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असगर वजाहत का कहानी संग्रह मैं हिंदू हूँ आप रचनाकार.ऑर्ग पर यहाँ पढ़ चुके हैं. उक्त संग्रह में उपलब्ध कहानियों के अलावा असगर वजाहत की बाकी की अन्य कहानियां रचनाकार के इन पृष्ठों में क्रमशः प्रकाशित की जाएंगी. प्रस्तुत है कहानी पर लिखी उनकी भूमिका और एक कहानी.
भूमिका एक
कहानी की दोपहर
कहानी लिखने की शुरूआत एक तरह से अजीब हालत में हुई थी। सन् 1964-65 के दिन थे और अपने अतिरिक्त आत्मविश्वास या मूर्खता के कारण मैं ऐसी स्थिति में पहुंच गया था जहां से लगता था सभी रास्ते बंद हैं और मैं एक ऐसा आदमी (उस समय युवक) हूं जो किसी काम का नहीं है। अब याद तो नहीं पड़ता लेकिन शायद कहानी लिखने और छप जाने के बाद ही यह एहसास हुआ था कि अपनी बात कह पाना कहीं न कहीं मन को शांति देता है, सहारा देता है, आत्मविश्वास और खुशी देता है। मेरी पहली कहानी का नाम था ‘वह बिक गयी’। यह किसी सच्ची घटना को केंद्र में रखकर लिखी गयी थी। और दूसरी या अगली कहानी लिखने का ख़याल आते ही सबसे बड़ी दिक़्क़त यह आती थी कि कहानी किस शब्द से शुरू हो सबसे पहले कौन-सा शब्द आये लाखों, करोड़ों शब्दों में कौन-सा शब्द कहानी का पहला शब्द हो सकता है इस तरह लंबे समय तक पहले शब्द की समस्या में फंसा रहा और परेशान होता रहा।
लेकिन फिर भी सन् 1964-65 से जो कहानी लेखन शुरू हुआ था वह मज़ेदार दुलकी चाल से चलता रहा और अगला पड़ाव आया जब मेरी पहली कहानी सन् 1965 में ‘धर्मयुग’ में छपी। थोड़ी भावुक क़िस्म की कहानी थी जो संबंधों के विस्तार पर आधारित थी। दूसरी कहानी जो धर्मवीर भारती (संपादक धर्मयुग) को भेजी तो वह उन्हें पसंद नहीं आयी हालांकि मेरे ख़याल से पहली से अच्छी थी, पर धर्मवीर भारती को दूसरी कहानी में वह ‘सुगंध’ नहीं मिली जो पहली में थी। मैंने भी तय कर लिया कि किसी की ‘सुगंध’ के लिए तो न लिखूंगा। पहले मुझे सुगंध मिलनी चाहिए उसके बाद किसी और को मिले तो मिले, न मिले तो न मिले।
यह साठोत्तरी का दौर था और निर्मल वर्मा ‘नयी कहानी’ का बाड़ा तोड़कर एकदम ऊपर आ चुके थे। साठोत्तरी में सेक्स संबंधी विकृतियों की ऐसी भरमार थी जो उकता देती थी। निर्मल वर्मा अच्छे लगते थे उसी तरह जैसे साहिर लुधियानवी लगा करते थे। नयी कहानी की दूसी धारा की बात होती थी और उनमें अमरकांत, शेखर जोशी, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ पक्की जगह बना चुके थे।
सन् 1971 के आसपास दिल्ली आया और ‘केक’ कहानी लिखी जो उस समय कुछ चर्चित हुई पर मैंने वह लीक नहीं पकड़ी और इधर-उधर भटकता रहा। यह भटकन हमेशा ही मेरे साथ लगी रही। यहां तक कि आपातकाल में यह भटकन काम आयी और मौखिक परंपरा की कहानियों ने एक रास्ता दिखाया। फिर पंद्रह-बीस साल के बाद ‘संवादों’ ने अपना रंग दिखाया और लघुकथाएं लिखीं। पर लगता रहा कि लघुकथाओं के संदर्भ में अधिक गंभीर होने की आवश्यकता है।
आगे पता नहीं कैसी कहानियां लिखूंगा... फिलहाल तो इन कहानियों को ही देखिए...
(2) भूमिका -मुश्किल काम
पूरे माहौल में बड़ी दहशत थी। लगता था, टिक-टिक करता वक्त किसी भयानक आवाज के साथ फट पड़ेगा। कॉफी हाउस में बेपनाह शोर था। बाल-बच्चों वाले जल्दी उठ रहे थे। कल क्या होगा, किसी को मालूम नही था। यह 26 जून, सन 1975 की एक शाम थी।
अगले दिन के अखबार बड़े-बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की खबरों से भरे हुए थे। जो अंडरग्राउंड हो गए थे, उनकी तलाश जारी थी। जो मुखालफत कर रहे थे, उनका पकड़ा जाना और जेल में ठूंस दिया जाना तय था। आतंक का खुला तांडव था। सब मजबूर थे। धीरे-धीरे अखबारों के वे एडीटर पकड़े जाने लगे जो सरकार की बात नहीं मान रहे थे। अखबारों और पत्रिकाओं में काले पन्ने छपने लगे। सेंसर लोगों की आकांक्षाओं पर कैंची चला रहा था। लिखने का काम खतरनाक से खतरनाक होता जा रहा था। आबादियां उजाड़ी जा रही थीं। नसबंदी के लिए घेरे डाले जा रहे थे। दिल में ऐसी दहशत थी कि कलम उठाते हुए दिल डरता था।
ऐसा नहीं था कि इमरजेंसी लगने से पहले हिंदी के लेखक बड़ा क्रांतिकारी लिख रहे थे। यह भी नहीं था कि कहानी, उपन्यास या कविता लिखने से सत्ता की चूलें हिली थीं, लेकिन फिर भी पाबंदी लगा दी गई थी। दो-तीन महीने तक तो यह समझ में न आया कि क्या करें कॉफी हाउस में जासूसों ने अड्डा जमा लिया था और गर्मागर्म राजनीतिक बहस करने वाले औपचारिक किस्म की घरेलू बातें या फुसफुसाकर एकाध राजनीतिक खबरों के एक्सचेंज तक सीमित हो गए थे।
हिंदी कहानी में यह वह दौर था जब साठोत्तरी कहानी अपने चमत्कार दिखाकर पूरी तरह लुप्त हो गई थी। नक्सलवादी आंदोलन लेखकों और बुद्धिजीवियों को आकर्षित कर चुका था। प्रगतिशील लेखकर अपनी भाषा खो चुका था, लेकिन साहित्य में प्रगतिशील जनवादी उभार अपनी नई उठान पर थे। कहानी में संघर्ष, सामाजिक विषमता, मध्यम वर्ग के प्रति अनास्था स्थापित हो चुकी थी। कह सकते हैं कि वर्गीय चेतना कहानी में एक नए अंदाज में दाखिल हो चुकी थी और यह जनवादी कहानी का शैशवकाल कहा जा सकता है।
ऐसी सोच-समझ रखने वालों के लिए इमरजेंसी काल में यह संभव नहीं थी कि स्त्री-पुरुष संबंधों की शाकाहारी कहानियां लिखने लगें या सौदर्यशास्त्र में डुबकी लगा जाएं। अब मुसीबत यह थी कि इमरजेंसी के हालात पर कहानी लिखने का मतलब जेल जाने जैसा था। और जाहिर है जेल जाने से डर लगता था।
सी.पी.आई. इमरजेंसी का समर्थन कर रही थी। उन दिनों जामिया नगर ओखला में जहां मैं रहता था, वहां बुद्धिजीवियों का एक ऐसा छोटा-सा ग्रूप था, जो सी.पी.आई. के सदस्य या समर्थक थे। सी.पी.आई के एक समर्थक मेरे पास अकसर आते और इमरजेंसी के बारे में मेरे विचार जानने तथा समर्थन में किसी पर्चे पर दस्तखत कराने के चक्कर में रहते थे। उन्हें मालूम था, मैं सी.पी.एम के नजदीक हूं और इमरजेंसी का विरोधी हूं। कुछ समझ में न आता था कि सी.पी.आइ. के समर्थक मित्र से कैसे निपटा जाए। इन्हीं हालात में मैंने पहली बार लघुकथाएं लिखीं। ‘कुत्ते’, ‘शेर’, और ‘डंडा’ कहानियां तैयार हो गईं। सी.पी.आई. के मित्र को ये कहानियां सुना दीं। इससे फायदा यह हुआ कि उनका मेरे घर आना बंद हो गया।
पूरी ‘रामकथा’ बयान करने का मकसद यह बताना है कि जब सीधी बात कहने का अवसर नहीं होता तो कविता के उपादान कहानी को एक नए धरातल तक ले जाते हैं। अभिव्यक्ति सशक्त होती है और लेखक बड़ी हद तक ‘सुरक्षित’ रहता है। मेरा लघुकथा लिखने का यह पहला दौर था। इस दौर की लघुकथाओं में कुछ प्रतीकात्मक लघुकथाएं हैं। कुछ बहुत हद तक पंचतंत्र की कहानियों की शैली में लिखी गई है।
इमरजेंसी आई और चली गई, लेकिन लघुकथाओं के प्रति आकर्षक कम नहीं हुआ। यह सोचा कि किसी और शैली में लघुकथाएं लिखी जाएं। उर्दू में नसरी नज्म (गद्य काव्य) की एक अच्छी शैली है। ‘कवि’ सीरीज की कहानियां उस शैली में लिखीं। यह कविता और कहानी के बीच की शैली लोगों को पसंद आई, लेकिन मैंने इसे आगे नहीं बढ़ाया। नए-नए रास्ते बनाने का जो मजा है, वह बने-बनाए रास्ते पर चलने में नहीं आता।
हमारे साहित्य में आधुनिक कहानी का जो ढाचा है, वह पश्चिम से लिया गया है। कथानक, पात्र, परिवेश, द्वंद्व, उद्देश्य, चरम उत्कर्ष का एक संतुलित संयोजन कहानी में आवश्यक माना जाता है। प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियों को छोड़कर बाकी लगभग सभी कहानियां इसी ढ़ाचे के अंतर्गत लिखी गई हैं, लेकिन इसके साथ-साथ माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ भारतीय शैली की कहानी है। यह पंचतंत्र, जातक कथाओं, नीति कथाओं तथा मौखिक परंपरा से अधिक निकट है।
