आँखें -बद्री सिंह भाटिया अस्पताल से बाहर निकलने के बाद एस.आर. शर्मा यानी सुखराम शर्मा एक क्षण के लिए ठिठका। उसने बसन्ती का हाथ पकड़ा औ...
आँखें
-बद्री सिंह भाटिया
अस्पताल से बाहर निकलने के बाद एस.आर. शर्मा यानी सुखराम शर्मा एक क्षण के लिए ठिठका। उसने बसन्ती का हाथ पकड़ा और मालरोड़ की ओर बढ़ा। वह बसन्ती के इलाज के लिए शहर के जाने-माने अस्पताल आया था। बसन्ती को काफी दिनों से पेट में दर्द हो रहा था। खाना खाने के कुछ देर बाद कई बार उल्टियाँ हो जातीं। कई बार खाना बाहर निकलता तो कई बार पीला लेसदार खट्टा सा पानी। कई बार सूखी या हल्की झागदार उल्टी होती। ऐसे में पहले घरेलू इलाज चलता रहा। उससे ठीक हो जाती थी, तो काम चल पड़ता था। दर्द के लिए अनेक प्रकार की दर्दनाशक दवाओं और जी मितलाने के लिए भी ऐसी ही अनेक दवाओं का बदल-बदल कर उपयोग होता रहा था; परन्तु जब दर्द बढ़ा तो फिर कस्बे के अस्पताल में एक्स-रे और बाद में अल्ट्रासाउंड से पता चला कि उसकी पित्त की थैली में स्टोन जमा हो गए हैं। बहुत ज्यादा हैं और उसका इलाज गुर्दे की पत्थरी की तरह कोल्थ आदि पत्थर गलाने वाली चीजों के प्रयोग से नहीं बल्कि अॉपरेशन से ही होगा। बसन्ती इसके लिए मुकर गई। “नहीं, अॉपरेशन नहीं। वह जिन्दगी के एक झटके से तो बच गई मगर अब दूसरा नहीं।” एस.आर. शर्मा उसे काफी समझाता रहा मगर वह टस से मस नहीं हुई। जीवन चलता रहा। इस बीच वह सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हो गाँव आ गया था। अब अस्पताल और भी ज्यादा दूर हो गया था। गाँव आकर बसन्ती के खान-पान में अन्तर आया और तकलीफ बढ़ने लगी। उसकी सौतन सुन्तली ने प्यार से समझाया कि वह अॉपरेशन करा ले। कुछ नहीं होता। यूँ दर्द सहना ठीक नहीं। उसने गाँव की दो-चार औरतों और मर्दों के नाम गिनाए-जिनके अॉपरेशन हुए हैं और कहा कि तू हिम्मत कर। मगर वह अपने दर्द लिए चेहरे के साथ उदास ही रहती।
बसन्ती असमंजस में। एक ओर तकलीफ दूसरी ओर डर। सौतन का सुझाव और पति का आग्रह। उसने अपनी एक और शंका सौतन को बताई-दीदी यहाँ तो चल जाता है-मगर वहाँ अस्पताल में। मेरा अन्धापन आड़े नहीं आएगा क्या? कैसे इतने बड़े अस्पताल में...सुना है बड़े-बड़े हॉल होते हैं-जिनमें बीसियों मरीज होते हैं। मुझे तो सदैव सहारे की जरूरत रहेगी। फिर लोग बार-बार पूछेंगे कि ये अन्धापन? मैं अब उस याद से नहीं गुजरना चाहती। इन्होंने (पति) और आपने मेरे लिए बहुत किया है, पर उस दिन को याद नहीं करना चाहती। और तू तो जानती है औरतें पूछने के बाद उन दिनों के बारे सुझाव देने लग जाती हैं जो बीत गए होते हैं। ऐसा करना था, वैसा करना था।
उसके आप्रेशन न कराने के डर का निदान एक दिन फौज से आए उसके बड़े बेटे ने कर दिया- कुछ नहीं होता माँ। तू चल मैं तेरे लिए स्पेशल वार्ड कर दूँगा। वहाँ कौन पूछेगा? उसको अपने बेटे पर पति से भी ज्यादा भरोसा था। और वह तैयार हो गई। स्पेशल वार्ड का ध्यान एस.आर. शर्मा को भी नहीं आया था। कारण, एक औसत आए वाला आदमी यदि बड़ा हो भी जाए तो-आप समझ सकते हैं। इसलिए तय हुआ कि अगले शुक्रवार को दिखाएँगे। उस दिन अस्पताल में ज्यादा भीड़ नहीं होती। उसी दिन स्पेशल वार्ड की भी बात कर लेंगे।
समय बलवान होता है। दो दिन बाद एक एस.एम.एस. आया और बसन्ती के फौजी बेटे को वापस अपनी नौकरी पर जाना पड़ा। उसकी कम्पनी की डियूटी कहीं सीमा पर लगी थी। बसन्ती काफी रोई मगर कुछ नहीं हुआ। लड़का चला गया। उसकी पीड़ा को कम करते सौतन सुन्तली ने अपने लड़के को फोन किया-पता चला वह दुर्घटनाग्रस्त हुए ट्रक को देखने दूर गया है। और फिर कई छोटी-बड़ी स्थितियों से गुजरते हुए आखिर में एस.आर. शर्मा स्वयं अस्पताल आ गया। आप्रेशन तो कराना ही था....
गेट पर से वे आगे बढ़े। बसन्ती ने अपना काला चश्मा ठीक किया और पूछा- “अब हम कहाँ जा रहे हैं?”
“अभी समय है, चलते हैं, एक चक्कर माल का लगाते हैं। उसके बाद सोचते हैं।”
“घर नहीं जाना?”
