प्रमोद भार्गव का आलेख - आभासी दुनिया में अश्लीलता

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आभासी दुनिया में अश्‍लीलता प्रमोद भार्गव अंतर्जाल की आभासी व मायावी दुनिया से अश्‍लील सामग्री हटाने की मांग ने जोर पकड़ा है। यह मांग भार...

आभासी दुनिया में अश्‍लीलता

प्रमोद भार्गव

अंतर्जाल की आभासी व मायावी दुनिया से अश्‍लील सामग्री हटाने की मांग ने जोर पकड़ा है। यह मांग भारत के सर्वोच्‍च न्‍यायालय के दरवाजे पर दस्‍तक देकर उठाई गई है। याचिका में दलील दी गई है कि इंटरनेट पर अवतरित होने वाली अश्‍लील वेबसाइटों पर इसलिए प्रतिबंध लगना चाहिए, क्‍योंकि ये साइटें स्‍त्रियों के साथ बलात्‍कार का कारण तो बन ही रही हैं, सामाजिक कुरूपता बढ़ाने और निकटतम रिश्‍तों को तार-तार कर देने की वजह बन रही हैं। इंटरनेट पर अश्‍लील सामग्री को नियंत्रित करने का कोई कानूनी प्रावधान नहीं होने के कारण जहां इनकी संख्‍या में लगातार वृद्धि हो रही है, वहीं दर्शक संख्‍या भी बेतहाशा बढ़ रही है। ऐसे में समाज के प्रति उत्‍तरदायी सरकार का कर्तव्‍य बनता है कि वह अश्‍लील प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण की ठोस पहल करे। लिहाजा शीर्ष न्‍यायालय ने केंद्र सरकार से इस समस्‍या का समाधान खोजने को कहा है।

न्‍यायालय ने यही निर्देश संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन की डॉ मनमोहन सिंह नेतृत्‍व वाली सरकार को भी दिया था। लेकिन सरकार ने असहायता जताते हुए कहा था,‘यदि हम एक साइट अवरूद्ध करते हैं तो दूसरी खुल जाती है। साथ ही सरकार ने नितांत हास्‍यास्‍पद दलील देते हुए कहा था ‘इन्‍हें बाधित करने से भारतीय भाषाओं का साहित्‍य भी प्रभावित हो सकता है‘ तब प्रधान न्‍यायाधीश आरएम लोढ़ा ने बेहद तार्किक और व्‍यावहारिक प्रतिउत्‍तर देते हुए कहा था,‘मानव मस्‍तिष्‍क बहुत उर्वरक है और प्रौद्योगिकी कानून से भी तेज गति से दौड़ती है। गोया, कानून को प्रौद्योगिकी के साथ कदमताल मिलाकर चलना होगा।‘

एक वेब ठिकाना बंद करने पर दूसरे का यकायक खुल जाना भी एक हकीकत है। बल्‍कि वस्‍तुस्‍थिति तो यह है कि एक नहीं अनेक ठिकाने खुल जाते हैं। वह भी दृश्‍य, श्रव्‍य और मुद्रित तीनों माध्‍यमों में। ये साइटें नियंत्रित या बंद इसलिए नहीं होती,क्‍योंकि सर्वरों के नियंत्रण कक्ष विदेशों में स्‍थित हैं। ऐसा इसलिए भी है,क्‍योंकि अंतर्जाल पर सामग्री को नियंत्रित करने के पर्याप्‍त कानूनी उपाय नहीं हैं। इसलिए लोग निसंकोच व बेधड़क अश्‍लील वीडियो देखते हैं। यह सुविधा पूरी तरह निशुल्‍क है, इसलिए भी दर्शक उन्‍हें आसानी से देख लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मायावी दुनिया में करीब 20 करोड़ अश्‍लील वीडियो क्‍लीपिंग चलायमान हैं,जो एक क्‍लिक पर कंप्‍यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, फेसबुक, ट्‌यूटर और वाट्‌सअप की स्‍क्रीन पर उभर आती हैं। लेकिन यहां सवाल उठता है कि इंटरनेट पर अश्‍लीलता की उपलब्‍धता के यही हालात चीन में भी थे। जब चीन ने इस यौन हमले से समाज में कुरूपता बढ़ती देखी तो उसके वेब तकनीक से जुड़े अभियतांओं ने एक झटके में सभी वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगा दिया। गौरतलब है, जो सर्वर चीन में अश्‍लीलता परोसते हैं,उनके ठिकाने भी चीन से जुदा धरती और आकाश में है। तब फिर यह बहाना समझ से परे है कि हमारे इंजीनियर इन साइटों को बंद करने में क्‍यों अक्षम साबित हो रहे हैं ?

