स्कै बाबा की कहानी - उर्स

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उर्स - स्कै बाबा दौ ड़-दौड़ कर इमलीबन बस स्टैंड पहुँचा। नलगोंडा के लिए टिकट लेकर बस में बैठ गया। बस के साथ-साथ मेरे मन में भी कई विचार ...

उर्स

- स्कै बाबा

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दौड़-दौड़ कर इमलीबन बस स्टैंड पहुँचा। नलगोंडा के लिए टिकट लेकर बस में बैठ गया। बस के साथ-साथ मेरे मन में भी कई विचार चलने लगे...अभी मुझे काफ़ी देर हो गयी है... मेरी छोटी बहनें मुझ पर चिल्लाएंगी। ‘ज़ोर दे कर कहा था कि हम ८ बजे तक टीले के पास आकर इंतेज़ार करें और ख़ुद इतनी देर से आ रहे हो’ कहकर मुझ पर बरस पड़ेंगी...।

नलगोंड़ा को जाने की बात हो या नलगोंड़ा का ख़्याल आए... सबसे पहले वह दो पहाड़ी टीले ही याद आते हैं। सारा टाउन उन दो पहाडी टीलों की गोद में बसा हुआ है जो देखने में बहुत सुंदर लगते हैं। उसमें एक टीला लतीफ़ शाह वली का पहाड़ है अर्थात लतीफ़ साहब का टीला। उस टीले पर लतीफ़ शाह वली की दरगाह है। इसी कारण उसका यह नाम पड़ गया है। बहुत ऊँचा टीला है। हर साल वहाँ उर्स लगता है। उस समय टीले के आगे बाज़ार लगता है... मेले में बहुत ही शोर-शराबा, हल्ला-गुल्ला मचा रहता है। यह बच्चों के लिए त्योहार जैसा है तो बड़ों के लिए उर्स में लतीफ़ साहब की ज़ियारत के लिए आना... टीले पर चढ़ना एक रिवाज सा बन गया है....यह उनके लिए एक तरह की रिलीफ़ है...

उर्स के नाम से ही सुंदर रुख़साना की याद आती है... उसकी याद आते ही आँखों में उसका रूप आँसुओं के साथ छलक जाता है। पता नहीं एक अजीब सी ग़लती का एहसास जान ले लेता है।

बस दिलसुख नगर के बस स्टैंड पर रुक कर फिर से निकल पड़ी....

बचपन में उर्स का कितना इंतेज़ार करते थे...उर्स के दिनों के क़रीब आने की बात सोचते ही मन को पंख लग जाते थे और वह उड़ने लगता था। दो तीन दिन पहले सुबह के वक़्त हमारे गाँव से चूने से पुती हुई टीले की सीढ़ियाँ ऐसी लगती जैसे बादलों के बीच एक रास्ता बना हो। रात के समय सीढ़ियों पर लगायी हुई लाइटें फूलों से गुथी हुई चोटी की तरह दिखायी देती थीं। हम लोग इंतज़ार करते थे कि कब-कब जुमा (शुक्रवार) आएगा और कब-कब हम लोग सब के साथ मिलकर रंग बिरंगी पतंगों की तरह उड़ेंगे।

गुरुवार के दिन सुबह होते ही सभी लोग तैयार होकर टीले के पास जमा हो गए। उस दिन संदल(चंदन)था। संदल के दिन लतीफ़ साहब को संदल, सहरा वग़ैरा चढ़ाते हैं। टीले के आगे लोग खचाखच भरे हुए थे। बड़े-बूढ़े, महिलाएँ सभी टीले के दामन में बैठे थे। पुरुष बच्चों को मेले में कुछ दिलाने के लिए ले जाते थे। थोड़े बड़े बच्चे अपना साहस दिखाते हुए दोस्तों के साथ दरगाह के आसपास की सारी गलियाँ घूमते रहते थे। कितनी क़िस्म की गुड़ियाँ, कितनी चमक-दमक…! खिलोने, गुड़ियाँ की उम्र को छोड़कर थोड़ा सा आगे बढ़ें तो... चश्मे, बेल्ट, टोपियाँ, तरह-तरह के सजने-धजने के सामान... लड़कियों के लिए तो कितना कुछ सामान था वहाँ... छोटे बच्चों के बाद लड़कियों का सामान ही ज़्यादा होता था....उफ्फ़ोह... झुमके, नाक के दाने, तरह-तरह की चेनें, अंगूठियाँ, अर्श, काजल, सुरमे की डिबियाँ, चूड़ियाँ, चप्पल,बुरके, कपड़े...

असल में वह एक रंग बिरंगी दुनिया थी, उन रंगों में हर कोई ख़ुद भी एक रंग की तरह मिल जाता था। उन रंग बिरंगे गुबारों में हम भी अकल्पनीय रंगों में उड़ने लगते थे।

जान नगर एरिया से संदल जुलूस साथ आता था। संदल का समय जैसे-जैसे पास आता टीले के आगे लोग खचाखच भर जाते। टीले के ऊपर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर रस्सी को पकड़े हुए पुलिस वाले होते हैं। ऊपर तक पहुँचने के लिए रास्ते में लोग एक दूसरे को ढकेलते रहते हैं। आगे सभी पुरुष अधिकतर सफ़ेद कपड़े पहने हुए रहते हैं। उसके बाद की सभी लाइनें महिलाओं की होती हैं जो काले बुरक़ों में रहती हैं,... सभी बच्चे माता-पिता के हाथों में रहते हैं... जैसे ही संदल का जुलूस पहली कमान को पार करता है वैसे ही लोग समुद्र की लहर की तरह हिलने लगते हैं। पहली सीढ़ी से ही संदल का आगे जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। हर कोई संदल को छूकर अपने हाथों को आँखों से लगाने के लिए तड़पता रहता है। बच्चों के माथे को छुआने के लिए भी एक दूसरे को धकेलते रहते हैं... उफ़... इन सभी दृश्यों को प्रत्यक्षतः देखने पर ही मज़ा आता है...

