राजीव आनंद का आलेख - जयंती व स्मृतिशेष रांगेय राघव-मोहन राकेश-कमलेश्वर

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जयंती व स्मृतिशेष     रांगेय राघव-मोहन राकेश-कमलेश्वर            जनवरी माह में तीन महान हिन्दी के साहित्यकारों यथा, रांगेय राघव, मोहन राकेश...

जयंती व स्मृतिशेष     रांगेय राघव-मोहन राकेश-कमलेश्वर           
जनवरी माह में तीन महान हिन्दी के साहित्यकारों यथा, रांगेय राघव, मोहन राकेश और कमलेश्वर प्रसाद सक्सेना की जयंती और पुण्यतिथि दोनों ही पड़ती है। इस दृष्टिकोण से यह माह हिन्दी साहित्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।


    तीनों मुर्धन्य साहित्यकारों में सबसे वरिष्ठ रांगेय राघव हैं, जो हिन्दी के उन बहुमुखी रचनाकारों में से एक है जिन्होंने हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विद्याओं यथा, कहानी, निबंध, उपन्यास, नाटक, आलोचना, रिपोर्ताज के रूप में अपने रचनाकर्म से बहुत ही कम समय में ख्याति अर्जित की थी। प्रगतिशील लेखन करते हुए भी वह किसी वाद-विवाद की परिधि से बाहर ही रहे, यहां तक की उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्यता लेने से भी इंकार कर दिया था।


छठे दशक में जब कहानी को नये सिरे से तोड़कर बनाने का यत्न नयी कहानी में किया जा रहा था, उसमें मोहन राकेश और कमलेश्वर का प्रयोग महत्वपूर्ण था परंतु रांगेय राघव इस दृष्टिकोण से मोहन राकेश और कमलेश्वर से अलग नजर आते हैं। एक तरफ जहां मोहन राकेश और कमलेश्वर अपने पूववर्ती अग्रज अज्ञेय-जैनेंद्र को उंगली दिखाते नजर आते हैं, वहीं रांगेय राघव नई कहानी से दूरी बनाते हुए ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर जीवनोपयोगी कथा प्रयोगों का विकास करते हुए नजर आते हैं। नई कहानी के दौर में रांगेय राघव यद्यपि नई कहानी की धारा में तो शामिल नहीं हुए लेकिन उनकी काव्य कृतियों में नवीन प्रयोग विन्यास मिलते हैं।


1942 में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद रांगेय राघव द्वारा लिखा गया रिपोर्ताज 'तूफानों के बीच' हिन्दी में चर्चा का विषय बना था। 13 वर्ष की उम्र से ही अपना साहित्यिक सफर शुरू करने वाले रांगेय राघव का अंग्रेजी, ब्रज, संस्कृत भाषाओं पर असाधारण अधिकार था तथा चित्रकला, संगीत और पुरातत्व में उनकी विशेष रूची थी। अपने ढाई दशकों के अल्पकालिक साहित्यिक सफर में डेढ़ सौ से ज्यादा पुस्तके लिखीं, उनका लेखन इतना विपुल और समृद्ध रहा कि उनके साहित्य को पढ़ने में उनके द्वारा लिखने से ज्यादा वक्त लगेगा। उनकी विशेषता यह थी कि उन्होंने किसी विचारधारा का तमगा लगाने के बजाए लेखन में ईमानदारी के पक्षधर रहे। उन्होंने आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष को जीवन का सत्य माना तथा जीवन की जटिलताओं में फंसे हुए आम आदमी को पहचानने के लिए गांवों की कच्ची और कीचड़ भरी पगडण्डियों का दौरा भी किया। रांगेय राघव का लेखन आम आदमी की आशा और हताशा से भरे हुए जीवन का लेखन है। वे अपनी रचनाओं के माघ्यम से समाज को बदलने का झूठा दम्भ नहीं पालते यद्यपि बदलाव के वे आकांक्षी जरूर रहे। ऐसे प्रगतिशील, यथार्थवादी रचनाकार को काल नें बहुत ही अल्पकाल यानी 39 वर्षों में ही हमसे 12 जनवरी 1962 को छीन लिया।


