गोवर्धन यादव का आलेख - राजधर्म और राजा के कर्तव्य

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महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत के शान्ति-पर्व में महात्मा भीष्मजी ने राजा युधिष्ठिर को राज-धर्म और राजा के कर्तव्यों आदि के बारे में विस्तार...

महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत के शान्ति-पर्व में महात्मा भीष्मजी ने राजा युधिष्ठिर को राज-धर्म और राजा के कर्तव्यों आदि के बारे में विस्तार से समझाया था. इस आलेख में उसे सादर प्रस्तुत किया जा रहा है. पाँच हजार वर्ष पूर्व प्रचलित राजधर्म और राजा के कर्तव्यों की व्याख्या, आज के संदर्भ में कितनी कारगर और उपयोगी सिद्ध हो सकती है, इस पर पाठक स्वयं विचार करे और उसकी मीमांसा करे.

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राजधर्म और राजा के कर्तव्य

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. भीष्म पितामह बाणॊं की शैय्या पर पडॆ हुए उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे. सूर्य के उत्तरायण होने पर वे देह त्यागने वाले थे. एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने उनसे मिलने का निश्चय किया और धर्मराज, भीम, अर्जुन, नकुल आदि मुख्य वीरों को लेकर कुरुक्षेत्र में जा पहुँचे. इस समय भीष्म ध्यानावस्थित होकर भगवान श्री कृष्ण की स्तुति कर रहे थे. सभी लोगों को निकट आया हुआ देखकर वे गदगद हो उठे. इसी समय श्रीकृष्ण भीष्म से मधुर वाणी में बोले- हे भीष्मजी ! आपको शर-शय्या पर पडॆ-पडॆ महान कष्ट हो रहा होगा. फ़िर भी आपकी तरह मृत्यु को इस तरह वश में करने वाला मैंने तीनों लोकों में आज तक नहीं देखा. ये धर्मराज ! अपने कुटुम्ब के नाश हो जाने से महान दुखी हो रहे हैं. अब आप जैसे भी हो इनके दुख दूर करें. आप महान राजनीतिज्ञ हैं. कृपा करके आप इन्हें राज-धर्म की अच्छी तरह समझा दें.

श्री कृष्ण की बात सुनकर भीष्म ने उनकी स्तुति करते हुए कहा-“हे मधुसूदन...हे माधव..आप तो स्वयं धर्म के सभी मर्मों को समझने वाले हैं. फ़िर आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं ?. मैं तो आपका शिष्य हूँ. अच्छा हो कि आप स्वयं धर्मराज को इसके बारे में समझायें. इस समय मेरे शरीर में अत्यन्त दाह और पीडा है. मुझमें बोलने के शक्ति भी नहीं रह गयी है, फ़िर मैं धर्मोपदेश किस प्रकार दे सकूँगा”

श्री कृष्णजी भीष्मजी के कथन को सुनकर बोले-“ हे भीष्मजी ! संसार में जितने भी सत-असत पदार्थ हैं, वे मुझसे ही उत्पन्न हैं. अतः मैं तो यश से परिपूर्ण हूँ ही. किन्तु मैं आप जैसे भक्तों का यश बढाने हेतु आपके ही मुख से युधिष्ठिर को उपदेश करना चाहता हूं., जिससे संसार में आपका सम्मान और भी बढे. आपके मुख से निकला हुआ हर वाक्य वेद-वाक्य होगा. आप दोष से मुक्त और ज्ञानी हैं. अतएव आप ही धर्मराज को उपदेश देने की कृपा करें. इसके लिए मैं आपको वरदान देता हूँ कि अब से आपको कोई पीडा दाह या व्यथा न रह जाएगी और आपकी स्मरण-शक्ति भी पहले से भी करोड गुनी तेज हो जाएगी.

दूसरे दिन श्रीकृष्ण पुनः पाण्डवों के साथ रथ पर आरूढ होकर भीष्मजी के पास जा पहुँचे. वहाँ उन्होंने देखा कि ऋषि-मण्डली पहले से ही विराजमान है. धर्मराज युधिष्ठर ने पितामह सहित सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम किया और भीष्म से बोले- हे पितामह ! आप मुझे राजधर्म के बारे में विस्तार से बतलाने की कृपा करें.

