ज्ञान विज्ञान - हमने रोबाट्‌स के बारे में कैसे सीखा

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हमने रोबाट्‌स के बारे में कैसे सीखा   आइसक एसिमोव हिन्दी अनुवाद : अरविन्द गुप्ता इस पुस्तक में आइजक एसिमोव रोबाट्‌स के विकास के इतिहास पर...

हमने रोबाट्‌स के बारे में कैसे सीखा

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आइसक एसिमोव

हिन्दी अनुवाद :

अरविन्द गुप्ता

इस पुस्तक में आइजक एसिमोव रोबाट्‌स के विकास के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। किस प्रकार स्वचलित घड़ियों और औटोमैटिक खिलौनों) कम्पयूटर्स और माइक्रोचिप्स ने रोबोट्‌स की कार्यक्षमता में अद्‌भुत बढ़ौत्तरी की है। विज्ञान कहानियों ने वैज्ञानिकों और इंजिनियरों को कल्पना को उड़ान दी। इससे वो उच्च कोटि के रोबोट्‌स निर्माण कर पाए।

आज फैक्ट्रियों और कारखानों में हजारों-लाखों रोबोट्‌स काम कर रहे हैं। क्या कभी उनका उपयोग गेंहू और मक्का की कटाई के लिए भी होगा? एसिमोव उन समस्याओं का भी उल्लेख करते हैं जिनका हल अभी खोजना बाकी है। रोबोट्‌स द्वारा विस्थापित लोगों पर इस नई तकनीक का क्या असर होगा?

उनके अनुसार ' रोबोट्‌स के बिना हम क्या करेंगे?' लोग कभी इस तरह से अचरज करेंगे।

1. किंवदंतियां

रोबोट्‌स के बारे में जब हम सोचते हैं तो हमारे जहन में इंसानों जैसे दिखने वाले चमकीली धातु की बनी किसी मशीन की छवि उभरती है। हम सोचते हैं कि रोबाट मनुष्य जैसे ही काम करेगा। संक्षिप्त में हम रोबोट्‌स को यांत्रिक पुरुष और महिला समझते हैं।

इस प्रकार के रोबोट अभी नहीं हैं, पर शायद बहुत जल्दी आ जाएंगे। सरल रोबोट जो मनुष्य जैसे नहीं दिखते वर्तमान में कार्यरत हैं।

' रोबोट ' शब्द का इजाद आधी शताब्दी पहले हुआ। पर इंसान तो हजारों साल पहले से ही मिट्‌टी की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाकर रोबोट्‌स का सपना संजो रहे थे। कभी-कभी वे गुफाओं की दीवारों पर लोगों के चित्र बनाते या फिर पत्थर अथवा लकड़ी से उनकी मूर्तियां तराशते थे। यह सब चीजें अनेक कारणों से की गई होगी धार्मिक) चित्रकारी या सिर्फ आनंद के लिए।

कछ लोगों ने सोचा कि इसी प्रकार मनुष्य की उत्पत्ति भी हुई होगी। भगवान ने मिट्‌टी के बुत बनाए होंग और फिर किसी दैवीय शक्ति ने उनमें प्राण फूंक कर मनुष्य बनाए होंगे। एक यूनानी मिथक के अनुसार भगवान प्रोमीथियस मिट्‌टी के छोटे बुत बनाकर उनमें प्राण डालते थे

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होमर ने ई पू 800 में लिखे अपने महाकाव्य ' इलियाड ' में हीफिसत्‌स - यूनानी के अग्नि देवता की कहानी बयां किया है। हीफिसत्‌स सोने से युवतियां बनाते थे। यह सुनहरी महिलाएं चल फिर सकती थीं) बोलती) सोचती थीं और हीफिसत्‌स के काम में सहायता भी करती थीं। रोबोट्‌स का उल्लेख करने वाली शायद दुनिया की यह पहली कहानी होगी।

एक अन्य यूनानी प्रेमकथा में पिगमेलियन नाम का शिल्पी एक सुंदर महिला की मूर्ति बनाता है। उसे वो मूर्ति इतनी पसंद आती है कि वो एफरोडायटी (प्रेम के यूनानी देवता) से मूर्ति में प्राण डालने की प्रार्थना करता है। एफरोडायटी उसकी बात मानते हैं और मूर्ति एक जीवित महिला बन जाती है और पिगमेलियन उससे शादी कर एक खुशहाल जीवन व्यतीत करता है।n

जादू-टोने द्वारा मनुष्य के जन्म की किंवदंतियां शताब्दियों से चली आ रही हैं। इसमें एक किस्सा 15०० के आसपास प्राहा चेकोस्लोवाकिया में यहूदी पादरी लिओ है। उन्होंने मिट्‌टी एक बहुत बड़ा पुतला बनाया और फिर कछ दैवीय शक्तियों से उसमें जान डाली। इस पुतले का नाम था ' गोलेम '। पुतला बहुत शक्तिशाली था और उसका काम प्राहा के यहूदियों की सुरक्षा करना था। पर पुतले की असीम ताकत ने उसे खतरनाक बना दिया और अंत में पादरी को उसे नष्ट करना पड़ा।

जादू-टोने या दैवीय शक्तियों से ' जीवन ' के सृजन के सभी कहानी-किस्से झूठे और मनगढंत हैं। क्या कोई ऐसा तरीका होगा जिसमें प्राकृतिक तौर-तरीकों को और विज्ञान की सहायता से कृत्रिम लोगों का निर्माण किया जा सके?

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होशियार इंजीनियर बहुत पहले से मनुष्यों जैसा कार्य करने वाली स्वचलित मशीनों के निर्माण करने में लगे थे। यह बात वर्तमान विज्ञान के विकसित होने से कई शताब्दी पहले की है। उदाहरण के लिए 5० ई में एलिग्जैंड्रिया मिस्त्र में) हीरो नाम का एक इंजीनियर रहता था। उसने भाप) कष्ट-हवा और पानी की तेज धार (जेट) से चलने वाली कई मशीनें बनाईं। इन उपकरणों से चीजें स्वचलित बन जाती थीं। इस प्रकार के उपकरणों को ' ऑटोमेटोन ' कहते हैं (ग्रीक में उसका अर्थ ' स्वचलित ' होता है)।

हीरो ने एक नायाब उपकरण बनाया। उसमें सिक्का डालते ही एक पानी का फव्वारा बाहर निकलता था। हीरो अपनी जुगाड़ों से) बिना छुए दरवाजे खोल सकता था और मूर्तियों को अपने स्थान से हटा सकता था।n

हीरो की जुगाएं लोगों को अच्छी लगतीं और वो मनोरंजन भी करतीं थीं। पर दरअसल में उनकी बनावट अच्छी नहीं थी और गंवार लोगों को ही उनमें मजा आता था।

प्राचीन काल का सबसे बढ़िया और उपयोगी यंत्र स्वचलित घड़ियां थीं।

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ऐसी घड़ी का आविष्कार एलिग्जैंड्रिया में तेहेसिवीयस ने 25० ई. पू में हुआ। इसमें पानी एक स्थिर) नियमित गति से किसी पात्र में गिरता था। जैसे-जैसे पात्र में पानी का स्तर बढ़ता वो एक हल्के तैरने वाली वस्तु को ऊपर उठाता। इस वस्तु से एक कांटा जुड़ा होता था जो पात्र में बाहर छपे अंकों की ओर इंगित करता था। अंक पढ़कर आप घंटे का अनुमान लगा सकते थे।

इस जटिल सही समय दिखाने वाली ' जल-घडो ' को बनाना एक मुश्किल काम था। परन्तु लोगों ने इसे बखूबी बनाया। कई शताब्दियों तक ये जल-घडिया दुनिया की सबसे बढ़िया घड़ियां थीं। प्राकृतिक चीजों से क्या-क्या बनाना सम्भव है यह घड़ियां उसकी यह बढ़िया मिसाल थीं।

वैसे पानी के उपयोग में परेशानियां थीं। पानी सूख जाता था) इधर-उधर छलकता था और फिर हर जगह पानी जल्दी से मिलता भी नहीं था।

इसी वजह से मध्य युग में एक बिना-पानी की यांत्रिक घड़ी का इजाद हुआ। इसमें पानी की बजाए गुरुत्वाकर्षण से वजन नीचे आते और उनसे एक छोटा पहिया धीरे- धीरे घूमता। इस पहिए में गेयर लगे होते जिनसे वो घूमते समय ' टिक-टॉक ' की आवाज करता। जैसे-जैसे पहिया चलता उससे लगी हुई एक सुई भी घूमती और घंटों को इंगित करती।

