अभिज्ञात का संस्मरण : बेहतरी के बारे में सोचना है शैलेन्द्र चौहान का होना

SHARE:

शैलेन्द्र चौहान अगले माह यानि  दिसंबर 2014 में सेवानिवृत होने जा हैं, जाहिर है उन्होंने  60 वर्ष पूरे कर लिए हैं। उनकी सृजनधर्मिता और रचनात...

शैलेन्द्र चौहान अगले माह यानि  दिसंबर 2014 में सेवानिवृत होने जा हैं, जाहिर है उन्होंने  60 वर्ष पूरे कर लिए हैं। उनकी सृजनधर्मिता और रचनात्मकता को बहुत सटीक ढंग से अभिज्ञात का यह संस्मरण हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है। अतः शैलेन्द्र जी की षष्टिपूर्ति के अवसर पर यह बेहद प्रासंगिक है।

चंद्रमौलि चंद्रकांत

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान

वारंगल (आ.प्र.)

अभिज्ञात का संस्मरण 

बेहतरी के बारे में सोचना है शैलेन्द्र चौहान का होना

लगभग अनायास ही शैलेन्द्र चौहान मेरी ज़िन्दगी में चले आये थे। मुझे कई बार हैरत भी होती है कि कोई किसी के करीब न चाहते हुए भी कैसे जा सकता है। इधर के कुछ बरसों में मैंने अपनी ज़िन्दगी की वे तमाम राहें बन्द कर दी हैं जहां से किसी का प्रवेश दबे पांव भी मुमकिन हो। आख़िर रिश्तों को निभाना आसान तो नहीं फिर नये रिश्ते क्यों बनाये जायें। हर रिश्ते के साथ ज़िम्मेदारी की डोर बंधी होती है वह आदमी को और बांधती चली जाती है चुपचाप और अपराध बोध उतना ही गहराता जाता है जब रिश्तों का सही प्रकार से निर्वाह नहीं हो पाता। पुराने रिश्तों के तकाज़ों पर मैं कभी खरा नहीं उतर पाया तो नये रिश्ते बनाने से डरने लगा। और दिल के दरवाज़े तो और सख्ती से बंद कर लिये। कोई दस्तक भी होती है तो उसने अनसुना करने की प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे कहीं पल रही है। याद करने की कोशिश करता हूं तो इतना भर याद आता है कि धरती पत्रिका संभवतः 15-18 साल पहले आयी थी। पत्रिका गंभीर थी और उसके सम्पादक थे शैलेन्द्र। पत्रिका पर कानपुर का पता था शायद। फिर हल्का-फुल्का पत्राचार चला। उनके पोस्ट कार्ड आते रहे कि वे किसी और शहर में हैं और पत्रिका भी नियमित नहीं है कि मैं उसका इन्तज़ार करूं। इस बीच मैं कोलकाता से अमृतसर अमर उजाला में गया व वहां से ट्रांसफर होकर जालंधर। मेरे पंजाब जाने की खबर उन्हें नहीं थी। सो वहां उनसे एकदम सम्पर्क नहीं था। सम्पर्क बना इंदौर जाकर जब मैंने वहां वेबदुनिया डाट काम में गया साहित्य चैनल का कार्यभार सम्भाला। ई मेल से जो रचना आयी थी वह और वहां मेरा ई मेल आई डी मेरे वास्तविक नाम से बना था hriday@webdunia.com इसलिए उनकी ओर से पहचाने जाने का सवाल नहीं था। पर मैंने पहचाना और फिर सम्पर्क कायम हो गया।