“नहीं! आज नहीं। डॉक्टर ने कहा है, स्पेशल वार्ड का कमरा कल तक खाली होगा।”
“तब रात को?”
“हाँ! यहीं भट्टी या वर्मा के मकान में रुक जाएँगे। कल यदि कमरा मिल गया तो परसों अॉपरेशन हो जायेगा।”
“पर...।”
“पर वर कुछ नहीं। वहाँ सब ठीक है। कमरे अलग हैं और लेट-बाथ अटैच्ड हैं। फिर मैं साथ हूँ न। तुम घबराती ही बहुत हो। पहले तो...।”
“पहले भी घबराती थी, मगर तुमने जो साथ दिया उससे डर काफी कम हुआ था। अब नया डर है। फिर नई जगह से भी तो...।”
“अच्छा चलो अब।”
“चलो।”
वे आगे बढ़े। चलते-चलते एक मोड़ पर कुछ आभास सा पा बसन्ती बोली- “कहाँ जैसे आए हम?”
“लक्कड़ बाजार क्रास कर रहे हैं।”
“अरे ! यहाँ का तो रूप बदल गया होगा। पहले-पहल एक बार आए थे हम। तब छोटू को लकड़ी की रेल ली थी। लकड़ी का घोड़ा। और कितना खुश हुआ था वह।”
“हाँ! तू सम्भल कर चल। मेरे साथ सट कर। गाड़ियाँ बिना हॉर्न के भी चलती हैं-आगे से आने वाली से तो बच जाएँगे मगर पीछे वाली....कहीं रगड़ लग गई तो....ये साले हार्न भी बिल्कुल समीप आकर ही देतें हैं।”
“आज तू जो हैं साथ। बचा लेगा मुझे।' हँसी वह और उसकी बाजू जोर से पकड़ ली।
“अब तू वैसी पतली सी नहीं रही जैसी पहले थी।”
”मतलब मैं मोटी हो गई हूँ।”
“नहीं पर काया में फर्क तो है। भारी भी हो गई है।”
”लोग क्या कहेंगे कि देखो बूढ़ों को, इस उम्र में भी...।“
”मरने दे। तेरे को क्या। तू मेरे साथ है। पूछेंगे तो कह दूँगा। हम लवर हैं।“ हल्के हँसा वह। वह जानता है कि इसके ऐसे सवालों से कतई भी नाराज नहीं होना है। गप्पबाजी में वे आगे बढ़ गए। आगे वे चुप हो गए थे। रिज के पास आते वह ही बोली। शायद उसे घोड़ों का आभास हुआ हो या कुछ और...रिज पर आ गये न हम?”
“हाँ!”
“एक-एक पूड़ी लो, यहीं किनारे बैठते हैं। घड़ी भर रिज का नज़ारा देखते हैं।”
“नजारा!” चौंका एस.आर. शर्मा। “अरे! यह क्या कह दिया? उसने तो शपथ ली थी कि वह कभी बसन्ती के अन्धेपन का एहसास नहीं कराएगा। पर...। यह बुरा मान जाएगी। दुःखी भी होगी। पर तीर कमान से निकल चुका था। वह आगे बढ़ा। पूड़ी ली और उसका हाथ पकड़ बैंच की ओर बढ़ गया। वह बोली- ‘आप चुप क्यों हो गए। मैंने बुरा नहीं माना। जैसे पहले बताते थे...अब भी बताना। मैं तुम्हारी आँखों से देखूँगी। और वह विगत में खो गई।
....अस्पताल से छुट्टी हुई तो वह माँ के साथ बाहर निकली थी। आँखों पर बाहर की तेज रौशनी पड़ी। पर आँखों पर लगी हरी पट्टी ने चुंधियाने से बचाने में सहयोग दिया। फिर भी कई दिनों तक अन्दर ही अन्दर रहने से आँखें मिचमिचा गईं। कैसी धूप होगी? उसने आँखें झपकाईं और धूप से सामंजस्य बिठाया। गर्दन नीची किए आगे बढ़ने लगी। भीतर डर, कहीं टक्कर न हो जाए। माँ का हाथ जोर से पकड़ लिया था। उसने मान लिया था कि अब वह कुछ भी नहीं देख सकती थी। आँखों में पूर्व का देखा सब कुछ वैसा ही था। मगर उसके बाद क्या हुआ? कैसे प्रकृति बदली उसे नहीं मालूम। अब जीवन ऐसे ही गुजारना होगा पुरानी स्मृतियों में; दूसरों के कहे-सुने और बदलते मौसम के मिजाज से। जब ज्यादा गर्मी लगेगी, जब पानी की फुहारें छुएँगी, और जब शीत लगेगी तो...तब वही सारे एहसास होते रहेंगे...आज ऐसा दिन है, आज....। मन ही मन सोचती, पिछले जन्म में उससे क्या गुनाह हुआ होगा जो जीवन का वह सुख छीन गया। वह मन ही मन उसे गाली देती रही जिसने उसे अन्धा बना दिया।
माँ के साथ आहिस्ता से आगे बढ़ी। डरी सी। बाहर की दुनिया की अभ्यस्त होने के लिए। इसी तरह की कुछ और कोशिशों के बाद वह गाँव आ गई थी। सभी पूछने आए। उसकी सहेलयाँ, बाद में रिश्तेदार। अनेक प्रश्न पूछते। सुझाव देते। वह अभी लोगों के प्रश्नों और सुझावों के बीच झूल ही रही थी कि उसके कर्नल चाचा ने एक दिन उसे बताया कि वह अब अन्धे-बहरों के आश्रम जाएगी। वहाँ कुछ काम सीखेगी... उसी दिन एस.आर. शर्मा उनके घर आया था। डरता-डरता। साथ में पंचायत प्रधान और एक दो गाँवी भी थे। उसने अपनी गलती के लिए अफसोस बताते हुए कहा था कि जो हो गया वह तो हो गया। वह उसका गुनहगार है। अपनी गलती की सजा में वह इस लड़की से शादी करना चाहता है और उसके बाकी जीवन की जिम्मेवारी भी लेता है। उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।