बस हयातनगर बस स्टांड़ पर रुकी है। एक दो लोग जिन्होंने टिकट नहीं लिया था। टिकट लेने के लिए नीचे उतर रहे थे। ड्राइवर से कहकर थोड़ी देर के लिए मैं भी सड़क पर जाकर एक चाय पिया और फिर से आकर बैठ गया। बस चलने लगी।

उर्स के नाम से ही मेरे मन में काले बुरके घूमने लगते हैं। शायद इसका कारण जवानी के शुरु-शुरु के दिनों में उस बुरके वाली के पीछे पड़ना ही है।

वह मेरी डिग्री का दूसरा साल था। उस समय आए उर्स में ही सामने आयी थी वह दो आँखें... गोल चंद्रमा की तरह थी वह आँखें, चारों ओर काले बादलों से घिरी वह बड़ी-बड़ी आँखें.., ख़ूबसूरत आँखें, गोरे रंग के शरीर पर काजल के बीच सफ़ेद आँखें, बीच में काली पुतलियाँ, मुझे कितना आकर्षित की थीं। उसके पीछे मैं पड़ा था या वह मेरे पीछे पड़ी थी पता नहीं। लेकिन एक दूसरे के जाने बिना बार-बार एक दूसरे के सामने आते रहे। जब भी आमने सामने आती परिचितों की तरह बड़े प्यार से एक दूसरे को निहारती रही हमारी दो जोड़ आँखें।

बस वही शुरुआत थी... उस उर्स के हफ़ता-दस दिन चलने तक... हर रोज़ बराबर टीले के पास जाना, साइकिल को बाज़ु रखकर उस मेले के बाज़ार की दुकानों के बीच फिरना... कुछ ख़रीदना-वरीदना नहीं होता था फिर भी कुछ ख़रीदे जैसा ढूँढते फिरना.... उस मधुर आँखों की मधुरता को पीने के लिए, उस मधुर मुस्कान में झूमने के लिए ऐसा करता था। उस दिन सभी शाप उठा दिए जा रहे थे बड़ी मुश्किल से हिम्मत करके मैंने पूछ ही लिया –‘क्या नाम है?’

उसने कहा –‘रुख़साना’। उसने मेरा नाम पूछा। मैंने बताया ‘यूसुफ़’

क्या पढ़ रही हो पूछने पर उसने कहा कि वह ‘इंटरसेकेंडइयर में है’

उसके साथ की सहेलियाँ जोक मारकर खिलखिला कर हंसने लगीं। कौन से कालेज कहकर दूसरी जानकारी लेना चाहा। आख़िर में ‘थोड़ा सा नक़ाब हटा सकती हो न... चेहरा देखना चाहता हूँ।’ कहकर इल्तिजा की...‘कल मिलेंगे’ कहकर चली गयी वह।

मैं सोचने लगा कि मेरा दिल ही इतनी ज़ोर से धड़क रहा है तो उस लड़की का दिल कितनी ज़ोर से धड़क रहा होगा। उस दिन रात को मुझे नींद ही नहीं आयी। कब उजाला होगा... कब सुबह होगी... सोचते हुए मैं बहुत बेचैन था।

उस दिन मेरी ज़बर्दस्ती से वह अपनी एक सहेली को मनाकर उसको अपने साथ लेकर मुझसे मिलने के लिए आयी थी। वह लोग कुछ दुकानों को पार कर थो़ड़ा सा टीले के ऊपर सीढ़ियों के बाज़ु पत्थरों की आड में आकर बैठे थे... उनके पीछे-पीछे मैं भी पैदल जाकर उनके पास बैठ गया।

मैं ने कहा- ‘अब तो नक़ाब निकाल दो न।’

रुख़्साना ने गांठ खोलकर नक़ाब निकाला। उसका चेहरा चौधवीं के चाँद की तरह चमक रहा था। मेरा मन अपने आपमें ‘वाह!’ कहे बिना नहीं रह सका।

‘कैसी हूँ?’ उसने हंसते हुए पूछा।

‘आसमां का चाँद ग़ायब होकर जमीन पर उतर आया है।’ चाँदनी मुस्कान फिर से खिल उठी। उस तरह आधे घंटे तक हम दिल की धड़कनों की रफ़तार को, उसकी तेज़ी को नापते हुए बात करते रहे।

उस दिन से शुरु हो गया... हम रोज़ कहीं न कहीं मिलते थे। जिस दिन नहीं मिलते उस दिन दोनों बहुत बेचैन रहते, मिलने तक मुझे और उसको सुकून नहीं मिलता था... इस तरह उस साल के आख़िर में ही रुख़साना ने कहा कि इंटर के बाद उसकी पढ़ाई बंद करवा दे रहे हैं, यह बात कहते हुए वह हिचकियाँ लेले कर रोने लगी। क्या करूँ कुछ समझ नहीं पाया। हिम्मत देने के लिए मेरे पास कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था। मेरी तीन बहनें। एक बहन की शादी हो जाने पर और दो बहनें शादी के लिये रहेंगी। पढ़ाई भी ख़त्म नहीं हुई, बीच मजधार में हूँ। क्या कर सकता हूँ?