भीष्मजी ने कहा”-“ हे धर्मराज ! मैं भगवान श्रीकृष्ण एवं सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम कर तुमसे राजधर्म कहता हूँ, उसे सुनिये. हे कुरुराज ! राजा ऎसा होना चाहिए जो प्रजा को प्रसन्न रख सके. राजा को सदैव पुरुषार्थी होना चाहिए. उसे दैव के भरोसे होकर कभी पुरुषार्थ का त्याग नहीं करना चाहिए. हे वत्स ! कार्य में असफ़लता होने पर राजा को खिन्न नहीं होना चाहिए. उसे सत्यवादी होना चाहिए. राजा का स्वभाव न कोमल हो न कठोर हो, क्योंकि कोमल स्वभाव वाले राजा की आज्ञा कोई नहीं मानता और कठोर स्वभाव वाले राजा से प्रजा बहुत दुःख उठाती है. ब्राह्मणॊं को प्राणदण्ड नहीं देना चाहिए, उसे देश-निकाले का दण्ड पर्याप्त है..अग्नि जल से, क्षत्रिय ब्राह्मण से तथा लोहा पत्थर से नष्ट हो जाता है. ये सारे ही अपने उत्पन्न कर्ता से संघर्ष करने पर नष्ट हो जाते हैं. जैसे जल अग्नि को नष्ट कर देता है, पत्थर से लोहा कुंद पड जाता है. लेकिन यदि ब्राहमण युद्ध के लिए ललकारता हो तब उसके वध से पाप नहीं लगता. राजा को न कभी अपने धर्म का त्याग करना चाहिये और न ही उसे अपराधियों को दण्ड देने में संकोच करना चाहिए, क्योंकि इस तरह से सेवक मुँह चढे हो जाते है और राजकाज में अवरोध उत्पन्न करने लगते हैं. हे राजन ! हर राजा को परिश्रमी एवं उद्दोगी होना चाहिए. जिस प्रकार बिल में रहने वाले चूहों को सर्प निगल लेता है, उसी प्रकार दूसरे राजाओं से लडाई न करने वाले राजा तथा घर न छॊड़ने वाले ब्राह्मण को पृथ्वी निगल जाती है.

“राजा के सात अंग होते हैं- (१) राज्य (२) मंत्री, (३) मित्र (४) कोष,(५) देश (६) किला और ७ वां सेना. राजा को इनकी रक्षा और सदुपयोग करना चाहिए. राजा के समस्त धर्मों का सार उसका प्रजा-पालन करना चाहिए. राजा को राज्य प्रबन्ध को सुचारु रुप से चलाने के लिए गुप्तचर रखना चाहिए , जो राजा को देश के समाचारों से अवगत कराता रहे. राजा को चाहिए कि वह अन्य देश के राजाओं के साथ सन्धि करके उन देशों में अपना राजदूत रखे. प्रजा को बिना कष्ट दिये, कर इस प्रकार वसूलना चाहिए जैसे गाय को बिना कष्ट दिये उससे दूध ले लिया जाता है. सेवकों को कभी गुटबन्दी में न पड़ने देना चाहिए. राजा का कर्तव्य है कि वह निरन्तर अपने कोष को बढ़ता रहे. साथ ही निर्बल शत्रु को भी कम न समझे. जैसे थॊडी सी आग जंगल को जला देती है, उसी प्रकार छॊटा सा शत्रु भी विनाश कर सकता है.”

भीष्मजी के वचनॊं को सुनकर सभी उपस्थित ऋषियों ने उनकी प्रशंसा की. फ़िर संध्या होने के कारण सभी लोग वापिस हस्तिनापुर लौट आए.

दूसरे दिन पाण्डव तथा श्रीकृष्णजी नित्य कर्म से निवृत्त होकर फ़िर कुरुक्षेत्र में भीष्मजी के निकट जा पहुँचे और प्रणाम करने के बाद उनसे पूछा-“ हे पितामह ! कृपा करके बताएं कि राजा शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई?