वह उसके प्रस्ताव पर बिफरी थी। बहुत बुरा भला कहा था और मुकर गई थी। उसके कर्नल चाचा ने भी इतना कहा था कि अभी तो इसका जीवन बनाना है ताकि यह आत्मनिर्भर बन कर रह सके। पराधीनता ठीक नहीं। दूसरे अभी यह अपने साथ हुई दुर्घटना के प्रभाव से उबर नहीं पा रही है। आपका प्रस्ताव हमारे पास है।
...एक दिन माँ ने बताया था कि शर्मा को बहुत अफसोस है। उसने अस्पताल में आकर इलाज का सारा खर्च दिया है। हमारे मना करने पर भी। उस दिन भी ट्रेनिंग का खर्चा दे गया था।
और वह आश्रम में आ गई थी। वहाँ भी यह कितनी बार आया था। बस एक ही बात-”बसन्ती जो होना था, हो गया। मैंने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया। अब आगे की सोच।” कितनी बार अपनी गलती के लिए पश्चाताप करता।
तभी वह कहती- “क्या सोचूँ आगे की? तूने जो करना था, कर दिया। अब क्या? और अन्धेरा करूँ मैं।” तब वह अपनी बात दोहराता बसन्ती उसने यह जानबूझ कर नहीं किया। गलती से बन्दूक चल गई...मगर वह उसे दुतकारती। और वह लौट जाता।
बसन्ती सोचती जा रही थी। अपना विगत। उसके कानों में शर्मा की बात नहीं पड़ी थी। बस पूड़ी से दाने निकालती और मुँह में डालती जाती। एक प्रक्रिया सी। सामने लोग पहले की तरह आ-जा रहे थे। यह आभास कई बार होता...ऐसे ही पहले कभी भी आते-जाते होंगे। नवदम्पति, पर्यटक, फोटो खिंचवाते लोग। बॉल खेलते बच्चे। भीख माँगती एक लंगड़ी औरत, पीठ पर बोझ उठाए गंतव्य की ओर जाते कश्मीरी कुली और कभी-कभार आते-जाते विदेशी पर्यटक। इधर वक्त के साथ बच्चों के खिलौने, गुब्बारे बेचने वाले भी चल रहे थे। झण्डा सा बनाए। डण्डे में लटकाए। एक गुब्बारा बेचने वाला गुब्बारे में हवा भरता और आकाश की ओर उछालता-पींऽऽ की आवाज के साथ गुब्बारा पहले ऊपर जाता फिर नीचे आता। एस.आर. शर्मा ने पूछा-“ले चलें एक दो गुब्बारे, सोनू-मोनू को।” मगर उसकी बात का बसन्ती ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने देखा वह दूर एकटकी लगाए चबेना चबा रही है। एक प्रक्रिया मात्र। उसे अभी घड़ी भर पहले का कहा स्मरण हो आया-पछताया। “उससे कैसे निकल गया, उसके अन्ध्ोपन का अहसास कराता शब्द?” वह ग्लानि महसूस करने लगा। वही, स्वयं वह, उसके अंधेपन का जिम्मेवार। विगत एक बारगी उसकी आँखों के आगे से सरकने लगा।
....उस दिन वह किसी घुरल, काकड़ की की तलाश में प्रधान के साथ गया हुआ था। अभी साँझ पूरी नहीं हुई थी। उसने सोचा कि इस समय ये जंगली जानवर उस जगह से पानी पीने गुजरते हैं। वह पहले भी यहाँ एक दो मार चुका है। उस दिन उसने दूसरी जगह न जा कर वहीं आना उचित समझा। यूँ उस दिन शिकार पर जाने का उसका मन नहीं था-मगर प्रधान ने कहा था-शर्मा जी, काफी दिन हो गए-डलकी(माँस) का इन्तजाम नहीं हुआ। मैं शहर गया था-कमाण्ड में एक दोस्त से अच्छी व्हिस्की लाया हूँ। बनाओ प्रोग्राम। उसने कुछ देर सोचा और बेमन से अपनी दुनाली उठा ली थी। मुर्गे और घुरल मारने वाले कार्टेज बैग में डाल लिए थे। वे निकल पड़े।
...ढलान वाले रास्ते के समीप। एक डाल के नीचे घास की डालियाँ हिलने का आभास हुआ। इसे पहले प्रधान ने देखा धीमें से बोला-“शर्मा जी, वहाँ घास के बीच...कुछ हिल रहा है।” वह भी ठिठका। आभास लिया। दूरी काफी थी। बरसात में यूँ भी ऊँची घनी हरी घास के बीच कुछ देखना आसान नहीं होता। इतने में घास के बीच ऊपर उठता सिर दिखा। फिर वहीं गायब। डालियाँ हिलती रहीं। वे ठिठके रहे। बन्दूक भी साध ली थी। ‘यार! कोई घास-वास काटने वाली न हो?' उसे शंका हुई थी। कमर झुकाए आगे बढ़ते भी रहे। नज़रे हिलती डालियों पर। कहीं शिकार भाग न जाए। एक जगह रुक गए। प्रधान ने फुसफुसाते कहा था, “यह घुरल है। ऐसी हरकत उसी की होती है। जोड़ा भी हो सकता है। काकड़ नहीं हो सकता। औरत होती तो कुछ गुनगुना रही होती। आप चलाओ गोली।”
