अशोक गुजराती की लघुकथाएँ

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॥लघुकथाएँ॥   अशोक गुजराती अनपेक्षित विकल जी क्‍लब में रोज़ शाम चले जाते थे. वहां अकेले-अकेले दो पैग लेते थे. घर आकर अपना काम करते थे. पत्‍...

॥लघुकथाएँ॥

 

अशोक गुजराती

अनपेक्षित

विकल जी क्‍लब में रोज़ शाम चले जाते थे. वहां अकेले-अकेले दो पैग लेते थे. घर आकर अपना काम करते थे. पत्‍नी की बेवजह ज़िद के कारण उनको वहां जाना पड़ता था.

वे वहां किसी से बात नहीं करते थे. एक युवक उनके पास आकर बैठने लगा. वह उनका आदर करता था लेकिन अपने अहम्‌ के तहत फेंकने की आदत के चलते उन्‍हें क़तई रास नहीं आता. इसका क्‍या करें कि वह उनकी इज़्‍ज़त करते हुए भी उन्‍हें परेशान ही करता था.

फिर काफ़ी दिनों तक वह नहीं आया. वे खुश हुए कि चलो पीछा छूटा. इस बीच एक अन्‍य युवक, जो पुलिस में था, उनसे अनुमति लेकर उनके पास आ बैठा. यह भी बड़बोलेपन का आदी और अपनी होशियारी प्रदर्शित करने का क़ायल था. वे क्‍या करते, उसे सहन करने के अलावा.

एक दिन यों हुआ कि दोनों क्रमशः उनके टेबिल पर आ विराजे. उनका ‘ड्रिंक' समाप्‍ति पर था. वे और जल्‍द से जल्‍द खत्‍म कर उठ गये- उन दोनों को उलझते हुए देखकर.

उनका ख्याल था कि यह अच्‍छा ही हुआ कि दोनों अहंकारियों को आपस में भिड़ा दिया. उन्‍हें भविष्‍य में उनका झगड़ा अवश्‍यंभावी लग रहा था.

बाद के दिनों में उनको साथ में बैठा देखकर वे प्रतीक्षा करते रहे कि अब... अब... वे लड़ पड़ेंगे. विपरीत इसके कुछ दिनों में उन्‍होंने देखा कि वे अच्‍छे दोस्‍त बन गये थे.

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अंतर

बड़े बाबू ने चपरासी हरेलाल को आवाज़ देकर बुलाया. उसके पास आने पर वे खड़े हुए और ज़ोर से बोले, ‘सब लोग सुनो भाई !' उनका इतना कहते ही आफ़िस के शेष पांचों कर्मचारी अपना काम रोककर उनकी दिशा में देखने लगे. पूरे हॉल में सूई-पटक सन्‍नाटा व्‍यापते ही बड़े बाबू ने अपना चश्‍मा कपाल पर चढ़ाते हुए भाषण की मुद्रा में अपना बोलना जारी किया- ‘आज हरेलाल जी का जन्‍म-दिन है. उनको आप बधाई देंगे तो वे नाश्‍ता-पानी का इंतज़ाम ज़रूर करेंगे...'

हरेलाल ने उनकी तरफ़ परेशान नज़रों से देखा. वे उसकी हताश अस्‍तव्‍यस्‍तता को ताड़ गये. जेब से फ़ौरन सौ का नोट निकाल उसकी ओर बढ़ाया- ‘हम हैं न, फ़िक्र क्‍यों करते हो !'

थोड़ी देर में एक गुलाब जामुन, एक समोसा और चाय की आधी-आधी प्‍याली सारे सहकर्मियों के आगे हरेलाल ने हाज़िर कर दी. हंसी-मज़ाक़ करते हुए यह छोटी-सी पार्टी चलती रही...