उन दिनों वे नागपुर में थे जहां मेरे तमाम दोस्त थे। मेरे जीवन के लगभग 12 साल विदर्भ में बीते हैं। नागपुर से ट्रेन से घंटे भर की दूरी पर तुमसर है जहां मैंने होश संभाला। पांचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई की। हनुमंत नायडू, श्रध्दा पराते, सागर खादीवाला, नटखटी नागपुरिया, राजेन्द्र पटोदिया कितने ही आत्मीय साहित्यिक मित्र मेरे अग्रज रचनाकार वहां रहे हैं, जिनके बीच मैंने रचनाकर्म शुरू किया था। मेरे प्रिय चित्रकार भाऊ समर्थ भी। नायडू और भाऊ पर दिवंगत हो चुके हैं पर उनकी स्मृतियां साथ हैं। शैलेन्द्र अब शैलेन्द्र चौहान के नाम से लिखने लगे थे। उन्होंने वेबदुनिया में भी रचनात्मक सहयोग दिया। फोन पर भी बातें होतीं नागपुर की भी और दुनिया जहान की भी। अक्सर रचनाओं के साथ एक पीली या नीली पुर्जी भी लगी होती जिस पर एक दो पंक्तियों का नोटनुमा संक्षिप्त पत्र होता था। इस पुर्जी का कोई नाम ज़रूर होता जिसके बारे में मुझे नहीं पता। यह सम्भवतः उच्च अधिकरियों की कार्यशैली का हिस्सा होता है, (जो कि वे भी हैं एनटीपीसी में चीफ मैनेजर जैसे किसी वरिष्ठ पद पर), लेकिन यह मेरे लिये नया-नया सा था और और कितनी ही पुर्जियां इस प्रकार की मेरे पास उनकी थीं जिन्हें सहेजना मुमकिन नहीं पर वे कहीं न कहीं बना हुई हैं मेरी दराज़ों, फाइलों के बीच क्योंकि मैं बड़ी मुश्किल से ही किसी के पत्र फेंकता हूं। इस प्रकार की पुर्जियां मुझे शैलेन्द्र जी की याद दिलाने में समर्थ हैं। कहीं किसी दराज में, किसी भी फाइल में इस तरह की पुर्जी दिखी तो वह शैलेन्द्र जी की होगी यह मान लेता हूं। उन पुर्जियां पर एक कोने में हल्का सा गोंद लगा होता है इसलिए वह अपने आसपास के किसी भी कागज़ पर सटकर उसका हिस्सा बन जाता है। लगता है वह उससे दस्तावेज़ पर कोई नोट हो। कई बार वह किसी खास रचना या पत्र के साथ जुड़कर उसपर एक विडम्बनापूर्ण या दिलचस्प टिप्पणी बन जाता है। कई बार मुझे यह पुर्जी उनके व्यक्तित्व से मेल खाती दिखी

आडम्बनरहीन, भूमिकाहीन सीधी संक्षिप्त और लगभग जरूरी सी टिप्पणी की तरह। मैंने यह नहीं उम्मीद की थी कि उनसे मुलाकात भी होगी किन्तु हुई। मैंने सहसा इंदौर और वेबदुनिया को अलविदा कह दिया था। कोलकाता में पत्नी व बेटी थी जिनके बिना रहना लगभग मुश्किल हो गया था सो जमशेदपुर आ गया दैनिक जागरण में। यह करीब था कोलकाता से। और जल्द ही हुआ कि कोलकाता बाकायदा लौटने का अवसर मिल गया सन्मार्ग में। इस बीच उनसे सम्पर्क एकदम टूट गया था। मैं कुछ अरसे तक जमशेदपुर व फिर कोलकाता में परिस्थितयों व कार्य की नयी चुनौतियों से बेतरह जूझ रहा था और उनसे तालमेल बिठाने में लगा हुआ था। पुराने सम्पर्कों को सहेजने का क्रम अभी नहीं आया था। इसी बीच शैलेन्द्र जी का पत्र मिला। और फिर फोन से बातों का क्रम फिर यथावत हो गया।