इस बीच जानवर सी चीज का सिर दो-तीन बार ऊपर उठा। मगर वह घास से बाहर नहीं आ पा रहा था। और तभी प्रधान ने कहा-“करो फायर।” और धायं की आवाज के साथ एक पतली सी चीख भी उभरी और वातावरण में छा गई। एस.आर. शर्मा के मुख से एक दम निकला-“यार ये क्या करा दिया?” फिर हल्का सहज हो पीछे मुड़ा। मुड़ते कहा-“जा कर देख, कौन मर गया ये। मैं तो गया दूसरे गाँव। अब क्वाटर नहीं जाना। तूने मरवा दिया।” दूर गाँव से एक आवाज उभरी क्या हुआ रेऽ....वह बहुत डर गया था उस दिन।
...एस.आर. शर्मा को नौकरी में लगे अभी साल दो साल ही हुए थे। इस बीच उसने अपने जन सम्पर्क और लोगों के काम करके अच्छा नाम कमा लिया था। वह वहाँ से सामान्य रास्तों को छोड़ अन्य रास्तों से सीधा दूसरे गाँव के लम्बरदार के घर चला गया। लम्बरदार के आँगन में आवाज दी तो लम्बरदारनी बाहर आई-उसे देख बोली- “आओ भाई! लम्बरदार तो अभी नहीं आया। पर क्या बात? बन्दूक और कोई झोला-वोला नहीं। आप तो...।”
“नहीं बस यूँ ही निकला था। नीचे तक आया तो मन किया चलो ऊपर हो आता हूँ। पर, चलता हूँ। कब तक आना उन्होंने?” उसने अपने मन की धुकधुकी छिपाते कहा।
“आते ही होंगे। आप बैठो। कुछ काम...।”
“हाँ। काम भी था। पर चलो...।”
“न, न। अब कहाँ चलो? रात होने को है। बरसात का मौसम है। रास्ते में तरह- तरह के जानवर मिलते हैं।”
वह अनमने से रुक गया। मगर भीतर दिल धड़क रहा था। उससे ऐसी गलती कैसे हो गई। वह लड़की की ही चीख थी। यदि कोई मर गई और प्रधान भी उस ओर हो गया तो बात बिगड़ जाएगी। नौकरी चली जाएगी। जाने कितनी जेल हो!
थोड़ी देर बाद लम्बरदार आया तो उसने उसे भीतर ले जा कर धड़कते दिल से सारा वृतान्त बताया। पिछवाड़े छिपाई बन्दूक और झोला उसके पास भीतर रखे और उसे अपने किए काण्ड की जाँच करने को कहा।
इधर गाँव में हल्ला पड़ गया। लोग चीख की ओर दौड़े। बसन्ती के पिता अपने प्लाट की ओर। प्रधान भी एक जगह छिपा था। इसलिए वह भी आगे बढ़ा। देखा-बसन्ती है। चेहरा खून से लथपथ। उसने नाक के पास हाथ किया-साँस चल रही थी। एक ने तब तक नाड़ी देख ली थी। वे उसे उठाने लगे। हल्ले के बीच एक फैसला-शीघ्र अस्पताल ले चलो। कोई आवाज-यहीं पास में डिस्पेंसरी है। चलो। चलो यार देर न करो। तब तक कुछ लोगों ने एक पालकी सी बना दी और वे चल पड़े। सड़क तक आए-किसी गाड़ी की प्रतीक्षा। मगर कुछ नहीं दिखा। दूर से आती एक सफेद गाड़ी दिखी। कुछ इन्तजार के बाद पास आई। रुकी। स्थिति समझी तो एक उत्तर-यह पुलिस केस है। मैं इस पचड़े में नहीं पड़ता। वह चला गया। फिर दूसरी की प्रतीक्षा। तभी एक ने बीच सड़क में खड़ा हो गाड़ी रुकवाई। भाग्य से खाली थी। उसने फटाफट बसन्ती को भीतर डाला-स्वयं बैठ बोला-किसी तरह तहसील अस्पताल आओ। फिर चालक से बोला-“भइया, ये मर जाएगी। मदद कर और अस्पताल पहुँचा दे। तेरा नाम नहीं लूँगा।” खैर! अपनी व्यस्तता के बावजूद वह चल पड़ा। आगे बढ़े तो उसने पूछा- “क्या हुआ?”
“गन शॉट।”
“क्याऽऽ?”
“हाँ, मुआ वो सेवक आया हुआ है। उसको शिकार की लपोड़ चढ़ी रहती है। परधान के साथ मिला हुआ है। बस उसी ने।”
“भइया, यह तो पुलिस का मामला है...मैं...।”
“आपको कुछ नहीं करना। तहसील अस्पताल पहुँचा दो। मैंने कहा ना, आपका नाम नहीं...चले जाना फिर हम स्वयं कर लेंगे। थाने में भी वहीं जाएँगे।”
दूसरे दिन लम्बरदार ने एस.आर. शर्मा को सारा वृतान्त बता दिया और गन अपने पास रख शाम को उसे गायब हो जाने को कहा। वह चला गया। मन में सन्तोष यह कि वह मरी नहीं। अब वह कुछ कर सकता है। जाने कितने विचार। कभी बदली करा कर दूर चले जाने का, कभी उसके इलाज का खर्चा वहन करने का। कभी कुछ, ऐसा ही जैसा कोई भी अपने को बचाने के लिए सोचता है। हर कोण से। एक सवाल भीतर उठता....मगर लोगों के रोष का कैसे सामना करेगा। यदि वह उनको मिल गया तो जान नहीं बचेगी।
...मामला ठण्डा पड़ा। उसने अपनी बदली दूसरी जगह करा दी थी। उसने प्रधान के जरिए इलाज का खर्चा भिजवाया। किसी के घर लड़की की माँ को बुला उसके पैर पड़ा। अपनी जिम्मेदारी मान नाक रगड़ी....