‘मुझ से शादी कर लो न?’ अपने आप ही रुख़साना मुंह खोलकर पूछ बैठी। मेरे दिल को काफ़ी तकलीफ़ हुई। ऐसे लगा जैसे किसी ने मेरा दिल निचोड़ कर रख दिया हो। कैसे कर लूँ शादी? क्या कर रहा हूँ मैं, जो शादी के बारे में सोचूँ। घर के हालात भी ठीक नहीं हैं। अगर अब मैं शादी कर लूंगा तो घर में सब गड़बड़ा जाएगा। कैसे...कैसे...

मैंने कहा- ‘कैसे भी करके दो तीन साल अपने घर वालों को रोक नहीं सकती?’

‘नहीं, कह रहे हैं कि इस गर्मा में ही शादी कर देंगे। मेरे फुफुमाँ (बुआ) का लड़का जल्दी कर रहा है।’

‘क्या करता है तुम्हारी बुआ का लड़का?’

‘मेकानिक!’

‘मेकानिक? मेकानिक को इंटर तक पढ़ी लड़की क्यों? तुम्हारे लोगों को अक़ल नहीं है क्या?’

‘मेरे घर वालों की हैसियत इतनी ही है!?’

‘फिर क्यों पढ़ाए?’

‘मैं झगड़ा कर-कर के पढ़ते हुए आ रही हूँ।’

‘फिर अब भी झगड़ा करो, उससे शादी नहीं करूंगी कहकर।’

‘नहीं मान रहे हैं।’

‘फिर क्या करोगी?’

‘तुम ही बताओ।’

‘मैं अभी शादी नहीं कर सकता रुख़साना! घर में दो छोटी बहनें हैं। घर के हालात ठीक नहीं हैं.....’ कहकर समझाने लगा।

‘फिर क्यों प्यार किया? इससे पहले यह सब क्यों नहीं सोचा?’ रुख़साना ने ग़ुस्से से पूछा।

क्या कहूँ समझ नहीं पाया।

बस... रोते हुए चली गयी... कितना बुलाने पर भी नहीं रुकी। उसके पीछे-पीछे मैं भी साइकिल लेकर गया। वह बुरके में ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी इस बात का पता चल रहा था। उसके घर की गली आते ही मेरी साइकिल को ब्रेक लग गया। वह आगे चली गयी। घर के अंदर जाते हुए उसने एक बार फिर मुड़कर देखा। वही आख़िरी बार उसको देखना था। यह मैंने बिल्कुल भी नहीं जाना था लेकिन वही उसका आखिरी बार देखना हुआ!

इसके बाद कितनी बार उस के घर के चक्कर काटे। किसी दिन रुख़साना दिखायी नहीं दी। उस घर के आगे जाते ही रुख़साना के लिए ही ख़ासकर लगायी गयी बेल टिंग-टिंग करके बजाया करता था। उस बेल की आवाज़ सुनते ही रुख़साना दौड़कर बाहर आती थी। उस दिन के बाद कितनी बार बेल बजाने पर भी वह बाहर नहीं आयी। कुछ दिनों तक तो पागलों जैसी हालत हो गयी थी मेरी। खाना नहीं खाया जाता था। नींद नहीं आती थी। घर के बाहर खाट बिछाकर सोने पर चाँद में भी रुख़साना का चेहरा दिखायी देता था और मैं रो पड़ता था। करवटें बदल-बदल कर कितनी-कितनी देर के बाद नींद आती तो सुबह तक रुख़साना के ही सपने। मेरी हालत देखकर मेरे घर वाले बहुत परेशान होते थे।

उस गर्मी के आखिरी दिनों में रुख़साना की शादी की चहल-पहल और उसके नूर से उसका घर भी चमकने लगा। बाद में जब यह बात मेरे समझ में आयी तो मैं बहुत रोया। एक दिन शादी भी हो गयी! अपने बच्चे को खोकर कौवा जिस तरह चक्कर काटता है उस दिन मैं भी उसी तरह उस के घर के चक्कर काटा था। लेकिन कोई फ़ायदा नहीं?

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बस बड़ी घड़ी के सेंटर के पास रुकते ही मैं उतर कर जल्दी-जल्दी टीले की ओर चलने लगा। टीले की सड़क की शुरुआत में ही बड़ी कमान बनायी गयी थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में उर्दू, तेलुगु, इंग्लिश में ‘लतीफ़ शाह वली उर्स’ लिखा था। कमान पार करके आगे क़दम रखते ही उस ओर और इस ओर ठेले वाले और कई तरह की दुकानें शुरु हो गयीं, उन सब को पार करते हुए मैं टीले के क़रीब गया। ऊपर नज़र पड़ते ही बचपन की यादें आँखों के सामने घूमने लगीं। पेड़ बहुत उगाए गए थे। लोग बहुत हैं। दायीं ओर जल्दी-जल्दी नीम के पेड के नीचे गया। मेरी बहनें वहाँ खड़ी थीं। मुझे देखते ही ‘इतनी देर कर दी’ कहते हुए उनके चेहरे खिल उठे। फिर वह मुझ पर बरस पड़ीं। वालेकुम सलाम कहे बिना ही मैंने सभी को जी भर के देख लिया। बच्चे मुझ से लिपट गए। कुशल मंगल पूछने के बाद वहाँ से चलने के लिए कहा। जब तक 8-30 बज चुके थे।