इसी बीच पहले ज्ञानरंजन जी का फोन मिला कि कोलकाता में पहल की ओर से आयोजन होने जा रहा है। फिर शैलेन्द्र जी ने यह बताकर सुखद समाचार दिया कि वे भी पहल के कार्यक्रम में शरीक होने आ रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आयोजन स्थल के आसपास ही उनके ठहरने का इन्तजाम है सो वे मेरे यहां नहीं ठहरेंगे किन्तु मिलने अवश्य आयेंगे। और उन्होंने वादा पूरा किया। वे सन्मार्ग के दफ्तर में मुझसे मिलने आये। यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी पर अपरिचित नहीं थे। अपने में सिमटे-सिमटे से। इतने शालीन व संतुलित कि उनसे बेतकल्लुफ होने में झिझक सी हुई। फिर तय हुआ डयूटी ख़त्म होने पर रात में फिर मुलाकात होगी। रात को हम कालेज स्ट्रीट के पास ग्रेस सिनेमा के पीछे विभूति केबिन में मिले। वह ऐतिहासिक चायखाना जहां शुरू-शुरू में मैं कोलकाता आया था तो अच्छाखासा बुध्दिजीवियों का जमावड़ा रहता था। किसी ज़माने में वहां गणेश पाइन जैसे वरिष्ठ व विमल कुंडू जैसे युवा चित्रकार व अन्य साहित्यकार बैठा करते थे और बंगला साहित्य, चित्रकला, फिल्म आदि में उत्तर आधुनिकता की शिनाख्त कर रहे थे। मेरी शोधनिर्देशिका डॉ.इलारानी सिंह ने मेरा गणेश पाइन से परिचय करा दिया था सो मैं यह सौभाग्य मिल गया कि मैं उनके अड्डे का हिस्सा बनूं। काली चाय और सिगरेट का दौर चलता रहता और उत्तर आधुनिकता पर बहस। हालांकि बाद में उनका अड्डा बिखर गया। पेंटिंग का मुझे शौक बचपन से रहा है और भाऊ समर्थ से जुड़ाव का वही कारण भी था। कोलकाता में भाऊ की जगह गणेश पाइन ने उन दिनों ले ली थी। और इधर वरिष्ठ चित्रकार होरीलाल साहू को मैंने बाकायदा अपना कलागुरु बनाया है और उनसे कला की तमाम एकेडमिक बारिकियां सीखने में लगा हूं क्योंकि वे आर्ट कालेज में प्रिंसिपल रह चुके हैं।

उन दिनों हिन्दी दैनिक विश्वमित्र के दीपनारायण सिंह व सन्मार्ग के रमाकान्त उपाध्याय जैसे पत्रकार बौध्दिक बहसें करते और अपने सम्पादकीय के विषय व दिशा तलाशते और तराशते थे। विभूति केबिन भी अब वर्ण परिचय जैसे पुस्तक माल की स्थापना के लिए ढहा दिया गया.. पर वह उन दिनों था। जबकि काफी हाउस और बुलबुल सराय में साहित्यक जमावड़ों के खत्म होने के बाद आखिर पड़ाव। मुझे कभी-कभी लगता है कि रूस के पतन के बाद बौध्दिक जमावड़ों में कमी आती गयी और कोलकाता का लेखक समाज जैसे मिशन के लेखन के च्युत होता चला गया और उसका लेखन एकांत लेखन बनता चला गया। विमर्श के पीछे सोच की गरमी नहीं रह गयी थी शब्दों में खोखलापन और भंगिमा में छद्म शामिल हो गया था। लेखन सामूहिक मामला नहीं रह गया और साथ मिलकर सोचने को कुछ नहीं बचा। और बचा भी तो नये सोचा को साझा करने का साहस नहीं जुटा।

