प्रमोद कुमार 'सतीश' की कविताएँ

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1.    मैं रोता हूं तो.... ये मत सोच कि तेरी याद आती है मैं हंसता हूं तो... ये मत सोच कि जिंदगी मुस्कुराती है ये हंसना और रोना तो... मेरी कि...

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1.    मैं रोता हूं तो.... ये मत सोच कि तेरी याद आती है
मैं हंसता हूं तो... ये मत सोच कि जिंदगी मुस्कुराती है
ये हंसना और रोना तो... मेरी किस्मत के पहलू हैं
कभी मैं आजमाता हूं.....कभी वो आजमाती है


2.    जिंदगी को कई रंगों में जिये हैं
कभी पानी तो कभी जहर समझ के पिये हैं
एहसान भी हैं इसके.....गद्दारियां भी हैं
खुशियां भी बांटी इसने...तो गम भी दिये हैं
दोस्तों की तलाश में भटकी है दर-बदर
मरहम बनी कभी तो....घाव भी किये हैं


3.    महफिल अजीब है..मंजर अजीब है
जो रक्खा है आगोश में वो खंजर अजीब है
डूबने भी नहीं देता, निकलने भी नहीं देता
बेहूदे वक्त का समंदर अजीब है


4.    कपड़े के दो टुकड़े पहचान बन गये
टोपी क्या बनी जनाब..हिन्दू और मुसलमान बन गये
ये कारीगर ये तूने क्या गजब कर डाला
तेरी टोपी ने ....हिन्दू और मुसलमान बना डाला


5.    आज अचानक मेरा वो जख्म भर गया
जो उसने सालों पहले दिया था
शायद आज वो अपने उस फैसले पर पछता रहा है
जो उसने घरवालों के कहने पर लिया था


6.    तू मेरा मुकद्दर नहीं..जो मैं तेरे भरोसे रहूं
हां तू इतना बेगाना भी नहीं ..कि तुझसे कुछ न कहूं
मैं मानता हूं कि जख्मों को सहने का माद्दा है मुझमें
पर ये कोई शर्त नहीं..कि तेरा हर जख्म मैं ही सहूं
फैसला कर ले....आमने-सामने बैठकर
कुछ बातें तू कर...कुछ बातें मैं कहूं


7.    रास्ते अब खुद मुझसे पूछने लगे हैं कि...कहां तक ले जाओगे
चलते ही रहोगे या फिर....मंजिल भी दिखाओगे...


8.    बदलते वक्त ने एहसास बदल डाले हैं
लोगों की बोली और अल्फाज बदल डाले हैं
कभी जी भरके गुफ्तगू होती थी जिनसे
वो सभी अपने और खास बदल डाले हैं


9.    वो अक्सर मेरी दहलीज पर दस्तक दे जाता है
कमबख्त सामने नहीं..ख्यालों में चला आता है....


10.    तूं खुशनसीब है तो.....ये तेरी किस्मत है....
मेरे हालातों पर यूं मुस्कुरा नहीं....
ये जिंदगी...तू क्यों भूल जाती है...
इक रोज तुझे......मरना जरुर है....


11.    मशहूर होने की ख्वाहिश है...मगरुर होने की नहीं
रु-ब-रु होने की ख्वाहिश है...दूर होने की नहीं
ये मुसीबतों.....पूरा जोर आजमा लो तुम
टकराने की ख्वाहिश है.......चूर होने की नहीं


12.    बड़े ही कड़वे अनुभवों से गुजरी है जिंदगी
कमबख्त फिर भी नहीं सुधरी है जिंदगी
कोई शख्स भरोसे पर खरा नहीं उतरा
दोस्ती और मोहब्बत में उजड़ी है जिंदगी


13.    इतना गुरुर न कर ये हाकिम...
हमने सिंहासन भी बदले हैं... और हाकिम भी बदले हैं
न भूल की ये सल्तनत तुझे हमने ही सौंपी है
फलक पर लाए हैं तो..जमीं पर भी ला देंगे
हमारे सब्र का और इम्हान न ले...
याद रख..तुझसे पहले के सारे हाकिम भी हमने ही बनाए थे..
इंतजार कर...आगे भी सारे हाकिम हम ही बनाएंगे..


