मंजुल भटनागर नव वर्ष पर मेरी एक कविता कुछ उत्सव सा है घट उम्र का कुछ एक एक बूँद कर रिस गया बस एक़ साल गुजर गया घात लगा कर बैठा था सवेरा म...
मंजुल भटनागर
नव वर्ष पर मेरी एक कविता
कुछ उत्सव सा है
घट उम्र का कुछ
एक एक बूँद कर रिस गया
बस एक़ साल गुजर गया
घात लगा कर बैठा था
सवेरा मुंह जगे
कोहरे में लिपट गया
बस एक और साल गुजर गया
मुनिया कुछ बड़ी लगने लगी है
मामू की ख़ुशी फ़िक्र में ढलने लगी है
मुनिया के सपनों में
कोई स्वप्न बन जिल गया
बस एक और साल गुजर गया
शाख पर लगे फूल
रिझाने में लगे हैं
हाथों से चल कर गुलदानों में सजने चले हैं
शराब शबाब एक नई यात्रा में घुल गया
बस एक और साल गुजर गया
अम्मा का चश्मा
फिर से धूमिल होने लगा है
किसनू भरमाने सा लगा है
अम्मा हर पल मज़बूरी  में ढल गया
बस एक और साल गुजर गया
वीराने जंगल में
ठंड में तम्बू की रात में
आँखों में दूरबीन लगाये
जागते रहें हैं जो
उनकी आँखों में जश्न कब खिल गया
न किसी मुद्दे का हल मिला
बस एक और साल गुजर गया.
................. .
प्रदीप कुमार गुप्ता
                          कृष्ण बनके किसी ने निहारा नहीं
    सुदामा-तुम कहाँ भटाकोगे
    दुख, भूख, गरीबी, अभाव के दलदल में मीलों धंसे
    तुम जो निरीह प्राणी हो इस ग्रह के
    संघर्ष ही जिसके जीवन की कथा रही
    जिससे किसी का कोई स्वार्थ सध नहीं
    संकोची, भीरू, ईमानदार और न जाने क्या क्या.....
    आस्था के आडम्बर में नवध भक्ति के स्वयंवर में कहां चुके तुम
जो खाई ठोकर, पाई है गालियां, सहे है दुत्कार, धिक्कार, विरोध, अवहेलना, अपमान, अवज्ञा
    झेले है झंझावत, निर्मम आघात, उत्पीड़न, नृशंस यातानाएं अमानुषिक अत्याचार
    तुम जो हो लाचार, बेवस, दरिद्र, विवश, विक्षिप्त
    अनाथ, अभिशप्त, कुण्ठित, हताश, निराश, अवसादग्रस्त
    तुम्हारी वेदना, व्यथा, पीड़ा को कौन सहजेगा ?    
    तुम्हारी अर्न्तमन की दाह, संताप को कौन समझेगा ?
    जब नैतिकता, मर्यादा, मान्यता, आदर्श, सिद्धांत, त्याग
    तपस्या, करूणा, माया, दया, सत्य हो रहे धराशायी क्रमशः
    संस्कार, संस्कृति, परम्परा हो रहे पराजित
    सुदामा-कृष्ण की खोज में
    कहाँ भटकोगे ?
    बीहड़ वियावां जंगल में
    अब द्वारिका में-
    स्वार्थ से वशीभूत आबादी वाली नगरी में
    कोई कृष्ण नहीं रहता
    अब तो तुम्हें पत्नी की प्रताड़ना, उलाहना चुपचाप सहनी होगी
    अश्वत्थामा को-आटे को घोल-दुग्ध मान पिलाना होगा
    उर्वशी को पुररूवा को देना होगा
    अंधा बांटे रेवड़ी बेरी बेरी खुद को दे-वाली इस दुनिया में ।
    सुदामा-तुम कहाँ कहाँ भटकोगे ?