इधर मुकद्दमा चला। गवाहों की कमी के कारण वह सजा से बच गया। मगर एक अपराध बोध ने उसे जकड़ लिया। ‘नही! वह उस लड़की का गुनहगार है।' वह परेशान रहने लगा। घर आता चुप रहता। जवान पत्नी पूछती-“तुम तो चहकते रहते थे। अब क्या हो गया। तुम अब शिकार को भी नहीं जाते। कितने दिन हो गए।” वह टाल जाता। उसके सवालों का जवाब नहीं दे पाता। कभी-कभी उठ कर कहीं चला जाता। परन्तु स्थिति रात को खराब होती-तब वह उसे झिड़क देता।
एक दिन उसने पूछ ही लिया-“कोई दूसरी है तो बताओ। यूँ क्यों?”
“नहीं कोई दूसरी नहीं है।“
”हर वक्त परेशान। घर के काम भी पहले की तरह नहीं करते। और ये तुम्हारी सेहत भी गिर गई है। कोई तो कारण है न।” पत्नी के सवालों का क्या उत्तर दे। सोचता वह। ऐसी जाने कितनी बातें हुईं। मगर एस.आर. शर्मा की बेचैनी दूर नहीं हुई। मन ही मन तड़पता रहता। किसे बताए अपना दुःख? कि उसकी गलती से एक युवा लड़की अन्धी हो गई। क्या होगा उसके जीवन का? उसकी इस स्थिति से पत्नी परेशान। क्या करे। इधर एक बच्चा भी हो गया था। वह भी बड़ा हो रहा है। पत्नी ने सत्याग्रह कर दिया। एस.आर. शर्मा ने पूछा मगर कोई उत्तर नहीं। और फिर वही आग्रह। उसने एस.आर. शर्मा के भीतर के सच को जानना चाहा। तब गहरी पीड़ा से बोला था- “सुन्तली, मेरी वजह से एक जिन्दगी तबाह हो गई। उसका क्या कसूर था। मेरे शिकार के शौक ने उसे अन्धा कर दिया।”
“पर, आपने तो उसके इलाज का खर्चा दे दिया था न। बाद में भी आप दे आए थे।”
“हाँ! मैं इससे उबर नहीं पा रहा। मैंने उसके चेहरे पर उदासी देखी है। इस बार गया तो ठीक से बोली नहीं। चुप स्वेटर बुनती रही। उसने वहाँ दस्तकारी के वे सारे काम सीख लिए हैं जो अन्धों को सिखाए जाते हैं। उसकी शादी की उम्र निकलती जा रही है। उसके भी तो अरमान होंगे। उसने सोचा होगा कि शादी के बाद वह क्या-क्या करेगी? और अब। वहाँ की आया बता रही थी कि शाम के समय वह किनारे वाले बैंच पर बैठ चुप दूर आसमान निहारती रहती है। जब थक जाती है तो अपनी स्टिक के साथ नल तक जाती है। मुँह धोती रहती है, बड़ी देर तक। निराशा से घिरी...
“फिर आप क्या चाहते हैं?” पत्नी ने पूछा था।
“मैं सोचता हूँ...।” उसने मन की बात नहीं कही।
“बोलो न! यूँ जिज्ञासा क्यों बढ़ाते हो?”
“मैं चाहता हूँ उसे यहाँ ले आऊँ और उसकी सेवा करूँ। उसे वह सब कुछ दूँ जो उससे छीना गया है।”
“यानी...।”
“हाँ!”
“मेरी सौतन लाते आपको शर्म नहीं लगेगी। लोग क्या कहेंगे?” सुन्तली का दिल बहुत ज्यादा धड़कने लगा था।
“बस इसी उधेड़बुन में मैं मरता जा रहा हूँ। आजकल इन आश्रमों में जवान लड़कियों के साथ बहुत कुछ उलटा हो रहा है। यदि उसके साथ भी हुआ तो उसका दोषी वह मुझे मानेगी।”
“और यदि कुछ हो गया होगा तो...आपको क्या पता?”