इस तथ्‍य से दो आशकाएं प्रगट होती हैं कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के दबाव में एक तो हम भारतीय बाजार से इस आभासी दुनिया के कारोबार को हटाना नहीं चाहते,दूसरे इसे इसलिए भी नहीं हटाना चाहते क्‍योंकि यह कामवर्द्धक दवाओं व उपकरणों और गर्भ निरोधकों की बिक्री बढ़ाने में भी सहायक हो रहा है। जो विदेशी मुद्रा कमाने का जरिया भी बना हुआ है। कई सालों से हम विदेशी मुद्रा के लिए इतने भूखे नजर आ रहे हैं कि अपने देश के युवाओं के नैतिक पतन की परवाह भी नहीं कर रहे हैं। किसी भी देश के आगे भीख कटोरा लिए खड़े हैं। अमेरिका,जापान और चीन से विदेशी पूंजी निवेश का आग्रह करते समय क्‍या हम यह शर्त नहीं रख सकते कि हमें अश्‍लील वेबसाइटें बंद करने की तकनीक दें ? लेकिन दिक्‍कत व विरोधाभास यह है कि अमेरिका,ब्रिटेन,कोरिया और जापान इस अश्‍लील सामग्री के सबसे बड़े निर्माता और निर्यातक देश हैं। लिहाजा वे आसानी से यह तकनीक हमें देने वाले नहीं है। यह तकनीक हमें ही अपने स्रोतों से ईजाद करनी होगी।

ब्रिटेन में सोहो एक ऐसा स्‍थान है,जिसका विकास ही पोर्न फिल्‍मों,वीडियो फिल्‍मों एवं पोर्न क्‍लीपिंग के निर्माण के लिए हुआ है। ‘सोहो‘ पर इसी नाम से फ्रैंक हुजूर ने उपन्‍यास भी लिखा है। यहां बनने वाली अश्‍लील फिल्‍मों के निर्माण में ऐसी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां अपने धन का निवेश करती हैं,जो कामोत्‍तेजक सामग्री,दवाओं व उपकारणों का निर्माण करती हैं। वियाग्रा, वायब्रेटर, कौमार्य झिल्‍ली, कंडोम, और सैक्‍सी डॉल के अलावा कामद्‌दीपक तेल बनाने वाली कंपनियां इन फिल्‍मों के निर्माण में बढ़ा पूंजी निवेश करके मानसिकता को विकृत कर देने वाले कारोबार को बढ़ावा दे रही हैं। यह शहर ‘सैक्‍स उद्योग‘के नाम से ही विकसित हुआ है। बाजार को बढ़ावा देने के ऐसे ही उपायों के चलते ग्रीस और स्‍वीडन जैसे देशों में क्रमशः 89 और 53 फीसदी किशोर निरोध का उपयोग कर रहे हैं। यही वजह है कि बच्‍चे नाबालिग उम्र में काम मनोविज्ञान की दृष्‍टि से परिपक्‍व हो रहे हैं। 11 साल की बच्‍ची रजस्‍वाला होने लगी है और 13-14 साल के किशोर कमोत्‍जेना महसूस करने लगे हैं। इस काम-विज्ञान की जिज्ञासा पूर्ति के लिए अब वे फुटपाथी रास्‍ते साहित्‍य पर नहीं,इंटरनेट की इन्‍हीं साइटों पर निर्भर हो रहे हैं। जाहिर है,पूर्व केंद्र सरकार द्वारा साइटों पर पाबंदी लगाने की लाचारी में कंपनियों का नाजायज दबाव और विदेशी पूंजी के आर्कषण की शकाएं बेवजह नहीं हैं। लेकिन देश-निर्माताओं को सोचने की जरूत है कि युवा पीढ़ियों की बर्बादी के लिए खेला जा रहा यह खेल कालांतर में राष्‍ट्रघाती सिद्ध होगा।

डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने अश्‍लील बेव साइटों को बंद करने की मुश्‍किलों में एक मुश्‍किल यह भी जताई थी कि इन साइटों के बंद करने से साहित्‍य से जुड़ी साइटें प्रभावित होंगी। सरकार की अंतर्जाल पर हिंदी समेत आज सभी भारतीय भाषाओं के ठिकाने उपलब्‍ध हैं। चिट्‌ठों (ब्‍लॉग) पर खूब साहित्‍य लिखा जा रहा है। सभी भाषाओं के समाचार पत्र-पत्रिकाएं भी ई-पत्रों के रूप में इंटरनेट पर उपलब्‍ध हैं। इनमें अनेक साहित्‍यिक पत्रिकाएं भी हैं। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍व विद्यालय, वर्धा की भी ‘हिंदी समय डॉट कॉम‘ नाम से वेब ठिकाना है। इनमें अनेक पत्रिकाएं स्‍तरीय व अप्रकाशित दुर्लभ साहित्‍य प्रकाशित करने में अह्‌म भूमिका का निर्वहन कर रहीं हैं। समाचार-पत्र व राजनीतिक-पत्रिकाएं भी साहित्‍यिक सामग्री अपने रविवारीय परिशिष्‍टों में कहानी,कविता,उपन्‍यास अंश व पुस्‍तक समीक्षा के रूप में देते हैं। इनमें से ज्‍यादातर पत्रिकाएं नियमित हैं और इनका प्रसार दुनिया भर में फैले अप्रवासी भारतीयों में भी है। कई प्रवासी भारतीय भी हिंदी में ई-पत्रिका निकाल कर हिंदी साहित्‍य के प्रचार-प्रसार में उल्‍लेखनीय योगदान दे रहे हैं। अब यह समझ से परे है कि यह साहित्‍य अश्‍लीलता के दायरे में कैसे है और अश्‍लील दृश्‍य व श्रव्‍य साइटें प्रतिबंधित करने पर ये साइटें कैसे बंद हो जाएंगी ? शायद सरकार की चिंता ऐसे यथार्थवादी साहित्‍य को लेकर हो, जिसमें गालियों के संदर्भ में कामांगों का निर्लज्ज उपयोग है। लेकिन यह साहित्‍य एक तो अश्‍लीलता के दायरे में नहीं आता,दूसरे यह केवल मुद्रित रूप में चंद पुस्‍तकों में है। इन्‍हें पढ़कर प्रतिबंध से बाहर रखा जा सकता है। इंटरनेट पर कामोत्‍तेजना फैलाने वाली असली सामग्री तो दृश्‍य व श्रव्‍य रूपों में उपलब्‍ध हैं,जो कामजन्‍य मनोविकार परोसती है। यदि यह सामग्री प्रतिबंधित कर दी जाती है तो ज्‍यादातर अश्‍लील सामग्री भारतीय सीमा में इंटरनेट के दायरे से दूर हो जाएंगी।

दरअसल उद्योग जगत का पक्षधर मीडिया और चंद बुद्धिजीवी अश्‍लील सामग्री बंद न करने की पैरवी साहित्‍य के अलावा खजुराहो के मंदिरों में काम-कला से जुड़ी नग्‍न मूर्तियों और वात्‍स्‍यायन के ‘कामसूत्र‘ में दर्ज सचित्र काम-आसनों का हवाला देकर भी कर रहे हैं। इनका तर्क है कि यदि अश्‍लील साइटें बंद की जाती हैं तो खजुराहो और कामसूत्र से जुड़ी साइटें भी बंद करनी होंगी। ऐसा होता है तो इंटरनेट पर इन मंदिरों और इस ग्रंथ को देखकर जो पर्यटक विदेशों से आते हैं,उनमें कमी आएगी। कई बुद्धिजीवी तो यह कुतर्क भी गढ़ रहे हैं कि क्‍या अश्‍लीलता से बचने के लिए इन मंदिरों को ढहाया जा सकता है या कामसूत्र को नष्‍ट किया जा सकता है ?

खजुराहो की प्रणयरत मूर्तियों के साथ भारतीय दर्शन की आध्‍यात्‍मिक विलक्षणता जुड़ी हुई है। जिसका कोई दुनिया में दूसरा उदाहरण नहीं है। इस परिकल्‍पना के साथ अभिसार और अध्‍यात्‍म के युग्‍म,यानी भोग के बाद भक्‍ति के मार्ग की ओर प्रेरित करने का पवित्र अभिप्राय जुड़ा है। जो भारतीय जीवन-दर्शन का मूल है। फिर काम-कला की ये चित्र-खचित प्रतिदर्श कहीं भी विकृत और बलात यौनिकता के दुर्भाव उत्‍पन्‍न करने का काम नहीं करते। ये वास्‍तुशिल्‍प के भी अद्भुत नमूने हैं,जो अपने संपूर्ण मौलिक रूप में काम को जीवन का एक महत्‍वपूर्ण अंग मानते हैं। इसीलिए चंद बुद्धिजीवियों द्वारा इस तरह के बेहूदा सवाल उठाना ही बेमानी है।

