये बात! रोना तो छुप कर ही होता है, वजह कोई भी हो। दिखा कर तो बुजदिल रोते हैं। एक बात बताऊं?

- ज़रूर।

- मेरे चेहरे पर तो मुस्‍कुराहट स्‍थायी रूप से चिपकी हुई है।

- आई नो।

- लेकिन दर्द सबकी निगाह में नहीं आयेगा।

- कुछ शेयर करूं।

- बेशक।

- अपने ऊपर दो लाइनें लिखी थीं – बहुत तारीफ करता है ज़माना मेरे चेहरे के उजाले और हँसी की खनक की, कौन जाने दिल के तहखाने में कितनी सियाह कोठरियां और नि:शब्‍दता है।

- समझ सकता हूं वंदना जी।

- ..

- ..

Ø

- हैलो सर

- हैलो

- हैप्‍पी होली सर

- हो ली

- ली हो

- जी

- सर आज ऑफिस आते ही आपकी कहानी घर बेघर पढ़ी।

- जी, क्‍या कहती है?

- उम्‍दा कहानी!

- जी

- मुझे भी गोपालन पर दया आयी, उसे सचमुच हार्ट एटैक तो नहीं आया था ना?

- ड्रामा था। आखिरी दांव घर में टिके रहने का।

- अच्‍छा, लेकिन घर से निकाला जाना बहुत तकलीफ देता है।

- वंदना जी तकलीफ तो इस बात से भी होती है कि कोई आपके घर जबरदस्‍ती कब्‍जा करके बैठ जाये।

- वो भी सच।

- मैंने गोपालन की बीवी की आंखों में बेघर किये जाने का डर देखा था।

- वो उसकी बीवी थी?

- बीवी या जो भी थी लेकिन डर तो असली था ना।

- जी। पता है, मुंबई से मेरी फ्लाइट मिस हो गयी थी।

- हां, पढ़ा था फेसबुक पर कि आप एअरलाइंस को लतिया रही थीं।

- हां, एयरलाइंस स्‍टाफ की लापरवाही से मिस हुई थी लेकिन एक घंटे बाद की फ्लाइट मिल गयी थी।

- मैं सोच रहा था कि फोन करने का समय निकाल लेंगी।

- बहुत सारी मीटिंग्‍स थीं।

- मैं समझ सकता हूं लेकिन समय चुराना तो आप जानती ही हैं।

- आप ही ने बताया था।

- मुझे लगा कि आपको अपनी पसंद के कामों के लिए समय चुराना आता है।

- चुराया ना घर बेघर पढ़ने के लिए।

- नहीं मैं पूरे स्‍टे के दौरान फोन करने के लिए समय चुराने के बारे में बात कर रहा हूं।

- हाहाहाहाहा, कई कामों में उलझी रहती हूं, कुछ हो पाते हैं, कुछ अगली लिस्‍ट में चले जाते हैं।

- मल्‍टी टास्‍किंग, पता है मेरे पिताजी एक साथ पांच छ: काम करते हैं।

- क्‍या क्‍या?

- जब बैठते हैं तो टीवी ऑन, रेडियो ऑन, हाथ में अखबार, पास में रखा नाश्‍ता, बज रहा म्‍यूजिक सिस्‍टम और उसके ईयर फोन कानों में, टेलिफोन, मोबाइल और इन सबके साथ मेरी मां से बातचीत।

- ग्रेट।

- इतना ही नहीं, निगाह बाहर गली में कि कब उनकी पसंद की सब्‍जी वाला या मोची या रद्दी वाला या कोई और गुजरे तो उसे बुलायें। ये होती है मल्‍टी टास्‍किंग, 85 बरस की उम्र में भी।

- उन्‍हें मेरा सलाम कहें। वैसे मैं भी इस समय कई काम एक साथ कर रही हूं।

- .. ..

- बीच-बीच में ईमेल पढ़ना, जवाब देना, एक सखी की शादी की फोटो आयी हैं, वे देख रही हूं, आपसे चैट कर रही हूं, बीच-बीच में फोन बजता है, मोबाइल बजता है, बॉस का बुलावा आता है, साथ-साथ चिप्‍स खा रही हूं। कॉफी आने वाली है।

- लेकिन अगर मेरे पिताजी से पूछें कि क्‍या खबर सुनी, देखी, पढ़ी, कौन-सा गाना सुना, मां ने क्‍या तो शायद एक बात भी न बता पायें।

- आप खुद क्‍या कर रहे हैं इस समय टास्‍क मास्‍टर जी?

- ओके, इस समय होम थियेटर पर एक कोरियन फिल्‍म लगायी है, वो देख रहा हूं, दोनों ईमेल एकांउट खुले हैं, फेस बुक पर आपसे चैट, गूगल चैट खुला है, बीच-बीच में दरवाजे पर कोई आ जाता है और मेरी प्‍यारी लेमन टी। मोबाइल जी तो हैं ही सदाबहार साथी।

- जी।

..

Ø

- कैसी हैं?

- अच्‍छी हूं सर

- और आप?

- ठीक हूं।

- फेसबुक आपके अपडेट से पता चला कि आप हमारे शहर में हैं?

- कह सकती हैं।

- कब तक सर?

- हूं कुछ दिन।

- अब मैं पूछ रही हूं मिलेंगे सर? शनिवार मेरी छुट्टी रहती है।

- ज़रूर।

- कहां ठहरे हैं?

- जीके, वैसे वहां तो सिर्फ रात गुज़ारनी होती है, दिन भर तो बाहर ही कहीं भी।

- अच्‍छा।

- मैं आपसे बहुत दूर नहीं।

- मतलब?

- ऑफिस नेहरू प्‍लेस में और घर ईस्‍ट आफ कैलाश, जानते हैं क्‍या?

- कोई भी जगह मेरे लिए दूर नहीं जब मित्र का न्‍यौता हो। वैसे भी जानता हूं दिल्‍ली का नक्‍शा और दिल्‍ली की नक्‍शेबाजी भी हा हा हा।

- आपसे मुलाकात करना अच्‍छा लगेगा।

- दिन तो बता दिया आपने। किस समय मिलना हो सकता है?

- जब आप फ्री हों, शनिवार, 12 बजे के बाद कभी भी, छुट्टी के दिन ज़रा देर से उठती हूं।

Ø

हैलो

..

..

- सॉरी सर।

- जी।

- ऑफिस में बीच-बीच में काम आ जाते हैं।

- जानता हूं, तो तय रहा। शनिवार का दिन आपके नाम।

- बेशक।

- तय रहा।

- जी

- अभी तो तीन दिन हैं, समय और जगह तय कर लेंगे।

- बताइये, कौन-सी कहानी फिर से पढ़ कर आऊं?

- आप तो मुझे लगातार पढ़ती ही रहती हैं। सबसे ताजा कहानी डरा हुआ आदमी है।

- पढ़ी है। अब डरी हुई लड़की भी लिखिये।

- डरी हुई लड़की पर क्‍यों?

- अच्‍छा डरपोक लड़की पर लिखिये।

- आपसे बात करने के बाद लिखूंगा निडर लड़की। मेरी आधे से ज्‍यादा कहानियां औरत और घर को ले कर हैं।

- बतायें ना कोई कहानी

- मर्द नहीं रोते भी पढ़ी जा सकती है।

- फिर से मर्द?

- नहीं।

- हा हा हा, उदास करने वाली मत बताइये।

- सही पते पर पढ़ लें।

- आपकी कहानियों में हमेशा मुख्‍य चरित्र पुरुष ही होता है।

- हमम

- छूटे हुए घर पढ़ लें।

- परसों ही पढ़ी।

- अच्‍छा पत्‍थर दिल पढ़ लें। पत्र शैली में है। पत्‍थर दिल एक लड़की की दर्दभरी दास्‍तान है। जिस लड़की पर लिखी थी वही नहीं पढ़ पायी। चाहती रही वह।

- पढूंगी पत्‍थर दिल लड़की।

- लड़की पत्‍थर दिल नहीं, उसके हिस्‍से का आदमी पत्‍थर दिल रहा।

- कोई बात नहीं।

- फर्क तो है ना।

- मुझे बहुत पसंद है पत्र शैली में लिखी गयी कहानी। मैंने भी लिखी हैं इस शैली में कहानियां।

- हां, डायरी या पत्र शैली में आप अपने आपको खोल पाते हैं।

- वैसे, आपकी खो जाते हैं घर भी बेहद नाजुक कहानी है।

- हां, मैं चाहता रहा कि कोई उस पर एक घंटे की फिल्‍म बनाये।

- आप तो मुंबई में हैं, और आजकल फिल्‍म वालों को अच्‍छी कहानी की तलाश रहती है।

- कहने की बातें हैं, सच मैं जानता हूं।

- ज़रूर बनेगी आपकी कहानी पर फिल्‍म।

- वैसे छोटे नवाब बड़े नवाब और डर दोनों दूरदर्शन पर आ चुकी हैं।

- बाय सर।

Ø

- हैलो, कल आपको खूब याद किया लेकिन डिस्‍टर्ब इसलिए नहीं किया कि छुट्टी के दिन पर पूरा हक परिवार का होता है।

Ø

तो इस तरह हमारी पहली मुलाकात हुई थी। किसी भी फेसबुक महिला मित्र से पहली मुलाकात। बेशक इस मायने में खुशनसीब रहा कि मेरी अधिकतर महिला फेसबुक महिला मित्रों ने दो-चार बार चैट करने के बाद ही मेरा नम्‍बर मांग लिया और चैट करने के बजाये फोन पर बात करना ही पसंद किया। चाहे दो-चार बार ही बात की हो या बीच-बीच में फोन आते-जाते रहे हों।

