नन्दलाल भारती का आलेख - लोकतान्त्रिक विचारधारा से मानवीय समानता और देश का विकास सम्भव

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डां .नन्दलाल भारती एम.ए. । समाजशास्त्र । एल.एल.बी. । आनर्स । पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ह्यूमन रिर्सोस डेवलपमेण्ट विद्यावाचस्पति सम्मानोप...

डां.नन्दलाल भारती

एम.ए. । समाजशास्त्र । एल.एल.बी. । आनर्स ।

पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ह्यूमन रिर्सोस डेवलपमेण्ट

विद्यावाचस्पति सम्मानोपाधि

 

।। लोकतान्त्रिक विचारधारा से मानवीय समानता और देश का विकास सम्भव।।

भारतीय परिपेक्ष्य में समाजवाद शोषण पर आधारित महज भ्रम पैदा करने का जरिया भर बन कर रहा गया है क्योंकि भारत की अधिकतम् जनसंख्या अर्थात हाशिये के आदमी,शोषित वंचित,भूमिहीन खेतिहर मजदूर भूमि मालिकों, पूंजीपतियों के दोहन-शोषण के शिकार है। पीठ से चिपके पेट,हाड़ से लटकी चमड़ी फिर भी पसीने से तरबतर शोषित इंसान रोटी-रोजी के जद्दोजहद में संघर्षरत् हैं,यह बडी जनसंख्या हाड़फोड़ श्रम से बमुश्किल से रूखीसूखी रोटी का इन्जाम कर पा रही है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं, हाड़मांस के मशीनी इंसान भूमि मालिकों, पूंजीपतियों के मुनाफे के लिये पैदा हुए है। यह उत्पीड़न शोषण सामूहिक सामाजिक अपमान का जनक भी है। भारतीय व्यवस्था में जातिवाद,गरीबी,अशिक्षा,शोषण,उत्पीड़न,जातीय अत्याचार के बढ़ते राक्षसी प्रभाव को देखते हुए लगने लग है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाजवाद सिर्फ भ्रम पैदा कर गुलाम बनाने का औजार भर बनकर रहा गया है। जैसाकि हम सभी जानते है हाशिये के आदमी,शोषित वंचित,भूमिहीन खेतिहर मजूदरों का आर्थिक शोषण-उत्पीड़न सामाजिक अपमान में भी अभिवृद्धि करता है। ऐसा अपमान वंचित समाज के जीवन को निम्नतम् दर्जे का बनाकर भविष्य को अंधेरे के गर्त में ढकेल देता है। इससे छुटकारा पाने के लिये खुद को शिक्षित कर एकजुट होकर अपनी शक्ति के महत्व को समझते हो राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिये खड़ा होना होगा लेकिन इससे पहले भूमि मालिकों, पूंजीपतियों के चंगुलों से मुक्ति आवश्यक है। यह तभी सम्भव है जब सत्ताधीश वंचित समाज को पांव पर खड़ा करने के लिये परिणामकारी योजना चलाये परन्तु दुर्भाग्यवश राजनैति सत्ताधीश सत्ता हासिल करने के लिये षडयन्त्र जरूर चलाते हैं। दशकों पूर्व भूमिहीनों के कल्याण के लिये भूमि आवण्टन की योजना लागू हुई थी,ऐसा नहीं कि ये योजना बेकार साबित हुई,जहां इस योजना का क्रियान्वयन ईमानदारी के साथ हुआ,वहां के गरीब भूमिहीन वंचित समाज के लोग भूमि मालिक हो गये परन्तु जहां लीपापोती हुई आवण्टन ही नहीं हुआ सिर्फ खानापूर्ति कर इतिश्री कर दी गयी। उदाहरण के लिये