बिना-पानी की इन घड़ियों को बिल्कुल देख-रेख की जरूरत नहीं पड़ती थी। बस कभी-कभार हैंडल घुमाकर वजनों को ऊपर उठाना पड़ता था। पर इन वजन वाली घड़ियों के साथ एक बड़ी दिक्कत थी - वे सही समय नहीं दिखाती थीं।

वैसे वो जल-घडियों जितनी ही शुद्ध थीं) परन्तु दोनों प्रकार की घड़ियां 15 -मिनट के आसपास ही सही समय बता पाती थीं।

1656 में एक डच वैज्ञानिक किञ्चियन हौयजेन्स ( 1629 - 1695) ने घड़ी में पेन्डुलम ( लोलक) के इस्तेमाल की विधि खोजी। इसमें पेन्डुलम का आगे-पीछे का दोलन एक लयबद्ध तरीके से होता है। पेन्डुलम के हरेक दोलन में घड़ी में लगे पहिए और गेयर एक निश्चित मात्रा में घूमते हैं। इससे घड़ी के डॉयल पर लगे कांटों को नियमित गति से घुमाया जा सकता है।

' पेन्डुलम-घडी ' के आविष्कार के बाद समय को ' मिनट ' की शुद्धता से बताया जा सकता था। कई बार समय को ' सेकंड ' की शुद्धता तक से बताया जा सकता

था। इनके कारण 1656 के बाद से विज्ञान की प्रगति पहले के मुकाबले बहुत तेज गति से होने लगी। अब वैज्ञानिकों के पास अधिक ' शुद्धता ' वाली घड़ियां थीं जिनका उपयोग वो वैज्ञानिक प्रयोगों और शोध में कर सकते थे।

छोटी घड़ियों में अब वजनों और पेन्डुलम की बजाए स्प्रिंग लगने लगीं।

विशेषज्ञ कारीगर घड़ियां में सूक्ष्म छोटे पहिए) गेयर और लीवर लगाने में सिद्धहस्त हो गए। वो अब अच्छे ' घड़ीसाज ' बन गए थे।

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अगर घड़ियां स्वत : चल कर सही समय बताती थीं। क्या उनके पुर्जों को अलग उग से समायोजित करके स्वचलित मशीनें भी बनाना सम्भव होगा? क्या घड़ी के पुर्जों को गोल घूमते कांटे से जोड़ने की बजाए उसे एक गुड़िया से जोड़ा जा सकता था जिससे कि गुड़िया के हाथ ऊपर उठें और गिरें यह बिल्कुल सम्भव था। 167० के बाद से कुशल कारीगरों ने घड़ियों पर आधारित स्वचलित खिलौने बनाना शुरू किए। फ्रांस के राजा) लुई- 14 ने अपने बेटे के लिए सैनिका की लिबास में खिलौने बनवाए जो स्वत : लेफ्ट-राईट करते थे। एक भारतीय राजा - जो उस काल में अंग्रेजों से लड् रहा था ने एक छह-फीट ऊंचा यांत्रिक बाघ बनवाया जो अंग्रेज सिपाही के खिलौने को देखकर तुरन्त उस पर कूदता था!n

इस प्रकार के खिलौने बनाने में सबसे दक्ष था जैकिस द वोकानसोने ( 17०9 - 1782)। 1738 में उसने तांबे की एक यांत्रिक बत्तख बनाई। यह बत्तख आवाज करती) नहाती) पानी पीती और अपनी गर्दन सीधी करके दाने खाती थी। वोकानसोने इस खिलौने से धन कमाना चाहता था और इसमें वो सफल भी हुआ। उसने तीन साल तक एक कार्यक्रम किया जिसमें लोग शो देखने के लिए टिकट खरीदते थे। फिर उसने अपने आविष्कार को किसी को बेंच दिया जो यूरोप में उसकी प्रदर्शनी लगाता रहा। वोकानसोने ने एक वाद्ययंत्र - मैनडोलिन का भी इजाद किया जिसमें संगीतकार वाद्ययंत्र बजाते हुए अपने पैर भी थपथपाता था।

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1774 में पियरे जैके द्रोज ने एक लिखने वाला यांत्रिक खिलौना बनाया। उसका आकार पेन पकड़े लड़के का था। लड़का स्याही की दवात में पेन को डुबोकर पत्र लिखता था। यह यांत्रिक खिलौना आज भी एक स्विज म्यूइजयम में सुरक्षित रखा है।

पर भव्य दिखने वाले यह सभी यांत्रिक जुगाएं दरअसल में सिर्फ खिलौने ही थे। ये यांत्रिक खिलौने सोलहवीं शताब्दी में हीरो की मशीनों जैसे ही थे) पर उनसे कुछ अधिक उन्नत थे। यांत्रिक खिलौन एक सुनिश्चित कार्य को बस बार-बार दोहराते थे। जिस प्रकार घड़ी के कांटे डॉयल पर केवल गोल-गोल घूमते हैं उसी प्रकार पत्र लिखने वाला लड़का भी पत्र लिखने की गतिविधि को बस बार-बार दोहराता था।

पर इस प्रकार के यांत्रिक खिलौनों ने लोगों की कल्पना को उड़ान दी। इससे लोग यांत्रिक खिलौनों से परे कृत्रिम जीवन के बारे में सोचने लगे। और जब लोग

किसी विषय पर गम्भीरता से सोच-विचार करते हैं - तो फिर उस दिशा में उनका कुछ ठोस करने का मन करता है।

2. विज्ञान कहानियां

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1771 में इतावली वैज्ञानिक लुईगी गैलवानी ( 1737 - 1798) ने एक चौंका देने वाली खोज की। वो प्रयोगशाला में मेंढक की माँसपेशियों पर प्रयोग कर रहे थे।

उनके पास एक विद्युत उपकरण भी था जिससे उन दिनों वैज्ञानिक कई प्रयोग कर रहे थे। इस उपकरण के उपयोग से लोग बिजली की चिंगारियां सार्क) पैदा कर सकते थे।

इत्तिफाक से एक ऐसा स्पार्क मृत मेंढक की माँसपेशी से छुआ और वो माँसपेशी ऐसे फड़की जैसे उसमें जान हो। प्रयोग में गैलवानी विद्युत मशीन के चलते समय धातु से मेंढक की माँसपेशी को छूते और वो फडकने लगती। गैलवानी की रपट ने पूरे यूरोप में तहलका मचाया और चर्चा का विषय बनी।

उस समय विद्युत) विज्ञान के लिए एक नया विषय था और लोगों को विद्युत में एक ' रहस्यमय-जीवन ' की झलकी दिखी। ( आज हमें पता है कि विद्युत धारा नर्वस से गुजर कर माँसपेशियों को सिकोड़ती है। पर जीवन में इसके अलावा और बहुत कुछ भी है)।

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1816 में दो प्रसिद्ध अंग्रेज कवि जार्ज गार्डन नीओल बायरन १७७८-१८२४ और परसी शैली १७९२-१८२२ स्विटजरलैन्ड में रह रहे थे। एक शाम उनके साथ बायरन के डाक्टर और और शैली की वर्षीय मित्र मेरी वौलस्टोनक्राफ्ट १७९७-१८५१ थीं। मेरी का बाद में शैली से विवाह हुआ। उनकी चर्चा उस काल के वैज्ञानिक शोधों खासकर गैलवानी के प्रयोगों पर केंद्रित थीं। उन्होंने इन अजीबो-गरीब घटनाओं पर कहानियां लिखने की ठानी।

बायरन और शैली कुछ खास नहीं लिख पाए। डाक्टर ने एक कहानी अवश्य लिखी पर वो किसी काम की नहीं थी। पर 1818 में, मेरी शैली ने उस दिन की

चर्चा पर आधारित एक पुस्तक प्रकाशित की। उस समय उनकी उम्र मात्र 21 साल की थी। यह पुस्तक अत्यंत सफल हुई। सच तो यह है कि वो किताब आज भी बहुत लोकप्रिय है। इस पुस्तक का नाम था ' फ्रैंकिस्टीन '।

