भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से पावस ऋतु एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ऋतु है। यह जीवन दायिनी ऋतु है. अन्न-जल और धान्य का बरखा से अटूट सम्बन्ध है....
भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से पावस ऋतु एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ऋतु है। यह जीवन दायिनी ऋतु है. अन्न-जल और धान्य का बरखा से अटूट सम्बन्ध है. जिसके बिना मनुष्यों का जीवन संभव नहीं होता. हमारे देश में 15 जून से 15 सितम्बर तक सामान्य रूप से वर्षा होती है, जब सम्पूर्ण देश पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून हवाएं प्रभावी होती हैं। इस समय उत्तर पश्चिमी भारत में ग्रीष्म ऋतु में बना निम्न वायुदाब का क्षेत्र अधिक तीव्र एवं व्यवस्थित होता हैं। इस निम्न वायुदाब के कारण ही दक्षिणी-पूर्वी सन्मागी हवाएं, जो कि दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा की ओर से भूमध्यरेखा को पार करती है, भारत की ओर आकृष्ट होती है तथा भारतीय प्रायद्वीप से लेकर बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर पर प्रसारित हो जाती है। समुद्री भागों से आने के कारण आर्द्रता से परिपूर्ण ये पवनें अचानक भारतीय परिसंचरण से घिर कर दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं तथा प्रायद्वीपीय भारत एवं म्यांमार की ओर तेजी से आगे बढ़ती है. प्रकृति जीवन और साहित्य के बीच में एक कडी बनकर जीवन की दिशाओं को संस्कृत होने की प्रेरणा देती रही है । जीवन की दिशाओं के ... जीवन की पोषक होने के साथ-साथ वर्षा ऋतु का मानव जीवन के सांस्कृतिक स्वरूप से भी गहरा सम्बन्ध है । वर्षा ऋतु में कवि मन आह्लादित हो उठता है . संस्कृत साहित्य में कलिदास का वर्षा-ऋतु चित्रण अप्रतिम है
।रामचरित मानस में तुलसी ने किष्किन्धाकाण्ड में स्वयं राम के मानोभावों द्वारा वर्षा ऋतु का वर्णन किया है जो अद्भुत है,. मानस के इस प्रसंग के कुछ अंश हैं .....राम गहन जंगलों में ऋष्यमूक पर्वत पर जा पहुंचे हैं ...सुग्रीव से मैत्री भी हो चुकी है. सीता की खोज का गहन अभियान शुरू हो इसके पहले ही वर्षा ऋतु आ जाती है. वर्षा का दृश्य राम को भी अभिभूत करता है .वे लक्ष्मण से कह उठते हैं .....बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए .....हे लक्ष्मण देखो ये गरजते हुए बादल कितने सुन्दर लग रहे हैं.....और इन बादलों को देखकर मोर आनन्दित हो नाच रहे हैं ......मगर तभी अचानक ही सीता की याद तेजी से कौंधती है और तुरंत ही बादलों के गरजने से उन्हें डर भी लगने लगता है .... :-) -घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥...हिन्दी साहित्य के मध्ययुग में तो तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया ही है, कवि रहीम कहते हैं -
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय
अर्थात, वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा.
जयशंकर प्रसाद निराला और सुमित्रा नंदन पंत ने तो पावस को आत्मसात ही कर लिया है. सुमित्रा नंदन पन्त ने लिखा, पकड़ वारि की धार झूलता रे मेरा मन ... कवियों ने वर्षा की फुहारों से प्रेरित अपने मन की उत्फुल्लता को अनेक भावों में व्यक्त किया है. वहीं आधुनिक हिन्दी युगबोध की कविता एवं गीतों की रचना भी पर्याप्त मात्रा में हुई है. बादलों की तरह ही आजीवन घूमने-भटकनेवाले कवि नागार्जुन ने छात्रावस्था में ही संस्कृत महाकवियों की तरह अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को तिक्त मधुर विस-तंतु खोजते हंसों की भांति घिरते देखा था.
