रामानुज मिश्र की कहानी - वरदान

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चलते-चलते रात जब थककर निढाल हो गयी तो उसने भोर की दहलीज पर बैठ अपने पाँव फैला दिये। गाँव के पूरबी आकाश में उगा टहकार शुकवा मीठी मुस्कान के ...

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चलते-चलते रात जब थककर निढाल हो गयी तो उसने भोर की दहलीज पर बैठ अपने पाँव फैला दिये। गाँव के पूरबी आकाश में उगा टहकार शुकवा मीठी मुस्कान के साथ थकी हुई रात के कन्धे सहलाने लगा। मन्द-मन्द डोलती हवा ने गाँव को जगाना शुरु कर दिया। पेडों की पत्तियों भी धीरे-धीरे गुनगुनाती हुई रात्रिकालीन अपूर्ण राग को पूरा करने लगीं। डीहवाले पीपल के सिरहाने जमा बस्ती का जागरण नीचे उतरने लगा। पाल गली में निश्चिन्त सोई हलचल जाग उठी। पाँच, सात, नौ. बारह, पन्द्रह वर्षीया लडकियाँ अपने घरों से निकल गली में जमा हो गयीं. अब वे बाकी लड़कियों को पुकार कर जगायेंगी। हाथ में छोटे बड़े फाक, चड्ढ़ी, बनियान थामे ये लडकियाँ पश्चिमी सिवान में स्थित शिवालय की ओर प्रस्थान करेंगी।

यह कार्तिक माह भी अजीब है। मनाने से नहीं मानता, हर साल आ जाता है। काम धन्धे के इन्द्रजाल में थकी माँयें भी इन लडकियों को नहाने से नहीं रोक पातीं- शायद उनका अतीत भी तो इस स्नान के महीन, मजबूत धागे से अभी तक बँधा है।

गाँव के पश्चिमी छोर पर गाँव से भी पुराना शिवालय है। जहाँ गौरा के साथ ही नन्दी की मूर्ति है। चौखट के ऊपर गणेश जी विराजते हैं। मन्दिर के पिछवाड़े पक्के घाट की सीढियाँ ताल के पानी में डूबी रहती हैं। घाट के एक कोने में भींगे कपडों को फेंचने के बाद लडकियाँ ऊपर चढ़ गयी हैं। चबूतरे पर पंक्तिबद्ध मिट्टी के दीये एक-एक कर जलाने की जुगत में लग गयी हैं। प्रकाश की छोटी-बडी लौ की मद्धिम रोशनी उनके चेहरों पर पड़ रही है। कनेर के फूलों को दीयों के नीचे रख देने पर हथेलियाँ जुड जाती हैं, जिनमें भर गये हैं शिव आराधना के अनेक विनय-स्वर। कितनी पार्वतियाँ महादेव सदृश अमर, परम शक्तिमान पति पाने की लालसा में उन्हें मनाने का जुगत कर रही हैं. पर मनायें तो कैसे?

 

कउने जतन से मनाई हे भोलेनाथ!

कउने जतन से....

ना कुछ गुन ढंग, ना कुछ करनी

दियना अमर हो जलाई हे भोलेनाथ!

कउने जतन से...

 

कहाँ इतना गुण ढंग है उर्मिला, आशा, सरला, सुषमा, नन्दिनी में। इनके कोमल कंठों के प्रार्थना-स्वर ताल की शान्त जल तरगों पर धीरे-धीरे झर रहे हैं।