“पता नहीं पर मैं स्वयं को उसका दोषी मानता हूँ। मेरे भीतर वह बस गई है...उसकी चीख कई बार सुनाई देती है। मुझे तब वह बरसात का मौसम, बन्दूक की धायं सुनाई देती है...मैं सो नहीं पाता।”
सुन्तली चुप रही। सोचती। एक ओर अपना जीवन। दूसरी ओर पति की चिन्ता। उसका बसन्ती के बारे में सोचते घुलते जाना। ‘यदि इसे ही कुछ हो गया तो...सुना है चिन्ता में रहने वाला आदमी...।' इस ‘तो' का उसे उत्तर नहीं मिलता-और इसी तरह एक दिन सुन्तली ने कह दिया-“आप कचहरी में कागज बनवाओ। मैं अपना राजीनामा लिख कर दे दूँगी। आप उसका जीवन बनाओ। बल्कि मैं भी अब उसके जीवन के बारे में सोचने लगी हूँ। तुम जो भी कहोगे मैं करूँगी। ले आओ उसे। उसका जीवन हमारी जिम्मेवारी है। मैं आपको घुलते नहीं देख सकती।” रूआँसी उसने कह तो दिया मगर फिर सोचने लगी, “क्या वह कर पाएगी?” एक दूसरी औरत के साथ बाँट पायेगी वह अपना पति?' उसे कितनी बार नहीं का उत्तर मिला। फिर सोचती-वे भी तो मर्द हैं जो बिना बताए ऐसा करते हैं-फिर? तब भीतर से आवाज बार-बार आई। और इसी ऊहा-पोह में एक निर्णय- “हाँ! हाँ!” करना पड़ता है। अपने लिए। और एक दिन वह बसन्ती के घर भी जाकर आई। कर्नल चाचा ने उनके प्रस्ताव को सहज स्वीकार कर लिया। बोले, ‘तू जिम्मेवारी लेती है तो हम मान जाते हैं। पर...।'
वह बोली थी, ‘आप चिन्ता न करो मैं जो हूँ। आपने देख लेना। ये समझ लो कि वह मेरी छोटी बहन है।' मन में विचार था, वह कहना चाहती थी कि वह अपने पति को बसन्ती की चिन्ता में घुलते नहीं देख सकती। पर नहीं कहा। वह मन की बात कहती भी कैसे? फिर चाचा ने बसन्ती के पिता को समझाया कि यही उसकी सजा है-हम बसन्ती का जीवन देखते रहेंगे। फिर कई शर्तों की पूर्ति। बसन्ती की न को हाँ में बदलने के प्रयोग हुए। होने वाली सौतन को भी मिलाया गया। वह उसके गले लग कर रोती रही। बोली-‘तुम मेरी छोटी बहन बन कर रहोगी। ये वायदा रहा। ले प्रामिस।'....पत्नी की हाँ से एस. आर. शर्मा हैरान। उसने पूछा- सुन्तली, तूने ठीक से सोच भी लिया। तेरे मायके वाले, गाँव के लोग...मेरी चिन्ता तो और भी बढ़ गई है। हम समाज का सामना कैसे करेंगे?' उसकी चिन्ता का समाधान पत्नी ने कर दिया था-”होगा तो बहुत कुछ। सब कहेंगे। मगर एक चिन्ता से निकलने और घुट-घुट कर मरने से बचने के लिए कुछ तो करना ही होगा। देख लेंगे। आप आगे बढ़ो।'
एक दिन बसन्ती एस.आर. शर्मा के घर में थी। तब तक उसने अपनी बदली निदेशालय में करा ली थी। बसन्ती को सुन्तली एक बड़ी बहन के रूप में ही मिली। उसने उसे घर के काम सिखाने शुरू कर दिए।
वह एस. आर. शर्मा के घर आ तो गई मगर उसे पति स्वीकार नहीं कर सकी। सप्ताहान्त पर वह आता तो ठीक से बात नहीं करती। वह उसके समीप आता तो दूर भागती। स्वीकार नहीं करती। वह भी चुप रहता। उसका हर खयाल रखने को कहता। तभी पहली पत्नी सुन्तली ने कहा-“इसे अपने साथ शहर ले जाओ। साथ रहोगे तो प्यार बढ़ेगा। अभी तो यह कहती है कि उसे मात्र अपने सुख के लिए लाया गया है। सब्जबाग दिखा कर। यह विवाह मेरी लाचारी का फायदा उठाने के लिए किया है...यह अपने माँ-बाप को भी गाली देती है। वे उसका बोझ नहीं उठा सके।“ पत्नी की बात से वह विचलित हो गया था। फिर निर्णय, साथ रखना ही उचित रहेगा। और वह उसे ले आया। शाम को दफ्तर से छुट्टी होते ही वह क्वाटर पहुँच जाता। उसे तैयार होने को कहता। मनाता। चलो घूम आते हैं। वह मना करती। वह मिन्नत करता। बार-बार कहता-‘नही! कोई फायदा नहीं उठाएगा। बस अपने अपराध बोध से उबरने के लिए तेरे साथ...तू समझ इसे। और कई बार की कोशिश के बाद एक दिन वह तैयार हो गई। “चलो! एक अन्धी को क्या दिखाना है?” उसने उसकी बात का उत्तर नहीं दिया। आगे बढ़ा तो ठण्डी सड़क पर आ गए। वहाँ से उसने उसका हाथ अपने साथ सटा कर पकड़ा। अपने साथ कदम मिलाने को कहा। उसे समझाया शहर है कैसे चलना है। वह जगह-जगह खड़ा हो जाता-उसे बताता- “बसन्ती वो देखो सामने तारा देवी की पहाड़ी है। एक किनारे पर माँ तारा का मन्दिर है। ये पहाड़ी लम्बी है। यहाँ से वहाँ तक। घने बान, देवदार के वृक्षों से अटी-पटी। बीच में से रेल की लाइन है। एक दिन वह ले चलेगा। वे रेल में भी सफर करेंगे। वह दूसरे पहाड़ दिखाता। उंगली से इंगित करता वो दूर पीछे की ओर फलाँ जगह से शुरू और फलां जगह खत्म। एक चित्र बनाता। कहता-बसन्ती तुम मेरी आँखों से देखो। पहाड़ तुमने देखे हैं-बस जैसे मैं बताता हूँ, देखती जाओ और दिल में उतारो। फिर किसी पुराने या नए बने भवन के सामने खड़ा हो उसे बताता-उसकी चित्रण करने की शैली बहुत रोचक थी। पहले वह सुनती। फिर मुस्कराती। आगे बढ़ती। वे माल पर चलते। वह बताता जाता। सामने से आ रहे लोगों से टक्कर न हो, उसे अपने से सटा कर बचाता। कॉफी हाउस में कॉफी पिलाता। बड़े, इडली खिलाता। कोई नहीं जान पाता कि वह अन्धी है। वैसे भी कॉफी हाऊस में किस को किस की फिक्र होती है। सब अपने में व्यस्त। यदि को देखता भी तो उसके काले चश्मे से अन्दाज लगाता कि आँख की कुछ गड़बड़ है। शायद कम दिखता हो। कोई गहरी दृष्टि से देखता तो बुदबुदाता-साले ऐसे में क्यों आते हैं कॉफी हाऊस? मगर उसकी आवाज की ओर कौन ध्यान देता। वे उठ जाते। वह सहारा दे उसे बाहर ले आता। उसकी इस क्रिया से वह कई बार ऊब सी जाती। चिढ़ उठती। कहती कुछ नहीं। बस यह लगता वह सोच रही है। जितना यह बता रहा है, काश! वह वास्तव में देख पाती। मगर...