कहानी के यूरोपीय ढांचे को तोड़ने की एक कोशिश इस तरह भी की जा सकती थी कि कहानी को मौखिक परंपरा से जोड़ा जाए। इस तरह ‘बंदर’, ‘वीरता’ जैसी कहानियां लिखने का प्रयास किया। यह लघुकथा का तीसरा अंदाज था। इस तरह की लघुकथाएं मैंने 1980-86 के दौरान लिखी थीं।
इसके बाद मेरे लघु कहानी-लेखन में एक नया मोड़ आता है। बहुत रोचक बात है, लेकिन पता नहीं तारों को कैसे मिलाया जाए। मैंने पहली कहानी ‘वह बिक गई’ 1965 के आसपास लिखी थी। यह पूरी कहानी संवादों में थी। इसके बाद 1989-90 के आसपास संवादों में लघुकथाएं लिखने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप ‘हरिराम और गुरुदेव’ सीरीज की कहानियां हैं। इन कहानियों का अनुवाद अंग्रजी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में हुआ और लोगों ने इन्हें पसंद किया। संवाद में लघुकथा का सिलसिला चलता रहा। 1992 में मैं पांच साल के लिए बुदापैश्त चला गया। हंगेरियन साहित्य और समाज से परिचय हुआ, जिसका असर मेरी लघुकथाओं पर पड़ा। हमारे देश में तो इमरजेंसी आई थी और जल्दी ही चली गई थी, लेकिन हंगेरी में इमरजेंसी काल बहुत लंबा और दर्दनाक था। उन हालात में हंगेरियन लेखकों ने नए-नए तरीके अपनाए थे। अपने समय और समाज को सामने लाने के लिए जिन शैलियों और भाषाओं का सहारा लिया था, वे बहुत रोचक हैं। विशेष रूप से हंगेरियन लेखक इश्तवान आरकेन्य की रचनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैंने उन्हें ‘ग्रात्सकी’ शैली का लेखक माना है। उन्होंने कहीं लिखा है कि वे संसार को कैसे देखते हैं। वे कहते हैं, ‘अपने पैर फैला लीजिए। सिर को नीचे झुकाइए और दोनों पैरों के बीच से दुनिया को देखिए। यही मेरा तरीका है।’
इश्तवान आरकेन्य की कुछ कहानियों का अनुवाद मैंने डॉ. मारिया नैज्यैशी के साथ मिलकर किया था। बाद में कुछ का अनुवाद डॉ. मारी कोबाच के साथ भी किया था। अब तो हिन्दी में आरकेन्य की कहानियों का एक संग्रह ‘वित्तमंत्री का नाश्ता’ भी प्रकाशित हो चुका है।
टी.पी. देव की कहानियां मैंने बुदापैश्त में ही लिखी थीं। इसके साथ ‘विकसित देश की पहचान’ और श्री त्रि...’सीरीज की कहानियां भी वहीं लिखी थीं।
दरअसल समस्या यह है कि आज हमारे चारों तरफ जो हो रहा है वह बड़ा अविश्वसनीय-सा लगता है। कभी-कभी यह ख्याल आता है कि यह सब गलत है। इतना भयंकर, इतना क्रूर, इतना निर्मम, इतना लालची, और स्वार्थी, मर्यादा और संस्कारहीन, पशु से भी गिरा हुआ आदमी कैसे हो सकता है पर फिर यह भी ध्यान आता है कि जो कुछ हो रहा है वह सच्चाई है। हम पतनशीलता के ऐसे दौर में आ गए हैं, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है। हम इतने हिंसक हो गए हैं, इतने क्रोधी, इतने लालची हो गए हैं कि हमारे लिए बड़े से बड़ा अपराध या हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं, बल्कि मजाक है। लोगों की जिंदगी इतने सस्ती तो शायद कभी न रही होगी या कभी सोचा न गया होगा कि ऐसा हो सकता है। इस स्थिति में शब्द कहां तक साथ देंगे अभिधा से तो काम चल ही नहीं सकता है। सब शब्द बौने हो गए हैं और छोटे पड़ गए हैं।
छद्म, तमाशा और छलावा हमेशा चुनौती रहे हैं, लेकिन हमारे समाज का छद्म बेमिसाल है। जो आदमी जो कह रहा है, उसका वह अर्थ ही नहीं है, जो निकल रहा है। बल्कि जो नहीं निकल रहा है, वही अर्थ है। मेरे ख्याल से भारत में सार्वजनिक स्तर पर जितना झूठ बोला जाता है, उतना शायद ही किसी देश में बोला जाता हो। देश-प्रेम की जितनी बातें भारत में जितने बड़े स्तर पर और जितने प्रभावशाली लोगों द्वारा की जाती हैं, उन्हें सुनकर लगता है, अगर यह सच होता तो भारत देश स्वर्ग बन चुका होता। धर्म का यहां जो रूप है वह अमानवीय पाखंड है। खरबों रुपये के मालिक कम से कम आधा दर्जन भगवान हमारे देश में मौजूद हैं, लेकिन देश और आम आदमी की क्या हालत है मतलब, क्या भगवानों ने भी अपनी कुछ शक्तियां कम कर दी हैं
एक तरफ करोड़पति की संख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर जितनी भयावह गरीबी यहां है, उतनी कम ही देशों में है। यह विरोधाभास सहज समझ में नहीं आता। हमारा लोकतंत्र भी तो एक जादुई मरीचिका है। है भी, नहीं भी है, पर फिर भी है, वह वास्तव में नहीं है। तो क्या कल्पना में है कल्पना में है तो दिखाई क्यों पड़ता है दिखाई पड़ने से यह सिद्ध थोड़ी होता है कि है। तो क्या ऐसा लोकतंत्र है, जो दिखाई देते ही गायब हो जाता है। हमारा सुप्रीम कोर्ट कहता है, इस देश को भवनान भी नहीं बचा सकते। हमारा नेता कहता है, दिल्ली को पेरिस बना दिया जाएगा। क्या दोनों में साम्य है या पेरिस और नरक के एक ही अर्थ हैं पर ऐसा कैसे हो सकता है इतने जटिल यथार्थ को देखने के लिए आरकेन्य का तरीका अपनाना पड़ेगा। जब शब्द कम पड़ने लगते हैं तो शब्दों को मारना पड़ता है ताकि नए शब्द जन्म ले सकें। शब्दों को मारने से एक उलझाव पैदा होता है, पर शायद वही सुलझाव है। यह उलझाव-रूपी सुलझाव और बढ़ जाता है, जब शब्दों के साथ विश्वास, आस्था, दर्शन और परिभाषाएं भी बदल जाती हैं।
मैं दूसरों की बात नहीं कहता, मुझे यह जरूर लगता है कि मैं अपने समय और समाज को उसकी पूरी जटिलता के साथ नहीं समझ पाता। जितना समझ पाता हूं उतना ही और उलझता जाता हूं। और जो दिखाई देता है, उसके लिए शब्द नहीं मिलते। उदाहरण के लिए हिंसा और विशेष रूप से सांप्रदायिक हिंसा का जो रूप हमारे यहां आजकल देखा जाता है उसका चित्रण कैसे किया जा सकता है मंटी ने धर्माधता और सांप्रदायिकता में आदमी को जानवर बनते देखा था। आज यह प्रक्रिया उतनी सीधी नहीं रही और दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि धीरे-धीरे पिछले पचास-साठ साल में इतना भयावह बदलाव हुआ है कि लोगों की संवेदना कुंठित हो गई है।
आप लिखते हैं, उससे असर होगा, प्रभाव पड़ेगा। पर उस समाज में जहां रोज लोग जला दिए जाते हैं, सैकड़ों बेसहारा गरीब रोज सड़कों पर मर जाते हैं, चंद रुपयों के लिए हत्याएं होती हैं, इंसान की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं बची है, उस समाज में लोग कितने संवेदनाशील हो सकते हैं ये तो रोज की बात है। रोते-रोते आंखों के आंसू तक सूख जाते हैं और हम लेखक, कलाकार आंखें नम करने की कोशिश करते हैं।
ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में लड़कियों को लड़कियां ही लिखा जा सकता है। शाह आलम कैंप में रुहें ही आ सकती है। मृतक ही वार्तालाप कर सकते हैं।
यही कुछ शब्द हैं, जो इन कहानियों से पहले कहना चाहता था।
3. भूमिका - डेमोक्रेसिया
मेरा पहला कहानी संग्रह ‘अंधेरे से’ 1976 में आपातकाल के दौरान पंकज बिष्ट के साथ छपा था। दरअसल योजना यह थी कि उस संग्रह में मंगलेश डबराल और मोहन थपलियाल की कहानियां भी होंगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका। एक युवा मित्र और नए प्रकाशक से कह-सुन और दे-लेकर संग्रह छपवाया गया था। संग्रह की चर्चा हुई थी। यहां तक कि उस ज़माने में ‘दिनमान’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे लेखक ने समीक्षा लिखी थी। राजेन्द्र यादव और अन्य वरिष्ठ लेखकों ने कहानियां पसन्द की थीं।
मेरी पहली कहानी ‘वह बिक गई’ 1964 के आसपास छपी थी। इस तरह कहानियां लिखना शुरु करने के लगभग बारह साल बाद संयुक्त संग्रह छपा था। इसके बाद ‘दिल्ली पहुंचना है’ पहला एकल संग्रह छपा था। फिर ‘स्विमिंग पुल’ नाम से एक संग्रह आया था। तीसरा संग्रह ‘सब कहां कुछ’ और उसके बाद ‘मैं हिन्दू हूं’ फिर केवल लघु कथाओं का संग्रह ‘मुश्किल काम’ प्रकाशित हुए। एक दो चयन छपे जिनको गिनती में शुमार करना बेकार है।
