बलूची कहानी - क्या यही जिन्दगी है

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बलूची कहानी क्या यही ज़िन्दगी है मूल: डॉ. नइमत गुलची अनुवाद: देवी नागरानी हवाएं तलवार की तरह काट पैदा कर रही थीं। तेज़ झोकों ने तूफ़ान बरपा कर...

बलूची कहानी

क्या यही ज़िन्दगी है

मूल: डॉ. नइमत गुलची अनुवाद: देवी नागरानी

हवाएं तलवार की तरह काट पैदा कर रही थीं। तेज़ झोकों ने तूफ़ान बरपा कर रखा था। दरख़्तों ने ख़िज़ाँ की काली चादर ओढ़ ली थी । यूँ लगता था जैसे गए मौसमों का सोग मना रहे हैं । कोई क्या जाने ये क्यों दुखी हैं ? रातों की स्याही अब दिन में भी नज़र आती है । परिंदे, हवाओं में उड़ते सारे समूह अपने घोंसलों में पनाह लेकर, अपनी जमा की हुई पूँजी पर ज़िन्दगी बसर कर रहे थे ।

बूढ़ी दादी अम्मा ने अपने जर्जर लिहाफ़ से झाँकते हुए आवाज़ दी, ‘गुलोजान, देखना तो साए अगर पलट पड़े हों। कहीं ऐसा न हो कि मेरी नमाज़ सर्दी की भेट चढ़ जाए’। गुलोजान ने जवाब दिया - ‘बड़ी अम्मा साए लौट रहे हैं, हवा का रुख़ भी टूट रहा है, आपकी नमाज़ का वक़्त हो चुका है ।’

‘हाँ बेटे, जाड़े की शिद्दत घटने लगी है तो बादलों ने सर उठा लिया है । ख़ुदा हम बेघरों, कपड़े लत्तों से महरूम इन्सानों पर रहम फ़रमाए। कुटिया की टूटी-फूटी छत तो अभी से डराने लगी है’, दादी अम्मा ने ग़म से तर-बटर लहज़े में कहा । पोते ने एक ज़ोरदार कहकहा बलुंद करते हुए बताया - ‘दादी जान आपकी एड़ी तो लिहाफ़ से बाहर झाँक रही है, आपने यह लिहाफ़ कब बनाया ?’

‘अरे... ओए... चंदा तुम क्यों ऐसी बातें पूछते रहते हो? मेरा दिल ऐसी बातों से दुखता है। यह मेरी पुरानी सहेली जैसा है। तेरे दादा ने अपने ब्याह के दिनों में बनवाया था । हम दोनों ने अपनी जवानियाँ इसकी ओट में बसर कीं । वह तो अपनी राह चल दिया । सोचती हूँ यह मुझे भी क़ब्र तक पहुँचाने में साथ देगा। तेरे बाबा के पास ऐसी हैसियत नहीं कि नया बनवा दे । दिनभर भाग-दौड़ करता, जान पर बन आती तब कहीं जाकर रूखी-सूखी से बच्चों का पेट पालता। ऐसे में भला मेरे लिहाफ़ की क़िस्मत कैसे जाग सकती है ! उसकी कमाई तो इस-उसकी भलाई में ख़र्च हो जाती है। कभी किसी की भाँग, किसी की बीड़ी, कितने हैं जो अपने आराम के लिये उसे पीड़ की सेज पर लिटा देते थे ।’ एक सांस में दादी अम्मा कह गई ।

दादी ने फटे-पुराने लिहाफ़ को ख़ैरबाद कहा (वह क़लमा जो बिदाई के वक़्त कहते हैं) साथ ही उसे भूख का अहसास हुआ ।

‘सदो जां, देखना तो रोटियों के कपड़े में बची-खुची रोटी पड़ी है । शायद मेरे दिल को कुछ क़रार आ जाए ।’