14.    न मैं तिलक लगाता हूं, न दरगाहों में इबादत करता हूं..
पर ये न समझो कि मैं..मजहबों की खिलाफत करता हूं..
धर्म के नाम पर जो देते हैं कत्ल-ए-आम की तालीम
हां मैं हर शख्स से बगावत करता हूं


15.    मेरी अपनी कयामत है, मेरी अपनी तबाही है
मेरा अपना ये मंजर है, मेरी दुहाई है
तेरा एहसान लेकर क्या करुंगा, ये गुरुरे शख्स
मेरी अपनी ही जन्नत है, मेरी अपनी खुदाई है


16.    ये तकदीर फसानों की बात न कर
तेरा एक एक लफ्ज.....कयामत से कम नहीं
वो तो मैं था जो अब तक...तेरे रू-ब-रू हूं...
वरना तू तो फरिस्तों के हौसले भी तोड़ देती है


17.    परिंदे सोचते हैं कभी न कभी तो कामयाब हो जाएंगें
घोंसले दरख्तों पर नहीं...आसमां पे बनाएंगे
यही सोचकर वो रोज किस्मत आजमाते हैं
घोंसला दरख्तों पर..और उड़ान आसमान में लगाते हैं.


18.    तमन्ना फिर उमड़ आई है कि उससे बात करूं
सालों बाद ही सही..फिर एक मुलाकात करुं
कह दूं जो कहना है..उससे रु-ब-रु होकर
दिल में दबा हर लफ्ज...इजहार-ए-ख्यालात करुं


19.    जिन्दगी कहती है तू मायूस न हो
मैं सबके साथ यही करती हूं
जो समझ जाता है वो जीत जाता है
हारने वालों को मैं याद कहां करती हूं


20.    हाथों में समन्दर उठा के लाया हूं
अपने ख्याबों का बवंडर उठा के लाया हूं
जिस आलीशान महल में मेरे दुश्मन रहा करते थे
आज उसी महल का खंडहर उठा के लाया हूं......


21.    बिकने वाले आज खरीददार बन गए
लूटने वाले जमींदार बन गए
और क्या-क्या देखने को मिलेगा इस दुनिया में
साधु संत तक तो गुनाहगार बन गए


22.    रिश्ते बदल जाते हैं एहसास बदल जाता है
वक्त के साथ हर आम ओ खास बदल जाता है
कुछ नए करिश्मे होते हैं..तो इतिहास में जुड़ जाते हैं
और लोग सोचते हैं कि इतिहास बदल जाता है


23.    मैंने लोगों को बिछड़ते देखा है
एक घर उजड़ते देखा है
एक डाल पर एक साथ चहचहाते थे जो
उन परिंदों को अकेले उड़ते देखा है....


24.    हर चीज बिकने को बेताब है बाजारों में
दगा की बू आने लगी है राजदारों में
और जो करता था खिलाफत कभी नीलामी की
आज वो भी शामिल है खरीददारों में


25.    मोहब्बत की बीमारी पाल लेते हैं लोग
खुद ही अपनी जिंदगी खतरे में डाल लेते हैं लोग
पहले अपनी जेब का पैसा खर्च करते हैं
बाद में दूसरों से उधार माल लेते हैं लोग


26.    चंद लफ्जों ने सारे रिश्ते तोड़ दिए
मेरे अपनों ने भी चेहरे मोड़ लिए
न मिला कोई जिंदगी के सफर में
तो मैंने तन्हाई से नाते जोड़ लिए


27.    नज़र न होती तो बात समझ आती
वो देखकर भी अनदेखा करते हैं
जो खुश हैं लाशों पे बैठकर भी
लोग उनसे अहिंसा की बात करते हैं


28.    बकवास करता हूं तो सब सुनते हैं
बात करता हूं तो अनसुनी होती है
सच कहता हूं तो टाल देते हैं
झूठ कहता हूं तो सनसनी होती है


