राकेश भ्रमर की कहानी - चूड़ियाँ

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वह कई दिनों से मायके जाने की जिद् कर रही थी और वह मना करता रहा था. धीरे-धीरे उसकी जिद् जोर पकड़ती जा रही थी, तो दूसरी तरफ उसका इनकार कमजोर प...

वह कई दिनों से मायके जाने की जिद् कर रही थी और वह मना करता रहा था. धीरे-धीरे उसकी जिद् जोर पकड़ती जा रही थी, तो दूसरी तरफ उसका इनकार कमजोर पड़ता जा रहा था.


''बस कुछ ही दिनों की तो बात है,'' राधे ने कम्मो को मनाने का एक अन्तिम प्रयास किया था. उसका नर्म-गुदगुदा हाथ अपने हाथों में पकड़ते हुए कहा था, ''कतकी (कार्तिक) का मेला आने वाला हैं हम दोनों मेला देखने चलेंगे, तब मैं खुद तुम्हें तुम्हारी अम्मा के घर छोड़कर आऊंगा.''
''नहीं,'' कम्मो ने झटके से उसके हाथों से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा था, ''जब भी मैं मां के घर जाने की बात करती हूं, तुम हमेशा यही कहते हो.''
राधे ने अपनी पत्नी की बात का कोई जवाब नहीं दिया. उसकी बात का कोई जवाब हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वह हर दूसरे-तीसरे दिन मायके जाने की जिद्् लेकर बैठ जाती थी. जब से वह ब्याहकर राधे के घर आई थी, इसी एक बात को लेकर उसने सबकी नाक में दम कर रखा था. वह जिद् ठानकर बैठ जाती थी और राधे मना नहीं कर पाता था.
राधे ने सोचा था कि अपनी मोहब्बत के फूलों से वह कम्मो को इस कदर सराबोर कर देगा कि उसकी सुगन्ध से वह महमहा उठेगीं कानों में उसके प्यार के मीठे बोल गूजेंगे, नथुनों में जंगली फूलों की मादक सुगन्ध भर जाएगी और आंखों में जवानी के सतरंगी सपने तैरने लगेंगे तो कम्मो धीरे-धीरे मायके के बारे में भूल जाएगी.
परन्तु ऐसा नहीं हुआ था.


उसकी शादी को लगभग एक साल होने को आया था, परन्तु अभी तक पति-पत्नी के मन नहीं मिल पाये थे. राधे ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी, परन्तु कम्मो मुक्त हवा के झोंके की तरह जंगली फूलों की खुशबू अपने बदन में लपेटे इधर-उधर मंड़रा रही थी. उसकी जवानी उत्ताल तरंगों की तरह थीं बदन में ऐसा कसाव था कि किसी के काबू में नहीं आता था. खूशबू को आज तक कोई काबू में कर पाया है?
राधे को अपनी कमजोरी पता थी... वह नाटे कद का, गहरे सांवले रंग का लड़का था, जबकि कम्मो बिलकुल उसके उलट थी. दमकते रूप सौन्दर्य की मलिका, सुबह की सफेद बर्फ की तरह चमकती हुई, लोगों की आंखों को चकाचौंध कर देने वाली... पूरे गांव में उसकी जैसी सुन्दर लड़की कोई और नहीं थी.


राधे ईमानदार, मेहनती और पत्नी को भरपूर प्यार देनेवाला पति था, तो कम्मो चंचल और लापरवाह थी. वह राधे के प्यार की गहराइयों को नहीं समझ पा रही थी. राधे के प्यार का जैसे उसके लिए कोई महत्व नहीं था. वह उसकी तरफ से उदासीन रहती थी और उसके मन में पति के लिए सदा उपेक्षित भाव रहता था. उसका मन न तो ससुराल में रमता था, न राधे की प्यारी बातों में ससुराल की कोई बात उसे नहीं भाती थी. राधे उसके इर्द-गिर्द मंड़राता रहता था और दुनिया की हर खुशी उसके लिए बटोर लाने के लिए तत्पर दिखता था, इससे कम्मो और ज्यादा चिढ़ती थी और उसे बात-बात पर झिड़कती रहती थी. राधे बेचारा मन मसोहकर रह जाता था. वह अब कुछ-कुछ समझने लगा था कि कम्मो एक ऐसी हवा है, जिसमें खुशबू तो है, परन्तु वह कहीं ठहरती नहीं हैं वह जंगली फूलों की खुशबू थी, जो हर तरफ फैल जाती थी और किसी एक भंवरे की नहीं होती थी.