देखा जाए तो मैंने 40-45 साल की मुद्दत में ज़्यादा कहानियां नहीं लिखी हैं। एक तो यह भी रहा है कि मैंने जितनी कहानियां लिखीं और पत्रिकाओं में छपीं उन सबको संग्रहों में शामिल नहीं किया। लेकिन फिर भी मैंने ज्यादा कहानियां नहीं लिखीं कहानी लिखते हुए चिलचस्प अनुभव हुए और लगता है कई पड़ाव आए, कई रास्तों से गुज़रा और कई मंज़िलें छोड़ता रहा।
बहुत साल पहले भैरव प्रसाद गुप्त ने मुझसे कहा था कि मेरी कहानियों की सबसे बड़ी कमी यह है कि वे रोचक होती हैं। भैरव जी से बहस करने का मौका या समय नहीं था। लेकिन उनके ‘कमेंट’ के बाद भी मैं इस नतीजे पर नहीं पहुंचा कि कहानी को रोचक नहीं होना चाहिए। मेरे ख़याल से तो हर अभिव्यक्ति को रोचक होना चाहिए। रोचक से मेरा मतलब यह है कि रचना की पहली शर्त यही होना चाहिए कि पाठक उसे पढ़ें और यदि रचना रोचक नहीं है तो पाठक उसे कड़वी दवा समझकर तो स्वीकार नहीं करेगा। इसलिए आज भी मैं जब लिखता हूं तो पाठक के नजरिए से उस पर लगातार विचार करता हूं। मैं कोई उबाऊ कृति चाहे वह महान कृति क्यों न हो, नहीं पढ़ सकता तो दूसरा मेरी उबाऊ रचना क्यों पढ़ेगा लेकिन रचना का पूरा उद्देश्य केवल से रोचक बना देना ही नहीं होता। रचना कुछ मूल्यों, विचारों, प्रतिक्रियाओं, अस्वीकृतियों के बिना निरर्थक है। क्योंकि रचनाका पाठक के साथ जिस रोचक संवाद में लिप्त होता है यह सउद्देश्य है। अब यही विचारधारा और रचना के अंतःसंबंधों की बात सामने आती है।
उर्दू के प्रसिद्ध कवि और ज्ञानपीठ सम्मान से विभूषित शहरयार ने एक रेडियो इंटरव्यू में कहा था कि वे कार्ल मार्क्स और अल्लाह मियां पर एक साथ विश्वास करते हैं। मैं कम-से-कम ऐसा दावा नहीं कर सकता लेकन इतना जरूर कहना चाहूंगा कि कार्ल मार्क्स पर उस तरह विश्वास नहीं करता जैसा प्रायः लोग अल्लाह मियां पर करते हैं। कार्ल मार्क्स से परिचय होने के पहले भी मैं यह बात मानता था कि अन्याय और शोषण नहीं होना चाहिए। समाज में इतनी अधिक विषमता नहीं होनी चाहिए। सबको आगे बढ़ने के समान अवसर मिलने चाहिए आदि-आदि। कार्ल मार्क्स ने ऐसा समान बनाने का रास्ता दिखाया और सामाकि प्रगति और परिवर्तन का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। मार्क्स जिस प्रकार का समान बनाना चाहते थे, वैसा मार्क्स के बहुत से पूर्ववर्ती भी चाहते थे। अंतर यह है कि पूर्ववर्ती लािेगों के सामने ास्ता स्पष्ट नहीं था। और शायद आज भी रास्ता बहुत स्पष्ट नहीं है पर उद्देश्य पूरी स्पष्ट है। मेरे ख़याल से उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मैं लिखता रहा हूं। समाज को अधिक मानवीय समाज बनाना ही कलाओं का काम रहा है। मार्क्स से पहले भी यही था और मार्क्स के बाद भी यही रहा और रहेगा। इन उद्देश्यों को मार्क्सवादी लेखक भी पूरा करते हैं और वे भी करते हैं जो अपने को मार्क्सवादी नहीं कहते।
महान बांग्ला फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक 1974-75 के बीच अक्सर दिल्ली आते थे। वह अपनी मौलिक कला दृष्टि ौर अराजक जीवन शैली के कारण दिल्ली के हिंदी लेखकों और पत्रकरों में काफी लोकप्रिय थे। शरा के नशे में धुत्त रहनेवो घटक किसी सवाल का अगर सही जवाब दे देते थे तो यह पत्थर की लकीर हो जाता था। उस समय दनमान के फिल्म समीक्षक और लेखक स्वर्गीय नेत्रसिंह रावत ने एक शाम उनसे पूछा था कि ‘दादा रचना और विचारधारा का क्या संबंध होता है घटक ने गिलास में पड़ी दारू गटक ली थी और कहा था-‘वही संबंध होता है जो दाल से नमक का होता है।’ ददा तो यह मूल वाक्य बोलकर खामोश हो गए थे लेकिन इसकी वख्या करते चले जाएं तो रचना और विचारधारा का संबंध स्पष्ट होता चला जाएगा। दाल में नमक ज़्यादा है तो दाल खाई नहीं जाएगी। नमक बहबुत कम ै तब भी दाल नहीं खाई जा सकती। यही हाल रचना में विचारधारा का हिै। अनुपात केवल रचना और विचारधारा के संध का ही नहीं है बल्कि रचना, अच्छी रचना का रहस्य कई तरह के अनुपातों में छिपा होता है। जैसे दृश्यकला की श्रेष्ठता भी अनुपातों के आधार पर निर्धारित की जाती है। मैंने कहानियों की रचना करते समय यह ध्यान में रखा है, पर कहीं-कहीं मुझे लगा या बाद में यह लगा है कि अनुपात बिगड़ गए हैं। यहां वह बात रेखांकित कर दूं कि अनुपातों का बिगड़ना, नसे खिलवाड़ करना, उसे तोड़ना और जोड़ना-अनुपात का विस्तार और कला की सुंदरता में शुमार होता है।
कहानी लिखने के दौरान पहला मोड़ उस मय आया थ जब मेरी कहानी 1968 में ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती ने छापी थी। ढलती उम्र में एक बूढ़े दंपती के रिश्तों की कहानी को धर्मवीर भारती ने पसंद किया था और मुझसे दूसरी कहानी देने के लिए कहा था। मैंने दूसरी कहानी भेजी थी जो मेरे ख़याल से पहली कहानी से अच्छी थी लेकिन भारती जी ने संक्षिप्त पर कलात्मक-सा पत्र लिखकर कहानी वापस कर दी थी। उन्होंने लिखा था, दूसरी कहानी में पहली कहानी जैसी ‘सुगंध’ और ‘संबंधों’ का ताना-बाना नहीं बन पाा है। भारती जी की बात मैं समझ गया था। वे बिल्कुल ठीक थे। लेकिन सवाल यह था`ि क मैं भारती जी के अनुार कहानियां लिखूं या अपनी मर्जी से दूसरा मौका आया था जब मैंने 1971-72 के आसपास ‘केक’ कहानी लिखी थी। यह कहानी काफ़ी पसंद की र्ग थी और मेरे लिए यह सरल था कि उसी ‘लाइन’ और ‘लेंथ’ की कुछ कहानियां लिखकर वाह-वाही बटोरता। ‘लाइन’ और ‘लेंथ’ क्रिकेट की शब्दावली हैं जो बॉलिंग के संबंध में प्रयोग की जाती है। मैं कभी-कभी क्रिकेट या खेलों की पारिभाषिक शब्दावली से साहित्य को समझने की कोशिश करता हूं मेरे ख़याल से यह दिलचस्प और सटीक तरीक़ा है। कभ-कभी लगताहै खिलाड़ी और रचनाकार में बड़ी समता होती है। खिलाड़ी और लेखक, दोनों अपने क्षेत्रों में ‘अद्भुत’ की तलाश करते हैं। कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता। लेकिन बहुत कुछ प़र्क भी है। फास्ट बॉलर जीवन भर या जब तक खेलता है, फास्ट बॉलर बना रहता है और अपनी शैली को विस्तार देता रहता है। रचनाकार के लिए शैली बनाना और छोड़ना या विस्तार देना और नई शैली तक आना चुनौतीपूर्ण होता है। मैंनेकभीयह कोशिश नहीं की है कि एक तरह के सिक्के को सौ तरह से सुनाता रहूं। मेरे ख़याल से एक शैली की चपेट में आ जाना रचनाकार की मौत होती हैि। यह बात साहित्य पर ही नहीं अन्य कलाओं पर भी लागू होती है।
इमर्जेंसी के दौरान प्रतीकात्मक लघुकथाएं लिखीं जो उस समय के दमघोंटू माहौल में पसंद की गईं। लेकिन उस शैली को मैंने अपनी ‘छाप’ नहीं बनाया। लघुकथाओं में भी कई तरह की शैलियों में कोशिश करता रहा। आधुनिक प्रयोगधर्मी, अमूर्तन, प्रतीक-प्रधान कई तरह की लघु कहानियां लिखीं। अमूर्तन ने बड़ा सहारा दिया क्योंकि उसके माध्यम से यथार्थ के जितने स्तर बनते हैं वह अन्यथा मुश्किल है। ‘शाहआलम कैंप की रूहें’, ‘लकड़ियां’, ‘आत्मघाती कहानियां’, ‘टी.पी. देव की कहानियां’ आदि देखी जा सकती हैं। जो इस संग्रह में नहीं हैं।
जीवन इतना नंगा हो गया है कि अब लेखक उसकी पर्तें क्या उखाड़ेगा रोज़ अख़ाबार में जो छपता है वह पूरे समाज को नंगा करने के लिए काफ़ी है। पाठक के अंदर अब उस तरह से किसी भाव का संचार नहीं हो सकता जैसे पहले हुआ करता था अब अगर आज आप ‘पूस की रात’ की संवेदना जैसी संवेदना की कहानी लिखेंगे तो लोग कहेंगे कि यह तो रोज़ देखते हैं। हम इसके आदी हो गए हैं। अब पाठक को क्या है ो हल्का-सा आंदोलित कर सकता हैं। मानवीय संबंधों में जितनी गिरावट आई है, मनुष्य का जीवन जितना मूल्यहीन हुआ है, सत्ता जैसा नंगा निर्मम नाच दिखा रही है, मूल्यहीनता की जो स्थिति है, स्वार्थ साधने की जो पराकाष्ठा है, हिंसा और अपराध का जो बोलबाला है, सत्ता और धन के लिए कुछ भी कर देने की होड़, असहिष्णुता और दूसरे को अपमानित करने का भावजो आज हमारे समाज में है, वह पहले नहीं था। आज हम अजीब मोड़ पर खड़े हैं। रचनाकार के लिए यह चुनौतियों से भरा समय है। और इन हालात में लगता है क्या लिखा जाए।