Ø

अजीब है फेसबुक भी। चेहरे विहीन नाम और नाम विहीन चेहरे। कई बार तो पता ही नहीं चलता कि आप आखिर बात ही किससे कर रहे हैं। बहुत बाद में पता चलता है कि हम किसी छुपे रुस्‍तम से बात करते चले आ रहे थे और उसकी पहचान वह नहीं जो उसका फेसबुक खाता बता रहा था और मैत्री की मंशा भी कुछ और थी। तब ऐसे लोगों को ब्‍लॉक करने या अनफ्रेंड करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। ऐसे में परिचित मित्रों के अलावा जब नयी बनी महिला मित्र खुद ही नम्‍बर मांग कर बात करना शुरू करती हैं या बात करने की इच्‍छा जाहिर करती है, तब अच्‍छा तो लगता ही है, संबंध कुछ दूर तक चल भी पाते हैं। हां, मैं ये शर्त ज़रूर रख देता हूं कि पहला फोन उन्‍हीं की तरफ से आना चाहिये।

Ø

कल रात ही फोन पर तय हो गया था कि हम उनके घर के पास ही इस्‍कॉन मंदिर के गोविंदा रेस्‍तरां में मिलेंगे। मैंने देखा है दिल्‍ली का इस्‍कॉन मंदिर लेकिन ये नहीं जानता था कि उसमें ऐसा एसी रेस्‍तरां भी है जहां आराम से बैठ कर बात की जाये। उन्‍होंने ही मज़ाक में कहा था कि दिन में वहां मिलें तो बिना लहसुन के 56 व्‍यंजनों का बुफे लंच और अगर शाम को मिलें तो स्‍वादिष्‍ट खिचड़ी का डिनर वहां की विशेषता है। लेकिन मेरे हिस्‍से में न तो वहां का लंच लिखा था न डिनर। मैं तय समय पर एक बजे वहां पहुंच गया था। कुछ ज्‍यादा ही गहमा गहमी नज़र आ रही थी। भीतर पहुंचा तो पूरा रेस्‍तरां रंग बिरंगे मेहमानों से भरा हुआ था। किसी शादी की दावत चल रही थी। इतनी भीड़ में वंदना जी को खोजना आसान काम नहीं था। मैं उन्‍हें बिना फोन किये ही खोजना चाहता था जो मुश्‍किल ही नहीं, नामुमकिन लग रहा था। मैं एक खाली कुर्सी पर बैठ गया और आसपास का जायजा लेने लगा। तभी नवेली दुल्‍हन को लाया गया और वह मेरे साथ वाली खाली कुर्सी पर बैठ गयी। सारे फोटोग्राफर दुल्‍हन को देखते ही अपने कैमरे लिये उसकी तरफ लपके और फोटो सेशन शुरू हो गये। तय था उसकी हर फोटो में मैं भी पूरी शिद्दत से मौजूद था। इससे पहले कि कोई मुझसे वहां से उठने के लिए कहता, मैं खुद ही उठ गया।

तभी मेरा मोबाइल बजा। लाइन पर वंदना जी थीं। वे भी उसी भीड़ में मुझे खोज रही थीं। ठीक मेरे पास खड़ी हुईं। दोनों ने ही एक दूजे को पहचान लिया। हम सदियों से बिछुड़े दो दोस्‍तों की तरह तपाक से मिले।

तय था, ऐसे माहौल में न तो बात हो सकती थी और न ही 56 व्‍यंजनों का आनंद ही लिया जा सकता था। वे मेरा हाथ थाम कर बाहर ले आयीं। मुझसे उनका पहला संवाद था – बीयर तो पी लेते होंगे। मेरे हां या न कहने से पहले ही वे उसी ऑटो में सवार हो चुकी थीं जिसमें वे मिनट भर पहले अपने घर से यहां तक आयी थीं। ऑटो वाले को नेहरू प्‍लेस कह कर अब वे मेरी तरफ मुखातिब हुईं। दोबारा बहुत गर्मजोशी से मेरी तरफ हाथ बढ़ाया और हाथ मिलाने के बाद हाथ छोड़ा ही नहीं। मेरा हाथ अभी भी उनके हाथ में था। लगभग उन्‍हें छूता हुआ-सा। उन्‍होंने भरपूर मुस्‍कुराहट के साथ मेरा हाथ दबाते हुए कहा - आपसे कहा था ना, जल्‍द ही आपसे मुलाकात होगी। आपके शहर में नहीं हो पायी तो क्‍या हुआ, हमारे शहर में हो गयी। मैं मुस्कुराया। कुछ कहने का मतलब ही नहीं था। मैंने हौले से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश की लेकिन ऑटो के नेहरू प्‍लेस में रुकने तक वे मेरा हाथ उसी तरह से थामे रहीं।

वे जानती थीं कि बार कहां पर है। मैं हैरान भी हो रहा था कि कहां तो वे मुझे इस्‍कॉन में बिना लहसुन के 56 भोग का खाना खिला रही थीं और कहां सीधे ही अपने ऑफिस के इलाके में एक खूबसूरत बार में दिन के डेढ़ बजे बीयर पिलाने ले आयीं।

Ø

इससे पहले कि वेटर हमारे हाथों में मीनू थमाता, वे स्‍ट्रांग चिल्‍ड बीयर का ऑर्डर दे चुकी थीं। वेटर ने बहुत विनम्रता से बताया कि यहां केवल माइल्‍ड बीयर ही सर्व की जाती है। वंदना जी ने मुंह बिचकाते हुए हाथ के इशारे से उसे वही लाने के लिए कह दिया और मुझसे पूछने लगीं – मैं बहुत खराब औरत हूं। कहां चले आये आप मुझसे मिलने। मुझे झटका लगा – ये क्‍या कह रही हैं वंदना जी। मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही कह उठी – देखिये ना, आप इतने बड़े और सम्‍मानित लेखक हैं, आपके लिखा सारा साहित्‍य पढ़ा है मैंने और आपके सामने मेरी हैसियत कुछ भी नहीं और आपको सीधे बार में ले आयी बीयर पिलाने। आपसे पहली ही मुलाकात के दो मिनट के भीतर – वे पहली बार खिलखिलायीं – क्‍या करूं। न तो आप जैसे अच्‍छे दोस्‍त रोज़ मिलते हैं न कभी इतनी फुर्सत मिल पाती है कि दौड़ती-भागती ज़िंदगी में से अपने लिए कुछ हसीन पल चुरा लिये जायें। आज मौका मिला है तो इसका एक-एक पल भरपूर जीऊंगी।

- बेशक।

- हूं ना मैं बुरी औरत?

- इतनी बुरी भी नहीं कि एक दोपहर आपके साथ न गुज़ारी जा सके!

- हा हा हा अभी तो आप मिले ही हैं। जब एक एक करके मेरी सारी बुराइयां सामने आयेंगी तो तौबा करेंगे आप कि किस जीती-गती मुसीबत से पाला पड़ गया

- वो मेरी जिम्‍मेवारी।

तब तक बीयर आ गयी है और गिलासों में उड़ेली जा चुकी है। साथ में हैं चार पांच रंग के पापड़ों के टुकड़े।

- ज़रा हम भी जानें कि कौन-कौन सी बुराइयों की जीती जागती खान हैं आप?

- रहने दें, आज की ये यह दोपहर बहुत नसीबों के बाद मिली है इस बदनसीब को। लेट्स सेलिब्रेट। चीयर्स और उन्‍होंने अपना गिलास ऊपर करके मुझे भी शुरू करने का इशारा किया है।

मैंने भी अपना गिलास उठा कर घूंट भरा है और पूछा है - फेसबुक से निकल कर रू ब रू मिलने वाला क्‍या मैं पहला आभासी मित्र हूं?

- जी फेसबुक से फोन मित्र तो कई बने। जब भी कोई कहानी अच्‍छी लगती है तो फोन पर ही बधाई देती हूं लेकिन आमने-सामने मुठभेड़ आपसे ही हो रही है। वे बीयर के ठंडे गिलास के घेरे पर अपनी उंगली फेर रही हैं।

- आप अपनी बतायें, उन्‍होंने अपनी तरफ इशारा करते हुए अचानक पूछा है – मैं पहली?

- नहीं आखिरी। मैं हँसा हूं।

- मतलब? उन्‍होंने आंखें तरेरीं – क्‍या मुझसे मिलने के बाद किसी और से मिलने की इच्‍छा ही नहीं रह जायेगी? वाह जनाब। हमें नहीं पता था कि हम इतने लकी हैं। आप हमसे पहले क्‍यों नहीं मिले?

मैं दोबारा हँसा - पहले मिलतीं तो आखिरी कैसे होतीं?

- टू स्‍मार्ट। आइ लाइक इट। उन्‍होंने आंखें झपकायीं।

तब तक वे बीयर रीपीट करने का इशारा कर चुकी हैं।

मैंने अपना गिलास खाली करते हुए पूछा - जब मैंने कहा कि मैं निडर लड़की पर कहानी लिखूंगा तो आपने ये क्‍यों कहा कि अगली कहानी कमज़ोर लड़की पर लिखना?