जब तक नन्दिनी की आँखों से बहते आँसू थमे, शिवपुर आ चुका था .। सत्रह साल की एक बड़ी जिन्दगी अनजानी सी दूसरी जिन्दगी में छलाँग लगा गयी थी। दरवाजे पर रेंगती नीम की घनी छाया तरंगों के साथ उछलता ताल का उजला-उजला पानी, पानी को अपनी छाया से काटते, उडते बगुले, बाड में अकुलाते झर-झर करती भेड़-बकरियों की विवश ऑखें सब कुछ छोड्‌कर यहाँ चली आई। इन्हें तो वह भुला भी देगी पर माँ की आंखों से झर-झर निकलते आँसुओं का क्या करे? बार-बार पगड़ी से आँखों को पोंछते बाबू का चेहरा तो यहाँ दिखाई नहीं देगा। गाड़ी रुकते ही उसने देखा लडकियाँ और औरतों की हलचल। घूँघट की कनखी से उसने जान लिया-दूसरा घर, पराया सा । भरे लोटे को हाथ में उठाये खिड़की के पास सास खड़ी थी। सहारा देकर नन्दिनी को उसने नीचे उतारा। अन्दर तक जानेवाले गोल-गोल पैरों में पाँव रखते हुए वह भीतर पहुँच गयी पर बाहर छोड़ गयी थी अपने महावरवाले लाल-लाल मुलायम पाँवों की गंध जिसमें शामिल थी पाँवों की झनकार। गोल ढेरों के अन्त होते-होते एक पल के लिए उसे याद आया, नवरात्रि में देवी पूजइया की आधी रात देवी मइया भी तो इसी घेरे में अपने पाँव रख हौले-हौले घर में प्रवेश करती हैं और आशीर्वाद देकर चली जाती हैं चुपचाप। सोच जब तक लम्बी डगर पकड़ती, सास ने जमीन पर बिछी दरी पर गुडही की तरह उसे स्थापित कर दिया

 

दिन भर पडोस की औरतें मुँह दिखाई के लिए कोठरी में आती रहीं खोइछे में दस-बीस रुपये धरती रहीं। ननद उचक-उचक अपनी माँ के हाथों थमाती रही। दुलहिनिया चाँद जइसन ह, ' 'कउनो पै नाहीं, 'टिकोरा जइसन आँख ह, ' 'बोलत नाहीं, ' ' अबहिन दुलही बा, ' 'का चर-चर करी' सुनते- सुनते वह दरी पर बैठे-बैठे थक गयी। पैर फैलाने का मन हुआ। मारे लाज के ऐसा न कर सकी. भौजाई ने समझाया था। गिन में फैला उजाला दालान को लाँघ धीरे-धीरे निकल रहा है। अब जाकर वह अकेली हुई है। पास में ही पलंग था, मन हुआ नीचे से उठे और धम्म से पलंग पर पसर जाय। पलंग पर आराम करते अभी पन्द्रह मिनट ही बीते होंगे कि कमरे की रोशनी तेजी से भागने लगी। साँझ हो रही है, काली माई के चौरे पर वटवृक्ष के नीचे उसकी जगह कौन बैठा होगा? उढके पल्ले को खोलकर छोटकी ननद हाथ में ढिबरी लिये अन्दर आ गयी। ताखे पर दीया रखने के लिए उसने हाथ ऊपर किया, एड़ी के बल उचकी पर ताखे तक हाथ नहीं पहुँचा। नन्दिनी ने पलंग से उतर ढिबरी को गौखे में रख दिया। सरल सी रोशनी कोने-कोने समा गयी। एक अजनबी सूनापन उसकी आँखों में तैरने लगा।

 

सास ने जोर-जोर से पुकारकर उसे उठाया. आँख मलते-मलते उसने देखा कि सुबह की धूप कमरे की चौखट छू रही है। रात के असली सपने उसके सामने खडे थे। शरीर के पोर -पीर में मीठी चुभन अभी भी उठ रही थी। कितनी जल्दी वह अपनी माँ की बेटी से अपने पति की औरत बन गयी थी। एक लड़की को औरत बनने में भला कितनी देर लगती है।

जल्दी ही वह नई दुल्हन से पतोहू बन गई सहादुर की। सुबह होते-होते उसके हाथों में बडी- बडी बाल्टियाँ होतीं। बगलवाले हैण्डपम्प से पानी लाते वक्त चेहरे पर लम्बा घूंघट होता। पड़ोसी मर्द लड़के उसका मुँह तो नहीं देख पाते पर उसकी लाल रंगी अंगुलियों एवं एड़ियों को चोर नजरों से जरूर देख लेते। बखरी में घुसते-घुसते पायल भी चुगली कर जाती। अन्दर जाते-जाते बाल्टी नीचे रख घूँघट की ओट से जरूर निरखती कि कौन उसे देख रहा है।

 

