जी. राजु का आलेख - क्या जाति ही समाज की पहचान है?

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जाति का एशियाई संदर्भ - डॉ. जी. राजु एक पत्रिका के लेख में प्रसिद्ध उद्योगपति वॉरेन बफेट ने प्रश्न किया है कि - “एक ही मां के गर्भ से जुड...

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जाति का एशियाई संदर्भ

- डॉ. जी. राजु

एक पत्रिका के लेख में प्रसिद्ध उद्योगपति वॉरेन बफेट ने प्रश्न किया है कि - “एक ही मां के गर्भ से जुड़वों का समान रुप से चुस्ती, शक्ति-सामर्थ्य है। उनमें से एक का जन्म बांग्लादेश में और दूसरे का अमेरिका में होगा तो क्या होगा? उनका नसीब कैसा रहेगा? व्यक्तियों के सामाजिक स्तर के अनुसार उसके भविष्य का निर्माण कैसा होगा?” उन्होंने साथ ही विनम्रता के साथ गहरे और गंभीर विषय को सामने रखते हुए कहा कि - अमेरिका में जन्म के स्तर पर व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं होता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं मेरा जीवन है। मुझे किसी भी व्यवसाय को चुनने की आजादी इस धरती और देश ने प्रदान की है। अगर मैं, कहीं दूसरी जगह जन्म लेता तो कभी मैं इस स्थान तक नहीं पहुँच सकता था। लेकिन एक बात तो विचारणीय है कि अमेरिका जैसे प्रजातांत्रिक देश में भी नस्लगत भेद-भाव उस देश की छवि को धूल-धूसरित करता है!

कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि - व्यक्तियों के भविष्य- निर्माण में देशगत, प्रांतीय, धार्मिक और जातीय आधारों की विशिष्ट भूमिका रहती है। भारतीय समाज व्यवस्था की स्थिति बहुस्तरीय है। भारतीय समाज व्यवस्था के ऊपरी पायदान पर ‘सवर्ण’ केंद्रित है तो दूसरी और निचले पायदान पर ‘अंत्यज’ या ‘दलित’। क्या दलितों को इस समाज - व्यवस्था ने मानवीय दर्जा दिया है? भारत जैसे देश की संस्कृति की गाथा हजारों वर्षों से गायी जा रही है। जबकि इस देश की समाज - व्यवस्था ने क्रूरता, बर्बरता एवं अमानवीयता का परिचय कर्म और व्यवहार के स्तर पर दलितों के संदर्भ में दिया है। श्रमशील तबकों को हाशिये पर रखा गया है। मेहनतकश लोगों के श्रम की बुनियाद पर ही यह समाज-व्यवस्था टिकी हुई है। जबकि जातीय अहंकार और दंभ के कारण निर्दोष भारतीय नागरिक समुदाय का एक हिस्सा निरंतर उपेक्षा, अपमान और नागरिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। क्या सभ्य संस्कृति का यह अर्थ लगाया जाए कि मनुष्य का मनुष्य पर अत्याचार एक श्रेष्ठ सभ्यता का विशेष गुण है?

भारत सरकार के एक अध्ययन के अनुसार - भारत में दलित तबकों के बच्चे, जीवन की आधारभूत सुविधाओं विशेषकर पोषण की कमी की वजह से, जन्म लेने के बावजूद भी अन्य तबकों के बच्चों की तुलना में औसत आयु के स्तर पर चार साल कम जीवित रह पाते हैं। जन्म लेने वालों में से आधे से ज्यादा बच्चे पौष्टिक आहार की कमी से जूझ रहे हैं। भारत की औसत बाल जन्म दर में हर सौ बच्चों के आंकड़े को देखा जाय तो उनमें से 12 बच्चे पाँच वर्ष की अवस्था से पूर्व ही अकाल काल के ग्रास बन रहे हैं। दलित तबकों के हर पांच बच्चों में से एक ही ठीक से स्कूल जा पाता है। हर 3 बच्चों में से एक बर्बर गरीबी का शिकार हो रहा है। दलित तबकों की 31% महिलाएँ रक्त की कमी से परेशान हैं।