जनवादी लेखन का जो दौर जोरशोर से शुरू हुआ था उसकी जिक्र कर सुनने में नहीं आया। उस समय वह चायखाना विभूति केबिन कोलकाता में साहित्य का अंतिम ठेक था जो टूट गया। पर उससे पहले शैलेन्द्र वहां मिले थे। वहां कालीशंकर तिवारी थे जिनका कुछ ही दिनों पहले पहला उपन्यास आया था। कवि जितेन्द्र धीर और कथाकार विमलेश्वर, अरसे से बंद लघुपत्रिका समय संदर्भ के सम्पादक रवीन्द्र कुमार सिंह थे। अगले दिन हम पहल के आयोजन स्थल भारतीय भाषा परिषद में मिले। वहां पिछली शाम मिली मित्र मंडली के सदस्य भी थे और शैलन्द्र जी के सम्मान में डॉ.कालीशंकर के भोज में शामिल होने के लिए हम टैक्सी पर रवाना हुआ। जहां दावत थी वह स्थल बंद मिला। अगला गंतव्य जो तय हुआ वह कुछ दूर था और हम पैदल थे। मंजिल पर पहुंचकर लगा कि वे काफी थक गये हैं। बाद में पता चला कि उनके डॉक्टर ने उन्हें धीरे-धीरे चलने को कहा है किन्तु उस वक्त उन्होंने तनिक भी भान नहीं होने दिया। वे मेरे घर भी आये थे और तभी पता चला कि लोगों से घुलने-मिलने में उन्हें खासी दिक्कत होती है। न मेरी पत्नी से बात कर पाये न बेटी से। नहाकर लौटे तो मैं बाथरूम में घुसा पता चला कि टंकी का पानी ख़त्म हो चुका है पर उन्होंने नहीं बताया। जो पानी मिला उसी से काम चला लिया। बताया होता तो मोटर चलाकर पानी ले गया होता। कोई दिक्कत की बात नहीं थी। मेरे यहां बोरिंग किया हुआ है और हम मोटर चलाकर पानी टंकी में भर लेते हैं और पीने का पानी अलग बर्तन में। यह रोजमर्रे का क्रम है। पानी के मसले पर उनकी चुप्पी मुझे जब भी याद आती है मैं परेशान हो जाता हूं अपने रचनाकार मित्र की झिझक पर।

शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने की बेहतरी के बारे में सोचने वाले। बेहतर सोचने में किसी व्यक्ति का अपना बहुत बड़ा योगदान मुझे नहीं लगता क्योंकि वह प्रारब्ध स्थिति है लेकिन बेहतरी के बारे में सोचना अर्जित है। बहुत से प्रलोभन आड़े आते हैं बेहतरी के बारे में सोचते हुए जिनसे किनारा करना पड़ता है। शैलेन्द्र जी की कुछेक कविता संग्रहों की समीक्षा मैंने की है और यह महसूस किया है कि उनकी कविताओं में एक खास तरह की सादगी है जो उनके अपने व्यक्तित्त्व का भी हिस्सा है और दूसरी चीज़ यह कि उनके कथ्य में खरापन अधिक है जो उनकी कलात्मकता को भी कई बार कमतर करता चलता है। सच कहूं तो मुझे यह अपनी ओर अधिक आकृष्ट करता है। जीवन मूल्य और कला मूल्य की मुठभेड़ में जीवन मूल्य की जीत जाना मुझे अधिक आश्वस्तकारी लगता है। स्वयं अपनी कुछ रचनाओं में मैंने दुविधा की स्थिति में कलात्मकता का साथ छोड़ दिया है और कथ्य के साथ खड़ा हो गया। खास तौर पर हाल में लिखी गयी अपनी कहानी क्रैज़ी फैंटेसी की दुनिया में मुझे यह साथ लगा कि मेरी किस्सागोई का फ्रेम तोड़कर मेरा कथ्य बाहर जा रहा है। मैं कहानीपन की आसानी से रक्षा कर सकता था किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। इस कहानी में मेरा कथ्य अपना रूपाकार लेते हुए कहानी के ढांचे को तोड़ बैठता है और कहानी पहले ही ख़त्म हो जाती है किन्तु कथ्य की यात्रा आगे बढ़ जाती है।