ऐसे हालात में लेखकों ने अपने लिए अलग-अलग रास्ते निकालने की कोशिश की है। कुछ लेखकों ने अपनी विद्वता, जानकारी और प्रतिभा से पाठकों को आतंकित करने का रास्ता निकाल लिया हैि। उनको पढ़ते हुए पाठक भाषा शैली के चमत्कार, विद्वता के बोझ, जानकारियों की रेल-पेल से प्रभावित हो जाता है और चना को श्रेष्ठ मान लेता है। यहां रचनाकार और पाठक के बीच बराबर का रिश्ता नहीं बनता। कुछ अन्य लेखकों ने योरोप और अमेरिका के प्रभावित करनेवाले साहित्यिक आंदोलनों जैसे उत्तर आधुनिकता, जादुई यथार्थवाद, स्ट्रक्चरिज़म आदि-आदि के माध्यम से रचना की और कहा कि देखो यह नया है। पाठका को और ख़ासतौर पर सुधी पाठक को लगा कि हमारा लेखक विद्वान है और बड़ी-बड़ी बातें कर रहा है। ज़रूर इसने जो लिखा होगा, वह बहुत महत्वपूर्ण होगा। यह हमारी कमी है कि हम उसे पसंद नहीं कर पा रहे हैं।
एक और रास्ता तलाश किया गया जो विमर्श का रास्ता कहा जाता है। इसके अंतर्गत सबसे पहले स्त्री विमर्श, उसके बाद दति विमर्श, फिर आदिवासी विमर्श तथा अल्पसंख्यक विमर्श को रेखांकित किया जा सकता है। ये साहित्यिक विमर्श राजनीतिक स्तर पर उपेक्षित जातियों, समूहों तथा समुदायों के स्थापित होने के विमर्श हैं। राजनीति में जिनको-जिनको स्वर मिलता गया उन्होंने साहित्य में अपने विमर्श खड़े करने शुरू कर दिए। मैं इन विमर्शों का विरोधी नहीं हूं बल्कि उनका स्वागत करता हूं। समस्या यह हो गई है कि इन विमर्शों के अंतर्गत लिखे गए साहित्यि का मूल्यांकर करने के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की मांग की जा रही है। नए पैमाने उपलब्ध नहीं हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चूंकि यह रचना स्त्री विमर्श या दलित विमर्श या अल्पसंख्यक विमर्श पर केंद्रित है इसलिए यह अच्छी रचना है। मतलब रचना के मूल्यांकन का आधार और कुछ नहीं केवल विमर्श बन जाते हैं।
पता नहीं नया सौंदर्यशात्र कब बनेगा लेकिन ऐसे फोन ज़रूर आते हैं जो पूछते हैं, आप किस विमर्श के लेखक हैं मैं कहता हूं सभी विमश्र मेरे लेखन में हैं तो फोन करनेवाला हंसता है और फोन का देता है। मतलब विमर्श नहीं तो लेखक भी नहीं।
पत्रिकाएं विमर्श के आधार पर निकल रही हैं। अगर आप किसी विमर्श में नहीं हबैं तो आपको कोई पत्रिका घास नहीं डोगी। इस पर क़ायामत यह है कि पत्रिकाओं के संपादकों ने विमर्श का स्वरूप तय कर दिया है। मतलब यह कि आप स्त्री विमर्श के लेखक हैं तो सेक्स, नग्नता, विद्रूपता कितनी होनी चाहिए यह तय है। अगर नहीं होगी तो कहानी नहीं छपेगी। पता नहीं कितने नए लेखकों को यह रवैया भ्रमित कर रहौ और साहित्य का कितना नुकसान कर रहा है।
मेरे लिए कहानी लिखना लगातार कठिन होता तजा रहा है। आज, आसपास बिखने जीवन पर कुछ लिखता हूं तो लगता है अख़बारी लेखन हो रहा है। दूसरी तरफ उस जीवन को मैं विशुद्ध कहानी भी नहीं बनाना चाहता। इस तरह अख़बारी लेखन और कहानी के बीच का लेखन मेरे लिए चुनौती है। यह हो नहीं सकता कि मैं ईर्द-गिर्द से आंखें बंद करके शिल्प और पांडित्य के चमत्कार से पाठकों को आतंकित करता रहूं केंकि मेरे विचार से आज उस तरह का लेखन अपराध ही माना जाएगा।
अख़बारी लेखन और कहानी लेखन के अंतर्द्वन्द्व ने मेरी कहानियों पर प्रभाव डाला है। पहला प्रभाव यह पड़ा है कि मेरी कहानियों से केंद्रीय पात्र ग़ायब हो गए हैं। अब समय मेरी कहानियों का प्रमुख पात्र है। इस कारण कहानियों में व्यंग्य चाहे जितना बड़ा हो मानवीय संवेदना बड़ी हद तक व्यक्ति नहीं समूह केंद्रित होती चली गई है जिसकी प्रस्तुति अमूर्तन के माध्यम से ही हो पाती है।
जब मैंने कहानियां लिखना शुरु किया था तो अन्य विदेशी कहानीकारों के अलावा हिन्दी के दो कहानीकार निर्मल वर्मा और फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ आकर्षित करते थे। आज स्थिति यह है कि निर्मल वर्मा उतना आकर्षित नहीं करते पर रेणु आज भी उतने ही महत्तवपूर्ण बने हैं। दरअसल निर्मल वर्मा चिन्तक हो गए थे। मेरे ख़याल से यह कहानीकार का त्रासद अन्त होता है जब वह चिन्तक बन जाता है। निर्मल वर्मा जैसा सक्षम और प्रतिभाशाली कहानीकार इसका शिकार हो गया था। कहने का यह मतलब नहीं कि रचनाकार को विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए या अपने परिवेश को समझने के लिए ज्ञान के अन्य स्रोतों के पास नहीं जाना चाहिए। लेखक या रचनाकार के ज्ञान संवर्धन का उद्देश्य रचना को सम्पन्न करना होता है न कि वह चिन्तक बन जाना।
एक दौर मैं मैंने जो कहानियां लिखी हैं या अब भी मैं जैसी कहानियां लिखता हूं उसके बारे में कुछ कहानी समीक्षकों का कहना है कि वे ‘कामिकल ट्रेजडी’ की कहानियां हैं। हास्य और व्यंग्य, इस तरह कहानी को आगे बढ़ाते हैं कि वह त्रासदी बनकर विषय और पात्र को नए आयाम और अर्थ देते हैं। इतना तो मैं कह सकता हूं कि व्यंग्य, हास्य, नाटकीयता आदि के माध्यम से अपने समय और समाज को समझने का काम मुझे अच्छा लगता है। कहा जाता है कि आज के भारतीय समाज में यदि आपकी कुछ सहायता कर सकता है तो वह हास्य और व्यंग्य ही कर सकता है। हास्य, व्यंग्य और नाटकीयता प्रायः पाठक को आकर्षित करते हैं और रचना को लोकप्रिय बनाते हैं। दूसरी तरफ़ ख़तरा यह बना रहता है कि रचना शायद हास्य व्यंग्य तक की सीमित होकर न रह जाए। मतलब पूरे प्रयोजन का उद्देश्य सीमित न हो जाए।
प्रचलित और योरोप या विदेशों से आयात किए गए साहित्यिक आन्दोलनों आदि ने मुझे कभी किसी तरह प्रभावित नहीं किया कि अन्धानुकरण करने लगूं। जैसे एक ज़माने में ‘मैज़िकल रियलिज़्म’ यानी जादुई यथार्थवाद का शोर था और हिन्दी का हर दूसरा लेखक जादुई यथार्थवाद का शोर था और हिन्दी का हर दूसरा लेखक जादुई हो गया था। उत्तर आधुनिकता और दूसरे साहित्यिक सामाजिक आन्दोलना जो कहीं ओर किसी और देश के इतिहास और समाज में महत्तवपूर्ण हो सकते हैं, वे हमारे यहां भी होंगे, यह मानना ज़्यादती होगी। दरअसल हम पश्चिम से आक्रान्त हैं। अंग्रेज़ी राज और उसके सांस्कृतिक साम्राज्य का दबदबा आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है। हमें अपने देश का जादू, जादू नहीं लगता केवल लातीनी अमेरिका का जादू ही जादू लगता है।
मैं कहानी का आलोचक नहीं हूं और न होना चाहता हूं। अपनी कहानी के बारे में, साहित्य के समन्ध में कुछ सवाल मन में उठते रहते हैं। सोचा कि उन्हें मिल -बांटकर समझा-परखा जाए तो अच्छा हो।
मुर्दाबाद
मिलिटरी की पुरानी गाड़ी। आगे तीन-चार आदमी मजे में बैठ सकते हैं और पीछे पंद्रह-बीस आदमी और ‘लूट’ का सामान तक आ सकता है। असहन खां डकैत ने मिलिटरी की नीलामी में खरीदी थी इलाहाबाद से। डकैती और फौजदारी जैसे कामों के लिए केकड़ा दूर-दूर तक मशहूर है। आजामाबाद वाली फौजदारी में और पीरनपुर वाले डाके में यही गाड़ी थी, जो पुलिस जीप को कई मील पीछे छोड़ गयी थी। टॉप-गेयर में हवा से बात करती हैं, और इंजन इतना बे-आवाज की सोते आदमी के पास से निकल जाये तो करवट न ले।