29.    कल जो कल-कल कर बहा करती थीं
आज वो सूखी रेत की तपस सहती हैं
वाकई कितना सब्र है, हिमालय की बेटियों में
जुल्म हजारों हों, तब भी खामोश रहती हैं
समन्दर तो अपने गुस्से का इजहार कर भी लेता है
पर ये नदियां...तो कुछ भी नहीं कहती हैं


30.    क्या कहूं तुझे ये समाज...अब तो तू बहरा हो चुका है
क्या दिखाऊं तुझे ये समाज..अब तो तू अंधा हो चुका है
क्या समझाऊं तुझे ये समाज..अब तो तू बुद्धिहीन हो चुका है
क्या उम्मीद करुं तुझसे ये समाज..अब तो तू कायर हो चुका है
अपनी मां के आंचल को दुत्कारने का पाप कर रहा है तूं
अपनी बहन की अस्मिता को लूटने का नीछपन दिखा रहा है तूं
आज घिन आ रही है खुद पर मुझे...कि मैं भी तेरा ही हिस्सा हूं



31.    मैं अब भी तेरे शहर में ही हूं..वो बात और है कि तेरे घर नहीं आता
उम्मीद है अब भी तेरे ख्आबों में हूं...वो बात और है कि तुझे नजर नहीं आता


32.    वो उसके अपने ही थे जो उसे शमशान तक छोड़कर आए
वो उसके अपने ही थे जो आखिरी वक्त में मुंह मोड़कर आए
वो उसके अपने ही थे जो हर कसम हर वादा हर रिश्ता तोड़कर कर आए
फिर लोग क्यों कहते हैं कि अपने तो अपने होते हैं.....


33.    ये दौर तू यही थम जा....मेरी रूह डरने लगी है...
ये कैसे मंजर दिखा रहा है तू...
सत्ता के लिए भेड़ियों से लड़ रहे हैं लोग..
लाशों के पुल बनाकर आगे बढ़ रहे हैं लोग
कितनी नफरत हैं आज इंसानों की आंखों में
अब मेरी आंखे आंसुओं से भरनी लगीं हैं..
ये दौर तू यही थम जा....मेरी रूह डरने लगी है...


34.    तेरी दहलीज तक आया हूं..इस्तकवाल तो कर
मैं क्यूं आया हूं....ये सवाल तो कर
अपने वादे से मुकर गया है तू
इस बात का कुछ...मलाल तो कर
माना की जमाने भर की परवाह नहीं तुझे
अरे कम से कम...खुद की नजरों का ख्याल तो कर
आखिरी वक्त भी..तेरी आंखों में ख्वाहिशों का समंदर है
इन तमन्नाओं को अब... हलाल तो कर


35.    अपने खयालात को बदलना चाहता हूं..
इन पेंचीदा हालात को बदलना चाहता हूं..
जो लिख रख्खे हैं मैंने अपनी जिंदगी के पन्नों पर..
उन अनसुलझे सवालात को बदलना चाहता हूं.


36.    आंखें बंद करवाकर, दिए जलाते हैं..
अजब चलन हैं तेरे शहर में रोशनी दिखाने का
ठोकरे लगती हैं तो कहते हो की संभलकर चलो
बड़ा ही नायाब तरीका है लोगों को आजमाने का


37.    जब भी चुनाव आते हैं, वो महफिले सजा लेते हैं
मेरे देश को कटोरा और जनता को निवाला बना लेते हैं
हारने वाले कुछ पल के लिए खामोश रह जाते हैं
जीतने वाले दीवाली मना लेते हैं
ये मेला हर पांच वर्ष में लगता है
इन पांच सालों में वो हराने और जीतने की योजना बना लेते हैं


38.    कलम को खरीदने की कोशिश हो रही है
पत्रकारिता में भी नुमाईश हो रही है
किसके साथ कौन है, ये अन्दर की बात है
हम सही हैं..बस..यही दिखाने की आजमाईश हो रही है

 


39.    हसरत-ए-दिल के लिए सौदा-ए-ईमान भी कर सकता है
आखिर इंसान है....हर हद से गुजर सकता है