कम्मो का तन तो उसने जीत लिया. पति होने के नाते उसने यह अधिकार हासिल कर लिया था, परन्तु मन जीतने के उसके सारे उपाय व्यर्थ होते जा रहे थे. उसे लग रहा था कि कम्मो का मन किसी और के साथ लगा हुआ है. वह ठीक से नहीं कह सकता था, परन्तु उसका शक उस शख्स के ऊपर जाता था जो शादी के बाद से ही उसके घर आने-जाने लगा था. कम्मो उसे अपना भाई कहती थी, परन्तु उन दोनों के हाव-भाव से कहीं नहीं लगता था कि उनके बीच भाई-बहन का पवित्र रिश्ता हो सकता था. राधे अच्छी तरह समझ गया था कि 'वो' उसका भाई नहीं था. न तो वह उसके मायके के परिवार का था, न मायके का पड़ोसी ही... वह कम्मो के गांव का रहनेवाला जरूर था और शायद जवानी की देहलीज पर कदम रखते हुए गांव की उन्मुक्त हवा में दोनों की आंखें और मन एक दूसरे से टकरायें हों और वह जंगली खुशबू को अपने दामन में समेटकर बांधने में सफल हो गया हो.
वह जब भी आता था, कम्मो ऐसे खिल उठती थी, जैसे सुबह-सुबह कमलिनी खिलकर सूर्य को देखती हुई मुस्कराने लगती है, कलियां खिलकर भंवरों को आमन्त्रण देने लगती हैं कम्मो का संसार तब 'उसी' के आस-पास सिमट जाता था. पति और सास की दुनिया उसके लिए विस्मृत हो जाती थी. राधे और उसकी मां अपने ही घर में पराये जैसे हो जाते थे.
और अक्सर वह 'उसके' साथ अपने मायके चली जाती थी, बिना पति और सास की अनुमति के... वह तो उनसे पूछती भी नहीं थीं कपड़े-लत्ते समेटे और चल दी... तब राधे और उसकी मां को पता चलता था कि कम्मो अपने मायके जा रही थी.


राधे नामर्द नहीं था. उसके मन में आक्रोश उठता था, परन्तु वह उसे दबा ले जाता था. कम्मो उसकी पत्नी थी और वह उसे पति के अधिकार से नहीं, पति के प्यार से जीतना चाहता था. वह परखना चाहता था कि प्यार महान होता है कि उच्छृंखल वासना... दोनों की लड़ाई जारी थी.
राधे मारना-पीटना, डांटना-डपटना तो दूर उससे ऊंची आवाज में बात तक नहीं कर पाता था. और पति की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर कम्मो अपनी मनमानी करती रहती थी. उसने आज तक पत्नी के तथाकथित 'भाई', जिसका नाम उसने खुद तो नहीं पूछा था, परन्तु पत्नी ने एक बार बातों-बातो में बता दिया था कि वह जीवनलाल था, को एक शब्द नहीं कहा था. जीवनलाल सच्चे अर्थों में कम्मो का जीवन था और वह अपनी प्राणों से प्यारी पत्नी के जीवन को अपशब्द कैसे कह सकता था? कैसे उसे अपने घर में आने से मना कर सकता था?


इस साल राधे ने खेतों में कड़ी मेहनत से काम करके लगभग एक हजार रुपये बचाये थे. उसने सोच रखा था कि इस बार मेले में पत्नी को घुमाने ले जाएगा, तो उसके लिए एक नई हरे रंग की साड़ी खरीदेगा, इसी रंग की चूड़ियां और पांवों के लिए गिलट के बिछुए भी... इच्छा तो थी कि चांदी के बिछुए खरीदता, परन्तु ऐसी उसकी माली हालत नहीं थी कि चांदी के गहने खरीद सकता. दिहाड़ी मजदूरी से तीन लोगों का पेट भरना पड़ता थां कितना भी हाथ खींचकर खर्च करो, कुछ बचता ही नहीं था.
राधे के अरमानों को चकनाचूर करके कम्मो अपने मायके चली गई थी.