मेरी शैली की पुस्तक का सार था कि विज्ञान जीवन की रहस्यमयी गुत्थी को सुलझाने की कगार पर था। पुस्तक का विज्ञान-हीरो विक्टर फ्रैंकिस्टीन एक मृत देह में जान फूकता है। ( यह कैसे होता है) उसका पुस्तक में उल्लेख नहीं है)। उसका शरीर विशाल) कुरूप और बदसूरत था और उसे ' दानव ' नाम से बुलाया जाता है। पुस्तक का उपर्शीषक है - द न्यू प्रौमीथियस। पुस्तक में फ्रैंकिस्टीन की तुलना मनुष्य को रचने वाले यूनानी देवता प्रौमीथियस से की गई है। प्रौमीथियस अपनी रचनाओं की बहुत देखभाल करता था और उनके लिए तमाम कठिनाईयां झेलता था। पर फ्रैंकिस्टीन खुद अपने रचे दानव से इतना भयभीत हुआ कि उसने उसे त्याग दिया। दानव पर किसी ने प्रम नहीं जताया इसलिए अंतत : उसने परेशान होकर फ्रैंकिस्टीन और उसके परिवार पर खूनी हमला किया।

यह कहानी पिगमेलियन और मूइर्त जैसी सुखद कहानी नहीं है। फ्रैंकिस्टीन ने अपने पाठकों को यह संदेश दिया - कि कृत्रिम जीवन रचना एक भयावय और खतरनाक काम है।

बहुत से लाग फ्रैंकिस्टीन को पहली विज्ञान-कहानी साइस-फिक्यान मानते हैं। उस कहानी की सत्यता को उस काल में सबूतों द्वारा स्थापित करना सम्भव नहीं था क्योंकि कहानी भविष्य में किए जाने वाले वैज्ञानिक शोधों पर आधारित थी।

और यही बात एक साधारण कहानी को विज्ञान-कहानी बनाती है।

उसके सौ साल बाद भी विज्ञान कहानियां लिखी गईं। और कभी-कभी इन कहानियों में कृत्रिम जीवन भी समाहित होता था) पर उनमें कोई भी पात्र फ्रैंकिस्टीन के दानव जितना यादगार नहीं था।

फिर 192० में चेकोस्लोवाकियन लेखक कैरल चापेक ( 189० - 1938) ने एक नाटक लिखा - आर यू आर। अगले साल इस नाटक का मंचन भी हुआ।

यह नाटक एक विज्ञान-कहानी पर आधारित था। रोसम नाम का एक अंग्रेज होता है जो स्वचलित मानव पैदा करता है। वो देखने में बुल्कुल मनुष्यों जैसे लगते थे और इंसानों के लिए रोजमर्रा के काम करते थे जिससे लागों को उबाऊ और मेहनती कामों से मुक्ति मिले।

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पर असल में ऐसा नहीं होता है। जैसे पहले गोलेम और दानव खतरनाक बने उसी प्रकार यह नए यांत्रिक मानव भी खतरनाक बन जाते हैं। उनमें भावनाएं पनपती हैं) वो गुलामों की जिंदगी नहीं बसर करना चाहते हैं और अंत में वे पूरी मनुष्य जाति का खात्मा कर डालते हैं। अंत में रोसम) जो तब भी जिंदा था दो यांत्रिक मानवों - एक पुरुष) एक स्त्री को दुबारा से नई नस्ल शुरू करने के लिए भेजता है।

' रोसम ' शब्द चेक शब्द ' रोजम ' से आता है और उसका अर्थ होता है विचार या बुद्धिमानी। आर यू आर रोसम के कारखाने ' रोसम यूनिवर्सल रोबोट्‌स ' का नाम है। यह रोबोट्‌स इसलिए बने थे जिससे कि वे इंसानों द्वारा किए गए सभी कार्यों को कर सकें।

इस कारण से रोबोट शब्द अब कृत्रिम मानव का पर्याय बन गया है।

' औटोमैटोन ' शब्द की बजाए अब सर्वथा ' रोबोट ' शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा है। अब दुनिया की हर भाषा में ' रोबोट ' शब्द उपयोग होता है।

जैसे-जैसे विज्ञान का विकास हुआ ' साइस-फिक्यान ' और लोकप्रिय होती गई। 1926 में पहली बार ' एमेजिंग स्टोरीज ' का प्रकाशन हुआ। ' साइस-फिक्यान ' को समर्पित यह पहली पत्रिका थी। उसके बाद ' साइस-फिक्यान ' पर अन्य पत्रिकाएं भी शुरू हुई। दर्जनों लेखक इन नई पत्रिकाओं में लिखने लगे और हर साल सैकड़ों ' साइस-फिक्यान ' की कहानियां प्रकाशित होने लगीं।

इनमें से कई कहानियों में रोबोट्‌स का उल्लेख था परन्तु अभी भी मेरी और कारेल चापेक का प्रभुत्व था। हरेक ' साइस-फिक्यान ' की कहानी में रोबोट्‌स खतरनाक और कातिलाना हमला करते थे।

1939 में एक युवा ' साइस-फिक्यान ' लेखक आइसक एसिमोव (जन्म 192०) ने महज 19 साल की उम्र में रोबोट्‌स पर एक नए प्रकार की कहानी रची। कहानो में रोबोट बस एक मशीन थी जो एक विशेष कार्य करता थी ( वो बिल्कुल इंसानों जैसी थी - जैसे कोई नर्स हो)। उसका डिजाइन और निर्माण इस प्रकार किया गया था कि वो किसी को हानि नहीं पहुंचा सकती थी।

उसके बाद से एसिमोव ने ' एस्टाउंडिग साइस-फिक्यान ' के सम्पादक जॉन कैम्पबैल की सहायता से इस प्रकार की कहानियों की एक पूरी श्रृखंला लिखी।

रोबोट्‌स की यह कहानियां बहुत लोकप्रिय हुईं और उससे एसिमोव की प्रसिद्धी भी बड़ी।

एसिमोव ने सुरक्षित रोबोट्‌स के लिए तीन नियम गडे। इन्हें आज ' रोबोटिक्स के तीन नियमों ' के नाम से जाना जाता है। क्योंकि रोबोट्‌स पर छपी सभी पुस्तकों में अब उनका जिक्र होता है इसलिए मैं यहां उनका उल्लेख करूंगा।

1 रोबोट कभी किसी इंसान को हानि नहीं पहुंचाएगा) और न ही किसी मनुष्य को खुद स्वयं को नुकसान पहुंचाने देगा।

2 रोबोट) इंसान के उन्हीं आदेशों का पालन करेगा जो पहले नियम का उल्लंघन नहीं करेंगे।

3 रोबोट तब तक खुद की रक्षा करेगा जब तक यह सुरक्षा पहले और दूसरे नियम का उल्लंघन नहीं करती।

सबसे पहले इन नियमों का उल्लेख 1942 में छपी एसिमोव की कहानी ' रनअराउंड ' में हुआ था। वो प्रथम अवसर था जब रोबोट्‌स शब्द पहली बार छपा था। आज यह शब्द हर कोई हर जगह उपयोग करता है - रोबोट्‌स के डिजाइन) निर्माण और उनके रखरखाव में।

इन तीन नियमों से लोगों में रोबोट्‌स द्वारा जानलेवा हमले का डर सदा के लिए जाता रहा। एसिमोव ने इस डर को ' फ्रैंकिस्टीन काम्पलेक्स ' का नाम दिया है। बहुत हद तक इसने काम भी किया। एसिमोव की कहानियों ने पुरानी रीति की कहानियों को दरकिनार किया और लेखकों ने उन्हें लिखना बंद कर दिया।

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धीरे- धीरे रोबोट्‌स की एक नई छवि उभरने लगी - प्यारे और अहिंसक। इसीलिए फिल्म ' स्टारवार्स ' के दो रोबोट सी3पी० और आर2डी2 सब दूरका के प्यारे और अजीज बन गए।

पर साइंस-फिशन खुद की कल्पना को पैदा नहीं कर सकता है। रोबोट्‌स पर सैकड़ों-हजारों काल्पनिक कथाएं असल का एक

भी रोबोट पैदा नहीं कर सकीं। साइस-फिक्यान को हम एक ऐसा मिथक मान सकते हैं जो जादू-टोने की बजाए प्रकृति और विज्ञान पर आधारित है। सच्चाई यह है कि प्रकृति और विज्ञान पर आधारित मिथक वैज्ञानिकों और इंजीनियर्स को उनका साकार रूप बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