आजमगढ में एक गांव है नरसिंहपुर वहां के ग्राम प्रधान इतराजसिंह चौहान ने उन्होंने अपने कार्यकाल में गांव के वंचित समाज के उत्थान के भूमिआवण्टन का कार्य बड़ी ईमानदारी के साथ सम्पन्न करवाया। वंचित समाज की बस्ती इतनी तंग थी कि सांस लेना भारी था,चारों तरफ जमींदारों का खेत था पेशाब करने तक की दिक्कत थी। आज नरसिंहपुर गांव के अधिकतर वंचित आदमी घर और खेती की भूमि का भी मालिक है। वहीं डेढ़ किलोमीटर दूर चौकी। खैरा। गांव है,वहां के उच्चवर्णिक ग्रामप्रधान ने आवण्टन न होने देने की कसम जैसे खा लिया था,आज तक आवण्टन नहीं हुआ,हुआ भी तो महज खानापूर्ति के लिये जिसे आवण्टन कहना भी न्यायोचित भी नहीं लगता। यह आवण्टन ऐसी भूमि पर किया गया जिस उसर भूमि को उपजाउ बनाने में भूमिहीन दलित युवा बूढ़ा हो गया था । सम्भवतः वह संविधान लागू होने के पहले से बीघा पर उस उसर भूमि को खेती लायक बनाने में जुटा था जब उस उसर भूमि पर चलना भी खासकर जाड़े के मौसम में मुश्किल था। ऐसी भूमि पर आवण्टन किया गया था,जबकि आज भी गांव में इतनी जमीन तो है कि गांव का वंचित समाज का हर आदमी भूमि मालिक बन सकता है,और इतना अन्न उपजा सकता है कि खुद के परिवार का पालन कर देशहित में भी काम आ सकता है परन्तु सारी जमीन दबंग समाज के लोगों ने अपने कब्जे में कर रखा है। जिस जमीन पर कब्जा नहीं कर पायें उस जमीन पर दूसरे गांव के लोगों को लाकर बसा दिया है जबकि चौकी गांव के वंचित समाज के लोगों के पास टपरा बनाने के लिये जमीन नहीं है। अब तो बदलते वक्त में भूमिमालिकों ने खेत की बाउड्री बनवाना शुरू कर दिया है,इससे शोषित में अफरा-तफरी का माहौल बन रहा है। यह कैसा अन्याय है,यह अन्याय किसी ना किसी तरह के संरक्षण में हो रहा है जिससे दबंग समाज के भूमिस्वामियों का आतंक बढ़ रहा है। यकीनन यह आतंक गांव के वंचित समाज को गुलाम बनाने की साजिश ही तो है। यहां पर समाजवाद के सारे वादे बेईमानी लगते हैं परन्तु वोटनीति सब पर भारी लगती हैं चौकी गांव का कोई भी प्रधान आंवण्टन करवाने के हिम्मत नहीं जुटा पाया है। आजमगढ जिले में ना जाने अभी ऐसे कितने गांव होगें,जहां वंचित भूमिहीन लोग आवण्टन की इन्तजार में होंगे। जाति उत्प्रेरित माहौल में समाजवाद के राजनैतिक खोखले नारे चुनावी पुलाव तो लग सकते है परन्तु समाजवाद से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं दिखाई पड़ता क्योंकि भारतीय समाज आज भी भेदभाव-जातिवाद के जहर से संचालित हो रहा है। भारतीय व्यवस्था में रिपब्लिकन अर्थात लाकतान्त्रिक विचारधारा इससे मुक्ति दिला सकती तो है परन्तु ईमानदारीपूर्वक लोकतान्त्रिक विचारधारा को आत्मसात् करना होगा,देशहित को स्वहित से उपर मानना होगा,सामाजिक समानता,सदभावना की रहा चलना होगा तभी समाजवाद के अमृत को चखा जा सकता है वरना सब मिथ्या है।