कतकी का मेला शुरू हो गया था. आज मेले का पहला दिन था और कम्मो अपने मायके में थी. राधे के अरमान उसके सीने में आग के शोलों की तरह धधक रहे थे. जब से कम्मो मायके गई थी तब से न तो उस की कोई खबर आई थी, न राधे ने ही उसकी कोई खोज-खबर ली थी.
लोग मेले में जाने लगे थे. लगभग आधा गांव सूना हो गया था. औरत-मर्द, बूढ़े-बच्चे सभी नहा-धोकर, नए-नए रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर चहकते हुए मेला देखने जा रहे थे. एक अकेला राधे था, जिसके मन में कोई हर्ष और उल्लास नहीं था. वह बुझा-बुझा सा बैठा था, जैसे बरसात के दिनों में बीड़ी बार-बार जलाने के बाद भी ढंग से नहीं जलती है, उसी प्रकार उसके मन में आशा और उत्साह का कोई संचार नहीं हो रहा था. घर के एक कोने में बैठा वह गीली लकड़ी की तरह सुलग रहा था और कड़ुए धुएं की तरह उसके विचार भी उसके मन को कसैला बनाए जा रहे थे.


मां पड़ोस का एक चक्कर लगाकर आई और राधे को बुझे चूल्हे की तरह बैठा देखकर भुनभुनाई, ''अरे, तू बैठा कौन सी रामायण पढ़ रहा है. सारा गांव चला गया, तू क्या रात में मेला देखने जाएगा?''
''मन नहीं कर रहा!'' उसने धीमें स्वर में अपने मन की बात बताई. मां ने समझा कि वह पत्नी के अपनी मर्जी से मायके चले जाने पर दुखी था, इसलिए वह मना कर रहा है; परन्तु वह भी क्या कर सकती थी?
''मन क्यों नहीं कर रहा?'' उसने समझाने का प्रयास करते हुए कहा, ''उधर से बहू को भी लिवा लाता. क्या पता मेले में ही मिल जाए. चल उठ, और तैयार हो जा. मैं खिचड़ी बना देती हूं, जल्दी पक जाएगी.''
मन तो नहीं कर रहा था, लेकिन नहीं जाता तो बहाना क्या बनाता? मन मारकर उठना ही पड़ा. जब तक वह नहा-धोकर तैयार होता, मां ने खिचड़ी बना दी थी. गरम-गरम खाई और ''जाता हूं'' कहकर निकल गया.


रास्ते में इक्का-दुक्का लोग उसे मिले जो साइकिलों में सवार होकर जा रहे थे. साइकिल वाले देरी से जाने का जोखिम उठा सकते थे, परन्तु पैदल चलने वाले तो कभी के निकल गये थे और अब तो मेले में पहुंच भी गये होंगे. जब तक वह मेले पहुंचेगा, मेला पूरी रौनक पर होगां कुछ लोग तो मेले से वापस अपने घर लौटने की तैयारी कर रहे होंगे.
मेले में जाने का कोई उत्साह उसके मन में नहीं था. जिसके लिए खून-पसीना बहाकर उसने कुछ पैसे जोड़े थे, जिसको साथ लेकर मेला घूमने की उसके मन में लालसा था, वही उसके साथ नहीं थी. पता नहीं मेले में उससे मिलेगी भी कि नहीं. अपनी सहेलियों के साथ होगी, तो क्या उनका साथ छोड़कर उसके साथ अकेले में घूमेगी? पता नहीं... वह कम्मो के मिजाज को आज तक नहीं समझ पाया था.


मेले में पहुंचकर पहले तो वह एक किनारे खड़ा होकर स्थिति का जायजा लेता रहा. चारों तरफ लोगों की भीड़, धूल और शोर... उस शोर में अपनी ही आवाज गुम होती जा रही थी. लोग आ रहे थे, लोग जा रहे थे, बच्चे किलकारियां भरते हुए इधर उधर दौड़ रहे थे. कुछ गुब्बारे उड़ा रहे थे, तो कुछ खिलौनों से खेल रहे थे. कुछ मुंह से बजाने वाले बाजों से अजीब-अजीब तरह की आवाजें निकाल रहे थे तो कुछ बांसुरी बजाकर बेसुरे सुर निकाल रहे थे. सब अपने में मस्त थे. कहीं भी कोई व्यक्ति दुखी या उदास नहीं दिखाई पड़ रहा था. लोगों के चमकते-दमकते रंगीन कपड़ों की तरह उनके मन में खुशियों की लहर दौड़ रही थी और उनके चेहरे ताजा फूलों की तरह खिले हुए थे.. ऐसे में कोई राधे के मुंह को देखता तो यही समझता जैसे किसी वीरान मरघट का साया वहां पसर गया हो.