मेरी छोटी तीनों बहनें, उनके बच्चे, हमारा छोटा भाई उसकी पत्नी सभी लोग वहाँ से चलने लगे। मैं गाँव के बारे में पूछ रहा था। छोटा भाई और बहनें बता रही थीं। माँ ऊपर चढ़ नहीं पातीं इसलिए उनके न आने की ख़बर फ़ोन पर ही दे दी गयी थी। मेरी पत्नी को भी बुख़ार था जिसकी वजह से वह नहीं आ पायी थी। यह बात उनको मैंने फ़ोन पर ही बता दी थी।

उस दिन उर्स का पहला दिन था इसलिए टीले की सीढ़ियों पर कितने लोग भरे थे। दस, ग्यारह बजे तक और बढ़ेंगे।साढे़ आठ बजे ही चढ़ने उतरने वाले लोग चढने-उतरने लगे थे।

हम लोग पहली कमान की पहली सीढी को झुक कर सजदा करके आगे बढ़े। वहाँ के फ़क़ीर हाथ में कश्कोल लिए, कडछा ओर डफ़ बजाते हुए... हमारे सरों को मोर छल से मार कर दुआएं दे रहे थे। मैंने अपनी जेब में जो छुट्टा था उसको फ़क़ीर के कश्कोल में डाल दिया और आगे बढ़ा। फ़क़ीर सभी के गले को ऊद लगा रहे थे। सीढ़ियों के दोनों ओर फ़क़ीर बैठे ‘अम्मा!, अम्मा! बाबा! बाबा!’ कहते हुए ख़ैरात मांग रहे थे। अंधे, लंगडे-लूले... उन सभी को देखने पर बहुत दुःख होता है। सभी लोग ख़ासकर छोटे बच्चे, उनके माता-पिता के दिए हुए पैसे जो फ़क़ीरों को देने के लिए देते हैं उसको फ़क़ीरों को डालते हुए टीले पर चढ़ते हैं।

मैं और मेरी छोटी बहन उसकी छोटी लड़की को गोदी में लेकर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। बचपन में की गयी गिनती के अनुसार 14 सौ सीढ़ियाँ होनी चाहिए। उस समय एक ही दिन में दो-दो बार चढ़ते-उतरते समय गिनती करते रहते थे और सीढ़ियों का नम्बर याद करते हुए उतरते थे। मैं चढ़ते-उतरते लोगों को देखते हुए, उनको परखते हुए ऊपर चढ़ रहा था।

‘क्या लाए हो।’ कहकर बड़ी बहन ने छोटी बहन से पूछा।

‘क्या है, रोटी-दाल!’ उसने कहा

‘इतना ही!?’ कहा निरुत्साह भरी आवाज़ में।

दूसरी छोटी बहन से रहा नहीं गया उसने कहा - ‘तुम्हारी पसंद की चीज़ भी लाए हैं भाई।’

मुंह में पानी भर आया। मैंने पूछा ‘तल कर लाए हो?’

उसने कहा-‘हाँ! डेढ़ किलो लाकर, आधा तलकर लाए हैं और आधा सालन बनाया है।’

हमारे रिश्तेदार, जान-पहचान के लोग जो कोई भी वहाँ हम से मिल रहा था उन सभी से बात-चीत करते हुए हम लोग ऊपर चढ़ रहे थे।

‘हाय! मेरे पैर दर्द कर रहे हैं। थोड़ी देर रुकेंगे।’ बड़ी छोटी बहन ने कहा।

सीढ़ियों के थोड़ा बाज़ु जाकर हम पत्थरों पर बैठ गए। मेरा छोटा भाई और उसकी पत्नी बातें करते हुए हम से थोड़ा आगे चले गए। उनकी शादी के बाद का यह पहला उर्स था। हम लोगों को वहाँ रुका हुआ देखकर वह लोग भी पीछे आ गए। धूप बढ़ रही थी। इसलिए सभी को प्यास लगी थी, बोतल में लाया हुआ पानी सभी लोग मिलकर थोड़ा-थोड़ा पी लिए। बच्चों को भी पिलाया।

नीचे देखने पर टीले के आगे सारा नलगोंडा दिखायी दे रहा था। शहर का बायीं ओर का थोड़ा सा हिस्सा दिखायी दे रहा था। दायीं ओर टीला ऊँचा होने के कारण उस ओर दिखायी नहीं दे रहा था।

थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर से सीढ़ियाँ चढ़ना शुरु कर दिया। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे नीचे के घर छोटे-छोटे घरौंदों की तरह लग रहे थे। फिर थोड़ी देर चढ़ने के बाद हम फिर एक जगह रुक गए। हमारा छोटा भाई अपनी पत्नी को हमारे गाँव की सड़क, दूर से दिखायी देने वाले पेड़ों को दिखा कर कह रहा था कि ‘वही हमारा गाँव है।’ मेरी नज़रें भी उस सड़क को देखते हुए हमारे गाँव के शिवराजुपल्ली को ढूँढ़ रही थीं।