कामसूत्र के संदर्भ में तो हमारे देश में धारणा ही गलत है। ज्‍यादातर लोग अज्ञानतावश मानते हैं कि यह सिर्फ काम-विज्ञान का ग्रंथ है। जबकि जीवन के विविध आयामों से जुड़ी यह किताब बहुत आगे जाती है। इसमें सात अध्‍याय हैं। इनमें से केवल दूसरे अध्‍याय में चुबंन, आलिंगन और सहवास की विधियों और प्रकारों का विवेचन है। साफ है, कामसूत्र का महज एक चौथाई या उससे भी कम भाग सेक्‍स के बारे में है। इसके अध्‍याओं में दर्ज विषय हैं, नागरिक या सुरूचि संपन्‍न व्‍यक्‍ति की जीवन शैली, रसोई या आहार कला, गृहणी, यानी पत्‍नी के कर्तव्‍य, विवाह के प्रकार सामंतों का जीवन और रनिवास और इन सबसे इतर यह सौन्‍दर्यशास्‍त्र तथा समाजशास्‍त्र की किताब है। वात्‍स्‍यायन का काम से आशय जीवन को सर्वांगीण रूप में सुंदर और सुव्‍यवस्‍थित बनाने वाले सारे तत्‍वों के समुच्‍चय से जुड़ा है। वास्‍तव में करीब सवा दो हजार साल पहले संस्‍कृत में लिखा गया यह ग्रंथ प्रेम सौंदर्य और जीवन के राग का एक अनूठा विश्‍वकोश है। साहित्‍य में इस विषय पर लिखा गया यह दुनिया में पहला ग्रंथ है। इसे देह के माध्‍यम से जीवन की कविता का आविष्‍कार भी माना जाता है। वैसे भी भारतीय जीवन-दर्शन में धर्म और अर्थ की तरह काम को भी जीवन का एक अनिवार्य हिस्‍सा माना जाता है।

जाहिर है, साहित्‍य के बहाने अश्‍लील बेवसाइटों को जीवंत बनाए रखना सैक्‍स उद्योग को संरक्षण देना है। इंटरनेट कानून के अभाव में अश्‍लील वीडियो का कारोबार हमारे यहां खूब फल-फूल रहा है। इस परिप्रेक्ष्‍य में सूचना प्रौद्योगिकी कानून के अंतर्गत इन साइटों पर नियंत्रण की संहिताएं जोड़ने की जरूरत है। हालांकि जो साइटें अवैघ व दुश्‍चरित्रता परोसने वाली हैं, उन्‍हें बाधित करने के लिए किसी कानून की जरूरत ही नहीं है,क्‍योंकि उनका दुनिया में जहां भी निर्माण और प्रसारण हो रहा है,वही गैरकानूनी है। गोया, अवैध दखल को रोकने के लिए भला कानून की क्‍या जरूरत है ?

 

प्रमोद भार्गव

शब्‍दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी

शिवपुरी म.प्र.

(संपादकीय टिप्पणी – जो लोग (सरकार/अदालतें या एक्टिविस्ट) इंटरनेट की किसी सामग्री पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं, उन्हें इंटरनेट की प्रकृति और इसकी टेक्नोलॉज़ी का पता पूरी तरह से नहीं होता है – एक प्रकार से वे इन मामलों में अज्ञानी ही होते हैं.  पॉर्न साइटों (जो कि लाखों में हैं, कितनों को बैन करेंगे, वह भी जब नित्य नए बन रहे हों?) को बैन करने से कुछ खास हासिल नहीं होगा क्योंकि तमाम टोरेंट साइटों, फ़ाइल ट्रांसफर साइटों, डेटा संग्रहण साइटों, और अब क्लाउड से भी ऐसी सामग्री धड़ल्ले से डाउनलोड की जाती रही हैं / सकती हैं. टोरेंट साइटों - जैसे कि ‘द पायरेटबे’ - के पीछे विश्व की तमाम बड़ी और नामी कंपनियां पड़ी हैं कि वह बंद हो जाए, यहाँ तक कि इनके संचालकों में से कुछेक को सजा भी हो चुकी है, परंतु फिर भी ये कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए एक देश से दूसरे देश अपने सर्वरों, और अब तो वर्चुअल सर्वरों से अपना धंधा जारी रखे हुए हैं. अर्थ यह कि ऐसी सामग्री को रोकने के लिए पूरे इंटरनेट को ही प्रतिबंधित करना होगा होगा – यानी न तो फ़ेसबुक और न ही ईमेल, ट्विटर- क्या यह संभव है? आधे अधूरे प्रतिबंध से बात ही नहीं बनेगी . और, जब एक तरफ डिजिटल इंडिया की बात हो रही है, तो यह तो होने से रहा!)

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प्रमोद भार्गव का आलेख - आभासी दुनिया में अश्लीलता
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