उसका कोई साथी-संघाती नहीं था. वह किसी के साथ रहना भी नहीं चाहता था. कोई उसके दिल के दर्द को नहीं समझ सकता था. अतः कुछ देर खड़ा रहने के बाद वह मेले के अन्दर प्रवेश कर गया. वह निरुद््देश्य इधर-उधर घूम रहा था. उसे पता नहीं था कि उसकी कम्मो कहां मिलेगी? मन में एक लालसा थी कि अगर वह मिल जाती तो एक बार उससे पूछता कि उसके साथ चलकर अपनी पसंद की साड़ी और कुछ नकली गहने खरीद ले, भले ही उसके साथ ससुराल न जाए, परन्तु इतना तो उसका मान रख ही ले कि उसे लगे कि वह उसकी बीवी थी और उस पर राधे का कुछ अधिकार था.


इतने बड़े मेले में एक अकेली औरत को ढूंढ़ पाना आसान न था. कुछ सोचकर वह बिसातखाने वालों की तरफ गया. इस तरफ औरतों का सामान बिकता था, वहीं पर आस-पास बजाजा भी था, जहां रंग-बिरंगी साड़ियां दुकानों के बाहर लहराती हुई अपनी छटा बिखेर रही थी. एक तरफ चुड़िहारनें बैठी हुई जवान, चंचल, मनचली और मदमस्त खिलखिलाती हुई लड़कियों को चूड़ियां पहना रही थीं.


मेले के इस किनारे केवल औरतों और लड़कियों का रेला था. इक्का-दुक्का मरद भी नज़र आ रहे थे, जो अपनी नई-नवेली दुलहनों को सिंगार का सामान दिलवाने के लिए आए थे. ऐसे जोड़ों को देखकर राधे का दिल डूब गया, फिर वह बेचैनी से उस भीड़ के रेले में अपनी कम्मो को ढूंढ़ने का प्रयास करने लगा. उसकी आंखें चौड़ी होकर हर दुकान पर खड़ी औरतों को बारीकी से देखने लगतीं, शायद इनमें से कोई कम्मो हो.


तभी उसकी नज़र घूमते-घूमते एक चूड़ी की दुकान पर पड़ी. उसका जी धक् से रह गया. दुकान के सामने कम्मो खड़ी थी और चुड़िहारिन से मोल भाव कर रही थी. बगल में जीवनलाल खड़ा था, जो कम्मो की कमर में हाथ डालकर उसे अपने से सटाए हुए था, जैसे दोनों मियां-बीवी हों. कम्मो को कोई शर्म नहीं थी कि वह पराए मर्द के साथ चिपककर खड़ी थी. राधे की शंका सच्चाई में बदल गई थी.


''ये वाली कितने की हैं?'' कम्मो हुलसकर पूछ रही थी. राधे करीब आकर उन दोनों के पीछे खड़ा हो गया था.
''ये थोड़ी महंगी हैं, परन्तु तुम्हारी गोरी कलाइयों में बहुत सुन्दर लगेंगी? नई-नई शादी हुई है?'' चुड़िहारिन पूछ रही थी.
कम्मो ने कोई जवाब नहीं दिया, बस मुस्कराकर रह गई, परन्तु जीवनलाल पंख लगाकर आसमान में उड़ रहा था, ''हां, हमारी नई-नई शादी हुई है. तुम तो सबसे महंगीवाली चूड़ी पहनाओ इसको. सुहागिन बना दो आज...'' उसकी बात पर कम्मो खिखिलाकर हंस पड़ी और जीवनलाल की बांहों में दोहरी हो गई. जीवनलाल ने उसे और ज्यादा अपने से चिपका लिया.
राधे का खून खौल रहा था, परन्तु वह अपने को जज्ब किये खड़ा रहा.