तभी मैंने उनकी तरफ देखा - वे नि:शब्‍द रो रही थीं। आंखें बंद थीं उनकी और लगातार आंसू उनके गालों पर ढरक रहे थे। तभी एक आंसू टप से उनके बीयर के गिलास में गिरा। मैं घबरा गया। ये क्‍या हो गया - आखिर ऐसा क्‍या कह दिया मैंने।

पूछा मैंने - वंदना जी आप ठीक तो हैं ना? क्‍या हो गया आपको? आयम सॉरी अगर मैंने कुछ गलत कह दिया।

उन्‍होंने आंखें खोलीं, मेरी तरफ देखा, आसपास देखा और मेरे हाथ पर अपना हाथ रखा - कुछ नहीं, सॉरी सर, कुछ याद आ गया था। मैंने पेपर नैपकिन उनकी तरफ बढ़ाया। उन्‍होंने बहुत करीने से अपनी आंखें पोंछीं, मुस्‍कुराने की कोशिश की, अपना गिलास उठाया, एक ही घूंट में हलक से नीचे उतारा और अपनी दोनों आंखें झपकाते हुए कहा - मुझे कई बार लगा, आपकी कई कहानियों की नायिका में ही हूं। बार-बार लगता रहा कि आपकी सारी नायिकाएं जो भी कहती हैं, मेरा ही दर्द बयान करती हैं लेकिन फिर लगता रहा कि ये तो हमेशा होता है कि हमें अपने प्रिय लेखक की सारी रचनाओं को पढ़ कर यही लगता है कि अरे, ये तो हमारी ही कहानी है। लेखक को इसके बारे में कैसे पता चला। तो सर, मैं यही सोच रही थी कि आपने तो मर्दों की ही कहानियां ज्‍यादा लिखी हैं। डरे हुए मर्द, रोते हुए मर्द, अपने फैसले न ले पाने वाले मर्द लेकिन आपने मेरे जैसी कमज़ोर लड़की पर कहां लिखी है कहानी? वैसे आपके पास नायिकाएं भी हैं लेकिन वे मेरी तरह कमज़ोर नहीं। वे तो अपने हक की लड़ाई लड़ना जानती हैं। लिखेंगे न अगली कहानी मुझ पर? एक कमज़ोर लड़की पर! उन्‍होंने फिर आंखें झपकायीं।

अब मैंने उनकी तरफ पहली बार गौर से देखा। गोरा रंग, खूबसूरत चेहरा, उम्र तीस बत्‍तीस के करीब, दोनों गालों पर पड़ते गड्ढे, ऊपरी होंठ पर जैसे बैठा हुआ सा नन्‍हां-सा तिल, जिसे बरबस छू लेने को जी चाहे। उन्‍होंने जींस के साथ डिज़ाइनर कुर्ता पहना हुआ है। एक हाथ में बड़ा-सा कड़ा। माथा चौड़ा और बाल पॉनी टेल के रूप में बंधे हुए। मैं बेशक पिछले घंटे भर से उनके साथ हूं लेकिन पहली बार उन्‍हें इस तरह से गौर से देख रहा हूं। वे बेहद आर्कषक लगीं मुझे। उन्‍होंने मुझे अपनी तरफ इस तरह से देखते हुए देख लिया है। पूछा है – क्‍या देख रहे हैं सर?

- आपको।

- ऐसा क्‍या है हममें कि आप इतनी देर से इस तरह स्‍नेह से देखे जा रहे हैं?

- अपनी आभासी मित्र को पहली बार रू ब रू देख रहा हूं।

- लेकिन मैं तो आपके साथ और आपके सामने इतनी देर से हूं। अब अचानक?

- बस मन किया।

- कैसा लग रहा है?

- अविश्‍वसनीय किंतु सच।

- सच? उनकी आंखों में हैरानी है।

मैं हँसा हूं – क्‍या सच की भी डिग्री होती है। सच तो सच।

उनकी आंखों में अभी भी उनका प्रश्‍न टंगा हुआ है। वे बीयर रीपीट करने का आर्डर दे चुकी हैं। ये पांचवी बीयर है।

- आपने मेरी बात का जवाब नहीं दिया?

- वंदना जी, आपने कई सवाल एक साथ पूछ डाले। पता नहीं सबके जवाब मेरे पास हैं भी या नहीं। अव्‍वल तो यही समझ में नहीं आ रहा कि आप कमज़ोर लड़की कैसे हो गयीं। भला आप जैसी मैच्योर और ज़हीन लड़की कमज़ोर होने लगे तो हो चुका दुनिया का कारोबार।

बीच बीच में कई बार उनका मोबाइल बजा है। दो एक बार तो उन्‍होंने उठाया ही नहीं और जब उठाया तो बता दिया कि नेहरू प्‍लेस में बैठी हूं। दूसरी तरफ उनके पति ही रहे होंगे, क्‍योंकि अगले सवाल के जवाब में उन्‍होंने यही कहा कि हां, बीयर पी रही हूं और फोन काट दिया और मेरी तरफ देख कर कहा - देख ली कमज़ोर लड़की की कहानी। अपने तरीके से वह एक दोपहर भी नहीं जी सकती। खैर, ये बताइये सर कि, क्‍या किसी के चेहरे पर लिखा होता है कि वह बहादुर है या कमज़ोर?

- हां, लिखा तो होता है। इतनी परख तो...।

- झूठ बोलते हैं चेहरे और ऐसे चेहरों को पढ़ने वाले। लगा वे फिर रो देंगी - आपकी याददाश्‍त बहुत कमज़ोर है। मैंने आपको लिखा था –

बहुत तारीफ करता है ज़माना मेरे चेहरे के उजाले और हँसी की खनक की,

कौन जाने दिल के तहखाने में कितनी सियाह कोठरियां और नि:शब्‍दता है।

उनका मूड ठीक करने के लिए मैंने कहा है - आप सही कह रही हैं। चेहरे के उजाले भीतर के अंधेरों के सच को बयान नहीं कर सकते। जब आपका जन्‍म भी नहीं हुआ था तब की सुनी अनूप जलोटा की गायी एक ग़ज़ल की दो लाइनें सुनाता हूं - ये लाइनें भी आप ही की बात कह रही हैं। मुलाहिज़ा फरमाइये –

बाहर से जो देखते हैं समझेंगे किस तरह

कितने ग़मों की भीड़ इस आदमी के साथ।

- सच, मेरे ही मन की बात कही है उन्‍होंने।

- बेशक आपके जनम से पहले कह गये वे आपके मन की बात।

- तो सर आप कब लिखेंगे मेरे मन की बात?

- अभी आपको जाना ही कितना है वंदना जी कि आपके दर्द की तह तक उतर कर उसे शब्‍दबद्घ कर सकूं।

मैंने जैसे हाथ खड़े कर दिये हैं। जानता हूं, इस तरह से कहानियां नहीं लिखी जातीं। काश, ऐसा हो पाता।

- सर, अभी तो पहली मुलाकात है। पहली ही बार में हम आपसे इतने बेतकल्‍लुफ हो गये कि सीधे बीयर की मेज़ पर आ बैठे, आपसे इतनी बातें कर रहे हैं। आधे से ज्‍यादा राज़ तो आपको चैटिंग में ही बता चुके। रही सही कसर भी पूरी हो ही जायेगी। इतने भरोसे वाली मित्र की कहानी तो आपको लिखनी ही चाहिये।

- आप कुछ भी हो सकती हैं लेकिन कमज़ोर तो नहीं ही हो सकतीं।

- अब मैं क्‍या कहूं और कैसे कहूं। काश, कहीं इस तरह के सर्टिफिकेट बाज़ार में मिलते जिन पर लिखा होता कि इस प्रमाणपत्र की धारक सचमुच दुखी, परेशान, कमज़ोर और बेहद भावुक है और तीस बरस की उम्र में चार बार खुशकुशी की कोशिश कर चुकी है। एल्‍कोहोलिक है। चार पैग से कम में बात नहीं बनती। रात-रात भर जाग कर करवटें बदलती है लेकिन सुबह वक्‍त पर उठ कर बच्‍चों को तैयार करती है, उनके ब्रेकफास्ट और टिफिन तैयार करती है। उन्‍हें स्‍कूल की बस तक छोड़ती है। पति के लिए और अपने लिए टिफिन तैयार करती है। ऑफिस जाती है। दिन भर खटती है और शाम को जब थकी हारी घर वापिस आती है तो सारे काम उसकी राह देख रहे होते हैं। उसके पास अपने लिए कभी भी वक्‍त ही नहीं होता। आराम, मन पसंद पढ़ना, संगीत सुनना, अपने आप से बातें करना, कुछ लिख कर अपने आपको हलका करना, ये सब पैंडिंग चलते रहते हैं। जैसे बिन पढ़े अखबार या पत्रिकाएं जमा होती जाती हैं और बाद में उन्‍हें देखने पलटने का कोई मतलब नहीं रहता। मेरी ज़िंदगी भी रद्दी के ढेर की तरह होती चली गयी है। कुछ काम का रहा भी होगा तो अब तक सब बेकार बेमतलब का हो चुका है। कोई लय नहीं, कोई रस नहीं, बेस्‍वाद, बेनूर और बेमंज़िल-ज़िंदगी। सर, आप ही के शब्‍द लूं तो काम करते-करते थोड़ा-सा वक्‍त अपना मनपसंद पढ़ने और लिखने के लिए चुरा लेती हूं। सुख कहां है मेरे मीनू में।

हां, दुख, तकलीफ, अकेलापन और उदासी जब चाहो जितना, चाहो उधार ले लो हमसे।

तभी उन्‍होंने वेटर को मीनू लाने का इशारा किया है। मुझे अच्‍छा लगा है कि अब और बीयर नहीं। वे बेहद भावुक हो गयी हैं और लगा अब रोयीं और तब रोयीं।