ऋतुगीतों में फाग और पावस गीत ऐसे हैं जो अनेक क्षेत्रों में प्रचलित दिखाई पड़ते हैं। फाग गीत मुख्य रूप से पुरुषों का गीत है जो बसंतपंचमी से लेकर होलिकादहन के सबेरे तक गाया जाता है। अवधी, ब्रज, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, बैसवाड़ी, बघेली, भोजपुरी आदि अनेक बोलियों में फाग संबंधी गीत पाए जाते हैं। फाग के होली, चौताल, डेढ़ताल, तिनताल, देलवइया, उलारा, चहका, लेज, झूमर और कबीर आदि अनेक प्रकार हैं। इन सब में केवल घुनों का अंतर है। पावस गीतों की भी बहुक्षेत्रीय परंपरा है। ये गीत उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में न्यूनाधिक मात्रा में पाए जाते हैं किंतु अवधी और भोजपुरी में अधिक प्रचलित हैं। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें कजली कहा जाता है। संस्कार के गीतों में सोहर (जन्मगीत), मुंडन, जनेऊ, के गीत और विवाह के गीत प्राय: सभी स्थानों में गाए जाते हैं। मृत्यु के समय प्राय: प्रत्येक क्षेत्र की स्त्रियाँ राग बाँधकर रोती हैं। जातीय गीतों में काफी पृथक्ता होती है किंतु जहाँ एक ही जाति के लोग अनेक क्षेत्रों में बसे हैं, उनके गीतों की मूल प्रवृत्ति एक जैसी ही है। जैसे, पँवरिया जाति के लोग पँवारा, नट जाति के लोग आल्हा, अहीर जाति के लोग विरहा कई क्षेत्रों में गाते हैं। पद्य गाथाएँ तो प्राय: सभी क्षेत्रों में मिल जाती हैं। ये स्थानीय जननायकों के चरित्रों पर आधारित होती हैं।
भारतीय साहित्य और संगीत को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली दो ऋतुएँ, बसन्त और पावस हैं। पावस ऋतु में मल्हार अंग के रागों का गायन-वादन अत्यन्त सुखदायी होता है। वर्षाकालीन सभी रागों में सबसे प्राचीन राग मेघ मल्हार माना जाता है। काफी थाट का यह राग औड़व-औड़व जाति का होता है, अर्थात इसके आरोह और अवरोह में 5-5 स्वरों का प्रयोग होता है। गान्धार और धैवत स्वरों का प्रयोग नहीं होता। समर्थ कलासाधक कभी-कभी परिवर्तन के तौर पर गान्धार स्वर का प्रयोग करते है। भातखण्डे जी ने अपने ‘संगीत-शास्त्र’ ग्रन्थ में भी यह उल्लेख किया है कि कोई-कोई कोमल गान्धार का प्रयोग भी करते हैं। लखनऊ के वरिष्ठ संगीत-शिक्षक और शास्त्र-अध्येता पण्डित मिलन देवनाथ के अनुसार लगभग एक शताब्दी पूर्व राग मेघ में कोमल गान्धार का प्रयोग होता था। आज भी कुछ घरानों की गायकी में यह प्रयोग मिलता है। रामपुर, सहसवान घराने के जाने-माने गायक उस्ताद राशिद खाँ जब राग मेघ गाते हैं तो कोमल गान्धार का प्रयोग करते हैं। ऋषभ का आन्दोलन राग मेघ का प्रमुख गुण होता है। यह पूर्वांग प्रधान राग है। इस राग के माध्यम से आषाढ़ मास के मेघों की प्रतीक्षा, उमड़-घुमड़ कर आकाश पर छा जाने वाले काले मेघों और वर्षा ऋतु के प्रारम्भिक परिवेश का सजीव चित्रण किया जाता है।
वर्षा रितु आनंद दायिनि भी है और कष्टपूर्ण भी है. हर वर्ष वर्षा ऋतु के चरम पर पहुंचने की खबरें सामने आती हैं. अतिवर्षा के कारण बाढ़ से लाखों मनुष्य और पशु-पक्षी प्रभावित होते हैं. बांध से छोड़े जाने वाले पानी के चलते लाखों हेक्टेयर की खेती व लाखों लोगों के जीवन पर संकट आता है. वर्षा व्याधियाँ भी साथ लाती है. अनेकों कीट-पतंग पैदा होते हैं जिनसे तरह तरह की बीमारियाँ भी जनमाटी हैं. बरसात के मौसम में हवा में नमी अधिक होती है और पसीना बहना या वाष्पीकरण भी कम होता है। इस ऋतु में त्वचा के अंदर की तैलीय ग्रंथियां भी ज्यादा सक्रिय हो जाती है। इस कारण त्वचा अधिक तैलीय (ऑयली) हो जाती है।
इस स्थिति में त्वचा संबंधी बीमारियों की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.अतः स्वास्थ्य संबंधी सावधानियाँ आवश्यक हैं. अब के समकालीन और यथार्थवादी साहित्य एवं संगीत इन परेशानियों से भी दो-चार होते हैं. बहरहाल श्रावण माह अनोखी भावनाओं और उमंगों का अवलम्बन भी होता है और वैद भी. पंत जी के अनुसार -
रिमझिम-रिमझिम क्या कुछ कहते बूँदों के स्वर
रोम सिहर उठते, छूते वे भीतर अंतर
धाराओं पर धाराएँ झरतीं धरती पर
रज के कण-कण में तृण-तृण की पुलकावलि भर
संपर्क : ३४/२४२, प्रतापनगर, जयपुर - ३०२०३३ (राजस्थान)
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