आजकल केकड़ा अस्सी रुपये रोज में नूरू मियां के इलेक्शन में चल रहा है। रात में जब इलेक्शन दफ्तर के सामने आकर खड़ा होता है तो रोडवेज वाली जीपों की नानी मर जाती है। एक ही गाड़ी लाइट मारती है-केकड़ा और जैसा केकड़ा वैसा ही ड्राइवर। बच्चू खां भी अहसन खां डकैत के साथियों में था। अहसन खां ने बच्चू की गैंग में इसलिए रक्खा था कि दो-चार जिले में उसका जैसा ड्राइवर मिलना मुश्किल है। फतेहपुर, बांदा और हमीरपुर में बच्चू खां की ड्राइवरी का डंका बजता है। बांदा में किसी ट्रक को रोककर कहो कि बच्चू खां के आदमी हैं, फतेहपुर पहुंचा दो तो ड्राइवर इज्जत से बिठाएगा। चाय अलग पिलाएगा और फतेहपुर में छोड़ देगा।
आजकल तो बच्चू खां ने भी नूरू मियां के इलेक्शन में काम कर रहा है। मैला पाजामा और टेरीकोट की गंदी कमीज पहने केकड़ा चलाता है। जेब में माउजर रिवाल्वर पड़ा रहता है। बच्चू खां ने माउजर से शादी कर ली है। पता नहीं कब साली जरूरत पड़ जाये। हंसता रहता है और पान की पीक से पीले दांत झलकते रहते हैं। लेकिन मौके पर बिजली हो जाता है।
केकड़ा के बोनट पर एक बड़ा-सा माइक फिट है और दोनोें तरफ खिड़कियों से पार्टी के बड़े-बड़े झंडे बांध दिये गए हैं। जब गाड़ी टॉप गेयर में चलती है तो झंडे इर्द-गिर्द फरफराते हैं। बच्चू खां के साथ शाहिद मियां और जग्गू बैठते हैं। जग्गू शाहिद मियां का बॉडीगार्ड है। छाया की तरह पीछे-पीछे लगा रहता हे। जब कोई काम नहीं होता तब कोठी के दलान में बैठा बीड़ी पिया करता है या खाना पकाने वाली छोकरी रसूलन को छेड़ता रहता है। जग्गू को नूरू मियां ने बचपन से पाला है। अब तो खा-पीकर अच्छा-भला पहलवान है।
‘‘भाइयों और बहनों - आप अपना कीमती वोट हमारे उम्मीदवार नूरू मियां को देकर जिले की तरक्की में हाथ बंटाएं।’’ स्पीकर शाहिद मियां के हाथ में है। हेल्लो-हेल्लो, ठक-ठक।
‘‘हेल्लो-हेल्लो, महिलाओं....देवियों और सज्जनों! लोकसभा के उम्मीदवार श्री नूरूद्दीन अहमद को अपना वोट देकर हमारे हाथ मजबूत कीजिए....’’याद रखिए...यार मुख्तार, चौराहे से और लौड़ों को पीछे भर लो। नारे लगाने वालों की कमी हो गयी है। और ये लो पांच रुपये। सालों को मूंगफली बांट देना, शाहिद मिंया ने खड़खड़ाता हुआ नोट बढ़ा दिया।
‘‘भाइयों और बहनो...’’ शाहिद मियां ने भाषण शुरू कर दिया। पीछे बैठे सब लोग उतरकर सिगरेट सुलगाने लगे ‘‘जैसा कि आप सबको मालूम है, सिंडीकेट वाले बहुत परेशान कर रहे हैं। हम आप से दो-टूक बात ये कह रहे हैं कि एक बार हमें पांच साल का मौका दीजिए। फिर आप देखिएगा कि मुल्क की हालत में क्या चेंज आता है। सिर्फ एक मौका दीजिए। यदि देश में समाजवाद न आया और जिसे केवल और सिर्फ हमारी पाटी ही ला सकती है। तो देश बराबर हो जाएगा....।’’
‘‘बस यार ज्यादा भाषण न करो। अपना ही एरिया है,’’ हैदर ने शाहि मियां के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘और फिर यहां कोई तुम्हारा भाषण क्या समझेगा। तुत तो कल रामलीला के मैदान में बोलना।’’
‘‘चुप रहो यार...तुम क्या जानो। बिलकुल हथियार हो अपने ही एरिया में काम न किया गया तो झांट वोट मिलेगा’ मुख्तार बोला।
‘‘मैं जब कोई बात कहता हूं तो तुम टांग अड़ा देते हो!’’..हैदर हथियार का पारा हाई हो गया।
‘‘चुतियापे की बात करो और कुछ कहा न जाए,’’ मुख्तार ने फिर छेड़ा।
‘‘ऐसी तैसी में जाए साला इलेक्शन,’’ हथियार घर की तरफ चल दिए।
शाहिद मियां ने बिगड़ती हुई स्थिति को संभाल लिया, ‘‘तुम छोड़ो यार इन बातों को, लो सिगरेट पियो।’’
हर पांच साल के बाद ही तो शहर की किस्मत जागती है। वैसे कच्ची सोई हुई सड़कों और दबी-दबी सी छोटी-छोटी दुकानों के सामने खजहे कुत्ते घूमा करते हैं। घच-घच करते हुए इक्के सवारियों को स्टेशन से कचहरी और कचहरी से बस अड्डा ले जाते हैं। साइकिल की मरम्मत की दुकानों पर गांव से आये ग्राहकों को साइकिल वाले ठगते रहते हैं। हलवाइयों की दुकानों के सामने दूर तक दोनों और मक्खियों की भरमार रहती है। एक-आध सीधी शरीफ लड़की सिर पर पल्लू डाले निकल जाती है तो कन्हई पानवाला जोर से जांघ पर हाथ मारता है और मुस्कराकर नन्हें खां को देखकर आंख मार देता है। कई-कई महीने कोई नई खबर हलचल नहीं पैदा करती। बस सीधी-सादी बेकार व निकम्मी और छोटे-छोटे आपसी झगड़ों व मारपीट की जिंदगी। पुलिस चौकी के सिपाहियों के कैरेक्टर के चर्चे होते हैं। नन्हें खां कभी-कभी ‘कव्वाली’ कर लेते हैं। लेकिन आजकल तो शहर ही बदला हुआ है। चाय के होटल रात में ग्यारह बजे तक खुले रहते हैं। वहां लिखा है ‘मेहरबानी’ फरमाकर सियासत पर गुफ्तगू न करें’ लेकिन हर आने वाला सियासत पर गुफ्तगू करता है। ‘वोट किसकोे देंगे नूरू मियां को या पंडित ललित नारायण मिश्रा को नूरू मियां अहीरन डाले हैं। उनको कोई हिन्दू तो वेाट न देगा। और मिश्रा जी गोश्त खाते हैं उनको हिंदू वोट देंगे अजी साहिब नूरू मियां ही थे जिन्होंने बरसात में घर गिर जाने वालों को रुपया दिलवाया था। तो क्या नूरू मियां ने अपनी गांठ से दिया था मिश्रा जी ने तो अपने पेसे से अल्लीपुर वाली पुलिया बनवा दी थी। पंडितों को राज है, जो मिश्रा जी हो गये तो एक-आध कारखाना खुलवा देंगे। नूरू मियां क्या उखाड़ लेंगे उन्हें तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए। कैसा बगला भगत आदमी है। पहले मुस्लिम लीगी था अब...ये सियासत ही गंदी चीज है मियां! जो साला आता है वही रंग जाता है। एक ही बात है, चाहे नूरू मियां को वोट दो या मिश्राजी को। अमा इलेक्शन से कभी कुछ हुआ है पिछले बीस साल से इलेक्शन ही तो लड़ा है। झांट भी तो नहीं उखड़ी। मिश्राजी हां या नूरू मियां, सब साले एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। वाह जनाब वाह! ये आप क्या कह रहे हैं। एक काफिर और मुसलमान को...एक-एक वोट के सौ रुपये लो। जो साला दे उसी को वोट दो। ये लोग धरमात्मा तो हैं नहीं सारे वहां जाकर पैसा ही बनाएंगे नहीं साहिब ये कैसे हो सकता है अरे पांच साल में एक बार तो कौम की खिदमत करने का मौका आता है। एक वोट है वो मुसलमान भाई को दे दो।’
नूरू मियां के इलेक्शन में शहर के मुसलमान लौंडे जानतोड़ मेहनत करते हैं। कई जिलों में साला एक तो मुसलमान एम.पी. है। वह भी हार गया तो शहर क्या, चार-छः जिले के मुसलमानों की नाक कट जाएगी। किसी भी पार्टी से खड़ा है-है तो मुसलमान। और फिर मुसलमानों की गांड़ में यूं ही डंडा किए रहते हैं लोग। नूरू मियां हार गए तो जनसंघियों की चढ़ बजेगीऔर लखनऊ से दिल्ली तक जिले के मुसलमानों की सुनवाई करने वाला कोई न होगा। और फिर हैदर हथियार को तो वैसे भी कुछ कम नहीं है। मुख्तार तो नूर मियां के इलेक्शन को इस्लाम जिंदाबाद समझकर काम करता है। कलूट का अंडे मुर्गी का कारोबार ठप पड़ गया है। थोड़ा सा नेतागिरी का शौक नूर मियां के इलेक्शन में पूरा हो जाता है। केकड़ा पर ठाठ से बैठे गांव-गांव में घूम रहे हैं। कभी-कभी तो गांव में ऐसा फ्रेश माल दिख जाता है कि हैदर हथियार दबे-दबे कई दिन घूमते हैं। गांव में पुराने मेल-मुलाकातियों से मुलाकात हो जाती है और दस लोग समझते हैं कि कलूट के पास भी कुछ ‘पावर’ है तब ही तो नूरू मियां इतना विश्वास करते हैं। उमाशंकर से तो शाहिद मियां की स्कूल की दोस्ती है। दर्जा एक से ग्यारह तक दोनों साथ पढ़े है। दोनों मुस्लिम स्कूल के पीछे वाली मस्जिद में बैठकर ठर्रा पिया करते थे। गर्ल्स स्कूल की लौंडियों का साथ-साथ पीछा करते थे और शाहिद मियां के बटाईदारों की लड़कियों को सरसों के खेत में साथ-साथ ‘ठीक’ किया करते थे।
इलेक्शन से दो हफ्ते पहले शाहिद मियां एक बार उमाशंकर के पास आते हैं, कहते हैं, ‘‘उमाशंकर अबकी फिर इज्जत का सवाल है।’’ उमाशंकर उसको मूलचंद परदेसी के होटल में चाय पिलाता है। मूलचंद परदेसी शाहिद मियां के जाने के बाद उमाशंकर से हाथ जोड़ने लगता है। ‘‘भाई उमाशंकर जी अबकी बार तो शराब का ठेका मुझे दिलवा दो।’’ उमाशंकर दिल से हंसता है। अब साले आए हो रास्ते पर। पूछता है, ‘‘परदेसी तुम्हारा कितना हिसाब हमारी तरफ बाकी है।