अब उसके पास बहुत काम है, मन न होते हुए भी भोरहरी में बिस्तर से उठना, ऑख मलते- मलते चौखट पार करना. फिर बाहर भीतर। रात के पड़े खचिया भर बर्तन माँजना-धोना। बर्तन माँजते समय अक्सर घुंघराले बालों का एक महीन गुच्छा बार-बार उसकी आँखों पर आ जाता है। कटोरी साफ करते-करते सिर को तेजी से एक ओर झटकती कि बालों की वह आवारा लट अपने ठिकाने लौट जाये। रसोई घर के कच्चे आले पर संभालकर बर्तन रखते-रखते थक जाती है वह। हाथ-मुँह धोने के बाद पल भर के लिए अपनी कोठरी में आराम करना चाहती है तभी खयाल आता है देवर के लिए ताजा खराई बनानी है. खेलने गई ननद अभी आकर चिल्लायेगी-भौजी भूख लगी है बहुत।

 

सूरज अपने ही दिन से लड़ते झगड़ते जब पश्चिमवाली नीम की पत्तियों में उलझ गया, तब साँझ चुपके-चुपके दालान के दरवाजे से गन में घुस आई। अपनी कोठरी में आराम करती नन्दिनी बाहर निकल आई। अब तो सास-ससुर खेत से लौटेंगे। जल्दी ही उसने लोटे को माँज घसकर चमका दिया। बाहर से एक बाल्टी पानी लाई और कटोरी में गुड भर चौखट के पास ही तोप दिया। आज नया नहीं है ये सब। माँ ने कहा था, सास-ससुर माता-पिता के समान होते हैं।

अपनी घिसी-पिटी जिन्दगी के भारी बोझ को पीठ पर लादे सास ने पहले चौखट पार किया। फिर वह अन्दरवाली ओसार में दीवाल के बल बैठ गयी। नन्दिनी के पानी भरे लोटे को थामते-थामते सास ने उसके चिकने उभरे पेट का लक्ष्य किया फिर निगाह उठ गयी दुलहिन की ओर-जैसे पूछ रही हो कितना दिन हो गया महीना चढ़े। गुड की भेली को और छोटा करते हुए अम्मा ने सीधे -सीधे उससे कहा, 'दुलही आज से छोटकी बल्टी में पानी लियावल करी। ' नन्दिनी ने विस्मयपूर्ण नजरों की कोरों से देखा, अम्मा के थके चेहरे पर समय के थपेड़ों से उभर रही लकीरें खिल उठी थीं।

 

वह इन्तजार करने लगी- कितनी जल्दी साँझ ढले और रात के पहले पहर में ही जल्दी-जल्दी अपने काम निबटा ले। उसे बताना है अपने पति से अम्मा जी की बात। खाना बनाकर खिलाते - खिलाते कुछ देर तो हो ही गई। आज वह बर्तन नहीं धोयेगी। केवल एक लोटा साफ पानी रख देगी। लोटा धोते- धोते उसने प्रत्यक्ष देखा, उसका पति अंधेरे की लय तोड कमरे में जा रहा है। उसने जल्दी से अपने हाथ साफ किये ' मुँह पर छींटे मारने के बाद आँचल से अपना चेहरा पोंछा-दिन भर का तनाव पलक झपकते दूर हो चला था। रंगदान लेकर पाँव की अंगुलियों को रंगने लगी। कमरे में टिमटिमाती ढिबरी की रोशनी उसके पास गन तक उछल रही थी-जैसे आज लरिकाई की तपस्या का एक बड़ा वरदान सम्भवत: मिलने जा रहा हो।

 

अपने नैहर लौटते समय गाड़ी में बैठती हुई नन्दिनी को लगा कि किसी ने टोकरी में बन्द हवा को खोल दिया है। लगभग दो साल बाद लौट रही है अपने गाँव प्रीतमपुर। ससुराल का हवा -पानी और रोशनी इतनी जल्दी पीछे छूट गये, उसे पता न चला। खिड़की से बाहर झाँकते ही उसने पाया कि वह तालवाले छौरे पर चल रही है। ताल की पीठ पर विराजमान शिवालय पानी में डूबी घाट की सीढियाँ अब उससे हाल-चाल कर रही हैं। कहीं थी? गली की एक ठोकर पर गाड़ी उछलती है, नन्हका रोने लगता है। देखती है कि सत्ती माई का चीरा अभी तक पहले जैसा ही है।

 

