धर्मेंद्र निर्मल का व्यंग्य - प्रथम घोषणापत्र का अंतिम प्रकाशन

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प्रथम घोषणापत्र का अंतिम प्रकाशन चुनाव ऐसा समर है जिसमें सब सपरिवार सज सॅवरकर मर मिटने के लिए कमर कसकर उतर आए है। नौजवानों से लेकर कमर तक क...

प्रथम घोषणापत्र का अंतिम प्रकाशन

चुनाव ऐसा समर है जिसमें सब सपरिवार सज सॅवरकर मर मिटने के लिए कमर कसकर उतर आए है। नौजवानों से लेकर कमर तक कबर में उतर आए दिग्‍गज कहलाने वाले निर्लज्‍ज बुजुर्ग भी जब भ्रष्‍ट हुए तो डरना क्‍या की तर्ज पर जुबान की नंगी चंगी तलवार थामें हिलते सिर और डोलते हाथ पैर लिए बजी हुई पुंगी के बावजूद लुंगी पकड़े हिल डूल रहे है। इस चुनावी दंगल में जंग लगे मुद्‌दों को रंग चढ़ा कूपमंडूक जनता को लल्‍लू बनाने वाले लक्ष्‍मी वाहक उल्‍लुओं की भांति हम भी पल्‍लू संभाले बड़े उमंग से कूद पड़े हैं। शुध्‍द देसी राजनीतिक दलदल के अन्‍य दलीय दल्‍लों की भांति अपनी काली दाल को हल्‍दी मिर्च डालकर दुष्‍ट भ्रष्‍ट पौष्‍टिक विकास का झूठा दम भरने वालों से हम भी हरगिज कम नहीं है। हम किसी पार्टी या नेता की बुराई कतई नहीं करेंगे। जैसा कि इस महासंग्राम में देखने को मिल रहा है कि ग्राम भर की औकात न रहते हुए भी अपने आप को किलोग्राम बताने वाले और छटाकभर के लोग अपने आपको बड़े बड़े पदो और भारी गुणों से तोल रहे है जो बिना किसी तोल मोल के अनाप शनाप बोलते इधर उधर डोल रहे हैं।

तन मन और गुन से घुन खाए झोला छाप व्‍यक्‍ति भी किसी न किसी की ढोल पीट पीटकर पोल खोल रहा है और खुद अपने झोल को कहीं न कहीं खोल खोजकर छुपाने के उधेड़बुन के धुन में है। लेकिन देश सठियाकर सयाना हो चला है। अब इसे और बेवकूफ बनाना मतलब कुछ कुछ टेढ़ी खीर पकाने जैसा हो गया है। राशन रोशन के भाषण घोषणा के सहारे अब शासन शोषण के सपनों का पोषण नही हो सकता।

वैसे पुराने और घिसे पीटे मुद्‌दों को ही काट छॉटकर नया और आकर्षक रूप देकर इस बूढ़े देष और सठियायी जनता की चौधिंयायी आँखों को इंडिया शाइनिंग की भ्रामक रोशनाई में बड़ी आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। जैसे कि कंपनियॉ अपने पुराने उत्‍पाद को माडल बदलकर बेचा करती है। लेकिन यह अपने स्‍वार्थ से नाइंसाफी होगी । हम देश से नाइंसाफी कर सकते हैं और करते ही है परन्‍तु अपने स्‍वार्थ से नाइंसाफी ...हरगिज और हरगिज बर्दाश्त नहीं करेंगे। ईमानदारी में बेइमानी की मिलावट चल सकती है और ऐसा करना काबिले तारीफ भी हो सकता है लेकिन बेइमानी पूरी पूरी ईमानदारी से होती है। तभी धंधा बंदा और चंदा , चंगा रहता है । मंदी का असर मंदा रहते हुए भी गले से फंदा दूर रहता है ।

हमारी पार्टी भाई भतीजा , साला जीजा , परिवारवाद से कोसो दूर है। हम देश को वंशवाद के दंश से कुछ अंश तक बचाकर रखना चाहते हैं इसलिए हमने दूरवर्ती संबंधी के सन्‍निकट संबंधों से उत्‍पन्‍न विकट संतान को पुत्र के निकट मानकर अपनी पार्टी से टिकट दे दी है। इस प्रकार एक कद्‌दावर प्रत्याशी को बड़ी होशियारी और मक्‍कारी से निकट हार के विकट संकट का भय दिखाकर अपने रास्‍ते से कंटक की तरह निकाल बाहर फेंक उसे बागी होकर गद्‌दार होने से बचा लिया है।

कोई यह कहकर मौका बेमौका चौका न मार सके कि हमने उसके घोषणा पत्र की नकल की है। जैसी जिनकी भावना वैसी उनकी सोच। हमने बहुत पहले से अपना घोषणा पत्र तैयार कर लिया है। प्रकाशन देर से होने का मतलब यह कदापि नहीं है कि अब हममें मुद्‌दो से लड़ने का माद्‌दा नहीं रहा। देर आयद दुरूस्‍त आयद हमारा मूलमंत्र और प्रजातंत्र का क्रियातंत्र है। वैसे हम प्रजातंत्र समाजवाद पूंजीवाद साम्‍यवाद आदि किसी भी वाद पर रत्‍तीभर भी विश्वास नहीं करते बल्‍कि छील छेद भेद काट चॉट बॉट कर खाने के सॉटगॉठ में हमारा पूर्ण बहुमत है और हम इसमें माहिर है। हमारा संपूर्ण यंत्र तंत्र मंत्र इसी सिध्‍दांत पर कार्य करने के पक्षधर है।