भारत देश में छः हजार जातियां हैं। उसमें भी अस्सी फीसदी से अधिक दबी-कुचली जा रही जातियां हैं। हजारों वर्षों से तड़पते हुए, वर्ण-व्यवस्था के लोहे के शिकंजे के पिंजरे में फंसकर, अवसरों से वंचित होकर निचले पायदान पर ही जीते जा रहे जन-समुदायों की स्थिति कैसी होगी ? भारत के संविधान निर्माताओं ने जो स्वप्न देखने की आकांक्षा चाही थी उसे जाति-प्रथा से युक्त समाज-व्यवस्था ने साकार नहीं होने दिया। जाति-प्रथा से पीड़ित तबकों के सुधार में असफलताओं की गणना संभव ही नहीं है। आज भी सरकारी, गैर-सरकारी शौचालयों में अमानुषिक कृत्य करने वाले ‘मेहतर’(भंगी) या ‘सफाईकर्मियों’ की संख्या दस लाख से अधिक होने की संभावना की सूचना सरकारी गणना के स्तर पर सामने आयी है। आंध्रप्रदेश के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों में आज भी भेद-भाव पूर्ण ‘दो गिलास’ की पद्धति व्यवहार में है। दलितों का मंदिरों में प्रवेश न होने देना और सवर्णों द्वारा उपयोग में लाये जा रहे कुँओं से पानी पीने की सुविधा नहीं देना जैसे अमानवीय कार्य केवल जन्मगत आधार पर ही तो हो रहे हैं। जाति-व्यवस्था के कारण ही वैश्विक स्तर पर 26 करोड़ आबादी कष्ट सह रही है। दृढ़ कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी वे सामाजिक न्याय से मोहताज हैं। विशेष रुप से दक्षिण एशिया के देशों में यह प्रथा व्यवस्थीकृत होकर जड़ें जमा चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति की स्वतंत्र समिति ने चिंता व्यक्त की है कि- आज भी दक्षिण एशिया के देशों में दलितों के साथ अछूत व्यवहार किया जा रहा है। यह विचारणीय और सोचनीय बिंदु है कि कैसे भारत विश्व की चौथी अर्थ-व्यवस्था होने पर गुमान कर रहा है और उसी के देश में मानव समुदायों के साथ इस तरह का अन्याय हो रहा है!

पाकिस्तान जैसे देश में भी जाति-व्यवस्था का एक रुप दिखाई दिया है। पाकिस्तान में कानूनन शेड्यूल्ड कॉस्ट के नाम से घोषित किये गये हिंदुओं में निम्न जातियों को ‘कहूट्स’(अस्पृश्य) कहा जाता है। ‘कहूट्स’ एक सामाजिक वर्ग है। इस वर्ग के लोग- मत्स्य - कर्म, सफाई - कर्म, ईंट के भट्टों पर काम करने वाले, किसानों की जमीन पर भूमिहीन मजदूर के रुप में काम करते हैं। यह वर्ग पाक समाज में बिल्कुल सम्मान हीन होकर रह गया है। हिंदुओं की निम्न जातियों में से 93% लोग पाकिस्तान के ग्रामीण प्रांतों से ही हैं। पाकिस्तान के थरपर्कर जिले में निम्न जाति की जन संख्या 45 फीसदी है। इस आबादी के सात व्यक्तियों में से केवल एक ही पढ़ पा रहा है। विभिन्न प्रकार के अध्ययनों की रिपोर्टों के अनुसार- पाक में लग-भग बीस लाख लोग दलित बनकर तरह-तरह की यातनाओं के शिकार होने लगे हैं। बांग्लादेश और श्रीलंका में पिछड़ी हुई जातियों के लिए कोई अलग प्रावधान नहीं है। मगर पाकिस्तान में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में इन्हें 6% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन यह प्रावधान कागजों तक ही सीमित होकर रह गया है। पाकिस्तान के सिंध और पंजाब प्रांतों में अत्यधिक संख्या में दलित बंधुआ मज़दूर बनकर नारकीय जीवन जी रहे हैं। हिंदुओं की निम्न जाति के 83.6% जनता के पास एक गज जमीन भी नहीं है। धर्म के रुप में इस्लाम समानता की बात तो करता है। लेकिन हिंदुओं की निम्न जातियों के लोगों को आज भी वहां के हज्जाम की दुकानों में प्रवेश नहीं मिला है। अगर किसी होटल में जायें तो नीचे बैठकर खाने के साथ, थाली, गिलास भी धोने को मजबूर होना पड़ता है। मुसलमानों में भी सल्ला, सच्चि, मोच्चि, पथेर, भंगी वर्गों को निम्न से निम्न जाति कहकर हीनता के भाव से देखने की स्थिति भी बदस्तूर जारी है।