फिर ऊपर चढ़ने वालों को देखा। मुसलमान कितने हैं, उससे कहीं अधिक मुसलमानेतर लोग हैं। मुझे लगा वास्तव में बहुजन संस्कृति का मतलब यही है । दरगाह मुसलमानों की होने के कारण यहाँ ऊपर चढ़ने वालों के किसी के माथे पर बिंदी नहीं है। उनके कपड़ों को देखकर, भाषा को सुनकर पता चलता है कि वह कौन हैं। वास्तव में थोड़ी जमातों के प्रचार के कारण मुसलमान एक ओर, हिंदुत्ववादी संस्थाओं और पार्टियों के प्रचार के कारण मुसलमानेतर लोग दूसरी ओर दरगाह की संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं फिर भी जनसंख्या के बढ़ते रहने के कारण हमेशा की तरह दरगाहों की चमक वैसे ही है। लेकिन सुना है कि मस्जिदों में मौलाना कह रहे हैं कि दरगाहों को मत जाओ, वहां सजदे मत करो। इस बात से बहुत तकलीफ़ होती है। पता नहीं आख़िर में इन उर्सों का भविष्य क्या होगा..!

मेरी नज़र नीचे से ऊपर चढ़ते हुए एक बुरके पर पड़ी। दूर से ऐसे लगा जैसे उस चेहरे को कहीं देखा है। उसके साथ एक लड़की है। छोटे बच्चे का हाथ थामे उसको धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ा रही थी। ऐसे ही देखता रहा, वह और क़रीब आयी। एक बार को ऐसे लगा जैसे दिल ने धड़कना बंद करके फिर से धड़कना शुरु किया हो। वह...वह... रुख़साना! उसी तरह वहीं पर मैं सूखी काठ की तरह खड़ा रह गया। मस्तिष्क मंद पड़ गया। रुख़साना पास आने लगी।

मेरी छोटी बहन ‘चलेंगे?’ कहकर मुझ से कह रही थी।

रुख़साना हमारे समीप आ गयी। लेकिन उसने हमारी ओर नहीं देखा। हमें पार करके चले गयी।

‘रुख़साना!’ यह नाम मेरे अंतःकरण से अनायास ही निकल पड़ा।

रुख़साना परेशान होकर पीछे मुड़कर देखने लगी। लगता है थोड़ी देर के लिए कौन? क्या है?, उसकी समझ में कुछ नहीं आया। बाद में उसने भी पहचान लिया। लेकिन पता नहीं क्यों कुछ परेशान होकर देख रही थी। मेरे आस-पास लोगों को डरते हुए देख रही थी। मैंने अपने आप को संभाल कर कहा –

‘इधर आओ रुख़साना!’

‘सलाम अलैकुम’ कहते हुए बच्चे को धीरे से चलाते हुए हमारी तरफ़ आयी।

मैंने पूछा - ‘कैसी हो?’

‘ऐसे हैं!’कहा नक़ाब की गांठ खोलते हुए।

मेरे घर वाले परेशान होकर देख रहे थे।

मैंने अपने घर वालों से रुख़साना का परिचय कराया। मेरी बहनों ने सलाम का जवाब देते हुए उससे हाथ मिलाया। आख़िर यह है कौन? सवाल अपने चेहरे पर लिए हुए वह लोग मेरी ओर देख रहे थे।

मैंने कहा कि मेरे कॉलेज के दिनों में इसी उर्स में इनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी। शक्की नज़रों से मेरी तरफ़ देखकर फिर उन्होंने अपने आपको संभाल लिया।

मैं रुख़साना को ही देख रहा था। वह भी मुझे ही देख रही थी। फिर से मेरे देखते ही नज़रें चुरा ले रही थी। पीने के लिए पानी आगे बढ़ाया। उसने कहा ‘है’। बच्चे को गोद में उठा लिया, बहुत प्यारा है। तीनों बच्चे गोरे हैं। लड़कियाँ रुख़साना की जैसी हैं।

रुख़साना से मिलने की मुझे बहुत ख़ुशी हो रही थी। एक पल में हमारी पिछली यादें फिर से ताज़ा हो गयीं। टीले के आस-पास, जो बातें हमने की थीं वह सभी मन पर छाती गयीं।

मेरी दूसरी बहन ने रुख़साना से बात करते हुए पूछा - ‘कहाँ रहती हो?’, इसके साथ ही सबका ध्यान उस ओर हो गया।

रुख़साना ने कहा - ‘यहीं, हैदरखां गुड़े में’

मुझे लगा ‘ओ.. हो’ नलगोंडा में ही दिए हैं।

‘इनके अब्बा नहीं आए?’ कहकर बच्चों को दिखाते हुए, मेरी बड़ी बहन उनके पिता के बारे में पूछने लगी।

रुख़साना ने कहा - ‘नहीं उनको थोड़ा काम था इसलिए नहीं आए।’

‘चलेंगे?’ छोटे भाई ने कहा।

सब मिलकर वहाँ से चलने लगे।

मैं रुख़साना के लड़के को गोद में उठाए हुए था इसलिए मेरे छोटे भाई ने हमारी छोटी बहन की लड़की को गोद में ले लिया।

हमारी दूसरी बहन रुख़साना से कुछ न कुछ बात करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। मैं रुख़साना की लड़की से क्या पढ़ रही हो पूछते हुए सीढ़ियाँ चड़ रहा था। लड़की आठ साल की है। मुझे ऐसा लग रहा था उस लड़की की बातें ऐसी हैं जैसे रुख़साना उस समय करती थी।

