पुरुषोत्तम विश्वकर्मा का हास्य व्यंग्य : याद होगा उनका आंसू पोंछने का वादा

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याद होगा उनका आंसू पोंछने का वादा एक काफी पुराने अखबार की किसी कतरन में कोई बासी खबर पढ़ते-पढ़ते ही चाचा दिल्लगी दास की आँखों से टपटप आंसू बह...

याद होगा उनका आंसू पोंछने का वादा

एक काफी पुराने अखबार की किसी कतरन में कोई बासी खबर पढ़ते-पढ़ते ही चाचा दिल्लगी दास की आँखों से टपटप आंसू बहते देख कर मैंने इस्तिफ्सार वस यूं ही पूछ लिया,क्यों चाचा क्या आपकी नज़र इतनी कमजोर हो गई हैं जो कि पढ़ते-पढ़ते आँखों से पानी आना शुरू हो जाता हैं?मेरे सवाल के जवाब में चाचा ने बस ना के इशारे में धीरे से अपनी गर्दन हिला दी। मैंने फिर पूछा कि क्या आँखों में कुछ गिर गया है जो ये कब से  अबसारों कि मानिंद बहे जा रही हैं? इस बार भी चाचे ने पिछली बार की ही  तरह ना के इशारे में अपनी गर्दन हिला दी। मैं फिर पूछने के लिए बस मूंह खोलने वाला ही था कि चाचा लगभग फट से पड़े और बोले कि अरे कपूत अगर मेरे पास रोने के लिए कोई और कारण नहीं होता तो यकीनन मैं इत्मीनान के साथ बैठ कर के धंटों तुम्हारी अक्ल पर ही रो कर आंसू बहाता। तुम पत्रकारों में यह भी एक खामी होती हैं कि कुछ देखा नहीं कि झट से पेट में जिज्ञासा के मरोड़े शुरू हो जाते हैं,फिर शामत आती है हम जैसों की,तुम हो कि शुरू हो जाते हो दे दनादन दे दनादन सवाल दागना,चाचा ये हुआ होगा,चाचा वो हुआ होगा। क्यों ऐसी अंट शंट कयास आराईयां कर कर के परेशान करते हो अपनी तेल लेने जा रही मोटी अक्ल को,जिसे आंसू और पानी का फर्क भी मालूम नहीं।

चाचा ने अपने डांटने वाले चिरपरिचित अंदाज में कहा कि तुमने नाहक ही इतनी देर तक जहमत उठाई,सीधा मुझसे ही पूछ लिया होता कि चाचा आज तुम्हारी आँखों में ये आंसू कैसे आ गए ?अरे बेअक्ल जरा ये खबर पढ़,क्या छपा हैं? आज तो वो कुछ भी करने लायक नहीं हैं मगर जब सत्ता पर काबिज थे तब उन्होंने एलान किया था कि वो आम आदमी कि आँखों के आंसू पोंछेगे।बस हर आदमी की आँखों के आंसू पोंछेने के एलान की खबर पढ कर मेरी आँखों में आंसू आ गए थे।हां, इसके पीछे मेरा यह मकसद कतई नहीं था कि मैं अपनी आँखों में आंसू भर कर के एक आम आदमी की शुमारी में आना चाहता हूँ,बल्कि मेरी आँखों में ये आंसू इस लिए आये कि एलान करने वाले दस साल तक हमारी आँखों के आंसू तो नहीं पोंछ पाए लेकिन आज सत्ता से दूर बैठें हैं और उनकी खुद की आँखों में आंसू हैं,आज उनकी आँखों के आंसू पोंछने का एलान करने वाला कोई दूर तक नज़र नहीं आ रहा।

चाचा अपनी आँखों में आये आंसू पोंछ कर बोले कि आँखों में आंसू न आये तो क्या आये। आज हमारे मुल्क में अनगिनत मसले हैं किनके चलते मुल्क की तकरीबन सत्तर फीसदी जनता कि आँखों में आंसू हैं,जिनको पोंछने का काम इतना आसान नहीं हैं। मगर हमारे अर्थशास्त्रीजी ने एलान तो कर दिया था,मगर दस साल तक किया कुछ था नहीं,परिणाम स्वरूप आज जरूर रोने के लिए मजदूर तलाशते होंगे। भतीजे वो तो ठीक रहा कि उन्होंने बस एलान कर के ही काम चला लिया अगर उन्होंने कुछ किया होता तो कई अड़चनें आती। मैं तो सोच सोच कर पूरे दस साल तक हलकान हो रहा था कि ये सब कैसे मुमकिन होगा। क्या ‘सरकार आपके द्वार’ की तर्ज पर गाँव गाँव में जाकर के दरबार लगा कर आंसू पोंछने का काम कोई सरकारी चपरासियों के हाथों से करवाती तो भीड़ इतनी ज्यादा होती कि लोगों का शाम तक नम्बर भी नहीं आता और दिन भर की मजदूरी फिर भी मारी जाती, आंसू पोंछवाने गए लोग अपनी आँखों में कुछ और नए आंसू ले कर के लौटते।