लेकिन उन्‍होंने अपने आपको संभाल लिया है। मैं कुछ कहूं इससे पहले उन्‍होंने मुझे रोक दिया है - कैसे लेखक हैं आप सर? पहली बार आपसे अपनी उम्र से बहुत छोटी फेसबुक मित्र मिलती है। वह संयोग से आपकी कहानियों की घनघोर प्रशसंक है और ये भी संयोग ही है कि वह अपने दर्द को कागज़़ पर उतारने के लिए आधी रात तक जागती रहती है क्‍योंकि उसके लिखने-पढ़ने से उसके पति महाशय को एलर्जी है। न जाने कितनी डायरियां काली कर डाली हैं उसने फिर भी कुछ है जो फांस की तरह हर वक्‍त टीस मारता रहता है। भीतर गहरे तक चुभता रहता है। आपके साथ ये लम्‍हे बेहद और बेहद किस्‍मत वालों को ही मिलते हैं। चीयर्स कह कर उन्‍होंने अपना गिलास उठाया है लेकिन उनका गिलास खाली है। हाथ बढ़ा कर मेरे गिलास की सारी बीयर अपने गिलास में डाली है और एक ही लम्‍बे घूंट में गिलास खाली कर दिया है।

- लेकिन इन सारी बातों से ये बात कहां साबित होती है कि आप कमज़ोर हैं। आपने जितनी बातें गिनायीं, वे तो आपकी बहादुरी के कारनामे हैं।

- जाने दें। बताइये, खाने में क्‍या लेंगे।

- बिरयानी चलेगी। कोई भी। चिकन बिरयानी हो तो बेहतर।

वेटर ने मना कर दिया है - चिकन बिरयानी नहीं है। हां, चिकन के बाकी आइट्मस मिल जायेंगे।

वे भड़क गयी हैं - आपके यहां स्‍ट्रांग बीयर नहीं मिलती, चिकन बिरयानी नहीं मिलती, ये नहीं मिलता, वो नहीं मिलता तो दुकान बंद क्‍यों नहीं कर देते। चलो, जल्‍दी से वेज बिरयानी ही ले आओ।

मुझे समझ में नहीं आ रहा कि बात के टूटे हुए सिरे को कैसे जोडूं। इतनी खूबसूरत मुलाकात का समापन इतने खराब तरीके से तो नहीं होना चाहिये। बेशक मन ये मानने को तैयार नहीं है कि वे कमज़ोर औरत हैं और वे खुद को बहादुर मानने के लिए तैयार नहीं। एक मल्‍टीनेशनल कंपनी पर अच्‍छे पद पर काम करने वाली, ईस्‍ट ऑफ कैलाश में रहने वाली, खूब पढ़ने-लिखने वाली शादीशुदा महिला जो एल्‍कोहोलिक भी है, आखिर कमज़ोर कैसे हो सकती है। लेकिन अगर वह ऐसा मान भी रही है तो कोई गंभीर वजह होगी। कोई आखिर यूं ही तो जीवन से नहीं हार मान लेता। वे वजहें सामने आनी ही चाहिये। खासकर तब जब वे खुद बताने के लिए उतावली बैठी हैं। तय कर लेता हूं, क्‍या करना है।

- वंदना जी, एक काम करते हैं। मुझे भी लग रहा है कि मुझे इतनी जल्‍दी आपके बारे में किसी नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिये था। लंच के बाद हम एक बार फिर बात करेंगे। आप कहेंगी और मैं सुनूंगा। आखिर मुझे भी तो पता चले कि मीठे पानी की धार कहां पर अटकी हुई है। हां, ये वादा रहा कि अगर लड़की वाकई कमज़ोर निकली तो उस पर कहानी पक्‍की। और अगर लड़की कहीं तेर तर्रार, जाबांज निकल आयी तो भी आपसे पहले हम ही उस पर कहानी लिखेंगे।

उनके चेहरे पर हँसी लौटी है। वे हौले से मुस्‍कुरायी हैं। कहा कुछ नही है। वे बहुत ही बेमन से वेज बिरयानी खा रही हैं। मेरा भी हाल उनके जैसा ही है। बेमन से आधी-अधूरी खाकर छोड़ दी है और वेटर को मेज़ साफ करने के लिए कह दिया है।

Ø

बाहर आते समय उनके चेहरे पर आ रहे मिले-जुले भावों और तीन बीयर के नशे की हलकी-झाईं से तय नहीं कर पा रहा कि हमारे अगले संवाद कैसे होंगे। बाहर निकलते ही चिलचिलाती धूप ने हमारा स्‍वागत किया है। मैं बीसियों बरस के बाद नेहरू प्‍लेस की तरफ आया हूं। इस बीच सारा नक्‍शा बदल चुका है। कुछ भी नहीं जानता कि अब हमें कहां जाना है। वंदना जी बताती हैं कि सामने कार पार्क के बाद एक पार्क है जहां हम छाया में बैठ सकते हैं। उन्‍हें हाई हील सैंडिल की वजह से चलने में तकलीफ हो रही है लेकिन वे धीरे-धीरे चल रही हैं। कार पार्क के परे कोई पार्क नहीं है। एक आदमी से पूछा तो उसने बताया कि यहां दूर-दूर तक कोई पार्क नहीं है। ऊब कर वंदना जी कार पार्क के अहाते की दीवार पर ही बैठ गयी हैं। तय है यहां कोई बात नहीं हो पायेगी। आसपास सभी कारों में ऊंघते ड्राइवर लोग। नीचे कचरा। तभी वंदना जी ने सुझाव दिया कि फिल्‍म देखेंगे। मल्‍टीप्‍लेक्‍स उसी इमारत में हैं जिसमें बीयर बार था। मैंने देखना चाहा कि कौन-कौन सी फिल्‍में लगी हैं और क्‍या थोड़ी देर बाद कोई शो है भी या नहीं। दोनों फिल्‍में ऐसी नहीं थी जिनमें समय और धन बरबाद किये जा सकते। संकट एक और भी था। तय था सिनमा हॉल में बात न हो पाती और इस बात की बहुत अधिक संभावना थी कि वे वहां की आरामदायक सीट और एसी की ठंडी हवा में सो ही जातीं।

तभी मैंने सामने लोटस टैम्‍पल की इमारत देखी। देखा है मैंने लोटस टैम्‍पल। शांत और हरियाली से भरपूर। सोचा, वहां चल कर बैठा जा सकता है। वंदना जी को बताया तो वे तुरंत तैयार हो गयीं।

हम पांच मिनट के भीतर लोटस टैम्‍पल में थे लेकिन वहां भी हालत वही थी। बैठने की सब जगहों, पेड़ों के छायादार हिस्‍सों को रस्‍सी के घेरे से आउट ऑफ रीच कर दिया गया था। वहां हज़ारों लोग थे, बैठने की सुविधाजनक छायादार जगहें थीं लेकिन वाचमैन के हाथ का डंडा वहां तक की पहुंच को सबके लिए नामुमकिन बना रहा था। तभी वाचमैन ने हम पर मेहरबान हो कर हमें एक छायादार पेड़ तले बिछी बेंच पर बैठ जाने की अनुमित दे दी।

वंदना जी के चेहरे पर रौनक लौटने लगी थी। उन्‍होंने मेरा हाथ थामा और बहुत अनुनय भरे स्‍वर में कहा - सर, आप नहीं जानते मैं आज कितनी खुश हूं कि मुझे अपने प्रिय लेखक के साथ इतना सारा वक्‍त बिताने का मौका मिल रहा है। थैंक्‍स सो मच सर, आपने अपनी इस अदनी-सी पाठिेका को इस लायक समझा.. आपके शब्‍दों का जादू.. और मिश्री की सप्‍लाई बंद हो गयी। वाह सर, कुछ गुर हमें भी सिखा दीजिये ना। वे मेरी आंखों में झांकती हुई बोलीं।

- वो सब बाद में वंदना जी, पहले कमज़़ोर लड़की की कहानी सुनी जायेगी। उसके बाद ही कुछ सोचा जायेगा।

- सच! सुनेंगे आप मेरी कहानी और लिखेंगे मुझ पर। वे छोटी बच्‍ची की तरह चहकने लगीं। निश्‍चय ही इस चहक के पीछे तीन बीयर का नशा भी था।

- एक शर्त पर।

- आपसे मुलाकात के बाद कोई भी शर्त मायने नहीं रखती सर, आप कहें तो सही।

- मैं आपको बिल्‍कुल भी नहीं रोकूंगा या टोकूंगा। आप अपनी बात कहती चलें। ठीक है।

- जी सर, ठीक है और मैं ये भी देखूंगी कि इस बीच मेरे हसबैंड भी टोकेंगे या रोकेंगे नहीं। यह कह कर उन्‍होंने अपना मोबाइल भी बंद कर दिया।

- सर, एक रिक्‍वेट है। मैं तो जब से आपसे मिली हूं, तब से बक बक किये जा रही हूं। मैं अपने प्रिय लेखक को कितना कम जानती हूं। आप मेरे बारे में इतना सारा तो कुछ जान ही चुके हैं। अपने बारे में कुछ बताइये ना। अपनी रचनाशीलता के बारे में। किस तरह पात्र पहले आपके जीवन में आते हैं और बाद में आपकी लेखनी का स्‍पर्श पा कर अमर हो जाते हैं। कुल कितने पात्र रचे होंगे आपने अब तक।

- वंदना जी, मैं हँसा हूं – आप ही ने कहा था कि मैं बहुत और बहुत अच्‍छी बातें करती हूं। आज का दिन तो आपके नाम हो चुका। वैसे भी आप पर कहानी मुझे लिखनी है। अभी मैं तीन दिन और हूं दिल्‍ली में। चाहें, संभव हो, समय हो और सुविधा भी हो तो अगली मुलाकात इस कथाकार के नाम कर देते हैं।