‘दादी जान वो तो पहले ही मैंने आपके सामने झाड़ दिया था, थोड़ा-सा चूरा झड़ा। मैंने जो दो-तीन चपातियाँ पकाई थीं गुलोजान ने तोड़-तोड़ कर खा लीं । दो एक निवाले मैंने भी लिये और बस... हाँ एक रोटी तह कर रखी है, गुलो जान के वालिद के लिये । वो काम पर गए हैं, भूखे होंगे’ सदो ने जवाब दिया ।

‘अरी रहने दे, मुझ चंडाल की बजाए वह आकर खा ले तो बहतर है ।’

थोड़ी देर गुज़री थी कि गुलोजान का बाबा इशरक सर्दी और भूख से निढाल लौट आया । धूप में बैठते ही सदो को आवाज़ दी... ‘सदो अगर खाने को कुछ है तो ले आओ। यहाँ बैठकर कुछ सांस लें । खजूर के अगर कुछ दाने हों तो लेती आना ।’

‘आपसे कहा तो था कि खजूरें ख़त्म हो गई हैं । अखरोट, नेजे का बचा हुआ हिस्सा जो मैंने सर्दियों के लिये बचा रखा था वह कर्ज़दारों को दे दिया’ सदो ने अफ़सरों जैसे रुख़ में कहा ।

उनका छः साल का बेटा बाहूट दौड़ता हुआ आया ।

‘अम्मा मैंने आज छोटे जानवर का शिकार किया है। वहीं उसके पर नोच डाले, नमक कहां है ? मैं उसे आग पर भूनना चाहता हूँ।’

‘वहीं नमक दानी में देखो, अन्दर पड़ी है, मेरा दिमाग़ मत चाटो’ सदो ने झाड़ पिला दी ।

‘अम्मा उसमें तो नमक नहीं है।’ लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा ।

‘अच्छा ज़रा दूसरे मर्तबान में भी देख लो, अगर उसमें भी नहीं है तो बग़ैर नमक के अंगारों पर रख दे।’

‘माँ’ लड़का एक बार फिर पुकार उठा ‘रोटी का एक निवाला रख लेना, मैं गोश्त के साथ खाऊँगा ।’

इशरक ने सदो से कहा - ‘हवा में पहले-सी शिद्दत नहीं रही । तुम मेरी चादर ओढ़कर मीर के यहाँ चली जाओ, थोड़ी-सी खजूर माँग लाओ। आज रात मुझे लकड़ी काटने जाना है, मीर के यहाँ लकड़ी ख़तम हो गई है ।’

सूरज ढलकर क्षितिज पर झुक रहा था। दक्षिण की तरफ़ से काले-काले बादल झूम-झूम कर बढ़ रहे थे, थोड़ी ही देर में सूरज गायब हो गया । अंधेरा बढ़ गया। बादलों ने बढ़कर सारे आसमान को ढाँप लिया । एक तो रात का अंधेरा, ऊपर से बादलों की स्याही। घोर अंधेरे में हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था । खूब बूंदा-बांदी और मूसलाधार बारिश हुई। ओले तड़तड़ाने लगे । बारिश ने यूँ समां बाँधा कि जैसे आज ही टूट कर बरसना है । भेड़-बकरियों ने सहमकर जोर-जोर से मिमियाना और डकरना शुरू कर दिया । अमीर अपने पक्के घरों में और ग़रीब अपने बेहाल झोपड़ों में फटे-पुराने कपड़ों में दांत बजा रहे थे । बारिश रुक गई

। जानवरों की आवाज़ें आनी बंद हो गईं मगर अब भी कहीं कहीं से अभी पैदा हुए बच्चों के कराहने की आवाज़ आती तो अपनी गिरी हुई झोंपड़ियों से आग की तमन्ना लिये दांत बजाते, बगलों में हाथ दे, सहमे हुए सर्दी का दुख झेल रहे थे। यूँ लगता था कि ये कहावत सही है - ‘गुलाबी जाड़ा भूखे-नंगे लोगों की रज़ाई है ।’