195० में एसिमोव की नौ कहानियों का एक संकलन ' आई) रोबोट ' नाम की किताब में छपा। उसकी बहुत वाहवाही हुई। बहुत से लोगों ने उसे पढ़ा।

पुस्तक को सर्वप्रथम पढ़ने वालों में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के छात्र जोजेफ ऐंजलबर्जर (जन्म 1925) थे। पुस्तक पढ़कर वो इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने अपने बाकी जीवन को रोबोट् से विकास में लगाने की प्रतिज्ञा ली। इसमें उन्हें बहुत अच्छे परिणाम भी मिले जिनका उल्लेख मैं अगले अध्याय में करूंगा।

आज जो भी लोग रोबोट्‌स के विकास में लगे हैं वे सभी किसी-न-किसी रूप में ' आई) रोबोट ' पुस्तक से प्रभावित हुए थे।

एसिमोव को इजराइल के एक रोबोट वैज्ञानिक मिले जो भी इस पुस्तक से भावित थे। उन्होंने हीलू था।

प्र हुए इस पुस्तक का अनुवाद पढ़ा एसिमोव स्वंय महज एक लेखक हैं। रोबोट्‌स किस प्रकार काम करते हैं उन्हें इस विषय में कोई रुचि नहीं है। उनकी रुचि बस रोबोट्‌स पर रोचक कहानियां लिखने में है। वैसे वो अपने इस ऐतिहासिक योगदान से काफी संतुष्ट ( और कुछ आश्चर्यचकित) भी हैं।

3. औद्योगिक रोबोट और कम्पूटर्स

विज्ञान कथाएं लिखने वाले चाहें कितने भी सपने संजोएं पर असली रोबोट्‌स सरल घड़ी के पुर्जों से नहीं बन सकते। घडो से पुर्जों से बस एक ही किया को दोहराने वाले खिलौने ही बन सकते हैं।

उपयोगी रोबोट वो होंगे जो जटिल आदेशों का पालन कर सकें। इन आदेशों को समय-समय पर अदला-बदला जा सके जिससे कि रोबोट अभी कुछ काम करे और बाद में कोई अन्य कार्य करे।

वैसे घड़ी से पुर्जों से बने यंत्रों को और जटिल बनाया जा सकता है।

1822 में एक अंग्रेज चार्ल्स बैबिज ( 1792 - 1871) ने घड़ी के पुजों से बने एक उपकरण की कल्पना की जिसमें गियर) लीवर और अन्य पुर्जे हों) जो इतना जटिल हो कि आदेश देने पर वो किसी भी प्रकार की अंकगणितीय समस्या को हल कर उसका उत्तर प्रिंट कर सके। उसने एक विशाल गणक की कल्पना की जिसे आज हम कम्पयूटर के नाम से जानते हैं।

उसने एक ऐसे कम्पयूटर की सपना देखा जो अंकों को याद कर संजो कर रख सके। यानि उसकी एक ' मेमोरी ' हो। उसका सपना ऐसे कम्पयूटर का था जो आदेश देने पर किसी भी समस्या का हल खोज सके। और इन आदेशों को कभी भी बदला जा सके। पर उसके जीवनकाल में यह सम्भव नहीं हो पाया।

कई कारणों से बैबिज की मशीनों ने काम नहीं किया। बैबिज बहुत तुनकमिजाज व्यक्ति थे और जल्दी ही धैर्य खो बैठते थे। वो हर समय नए, और नए सपने संजोते रहते और बेहतरीन से बेहतरीन कारीगरी की मांग करते। इसलिए मशीन बनने से पहले ही उनके लिए पुरानी हो जाती थी और वो पुरानी मशीनों को पूरी तरह खोलकर नई मशीनों के निर्माण में लग जाते थे। नतीजा यह हुआ कि अंत में वो कंगाल हो गए और नई मशीनें बनाने के लिए उनके पास पैसे ही नही बचे।

शायद उनकी मशीन बनी भी होती तो भी वो काम नहीं करती। मशीन में लगे पहिए) गियर) लीवर आदि पुजों का एक-दूसरे के साथ बहुत सावधानी से जुडे

होना जरूरी था नहीं तो वो काम नहीं करते) या फिर गलत काम करते। बैबिज के जमाने में सही माप के पुर्जे बनाना और उन्हें आपस में फिट करना बहुत मुश्किल

काम था। और इतने सारे पुजों का एक साथ जोड़ने से मशीन इतनी भारी हो जाती कि शायद उसे कैन्क करना बहुत मुश्किल होता।

इस वजह से बैबिज की मशीन को लोग पूरे सौ साल के लिए भूल गए।

पर समय बीतने के साथ-साथ सरल जोड़ लगाने वाली मशीनें बनने लगीं।

अगर कोई सही अंकों के बटन दबाता और उसके बाद में लीवर को खींचता तो उसे सही उत्तर मिल जाता। इन मशीनों के बहुत सरल सवालों का उत्तर ही मिल पाता था। यह मशीनें बहुत सरल थीं और बैबिज ने जिस जटिल कम्पयूटर की कल्पना की थी वे उसके कहीं आसपास भी नहीं आती थीं।

फिर विद्युत का उपयोग प्रारम्भ हुआ। विद्युत के करंट को घड़ी के पुर्जों की अपेक्षा कहीं आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है। बिजली के करंट को बहुत तेजी से बहाया या रोका जा सकता है। विद्युत धारा के बहाव से ' स्विचों ' को खोला-बंद किया जा सकता था। विद्युत धारा मशीन के पुर्जों के काम को बहुत आसानी और जल्दी से कर सकती थी।

188० में एक अमरीकी आविष्कारक हरमन हौलिरिय ( 186० - 1929) ने अमरीकी सरकार के सेनस्ज (सर्वे) द्वारा जनित विशाल आंकडो को आयोजित करने की योजना बनाई। उसने कड़क कार्ड लिए जिनमें ढेरों छेद पंच किए जा सकें।

प्रत्येक छेद किसी एक विशेष जानकारी का प्रतीक था। विद्युत इन छेदों में से गुजर सकती थी परन्तु कार्ड में से नहीं। कार्ड के छेदों में से गुजरती विद्युत, छेदों की स्थिति और नमूनों के हिसाब से जानकारी (डेटा) एकत्रित करके समस्याओं का हल निकालती थी।

हौलिरिय ने अपनी मशीनों पर और संशोधन कर उन्हें और सटीक बनाया।

1896 में उसने द टैव्यूलेटिंग मशीन कम्पनी स्थापित की। कम्पनी का बहुत विकास हुआ और अंत में वो इंटरनैशनल बिजनिस मशीन्स कारपोरेशन ( आईबीएम) के नाम से जगप्रसिद्ध हुई। आज आईबीएम विश्व की सबसे बड़ी कम्पयूटर कम्पनी है।

वैसे रोबोट्‌स के लिए विद्युत भी ज्यादा तेज नहीं थी। स्विच और कार्ड के जरिए विद्युत करंट को तेजी से बहाया और बंद नहीं किया जा सकता था।

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पर जब विद्युत करंट को वैक्यूम से बहाया जाता है तो वो इलेक्ट्रान के सूक्ष्म कणों के सम्पर्क में आती है। 19०4 में ब्रिटिश इंजोनियर जॉन एखोस फ्लेमिग ने विद्युत करंट को कांच के निर्वात बर्तन में बहाया और दिखाया कि इस धारा को विद्युत करंट की अपेक्षा बहुत आसानी और बारीकी से नियंत्रित किया जा सकता था।

अमेरिका में इस प्रकार के पात्र को ट्‌यूब का नाम दिया गया। यह पहली ' इलेक्ट्रानिक-डिवाइस ' थी। इन ट्‌यूष्ण पर बहुत शोध हुआ और जल्द ही वो अनेक आकार-प्रकार में बनने लगे।

क्या गणना करने वाली ' कैलक्यूलेटिंग-मशीनें ' भी विद्युत नियंत्रण करने वाली इन ट्‌यूष्ण से बन सकती थीं? एक अमरीकी इंजीनियर वैनावर बुश ( 189० - 1974) को ऐसा करना सम्भव लगा।

उसे बैबिज की ' कैलक्यूलेटिंग-मशीन ' की याद आई और 1925 में उसने बैबिज की कल्पना पर आधारित एक मशीन बनाई। बुश को सफलता इसलिए भी मिली क्योंकि बैबिज के बाद के सौ बरसों में मशीनों के छोटे और सही पुर्जे बनाने में बहुत में तरक्की हुई थी। दूसरे की मशीन को अब हाथ से घुमाने की जरूरत नहीं थी। वो विद्युत पर चलती थी।