चाचा बोले कि सरकार का क्या जनता के आंसू पोंछने के लिए किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था से कोई सहायता ले कर अगर कोई नया सरकारी महकमा भी खोल देती जो काउन्टर लगा कर आंसू पोंछने के लिए कपड़े या स्पंज का वितरण करता तो निश्चित रूप से इस काम में तो इस सदी का कोई सबसे बड़ा घोटाला होता,क्यों कि तब हर एक आंसू पोंछवाने वाले व्यक्ति के लिए बिल तो आता एक बड़े से रूमाल की साइज़ के कपडे का और तकसीम होती छोटी-छोटी कपड़े की चिन्दियां। इसके साथ साथ यहां की परिपाटी अनुसार अगर सारे लोग तयशुदा अंतिम तिथी को ही अपने-अपने आंसू पोंछवाने आते तो लम्बी कतार में सबसे पीछे खड़े लोगों की आँखों में यह सोच-सोच कर के भी तो आंसू आते कि उनका नम्बर आएगा भी या नहीं,और नम्बर आने तक आंसू पोंछने की सामग्री बचेगी भी या यूं खली हाथ ही लौटना पड़ेगा। इसके अलावा अगर आंसू पोंछने के लिए कोई मोबाइल बूथों का इंतजाम किया जाता तो बूथ जिस मोहल्ले में भी लगाया जाता वहां पहले मैं पहले मैं के कारण झगड़े होते,पुलिस तक बुलानी पड़ जाती। भतीजे इस बार जनता के आंसू पोंछने थे न कि पोलियो उन्मूलन अभियान था कि बस दो बूंद दवा गटकी नहीं और बीमारी से छुट्टी। इसमें तो कर्मचारी को आंसू पोंछवाने वाले के पास तब तक बैठा रहना पड़ेगा जब तक उसकी आंखों के आंसू पूरी तरह रुक नहीं जाते।

चाचा जरा रुक कर बोले कि भतीजे देखते कि जैसी भीड़ बेरोजगारों,निरक्षरों,गरीबों की वैसी की वैसी इन आंसू पोंछवाने वालों की भीड़ हो जाती,यानी कि एक नयी मगर सबसे विकराल समस्या और पैदा हो जाती। मेरे खयाल से तो इसका एक ही उपाय था कि इसके लिए कोई बहुसदस्यीय परिषद का गठन कर दिया जाता ताकि कुछ लोगों के आंसू तो हाथों हाथ पुंछ जाते, फिर सब आंसू पोंछवाने वालों को आम और खास में अलग अलग बांट दिया जाता और उनके आंसूओं के नमूने संग्रह कर प्रयोगशाला में जाँच के लिए भेज दिया जाता। उन्होंने एलान तो कर ही किया था सो इतने से ही काम चलाते या फिर इस एलान के क्रियान्वयन में इतनी पर्याप्त देरी की जाती कि अधिकतर आंखों के आंसू खुद-ब-खुद ही सूख जाते और बचे खुचे लोगों को टेलीविजन के परदे पर किसी युवा और खूबसूरत चहरे वाले नेता की मुस्कुराती तस्वीर दिखा दी जाती तो जनता सब कुछ भूल कर मुस्कराने लग जाती और अपने आंसू खुद ही पोंछ लेती और देखते ही देखते इस मसले का तशाफिया निकल आता। इतना कहते हुए चाचा ने अपने कुर्ते की कोहनी से फटी आस्तीन से अपनी आंखों फिर से आ गए आंसू पोंछ लिए।

पुरुषोत्तम विश्वकर्मा

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: पुरुषोत्तम विश्वकर्मा का हास्य व्यंग्य : याद होगा उनका आंसू पोंछने का वादा
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