तब कुछ दिनों बाद उसने इस स्थिति के साथ सामंजस्य बिठा दिया। वह उन कहानियों में रुचि लेने लगी।
बसन्ती यादों के झरोखे से अपने विगत के दिन स्मरण कर रही थी-इसी तरह बैठती थी वह यहाँ के बैंच पर। जाने कितनी बार। शर्मा तब पूड़ी ले आता था। वे मजे से खाते और घर लौट जाते थे।
वह सोचती है-शहर आकर शर्मा ने कहा था-बसन्ती मैं तेरी मजबूरी का लाभ उठाने के लिए नहीं लाया हूँ। मैं अब काफी हल्का महसूस करता हूँ कि तेरे लिए कुछ कर पा रहा हूँ। मैं प्रायश्चित कर रहा हूँ। तुम मॉफ करोगी तो शायद...मैंने...। इतनी सारी बातें। उसका अच्छा व्यवहार, उसे लगा वह उसी आँखें बन गया है। तब जाने कब उसके मन में एस.आर. शर्मा की ओर प्यार जाग गया। वह आदमी हत्यारा नहीं है... अब वह उसके दफ्तर से आने की प्रतीक्षा करने लगी। बतियाने लगी थी। घर के काम भी समझनेे लगी थी। कहती-चुप यूँ ही बैठ कर कितना समय काटा जा सकता है। टी.वी. भी कितना सुना जा सकता है? उसकी वाणी में अन्तर आ गया था। और इसी प्यार में वह एक दिन उसके बिस्तर में घुस गई थी। घुटकर प्यार किया था। ”हाँ! आपसे गलती हुई थी। आपने जानवर समझ फायर किया था-हाँ! मैं मर जाती यदि घास का पुला बांधने थोड़ा नीचे न उतरती। हाँ! आपने मेरा चेहरा ठीक करा दिया वर्ना। ज्योति आप नहीं ला सकते थे।'
और परिणाम। वर्ष-वर्ष बाद दो बच्चे हुए। एक लड़का एक लड़की। सौतन के भी दो बच्चे थे। बच्चे बड़े होते रहे। ऐसे ही एक दिन गाँव में वह बच्चों के साथ बैठी थी। उसने बड़ी बेटी से पूछा- “मैं कैसे लगती हूँ?”
“छोटी माँ आप बहुत अच्छी हैं।”
“मेरा चेहरा!”
“बहुत ठीक। हाँ माथा जलने के कारण थोड़ा लाल है।”
“बुरा लगता है।”
“नहीं। यह तो घाट वाली शीतला वाली आन्टी से भी अच्छा है।”
“घाट वाली आन्टी।”
“वो रामकृष्ण की घर वाली। उसके भी तो दाग है। वह भी बचपन में चूल्हे में जा गिरी थी। उसका माथा जल गया था।”
“अरे!....और मेरी आँखें?”
“वो ठीक हैं। साफ डेले हैं, मगर...।”
“मगर...”
“आप देख नहीं पाती न।”
“नहीं, मैं देखती हूँ। देख सकती हूँ।”
“कैसे?”
“तुम्हारे पापा की आँखों से।
“अरे! वाह।”
चौंकी थी बेटी। यह क्या कहा छोटी माँ ने। वह उठ गई थी। उसने अपनी माँ को आवाज दी। मम्मी, छोटी माँ देख सकती हैं। उसकी आवाज से वह भी चौंकी थी। क्या कहा?
“क्या कहा?” उसने सवाल किया। एस.आर. शर्मा चौंका।
....एस.आर.शर्मा अपनी सोच से बाहर आया। “मैं कह रहा था कि इस रिज पर जाने कितने लोग आते हैं। हर मौसम में। कितने पाँव। कितने समय से यहाँ ऐसे ही पसरा पड़ा है । उस समय का गांधी जी का बुत ऊँचा हो गया है। घोड़े वाले बढ़ गए हैं। लक्कड़ बाजार की ओर जाने वाले खनूर के पेड़ के नीचे अब बूढ़े पूड़ी वाले का बेटा बैठने लग गया है। इधर पार्क में डॉ. परमार का बुत लग गया है। तुझे याद है हम यहाँ पहले धूप सेंका करते थे। इस पार्क के किनारे जहाँ कभी बैण्ड बजा करता था, आशियाना रेस्टोरेन्ट है। इसके नीचे भी ऐसा ही है-गुफा। उधर की ढलान को बचाने के लिए एक मार्किट बना दी गई है और ऊपर इंदिरा गांधी का बुत लगा दिया गया है। उधर गेइटी थियेटर का नवनिर्माण पुरानी शैली में कर दिया गया है। इधर माल के रास्ते पर एक कुल्फी इत्यादि की दुकान खुल गई है। यहाँ के एक किनारे बैठने वाला वह अधेड़ व्यक्ति पूड़ी बेचता बूढ़ा हो गया है। और ऊपर टका बैंच में एक ग्लो लाइट लग गई है। इसमें कई बार खबरें, तापमान दिखाया जाता है। पीछे सड़क पर चाट वाले वैसे ही हैं, पहले जैसे। हाँ आदमी बदल गए हैं। चलो। तुम्हें सोफ्टी खिलाता हूँ।”
“चलो। बहुत दिन हुए। मैंने सोफ्टी नहीं खाई।”
“हाँ! मैंने भी नहीं।
“पर ये बताओ, कहीं इससे मेरी पत्थरी पर तो नहीं असर पड़ेगा।”
“पता नहीं। तू यह क्यों सोचती है। आज का स्वाद जाने कल हो या न।”
और वे आगे बढ़ गए। स्केण्डल प्वांइट पर पहुँचते ही जितने में वह कुछ कहता बसन्ती ने कहा, ‘स्केण्डल प्वांइट आ गया।' पति ने उसकी ओर देखा और हूँ की। बोली, मुड़ रहे हैं, कॉफी हाऊस नहीं जाना?'