‘‘अजी एक पैसा नहीं बाबूजी। अब तो एक ही इच्छा है भगवान से कि शराब का ठेका...।’’
उमाशंकर खद्दर का कुर्त्ता झाड़ता हुआ कहता है, ‘‘शाहिद मियां कुछ न कर सकेंगे....’’मूलचन्द परदेसी पीला पड़ जाता है तो उमाशंकर आगे बढ़ते हुए कहते हैं ‘‘नूर चच्चा से बात करेंगे तुम्हारे लिए।’’ मूलचंद परदेसी की आंखें फिर फैल जाती हैं। उमाशंकर की छाती फूलकर अल्लीपुर वाला ऊसर हो जाती है। अरे बाप रे बाप-एक एम.पी. बिलकुल अपना आदमी।
‘‘अमां तुम भी अजीब लुर आदमी हो जरा-जरा सी बात में नयी दुल्हन की तरह तुनक जाते हो....फिसला देते हो...।’’ ही-ही-ही-ही उमाशंकर हंसने लगा।
‘‘यार हद होती है मजाक की भी जब देखो साले पीछे पड़े हुए हैं। अभी इलेक्शनन होता तो बताता,’’ मुख्तयार ने हैदर की नकल की।
‘‘क्या बताते तुम क्या जानो इलेक्शन किस चिड़िया का नाम है आराम से केकड़ा में घूम रहे हो। मुफ्त में चाय-सिगरेट मिल रही है। तुम तो चाहते होगे कि साला साल भर इलेक्शन रहा करे।’’
‘‘क्यों क्या अपना काम नहीं है करने को’’ हैदर बोले फिर जल्दी ही ठंडे पड़ गए। हैदर के पास सचमुच कोई काम नहीं है करने को। बड़ी मुसबत में चुंगी में नौकरी लगी थी तो साली पहली ही छटनी में चली गर्ई। अब वे सुबह चाय पीकर घर से बाहर निकल आते हैं। थोड़ी देर नसीर की दूकान पर बैठते हैं। वहां से चचा के होटल पर आकर ‘सियासत’ पढ़ लेते हैं। वहां से उठे तो मामू की दूकान में फ्री फंड में शेव बनवाया। कुछ देर मामू से गप मारी तो दोपाहर हो गयी। घर आकर खाना खाया और सो लिए।
नौकरी साली कहां मिलती है यू.पी. के चारों शहरों-फतेहपुर, कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ के इम्लायमेंट एक्सचेंजों में नाम लिखा है। दो -चार सौ रुपये खर्च हो गये मगर नौकरी नहीं मिली.... और घरवालों से बीड़ी साबुन के पैसे कब तक मांगें तंग आकर वही धंधा शुरू कर दिया जो अनवर के बिना चैन नहीं पड़ता है। एक मुनीर तंबाकूवाला, दूसरा रामरतन बजाज और तीसरा मास्टर अब्दुल गफूर पगलेट। ये तीनों आदमी अनवर को दो रुपये हफ्ता दिया करते थे। जब हैदर हथियार ने शुरू-शुरू में ये धंधा किया तो नन्हें खां ने बहुत समझाया था-अब साले नामर्द हो जाओगे। इन साले घूसटों ने अनवर को तो चूस के फेंक दिया। अब तुम्हें फांसा है।....कुछ मजा भी तो न आता होगा-मगर कोई रास्ता नहीं है। कम से कम घरवालों से बीड़ी और साबुन के पैसे तो नहीं मांगने पड़ते। और फिर मास्टर अब्दुल गफूर पगलेट कभी-कभी आमलेट भी खिला देता है।
शाहिद मियां को कसरत का शौक है। चौड़ा-चकला सीना और तगड़ी बाहें। टेरीलीन की तंग पैंट और चमचमाती बुशर्ट में काफी जंचते हैं। गोरा रंग, चौड़ा माथा, हाथ में बंधी कीमती घड़ी। कॉलेज में पढ़ते-पढ़ते छोटे-मोटे नेता हो गये हैं। कॉलिज यूनियन तो उनके बाप की जागीर है। कोई साला मुकाबले पर खड़ा होने की हिम्मत ही नहीं कर सकता है। कॉलिज प्रिंसिपल को मारने के बाद तो बड़ा दबदबा हो गया है। थाना कोतवाली भी करते हैं! जुए, शराब और लड़कियों को छेड़ने की इल्लत में बंद साथियों को छुड़वा लाते हैं। दारोगा जी से याराना है। सगे चाचा एम.पी. हैं। दारोगा साला भी डरता है कि साला ‘अल्ला मियां के पिछवाड़े’ न ट्रांसफर करवा दे। फिर शाहिद मियां बात-बात में कहते हैं-यू.पी.-उ.पी. के लोगों को तो मैं कम ही जानता हूं। हां, दिल्ली का कोई काम हो तो बताओ। दिल्ली... छोटा-मोटा आदमी तो नाम सुनते ही शंट हो जाता है। शाहिद मियां तो हीरो हैं हीरो। जावा मोटरसाइकिल पर निकलते हैं। जग्गू सोलाबोर बंदूक लिए पीछे बैठा रहता है। बाकरगंज के चौराहे पर रुकते हैं और जोर से चिल्लात हैं-अबे रहमत, सुज्जन, सगीरा, छिद्दू सालो कहां हो। रहमत चचा के होटल में उतर आता है। शाहिद मियां जग्गू के हाथ से सोलाबोर लेकर कहते हैं, ‘‘साले अभी तुम्हें गोली मार दूंगा। खैराती से अभी तक रुपया नहीं लाया’ रहमत हंसता है। बड़े मज़ाकी हैं शाहिद मियां। पर ख़याल भी कितना रखते हैं। अदनापुर वाले डाके में सजा खाये बिना न बचता। शाहिद मियां की ही हिम्मत थी जो रोज़नामचा बदलवा दिया था। ‘‘तुम लोगों को सालो, पिछले इलेक्शन की तरह जानतोड़ काम करना है।’’ और फिर जावा फट से स्टार्ट हो जाती है।
केकड़ा चुंगी चौकी के सामने चाय की दुकान पर रोक दिया गया। शाहिद मियां नीचे कूद पड़े। पीछे से लड़के कूदने लगे। नारे लगाने वाले लौंडे कहने लगे कि हम भी चाय पीयेंगे। शाहिद मियां ने कहा, ‘‘सालो पांच रुपये की मूंगफली खा गये अब चाय पियोगे भाग जाओ यहं से...।’’ हैदर हथियार, उमाशंकर और मुख्तार के कूदने के बाद कलूट उतरे। उनके गंजे सिर पर तीन-चार बाल पार्टी के झंडे की तरह लहरा रहे थे।
जग्गू ने चाय का आर्डर दिया-पंद्रह समोस,े तीस रसगुल्ले, पंद्रह चाय, तीन पैकेट पानामा और बाद में पंद्रह पान।
‘‘यार शाहिद मियां, तुम कलूट चचा के माथे में चुनाव निशान खुदवा दो,’’ मुख्तार ने कहा और सब हंसने लगे। कलूट मियां भी हंसे। उन्हें अपने गंजे सिर की बड़ी फिकर है। कई बार खोपड़ी घुटवा चुवे हैं। बाल उगाने वाली सारी दवाएं लगा चुवे हैं। कुछ दिन हुए ‘सियासत’ में पढ़ा था कि एक जापानी डॉक्टर सिर पर ट्रैक्टर चलाकर बाल उगा देता है। लेकिन इस जापानी डॉक्टर वे बारे में काफी छान-बीन वे बाद भी पता नहीं चल सका, कई महीने अंडे की जर्दी मली। मगर सब बेकार।
‘‘शाहिद मियां, कल चल के पपड़ीखेड़ा वाले परधान से मिल लेव। आज बाज़ार में मिला रहे तो पांच हज़ार हांकत रहे,’’ जग्गू बोला।
‘‘पांच हज़ार साला गांजा ज़्यादा पी गया था क्या गिने-चुने एक हज़ार वोट हैं साले के पास।’’
‘‘वो ऐसे ठीक न होगा यार। तुम दरोगाजी को भेजकर देशी शराब की इसलत में चालान करवा दो तो काम बन जाये,’’ उमाशंकर बोला।
‘‘वो तो सब हो जायेगा यार। मुझे असली फिक्र शहर की है।’’
‘‘देखो शहर के सेंट-परसेंट मुसलमानों के वोट तुम्हारे हैं। मुसलमान साले तुम्हें वोट नहीं देंगे तो जाएंगे कहां’ उमाशंकर ने कहा।
‘‘क्या कहते हो यार सेंट-परसेंट। भाई साहब, कसाइयों का एक भी वोट नहीं मिल रहा है आपको। खैराती ने जनसंघियों से पांच सौ रुपये ले लिये हैं,’’ मुख्तार ने बताया।
‘‘अच्छा! खैराती अब ये करेंगे जब साले गउकुशी में पकड़े जाएंगे तो जनसंघी ही उन्हें बचाएंगे आना तो उन्हें चचाजान ही के पास है।’’
‘‘भइया अगर...।’’
शाहिद मियां बात काटकर बोले, ‘‘देखो जग्गू कसाई टोले में जाकर कह दो कि अगर जनसंघ को वोट दिया और बाद में गउकुशी में पुलिस गांड़ में डंडा करे तो कोई चचाजान के पास न आए।’’
‘‘जुलाहों के वोटों का क्या हुआ’
‘‘देखो,’’ शाहिद मियां आंकड़े देने लगे, ‘‘शहर में मुसलमानों की सबसे बड़ी बिरादरी कुंजड़ों की है। उनका मुखिया चचाजान के सामने कुरआन उठा चुक है। दूसरी बिरादरी चिकवों की है। उनकी मस्जिद में चचाजान परसों नमाज़ पढ़ने गये थे। वहां यासीन ने नामज़ के बाद पूरी बिरादरी से कहा है कि जो नूरू मियां को वोट न मिले तो रोटी-बेटी बंद हो जाएगी। उसके बाद जुलाहों का नंबर आता है। उनकी डिमांड ये थी कि इमली तले की मज़ार बनवा दो जाए। तो कल से उसमें काम लग जाएगा। साला छोटा दारोगा किस दिन काम आएगा अब सवाल उठता है हिंदू वोटों का, तो भाई साहब, आपके अध्यक्ष शर्मा बाबू तक ललितनारायण मिश्र की कन्वेसिंग करते घूम रहे हैं। ये हाल है तास्सुब का। चचाजान ने दिल्ली और लखनऊ तक उनकी शिकायत की है। देखो क्या होता है। लेकिन ठाकुर वोट आपको मिलेगा...’’