बुश की मशीन में ' मेमोरी ' थी। मशीन को जटिल आदेश दिए जा सकते थे यानि उसे प्रोग्राम किया जा सकता था और प्रोग्राम को कभी भी बदला जा सकता था। यह पहला वाकई में चलने वाला कम्पयूटर था।

अब कम्पयूटरों का तेजी से विकास होने लगा। अलग- अलग प्रोग्राम्स को अब कम्पयूटर की मेमोरी में स्टोर (संचित) करना सम्भव हो गया। एक बटन दबाने भर से मशीन एक प्रोग्राम दूसरे प्रोग्राम में आसानी से बदल जाती थी।

1951 में मौचली और इकार्ट ने एक संशाधित इलेक्ट्रानिक कम्पयूटर - यूनिवर्सिल ऑटोमैटक कम्पयूटर यानि ' यूनिवैक ' का इजाद किया। यह व्यवसायिक रूप में बिकने वाला पहला कम्पयूटर था।

1954 में अमरीकी इंजीनियर जार्ज डेवाल जूनियर को कम्पयूटर प्रोग्राम्ड रोबोट का पहला पेटेन्ट मिला। उसने उसे ' यूनिवर्सल ऑटोमेशन ' या संक्षिप्त में ' यूनिमेशन ' का नाम दिया।

1956 में एंजेलबर्जर ओर डेवाल एक पार्टी में मिले और फिर दोनों ने मिलकर यूनिमेशन कम्पनी की स्थापना की। इसमें डेवल रोबोट डिजाइन का काम देखता और एंजेलबर्जर उनको बेंचने का काम देखता था।

शुरू में मनुष्य जैसे दिखने वाले और एसिमोव की कल्पना के अनुसार सभी प्रकार के कार्य करने वाले रोबोट्‌स को बनाना सम्भव नहीं था। सरल रोबोट बनाने से ही कार्य शुरू किया जा सकता था - यांत्रिक मानव न बनाकर सिर्फ यांत्रिक हाथ बनाना। अगर यह यांत्रिक हाथ कुछ जटिल कार्य कर सकते तो उनको कारखानों में एसेम्बली लाइन्स में काम करने के लिए लगाया जा सकता था।

एसेम्बली लाइन्स में मजदूर अपने निश्चित स्थानों पर खडे होते हैं और उनके सामने से कोई ' उपकरण ' जाता है। हरेक मजदूर कोई विशेष काम करता है। वो उस उपकरण का - बोल्ट कसता है) या उसमें पॉलिश या छेद करता है। क्योंकि हरेक मजदूर बार-बार एक ही काम करता है इसलिए उस कार्य के लिए रोबोट का

उपयोग भी सम्भव था। रोबोट उस कार्य को बिना थके) बिना ऊबे बखूबी और बहुत ईमानदारी से कर सकता था। इससे अब मजदूर बार-बार वही उबाऊ काम करने को बजाए कोई और सोचने वाला और सृजनात्मक काम कर पाएगा।

इस प्रकार का रोबोट ' औद्योगिक रोबोट ' कहलाता है क्योंकि उसका काम कारखानों में होता है। एंजेलबर्जर और डेवोल ने सर्वप्रथम इसी प्रकार के रोबोट को बनाने का काम शुरू किया था।

यूनीमेशन द्वारा बनाए रोबोट्‌स काम करते थे) परन्तु बहुत मंहगे होने के कारण वो ज्यादा बिके नहीं। कम्पयूटर अच्छे थे परन्तु वो इतने बडे और इतनी ज्यादा ऊर्जा खाने वाले थे कि उनके द्वारा नियंत्रित मंहगे रोबोट्‌स कोई खरीद नहीं पाता था और न ही उन्हें रखने के लिए स्थान था।

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पर एंजेलबर्जर को उम्मीद थी कि कम्पयूटर धीरे- धीरे करके छोटे और सस्ते होंगे और असल में ऐसा हुआ भी।

1948 में ' ट्रांजिस्टर ' विकसित हुआ। उसमें सिलिकान और जरमेनियम धातुओं के ठोस और सूक्ष्म हिस्से थे। उसमें कुछ और पदार्थ मिलाए जाते थे जिससे ' ट्राजिस्टर ' बिल्कुल वैक्यूम ट्‌यूब का काम करता था। ' ट्रांजिस्टर ' को ' सॉलिड-स्टेट ' डिवाइस बुलाते हैं ।

वैक्यूम ट्‌यूब कांच का बना होता है और बहुत जल्दी टूट सकता है। उसके अंदर निर्वात ( वैक्यूम) में हवा लीक हो सकती है। उसे गर्म होने में काफी समय और ऊर्जा व्यय होती है। दूसरी ओर ' ट्रांजिस्टर ' बहुत छोटे) अटूट होते हैं। वो लीक नहीं करते। कार्य करने में वे बहुत कम ऊर्जा खाते हैं।

पहले-पहल तो ' ट्रांजिस्टर ' कभी काम करते) कभी नहीं) उन्हें बनाना भी मुश्किल और मंहगा था। पर वैज्ञानिकों ने धीरे- धीरे करके उनके उत्पादन में बहुत तरक्की की। धीरे- धीरे ' ट्रांजिस्टर ' छोटे) सस्ते और काम में विश्वसनीय बनते गए। 196० में इंजीनियर्स कम्पयूटरों में ट्‌यूष्ण की बजाए ' ट्रांजिस्टर ' उपयोग करने लगे थे। उससे कम्पयूटर सस्ते और छोटे बनने लगे थे। अब वैज्ञानिक दो ट्रांजिस्टरों के बीच के जोड़ों का भी सूक्ष्म बनाना सीख गए। वो सिलिकौन चिप के छोटे) चौकोर स्लाइस से शुरू करके उसकी सतह को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटते जो सर्किट जैसा व्यवहार करते।

इन्हें इतना सूक्ष्म बनाना सम्भव हुआ कि 197० में लोग माइक्रो-चिप्स की बात कर रहे थे। अब इनियैक जैसे कम्पयूटर को एक छोटे चिप पर उतारना सम्भव हो गया। कम्पयूटरों की कीमतें गिरने लगीं। अब कोट की जेब) या पर्स में फिट होने वाले कम्पयूटरों को चंद डॉलर में खरीदा जा सकता था। और यह कम्पयूटर पहले के कमरे जितने बडे कम्पयूटरों से स्पीड में कहीं तेज होते थे।

यूनिमेशन में इतने छोटे कम्पयूटरों का कोई उपयोग नहीं था। परन्तु वो जो कम्पयूटर बनाते थे वे छोटे) अच्छे और वाजिब कीमत के होते थे। 1975 तक यूनिमेशन ने रोबोट्‌स बेंचकर मुनाफा कमाना शुरू कर दिया था। उसके बाद वो और अधिक रोबोट्‌स बेंचने लगे और एंजिलबर्ग जल्द ही करोड़पति बन गया।

और भी कम्पनियों ने औद्योगिक रोबोट्‌स बनाने शुरू किए। पर उनमें यूनिमेशन अब भी सबसे महत्वपूर्ण कम्पनी है और दुनिया में उपयोग होने वाले लगभग एक-तिहाई रोबोट्‌स बनाती है।

आज दुनिया में हजारों औद्योगिक रोबोटस् हैं और उनकी संख्या रोजाना बहुत तेजी से बढ रही है। आधे से ज्यादा रोबोट्‌स जापान में हैं और यहां इस क्षेत्र में बहुत शोधकार्य हो रहा है। अमरीका अभी भी रोबोट्‌स को शक की निगाह से देखता है। इसलिए अमरीका में रोबोट्‌स का आविष्कार होने के बावजूद यह देश अभी भी दूसरे स्थान पर है।

4 भविष्य मेँ आने वाले रोबोट्स

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औद्योगिक रोबोट्‌स तो बस एक शुरुआत हैं। उनकी तुलना हम सबसे पहली बनी कार या हवाईजहाज से कर सकते हैं। अगर आपने पहली कार या हवाईजहाज के चित्र देखे हों तो आपको पता होगा कि वतमान से वो बिल्कल मेल नहीं खाती हैं।

वे छोटे, कमजोर और धीमे थे। पहले वायुयान को देखकर आज के बडे हवाईजहाज की कल्पना भी करना मुश्किल है। वर्तमान हवाईजहाज सैकड़ों लोगों को हवा की गति से तेज अतलांतिक महासागर पार करा देता है।

इसी प्रकार आज के आद्योगिक रोबोट्‌स भविष्य के रोबोट्‌स से टक्कर नहीं ले पाएंगे।

सबसे महत्वपूर्ण कार्य होगा इन रोबोट्‌स का रंग-रूप और कार्य जितना सम्भव हो उतना मनुष्यों जैसा हो। आप पूछेंगे कि रोबोट का मनुष्य से मिलता-जुलता होना

क्यों जरूरी है? अगर कम्पयूटर का एक हाथ काम को सही प्रकार अंजाम देता है तो फिर उसमें अन्य पुर्जे और हिस्से लगाने की क्या जरूरत है?