- मिलना तो मैं रोज़ ही चाहूंगी लेकिन देखें कब और कितना हो पाता है।

- तो शुरू करें वंदना जी एक कमज़ोर लड़की की कहानी।

Ø

- तो सुने सर एक कमज़ोर लड़की की कहानी। वैसे तो ये कहानी मेरा मतलब कहानी की नायिका शुरू से ही कमज़ोर रही, बेशक बीच-बीच में बहादुरी के ज़ुनूनभरे कारनामे करने के दावे करती रही हो, लेकिन कुल मिला कर हासिल कुछ नहीं कर पायी। बीए करते ही पटना से दिल्‍ली आ गयी थी जामिया मिलिया इस्‍लामिया से मास कम्‍यूनिकेशन करने का कोर्स करने। पत्रकार बनने का कीड़ा था जो जीने नहीं देता था। पढ़ने का खूब शौक था। छिटपुट लेख छपते रहते थे। सोचा था, पटना जैसी जगह में मेरी प्रतिभा अंट नहीं पायेगी। मुझे विस्‍तार चाहिये था और उस समय की मेरी समझ के हिसाब से ये विस्‍तार दिल्‍ली ही दे सकती थी। घर वालों से लड़-झगड़ कर दिल्‍ली आयी थी। पिताजी ने पूरी ज़िंदगी कोई काम नहीं किया, पुश्‍तैनी जायदाद को कुतर-कुतर कर खाते रहे। कभी बहुत जोश मारा तो उसी जायदाद में से एक बड़ा-सा हिस्‍सा निकाल कर किस्‍मत आजमायी और एकमुश्‍त घाटे उठाये। मैं बहुत कोशिश करती कि उन पर बोझ न बनूं और छोटे-मोटे काम करके अपना खर्च निकालूं। घर में मेरे अलावा छोटा भाई था जो इंजीनियर बनना चाहता था और छोटी बहन सुंदर और स्‍मार्ट न होने के बावजूद एयर होस्‍टेस बनना चाहती थी।

- मुझसे सीनियर बैच में था हरमेश। पटना का ही था। मैं साउथ एक्‍स में पीजी रहती थी और वह मालवीय नगर की तरफ कमरा ले कर रहता था। वह भी खाते-पीते घर का खानदानी आदमी था लेकिन ज़िंदगी में सब कुछ अपने बलबूते पर हासिल करना चाहता था। खुद्दार आदमी था। घर से उतने ही पैसे मंगाता जितने से काम चल जाये। हममें अच्‍छी पटती थी लेकिन उस वक्‍त प्‍यार जैसी चीज़ के बारे में न तो उसने सोचा था और न ही मैंने ही। बेशक हम बीस इक्‍कीस बरस के थे लेकिन कैरियर और महत्‍वाकांक्षा के हमारे सपने आसमान से नीचे की बात ही नहीं करते थे।

- तभी एक बार मेरी तबीयत खराब हो गयी। शायद फूड पाइजनिंग की वजह से1 उल्‍टियां और वह सब। बिस्‍तर से उठने की हिम्‍मत ही न रही। दवा-दारू कौन करता। किसी तरह हरमेश तक खबर पहुंचायी। मैं जिस जगह पीजी रहती थी, वहां आदमी तो क्‍या उसकी परछाईं भी नहीं आ सकती थी। हरमेश बिना किसी की परवाह किये वहां आया, मेरा बैग पैक किया और एक तरह से मुझे कंधे पर उठा कर बाहर लाया, एक टैक्‍सी की और एक नर्सिंग होम में भरती कराया। जब मैं ठीक हुई तो उसका कमरा ही मेरा नया पता था। नर्सिंग होम का बिल चुकाने के चक्‍कर में उसकी मोटर साइकिल बिक चुकी थी।

- एक ही कमरे में रहने का कुछ तो नतीजा होना ही था। चार ही महीने हुए थे कि पता चला, गड़बड़ हो चुकी थी। मैं मां बनने वाली थी। बेशक शुरुआती स्‍टेज थी और आसानी से छुटकारा पाया जा सकता था। आखिर हमारी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। जॉब का कोई ठिकाना नहीं था। हरमेश फिर भी फाइनल ईयर में था। मैं अभी सेकेंड ईयर में ही थी। अड़ गयी कि बच्‍चा नहीं गिराया जायेगा और हम दोनों घरवालों की रज़ामंदी से शादी करेंगे।

-

- हम दोनों घर गये। मेरी ज़िद के आगे मेरे घरवालों को झ़ुकना पड़ा। वैसे भी हरमेश जैसा करोड़पति दामाद उन्‍हें बिना दहेज के मिल रहा था, अलबत्‍ता मुझ पर ये शर्त लाद दी गयी कि छोटे भाई और छोटी बहन की पढ़ाई का जिम्‍मा मेरा। ये शर्त तब रखी जा रही थी जब मैंने मास कम्‍यूनिकेशन का अपना कोर्स भी पूरा नहीं किया था और नौकरी अभी कोसों दूर थी। हरमेश भी अभी पढ़ ही रहा था। हरमेश के घरवाले खूब भड़के लेकिन वह भी मेरी ही तरह जिद्दी था और अपनी बात मनवाना जानता था। हां, मेरे गर्भ में पल रहे शिशु की बात पूरी तरह गोपनीय रखी गयी थी। ये सब तो दिल्‍ली में ही होता और हम बच्‍चा होने की घोषणा शादी होने के नौ-दस महीने बाद ही करते बेशक शादी के सातवें महीने ही मुझे मां बन जाना पड़ता।

- चट मंगनी पट शादी करके हम लौट आये।

- हरमेश ने इस बीच कोर्स पूरा किया और नौकरी भी शुरू की लेकिन टिक कर नौकरी करना उसके स्‍वभाव में नहीं था। आज भी नहीं है। ही इज बेबी सिटर ईवन टूडे।

- आरुष तब चार महीने का था जब मैंने कोर्स पूरा किया और रिज़ल्‍ट का इंतज़ार किये बिना नौकरी की तलाश में निकल पड़ी। अब तक अखबारी या पत्रिका की पत्रकारिता का ज़ुनून मेरे सिर से उतर चुका था और मैं किसी ऐसे कार्पोरेट के पीआर डिपार्टमेंट में काम करना चाहती थी कि जहां हाउस जर्नल वगैरह के संपादन का काम मिल जाये। तय था वहां दिन भर शानदार माहौल में काम करने के बाद शाम को घर आया जा सकता था। अखबार में काम करते हुए ये नहीं हो सकता था।

- हमम्

- सुनिये सर, मेरी पहली नौकरी के इंटरव्‍यू का शानदार किस्‍सा।

- ज़रूर सुनाइये।

- आपके पास पानी की बोतल थी, जरा दीजिये ना।

पानी के दो घूंट भरने के बाद वे बोली - सर मैं कैसी दिखती हूं आपको?

- सुंदर, समझदार और एक पारदर्शी दोस्‍त।

- बस?

- बस माने?

- आपको नहीं लगता सर कि मैं आपसे पहली बार मिल रही हूं लेकिन मुझे बिल्‍कुल भी नहीं लग रहा कि ये हमारी पहली मुलाकात है। आप बहुत अच्छे हैं सर।

- कमाल है। अभी तो अपनी तारीफ करवाना चाह रही थीं और करने लगीं मेरी तारीफ।

- नहीं सर, वो बात नहीं है। बात तो ये है कि आपसे मिलना इतना अच्‍छा लग रहा है कि बस.. सर छोडिये कमज़ोर लड़की की कहानी। कुछ और बातें करते हैं। सर, आप कल क्‍या कर रहे हैं।

- देखिये वंदना जी, आपने अपनी कहानी जिस मोड़ तक पहुंचा कर रोक दी है, वो फिल्‍म का इंटरवल तो हो सकता है, दी ऐंड नहीं। अगर इंटरवल पूरा हो गया हो तो आगे की बात करें वंदना जी।

- आप बहुत खराब हैं। वे रूठने के अंदाज़ में बोलीं – इतना आसान नहीं होता उस सारी तकलीफ़ से बार-बार गुजरना।

- लेकिन इच्‍छा तो आप ही ने जाहिर की थी कि कमज़ोर लड़की की कहानी लिखी जाये। अधूरी कहानी लिखने की परंपरा नहीं है।

- आप पूरी बात सुने बिना मानेंगे नहीं?

- ये तो है।

- एक शर्त पर।

- आपकी शर्त सुने बिना मंज़ूर।

- मेरी बात सुनने के बाद आप अपने बारे में सब कुछ बतायेंगे।

- डन। कुछ और?

- नहीं।

- तो आगे बढ़ें आपकी कहानी के इंटरवल के बाद?

- ओके, सुनें। एक अंतर्राष्‍ट्रीय कंपनी में जगह निकली। ठीक वैसी ही जैसी मेरे सपनों में आती थी। अनुभव नहीं था, अंग्रेजी में भी हाथ तंग था लेकिन हौसले बुलंद थे कि कैसे भी हो ये पद हासिल करना ही है। एप्‍लाई कर दिया। साथ ही पता भी कर लिया कि बोर्ड में कौन-कौन होंगे और किसकी चलेगी।

- फिर?

- बुलावा आया। एक से बढ़ कर एक अनुभवी उम्‍मीदवार। तिकड़मी अलग। इंटरव्‍यू में जितना संभाला जा सकता था, संभाला लेकिन मन का कोई कोना कह रहा था, अभी बात पूरी नहीं बनी। न तो अनुभव मेरे पास इत्‍ता ज्‍यादा था न लिखा छपा ही इतना था कि उसके सहारे उम्‍मीद करती। बेशक नेशनल लेवल पर कुछ चीजें छपी थीं। कुछ तो और करना होगा। इंटरव्‍यू वगैरह दो बजे तक निपट चुके थे और रिज़ल्‍ट अगले दिन घोषित होना था। अब जो भी करना था, मुझे ही करना था। दुनियादारी का अनुभव तो था नहीं वरना पेट से होते हुए 21 बरस की उम्र में शादी क्‍यों करनी पड़ती।

- फिर?