एक गंभीर पत्रिका में यह कहानी अरसे तक विचाराधीन पड़ी रही फोन पर लम्बी लम्बी बातें हुईं और वे लगातार दबाव बनाते रहे कि मैं अपने कथ्य को काट छांट दूं कहानी अच्छी बन जायेगी मगर मैं अपने आप को इसके लिए सहमत नहीं कर पाया। यहां तक कि मैंने एक कथा गोष्ठी में वही कहानी पढ़कर अपनी मलामत भी करवा ली। फिर भी मैं संतुष्ट हूं कि मैंने सही किया है। मैंने अपने से भी कई बार पूछा है कि मैं कहानी कविता आखिरकार क्यों लिखता हूं। क्या लोगों के मनोरंजन के लिए? क्या धनार्जन के लिए ? यदि नहीं तो फिर मैं एक अच्छी यानी ऐसी कहानी कविता लिखकर क्या करूंगा जिसे पढ़कर लोगों को मज़ा जैसा कुछ आ जाये या संतोष हो कि उनके पढ़ने का जायका मैंने नहीं बिगाड़ा है। मुझे लगता है बेहतरी के बारे में सोचने वाले लोग दूसरों का जायका बिगड़ने की परवाह नहीं करते।

शैलेन्द्र भी अपने रचनाक्षणों में शायद यही सोचते होंगे। वे आस्वाद नहीं आश्वस्ति के रचनाकार हैं। उनके जैसे लिखने और सोचने वालों के रहते यह बोध होता है कि हम अकेले नहीं हैं और कला की जो सामूहिकता है वह अब भी बची हुई है। कहते हैं कई विद्वान की रचनाक्षण में कोई भी लेखक अकेला होता है किन्तु शैलेन्द्र जैसे लोग रचते हुए भी अपने आसपास शील, त्रिलोचन जैसे रचनाकारों के कहीं बहुत आसपास होने के बोध से लैस होते हैं और अपनी रचनाओं से यह भी बताते हैं कि तुम अकेले नहीं हो हम भी हैं साथ तुम्हारे साथ चिन्तन पथ पर। वे ऐसी डगर के पथिक हैं जहां व्यक्तिगत उपलब्धितों का कोई अर्थ नहीं होता। जहां एक साथ एक बेहतर सफर पर चलना ही कुल हासिल होता है। एक छोटा सा फोन काल, चिट्टी के नाम पर एक छोटी सी पर्ची, एक संक्षिप्त सा ई मेल, एक एसएमएस भी यह बता सकता है कि तुम अकेले नहीं हो कोई और भी है तुम्हारी परवाह करने वाला।

लेखकीय जगत की यह पारिवारिकता शैलेन्द्र जी जैसे लोगों के कारण बनी है और बची है। 

संपर्क, : 40 ए, ओल्ड कलकत्ता रोड, पोस्ट-पातुलिया, टीटागढ़, कोलकाता-700 119

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. शैलेन्द्र चौहान पर लिखा गया अभिज्ञात का यह संस्मरण अपनी सादगी के कारण प्रभावित करता है.इसमें संस्मरणकार न तो खुद को अतिमानव बनने देता है और न ही जिस पर लिख रहा है उसे ही अति मानव बनाता है.यह अभिज्ञात की सबसे बड़ी सफलता है.वैसे कई बार संस्मरणकार किसी न किसी के प्रति अति का शिकार हो ही जाते हैं.लेखक का यह कथन कि,'मुझे लगता है बेहतरी के बारे में सोचने वाले लोग दूसरों का जायका बिगड़ने की परवाह नहीं करते।'ही उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता को प्रमाणित करता है जो साहित्य की हर विधा के लिए ज़रूरी है.
    अभिज्ञात जी को एक सुंदर संस्मरण के लिए बधाई!
    डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'
    प्रोफ़ेसर (हिंदी),
    गुआंगदोंग भाषा विश्वविद्यालय ,ग्वान्ज़ाऊ,चीन.

    dr.gunshekhar@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर' का शुक्रिया...

      हटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: अभिज्ञात का संस्मरण : बेहतरी के बारे में सोचना है शैलेन्द्र चौहान का होना
अभिज्ञात का संस्मरण : बेहतरी के बारे में सोचना है शैलेन्द्र चौहान का होना
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_27.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_27.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content