ज्ञान विज्ञान : हमें अंटार्कटिका के बारे में कैसे पता चला?

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हमें अंटार्कटिका के बारे में कैसे पता चला? आइसक एसिमोव हिन्दी अनुवाद : अरविन्द गुप्ता   आइसक एसिमोव गजब के कहानीकार हैं। वो दुनिया क...

हमें अंटार्कटिका के बारे में कैसे पता चला?

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आइसक एसिमोव

हिन्दी अनुवाद :

अरविन्द गुप्ता

 

आइसक एसिमोव गजब के कहानीकार हैं। वो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साइंस-फिक्शन लेखक हैं। विज्ञान के इतिहास पर वो विश्व में चोटी के विशेषज्ञ हैं। विज्ञान के अचरजों को सरल शब्दों में समझाने का उनमें कमाल का गुर है। बच्चे और बूढे सभी उनके लेखों को चाव से पढ़ते हैं। इन लेखों में विज्ञान के तथ्यों की भरमार तो होती है परन्तु फिर भी वे अत्यन्त पठनीय होते हैं।

यूरोपीय खोजकर्ताओं ने भूमध्य-रेखा (इक्वेटर) के दक्षिण में क्या है इसे जानने की कोशिश की। एसिमोव यहां उनकी रोमांचक यात्राओं का वर्णन करते हैं जिनसे अंत में यह बात सिद्ध हुई कि दक्षिणी- ध्रुव के चारों ओर एक महाद्वीप ( कान्टिनेंट था। आप यहां अंटार्कटिका होकर दक्षिणी- ध्रुव तक पहुंचने की साहसी और बर्फीली यात्राओं के सजीव वर्णन पढ सकते हैं। हमारी दुनिया के एक अनजाने इलाके की यह एक बेहद रोचक कहानी है।

1. महाद्वीपों से होकर दक्षिण तक

ई. पू 300 तक प्राचीन यूनानियों को इतना स्पष्ट हो गया था कि पृथ्वी एक गेंद जैसी गोलाकार थी। उन्हें पता था कि उसके एक ओर उत्तरी- ध्रुव और दूसरी ओर दक्षिणी- ध्रुव था और इन दोनों ध्रुवों के बिल्कुल बीच में भूमध्य-रेखा थी।

कोई भी यूनानी कभी उन्तरी-ध्रुव या दक्षिणी-ध्रुव नहीं गया था। उनमें से कभी कोई भूमध्य-रेखा तक भी नहीं गया था। पर यूनानी विद्वानों को उनके वहां होने के बारे में अवश्य पता था।

उन्हें यह तथ्य जरूर मालूम था। क्योंकि यूनान में सूर्य हमेशा आसमान में दक्षिण दिशा में होता था इसलिए उन्हें लगा कि सारो जमीन भूमध्य-रेखा के उत्तर की ओर ही होगी।

क्या भूमध्य-रेखा के दक्षिण में जमीन हो सकती थी?

कुछ यूनानी विद्वानों को इसकी सम्भावना लगी। उन्हें यह बात काफी तार्किक लगी कि अगर भूमध्य-रेखा के उत्तर में भूमि है तो भूमध्य-रेखा के दक्षिण में भी भूमि होन की सम्भावना थी।

पर क्या भूमध्य-रेखा के दक्षिण में स्थित जमीन पर कभी जाना सम्भव होगा?

लोग जितनी अधिक दूर दक्षिण में जाते वहां उतनी ही गर्मी बढ़ती! बहुत से लोगों का मानना था कि भूमध्य-रेखा के पास इतनी अधिक गर्मी होगी कि वहां लोगों का जिंदा रह पाना मुश्किल होगा।

अगर ऐसे हालात होंगे तो पृथ्वी के दोनों भाग हमेशा अलग-अलग ही रहेंगे। उत्तर में रहने वाले लोग कभी दक्षिण में नहीं जा पाएंगे और दक्षिणवासी कभी उत्तर की यात्रा नहीं कर पाएंगे।

अब हमें पता है कि भूमध्य-रेखा के दक्षिण में भी जमीन है। हम यह भी पता है कि वहां बहुत प्राचीन काल से लोग रह रहे हैं। और यह भी सम्भव है कि मानव की उत्पत्ति भूमध्य-रेखा के दक्षिण भाग की भूमि में ही हुई हो।

यूनानियों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था और न ही उन्होंने इस विषय के बारे में जानने की कोई कोशिश की थी। वे उसके बारे में सिर्फ सोचते थे। रोमवासियों ने भी इसके बारे में कुछ जानकारी हासिल नहीं की। और मध्य-युग के यूरोपवासियों ने भी इस बारे म कुछ नहीं किया।

1420 ई तक भी कोई यूरोपीय दक्षिण में भूमध्य-रेखा तक नहीं गया था।

1400 ई तक यूरोप के लोग भारत और उसके पूर्व स्थित द्वीपों में जाने के बहुत इच्छुक थे। इन पूर्वी द्वीपों से आता थी रुई) रेशम) चीनी) मसाले और बहुत सारी अन्य चीजें जिनकी यूरोपवासियों को बेहद जरूरत थी। ये सब चीजें दूर-दराज के देशों से जमीन द्वारा ट्रांस्पोर्ट करके आती थीं। बीच में हरेक देश अपना टैक्स वसूलता था। इससे पश्चिम यूरोप पहुंचते-पहुंचते यह चीजें बहुत मंहगी हो जाती थीं।

यूरोप का सबसे पश्चिमी देश पुर्तगाल था और पूर्वी देशों से आया माल वहां सबसे ज्यादा मंहगा था। 1418 में एक पुर्तगाली राजकुमार हेनरी के दिमाग में एक विचार

कौंधा। क्यों न हम समुद्र के रास्ते से भारत जाएं? क्यों न हम अफ्रीका का चक्कर

लगाते हुए भारत जाएं?