    तुम्हारी संवेदना भावना भरी पोटली
    कांख तले दबी नहीं रह जाएगी
    कोई उचक्का बटमार छिन ले जाएगा
    बना के तमाशा, रोटियां वाहवाही बटोरेगा ।
    सुदामा-तुम्हारी गरीबी का व्यवसाय बनेगा उपहास उड़ेगा
    मनरेगा बनेगा, एनजीओ बनेगा
    एपीएल, बीपीएल, लाल कार्ड, इंदिरा आवास बनेगा
    आंकड़े बनेंगे कागजी खानापूर्ति होगी
    मत भटको सुदामा-
    अब कोई कृष्ण यहां नहीं रहता
    चेहरे पे पड़ी जवानी में झुर्रियां
                                          2.
       पिण्डलियों की उभरी नसें
    भूख से कुलबुलाती अंतड़ियां के दर्द
    और चुभती दरार पड़ चुकी सांस वाली नंगी देह
    फटी बिवाई चांद से फफोले वाले तलुओं को
    अपने आंसुओं से कौन पखारेगा ?
    सुदामा-तुम्हें तो जी हुजूरी, ठकुर सुहाती चापलूसी, चमचागिरी कुछ भी आता नहीं
    और फिर महंगाई के इस दौर में
    कोई किसी पे तरस नहीं खाता
    न रहम करता है।
    वंचित हो सुदामा तुम
    जब ईश्वर ने ही तुम्हारे अक्षय पात्र में कुछ डाला नहीं
    तो धरती के वासी क्या डालेंगे ?
    प्रारब्ध और साहचर्य जैसे सुरक्षा चक्र के हाशिए पे पड़े तुम
    ये अपने ही कुंए से पानी ले अपने ही खेत में मल विसर्जन करते हैं
    तुम्हारे हिस्से का एक कतरा सुख भी वे ले उड़ेंगे
    तुम टापते रह जाओगे ।
    सुदामा-युग बदला, परिस्थितियां बदली
    स्थान, काल, परिवेश बदला
    नहीं बदला तो बस तुम्हारी भूखी स्थितियां
    अब तो कृष्ण ने भी अपना चोला बदल लिया है
    वंचक है वो, राजनीतिज्ञ, सरकारी कर्मचारी, पुलिस, पत्रकार
    माफिया, बिचौलिया, चिकित्सक, शिक्षक, व्यापारी हो गया है
    
    सुदामा-तुम किसकी शरण में जाओगे
    गरीब का कोई आधार नहीं होता
    तुम्हारी सुध लेने वाला कृष्ण
    अब इस धरा पर नहीं है, नहीं है, नहीं है ।
  प्रदीप कुमार गुप्ता
  दीपा साइकिल, तिरंगा चौक, गिरिडीह-815301
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जय प्रकाश भाटिया
 
बच्चे,
दिल के सच्चे,
मासूम  फ़रिश्ते, 
जात, धर्म, मज़हब, से अनजान,
देश का भविष्य, अपने परिवार की जान ,
केवल इंसानियत ही जिनकी पहचान,
कुछ पढ़ाई , कुछ आपसी दोस्ताना लड़ाई ,
कुछ ज़िद,कुछ हरकतें, कुछ शरारतें, 
फिर भी कितने अपने कितने प्यारे--
सब जिन्हें प्यार से दुलारते, पुकारते--  
सबका प्यार पाने को  सदा लालायित, 
सब अपना प्यार लुटाने को कितने उत्साहित ,
पर यह क्या ---
पाक धरती पर नापाक कत्ले आम,
वह भी इन मासूम फरिश्तों का.. 
खून की बहा दी  नदियां, आंसुओं के बह गए सैलाब,
या खुदा, हे भगवान, हे परम पिता परमेश्वर,
सब को दे रहम का सबक, शांति का पाठ ,
इंसान इंसान से करे प्यार 
सिर्फ प्यार 
सिर्फ प्यार-
और ले आये स्वर्ग इस धरती पर--
और हर घर , हर परिवार ,समाज, हर देश,
बन जाये खुशियों का संसार … 
१७/१२/२०१४ --
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मीनाक्षी भालेराव
बरकत
मेरे घर जब से
 बेटी ने
 जन्म लिया है 
तब से 
मेरे घर मैं ज़िन्दगी 
आ बसी
मेरे घर मैं खुशीयाली
आ गयी है
वैसे तो वह मुझे कभी 
परेशान नहीं करती
फिर भी कभी कभी 
छोटी सी बात पर
जब मैं हाथ उठाती हूँ
मेरा उठा हाथ 
वहीं रूक जाता है
और माँ की कही बात 
मुझे याद आ जाती है
माँ ने कहा था कभी 
अपनी बेटी पर
हाथ ना उठाना
घर की बरकत
 चली जाती है
--
न हालात बुरे थे उनके 
न थी कोई मजबूरी
वो नर पिशाच थे
कितनी ही माँओं की
जिन्होंने गोद ख़ाली कर दी
............................... .