- उसी दोपहर कंपनी के एचआर हैड, जो सेलेक्‍शन बोर्ड के चेयरमैन भी थे, को फोन खड़का दिया कि कैसे भी करके आज शाम ही मिलना है। वे पूछते रहे कि कौन बोल रही हैं और क्‍या काम है, ऑफिस आ जायें लेकिन मैं अपनी जिद से टस से मस नहीं हुई। मिल कर ही बताऊंगी। आखिर एक कॉफी शॉप में मिलना तय हुआ। वे मुझे देखते ही भड़के - आप तो आज कैंडीडेट थीं। इस तरह मिलने का मतलब?

- मतलब तो एक ही है सर कि ये जॉब मुझे चाहिये। किसी भी कीमत पर।

वे हैरान हुए मेरी बोल्‍डनेस पर। वे मुझसे बहुत बड़े थे। हम रेस्‍तरां में बैठे थे। मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी सिवाय इसके कि वे एक मल्‍टीनेशनल कंपनी के एचआर हैड हैं और तोप चीज़ हैं। वे मेरे बारे में उतना ही जानते थे जितना मेरे प्रमाण पत्रों में देख चुके थे और मुझसे पूछ चुके थे।

- फिर?

- फिर क्‍या, एक तरह से कॉफी शॉप में मेरा दोबारा इंटरव्‍यू जैसा कुछ हुआ। बेशक इन्‍फार्मल। काफी लम्‍बा चला। एक तरह से रीपीट शो। मुझे पता नहीं उस वक्‍त के इंटरव्‍यू में मैंने कैसे परफार्म किया और उनके किन सवालों के क्‍या जवाब दिये लेकिन जब हम कॉफी शाप से निकल रहे थे तो उनके चेहरे पर हँसी थी! कहने लगे - लेट्स सेलेब्रेट यूअर सेलेक्‍शन। मैं जैसे सातवें आसमान पर जा पहुंची। कुछ नहीं सूझा कि मुझे क्‍या करना चाहिये।

- फिर?

- वे मुझे अपने क्‍लब में ले गये। बीयर पहले भी हरमेश के साथ पी चुकी थी। उस दिन इतनी पी कि उन्‍हें मुझे मेरे घर छोड़ने आना पड़ा।

मैंने वंदना जी की तरफ देखा। उनकी आवाज़ रुंध रही थी - मैं आज भी उसी कंपनी में काम कर रही हूं। वे आज भी मेरे बॉस हैं। वे कंपनी के इंडियन ऑफिस के हैड हैं और मैं पीआर की इंचार्ज। अभी डिप्‍टी। पीआर हैड की खाली पोस्‍ट दो-एक बरस में मुझे ही भरनी है। बेशक शाम को कॉफी शॉप के इंटरव्‍यू में मेरा सेलेक्‍शन हुआ था लेकिन मैंने अपने जॉब को जस्‍टीफाई करने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है और प्रोमोशन की सीढ़ियां चढ़ते हुए अच्‍छी पोजीशन हासिल की है लेकिन ..

- लेकिन क्‍या?

- मैं हरमेश को आज तक विश्‍वास नहीं दिला सकी हूं कि उस दिन मुझे कार तक सहारा दे कर लाने के अलावा उस दिन के बाद आज तक सर ने मुझे हाथ तक नहीं लगाया है।

- जी।

- मैं हरमेश से आज भी बहुत प्‍यार करती हूं लेकिन वही-बीच बीच में बेवफाई करता रहता है। कितनी ही लड़कियों से उसके संबंध हैं। उनके फोन आते हैं। प्रेम पगे एसएमएस आते हैं। दो एक लड़कियों को मुझे खुद बताना बताना पड़ा है कि मेरे परिवार को न तोड़ें। मैं पहले ही बहुत टूटी हुई हूं।

- क्‍या करते हैं हरमेश?

- कुछ नहीं करते।

- मतलब?

- कुछ नहीं करते मतलब कुछ नहीं करते। बताया तो था बेबी सिटिंग करते हैं।

- ऐसा क्‍या?

- दरअसल वे किसी काम से टिक कर कभी भी नहीं रहे। घर से करोड़पति जमींदार हैं तो वैसे ही ऐंठ में रहते हैं। किसी की गुलामी करना उनके खून में नहीं। बेशक उनके घर से एक पैसा नहीं आता, घर मेरी सेलेरी से ही चलता है लेकिन उनकी अकड़ फूं अपनी जगह।

- हमममममममममम।

- कुछ बरस पहले एक रोड एक्‍सीडेंट में उनके कूल्‍हे की हड्डी टूट गयी थी। इलाज तो हुआ लेकिन हड्डी ठीक से नहीं जुड़ी। तब से घर बैठे हैं।

- चलना फिरना?

- वैसे चल फिर लेते हैं, कई बार मुझे कार से ऑफिस या एयरपोर्ट भी छोड़ देते हैं लेकिन काम नहीं करेंगे।

- बेहद मुश्‍किल है ये हालत तो।

- सर अभी तो ट्रेलर दिखाया है आपको। फिल्‍म तो बाकी है।

- मतलब?

- सर, कुछ पीने का मन कर रहा है। चलें वहीं। शॉप से वोदका ले कर लिमका में डाल लेंगे शॉप पर ही। फिर यहीं बैठ कर पीयेंगे। लोटस टैम्‍पल में। भगवान को हाज़िर नाज़िर मान कर।

- आइडिया तो बुरा नहीं लेकिन देख लीजिये पांच बजने को हैं। वोदका सेशन शुरू होते होते आधा घंटा तो लगेगा और कम से कम डेढ घंटे चलेगा।

- ओह माय गॉड। पता ही नहीं चला, पांच बज गये।

- जाने दें आज एक और दौर। ट्रेलर से आगे की कहानी कहें।

- क्‍या कहानी और कैसी कहानी सर, शुरू से आखिर तक दुखांत। सर, एक मज़ेदार बात याद आ गयी।

- ज़रूर बतायें।

- मुझे बाद में कंपनी ज्‍वाइन करने के बाद पता चला था कि अगर मैं कोशिश न करती तो भी मेरा ही सेलेक्‍शन हो रहा था। एक बार बॉस के मुंह से भी ये बात निकल गयी थी।

- ये किस्‍सा मज़ेदार रहा।

- हां, इतना ज़रूर है कि मैंने अपने लिए जो भी किया था लिमिट क्रास करने की नौबत नहीं आयी थी।

- कहानी आगे बढ़ेगी मैडम?

- आप भी सर, तो सुनें। हरमेश की समस्‍या तो है ही, आये दिन माता-पिता अपना डोरा-डंडा उठा कर यहीं चले आते हैं। कहने को बेटी की मदद करने लेकिन मैं ही जानती हूं उनका मदद करना मुझे कितना भारी पड़ जाता है।

- आप बता रही थीं पिताजी कोई काम नहीं करते?

- सर, आज तक आपने किसी ऐसी लड़की के बारे में सुना है जिसका मायका और ससुराल सब उसी पर निर्भर हो। कहने को पति भी अपने खानदान से करोड़पति हैं और पिता तो खैर हैं ही, लेकिन दोनों तरफ से आने-जाने वालों की, सबकी टिकट मुझे ही बुक करा के देनी होती है। पति काम करते नहीं, पिता ने कभी किया नहीं, पूरी ज़िंदगी कोई बिना काम किये कैसे रह सकते हैं ये देखना हो तो सी131/14 ईस्‍ट ऑफ कैलाश आइये। सब मिल जायेंगे। मेरी छोटी बहन भी जो एयर होस्‍टेस तो न बन सकी, लेकिन होटल मैनेजमेंट करके होटल मैरिडीयन में काम कर रही है, वह भी काम करते हुए भी मेरे ही घर में रहती है और मेरी ही सेलेरी पर पल रही है।

- कमाल है ये तो?

- जी नहीं, कमाल ये है कि इसी मई में उसकी शादी है और शादी का ज्‍यादातर खर्च मुझे ही करना है।

- ये भला आपके फर्ज में कैसे जुड़ गया कि जॉब वाली बहन की शादी भी आप करवायें, वह रहे भी आपके घर और..।

- जी सर, आप सुनेंगे तो हैरान होंगे कि उनके दूल्‍हे मियां को ये शिकायत है कि मेरी बहन मेरी तरह स्‍मार्ट, सुंदर और मॉड क्‍यों नहीं है।

- ये क्‍या बात हुई? क्‍या आपकी बहन के बजाये आपको दिखा कर शादी तय की गयी थी?

- ये तो कोई उनसे पूछे तो बतायेंगे।

- भाई क्‍या करता है?

- भाई। उसने अपने तरीके से प्‍यारी बहना को निचोड़ा है। उनकी आवाज़ भर्रा गयी है। उन्‍होंने मेरे हाथ पर हाथ रख कर कहा है - वह इंजीनियर बनना चाहता था। उसकी पढ़ाई का एक एक पैसा मेरी सेलरी और मेरे पीएफ से गया है। मैं ही जानती हूं कि उसकी डिमांड आने पर मैं क्‍या-क्‍या जोड़-तोड़ नहीं करती थी लेकिन इंजीनियर बनते ही जनाब ने एक करोड़पति कलीग से शादी कर ली और आजकल ठाठ से नौकरी कर रहे हैं।

- तो उसकी पढ़ाई का खर्चा जो आपने किया?