चुड़िहारिन कम्मो की पसंद की चूड़ियां उसके गोरे-गोरे हाथों में पहनाने लगी. वह जमीन पर बैठ गई थी. जीवनलाल भी उसका हाथ थामकर चूड़ियां पहनाने में मदद कर रहा था. राधे की आंखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा था. अब बाकी क्या बचा था, उसकी ब्याहता को एक पराया मर्द चूड़ियां पहना रहा था. उसकी बीवी दूसरे मरद के नाम की चूड़ियां पहन रही थी. अब वह उसकी नहीं रही थी, पराई हो गई थी. पराए मर्द की बांहों में तो कब की समा चुकी थी और आज उसके नाम की चूड़ियां पहनकर पूरी तरह से उसकी हो गई थी.
और उसके पैरों के तले से उसकी जमीन खिसक गई थी.


राधे वहां ज्यादा नहीं रुक सका. मेले की सारी रौनक उसके लिए मर चुकी थी. वह बेतहाशा भीड़ को धकेलता हुआ बाहर निकलने लगा. उसकी सांस फूल रही थी, परन्तु उसे अपना होश नहीं था. बाहर निकलकर उसने एक लंबी गहरी सांस ली. पीछे मेले का शोर कान फाड़े दे रहा था, परन्तु इस शोर से उसे कोई परेशानी नहीं थी. उसके कानों में तो जीवनलाल की यह बात गूंज रही थी, 'हां, हमारी नई-नई शादी हुई हैं तुम तो सबसे महंगीवाली चूड़ी पहनाओ इसको. सुहागिन बना दो आज...'
उस दिन पहली बार राधे ने कच्ची शराब के कई गिलास चढ़ाये और जब वह नशे में धुत हो गया तो रात के अंधेरे में गिरता-पड़ता अपने घर पहुंचा. मां चिन्ता में बैठी उसी का इंतजार कर रही थी. गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था. लोग मेले से थके मांदे आए थे और खा-पीकर नीद के आगोश में समा चुके थे.
''कहां था अब तक? अरे, तू दारू पीकर आया है. हे राम, यह क्या हो गया है तुझको?'' मां उसकी हालत देखकर हैरान थी.


''सब कुछ खतम हो गया!'' नशे में झूमते हुए राधे ने कहा.
''क्या खतम हो गया?'' मां की समझ में कुछ नहीं आया.
''सारे नाते-रिश्ते...'' उसकी जुबान बेतरह लड़खड़ा रही थी. अपना शरीर भी उससे संभाला नहीं जा रहा था. वह लद्् से एक किनारे गिर पड़ा.
''हे राम, ये क्या हो गया है तुझे? और बहू को नहीं लाया?'' मां भयभीत स्वर में बोली.
वह जोरों से चीखकर बोला, ''कहां से लाता, वह तो मर गई.''
''मर गई...!'' बुढ़िया की आवाज जैसे बंद सी हो गई हो. वह पूछना चाहती थी, कब, कहां और कैसे, परन्तु राधे को उसके बाद होश ही नहीं रहा. वह भरे बोरे की तरह एक तरफ लुढ़क गया था.


मां ने लाख कोशिश की उसे होश में लाने की, परन्तु राधे को उस रात फिर होश नहीं आया. शराब के अतिरेक में वह अपने होशो-हवास खो चुका था. होश तो सुबह तक वापस जा जाएंगे, परन्तु उसकी रंगीन दुनिया उसे फिर कहां मिलने वाली थी, जिसके भरोसे आदमी अपना जीवन खुशी और प्यार से गुजार देता है, एक परिवार के लिए अपने जीवन को होम कर देता है. अब कहां थी उसकी वह दुनिया उसके पास... उसने केवल एक पत्नी ही नहीं खोई थी, बल्कि उसकी पूरी दुनिया ही उसके हाथों से फिसल गई थी... सपनों और प्यार भरे परिवार की रंगीन दुनिया.

(समाप्त)

(राकेश भ्रमर)
ई-15, प्रगति विहार हास्टल,
लोधी रोड, नई दिल्ली-110003

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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी - चूड़ियाँ
राकेश भ्रमर की कहानी - चूड़ियाँ
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