‘एक राऊँड लगा लेते हैं।'
‘ठीक है, इस उम्र में क्या रह गया है राऊँड के लिए? बदल गया होगा सब कुछ।'
‘हूँं, अब काफी बदल गया है, कितनी दुकानों में विदेशी माल बिकता है और बड़ी कम्पनियों ने शो-रूम ले लिए हैं। दुकानों के मालिक उनमें प्रबन्धक हो गए हैं।'
‘मतलब?'
‘बस बदलाव ही बदलाव। असल में बसन्ती जिन्दगी में एकसा क्या रहता है। समय के साथ बदलता जाता है। हम भी तो बूढ़े हो गए। मानो कल की बात हो।'
”हाँ, तुम तो वैसे ही हो, पहले जैसे।“ हँसी वह।
‘मैं माल की बात कर रहा हूँ और तू...।' हल्का हँसा वह भी।
‘हाँ! यहीं हमने एक बार रेडियो भी खरीदा था।'
‘हूँ! अब वह दुकान यहाँ नहीं है।'
‘और घड़ी। क्या नाम कैमी...।'
‘हाँ, वह दुकान अब भी है।'
वे आगे बढ़ रहे थे। बसन्ती ने एक जगह रुककर कहा-‘गेयटी थियेटर।'
‘हाँ!'
‘आगे चने वाली पोड़ियाँ है। कॉफी की छोड़ों छोले-भटूरे खाते हैं।
‘ठीक है।' वे आगे बढ़े।'
एस.आर.शर्मा खुश लग रहा था। वह बसन्ती का चेहरा देखता चेहरे पर दर्द के भाव नहीं थे। जाने कहाँ चला गया दर्द। उस समय बसन्ती उसका चेहरा निहार रही थी। इस जिज्ञासा में कि वह कुछ कहेगा। बताएगा।
माल पर इसी तरह टहलते दो चक्कर लगाने के बाद वे चले गए। माल फिर दफ्तर के बाबुओं, सैलानियों ओर नव युवाओं से भरने लगा था।
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बद्री सिंह भाटिया, द्वारा प्रवीण भाटिया, ग्रीन वुड, दूसरी मंजिल, गांव दूधली, डा. भराड़ी,
शिमला-171001
जीवन वृत्त
नामः बद्री सिंह भाटिया
जन्मः 4 जुलाई, 1947 को सोलन जिले की अर्की तहसील के गांव ग्याणा में।
शिक्षाः स्नात्कोत्तर (हिन्दी) तथा लोक सम्पर्क एवं विज्ञापन कला में डिप्लोमा।
लेखकीय विकासःदस कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक कविता संग्रह, एक सम्पादित कहानी संग्रह।
इसके इलावा अनेक सम्पादित संग्रहों में कहानियां संकलित तथा देश की अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ कहानियां अनुदित भी। विकासात्मक लेखन। पहली सरकारी नौकरी के समय में मेडिकल कालेज शिमला की कर्मचारी यूनियन की पत्रिका तरु-प्रछाया का सम्पादन, कालान्तर में सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग में नौकरी के साथ साप्ताहिक पत्र गिरिराज और मासिक पत्रिका हिमप्रस्थ में सम्पादन सहयोग।
सम्मानः साहित्यिक यात्रा में हि. प्र. कला,संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा पड़ाव
(उपन्यास, 1987) तथा कवच (कहानी संग्रह, 2004) पुरस्कृत। हिम साहित्य
परिषद मण्डी द्वारा 2001 में साहित्य सम्मान तथा हिमोत्कर्ष साहित्य, संस्कृति
एवं जन कल्याण परिषद ऊना द्वारा 2007 में हिमाचलश्री साहित्य पुरस्कार,
सिरमौर साहित्य एवं कला संगम द्वारा 2012 में डा. यशवन्त सिंह परमार साहित्य
सेवा सम्मान से सम्मानित।
अन्यः- अर्की-धामी ग्राम सुधार समिति और ग्याणा मण्डल विकास संस्था के अध्यक्ष
पद पर रहते हुए समाज सेवा तथा विभिन्न कर्मचारी यूनियनो, एसोसियशनों में
अनेक गरिमामय पदों पर सक्रिय भागीदारी। अर्पणा(साहित्यिक एवं वैचारिक मंच)
के अध्यक्ष पद पर भी कार्य।
अब सरकारी सेवा से निवृति के बाद लेखन के इलावा पैतृक गांव ग्याण में
खेती-बाड़ी में संलग्न।
सम्प्रति हि. प्र. सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग, शिमला में सम्पादक पद पर से फरवरी,
2005 में सेवा निवृत ।
सम्पर्क 1. द्वारा प्रवीण भाटिया, ग्रीन वुड, दूसरी मंजिल, गाँव दुधली, डाकखना भराड़ी,
शिमला-171001
2. गांव ग्याणा, डाकघर मांगू, वाया दाड़ला घाट, तहसील अर्की, जिला सोलन,
(हि.प्र.)-171102
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