‘‘अमां मौलवी सिब्तुल हसन, ‘फिदा’ चचा मियां के खिलाफ प्रोपेगेंड करते घूम रहे हैं,’’ मुख्यात ने कहा।
‘‘उससे क्या होता है शियों के कितने वोट हैं शहर में ज़्यादा-से-ज़्यादा दो तीन सौ... और मौलाना मियां का सुन्नियों पर कोई असर है नहीं। मौलाना इस्लामुलहक और मौलाना मुहम्मद अहमद चचाजान के पक्के सपोरटर हैं। मौलाना इस्लामुलहक की लड़की वाले केस में चचाजान न...’’
‘‘तुमने भी तो बहती गंगा में हाथ धोये थे, ’’ किसी ने कहा और सब हंसने लगे। शाहिद मियां झेंप गये।
‘‘यार छोड़ो उस किस्से को...।
सामने पान की दुकान से रज्जाक भागता हुआ आया।’’ शाहिद मियां, अभी-अभी जनसंघियों की जीप स्टेशन की तरफ गयी है। छेक लेव रास्ते में...।’’
‘‘बैठो-बैठो-जल्दी करो यार,’’शाहिद मियां, चिल्लाने लगे।
सब लोग जल्दी-जल्दी केकड़ा पर बैठने लगे।
‘‘जल्दी बैठो...यार बच्चू खां प्यारे जरा ड्राइवरी की कला दिखा दो।’’
बच्चू खां ने टॉप गेयर में केकड़ा डाल दिया। केकड़ा लाइट मार गया।
बहेलियन टोला के सामने से जनसंघियों की जीप आती दिखाई दी। केकड़ा उसके बिलकुल पास जाकर बीच सड़क पर रुक गया। केकड़ा का लाउडस्पीकर गरजने लगा-
‘‘जनसंघी हाय-हाय’’
‘‘पकड़ संघी हाय-हाय’’
और जवाब में-
‘‘नूरू मियां हाय-हाय’’
कुछ ही देर में सिर्फ हाय-हाय ही सुनाई देने लगी। दोनों उम्मीदवार केवल एक-दूसरे पर हाय-हाय कर रहे थे। दूर तक बस हाय-हाय था।
‘‘जग्गू इस तरह काम नहीं चलेगा। चार छः लौंडों को बोनट पर खड़ा करो।’’
जग्गू सामने से कूदकर बोनट पर चढ़ गया। पीछे मुख्तार और उसके साथ दो और लड़के केकड़ा के बोनट पर खड़े होकर नाचने लगे। हाय-हाय की आवाजों के साथ नाच तेज होता गया तो मुख्तार ने पहले आनी कमीज और फिर पाजामा उतार दिया।
‘‘शेम-शेम-शेम-शेम-शेम-शेम’’
‘‘शेम-शेम-शेम-शेम’’
दोनों लाउडस्पीकर बिना मतलब समझे ‘शेम-शेम चिल्ला रहे थे, लेकिन फैलती आवाजों के साथ यह शब्द आसपास और दूर की चीजों के साथ अर्थ देता दिखाई पड़ रहा था।
‘‘साइड दो, जीप आगे जाएगी’ जनसंघियों की जीप से आवाज आई।
‘‘साइड नहीं दिया जाएगा। जीप कच्ची पर उतार कर ले जाओ।’’
‘‘ये कौन सी सभ्यता है’
‘‘सभ्यता गयी अपनी मां की चूत में,’’ लाउडस्पीकर ने जवाब दिया।
‘‘पकड़ संघी हाय-हाय’’
बोनट पर से मुख्तार चिल्लाया- छेंक लिया है सालों को, जाने न पाए।’’
जीप वाले थक गए तो जीप बैक होना शुरू हो गयी।
जनसंघियों की ऐसी-तैसी करने के बाद जब केकड़ा आफिस की ओर लौटा तो शाहिद मियां बहुत खुश थे। एक साला झटहा-सा दादा है राम! उसी के बलबूते जनसंघी अकड़ा करते थे, जबकि राम को कल्लन वगैरह का गिरोह कई बार बुरी तरह ठोंक चुका है। यार मोहर्रम की गश्त में राम ने दो लड़कियों को छेड़ा था। दोनों पनी मोहल्ले की थीं। कल्लन को पता चल गया तो राम को घर से निकाल लाया था और जी.टी रोड पर पचास जूते मारे थे।
इलेक्शन आफिस के सामने रोडवेज की जीपें खड़ी थीं। दाहिनी ओर दीवार पर बहुत बड़े शब्दों में नुरूद्दीन का नाम लिखा था। अंदर बड़े से हाल में मैली चादर पर बैठे बहुत लोग बीड़ियां पी रहे थे। कहीं-कहीं पर सफेद टोपियां झलक रहीं थीं। सामने की ओर आफिस इंचार्ज कैसर मियां पेट्रोल वाले का हिसाब कर रहे थे और वह लगातार पाजामे में हाथ डाले खुजा रहा था। अल्लन ड्राइवरों को पैसे बांट रहे थे। बिंदू काका देहात से आए कार्यकत्ताओं को दस-दस रुपया खुराकी दे रहे थे। आफिस इंचार्ज कैसर मियां के सिर के बिलकुल ऊपर सौ पावर का बल्ब लटक रहा था। शाहिद मियां को देखते ही कैसर मियां ने उन्हें अपनी ओर आने का संकेत दिया।
‘‘कुछ हुआ’ कैसर मियां ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
‘‘चचाजान से कहा तो है...’’
‘‘अब कहने सुनने से काम नहीं चलेगा। दो हजार रोज का खर्च है। इलेक्शन है, कोई हंसी-खेल नहीं है। ऐरा गैरा नत्थू खैरा तो साला लड़ने के बारे में सोच ही नहीं सकता है। जल्दी-से-जल्दी रुपये का बन्दोबस्त नहीं हुआ तो चाचा इलेक्शन हार जाएंगे।’’
‘‘मुख्तार साहब भी दिल्ली से नहीं लौटै। पैसा ही लेने गए हैं।’’
‘‘दिल्ली-पिल्ली को छोड़ो। तुम घर से पैसा ले आओ।’’
‘‘चचा कहते हैं घर के पैसे से कोई इलेक्शन नहीं लड़ता है।’’
कैसर मियां उनको घूरते रहे और शाहिद मियां उठ गए। दरवाजे के पास से जग्गू ने उन्हें इशारा किया था।
‘‘बारह बजने वाले हैं।’’
‘‘ले आए हो’
‘‘हां, गाड़ी में रखी है।’’
‘‘और सब लोग हैं’
‘‘हां सब रुके हुए हैं।’’
‘‘नन्हू के होटल से कवाब लाए’
‘‘चलते टाइम केकड़ा रुका के ले लेंगे।’’
एक बार फिर खास-खास लोग गाड़ी में बैठ गए। केकड़ा स्टार्ट हुआ। रात के बारह बज चुके थे। सड़कें वीरान थीं। छोटी-छोटी दुकानों के ऊपर बड़े-बड़े ताले लटक रहे थे। जी. टी. रोड पर एक-आध ट्रक निकल जाता था। केकड़ा अस्पताल होता होता हुआ मानसिंह की कोठी के सामने से स्टेशन की तरफ फर्राटे भरने लगा।
‘‘शाहिद मियां, नाके पर जनसंघियों ने बड़ी झंडियों-पंडियां लगाई हैं। पहले उसी को साफ कर दिया,’’मुख्तार ने बताया।
केकड़ा स्टेशन की तरफ नहीं मुड़ा, सीधा आगे बढ़ता रहा। चिलवर और शीशम के पेड़ों पर रोशनी पड़ती रही और बदन काट देने वाली हवा सरसराती रही। नाके के पास जाकर केकड़ा रुक गया। मुख्तार लग्गा लेकर बोनट पर चढ़ गया। ऊपर बिजली के दो खम्भों से जनसंघ का बैनर एक डोरी में बधा लहरा रहा था। नीचे एक मरियल कुत्ता भौंकने लगा तो हैदर एकहथियार ने उसे एक पत्थर मार दिया। वह पीं-पीं करता भाग गया। तमुख्तार ने एक ही झटके में डोरी तोड़ दी। सारे पोस्टर जमीन पर आ गएं जल्दी जल्दी बटोरकर सबको पीछे केकड़ा में भर लिया गया।
‘‘बैक करो गाड़ी बैक।’’
‘‘नहीं यार आगे पोल में बड़ा-सा बैनर बंधा है उसे भी साफ करते चलो।’’
आगे सचमुच पांच गज कपड़े का बैनर लगा था। पांच गज कपड़ा देखकर कलूटे के मुंह में पानी आ गया। लड़कों के पास साला पहनने का कपड़ा नहीं है। उसने मुख्तार से कहा,‘‘कपड़ा न फटने पाये धीरे से काटो।’’ चारों डोरियां काट दी गयीं और बैनर नीचे गिरा तो कलूट ने बड़ी एहितयात से तह कर बगल में दाब लिया। सब हंसने लगे।
स्टेशन से निकलकर केकड़ा रेल बाजार आया जहां बहुत से पोस्टर और झंडियां पीछे भर दी गयीं। मुख्तार अपना काम बड़ी कलाकारी से कर रहा था। एक बैनर और मिला जिसे कलूट ने तह कर अपनी बगल में रख लिया। केकड़ा फिर स्टार्ट हुआ और हरिहरगंज, जनसंघियों के गढ़ में जाकर रुक गया। ‘‘यहां झगड़ा हो जाने का डर है शाहिद मियां,’’ कलूट बोला। बच्चू खां हंसने लगा।‘‘माउजर में पांच गोली हैं कलूट भाई, ‘‘जग्गू ने भी तहमद से एक रिवाल्वर निकालकर दिखा दिया। शाहिद मिलां बोले, ‘‘ नहीं यार किसी साले की इतनी हिम्मत नहीं पड़ेगी कि हमसे भिड़े। काम शुरू करो।’’मुख्तार रस्सी काटने लगा। झाड़ियां और पोस्टर नीचे गिरने लगे। हैदर हथियार, उमाशंकर, कलूट अन्हें समेट-समेटकर पीछे भरने लगे। एक इमारत की खिड़की से किसी ने झांक कर देखा और फिर खिड़की जल्दी से बंद की ली। पीले-पीले बल्बों की रोशनी में सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था।