उन्होंने कहा-“हे धर्मराज ! सत्ययुग में राजा नाम की कोई चीज ही नहीं थी. क्योंकि उस समय न कोई दण्ड था और न ही कोई अपराध करने वाला ही था. उसके बाद लोग मोह के वशीभूत होने लगे. मोह से काम की उत्पत्ति हुई और काम से राग पैदा हुआ.और राग से सभी प्रमादी हो गए और अपने-अपने कर्तव्यों को भूल गए. कर्म भूलने से धर्म का ह्रास होने लगा. तब ब्रह्माजी ने एक लाख अध्यायों का नीति शास्त्र बनाया. वह ग्रन्थ त्रिवर्ण के नाम से प्रसिद्ध हुआ. हे धर्मराज ! इन शास्त्रों में साम-दाम-दन्ड, भेद तथा उपेक्षा इन पाँचों का पूर्ण वर्णन है.”

धर्मराज युधिष्ठर ने पूछा-“चारों वर्ण, चारों आश्रम तथा राजाओं के कौन-कौन से धर्म श्रेष्ठ माने गए हैं.

ने कहा-“हे धर्मराज ! धर्म की महिमा ही अपरम्पार है. उसे ध्यान से सुनो. सच बोलना, क्रोधित न होना, धन को बाँटकर उसका प्रयोग करना, क्षमा करना, अपनी स्त्री से सन्तान उत्पन्न करना, शौच करना, किसी से बैर न रखना. ये सभी वर्गों के लिए समान है. ब्राह्मणॊं का धर्म है, इन्द्रिय दमन, स्वाध्याय करना. क्षत्रियों का धर्म है दान देना तथा किसी से कुछ माँगना नहीं, यज्ञ करना तथा कराना नहीं. वेदादि का अध्ययन करना, लुटेरों को दण्ड देना तथा प्रजा का पालन करना. वैश्यों का धर्म है, दान, अध्ययन, यज्ञ करना व पवित्र उपायों से धन कमाना, खेती कराना और पशुओं का पालन करना. शूद्र का धर्म है इन चारों की सेवा करना.”

युधिष्ठिर ने फ़िर पूछा- हे पितामह ! राष्ट्र का क्या कर्तव्य है ?

भीष्मजी ने उत्तर दिया- हे धर्मराज ! राजा का राज्याभिषेक करना राष्ट्र का कर्तव्य है. बिना राजा के प्रजा नष्ट हो जाती है. राज्य में उपद्रव होने लगता है तथा चोरी एवं हिंसा की घटना बढ़ने लगती है. बिना राजा के सबल निर्बल को खाने लगता है.”

युधिष्ठर ने पूछा-हे पितामह ! कृपा करके बतायें कि राजा के क्या कर्तव्य हैं उसे अपने देश की रक्षा कैसे करनी चाहिए?

भीष्मजी ने कहा- “ हे धर्मराज ! राजा को पहले अपने मन को जीत कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए. उसे राज्य के प्रमुख स्थानों पर सेना का प्रबन्ध करना चाहिए. साम-दाम-दण्ड, भेद से धन प्राप्त करना चाहिए तथा प्रजा की आय का छटवाँ भाग, कर के रुप में प्राप्त करना चाहिए. राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को पुत्र की भाँति माने तथा मित्रों और मंत्रियों की सलाह से काम करे. जो राजा दण्ड-नीति का पूरा-पूरा प्रयोग करता है, उसके राज्य में सत्ययुग आ जाता है.

“ हे युधिष्ठिर ! राजा के छत्तीस गुण हैं. जो इनका पालन करता है, वही स्वर्ग का अधिकारी होता है.

युधिष्ठिर ने कहा – हे पितामह ! शासन बिना मित्र और मन्त्री की सहायता से नहीं चल सकता. कृपया बताएं कि उसके मित्र और मन्त्री कैसे होने चाहिए ?

भीष्मजी ने कहा;- हे धर्मराज ! मित्र चार प्रकार के होते हैं---सहार्थ, यजमान, सहज, तथा कृत्रिम. इसके अतिरिक्त धर्मात्मा मित्र भी होता है. ऎसा मित्र किसी का पक्ष न लेकर केवल धर्म का पक्ष लेता है. उक्त चार मित्रों में पहले के दो मित्र श्रेष्ठ होते हैं और अन्त के मित्र उत्तम नहीं होते. लेकिन कार्य साधन अपने सभी मित्रों से करना चाहिए. बुद्धिमान राजाओं को किसी मित्र पर पूरा-पूरा भरोसा नहीं करना चाहिए. ऎसा करने वालों की अकाल मृत्यु हो जाती है. हे युधिष्ठिर ! कुटुम्बियों से सदा सावधान रहना चाहिए. एक कुटुम्बी दूसरे कुटूम्बी की उन्नति सहन नहीं कर सकता. लेकिन कुटुम्बियों की अवहेलना कभी नहीं करनी चाहिए. क्योंकि दूसरों के दबाने पर कुटुम्बी ही सहायता करता है.”