रांगेय राघव की प्रमुख कृतियों में 'देवदासी, ऐय्याश मुर्दे, पांच गधे' चर्चित कहानियां हैं। 'पिघलते पत्थर, राह के दीपक, अजेय खंडहर और पांचाली' उनके मुख्य काव्यसंग्रह है।'स्वर्णभूमि की यात्रा और रामानुज' उनके दो महत्वपूर्ण नाटक हें। 'घरौंदा, पराया, काका, सीधा सादा रास्ता, अंधेरे के जुगनू, यशोधरा जीत गयी, लखीमा की आंख, भारती की सपूत, कब तक पुकारूं, पक्षी और आकाश, छोटी सी बात, कल्पना, प्रोफेसर, आखरी आवाज आदि उनके प्रमुख उपन्यासें हैं। 'भारतीय परंपरा और इतिहास, प्रगतिशील साहित्य के मानदंड, भारतीय संत परंपरा और समाज, तुलसीदास का कला-शिल्प तथा आधुनिक हिन्दी कविता में प्रेम और श्रृंगार' आदि प्रमुख आलोचना ग्रंथ उन्होंने लिखीं।


मोहन राकेश नई कहानी के दौर के एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कहानीकार, नाटयलेखक और उपन्यासकार थे। उनकी कहानियों में एक निरंतर विकास मिलता है, जिसके माघ्यम से मोहन राकेश आधुनिक मनुष्य की नियति के निकट से निकटतर आते गए हैं। उनकी भाषा में गजब का सधाव ही नहीं, एक शास्त्रीय अनुशासन भी है। मोहन राकेश की कहानी से लेकर उपन्यास तक में उनकी कथा भूमि शहरी मघ्यवर्ग है। कुछ कहानियों में भारत विभाजन की पीड़ा बहुत सशक्त रूप से अभिव्यक्त हुई है।
मोहन राकेश कहानीकार के बाद एक उपन्यासकार और फिर एक नाटककार के रूप में सामने आते हैं। उनके साहित्य से गुजरने से ऐसा प्रतीत होता है कि अपने समय, समाज, परिवेश और उसके संघर्ष को जब उन्होंने कहानियों में पकड़ना चाहा तो फलक छोटा पड़ गया, तब वे उपन्यास की तरफ मुड़े, फिर भी कुछ अनकहा लगा तो नाटक लिखे। उनकी भाषा में विविधता है, कहीं संस्कृत तो कहीं उर्दू तो कहीं अंग्रेजी का प्रयोग उन्होंने किया है


मोहन राकेश का जीवन अस्थिरता, अतिवादिता और आक्रोश की कहानी कहती है। पिता की आकस्मिक मृत्यु और घर की खस्ता हालत के कारण अपनी मां के हाथों की सोने की चूड़ियां बेचकर पिता का दाह-संस्कार कर सके थे मोहन राकेश। गरीबी को बहुत नजदीक से देखा और भोगा था उन्होंने पर गरीबी उनके लिए गरबीली गरीबी थी। उन्होंने कभी भी अपने स्वाभिमान को गिरवी नहीं रखा, जो उनके अस्थिर होने का बहुत बड़ा कारण रहा। हिन्दी में प्रथम श्रेणी से एमए उतीर्ण हुए और पटकथाकार के रूप में नौकरी शुरू की पर स्वाभिमान पर लगे ठेस के कारण नौकरी को छोड़ दिया, फिर पत्रकारिता की ओर मुड़े, टाइम्स ऑफ इंडिया से जुड़े पर स्वाभिमानवश ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाये। एक दूसरी नौकरी के सिलसिले में शिमला चले गये परंतु वहां भी ज्यादा दिन टिक नहीं सके, दिल्ली वापस आकर 'अक्षर प्रकाशन' से जुड़े। 1962 में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राघ्यापक बने और फिर 'सारिका' के संपादक बनाए गए। 1972 में 'शब्द की खोज और महत्व' विषय पर शोधकार्य करने पर उन्हें एक लाख रूपये का 'नेहरू फैलोशिप पुरूस्कार' मिला।