- जनाब कहते हैं कि मेरे नसीब में इंजीनियर बनना लिखा था तो बन गया। अपने ही भाई बहन सपने पूरे करने में मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा।

- तो किबला आपने सबके सपने पूरे करने का ठेका ले रखा है।

- सर, आपको बताऊं कि मैं चारों तरफ से कंगाल करोड़पतियों से घिरी हुई हूं। जेब में बेशक धेला न हो, सबकी अकड़फूं झेलते-झेलते मैं थक गयी हूं। उन्‍होंने आसपास की परवाह न करते हुए मेरे कंधे पर अपना सिर रख दिया है और खाली-खाली आंखों से मेरी तरफ देखते हुए पूछा है – सर, ऐसे में मैं अल्‍कोहल का सहारा न लूं तो क्‍या करूं। पागल हो जाऊंगी किसी दिन मैं। रोज़ रात यह औरत अकेली मरती है और रोज़ सुबह यह औरत दूसरा जनम लेती है मां बन कर, बहन बन कर, पत्‍नी बन कर, बेटी बन कर ताकि दिन भर सबकी चाकरी करके खटने के बाद रात को एक बार फिर मर सके। अगले दिन वह सबकुछ फिर से करने के लिए।

मुझे लग रहा है कि माहौल कुछ ज्‍यादा ही भारी हो गया है। मुझे पता नहीं था कि मैं जिस हँसमुख और बेहद संवेदनशील फेसबुक मित्र से मिलने आया था, वह इतनी तकलीफों से गुज़रते हुए अपने आपको किसी तरह जिंदा रखे हुए है। मैं विषय बदलने के लिए पूछता हूं – ऑफिस का माहौल कैसा है?

- आप देख ही रहे हैं कि मैं ठीक ठाक हूं।

- एक मिनट।

- सर?

- आप ठीक ठाक से बहुत ज्‍यादा हैं आगे कहें।

- ओके, मैं सुंदर हूं, युवा हूं, काम में मेहनती हूं और बातचीत भी ठीक कर ही लेती हूं।

- इसका मतलब दीवानों की कमी नहीं होगी वहां?

- बेशक नहीं है लेकिन मेरा एक ही फार्मूला मुझे पिछले नौ बरस से सुरक्षित रखे हुए है

- वह क्‍या?

- कि पति मुझे लेने आ गये हैं या लेने आने वाले हैं। पति नाम के प्राणी का ज़िंदगी में और कोई फायदा हुआ हो या न हुआ हो कम से कम इतना फायदा तो हुआ है कि शाम को सुरक्षित घर आ जाती हूं। कुछ फायदा बॅास के नजदीक होने का भी मिल जाता है कि कोई बेजा हरकत नहीं कर पाता।

- कोई प्रेम प्रसंग?

- सच सर, आपने मेरे मन की बात कह दी। इतनी सारी नेगेटिव बातों में वही तो एक बात है जो मुझे आज भी रोमांचित कर जाती है। वन मीटिंग लव। वाह, क्‍या बात थी उस शख्‍स में। गार्जियस। वे जैसे उन्‍हीं पलों की याद में खो गयीं।

- कब की और कहां की बात है?

फ्रैंकफुर्ट की। कंपनी ने मुझे एस्‍क्‍ट्रा आर्डिनरी एचीवर का एवार्ड दे कर एक हफ्ते के लिए कंपनी के हैड क्‍वार्टर बुलाया था। बहाना था सेमिनार का। वह भी उसी सेमिनार में आया था। केल्‍विन। बेल्‍जियम से। वह पहले दिन मेरे साथ की सीट पर ही बैठा था। सेमिनार में मैंने साड़ी पहनी थी। जानूबझ कर। बेशक भारत से सिर्फे मैं ही गयी थी उस सेमिनार में। उसने कभी साड़ी पहने इंडियन लेडी को नहीं देखा था। हमारा परिचय हुआ था। थोड़ी देर फार्मल बात हुई थी। उसने कुछ सवाल पूछे थे। मैंने कुछ जवाब दिये थे। वह बेहद खूबसूरत और शालीन। मैंने आज तक उससे खूबसूरत आदमी नहीं देखा था। मैं उसे देखते ही उस पर फिदा हो गयी थी लेकिन खुद को किसी तरह जज्‍ब किये हुए थी। बेशक हम चारों दिन साथ-साथ ही बैठे थे, खूब बातें करते रहे थे और सिटी टूअर पर भी एक साथ ही रहे थे। मैं उसके साथ के एक-एक पल को जैसे अद्भुत खजाने की तरह बटोर कर अपनी स्‍मृतियों में संजो रही थी। वे दिन मेरे लिए बेशकीमती थे जो दोबारा नहीं आने वाले थे। एक तरह से डिनर के बद से सुबह तक का समय ही हमारा अपना समय होता था वरना सेमिनार का पूरा समय ही हमने लगभग एक साथ गुज़ारा था। शायद वह मेरी हालत समझ रहा था। चौथे दिन उसी ने प्रोपोज किया था। मैं जानती थी, ऐसा ही होगा। मुझे तब पहली बार अपने आप पर कोफ्त हुई थी कि मैं शादीशुदा और दो बच्‍चों की मां क्‍यों हूं। मेरी बात सुन कर वह बेहद उदास हो गया था और बाकी अरसे में एक लफ्ज भी नहीं कह पाया था। एकदम गुमसुम हो गया था।

- रीयली?

- मैंने अपनी ज़िंदगी में उससे खूबसूरत आदमी नहीं देखा है। मुझे उस पर बेहद अफसोस हुआ था। अपने आप पर तो आज तक हो रहा है। वे पहली बार खिलाखिला कर हँसीं।

ये बताते हुए वंदना जी का चेहरा खिल उठा था। मुझे लगा था कि यही वह सही घड़ी है जब हमें विदा होना चाहिये। कहीं फिर उनका मूड उखड़ गया तो उनकी शाम भी खराब होगी। सात बजने को आये थे। हम पहली ही मुलाकात में पिछले 6 घंटे से एक साथ थे। वे बेशक मेरे बारे में ज्‍यादा नहीं जान पायी थीं लेकिन अपने जीवन के सारे रहस्‍य उन्‍होंने मेरे सामने खोल कर रख दिये थे। पहली ही मुलाकात में।

मैंने उन्‍हें घड़ी दिखायी - अरे सात बज गये। पता ही नहीं चला समय का आपके साथ। कितना कुछ अनकहा रह गया।

- आपके पति कुछ कहेंगे नहीं कि आज आप छुट्टी के दिन भी सारा वक्‍त घर से बाहर रहीं।

- एक बात बतायें सर।

- कहें।

- क्‍या पूरे 6 दिन घर और दफ्तर में खटने वाली इस औरत का इत्‍ता सा भी हक नहीं कि वह कुछ पल अपने तरीके से, अपनी पसंद से बिता सके। मैंने आज का दिन बरसों बाद अपने हिसाब से जिया है और भरपूर जिया है। इसके लिए मैं किसी से भी मोर्चा लेने को तैयार हूं।

हालांकि मेरा गेस्‍ट हाउस उनके घर की विपरीत दिशा में है फिर भी मैंने उन्‍हें उनके घर तक छोड़ देने की पेशकश की है जिसे उन्‍होंने मान लिया है। एक बार फिर मेरा हाथ उनके हाथ में है। अचानक पूछा है उन्‍होंने - कल का क्‍या प्रोग्राम है।

- कुछ खास नहीं।

- मिलेंगे?

- ज़रूर। मिलना या मिलना तो आप पर निर्भर करता है।

- एक काम करती हूं। घर जा कर आज कर मौसम देखती हूं। पूरी कोशिश करूंगी कि तीन बजे के आसपास मिलूं आपसे। जगह और समय रात को या सुबह बता दूंगी। ओके। वे अपने में लौट आयी हैं।

जब उन्‍हें उनके घर के पास छोड़ा तो उनकी मुख मुद्रा बता रही थी कि बहुत कुछ है अभी भी जो अनकहा रह गया है।

Ø

अगली सुबह बताया था उन्‍होंने कि वे दो बजे साउथ एक्‍स में मिलेंगी लेकिन बारह बजे उनका फोन आ गया था कि वे नहीं आ पायेंगी क्‍योंकि अचानक उनकी बहन के ससुराल के लोग आ गये हैं और शाम से पहले वे टलने वाले नहीं।

Ø

अगले दिन पूरे दिन उनका फोन नहीं आया था। मैंने यूं ही चांस लेने के लिए फोन किया था तो फोन उनके पति ने उठाया था। बताया था कि वे सो रही हैं। देर शाम को उनका फोन आया था कि वे माइग्रेन के कारण सुबह से उठ नहीं पायी हैं और अभी ही उठी हैं। उन्‍हें माइग्रेन भी है, ये मेरे लिए खबर थी।

Ø

अगले दिन भी उनसे बात नहीं हो पायी थीं। वे बेशक फेसबुक पर मौजूद थीं लेकिन मेरे हैलो कहने पर कोई जवाब नहीं आया था। तब मैंने ही फोन किया था। ये शाम दिल्‍ली में मेरी आखिरी शाम थी। फोन उन्‍होंने उठाया था लेकिन बताया कि वे तीन दिन बाद ऑफिस आयी हैं इसलिए बेहद बिजी हैं।

मैं जानता था अब इस बार न तो उनसे मुलाकात होगी और न बात ही हो पायेगी।

तब से फोन न मैंने किया है न उन्‍होंने।

Ø

मैं लौट आया हूं। फेसबुक पर वे कभी-कभार नज़र आ जाती हैं लेकिन अपनी आदत के अनुसार मैं हैलो करने में पहल नहीं करता। उनकी तरफ से हेलो होनी होती तो कब की हो चुकी होती।

Ø

कभी-कभार उन्‍हें फेसबुक पर देख लेता हूं लेकिन बात करने की पहल नहीं कर पाता। रहा नहीं जा रहा अब और। सोचता हूं उन्‍हें पत्र लिखूं।