अभी तक घोटालाघाटी की घोटूल परिपाटी को ही अपनी सभ्‍यता और भव्‍यता मानने समझने जानने वाले भ्रष्‍ट और टपोरी सटोरियों के कटोरी धरने के दिन आ गए है। अब बाबा जी के कमण्‍डल जल में उतनी ताकत नहीं रही कि दो छींटा मार दिए और भाग्‍य बॅधे खींचे चले आए। अब तो मुद्‌दे भी तवायफों की तरह इतने आवारा बंचक और भद्‌दे हो गए है कि बिना किसी लाग लपेट के छींटा कसी और अश्लील इशारे किए बगैर श्लीलता और शालीनता से हाथ ही नही आते। इसलिए मै बेबस बेहद कम मुद्‌दे लेकर आया हूं। कम खाओ, गम खाओ और ज्‍यादा जीओ।

कुर्सी अभियान गिरोह के चंट चटोर और चोट्‌टे साँडो के नित नए अंट-षंट भ्रष्‍ट कांडो ने देष का नट बोल्‍ट खोल कर पूरा बाट लगा दिए हैं। हम दावों की हवा भरी दवा के सहारे जिंदा रहने वालो में से नहीं है। बल्‍कि डंके की चोट में ताल ठोंककर कहते हैं कि पूरी सीट हम ही जीतेंगें। लंका में सिर्फ और सिर्फ रावण का डंका बजता है इसमें रत्‍ती भर भी आषंका नहीं होनी चाहिए। विभीषण भी तो आखिर रावण परिवार से था।

हमारे मुद्‌दे भद्‌दे और पिद्‌दी भले लगे पर हैं बड़े जिद्‌दी और गद्‌दे किस्‍म के। गद्‌दा यानि जो लोगो को कोमलता से सहलाए उचकाए कुछ देर हवा में रखकर मन बहलाए फिर धड़ाम से नीचे पटक दें। उछाल उछाल कर उन्‍हें जमीनी हकीकत से दूर रखे। गद्‌देपन के मद्‌देनजर हमने ठाना है कि गॉवों तक सड़के न पहुंचाकर उन्‍हें शहरों से दूर रखा जाए। सड़कों के सहारे मूर्ख गवॉर लोग शहर तक पहुंच जाते हैं हमारी जीवनशैली में दखलअंदाजी करते हैं। जहॉ खाली जगह दिखे स्‍कूल खोल देंगे मॉगने वाले मॉगते मॉगते मर जाए पर मास्‍टर नही देंगे जिससे शिक्षा का व्‍यवसायीकरण हो सके। शिक्षा के ताने बाने के जाल में गिने चुने और बने बुने लोग ही शिक्षा का लाभ उठा पाऐंगें। शिक्षा के सर्वसुलभ होने से जाहिल अशिक्षित और पिछड़े लोग दो आखर पढ़ क्‍या लेते हैं अपने आपको तोपचंद समझते हैं और झोला धरकर हमारे पीछे चलने के बजाय। हमें ही आँख दिखाते हैं। जयचंद हो जाते हैं। लंद फंद सवाल दागने लगते हैं। हम चाहते हैं कि रोटी कपड़ा और मकान के नाम पर कुछ हल्‍के पैकेज पैकेट बॉटकर लोगों को आलसी निकम्‍मा और कामचोर बना सकें।

विकास के नाम पर व्‍यवस्‍था को ठेकेदारों के माध्‍यम से चलाया जावे ताकि स्‍वविकास का माध्‍यम कभी भी मध्‍दिम न पड़े । इन सबसे उपर शत्रुमारण , कुलतारण , पार्टीचारण , दुखहरण , हार निवारण सबसे पात्र और सीबीआई की तरह एकमात्र अमोघ ब्रम्‍हास्‍त्र मुद्‌दा है हमारे पास। वह मुद्‌दा है - समुचित शराब सप्‍लाई का अभाव। शराब सप्‍लाई की समुचित व्‍यवस्‍था नहीं होने के कारण मंदू भाइयों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। वे मंद के मद में आकण्‍ठ कहीं भी कभी भी दुर्घटनाग्रस्‍त हो सकते हैं। एक मंदू की मौत पर सरकार को राजस्‍व में भारी घाटा होता है इसलिए अब की बार हमने ठाना है कि जीत के तुरंत बाद अतिशीघ्र व्‍यवस्‍था पर यह अति करेंगे कि प्रत्‍येक घर में नल फीट करवायेंगे और नल से जल की जगह कल कल करती शराब की नदियॉ बहवायेंगें। ताकि राजस्‍व की बेतहाशा वृध्‍दि में कोई रूकावट न हो। इस बेतहाशा वृध्‍दि से सुस्‍सू बैंक की समृध्‍दि हो जिससे हमारे मुख मण्‍डल में बताशे की सफेदी और बादाम की चिकानाई बड़े आराम से पसर सके ।

बचपन में हमारी नानी ने आशीर्वाद दिया था - बेटा दूध तो अब रहा नहीं , जमाना बदल गया है इसलिए दारू नहाओ गुण्‍डों फलो। इसे हम चरितार्थ करना चाहते हैं क्‍योंकि हम अपनी मॉ के लाल है। माटी से जुड़े हुए खॉटी नेता है और खॉटी नेता मन का खोटा हो सकता है पर जुबान से छोटा नहीं हो सकता।

 

धर्मेन्‍द्र निर्मल

ग्राम पोस्‍ट कुरूद

भिलाईनगर जिला दुर्ग 490024ष्‍

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: धर्मेंद्र निर्मल का व्यंग्य - प्रथम घोषणापत्र का अंतिम प्रकाशन
धर्मेंद्र निर्मल का व्यंग्य - प्रथम घोषणापत्र का अंतिम प्रकाशन
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