उनका वैवाहिक जीवन भी अस्थिर ही रहा। 1950 में उन्होंने विवाह किया जो जल्द ही टूट गया। बाद में उन्होंने अनिता औलक से प्रेम विवाह किया, अनिता औलक अंत तक उनका साथ निभायी। यही वजह है कि मोहन राकेश की कहानियों में सामाजिक समस्याओं की अपेक्षा भोगे गए यथार्थ और घुटन का सच्चा चित्रण मिलता है। उन्होंने माता-पिता के संबंध विच्छेद से उत्पन्न स्थिति एवं बच्चों पर पड़ने वाले कुप्रभावों को अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में बखूबी चित्रित किया है। 'मिस पाल' एक अकेलेपन से जूझती हुई कार्यालय में काम करने वाली अविवाहित लड़की की कहानी है, जो अपने आसपास फैले कमीनेपन से उबी हुई वैसी पात्र है जो अकेले अपनी आकांक्षाओं, निराशाओं और घुटन भरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है।


'नन्हीं' नामक कहानी से अपना साहित्यिक सफर शुरू करने वाले मोहन राकेश अनेकों कहानियां लिखे जो 'जानवर और जानवर, इंसान के खंडहर, नये बादल, एक और जिन्दगी, चेहरे, मलबे का मालिक, फौलाद का आकाश तथा मेरी प्रिय कहानियां नामक संग्रह में प्रकाशित हैं। 'अंधेरे बंद कमरे, नीली रोशनी की बांहें, न आने वाला कल, कांपता हुआ दरिया' उनके प्रमुख उपन्यास हैं। उन्होंने जो डायरी लिखीं उसे 'मेरा पन्ना' के नाम से जाना जाता है। 'परिवेश और समय सारथी उनका दो निंबंध संग्रह है। 'आखरी चट्टान और उंची झील उनके दो संस्मरण हैं। उनके प्रमुख नाटक आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, पैरां तले जमीन तथा आधे अधूरे हैं।


न जाने कितनी आकांक्षाओं, निराशाओं, हताशाओं और घुटन को अपने आप में समेटे 3 जनवरी 1972 की शाम अचानक उन्हें सीने में दर्द उठा और वे हम सभी से हमेशा के लिए विलग हो गए।


कहानी के बंधे-बंधाए कालानुक्रम को एक नयी तरतीब देने की कोशिश अपने एकदम आरंभिक कहानी 'राजा निरबंसिया' में कमलेश्वर ने की। उन्होंने परम्परित लोककथा और आधुनिक प्रचलित कहानी के अभिप्रायों की अंतरक्रिया में नया गद्य और विधान विकसित किया कमलेश्वर की कहानियों में तेजी से बदलते समाज का बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील चित्रण दृष्टिगोचर होता है। वर्तमान की महानगरीय सभ्यता में मनुष्य के अकेलेपन की व्यथा और उसका चित्रांकन कमलेश्वर की रचनाओं की विशेषता रही है। अपने संस्मरण में कमलेश्वर उपजीव्य चरित्रों के साथ-साथ उनके पूरे रचना-युग को भी आलोकित करते हैं। कथा-साहित्य में रचनात्मकता के साथ जीवन और इतिहास के उदार चिंतन के नये द्वार भी उन्होंने खोल दिये हैं। अपने उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' के कारण कमलेश्वर वर्तमान में बेहद चर्चित रहें हैं। कमलेश्वर ने 11 कहानी संग्रह, 10 उपन्यास तथा लगभग 20 अन्य पुसतके लिखीं। इसके अतिरिक्त आलोचना, यात्रा विवरण, आत्मकथा भी उन्होंने लिखा।