दीप्ति सक्सेना
मासूम जिंदगी - एक अमानत 
नन्हे कदम चले थे स्कूल 
बिना किसी खौफ 
बिना किसी डर के ,
सपने थे मासूम आँखों में 
आने वाले कल के ,
मौत का तो नाम जैसे 
जानते भी ना थे वो ,
अनजान थे 
इस बेरहम दर्द से। 
फिर ऐसा क्या गजब हो गया 
वक़्त कैसा ये बदला की
 ऐसा भयानक मंजर हो गया  ,
बिछ गयी लाशें मासूमो की 
और कलंकित इंसानियत का 
धर्म हो गया ,
गलती क्या थी इन नादानों की 
जो बेपाक कत्ले आम हो गया ,
कहाँ है खौफ तेरा ए खुदा 
जो हाथ भी न काँपे 
बंदूके चलने में ,
गोलिया दाग दी 
बिना किसी कारन सीने में ,
रब की उस अदालत में 
 ये गुनाह कभी कबुल न होगा ,
हाय लगेगी माता पिता की 
जो सुबह छोड़ आ स्कूल 
शाम औलादे दफ़ना कर आये है ,
हर आसु उनका
नरक की और ले जायगा ,
ना कफ़न मिलेगा 
ना  पीने को पानी ,
जिस दिन ख़ुदा  अपना 
फैसला सुनेगा। 
       दीप्ति सक्सेना 
 , जयपुर , राज 
............................... .
बलबीर राणा अडिग
*** यह मैं नहीं वह काल कहता है *****
काल की चाल तीव्र तीखी 
तेरी मुश्कान पड़ती फीकी
राज का राज भी खुल बिखर महल क्षण में ढह जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।
मैं हूँ किंचक जातक केवल
धरती का एक जीव निर्बल
एक तारे के टूटने पर असंख्य तारों से भरा गगन भी रोता है
हा हा कार बहार तू क्यों भीतर सोता है।
मैं अपने दुःख पर दुखी मौन
दर्द सबको देने वाला क्यों तू मौन
युग युग से देख रहा तू तांडव, ऐसे क्यों धरती को नचाता है 
कैसे चीख पुकार तु सहता है।
बुझती निशा न्योता सहज कबूल
तेरा कैसा चलन कैसा उसूल
उषा की पुकार पर, खिल खिला दौड़ा चला आता है
दिनकर बन जीवन तपाता है।
पर्सब पीड़ा में धैर्य का सागर
तपड़ रहा नित हो रहा जर जर
कैसे उन्मुक्त हो चली बिमुख मानवता की हवा संग बहता है
ऐसा गुण तुझ में कहाँ से आता है।
घुमड़-घुमड़ चिंतन का बादल
क्यों मन घुमिल करता पागल
संसार चला है चलता रहेगा अडिग तेरा प्रश्न थक जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।
रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'
ग्राम मटई
चमोली गढ़वाल
उत्तराखंड
........................ .