आफ़िस से छुट्‌टी होने पर हरेलाल शाम को अपने घर जाने के लिए निकला. झोपड़पट्‌टी की तंग गलियों से गुज़र कर उसने ज्‍यों ही खुले दरवाज़े की दहलीज़ पर क़दम रखा, अंदर कमरे में उसके दो दोस्‍त चारपाई पर बैठे दीखे. ये दोनों भी उसीकी तरह अलग-अलग कार्यालयों में दरबान और सुरक्षाकर्मी की नौकरी करते थे और नज़दीक ही रहते थे.

हरेलाल को देखते ही वे उठे और बारी-बारी से गले मिलकर उसे सालगिरह की मुबारकबाद दी. हरेलाल ने अपनी पत्‍नी को उनके लिए चाय बनाने को कहा तो उनमें से एक बोला, ‘चाय रहने दे यार, आज तो मिठाई से तेरा मुंह मीठा करेंगे...'

दूसरे ने साथ लाया डिब्‍बा खोला और हरेलाल के मुंह में एक बर्फ़ी देते हुए गाया, ‘तुम जियो हज़ारों साल...'

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कर्म

सारे दोस्‍त उसको ‘लकी' कहते थे.

वैसे देखा जाये तो ‘लकी‘ उसे कहना चाहिए, जो योग्‍य पात्र नहीं है पर जिसे अचानक छप्‍पर फाड़ कर मिल गया है या मिलता रहता है.

जब एक विद्वान लेखक को अकादमी पुरस्‍कार घोषित हुआ, उसका घनिष्‍ठ मित्र बधाई देते हुए कहने लगा- ‘तुम खुशनसीब हो...' तब उसने उसे रोकते हुए ज़ोरदार शब्‍दों में जवाब दिया- ‘मैं भाग्‍यशाली नहीं हूं, आई डिज़र्व इट.'

आनंद की लघुकथा ‘पूर्वाभ्‍यास'' की नायिका कभी चीनी न मिलने के अंदेशे के तहत चाय में थोड़ा नमक डालना ठीक समझती है; प्‍यार के समय झगड़ते हुए कहती है कि सैनिक के युद्ध से पहले के अभ्‍यास-सा है यह और विदाई के दिन वह प्रेमी से बिना मिले चली जाती है... प्रेमी को वह क़तई बेवफ़ा नहीं लगती.

हमारे ‘लकी' दोस्‍त की उपलब्‍धियां इतनी अधिक हैं कि ताज्‍जुब होता है. धन भी है, प्रसिद्धि भी. बड़े-बड़े लोगों से उसके अंतरंग संबंध हैं. वरिष्‍ठ पत्रकार है. नामवरों से साक्षात्‍कार लेता रहता है, जो आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में उसके रंगीन फ़ोटो के साथ प्रकाशित होते रहते हैं. अभी-अभी राजेन्‍द्र यादव की मृत्‍यु के बाद उसका कुछ दिनों पूर्व लिया- ऐसा उसने लिखा था- इंटरव्‍यू एक स्‍तरीय अखबार में चमक रहा था.

अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे भाग्‍यवान की श्रेणी में शुमार करते हैं या अवसरवादी की... मेरा ख्याल है कि इस भ्रष्‍ट पृथ्‍वी पर जीना है तो भैया, आपको इलास्‍टिक का लंगोट पहनना ज़रूरी है.

लेकिन, यह उतना ही सच है कि यह लकी मैन या तो दूसरे दर्ज़े का पहलवान बन कर रह जायेगा या सारी जंग जीतने के बावजूद इतिहास में दर्ज़ नहीं हो पायेगा कि आगत पीढ़ियां उसकी रचनात्‍मकता- जो भी है- को याद रखें.

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'कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्‍कृत.

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हम- हम हैं!

 

भूमण्‍डलीकरण का प्रस्‍ताव आया ही आया था. समूचे मीडिया और लोगों में चर्चा का वही विषय बन गया था. मेरे दोस्‍त ने तो साफ़ कह दिया, ‘यार, हम फिर इस्‍ट इंडिया कंपनी के दौर में जाने को उतावले हैं. बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां हमारे बाज़ार को इरादतन यूं घेर लेंगी कि ये हमारी छोटी-बड़ी दुकानें और तमाम कारखाने सांस भी नहीं ले पायेंगे...'