बहुमुखी प्रतिभा के धनी कमलेवर ने साहित्य के अतिरिक्त फिल्मी साहित्य भी प्रचुर रचा। 'मौसम, अमानुष, सारा आकाश, फिर भी, इसके बाद, आंधी, सौतन, द बर्निंग ट्रेन, मि. नटवरलाल, राम बलराम तथा पति, पत्नी और वो जैसी लगभग सौ फिल्मों का लेखन कार्य किया। दूरदर्शन के लिए इन्होंने 'युग, विराट, दर्पण, आकाशगंगा, रेत पर लिखे नाम, बिखरे पन्ने, बेताल पच्चीसी, चंद्रकांता जैसे सफलतम सीरियल भी लिखा।


कमलेश्वर के रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता है, युगीन स्थितियों का मूल्यान्वेषी स्वर। जीवन संदर्भों और उसके अन्तर्विरोधों के सूत्रों को उन्होंने बड़ी बारीकी से अपनी रचनाओं में पकड़ा है। 'कॉमरेड' नामक कहानी से साहित्यिक सफर शुरू करने वाले कमलेश्वर ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही अपना पहला उपन्यास 'बदनाम गली' लिखा था। फ्रूफरीडर के कार्य से गुजरते हुए पचास के दशक में 'बिहान' नामक साहित्यिक पत्रिका के संपादक बने, बाद में हिन्दी के महत्वपूर्ण पत्रिकाओं यथा, नई कहानियां, सारिका, गंगा तथा सप्ताहिक पत्रिका इंगित एवं श्रीवर्षा का भी संपादकीय भार बखूबी संभाला। नब्बे के दशकों में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर के भी संपादक रहे।


पांच दशकों के अपने साहित्यिक सफर में उन्होंने तीन सौ से ज्यादा कहानियां लिखीं जिसमें 'मानस का दरिया, नीली झील, कस्बे का आदमी सहित दस कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुआ। उन्होंने दस उपन्यास लिखा जिसमें 'एक सड़क सत्तावन गलियां, लौटे हुए मुसाफिर, काली आंधी, अगामी अतीत, रेगिस्तान और कितने पाकिस्तान' प्रमुख हैं। इसके अतिरक्ति साहित्य की लगभग सभी विद्याओं जैसे आलोचना, संस्मरण, यात्रा संस्मरण पर अपनी सशक्त लेखनी चलायी। उन्हें 'कितने पाकिस्तान' के लिए वर्ष 2003 में साहित्य अकादमी पुरूस्कार दिया गया तथा भारत सरकार ने 2005 में उन्हें पदमभूषण सम्मान से नवाजा था।


भारतीय साहित्य को कमलेश्वर का सबसे बड़ा योगदान उनकी अपनी रचनाओं से इतर, विभिन्न भारतीय भाषाओं की सर्वश्रेष्ठ लघु कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करवाकर भारतीय साहित्य के पाठकों को पुस्तक रूप में उपलब्ध करवाना है। 27 जनवरी 2007 को ह्दयाघात से उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी गायत्री जी जो खुद भी एक वरिष्ठ साहित्यकार है, ने अपने पति के लिए एक पुस्तक लिखीं, 'मेरा हमसफर : कमलेश्वर' जो 2012 में प्रकाशित हुई।


उक्त वर्णित मुर्धन्य साहित्यकारों की जयंती और पुण्यतिथि पर मैं अपना लेख फैज की एक रूबाई से समाप्त करना चाहूँगा-

''रात यूं दिल में तेरी खोयी हुई याद आई

                     जैसे बिराने में चुपके से बहार आ जाए
                     जैसे सहरों में हौले से चले बादे नसीम
                     जैसे बीमार को बेबजह करार आ जाए ''

 


राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301, झारखंड

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राजीव आनंद का आलेख - जयंती व स्मृतिशेष रांगेय राघव-मोहन राकेश-कमलेश्वर
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