दालान में बिछी दरी पर बैठते हुए नन्दिनी ने देखा-आँगनवाली तुलसी माई कुछ मुरझा गयी हैं। कितने जतन से लिपती थी वह चौरे को, ताजा साफ पानी देती थी। पीतल की परात में पानी भर भौजाई सामने खड़ी थी। गोरी पिंडलियों से लुढ़कता पानी वापस परात में मिलने लगा। पाँव की पतली सुघर अंगुलियों से घुलता हुआ महावर का लाल रंग परात के पानी में समाने लगा। पल भर के लिए उसकी आँखें बन्द हुई -ससुराल की अयाचित एकरसता भंग होकर परात में डूब चुकी थी।

 

पटनीवाली कोठरी में बरसों पुराना अंधेरा ठसठस कर भर गया। माँ-बेटी की चारपाई को एक चुप्पी ने कसकर पकड़ लिया तो माँ के मन के भीतर कई प्रश्न कसमसा उठे। छाती से लगे नन्हका की सॉय-साँय को महसूस करते हुए नन्दिनी सोच रही थी कि माँ हाल-चाल का सिलसिला कहाँ से शुरू करेगी। बरामदे से अभी-अभी गुजर गई ढिबरी की रोशनी ने कमरे के अंधेरे को छू लिया है। माँ ने करवट बदल मुँह उसकी ओर कर लिया। 'बचिया! तोर सास कइसन हइं खिलाय करय लीं कि नाहीं। ' अब नन्दिनी को जवाब देना चाहिए। आँखें खोल अँधेरे कोने में कुछ खोजने का यत्न करने लगी, 'हाँ माई ठीक हइं। ' माँ सरककर बेटी के सिरहाने पहुँच गयी- 'भगत जी कुछ कहतयँ त नाहीं। ' उसे लग रहा है कि छोटका जाग जायेगा। उसकी पीठ पर मीठी थपकी देती हुई उसने निश्चय किया कि इस सवाल का जवाब उतना जरूरी नहीं। माँ वापस अपनी चारपाई पर चली गई थी। उसके लिए अच्छा यही रहेगा कि दुबारा कोई हाल-चाल न पूछे। थोड़ी देर बाद जब चूड़ियों की बेजान खनखनाहट हुई, नन्दिनी ने समझ लिया माँ सोयेगी नहीं। अब जरूर वह सवाल करेगी जिसका जवाब देना फिलहाल उसके वश का नहीं। माँ उठकर बैठ गई- ननदनिया पाहुन मानय लँ कि नाहीं?' परेशान हो उठी वह। उसने भी नन्हेके के साथ करवट लेकर माँ की ओर मुँह कर लिया। पर बोलने की जगह चुप हो गई। खामोशी तब गहरा गई। माँ ने पाटी से पाटी सटा लिया- 'बच्ची कल्लू क फुआ त कहत रहली पहुना दारु पियय लँ, चटिया पर जुआ भी खेलय लँ। मतारी-बाप से लड़यलँ। बात सही ह का बिटिया?' माई ने कुरेदना शुरू किया।

 

'माई हम पूरा नाहीं जानित। ' 'देख छिपाव जिन। हमार जीव ओही दिन से घबरात हव। ' नन्दिनी अब कहाँ तक छिपा पायेगी अपने आपको? भीतर बँधी गांठ दिली हो रही थी। 'माई हमसे गहना माँगत रहलँ. कहनै दूना कराय देब। पूरा पासबुक भी रख देहली हमरे पास-हम नाहीं देहली। ' भविष्य के खतरे की आशंका माँ के मन में पैठ गई थी। बाहर-भीतर अंधेरा और गाढ़ा हो गया।

 

जवान होती जाड़ा के साथ छोटू भी बढ रहा है। दादा-दादी के साथ फुदकना उसने सीख लिया है। नन्दिनी घर के अन्दरूनी कामों को निपटाने के बाद खेतों में भी जाने लगी है। खेत से लौटते हुए दिन जब काफी ऊंचा हो जाता है. सास संग वापस लौटती है-जहां ढेर सारे जूठे बर्तन उसका इन्तजार कर रहे होते। बर्तन माँजना-धोना, हाथ-मुँह धोकर बच्चे को दूध पिलाते-पिलाते शाम का इन्तजार करना रोज की दिनचर्या बन गई थी।