देखा जाये तो भारतीय व्यवस्था में धार्मिक उन्माद शोषण का रूप है जिससे ना देश का भला हो सकता है ना भारतीय समाज का,इसके बाद भी आवाम भेदभाव-जातिवाद के नशे का आदी हो गया है। भारतीय व्यवस्था में धर्म बौद्धिक अत्याचार शोषण को पोषित करता है। वंचित समाज के लोगों को भयभीत कर शोषितों की छाती पर जुल्म का बोझ भी डालता रहता है। ये धूर्त किस्म के लोग शोषितों को अपने चक्रव्यूह में फंसाये रखने के लिये पाप-पूण्य जैसी कोरी कल्पना तक का सहारा लेते है। महात्मा गांधी तक ने कहा है कि सफाई कर्मिर्यो अर्थात मानव मल उठाने ढोने वालों के लिये यह पुण्य का काम है। अरे भाई इतना ही पुण्य का काम मैला उठाना है तो उच्चवर्णिक समाज के हिस्से इस काम को क्यों नहीं डाल दिये।उच्चवर्णिक समाज तो पुण्य कर्म का ठेका ले रखा है, समाज से लेकर भगवान के ठीहे तक।कभी कभी ऐसी नासमझी वाली बातें भी चमत्कार और विश्वास को जन्म दे देती है। ढोगियों की ही तो देन है कि अभावग्रस्त शोषित,वंचित समाज के लोग जीवन भर हाड़फोड़ते हैं और सन्तोष कर रूखासूखा खाकर लाचार जीवन जीने को बेबस रहते हैं,उनके अधिकार क्या हैं उन्हें पता ही नहीं होता। धार्मिकता की आड़ में ढोंगी अंधभक्त बना लेते है जिसकी आड़ में भूमिमालिक और पूंजीपति ही नहीं धर्म और सत्ता के ठेकेदार अपने अपने तरीके से वंवित आवाम का भरपूर शोषण करते है। भूमिमालिक और पूंजीपति धर्म की सौगन्ध देकर शोषण करते है,जो कुछ कमाई होती है उसे बहुरूपिये धर्म की आड़ में छिनकर कंगाल बनाये रखने में कामयाबी हासिल करते रहते है। इन चक्रव्यूहों से अनभिज्ञ शोषित मजदूर अगला जन्म सुखी बने अपनी गाढ़ी कमाई लूटाता रहता है। ढ़ोंगी बहुरूपियों धार्मिकता की आड़ में शोषण की इतनी गहरी पैठ बना लेते है कि धार्मिक बातें अशिक्षित शोषित मजदूर के लिये अफीम की तरह काम करने लगती है। ऐसे षड्यन्त्र से भारतीय समाज का शोषित वंचित मजदूर वर्ग उबर नहीं पा रहा है ऐसी कृप्रवृतियों से उबरने के लिये जरूरी है बौद्धिक उत्थान जिसे धर्म होने नहीं देते। सत्ताधीश भी यही चाहता है ताकि आम शोषित मजदूर भूमिहीन गरीब गुलाम बना रहे। आंख बन्द कर उनके बताशे रास्ते पर चलता रहे भले ही इस रास्ते पर वह बर्बाद हो जाये।ऐसी धार्मिक और राजनैतिक मानसिकता के रहते कैसे भारतीय परिपेक्ष्य में समाजवाद की कल्पना की जा सकती है। सच तो यह है कि भारतीय परिपेक्ष्य में समाजवाद भ्रम पैदा कर स्वार्थनीति को पोषित कर रहा है,जिसके साइडइफेक्ट तो बहुत है पर उस ओर से धार्मिक और राजनैतिक सत्तापक्ष अनभिज्ञ बना रहना अपनी होशियारी समझता है।ऐसी स्वार्थनीति से लोकतान्त्रिक विचारधारा उबार सकता है बशर्ते हर आदमी के लिये राष्ट्र सर्वोपरि धर्म बन जाये।