इसका एक सरल उत्तर है। मनुष्य जो भी चीजें इजाद या डिजाइन करते हैं वो उन्हें अन्य मनुष्यों की सुविधाओं के लिए ही बनाते हैं। हमारे घर, हमारा फर्नीचर, हमारे औजार सब मनुष्यों के शरीर के अनुकूल ही बने हैं। उन्हें इंसान के शरीर के अनुरूप ही मुड़ना होगा। हर औजार को इंसान के हाथ में फिट होना होगा और मनुष्य की चाल के साथ मेल खाना होगा।

अगर रोबोट्‌स मनुष्यों जैसे सभी काम कर सके - चल सके) मुड् सके तो वो मनुष्यों द्वारा बनाई दुनिया में अच्छी तरह से फिट हो जाएंगे। फिर दुनिया को रोबोट्‌स के साथ तालमेल बैठाने की कोई जरूरत नहीं होगी।

उदाहरण के लिए औद्योगिक रोबोट्‌स बहुत बडे और भीमकाय होते हैं - उनका भार 15०० -पाउंड होता है जो मनुष्य के भार का दस गुना ज्यादा है। इसलिए यह लाजिम है कि वो ज्यादा स्थान घेरेंगे। रोबोट्‌स के बडे भारी हाथ) बड़े-बड़े काम करने के लिए उपयुक्त होते हैं परन्तु वो छोटे-छोटे पुर्जों के साथ ठीक काम नहीं कर पाते हैं।

इसलिए यूनिमेशन ने ऐसे औद्योगिक रोबोट्‌स बनाए जो मनुष्यों जितने बडे या उनसे आकार में छोटे थे। कुछ का भार कम्पयूटर के साथ मिलकर सिर्फ 9० -पाउंड का था और वो बिजली के बल्ब बदलने जैसा नाजुक कार्य आसानी से कर पाते थे।

कई रोबोट्‌स के हाथों की उंगलियां ताकतवर पंजों जैसी होती हैं। वो मनुष्य की उंगलियों से बहुत अलग होती हैं। मनुष्य की पांच लम्बी उंगलियां होती हैं जिनमें दो या तीन जोड़ होते हैं। हरेक उंगली स्वतंत्र रूप से मुड् सकती है।

बहुत अच्छा हो कि हम रोबोट्‌स का ऐसा हाथ बना पाएं जो इंसान के हाथ से कहीं ताकतवर हो पर वो सभी दिशाओं में आसानी से मुड् सके। ऐसा करना आसान काम नहीं है।

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रोबोट्‌स वैसे स्थिर होते हैं और अगर वो चलते हैं तो पहियों पर फिसलते हैं। मनुष्य या और कोई जीव यह काम नहीं कर सकता है। पहियों का फायदा है - वो कम ऊर्जा खर्च किए तेजी से फिसल सकते हैं। पर उसके लिए चिकना फर्श जरूरी है। पर अगर सडक खराब हो या ऊबड़-खाबड़ हो तो रोबोट्‌स को क्या वो वहां एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा पाएंगे? ऐसी स्थिति में उनका चलना जरूरी होगा।

छह पैरों वाले उपकरण बने हैं जिनके सभी पैर स्वतंत्र रूप से चल सकते हैं। चलते समय यह उपकरण तीन पैर एक-साथ उठाता है - बाएं ओर का बीच वाला पैर और दाएं ओर के पिछले दो पैर। इस स्थिति में भी उपकरण क्योंकि तीन पैरों पर खड़ा रहता है इसलिए वो किसी भी दिशा में गिरता नहीं है। फिर वो उठाए

तीनों पैरों को रखता है और बाकी तीन पैरों को उठाता है। इसमें उसका संतुलन पूरी तरह बना रहता है।

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इसमें एक दिक्कत है। कीड़ों के छह पैर होते हैं और यह उपकरण देखने में एक विशाल कीड़ा नजर आता है। लोगों को देखने में यह अच्छा नहीं लगता है। लोग एक दो-पैर वाला रोबोट चाहते हैं जो चलते समय गिरे नहीं।

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मनुष्य जैसी इंद्रियों वाले रोबोट्‌स की क्या सम्भावना है?

उदाहरण के लिए अगर रोबोट को किसी बोल्ट पर नट कसना है तो उसे स्पष्ट निदेश देने होंगे कि वो कितनी बार नट को घुमाए जिससे वो कस कर फिट हो। दूसरे नट-बोल्ट के लिए यह निर्देश अलग होंगे। पर अच्छा हो कि रोबोट नट कसते समय उसके अवरोध को महसूस कर सके। इस स्थिति में नए आदेश की जरूरत नहीं होगी। जब कभी भी नट पर्याप्त कसेगा तो रोबोट को इसका पता चल जाएगा और वो रुक जाएगा। इसी प्रकार किसी भारी चीज को उठाते समय रोबोट उसे बस इतनी ताकत से पकड़ेगा जिससे कि वो वस्तु उठाते समय फिसले भी नहीं और मुडे या टूटे भी नहीं।

और कितना अच्छा हो अगर रोबोट चीजों को देख सके। तब अगर उसके हाथ में कोई खराब नट आएगा तो वो तुरन्त पहचान जाएगा और उसे अलग रख देगा। और अगर रोबोट सन् सके तो फिर सोने में सुहागा जैसे होगा। जब चीजें ठीक काम नहीं करती हैं तो आवाज से उनकी खराबी का पता चलता है। और अगर

रोबोट सुन सकेगा तो वो दिए गए आदेश पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर सकेगा। रोबोट की अपनी आवाज हो सकती है और वो मनुष्य द्वारा पूछे प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।

अगर हम रोबोट्‌स से बातचीत कर पाएंगे तो वे हमें होशियार लगौ और तब

शायद वो हमारे मित्र भी बन जाएं।

धीरे- धीरे इस प्रकार की प्रगति सम्भव होगी और इस तरह के रोबोट बन भी जाएंगे। दरअसल रोबोट्‌स में कुछ विशेष इंद्रियां विकसित की जा सकती हैं जो मनुष्यों में नदारद होती हैं। उदाहरण के लिए रोबोट्‌स विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्रों को महसूस कर सकें यह कुछ विशेष प्रकार के प्रकाश और आवाज को सुन सकें जिन्हें मनुष्य सामान्यत : महसूस नहीं कर पाते।

और रोबोट्‌स कारखानों में ही क्यों? अंतत : रोबोट्‌स सभी क्षेत्रों में पाए जाएंगे। आज हम चाहें जिस किसी कम्पयूटर युक्त औजार - यानि रोबोट की कल्पना करें वो हमें किसी-न-किसी क्षेत्र में अवश्य मिलेगा।

उदाहरण के लिए स्पेस-शॅटल पूर्णत : कम्पयूटराइज्ड है और उसके बिना वो चलेगी नहीं। अंतरिक्ष में तमाम उपग्रह सैटालाइट्‌स भी कम्पयूटराइज्ड हैं। शायद एक दिन हम रोबोट्‌स की मदद से चंद्रमा पर खनन कर पाएंगे और अंतरिक्ष में कुछ निर्माण कार्य कर पाएंगे।

आजकल मोटरकारों में भी कम्पयूटर लग रहे हैं और वे भी एक प्रकार से रोबोट्‌स बन रही हैं।

अब ' शो-रोबोट्‌स ' का प्रचलन बढ़ा है और अमरीका में यह बड़ा उद्योग बन गया है। ' शो-रोबोट्‌स ' सामान्यत : छोटे और सरल होते हैं। वो अपने सिर) पीठ और हाथों के कारण कुछ-कुछ मनुष्यों जैसे लगते हैं। वो पहियों पर तेजी से चलते हैं और कुछ शब्द भी बोल पाते हैं।