मेरा छोटा भाई और उसकी पत्नी आगे थे। उनके आगे मेरी बहनों के चार बच्चे, मेरी दूसरी बहन-रुख़साना-मझली बहन एक लाइन में, मेरे साथ रुख़साना की लड़की, हमारे पीछे मेरी छोटी बहन उसके पाँच साल के लड़के का हाथ पकड़कर, चल रहे थे।

हमारी छोटी बहन को रुख़साना कबाब में हड्डी की तरह लग रही थी। इसलिए वह मुंह फुलाए हुए थी।

हम लोग दरगाह के क़रीब आ गए। और थोड़ा चढ़ने से दरगाह तक पहुँच जाएंगे।

रुख़साना ने पीछे मुड़कर देखा, उसके लड़के को मैं सुरक्षित गोद में लिए हुए था। मुझे देखते ही एक क्षण के लिए सारी दुनिया की ख़ुशी उन आँखों से झलकने लगी... फिर से वह आगे की तरफ़ मुड़ गयी।

मैंने कहा यहाँ थोड़ी देर रुकेंगे। एक बार नीचे की तरफ़ देखा। बच्चे को उठाकर सीढ़ियां चढ़ने से सांस फूलने लगी थी।

फिर सभी लोग रुककर टीले के आस-पास देखने लगे। दायीं तरफ़ लतीफ़ साहब के टीले के समान उतनी ही ऊँचाई पर कावुराला गुट्टा है। उस कावुराला गुट्टा पर क़िले की दीवारें दिखायी दे रही थी। दोनों टीलों के बीच जामा मस्जिद के क्षेत्र में वहाँ के घर बहुत ही नज़दीक-नज़दीक दिखायी दे रहे थे। टीले के ऊपर देखने पर दरगाह दिखायी दे रही थी। उसकी बग़ल में ही एक पेड़ है, उस पेड़ पर हरे रंग के बड़े-बड़े झंडे लहरा रहे थे।

हम लोग फिर से चलने लगे।दरगाह क़रीब आने लगी।सीढ़ियों के दोनों ओर फ़क़ीर अपने आगे कपड़ा बिछाए हुए‘बाबा!’‘बाबा!’कहकर चिल्ला रहे थे। सभी लोग जेब में रखे हुए छुट्टे पैसे उनको देते हुए आगे बढ़ रहे थे। सीढ़ियों के ख़त्म होते ही, रुख़साना के क़रीब जाकर मैंने हमारे साथ ही रहने के लिए कहा। सब लोग दरगाह की दायीं ओर के पत्थर की ओर चलने लगे। पत्थर से लगा हुआ जो पेड़ है वह हमारे गाँव के हिप्पी कटिंग वाले की तरह दिखायी देता है।हम लोग पत्थर के पीछे वाले पेड़ के नीचे जगह देखकर बैठ गए।

थोड़ी देर थकान उतारने के बाद मैंने अपने छोटे भाई और उसकी पत्नी से कहा कि वहीं बैठे रहना हम लोगों के आने के बाद जाना। मेरी छोटी बहनें, रुख़साना मिलकर दरगाह के पास गए। मैंने सर पर दस्ती बाँध लिया। मेरी बहनें, रुख़साना ने सर पर अपनी साड़ी का पल्लू भरकर ओढ़ लिया।दरगाह के पास जाते ही ऊद, अगर बत्ती की महक के साथ चमेली, गुलाब के फूलों की महक हमें एक अलग ही दुनिया में ले जा रहे थी। दरगाह के चारों ओर चक्कर काटने वालों के साथ हमने भी तीन बार दरगाह के चारों ओर घूमा। उसके बाद बहनों ने एक दरवाज़े के पास खड़े होकर नारियल फोड़ा और जो मिठाई लाए थे उसे फ़ातिहा दिलवाया। वह लोग अंदर नहीं आ सकते। मैं, पुरुषों के दरवाज़े से अंदर चला गया।

दरगाह के बीच लतीफ़ साहब की समाधि (मज़ार) है। फूलों की चादरों से लदी हुई वह बहुत ऊँची लग रही थी। थोड़ी देर के लिए मैं उस अद्भुत दृश्य को देखते हुए खड़ा रह गया। ऊपर देखा कि गुंबद के अंदर का भाग देखने में बहुत सुंदर लग रहा है! अंदर लोगों का आना बढ़ रहा है। अब मुझे चलना चाहिए। अंदर फ़ातिहा देने वाले मुजावर बड़ी-बड़ी दाढ़ियों वाले थे। मैं मज़ार के दायीं ओर जाकर घुटनों के बल बैठा और मज़ार पर चढ़ाए गए फूलों पर हाथ रखकर सजदा किया। चेहरे पर उन फूलों की चुभन बहुत ही मधुर लग रही थी। मन फूलों की महक से भर गया। थोड़ी देर तक वैसे ही रहा। बाद में धीरे से उठा। नज़र उठाकर आगे देखा तो उस ओर की चौखट पर रुख़साना खड़ी मुझे ही देख रही थी। मेरी बहनें फ़ातिहा दिलाना ख़त्म करके वहाँ से जा रही थीं। बिना पलक झपके थोड़ी देर रुख़साना को देखता रहा। वह भी टिकटिकी लगाए मुझे ही देख रही थी। उन नज़रों में कितनी भावनाएँ थी.... मन भारी हो गया.... धीरे से बाहर आने लगा.. वह भी पीछे मुड गयी।

बाहर आकर दरगाह के दायीं ओर के पेड़ की तरफ़ देखा। उस पेड़ को ही माँ कई बार झंडा चढ़ाती थी.... परेशानी दूर होगी कहकर..... बहनों की शादी के लिए... हम परीक्षाओं में पास हो जाएं इसके लिए...नौकरी के लिए....कौन सी मुराद पूरी हुई, कौन सी नहीं हुई यह माँ को ही पता है। बचपन में माँ के कहने पर उसके पीछे हरे रंग का झंडा पकड़कर टीले पर दौड़ते थे.... बस!