रात टूटती रही, दूसरा पहर गुज़रा, मुर्गों ने बांग देनी शुरू की । सदो रातभर मारे सर्दी के सो न सकी । मुर्ग़ों की बांग सुनकर उठी, इसलिये कि अमीरों के घर का उसे अनाज पीसना था। वह ज़रूरत से फ़ारिग होने के लिये बाहर निकली । इशरक अभी सर्दी के मारे सिकुड़ा सुकड़ा हुआ पड़ा था। उसकी आँख लगी ही थी कि बाहर से एक दिल दहलाने वाली चीख़ ने उसे झंझोड़ डाला । वह बड़बड़ाकर उठा और दौड़कर बाहर आया । देखा तो सदो मिट्टीट में लोट रही है । इशरक ने अपने दुखों के साथी को सहारा देकर उठाया और घसीटता हुआ झोंपड़े में ले आया।

‘तुझे क्या हुआ ?’ इशरक ने सदो से बेताबी से पूछा । ‘क्यों इतनी ज़ोर जोर से चीखी है?’

‘क्या बताऊँ, सर्द हवा के एक थपेड़े ने मेरे होश उड़ा दिये। मेरे हाथ-पाँव जम गए हैं।’ सदो ने अपना सुन्न पड़ा हाथ फैलाया। इशरक झोपड़े के एक कोने की तरफ़ गया जहाँ बच्चे खुद में समाए, कम्बल में लिपटे हुए सो रहे थे। वहाँ कुछ झाड़ियाँ पड़ी थीं, मगर झोपड़े में बारिश का पानी भर आया था और वह सबकी सब भीग चुकी थीं । उसने इधर-उधर तलाश किया और खजूर के फूल का बना हुआ एक थैला उठा लाया । सदो से पूछने लगा ‘माचिस कहाँ रखी है ?’

‘माचिस में एक तीली रह गई थी । कल लड़के ने आग जलाकर एक परिंदे को पकाया । मैंने आग सुलगाए रखने के लिये गोबर के उपले सुलगाए थे मगर बारिश ने बुझा डाले ।’ सदो का यह दुख भरा जवाब सुनकर इशरक की आँखें भर आई । मजबूर होकर उसने सदो पर फटी पुरानी रज़ाइयाँ डाल दीं । वह अपने ओढ़ने-बिछौने सदो पर डालकर बोला ‘अच्छा अब मैं चलता हूँ, जब तेरे बदन में कुछ जान पड़े तो उठकर मीर के घर अनाज पीस डालना। सुबह अगर वक़्त मिले तो मीर के घर से लाया हुआ वह धान भी कूट कर साफ़ कर लेना जो उसने कल भिजवाया है । मैं शायद देर से लौटूँ, वह ख़ाम-खाह ख़फा होगा ।’

बारिश थम चुकी थी मगर हवा गुस्से में भरी हुई थी। इशरक ने गधे पर झोला कसा। अपने बोझल जूते पहने। पुरानी कम्बल खींच ली ताकि उसे ओढ़ ले, मगर छोटा चीख़-चीख़ कर रोने लगा । बाप ने पूछा ‘बेटे क्या बात है, क्यों रोते हो, कुछ तकलीफ़ तो नहीं ?’

वह बोला ‘नहीं बाबा मुझे तो सर्दी ने मार ही डाला है, मुझे कंपन हो रही है, कुछ ओढ़ने को दो। ’ उसके दांत बज रहे थे । इशरक निहायत परेशान था। एक तरफ़ बच्चे के रोने और बिलबिलाने की आवाज़, दूसरी ओर बाहर हवा का दिल में उतरता शोर । औलाद का प्यार अपनी राहत पर हावी रहा । फटा-पुराना कम्बल बच्चे को अच्छी तरह ओढ़ाकर, आरी कमरबंद में ठूँसकर वह बाहर आया। दो एक क़दम उठाकर वह रुका और अपनी बीवी को आवाज़ देकर पूछने लगा - ‘अरे सदो ! कल जो मैंने तुझे मीर के यहाँ से खजूर माँग लाने को कहा था, कुछ दिया उसने ?’