लेकिन फिर सोचता हूं कि ये क्‍या हो रहा है मुझे। एक फेसबुक फ्रेंड के प्रति इतना मोह। एक ही मुलाकात के बाद जबकि फेसबुक फ्रेंडिशप की असलियत मैं अच्‍छी तरह से जानता हूं। फेसबुक से बाहर निकलते ही दोनों अपने अपने जीवन में। उनका अपना जीवन है जिसमें मैं कहीं नहीं और मेरा जीवन है जिसमें वे कहीं नहीं। कुछेक बार की चैट, कुछ हल्‍की फुल्‍की बातें, दो चार फोन और एक इकलौती मुलाकात। बेशक दोनों के लिए ये मुलाकात यादगार मुलाकात रही हो लेकिन इससे दोनों के पहले से चल रहे जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। वे पहले की तरह अपनी दुनिया के चक्‍करों में उलझती रहेंगी। मैं अपनी दुनिया में मसरूफ हो जाऊंगा। कल उन्‍हें और फेसबुक पर और बेहतर दोस्‍त मिल जायेंगे और वे एक बार फिर अपने आपको उनके सामने हलका करेंगी। अपनी कहानी सुनायेंगी। मुझे भी इसी प्‍लेटफार्म पर कुछ और पाठिकाएं मिल जायेंगजो बतायेंगी मुझे कि वे ही मेरी कहानियों की नायिकाएं हैं। वगैरह वगैरह।

फिर भी मन नहीं मानता। वे बहुत आत्‍मीयता से मिली थीं। हम दोनों के मन में ही एक दूसरे के लिए कोई चोर नहीं है। एक बार फिर बात तो करके देखूं। ज्‍यादा से ज्‍यादा जवाब नहीं देंगी। लेकिन मन में मलाल तो नहीं रहेगा कि आखिरी बार मैंने संवाद तोड़ा। तय करता हूं, संवाद मेरी तरफ से नहीं टूटना चाहिये।

ईमेल लिखता हूं उन्‍हें – वंदना जी, स्‍वस्‍थ, प्रसन्‍न और अच्‍छे से होंगी। तेरह अप्रैल को आपसे लम्‍बी और सार्थक मुलाकात, 14 अप्रैल को मिलने का वादा लेकिन बहन के ससुराल के लोगों का आ जाना, 15 को आपको माइग्रेन और 16 को आपका ऑफिस में व्‍यस्‍त होना और मेरी वापसी। हम दोबारा नहीं मिल सके।

तब आपने कहा था कि आपकी कहानी लिखूं। सच कहूं तो इतने दिनों से आप ही की कहानी जी रहा था। उस शाम मैंने फोन पर कहा था आपसे कि 24 पेज कहानी लिख चुका हूं। झूठ कहा था। कहानी पहले मन पर लिखी जानी होती है और वो लिखी जा चुकी थी। मन पर लिखी गयी कहानी के पन्‍ने नहीं गिने जा सकते।

इस समय मैं ओबेराय मॉल के एक रेस्‍तरां में बैठा हूं। अभी अभी आपकी कहानी पूरी की है। लैपटाप पर कहानी के पेज और शब्‍द गिने जा सकते हैं। लैपटाप बता रहा है कि मैंने 39 पेज टाइप किये हैं, 14300 शब्‍द टाइप जा चुके हैं और कुल 1533 मिनट टाइपिंग करते हुए ये कहानी पूरी की गयी है। कुल 128 बार ये फाइल खोल कर एडिट की गयी है।

आपसे कहा था कि यह जादू नहीं टूटना चाहिये कहानी मैंने तब लिखी थी जब आप पांच बरस की थीं। आज मुझे ये कहना है कि आज उस कहानी के लिखे जाने के 25 बरस बाद मैंने दूसरी बार ये जादू नहीं टूटना चाहिये कहानी लिखी है। वही बेचैनी, वही छटपटाहट, वही लेखन सुख, वही आत्‍म संतोष और वही लिख कर पूरी तरह से खाली हो जाने वाला अहसास। तब वंदना जी पांच बरस की थीं और आज 30 बरस की हैं। वे इस कहानी की नायिका हैं। ये कहानी उन्‍हीं की है और उन्‍हें ही समर्पित कर रहा हूं।

मैं यह जादू .. कहानी नायिका से कभी नहीं मिला था। इस कहानी की नायिका से मिला हूं। दोबारा मुलाकात होगी या नहीं, पता नहीं। फेसबुक पर हम दोनों होते हैं लेकिन संवाद ठिठका हुआ है। मैं कहानी जी रहा था इसलिए हैलो नहीं की। आपकी आप जानें। बेशक फेसबुक पर आपकी खूबसूरत तस्‍वीरों के माध्‍यम से और इस पूरे अरसे में आपके साथ हुई चैट को दोबारा पढ़ते हुए आपको अपने आसपास महसूस करता रहा।

एक बात और, अरसे से लेखन न कर पाने की पीड़ा से जूझ रहा था। आपकी कहानी लिख कर वह रुकावट दूर हुई। लिख पाने का संतोष बहुत बड़ा होता है जो इस कहानी ने दिया है।

शुभ

Ø

लैपटाप बंद कर ही रहा था कि उनका जवाब आ गया -अच्छा लगा आपने लिखा। झूठ कहना चाहूं तो बहुत कह सकती हूं पर मन नहीं कर रहा.... किसी बात के लिए मन नहीं कर रहा है....बस भाग जाना चाहती हूं सबकुछ छोड़कर..... कोई मोह नही, भार हो चला है जीवन....

मैंने जवाब दिया है – वंदना जी, मुझे पता नहीं था आपका कि आपका ये जवाब आयेगा। पता नहीं क्‍यों मेरी कहानी की नायिका भी यही कह रही है। समझ नहीं आ रहा कि कहानी लिख कर खुद को हलका किया या आपकी पीड़ा बढ़ायी। भेजने की हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा।

शुभ हो सब कुछ। हां कहानी के जरिये परकाया प्रवेश करने की कोशिश की। इतने दिन वंदना बन कर आपके दर्द को जीता और पीता रहा।

उनका जवाब आया - कहानी भेज सकें तो ... शायद... कुछ अच्‍छा लगे...। J

मैंने लिखा - इस नाराजगी का कारण जाने बिना कैसे भेजूं। मैं कहां कुसूरवार हो गया?

तुरंत जवाब आ गया - आप कुसूरवार नहीं। समय चक्र ही कुछ अजीब चल रहा है।L

- वंदना जी, हर बार यही होता है। हम कहानी लिख कर खाली हो जाते हैं। कुछ नहीं सूझ रहा। मैं रिक्‍त हूं अभी।

- मुझे दोष न दें। पहले ही मैं बहुत आहत हूं।

Ø

मैं समझ नहीं पा रहा ये क्‍या हो रहा है। क्‍या ये उन्‍हीं वंदना जी की भाषा है जो 15 दिन पहले दिल्‍ली में एक अलग ही रूप में मिली थीं। सूझ नहीं रहा कि बात का सिरा कैसे संभाला जाये। शायद घर पर ज्‍यादा कहा सुनी हो गयी होगी।

लिखता हूं- वंदना जी

कहानी भेज रहा हूं।

सस्‍नेह

Ø

रात को उनका एक लाइन का संदेश फेसबुक पर नज़र आया - सन्‍न रह गया हूं। लिखा है उन्‍होंने - मुझे लीवर कैंसर है। लास्‍ट स्‍टेज।

वही उनका अंतिम संदेश था। पता नहीं उनकी कहानी लिख कर खाली हुआ था या उनका ये वाक्‍य पढ़ कर खाली हो गया हूं। कैसे रिएक्‍ट करूं इन तीन शब्‍दों में सिमटी भयावह खबर पर। दिमाग सुन्‍न हो गया है। फेसबुक बंद कर देता हूं।

Ø

फेसबुक खोलता हूं। चेक करता हूं। उनका फेसबुक खाता डिएक्टीवेट कर दिया गया है। फोन करता हूं। उनका मोबाइल बंद है।

अब मेरे पास उनसे संपर्क करने का मेरे पास कोई साधन नहीं।

मैं कभी नहीं जान पाऊंगा, वंदना जी के साथ क्‍या हुआ।

-

(समाप्त)

COMMENTS

BLOGGER: 6
  1. रौंगटे खडी करती कहानी झकझोर गयी।

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  2. Kahani bahut hi achi lagi ak kamjor ladki title bhi acha hai par jadoo nahi tootna chahiye yeh title jayada mafiq lagta hai kyoki ak bar kahani padna shuru kiya to aakhir tak lagatar padte hi chale gaye

    जवाब देंहटाएं
  3. अनिल जी इस कहानी में बार बार जिस कहानी का जिक्र आता है- यह जादू नहीं टूटना चाहिये वह 1988 में लिखी गयी मेरी ही कहानी है जो www.surajprakash.com पर पढ़ी जा सकती है। उसे पढ़ना अपने आप में एक सुखद घटना है। सूरज प्रकाश

    जवाब देंहटाएं
  4. बेनामी3:41 pm

    Stupendous, Awesome

    जवाब देंहटाएं
  5. Kahani shuru karne ke baad padhti hi chali gayi...adbhut.....kya kahu..shabd nahi mil rahe..

    जवाब देंहटाएं
  6. bahut sundar kaafi hamse milti julti hai ...........jaadu hai aapki kalam me
    yaad rakhne wali kahani hai ...so many Thanx
    dhanyawaad

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: सूरज प्रकाश की लंबी कहानी - एक कमज़ोर लड़की की कहानी
सूरज प्रकाश की लंबी कहानी - एक कमज़ोर लड़की की कहानी
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