नेपाल में लग-भग 45 लाख दलित जनता आज भी अग्रवर्णों के दमन को मौन रुप से सह रही है। निम्न जाति के द्वारा छुआ गया पानी को भी फेंके जाने की अमानवीय प्रथा नेपाल में आज भी जारी है। मंदिर में प्रवेश करना, दूसरे वर्ग के शादियों में जाना और अंतर्जातीय विवाह जैसी बातें नेपाल में दलित सपने में भी नहीं सोच सकता। वहां के शासन द्वारा 1963 में जातिगत अस्पृश्यता का निषेध किया जा चुका है। 1990 के संविधान में उसे दंड दिया जाने वाला अपराध माना गया है। 2007 तक के (तात्कालिक) संविधान में उस में और कुछ जोड़कर जाति व्यवस्था को रोकने का प्रयास किया गया था। लेकिन, वे सारे नियम आचरण में वृथा ही सिद्ध हुए हैं। गरीबी दलितों को कहीं का नहीं छोड़ रही है। नेपाल में 53% साक्षरता होने पर भी वहां के दलितों की साक्षरता दर 33.8 फीसदी ही है। नेपाल की जनता में 3.4% के पास डिग्री है तो, दलितों में वह संख्या केवल 0.4% ही है। राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की औसत आयु 58.9 वर्ष है, वहीं दलित महिलाओं का औसत स्तर 50.8 वर्ष ही है। उस देश के दलितों में आधे से ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे ही गिड़गिडा रहे हैं। नेपाल की राज्य सभा में दलितों का प्रतिनिधित्व कभी भी 10% से ज्यादा नहीं हो पाया है।

जाति-व्यवस्था के खिलाफ बांग्लादेश के संविधान में स्पष्ट रुप से प्रावधान होने के बावजूद भी वह कागजों पर ही दिखाई दे रहा है। बांग्लादेश में लग-भग आधे करोड़ से भी ज्यादा दलितों के होने का अनुमान है। कहां जीना है? किन जगहों पर खेलना है? किन होटलों में खाना है? कहां चाय पीनी है? कैसे पीना है? कौनसे श्मशानघटों का उपयोग करना है ? ऐसे नियमों से भरी लंबी तालिका होने पर भी बांग्लादेश में दशकों से जाति-प्रथा का आचरण में व्यवहार हो रहा है। यह सब कुछ किसी लिखित अधिनियम के अनुसार नहीं चल रहा है... घृणा भरी नज़रों से, खुलेआम ही यह सब चल रहा है। हिंदू दलितों में 64 फीसदी अनपढ़ हैं। हिंदू-मुस्लिम धर्मों से जुड़े पिछड़ी जातियों के लोग बर्बर प्रथा का सामना करने का मुख्य कारण आवश्यक सुविधाओं का उपलब्ध न होना ही है। वहां के दलितों का आर्थिक स्तर का एक आंकड़ा निम्न वस्तुओं के उपयोग के स्तर पर देखा जा सकता है। टेलिफोन, रेडियो का 9% और साइकल का 14.5% उपयोग वहाँ की दलित आबादी करती है। बांग्लादेश के स्वतंत्र होने पर(1971) 1974 में वेस्टेड़ प्रापर्टी एक्ट बना। इसके अनुसार- राज्य के लिए दुश्मन बनकर रहने वाले व्यक्तियों के ज़मीन को बिना किसी पूर्व सूचना के आधार पर ही सरकार अपने क्षेत्र/ वश में कर सकती है। इसके चलते हिंदुओं के ज़मीन को उनमें भी विशेष रुप से निस्सहाय दलितों के ज़मीन को बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा हड़प लिया गया है। इस कारण से गरीबी के शिकंजे में फंस कर वहां के दलितों के जीवन और अस्तित्व को इस कानून ने सड़क पर ला दिया है।