दरअसल यह छोटे और अच्छे खिलौने हैं। लोग इन्हें बड़ी तादाद में खरीदेंगे और उनसे खेलने के बाद लोग रोबोट्‌स से अच्छी तरह परिचित हो जाएंगे।

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-फ्रैड हैबर नाम के व्यक्ति ने आइसक रासिमोव की पुस्तक ' आई) रोबोट ' पढ़कर एक ' शो-रोबोट ' बनाया। अन्य लोगों की मदद से उसने एक तीन-फीट ऊंचा रोबोट बनाया जिसका सिर गोल था) हाथ) कंधे) कलाई और चलने वाली उंगलियां थीं। वो छोटे पैरों में लगे पहियों के जरिए कहीं भी जा सकता था। वो अपने आप कुछ नहीं करता था। उसको रिमोट कंट्रोल करना पड़ता है। इस मायने में वो सच्चा रोबोट नहीं है। उसकी आवाज उसके मालिक की आवाज होती थी जो रेडियो ट्रास्मिटर द्वारा भेजी जाती थी।

-फंड हैबर ने अपने इस उपकरण को कई प्रदर्शनियों में बड़ी सफलता के साथ दिखाया। इस उपकरण का नाम आइसक रासिमोव के नाम पर ' इसाक ' रखा गया है। यहां दोनों का एक चित्र है।

शायद असली भविष्य ' घरेलू रोबोट्‌स ' का हो। इस प्रकार के रोबोट देखने में काफी कुछ इंसानों जैसे लगौ और घर में रसोइए या फिर नौकर का काम करेंगे। वो घर आए मेहमानों के कोट उतार कर टांग सकेंगे उनके नाम बता पाएंगे और उन्हें ठंडा पेय दे पाएंगे।

एंजेलबर्जर इस प्रकार के सच्चे ' घरेलू रोबोट ' को बनाने में लगे हैं। उन्होंने जो पहला मॉडल बनाया उसे रासिमोव के सम्मान में ' इसाक ' नाम दिया।

5. रोबोट्‌स और लोग

अमरीका पूरी तेजी और ताकत से रोबोट्‌स पर शोधकार्य नहीं कर रहा है।

उसका एक कारण है बेरोजगारी।

इस विषय को हम प्रकार भी देख सकते हैं 197० तक बहुत से काम ऐसे थे जिन्हें मनुष्य ही कर सकते थे। जानवरों के वो काम असम्भव थे। तब तक जटिल मशीनें नहीं बनों थीं।

लोगों द्वारा किए जाने वाले कुछ काम वाकई में खतरनाक थे। गहरी खदानों में) ऊंची इमारतों पर निर्माण कार्य) रासायन उद्योगों में विस्फोटक काम) या फिर मौसम की विषम परिस्थितियों में काम करना लोगों के लिए उपयुक्त नहीं था।

कछ कार्य ऐसे हैं जिनमें दिमाग लगाना पड़ता है पर बहुत अधिक नहीं। कुछ लोग जीवन भर रजिस्टर भरना) साधारण पत्र लिखना) बोल्ट कसना) या इधर-उधर चीजें ले जाने का काम करते हैं। इन कार्यो को शायद कोई मशीन या जानवर न कर पाए परन्तु जो लोग यह कार्य करते हैं उन्हें बहुत कम ही दिमाग लगाने की जरूरत होती है। अगर मांसपेशियों का पर्याप्त उपयोग न किया जाए तो वे शिथिल हो जाती हैं। यही दिमाग के साथ भी होता है।

अधिकांश लोग बार-बार उसी सरल कार्य को दोहराते हैं और यह बहुत उबाऊ और दुखद हो सकता है। इस प्रकार के काम करने वाले लोगों के जीवन उबाऊ बन जाते हैं और वे मानव जीवन की अपार सम्भावनाओं को नहीं खोज पाते हैं।

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अब हमने ऐसे रोबोट बना लिए हैं जो पहले बनी सारी मशीनों से कहीं अधिक जटिल हैं। रोबोट्‌स अब उन कामों को करने की स्थिति में हैं जो पहले मनुष्य करते थे। फिर भी कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हें हमारा विलक्षण मस्तिष्क ही कर सकता है। रोबोट्‌स अन्य मशीनों की अपेक्षा बुद्धिमान हैं लेकिन फिर भी वे सरल-सरल काम ही कर सकते हैं - ऐसे कामों को जिनपर मनुष्यों को अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए।

ऐसी परिस्थिति में इन कार्यों को रोबोट्‌स क्यों न करें? और मनुष्य कुछ और बुद्धिमानी का काम क्यों न करें?

यह एक तथ्य है कि जब कभी भी कोई नया आविष्कार होता है तब कुछ नौकरियां अवश्य जाती हैं। जब मोटरकारों का इजाद हुआ तो घोड़ों से सम्बंधित तमाम रोजगार लुप्त हुए। अस्तवले कम हुईं) घोडागाडिया और चाबुक कम हुए। पर साथ-साथ नई उभरते ऑटो सेक्टर ने तमाम नए रोजगार खोले। कल्पना करें ऑटो फैक्ट्रियों) पेट्रोल पम्प) मिस्त्रियों) दुकानों) गैराज) स्पेयर-पार्ट आदि की जो इन गाड़ियों को सही-सलामत चलने में मदद करते। तेल-रिफायनरी) लम्बी सड़कों आदि ने घोडागाडियों द्वारा लुप्त रोजगारों से कई गुना नई नौकरियां पैदा कीं।

कुछ-कुछ ऐसा ही रोबोट्‌स के साथ भी होगा। एसेम्बली लाइन पर काम करने वाले तमाम मजदूरों की नौकरियां जाएंगी। पर साथ में अथाह नई नौकरियां पैदा भी होंगी। कल्पना करें उस फौज की जो रोबोट्‌स का डिजाइन) निर्माण) कल-पुर्जे बनाएगी और उनका रखरखाव करेगी। नई नौकरियां) लुप्त नौकरियों से कई गुना ज्यादा होंगी।

लुप्त नौकरियां वे होंगी जिनका कार्य बहुत उबाऊ था और जिन्हें रोबोट्‌स कर सकते हैं। और जो नई नौकरियां पैदा होंगी वे अधिक रोचक होंगी और वहां लोगों को अपना दिमाग इस्तेमाल करने का भरपूर मौका मिलेगा।

इस पूरी विचार शैली में एक खोट है। पच्चीस साल से जो मजदूर किसी एसेम्बली लाइन पर काम कर रहा है आप उसे वहां से हटाकर रोबोट्‌स डिजाइन के काम पर नहीं लगा पाएंगे। रोबोट्‌स डिजाइन करने के लिए एक विशेष प्रकार की शिक्षा और ट्रनिंग लगती है जो एसेम्बली लाइन पर काम रहे मजदूर की नहीं होगी।

अगर लोगों की नौकरियों में भारी बदलाव आएगा तो उसके लिए बडे पैमाने पर लोगों को नया प्रशिक्षण देने की जरूरत होगी। नई तकनीकों द्वारा संचालित सरल कामों के लिए भी लोगों को प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। प्रशिक्षण का काम मंहगा और कठिन होगा पर एकदम जरूरी होगा।

कछ लोग पुराने ढर्रे की नौकरियों के इतने अभ्यस्त होंगे) या फिर बूढे होंगे कि उनके लिए नया प्रशिक्षण मुश्किल होगा। ऐसे लोगों के लिए उनके अनुकूल नौकरियां खोजनी होंगी।

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पर अंत में स्थिति बदलेगी। भविष्य में बच्चे स्कूल में ही कम्पयूटर और रोबोट्‌स के बारे में पढेंगे और उनका इस्तेमाल सीखेंगे। इससे उनकी रुचि पुरानी नौकरियों में नहीं रहेगी। वे नई उच्च तकनीक वाली नौकरियां खोजेंगे। लोग उबाऊ और खतरनाक कामों को रोबोट्‌स के हवाले छोड्‌कर खुश होंगे।

वर्तमान में लोग पुरानी नौकरियों में हैं और भविष्य में लोग उच्च तकनीक वाली नौकरियां खोजेंगे। इसलिए वर्तमान और भविष्य के बीच में एक ' अंतराल ' होगा।

अमरीकी और दुनिया के लोगों को इस ' अंतराल ' में बुद्धिमानी और धैर्य से काम लेना होगा जिससे इस काल में लोगों की समस्याएं और दुख न्यूनतम हो।