 

साँझ आयी, पर आज कुछ अलग अन्दाज में। घर खाली सा है। सास अपने छोटे बेटे -बेटी को लेकर नैहर चली गई है। जाड़े में ही भतीजे का गौना है। इतने बडे आँगनवाली बखरी में आज वह थी. छोटू था. बुढऊ और उसका मर्द। ससुर तो बाहर बरामदे में चौकी पर लेटे रहते हैं. पर उसका पति कोई ठिकाना नहीं कहीं जाता है, कहाँ रहता है? सासू से पूछ-पूछकर थक गयी है। अब तो खाना भी अम्मा बाहरवाली आलमारी में रख आती हैं। कोठरी से निकल उसकी निगाह आँगन में चली आती है। बाहर चूल्हे के पास अक्सर बैठनेवाली पूसी भी आज दिखाई नहीं देती। वह होती तो करमों कर दूध भात देती और उसकी आँखों में अपने आगत के प्रश्नों का हल ढूंढ लेती। ये बिल्लियाँ भी बड़ी आगमजानी होती हैं।

 

ऊपर बेर डूबते ही नन्दिनी के आँगन से होकर धुआँ नीले आसमान में बढने लगा है। उपली सुलगाते-सुलगाते मन में आया कि आज कलौंजी बनाये बैंगन आलू की। रसोई में बेसन भी बचा है. कड़ू तेल तो एक डिब्बा भरा पड़ा है। छोटू को अपने ससुर के हाथ ओसार में दे आई।

 

रसोईघर की ठहर पर बैठ भोजन करते बुढउबाऊ ने कहा, 'दुलहिन कलौजी बड़ा स्वादिष्ट बनल ह' माँगने से पहले उसने चार-पाँच कलौजी उनकी थाली में डाल दिया। पानी पीते हुए ससुर ने कहा. ओके जोहा जिन। हमसे कह के गयल ह. जाने कब आई. ई ससुरा बड़ा अवारा होय गयल। ' जूठी थाली समेटने के बाद वह थाली में भात, क्टोरी भर दाल, आठ-दस कलौजी रख बाहर गौखे में तोप आई। कलौंजी की सोंधी-सोंधी बास घर से निकल गली में चली गयी। जल्दी खा पीकर जूठे बर्तन इसी समय धो डालेगी। ससुर ने कहा है, दालान की कुंडी भी बन्द कर दे वह। नहीं, वह दरवाजे की कुंडी बन्द नहीं करेगी. उढ़का देगी बस। कौन बड़ा सोना-चाँदी भरा है इस घर में। हाथ मुँह धोकर जैसे ही वह उठी. एक हल्की आहट ने उसे सचेत कर दिया-इतनी रात कोई कुत्ता दरवाजा नहीं भड़का सकता। सच. छोटू के पापा थे. देखते ही देखते कोठरी में चले गये। कितने अंतराल के बाद देह- मिलन की यह रात दुबारा आई है -यह सोचना इस समय अर्थहीन था। अरसे से सूखी पड़ी रंगदानी को गीला करते हुए उसने अंगुलियों को रंगना शुरू किया। लाल-लाल खुरदरी एड़ियों पर चढे रंग को सन्नाटे के सिवा और कौन देख सकता था। पलक झपकते नन्दिनी ने अपनी नई सुगापंखी साडी पहन ली। नई साड़ी की खुशबू लिए जब वह अन्दर पहुँची. छोटू गहरी निद्रा में लीन और उसके पापा की ऑखें खुली थी। टिमटिमाता दीया कब बुझा-इसे संज्ञान में लेने की जरूरत ही कहाँ थी। दाम्पत्य के प्रणय-समर में कौन जीता, कौन हारा इसे तो वह काली रात ही जान सकती है।

 