बदलते वक्त में जातीय षडयन्त्रों के शिकार हाशिये के आदमी,शोषित वंचित,भूमिहीन खेतिहर मजूदरों को अपने हितों और हकों के प्रति सचेत होना होगा। शोषण जातीय उत्पीड़न से मुक्ति के लिये तनकर खड़ा होना होगा, यदि भारतीय व्यवस्था की अस्सी प्रतिशत जनसंख्या सचमुच खड़ी हो गयी तो उसकी दासता आधी उसी वक्त खत्म हो जायेगी। आधुनिक हाशिये के आदमी,शोषित वंचित,भूमिहीन खेतिहर मजूदरों के सामने प्रबुद्ध होने की आधुनिक जानकारी उपलब्ध है,वे इन जाकारियों का लाभ उठाकर सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक षडयन्त्रों से बचकर अपना हित सद्धि कर सकते है। भारतीय व्यवस्था में धर्म को व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिये उसे ऐसे धर्म को भी स्वीकार करने का स्वतन्त्रता हो जिसमें वह स्वविवेक से अपना हित सुरक्षित पा रहे हो। ऐसे धर्म को परित्याग करने की भी स्वतन्त्रता हो जो धर्म उसे गुलाम बनाता हो,उसके आदमी होने तक के सुख तक को छिन रहा हो। खैर ऐसा धर्म तो अधर्म है परन्तु हर व्यक्ति को ऐसी धार्मिक दासता से मुक्ति का अवसर मिले। समाजवाद से तात्पर्य सर्वहारा वर्ग का शैक्षिक,सामाजिक आर्थिक,और राजनैतिक उत्थान होना चाहिये परन्तु भारतीय व्यवस्था में यह परिकल्पना नगण्य सी लगती है। समाजवाद का अर्थ है सर्वहारा हाशिये के आदमी,शोषित वंचित,भूमिहीन खेतिहर मजूदरों के सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक विकास के लिये संघर्ष परन्तु समाजवाद का ढोल पीटने वाले इससे कोसों दूर है। एक खास वजह यही है कि देश में जातिवाद,भ्रष्ट्राचार की जड़ें और गहरी होता जा रही है। इसके लिये वैचारिक आन्दोलन की आवश्यकता है जो व्यक्तिगत् न होकर सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग के विकास के लिये होना चाहिये। यह वैचारिक आन्दोलन वैज्ञानिक, भौतिक विकासवादी होने के साथ बहुजनतिाय बहुजन सुखाय के सदभाव से ओत-प्रोत होना होना चाहिये जो हाशिये के लोगों को मुख्यधारा के साथ जोड़ सके,यही समाजवाद का मूल मुद्दा होना चाहिये था परन्तु भारतीय राजनीति ने समाजवाद को स्व-जातिवाद के पोषण को रूप दे दिया है जो राष्ट्रीय एकता और लोकतन्त्र का शत्रु है। स्व-जातिवाद के फसाना से ऊपर उठकर सच्चे समाजवाद को पोषित करने की प्रतिज्ञा लेनी होगी वह प्रतिज्ञा जिसमें सर्वहारा वर्ग का उत्थान,मानवीय समानता हो राष्ट्रीय सदभावना हो,तभी सच्चे समाजवाद की कल्पना मूर्त रूप ले सकती है। सच्चे समाजवाद की कल्पना का मूलमन्त्र है-लोकतान्त्रिक विचारधारा अथवा रिपब्लिकन विचारधारा और देश के संविधान को आत्मसात् करने की जिद। इसी लोकतान्त्रिक विचारधारा से समाजवाद कुसमित हो सकता है,मानवीय समानता,बहुधर्मी सद्भावना स्थापित हो सकती है और देश का बहुमुखी विकास सम्भव।

डां.नन्दलाल भारती 05.12.2014

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रचनाकार: नन्दलाल भारती का आलेख - लोकतान्त्रिक विचारधारा से मानवीय समानता और देश का विकास सम्भव
नन्दलाल भारती का आलेख - लोकतान्त्रिक विचारधारा से मानवीय समानता और देश का विकास सम्भव
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