हमारे सामने एक और समस्या आ सकती है।

रोबोट्‌स उसी स्थिति में जड नहीं रहेंगे। कम्पयूटर्स के विकास के साथ-साथ रोबोट्‌स और अधिक जटिल बनेंगे और मुश्किल काम करने की उनकी क्षमता भी बढ़ेगी।

क्या कुछ ऐसे कार्य होंगे जो रोबोट्‌स नहीं करेंगे? अगर रोबोट्‌स सारा काम करके लोगों की सभी नौकरियां खा जाएंगे तो फिर क्या होगा? क्या रोबोट्‌स का वर्चस्व होगा) जैसा कि नाटक आर यू आर में दिखाया गया था।

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असल में इसकी सम्भावना बहुत कम है।

क्योंकि इंसानों द्वारा किया कुछ कार्य अब रोबोट्‌स कर रहे हैं इसका मतलब यह नहीं है कि रोबोट्‌स मनुष्य जितने बुद्धिमान हैं। वे केवल कम्पयूटर के निर्देशों पर चलते हैं। और इन कम्पयूटर्स को मनुष्यों ने ही प्रोग्राम किया है।

उदाहरण के लिए कम्पयूटर गणित सम्बंधी समस्याओं के हल में बहुत दक्ष होते हैं। कम्पयूटर उन समस्याओं को बिना गलती किए इंसान से कहीं अधिक तेज गति से हल कर सकते हैं। यह इसलिए सम्भव है क्योंकि मनुष्य गणित के नियमों को अच्छी तरह समझते हैं और इन नियमों पर आधारित प्रोग्राम लिखते हैं जिससे कि कम्पयूटर क्या करे) यह उसकी समझ में आए। इन नियमों के आधार पर कम्पयूटर रोबोट्‌स को निर्देश देगा - इतना आगे बढो इतना मुडो इस कार्य को इतनी बार करो आदि।

इस प्रकार के काम में मनुष्य बहुत कुशल नहीं होते हैं। मनुष्य अंकगणित समझते हैं और उसके नियम जानते है। परन्तु बार-बार उसी गणना को करके वो ऊब जाते हैं और उनका दिमाग थक जाता है। और इस स्थिति में वे गणना करते समय तमाम गलतियां करते हैं।n

पर मनुष्य का दिमाग अन्य कामों में विलक्षण होता है। उसमें कल्पनाशक्ति होती है। वो सोच-विचार और अचरज कर सकता है। वो बुद्धिमानी से अनुमान लगा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मनुष्य बहुत सृजनशील होता है। वो चीजों को करने या समझने के अद्‌भुत तरीके खोज निकालता है। कम्पयूटर और रोबोट्‌स ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते। इन कारणों से शायद कम्पयूटर और रोबोट्‌स कभी भी मनुष्य की बुद्धिमानी को चुनौती नहीं दे पाएंगे।

मनुष्य कभी भी कम्पयूटरों को ' कल्पनाशीलता ' और ' सृजनशीलता ' के लिए प्रोग्राम नहीं कर पाएंगे क्योंकि वे स्वयं इन विषयों के बारे में बहुत कम जानते हैं।

उदाहरण के लिए मैं पुस्तकें लिखता हूं - ढेरों की तादाद में। क्योंकि मैं बहुत किताबें लिखता हूं इसलिए मैं उन्हें बहुत तेजी से लिखता हूं। मैं किसी विषय के बारे में सीखकर उसके बारे में लिखता हूं। मैं स्पष्टता से उसे समझाता हूं। मैं चीजों को उनके सही कम में समझाता हूं। और उससे मेरा काम ठीक होता है। और तेजी से लिखने के बावजूद मुझे लगता है कि मैं सही तरीके से लिख रहा हूं।

मैं यह कैसे करता हूं? पहले क्या लिखूं बाद में क्या, यह निर्णय मैं कैसे लेता हू.

सच में मुझे इसका उत्तर नहीं पता। मैं सिर्फ इतना भर कह सकता हूं। यह काम मैं कर पाता हूं और मैंने यह कार्य अपने व्यस्क जीवन में लगातार किया है।

क्या मैं कम्पयूटर को प्रोग्राम करके उसे अपने जैसे पुस्तकें लिखना सिखा सकता हूं - जिससे वो सही शब्दों और वाक्यों का चयन करें और उसके बाद एक रोबोट उसे लिख दे? यह सम्भव नहीं होगा, क्योंकि मैं किन नियमों का पालन करता हूं यह मुझे खुद नहीं पता। इसलिए मैं उन नियमों का पालन करने के लिए कम्प्यूटर को प्रोग्राम नहीं कर पाऊंगा।

शायद सभी इंसानों में इस प्रकार की विलक्षणता होती है। अगर लोगों को सही शिक्षा मिले और वो सारी जिंदगी उसी उबाऊ कार्य को करने से बचें तो हरेक इंसान में कोई ऐसी अनूठी विलक्षणता होगी जो जिसकी कोई भी कम्पयूटर या रोबोट्‌स कभी भी नकल नहीं कर पाएगा।

कल्पना करें जब धीरे- धीरे कम्प्यूटर्स और रोबोट्‌स अधिक जटिल होंगे और वे खुद के लिए सोच पाएंगे। तब वे हमारे निर्देशों के बिना खुद-ब-खुद अपनी कल्पनाशीलता विकसित कर पाएंगे - बिल्कुल उसी तरह जैसे कम्प्यूटर आर यू आर ने विकसित की थीं?

इसके बाजबूद भी वे काफी बेअसर होंगे) और इस सबके लिए इतना बड़ा कम्पयूटर का ढांचा लगेगा कि वे शायद कभी नहीं बनेंगे।

अब इसका दूसरा पक्ष देखें। हर काल में कोई ऐसा मनुष्य पैदा होता है जो ' गणितीय-जीनियस ' होता है। वो बडे विशाल अंकों का दिमागी गुणा कर सकता है और बड़ी जटिल समस्याओं का हल खोज सकता है। अक्सर उसे पता ही नहीं होता है कि वो इस विलक्षण कार्य कैसे करता है। पर सामान्य लोग जिनमें इस प्रकार की जन्मजात विलक्षणता नहीं है भी काफी अभ्यास और ट्रनिंग के बाद जटिल संख्याओं को दिमाग में गुणा करना सीख सकते हैं।

पर ऐसा क्यों करें? इससे क्या लाभ होगा? सबसे विलक्षण गणना करने वाले इंसान से बेहतर गणना साधारण कम्पयूटर कर सकता है। और अथक ट्रनिंग के बाद भी कोई इंसान गणितीय समस्याओं को कम्पयूटर जितनी दक्षता से हल नहीं कर सकता है।

दूसरी ओर मनुष्य का मस्तिष्क कल्पनाशीलता और सृजनशीलता में इतना परिपक्व है तो फिर इन क्षेत्रों में कम्पयूटर इंसान के दिमाग से क्यो स्पर्धा करें?

अच्छा यही हो कि मनुष्य बेहतर कम्पयूटर और अधिक दक्षता वाले रोबोट्‌स बनाते रहें और उन्हें प्रोग्राम कर उनकी क्षमताएं बढ़ाते रहें।

और इस बीच मनुष्यों अच्छी शिक्षा के जरिए अपनी क्षमता बढाएं और उनका

मस्तिष्क कैसे काम करता है इस पर गम्भीरता से मनन करें। हमें आम लोगों को अधिक कल्पनाशील और सृजनशील बनाने का सतत प्रयास करना चाहिए।

इस प्रकार पृथ्वी पर दो प्रकार की बौद्धिक प्रतिभाएं) बिल्कुल दो अलग प्रकार की कुशलताएं पनपेगी। दोनों एक-दूसरे की पूरक होगी।

दोनों प्रकार की यह बौद्धिक प्रतिभाएं आपस में मिलकर वो विलक्षण कार्य कर पाएंगी जो वे अकेले कभी नहीं कर पातीं। और फिर लोग अचरज करेंगे कि इतने साल उन्होंने रोबोट्‌स के बिना कैसे गुजारा किया।

समाप्त

 

(अनुमति से साभार प्रकाशित)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: ज्ञान विज्ञान - हमने रोबाट्‌स के बारे में कैसे सीखा
ज्ञान विज्ञान - हमने रोबाट्‌स के बारे में कैसे सीखा
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