‘‘यार शाहिद मियां, बहुत थक गए। अब कुछ प्रोग्राम हो जाए।’’ पीछे से आवाजें आने लगीं।
‘‘कौन-सी मिली है प्यारे,’’ पीछे से फिर आवाज आई।
‘‘संतरा है,’’ जग्गू ने जवाब दिया।
‘‘चलो बढ़िया रहेगी। कवाब और दालमोट तो ले ही लिया होगा। बस इस जाड़े में संतरा मजा दे जाएगी।’’
कलक्टर साहब के बंगले और जेल होती हुई गाड़ी सुनसान सड़क पर रुक गयी। आम के पेड़ के नीचे झाड़ियां जमा करके आग लगा दी गयी औ चारों ओर सब बैठकर तापने लगे। घने अंधेरे में आग की लपटें और सनसनाती ठंडी हवा। शाहिद मियां ने घड़ी देखी तो तीन बजने वाले थे। मगर ये काम पूरा ही हो गया। कल लखनऊ से कुछ हरिजन कार्यकर्त्ता आकर हरिजनों के वोट संभाल लेंगे। इलेक्शन जीता-जिताया है।
‘‘लाओ प्यारे, खोलो संतरा,’’ हैदर हथियार आग के पास खिसककर एक ईंट के ऊपर बैठ गए।
‘‘तुम लोग भी यार संतरा को पता नहीं क्या समझते हो। अब की चचाजान इलेक्शन जीत गए तो दिल्ली चलना। ओबराय इंटरकांटीनेंटल होटल में इतनी स्कॉच पिलवा दूंगा कि हलक तक भर जाएगी। और बगल में एक-एक खूबसूरत लौंडिया।’’
‘‘वाह यार वाह! जिंदगी का मजा आ जाए, ‘‘हैदर हथियार उमाशंकर की रान पर हाथ मारकर उछल पड़े।
‘‘ये प्रोग्राम तुमने पिछले इलेक्शन में भी बनाया था। बाद में सब टांय -टांय फिस्स हो गया, ’’उमाशंकर खद्दर के पाजामे को झाड़ता हुआ बोला।
‘‘अरे यार पिछले इलेक्शन की बात छोड़ो। अबकी चचाजान का चांस है। साले पांचों उंगलियां घी में होंगी। मैं दिल्ली ही में परमानेंट अड्डा जमा लूंगा। क्या लड़कियां होती हैं दिल्ली की। साले इतनी फारवर्ड कि तुम्हारे यू.पी. की रंडियां भी उनका मुकाबला नहीं कर सकतीं।’’
‘‘तो फिर ले चलो एक बार शाहिद मियां। चाहे बाद में साली जान ही क्यों न चली जाए,’’ मुख्तार ने हैदर मियां को लिया।
‘‘छोड़ो यार क्या हरामीपन है,’’हैदर हथियार बिगड़ने लगे।
जग्गू ने बोतल खागल दी बोतल चक्कर लगाने लगी। धीरे-धीरे गर्मी चढ़ने लगी। दालमोठ और कबाब के साथ संतरा मजा दे रहा था। लंबे-लंबे कडुवे घूंट हलक के नीचे उतर रहे थे। कुछ ही देर में संतरा सबको छाप बैठा। शाहिद मियां पिछले इलेक्शन के किस्से और दिल्ली की लड़कियों के चाल-चलन पर बातचीत करते रहे। मुख्तार को ज्यादा हो गयी तो सिर के नीचे ईंट रखकर लेट गया। कलूट ने केकड़ा से लाकर और झंडियां अलाव में डाल दीं। आग एक बार फिर भड़क उठी। उनके तमतमाते चेहरे चमक गए। जग्गू तीसरी बोतल खोलने लगा। कलूट ने लंबे-लंबे चार घुंट लिये और दोनों हाथों से सिर को पकड़कर बैठ गया। दिन-भर की थकान नस-नस से उतरने लगी। उमाशंकर के दिमाग में हाई पावर आइडिया आने लगे। इलेक्शन जाए अपनी मां की चूत में, अब नौकरी वाली बात पक्की कर ली जाए
‘‘यार शाहिद मियां, इस बार नौकरी वाला काम करवा देना,’’ उसने भर्राई हुई आवाज में कहा।
‘‘बिलकुल यार पक्की बात है, बस इलेक्शन खत्म होते ही तुम्हारा काम हो जायेगा।’’
‘‘चुप रहो यार, ये उमाशंकर साला तो पीकर हमेशा धंधे की बात करता है,’’ हैदर हथियार बिगड़ने लग।
‘‘तुम तो चुतिया हो। धंधे की बात न करें तो साले पेट को कहां ले जाएं।’’
‘‘पेट तुम्हारे ही पास है क्या मैं बहनचोद आई.टी आई. की ट्रेनिंग करके पिछले तीन साल से घूम रहा हूं। यू.पी. के चार शहरों के बेकारी के दफ्तरों में नाम दर्ज है। मेरे पास पेट नहीं है क्या अगले साल अब्बा रिटायार हो जाएंगे तो पेट साला बढ़कर मटका हो जाएगा।’’ हैदर बोला, ‘‘चिल्लाने लगे साले बिना बात समझे अब मैंने कब कहा कि साले तुम जिंदगीभर बेकार रहो और बीड़ियां मांग-मांग कर पीते रहो’’
‘‘हां कुछ तो होवा चाही, कलूट धीरे से बोले। उन्हें चढ़ चुकी थी। कुछ साल पहले तक अंडे-मूर्गी का कारोबार करते थे। अब ठप पड़ा है। शुरू करने के लिए पैसा चाहिए। और पैसा लाटरी से आ नहीं सकता। उधार कोई देता नहीं। बैंक कोमिया लिए जाने के बाद भी एजेंट साला कहता है इनकमटैक्स देते हो तो लोन मिल जायेगा। कितने बड़े-बड़े चूतिया पड़े हैं दुनिया में। अबे जो इनकमटैक्स देता है उसे लोन की क्या जरूरत पड़ेगी। कलूट मौलवी इसरार को गाली देते हैं। साले ने चढ़वा-चढवाकर पांच बच्चे करवा दिये। कहता था इस्लाम इसी तरह तो फैलेगा। अब इसरार मौलवी पता नहीं कहां चला गया है। आजकल होता तो कलूट मियां ‘इस्लाम’उसी के हवाले कर देते। पांच बच्चों को पालो-पोसो तो ‘इस्लाम की’ पोल पट्टी खुले। ठाठ से खाते हैं मुर्गी। दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर फेरकर लेक्चर झाड़ते हैं साले और चल देते हैं।
‘‘हो जाएगा यार, सब ठीक हो जाएगा,’’ शाहिद मियां बोले,’’ खोल जग्गू, बोतल खोल।’’ चौथी बोतल खुल गयी।
‘‘वापसी में रास्ते-भर उमाशंकर को इंडिया अपने बाप का लगता रहा। दिमाग खोपड़ी से निकलकर ऊपर आ गया था। नसों से गरमी कबड्डी खेल रही थी। सन्न-सन्न करती ठंडी हवा गर्म कानों को छूती निकल जाती। बाकरगंज के चौराहे पर केकड़ा रुका तो हैदर हथियार और उमाशंकर कूद पड़े। केकड़ा आगे बढ़ गया। चार बज रहे थे।
‘‘सुबह दस बजे पीरनपूर चलना है,’’ हैदर ने बताया।
‘‘देखा जाएगा यार। हर्मी रह गए हैं गांड मराने को।’’ वह घर की ओर बढ़ गया। घर के दरवाजे के सामने पहुंचकर वह रुक गया। पुराना, बरसात के पानी से गला एक बेढंगा-सा दरवाजा उसके घर का दरवाजा है। जगह-जगह से छेद हो गए हैं एक चौखट नीचे से पूरी तरह गल गयी है। घर के अंदर दलान में बाबूजी की चारपाई बिछी होगी और ऊपर खूंटी से धुआं देती लालटेन टंगी होगी। पतवार से पटी दल्लान क छत नीचे झुक आयी है। लालटेन की रोशनी में बाबूजी का काला दुबला-पतला चेहरा रजाई के बाहर फटे तकिए पर एक ओर पड़ा होगा। दमें के पुराने मरीज का सीना जिस तरह फूलता पिचकता है वैसे ही बाबूजी का सीना रजाई के नीचे उठ-बैठ रहा होगा। गाल की उभरी हुई हड्डियां और सिमटी-सिकुड़ी हुई खाल, पचास भुखमरी में बिताए साल....। दूसरे पलंग पर माताजी गठरी बनी पड़ी होेंगी। कोठरी में उसका बिस्तर लगा होगा और स्टूल पर खाना रखा होगा। वह कुछ देर घर के दरवाजे के सामने खड़ा सोचता रहा। फिर कुंडी खटखटा दी। सारे मोहल्ले में आवाज फैल गई। बाबू के उठने की आवाज आई और कूत्ते भौंकने लगे।
वह अंदर घुस गया। बाबूजी फिर कराहते हुए लेट गए। वह लालटेन लेकर कोठरी में घुसा। पैर डगमगा रहे हैं और खोपड़ी सन्ना रही है।...मुर्दाबाद...अटलबिहारी...मुर्दाबाद। हाय-हाय शेम-शेम-शेम-शेम। हैदर हथियार, मुख्तार....और कलूट और चेहरे दीवरों पर तैरने लगे। ताक में रखी कुछ किताबें ऊपर उठ आयी। लालटेन रखकर उसने थाली के ऊपर से डलिया हटा दी। अरहर की दाल और जौ-चने की रोटी...! लालटेन भकभकने लगी। पेट तो शराब और कबाब से ऊपर तक भरा है। उसने दाल उंगलियों में लेकर मुंह में डाल ली। ठंडी दाल गर्म सीसे की तरह हलक में उतर गयी। उसके दिमाग में हाय-हाय मुर्दाबाद की तकरार होने लगी।
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