पाल गली में भिनसार से ही अजीब सन्नाटा दरवाजे-दरवाजे घूम रहा है। सुबह होते-होते बच्चों की खटर-पटर. रोना-धोना सब कुछ बन्द है। सरकारी नल पर बाल्टियों की ठेलम-ठेल गायब है। लगता है कोई हिंसक जानवर बस्ती के मुहाने पर अड्डा जमाकर बैठ गया है। कहीं कोई आवाजाही नहीं, पर घरों के अंदर फुसफुसाहटों का दौर जारी है। सहादुर के घर के सामने सड़क पर पुलिस की गाड़ी देख सहमे लोग अपने-अपने दरबों में फिर दुबक गये। पपिया मलुवा नटइया दबउलस हे मइया। ' कायरों की इस पाल बस्ती में सिर्फ यही एक छी आवाज रह-रहकर कलप रही है। 'इहय मलुवा धरनिया पर टंगलस हे मइया। ' 'पपिया मलुवा नटइया दबउलस हे मइया, अल्हरय परनवा इ लेहलस हे मइया। '

 

'मलुवा नटइया दबउलस हे मइया, अल्हरय परनवा ई लेहलस हे मइया। 'जीवन के आखिरी पडाव पर खड़ी, बरसों पहले इसी टीले में ब्याही एक वृद्धा अपनी भतीजी के लिए बिलख रही थी। 'चुप रह बुढिया, तोरो नटई साह देब। ' उसका पोता गरजा था। बुजदिल, कायरों के मुहल्ले में उसका विलाप अंधे कुंए में जा गिरा।

 

शिवपुर में रिवाज है, जब कोई सुहागिन इस दुनिया से दूर चली जाती है, उसके घरवाले सिवान में एक टूटी दउरी रख आते हैं, दउरी में होता है मरा हुआ आईना, दात टूटी कंघी, एक-दो काली चोटियाँ, बिन्दी के कुछ पत्ते और एड़ी घिसी हुई एक जोड़ी चप्पल। इस बार भी पुल के बगल में देखा - दउरी के बाहर चप्पल, जिसका लाल-लाल चटख रंग अब भी नहीं गया है।

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संपर्क:

रानी लक्ष्मी बाई महाविद्यालय,

मधुपुर, सोनभद्र, उप्र

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COMMENTS

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  1. रामानुज मिश्र की कहानी 'वरदान'स्त्री जीवन के अभिशापों की विडंबना को स्वर देती एक श्रेष्ठ आंचलिक कहानी है.इस कहानी को पढ़ते हुए शिव प्रसाद सिंह की कहानी कथन की भंगिमा और भाषा-शैली पुनः रूपाकार पाती हुई मिलती है.इसमें रेणु का अंचल बोध भी कुंडली मारे बैठा हुआ दिखता है.इन दोनों से अलग एक बात और इस कहानी में है जो इन दोनों में भी हमें नहीं दिखी है,वह है कहानी में उपन्यास सरीखे प्रदीर्घ कथानक का निर्वाह.बाल्यावस्था से लेकर जीवन के अंतिम क्षण स्त्री जीवन के सभी संकल्पों ,विकल्पों और प्रकल्पों को सिलसिलेवार प्रस्तुत करती इस कहानी में स्त्री जीवन की त्रासदी को औपन्यासिक विस्तार मिला है.यह इस कहानीकार की सबसे बड़ी शिल्पगत विशेषता है.यह कहानी अपने कथ्य, भाषागत शिल्प और कथन भंगिमा के लिए जानी जाएगी.यह कहानी अपनी एक और चीज़ के लिए पाठक को सम्मोहन के स्तर तक बांधती है,वह है काव्यभाषा में निबद्ध प्रकृति-राग-चलते-चलते रात जब थककर निढाल हो गयी तो उसने भोर की दहलीज पर बैठ अपने पाँव फैला दिये। गाँव के पूरबी आकाश में उगा टहकार शुकवा मीठी मुस्कान के साथ थकी हुई रात के कन्धे सहलाने लगा। मन्द-मन्द डोलती हवा ने गाँव को जगाना शुरु कर दिया। पेडों की पत्तियों भी धीरे-धीरे गुनगुनाती हुई रात्रिकालीन अपूर्ण राग को पूरा करने लगीं। डीहवाले पीपल के सिरहाने जमा बस्ती का जागरण नीचे उतरने लगा। पाल गली में निश्चिन्त सोई हलचल जाग उठी।"

    आगे पढ़ें: रचनाकार: रामानुज मिश्र की कहानी - वरदान http://www.rachanakar.org/2014/12/blog-post_58.html#ixzz3MdEA2500"

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रामानुज मिश्र की कहानी - वरदान
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