श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहलियों का प्रभुत्व है। देश के उत्तर-पूरब प्रांत के तमिल चाय के बागानों (खेतों) में 150 वर्षों से काम कर रहे भारतीय तमिलों में तीन प्रकार की जाति व्यवस्थाएं चल रही हैं। दक्षिण एशिया में जातिगत असमानताएँ थोड़ी बहुत कम दिखाई देने वाला देश श्रीलंका ही है। जातियों के बीच चले तीव्र संघर्ष के बावजूद कहना होगा कि- इस देश में जाति-प्रथा का क्रूर रुप उतना अधिक नहीं हो पाया है। प्रतिदिन युद्ध के माहौल से जूझते हुए जाफ़ना समाज में जाति आधारित व्यवस्था पर टॉयगर्स के द्वारा प्रतिबंध लगाया गया था। श्रीलंका के चाय के बागानों में काम करने वाले तमिल श्रमिकों पर वहां की व्यवस्था ने निम्न वर्ग के होने का चस्पा लगा दिया है। बहुत से अध्ययनों के अनुसार अवगत होता है कि श्रीलंका की आबादी में लगभग 30% (पचास लाख) लोग किसी न किसी रुप में, एक ही स्थान पर जातिगत विषमता का सामना कर रहे हैं। ‘वेलक्लॉर’ नाम की अग्रवर्ण के वर्चस्व वाली जाति के प्रार्थनालयों में ‘पंचमार’ नाम की निम्न जाति के लिए आज भी वहां प्रवेश वर्जित है।

दक्षिण एशिया में जाति-प्रथा का दंश इस स्तर तक फैले जाने का कारण भारत की जड़ें ही हैं यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। जाति और उसके साथ जुड़कर विभाजित हुए पेशों ने भारत की अधिसंख्यक जनता के जीवन में अंधकार भरने का कार्य किया है। यह न मिटा देने वाला एक सामाजिक सच है। भारतीयों ने अनेक तरीके के निषेधों को अस्वीकार कर दिया है। यह नयी चेतना के फलस्वरुप संभव हो सका है। जिसमें प्रमुख हैं- विधवा - विवाह के बंधनों को मिटा दिये, समुद्रयान पर लगे निषेधों को हटा दिये, बाल-विवाह के अनाचारों को बगल में फेंक दिये। अनगिनत अंधविश्वासों और रुढ़ियों का परित्याग भारतीयों ने किया है। लेकिन अस्पृश्यता के अनाचार और जाति-प्रथा को पूर्णरुपेण यह समाज त्याग नहीं सका है। सामाजिक रुप से अधोगति को प्राप्त समाज और राष्ट्र कभी भी राजनीतिक स्वतंत्रता को प्राप्त नहीं कर सकता है। भारतीय राष्ट्रीय नवजागरण के अग्रदूत और आधुनिक युग के महत्वपूर्ण सामाजिक चिंतक डॉ. बी. आर. अंबेडकर का यह कथन कितना प्रासंगिक है कि- ‘स्वतंत्रता - आंदोलन से भी कठिन है जाति-उन्मूलन का कार्य।’ दलितों के प्रति हो रही हिंसा को रोकना हो तो उसके पीछे की व्यवस्था को, निर्माण को और सोच को पहचानना होगा। भारत देश में ‘जाति उन्मूलन’ के बिना सामाजिक-लोकतंत्र संभव ही नहीं है

 

अतिथि प्राध्यापक,

दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र,

हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद- 500 046.

ईमेल: dr.raju.hcu@gmail.com.

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रचनाकार: जी. राजु का आलेख - क्या जाति ही समाज की पहचान है?
जी. राजु का आलेख - क्या जाति ही समाज की पहचान है?
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