सभी लोग मिल कर फिर से पत्थर के पिछवाड़े आ गए। हमारे आते ही छोटा भाई और उसकी पत्नी दरगाह के लिए निकल पड़े। बच्चे इधर-उधर फिर रहे थे। उस पत्थर के एक ओर से दस सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। सीढ़ियां चढ़ने पर पत्थर से एक चश्मा निकलता नज़र आता है। उस चश्मे से पीने के लिए कितना भी पानी निकाल ले फिर से उसमें हमेशा की तरह उतना ही पानी भरा रहता है।थोड़े दिनों के बाद वह सूख गया। कहते हैं कि उस स्वच्छ पानी के चश्मे में किसी ने खाना खा कर झूठा हाथ धोया था जिस के कारण वह सूख गया। इस तरह टीले के चारों ओर कितनी ही अजीब सी कहानियां बिखरी हैं।

बहन के बच्चे आए उनकी मां की लायी हुई मिठाई और नारियल के टुकड़े थोड़े-थोड़े लेकर खाए और फिर से ग़ायब हो गए। रुख़साना की लड़की उसके छोटे भाई को लेकर कहीं चली गयी थी। हमारी बहनें भी कहीं हट गयीं। जिसके कारण वहाँ पर मैं और रुख़साना ही बचे।

‘कैसी हो?’ मैंने पूछा।

‘ठीक ही हूँ, बाद में मेरी याद कभी नहीं आयी?’

‘भूलने पर न...’

‘मैं हर साल इस टीले पर चढ़ते समय तुम्हें ढूँढ़ती थी। एक बार भी मुझे दिखायी नहीं दिए।’ नाराज़ होते हुए कहने लगी।

‘अच्छा... मैं चढ़ते समय भी देखता था लेकिन शायद दोनों एक ही टाइम में ऊपर नहीं चढ़े होंगे। वैसे भी इस बीच बहुत साल हो गए टीले की सीढ़ियाँ चढ़ कर।’

उसके पति के बारे में पूछना चाहता था। बीच में उसके बारे में क्यों पूछूँ सोचकर खामोश हो गया...

मैंने पूछा- ‘पढ़ाई वहीं तक रोक दी क्या?’

रुख़साना कुछ सोच रही थी। लगता है उसने मेरी बात नहीं सुनी। मैंने उसको धोखा दिया, यह बात मेरे मन में खटक रही थी...

‘उस समय क्यों... फिर से मुझ से मिलने के लिए एक बार भी नहीं आए?’वह फिर से कहने लगी।

‘तभी मेरे चाचा ने मुझे तुम से बात करते हुए देख लिया था और वह बात मेरे घर में बता दी थी। तुमने तो उस समय कहा था कि शादी नहीं कर सकते। और क्या करूं। मेरी बुआ के लड़के के साथ ही शादी पक्की कर दी गयी। मैंने आगे पढ़ने की कितनी ज़िद की मेरी बात सुनने को कोई तैयार नहीं था।’

‘ठीक है, अभी सभी ठीक है न...’

बदले में रुख़साना ने कुछ नहीं कहा बल्कि एक प्रकार से मेरी तरफ़ देखती रही।

मुझे कुछ समझ में नहीं आया।

‘तुम बहुत याद आते थे, पता नहीं क्यों, उस एक साल में ही तुम्हें बहुत चाहने लगी थी। शायद मेरे पति का मेकैनिक होने की वजह से या तुम्हारे पढ़े लिखे होने की वजह से। हो सकता है मुझे भी पढ़ाई-लिखाई बहुत पसंद रहने की वजह से पता नहीं क्यों? तुम से शादी न होने के कारण मन बुझ सा गया था। उससे बाहर निकलने में बहुत समय लगा। तुम्हारा क्या है, तुम मर्द हो, तुम ठीक ही हो।’

मैं कुछ कहने वाला था इतने में रुख़साना के बच्चे आ गए। इसके बाद एक-एक करके सब लोग आकर बैठ गए। मेरी बहनें और रुख़साना बहुत अच्छे से घुल-मिल कर एक दूसरे से बातें कर रहे थे। यह देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई।

मैं रुख़साना को ही देख रहा था।उसका चेहरा चौधवीं के चाँद की तरह चमक रहा था। इससे पहले की बजाए अब की रुख़साना में एक भरापन, संपूर्णता दिखायी दे रही थी।

वह भी बीच-बीच में मुझे देख रही थी। उन नज़रों में एक आत्मीयता!, अपनापन! था।

हाँ रुख़साना का पति नहीं आया? क्या यह लोग अच्छी तरह से मिल-जुल कर नहीं रहते!? मेरे मन में अनेक प्रकार के प्रश्न आ रहे थे।

सभी ने अपना-अपना खाने का डिब्बा खोला और सभी मिलकर एक-दूसरे से मांग-मांग कर लेते हुए, बातें करते हुए खा रहे थे।

मेरी बहन के लड़के ने पूछा कि ‘मामा इस दरगाह का इम्पॉर्टेन्स क्या है!’