मैंने उसे टोका, ‘क्‍या वे हमारे दुकानदारों और उद्योगियों से अपना माल सस्‍ता दे पाने में सक्षम हो सकेंगे ?'

उसने पूरे विश्‍वास से अपना उत्‍तर सौंपा- ‘हां, वे निश्‍चित ही गुणवत्‍ता और कम दाम के भरोसे इनकी तुलना में सफल रहेंगे...'

‘ऐसा भी क्‍या तुम पूर्वाग्रह लिये बैठे हो... उनकी स्‍पर्धा में हम भी सस्‍ता और बढ़िया सामान बनाने और बेचने में पीछे नहीं रहेंगे. ऐसा कुछ भी नहीं होगा, जैसा तुम सोच रहे हो.'

वह खामोश ही रहा. और हुआ भी उसके सोच के विपरीत. छोटे-मोटे उद्योगपति और दुकानदार पहले-सी ही अपनी कमाई करते रहे. कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ा.

फिर सरकार ने लाया नया विधेयक- प्रत्‍यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआइ) का. पुनः विपक्षी दलों के उकसाने पर मीडिया और जन-जन में बहस शुरू हो गयी- ‘इसका नतीज़ा यही होगा कि हम इनके माध्‍यम से एक बार फिर ग़ुलामी की ज़ंजीरों से जकड़ लिए जायेंगे. हमारे व्‍यवसायी भला इन बड़े-बड़े पूंजीपतियों का क्‍योंकर मुक़ाबला कर पायेंगे...'

मैंने अपने मोहल्‍ले के एक छोटे दुकानदार से पूछा, ‘क्‍यों भाई, ये तुम्‍हारे पड़ोस में वालमार्ट का जो बड़ा-सा स्‍टोर खुल गया है, तुम्‍हारे धंधे पर इसका बहुत बुरा असर हो रहा होगा, नहीं...?'

वह मुस्‍कराया- ‘बाबूजी, ऐसे कितने ही विदेशी आ जाएं हमारी होड़ में, हम उनको घोल के पी जायेंगे. आखिर हम हिन्‍दोस्‍तानी हैं...'

मैं ताज्‍जुब से उसे निहारता रहा तो उसने रहस्‍य पर से पर्दा उठाया- ‘वालमार्ट वाले आजकल चौपन रुपए की पेप्‍सी तैंतीस में बेच कर ग्राहक को लुभाना चाह रहे हैं. हमारे सीधे-सादे भारतीय ग्राहक वैसे भी वहां जाने में हिचकते हैं. उन्‍हें उनका कम किया दर भी अक्‍सर पता नहीं होता...'

उसने नये आये ग्राहक को बिस्‍किट का पैकेट थमाया और पैसे लेकर अपना अधूरा बयान पूरा किया- ‘और मैं क्‍या करता हूं- मालूम है बाबूजी, सुबह-सुबह उनसे पेप्‍सी के चार क्रेट बत्‍तीस रुपए प्रति बोतल के हिसाब से खरीद लाता हूं और पचास की एक बोतल बेचते हुए शाम तक सारे क्रेट ठिकाने लगा देता हूं. ग्राहक भी खुश, मैं भी खुश ! इसे कहते हैं साब, आम के आम और गुठलियों के भी दाम !'

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प्रा. डा. अशोक गुजराती, बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी, दिल्‍ली- 110 095.

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. लघुकथा की बारीकियों के साथ बेहतरीन लघुकथाएँ पढ़ने का मौका मिला - अभिनन्दन
    - पंकज त्रिवेदी

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: अशोक गुजराती की लघुकथाएँ
अशोक गुजराती की लघुकथाएँ
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