“ हे राजन ! जो मन्त्री खजाने की चोरी करता हो और राज्य के गुप्त भेदों को खोलता हो, ऎसे मन्त्रियों को नहीं रखना चाहिए. कोष के स्वामी की सदा रक्षा करते रहना चाहिए, क्योंकि धन के लोभ से लोग मरवा भी सकते हैं. मन्त्री के पद पर शीलवान, सत्यवादी, सदाचारी तथा दयालु व्यक्ति को ही रखना चाहिए.”

“शत्रु से मित्रता करने वाले को शत्रु ही समझना चाहिए. उसे गुप्त भेद कभी नही बताना चाहिए. सदाचारी एवं विचारशील व्यक्ति ही गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी हैं. “

युधिष्ठिर ने पूछा’- हे पितामह ! राष्ट्र की रक्षा तथा उसका प्रबन्ध किस प्रकार करना चाहिए?

भीष्मजी ने समझाया;-“ धर्मराज ! राजा को चाहिए कि वह एक ग्राम का एक-एक अधिकारी अलग-अलग रखे. एक ग्राम वाले अधिकारी का कर्त्तव्य होगा कि वह अपने ग्राम की सब सूचनाएँ दस ग्रामों के अधिकारी के पास भेजे. उसी प्रकार दस ग्राम वाला सौ अधिकारी के पास उक्त सूचना को भेज दे. फ़िर सहस्त्र ग्रामों वाला अधिकारी उसकी सूचना राजा के पास देगा. इस प्रकार राजा को हर सूचना मिलती रहेगी. ग्रामों की पैदावार ग्रामों के अधिकारियों के पास ही रहनी चाहिए. वे वेतन के रूप मे नियत उपज का प्रयोग कर सकते हैं. हर नीचे का अधिकारी अपने ऊपर वाले अधिकारी को कर देता रहे. सौ गाँव के मालिक को उसके खर्च के लिए एक ग्राम की आमदनी देनी चाहिए. सहत्र ग्रामों वाले अधिकारी के पास युद्ध सम्बन्धी सामग्री रहनी चाहिए तथा उनके पास राजा का एक पदाधिकारी रखना चाहिए. बडॆ-बडॆ नगरों के प्रबन्ध के लिए एक-एक अध्यक्ष रखना चाहिए. प्रत्येक नगराध्यक्ष के पास सेना तथा गुप्तचर हों.”

युधिष्ठिर ने फ़िर प्रश्न किया;- हे पितामह ! यदि कोई राजा चढाई कर दे तो उसके साथ किस प्रकार युद्ध करना चाहिए ?

भीष्मजी ने कहा;-“ हे कुरु नन्दन ! बिना कवच वाले से युद्ध नहीं करना चाहिए. जब कोई कवच धारण कर अस्त्र-शत्र सम्हाले सामने आये, तो राजा को तुरन्त उसके साथ युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाना चाहिए. एक वीर के साथ एक ही वीर का युद्ध होना चाहिए. राजा धर्म-युद्ध में धर्म का आचरण करे एवं कपट युद्ध में कपट का. संकट में पडॆ हुए शत्रु पर अथवा अस्त्र त्यागे हुए योद्धा पर तथा रथ से नीचे उतरने वाले या शरण में आने पर कभी कोई चोट न करे. शिविर मे आने वाले की भली-भाँति चिकित्सा करा कर उसे घर भिजवा देना चाहिए.

------------------------------------------------------------------------------------------------------- १०३, कावेरी नगर, छिन्दवाडा(म.प्र.) ४८०००१ गोवर्धन यादव

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गोवर्धन यादव का आलेख - राजधर्म और राजा के कर्तव्य
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