मैं दरगाहों के बारे में थोड़ा विस्तार से ही बताने लगा - ‘यह सभी दरगाह सूफियों की है। वह इस्लाम को फैलाने के लिए काम करते थे। उनकी अच्छाई, स्वभाव की निर्मलता, समाज के दलित-पीड़ित, चमार-महार, शूद्रों के, ग़रीबों के साथ उनके रहने के तरीक़े ने उन्हें लोगों के बीच ख़ुदा बना दिया। उनकी मृत्यु के बाद एक रूप लेने वाली जगह ही है यह दरगाह। इनके पास मुसलमानों के समान मुसलमानेतर लोग भी आते हैं। इस तरह हिंदूओं और मुसलमानों का मिल जाना एक अच्छी संस्कृति है...’

‘इसलिए हमारे भैया ने हर साल उर्स में सभी लोग मिलेंगे कहकर इस साल इस तरह शुरु किया है।’ मेरी दूसरी बहन ने कहा।

बाद में कितनी बातें की।

अब सब लोग मिलकर लौटने लगे। इस बार मेरी बहनें, भाई आगे चल रहे थे। मैं और रुख़साना थोड़ा पीछे सीढ़ियाँ उतर रहे थे। रुख़साना के लड़के को इस बार भी मैं ही गोद में लिए हुए था।रुख़साना मेरे बारे में, मेरी बेगम के बारे में इन्ट्रस्ट से यह वह पूछ रही थी। मैं उस ख़ूबसूरत चेहरे को देखने में ही तन्मयता प्राप्त करते हुए सीढ़ियां उतर रहा था।

टीले की सीढ़ियों का एक तिहाई हिस्सा उतरने के साथ ही रुख़साना ने बैग में से मोबाइल निकाल कर किसी को फ़ोन किया।

अरे, फ़ोन न. लिया ही नहीं। सीढ़ियाँ उतरने के साथ ही ले लूंगा सोच रहा था।

ऐसे लगा जैसे बहुत जल्द सीढ़ियाँ उतर गए हम।

टीले से उतर कर नीम के पेड़ के नीचे तक आ गए। शाम होते ही और लोग बढ़ने लगे। गड़बड़ बहुत बढ़ गयी थी। थोड़ी देर में रुख़साना चली जाएगी न... कैसे? सोच कर मन उदास सा हो रहा था। फ़ोन नम्बर माँगा। कुछ बातें करते हुए उसने नम्बर ही नहीं दिया। फिर से नम्बर माँगा। फिर से बात बदल दी लेकिन नम्बर नहीं दिया। थोड़ी सी तकलीफ़ हुई।

‘तुम्हारे पति तुम्हारा अच्छे से ख़्याल रखते हैं न?’ पूछा।

‘मेरे पति शुरु में बहुत ज़िद्दी थे। थोड़े दिन शुरु में बहुत मुश्किल हुई। अब थोड़ा बदल गए हैं। हिन्दी विद्वान तक परीक्षा देकर परसों ही डी.एस.सी की परीक्षा लिखी हूँ। ज़रूर पास हो जाऊंगी।टीचर की नौकरी करना चाहती हूँ।’ उसने निश्चित रूप से कहा।

इतने में रुख़साना का फ़ोन बजा। जिससे -‘मेरे पति आ गए हैं’ कहते हुए उसने आतुरता से बच्चे को मेरे पास से ले लिया। मेरी बहनों की ओर मुड़कर, ‘आपा! मैं चलती हूँ... फिर अगले उर्स में मिलेंगे।’ कह कर मेरी बहनों को बाय कह कर मुझे हाथ के साथ नज़रों से भी गुड-बाय कह कर आगे बढ़ गयी।

रुख़साना का पति कैसा होगा यह सोचते हुए मन में आतुरता लिए हुए मैं जिस रास्ते से वह जा रही थी, उसी रास्ते की ओर देखते हुए खड़ा रहा। रुख़साना का पति उसके क़रीब आकर उसकी गोद से बच्चे को ले लिया और कुछ पूछ रहा था। रुख़साना ख़ुशी से कुछ कह रही थी। उसका पति देखने में अच्छा है। वह लोग बहुत ही चुस्ती से बच्चों के साथ उर्स के लोगों में मिल गए।

फ़ोन नम्बर न ले पाने का दर्द मेरे मन से उड़ गया। मुझे लगा रुख़साना अपने पति बच्चों के साथ ख़ुश ही है। मेरे लिए इतना काफ़ी है।

मैं अपनी बहनों की ओर मुड़ा। वह लोग अपने दोस्तों के मिलने पर उनसे बातें कर रहे थे। उन लोगों में हमारे कुछ रिश्तेदार भी थे।

आस पास के वातावरण में कितना हल्ला-गुल्ला मचा हुआ था।... पेड़ों के नीचे कितने लोग झुंड में बैठकर बातें कर रहे थे। ऐसा लगा जैसे यह उर्स इस तरह हर साल लोगों को मिलाने के लिए ही है। रुख़साना को फिर से देखने के लिए अगले उर्स का इंतज़ार करना ही पड़ेगा यह सोचते हुए मैं वहाँ से चल पड़ा।

 

तेलुगु से अनुवाद- डॉ. साबिरा बेगम

Post Doctoral Fellow

हिन्दी विभाग

हैदराबाद विश्वविद्यालय

हैदराबाद-46

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