40.    हर तरफ हादसों का मंजर है
हर किसी के पास भावनाओं का खंजर है
लोग अपने हितों के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं
हर एक दिल में स्वार्थ का समंदर है
कविता---- सवाल जिंदगी के
जिंदगी हर वक्त कई सवाल पूंछती है
जिसे तूने चाहा वो तेरा क्यों न हुआ
कहीं तेरी चाहत मैं कोई कमी तो न थी
तुझे यकीं है कि तूने उसके दिल को छुआ
कहीं तू गफलत में तो नहीं जी रहा है
क्या वाकई में....तूने कभी दुआओं में उसे मांगा था
तेरी उदासियों में क्या उसी की यादें थीं
तेरे आंसुओं में क्या उसी की चाहत थी
या खुदा....जिंदगी के इन सवालों का जवाब कौन दे
मोहब्बत के बही खातों का हिसाब कौन दे
कुछ पन्ने तो वैसे भी फट चुके हैं
आशिकी की ये अधूरी किताब कौन दे

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खुद के लिये
बड़ी मुश्किल से तन्हा जीने का हुनर सीखा है
बड़ी मुश्किल से खुद से मोहब्बत की है
यूं तो कई बार मांगी है इन होठों ने दुआ
पर पहली बार खुद के लिये इबादत की है
अब.. न किसी के रूठने का डर है
न किसी के दिल दुखाने का
आज मेरे दिल ने खुद की बात की है
ये जमाने तू फ्रिकमंद न हो
अब तुझसे कोई शिकवा नहीं
आज खुद से खुद की शिकायत की है
अब तक बे-वजहा तड़पता रहा ये दिल....पर अब नहीं
आज हमने खुद से मुलाकात की है


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खुद के हो गये

जब से हम खुद के हो गये
दुनिया की नजर में दोगले हो गये
औरों के लिये किया तो अच्छे कहलाये
खुद के लिये सोचा तो स्वार्थी हो गये
जब औरों को दिया तो दानवीर कहा गया
खुद के लिये किया तो मतलबी हो गये
अजीब कशमकश रही रिश्तों के दौर में
कोई हमारा न रहा, अब तो हम खुद के हो गये
बुरा लगता है अपनो को तो लग जाये यारों
भूल के जमाने को,,,,अब हम खुद में खो गये...
खुद के लिये जियो तो बड़ा मजा आता है
न कोई पास रहता है...न कोई दूर जाता है

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है हिम्मत
है हिम्मत....तो सच कह लेता हूं..
है हिम्मत...तो सब सह लेता हूं..
है हिम्मत...तो तेवरों में बगावत है..
है हिम्मत...तो दुश्मनों संग रह लेता हूं..
है हिम्मत...तो जज्बा बरकरार है
है हिम्मत...तो कलम ही तलवार है..
है हिम्मत...तो सर झुकता नहीं..
है हिम्मत...तो शब्दों में धार है
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आजमा के बैठे हैं
कसम खुदा की हम आजमा के बैठे हैं
वो अंधे नहीं हैं जो चश्मा लगा के बैठे हैं
जानबूझकर करते हैं दिलों को अनदेखा
न जाने कितनों को वो ठोकर लगा के बैठे है
आसां नहीं है राहे मोहब्बत यारों
हजारों मुसाफिर हैं जो सब कुछ लुटा के बैठे हैं
हम भी मशहूर थे किसी जमाने में
क्या करें इश्क में हस्ती मिटा के बैठे हैं
वो जो दुत्कारता रहा कदम-कदम पे हमे
कमबख्त उसी की याद में दिल जला के बैठे हैं
ता उम्र जूझते रहे किनारे तक आने मैं
आखिर में कश्ती डुबा के बैठे हैं
प्रमोद कुमार ’सतीश’



प्रमोद कुमार ‘सतीश’
109/1 तालपुरा झांसी, उत्तर प्रदेश

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रचनाकार: प्रमोद कुमार 'सतीश' की कविताएँ
प्रमोद कुमार 'सतीश' की कविताएँ
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