धर्मेन्द्र निर्मल
ग़ज़ल
चलती फिरती लाश हूँ मैं।
दहकता हुआ पलाश हूँ मैं॥
कितना ही घुप्प अंधेरा हो।
चमकता हुआ उजास हूँ मैं॥
मौसम के खिलवाड़ों से।
सुलझता हुआ उल्लास हूँ मैं॥
लक्ष्य दूर है क्या हुआ।
चहकता हुआ प्रयास हूँ मैं॥
समय साथ दे न दे मेरा।
महकता हुआ कयास हूँ मैं॥
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विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’
  उठो ,जागो ! अब सवेरा हो गया है ।
  तजो आलस, अब सवेरा हो गया है ।।
  उगा सूरज, बिखेरी स्वर्ण-किरणें,
  धनी हुई धरा, सवेरा हो गया है ।
  बन्द आँखों के सपन सब झूठ सारे,
  आँख खोलो सच, सवेरा हो गया है ।
  नीड़ से निकली हैं, चिड़िया देर की,
  गा रही है गीत, सवेरा हो गया है ।
  जो कली डाल पर,रात भर उदास थी,
  खिल बनी अब फूल, सवेरा हो गया है ।
  रात नागिन बनी, अब रस्सी जानलो,
  त़ोड़ दो बन्धन, सवेरा हो गया है।
  बहुत जगते रहें हैं, उल्लू रात भर,
  सोने दो अब उन्हें, सवेरा हो गया है ।
  'व्यग्र' छोड़ों व्यग्रता, सब भूलकर
  बच्चे चले स्कूल,सवेरा हो गया है।
- कवि विश्वम्भर पाण्डेय ‘व्यग्र’
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
(राज.)
    ......................... .
 
अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''
आ गई चुनाव जनपदी 
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गली-गली,घर-घर बाट्य लागे फ़र्दी !
लागत है की आ गई चुनाव जनपदी!!
जे कल तक नही जानत रहे हमरऊ नाम!
आज गोडे आगौछी रख्खत हा!!
पुन अव हमका लागत हा!
भैया लड़े चुनाव जनपदी हा !!
गोड़ छुइके के कहिही! 
हमार नइया लगाई पार!!
उगिल देइ सलगी मलाल!
गलती बिसराई हमार!!
कहव बिदुराइन बेजा न माने भैया!
खूब दिखन तोहराउ पांच साल के कमइया!!
जितवे के बाद केउ न निहरही!
कुछ कही देव ता सौहय कपाऱय मरिही!!
चाहे हम भैया का जीताई,चाहे जिताई काका का!
घर ता उनखर भरी हमरे रही लुआठ के फाका!!
सलगे गाव का दतनिपोर मनिके,लागे बाटय पैसा-फ़र्दी!
लागत है भैया आ गई चुनाव जनपदी!!
--------------अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''
                           [ रचनाकार ]
ग्राम-रामगढ न.2 ,तहसील-गोपद बनास,जिला-सीधी
मध्यप्रदेश, पिन कोड-486661 
..................... .
 
अंजली अग्रवाल
जमीन में रहना सीखो मेरे दोस्तों.....
उड़ती इस पतंग की डोर थामो मेरे दोस्तों......
किसके पीछे भाग रहे हो तुम
कभी मुड़कर भी देखो मेरे दोस्तों.....
क्या पाया सोचने से पहले,
क्या खोया ये देखो मेरे दोस्तों.....
बिखरी इस जिन्दगी को, अब समेटो मेरे दोस्तों.....
ये जिन्दगी तुम्हारी है थोड़ा ,
अपने साथ भी वक्त बिताओ मेरे दोस्तों.....
आसमान की विशाल बाँहों को महसूस करो मेरे दोस्तों.....
पेड़ो की छाव में, रहकर देखो मेरे दोस्तों.....
इन ठण्डी हवाओं की सरसराहट सुनो मेरे दोस्तों......
कभी अपने आप में भी खो कर देखो मेरे दोस्तों.....
तुम्हारे अन्दर एक गहरा समुन्दर है,
इसकी लहरो को उठने दो मेरे दोस्तों.....
जीते तो सब है, जीने की वजह तो खोजो मेरे दोस्तों.....
उड़ते उन पंक्षियों की भाँती कभी,
अपने लिये भी गा कर देखो मेरे दोस्तों.....
कभी अपने आप से भी तो मिलो मेरे दोस्तों.....
दौड़ती भागती इस भीड़ में खुद को मत खोओ मेरे दोस्तों.....
हाँ ये जीवन एक संघर्ष हैं पर 
इस संघर्ष में अपने आप को जिन्दा रखो मेरे दोस्तों.....
जमीन में रहना सीखो मेरे दोस्तों.....
उड़ती इस पतंग की डोर थामो मेरे दोस्तों......
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वाह , बेमिसाल रचनाओं के संकलन से सुसज्जित अंतर्जालीय पन्ने को प्रस्तुत करने के लिए शुकिया और आभार रवि जी । आनंदम आनंदम
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