‘भई, मैं तो मुँह खोल कर पशेमान हो गई थी। खजूर उसने क्या देना था । भाईचारे की बातें सुनाकर मेरी सात पुश्तों की जन्मपत्री उधेड़ डाली ।’ सदो ने रज़ाई के अंदर से बड़बड़ाकर कहा ।

इशरक गधे पर बैठा और जंगल की राह ली। जिस्म पर सिर्फ़ मीर का दिया हुआ एक फटा पुराना पहनावा, हवा के बुलंद तेज़ थपेड़े... उसकी जान पर बन आई थी । वह हमेशा जिस तरफ़ जाया करता था उसी तरफ़ हो लिया । सुबह का गया शाम को लौट आता, मगर अब की बार वह गया तो लौट कर नहीं आया ।

सुबह हुई, सदो ने चक्की पीस कर एक तरफ़ ढकेल डाली। अपनी धँसी हुई आँखें दादी अम्मा के लिहाफ़ पर जमाईं । बुढ़िया अभी तक सिमटी सिमटाई पड़ी हुई थी । उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह इतनी देर तक कभी भी नहीं सोई । वह अपनी सास के सिरहाने जा खड़ी हुई । उसे झिंझोड़-झिंझोड़कर जगाने लगी । मगर वह तो ऐसा सोई थी कि जागने से रही। अपने फटे पुराने लिहाफ़ में वह कब की दूसरी दुनिया को सिधार चुकी थी। सदो की आँखों में अंधेरा छा गया । उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसकी होश उड़ा देने वाली चीख़ फ़ज़ा में गूँजने लगी। पास पड़ोस के लोग सिमट कर आ गए।

‘अरे अब के बुढ़िया को क्या हुआ ? क्या हुआ ?’ के शोर में सदो को कहते हुए सुना गया । ‘बहनो, होना क्या था, वही हुआ जो ग़रीबों का मुक़द्दर है। गर्दिश का दुख कोई कब तक बर्दाश्त करे? उसे सर्दी ने हम से छीन लिया।’

इशरक कितना बदनसीब था कि उसे माँ का आख़िरी दीदार भी नहीं मिल सका । ‘ख़ुदा का खौफ़’ रखने वाले लोगों ने बुढ़िया का कफ़न-दफ़न किया और अपने-अपने घरों को हो लिये । सदो सर पर हाथ रखे मातम मनाती रही । अभी सास की मौत का दुख कम नहीं हुआ था कि एक पड़ोसन दौड़ती हुई आई और चीख़कर कहने लगी ‘बदक़िस्मत सदो ! अफ़सोस तेरी हालत पर। तू बुढ़िया के लिये मातम कर रही है और मौत ने तुझसे तेरे बच्चों के सर का साया भी छीन लिया है। इशरक सर्दी में सिकुड़कर भरी दुनिया में तुझे अकेला छोड़ गया । एक काफ़िले को गुज़रते हुए रास्ते में उसकी लाश पड़ी मिली है, वह उसे उठा लाए हैं।’

यह सुनना था कि सदो पर गोया बिजली गिरी । उसका गला रुंध गया और उसकी आँखें धुँधला गईं । हाथ-पाँव शिथिल होकर रह गए । क़रीब बैठी हुई औरतों ने उसे उठाकर एक कोने में लिटा दिया।

हर साल इसी तरह सर्दियों का बेरहम मौसम आता है । इसी तरह हवा तबाही का शोर मचाती रह जाती है । ओले तड़तड़ बरसते हैं और इसी तरह दरख़्तों में सनसनाती हवाएँ इशरक का सोग मनाती है, और इसी तरह न जाने कितनी सदो बेवा हो जाती हैं । हज़ारों मासूम बच्चे गुरबत का दुख सहने के लिये यतीम हो जाते हैं।

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अनुवाद: देवी नगरानी

जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। तमिलनाडू अकादेमी व आँय संस्थाओं से सनमानित। साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत/ राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।

संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ फोन:9987928358

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साभार : किताब का नाम : अंजीर के फूल

बलोचिस्तान के अफ़साने-

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रचनाकार: बलूची कहानी - क्या यही जिन्दगी है
बलूची कहानी - क्या यही जिन्दगी है
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