अफ्रीका कितनी दूर था और उसका कितना विस्तार था? यह किसी को भी नहीं पता था। इसे पता करने का एक ही तरीका था - वहां पानी के जहाज भेजकर।

हेनरी ने पुर्तगाल के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर एक जहाज-केंद्र खोला। वहां से उसने जहाजों को भेजना शुरू किया। हरेक जहाज पहले की अपेक्षा अफ्रीका के तटीय किनारे पर कुछ और आगे जाता था।

हेनरी को लोग ' हेनरी-द-नैविगेटर ' के नाम से बुलाते थे। 1460 में उसका देहान्त हो गया। पर तब तक पुर्तगाली जहाज अफ्रीका तट के किनारे कई हजार किलोमीटर तक जा चुके थे। पर अब भी वो भूमध्य-रेखा से काफी दूर थे। वो उम्मीद कर रहे थे कि अफ्रीका का विस्तार भूमध्य-रेखा तक नहीं होगा और उन्हें अत्यंत गर्मी का प्रकोप नहीं सहना पड़ेगा।

कुछ समय तक तो अफ्रीकी तट ने उन्हें पूर्व की ओर सफर करने के लिए मजबूर किया पर उसके बाद वो जहाजों को फिर से दक्षिण की ओर ले जाने में सफल हुए। 1482 में पुतगाली नाविक दियोगो काओ भूमध्य-रेखा को लांघकर उसके आगे गया। ऐसा करने वाला वो पहला यूरोपीय था।

वहां उसे दो बातें पता चलीं। पहली) कि भूमध्य-रेखा पर इतनी अधिक गर्मी नहीं थी। वहां आसानी से पहुंचा जा सकता था और आगे भी जाया जा सकता था। दूसरा) भूमध्य-रेखा के दक्षिण में भी भूमि थी और अफ्रीका उसके आगे तक फैला था।

1488 में एक अन्य पुर्तगाली नाविक वार्यलोमीम् अफ्रीका के दक्षिणी कोने - केप ऑफ गुड होप तक पहुंचा। 1497 में एक अन्य पुर्तगाली नाविक अफ्रीका का चक्कर लगाते हुए भारत पहुंचा।

अफ्रीका का दक्षिण में कितनी दूर तक विस्तार था?

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उत्तर और दी क्षण की दूरी को ' डिग्रीज ऑफ लैटिट्‌यूड ' ( अक्षांश) में मापा जाता है।

भूमध्य - रेखा ' शून्य ' पर होती है और उसे ० - डिग्री लिखा जाता है। भूमध्य - रेखा और उत्तरी - ध्रुव के बीच की दूरी को 9० - समान भागों में बांटा जाता है) जिसमें

उत्तरी - ध्रुव को 9० - डिग्री उत्तर ( नार्थ या 9० - डिग्री - एन लिखा जाता है। भूमध्य - रेखा और उत्तरी - ध्रुव का म ध्य को 45 - डिग्री - एन और दो - तिहाई को 6० - डिग्री - एन लिखा जाता है।

इसी प्रकार दक्षिणी-ध्रुव ०-डिग्री-एस होगा। भूमध्य-रेखा से दक्षिणी-ध्रुव का मध्य डिग्री-एस होगा, और दो-तिहाई बिंदु ०-डिग्री-एस होगा।

अफ्रीका का दक्षिणी छोर करीब डिग्री-एस था। यह स्थान भूमध्य-रेखा और दक्षिणी-ध्रुव के बीच सिर्फ 1/3 दूरी पर था।

जब पुर्तगाली नाविक अफ्रीका के दक्षिण छोर को पार करने की कोशिश कर रहे थे तब एक इतालवी नाविक क्रिस्टोफर कोलम्बस को एक नया विचार आया। क्योंकि गोल थी इसलिए उसने पूर्व की बजाए पश्चिम की ओर जहाज से यात्रा पृथ्वी करके भारत पहुंचने की ठानी।

स्पेन ने कोलम्बस को तीन जहाज दिए और उसने 1492 में दक्षिण की ओर पलायान किया। कोलम्बस अमरीकी महाद्वीप पहुंचा पर उसे भारत पहुंचते की गलतफहमी हुई। कुछ समय बाद लोगों को लगा कि दुनिया कोलम्बस की कल्पना से बड़ी थी। अपनी यात्रा में कोलम्बस को नए-नए द्वीप और महाद्वीप मिले पर भारत वहां से बहुत दूर था।

स्पेन को यह अच्छा नहीं लगा। पुर्तगाल) भारत और अन्य एशियाई देशों के साथ बहुत व्यापार कर रहा था और स्पेन कुछ भी नहीं।

पुर्तगाली नाविक फर्डिनेन्नु मैगालेन के साथ पुर्तगाली सरकार ने अच्छा व्यवहार नहीं किया था। इसलिए मैगालेन पुर्तगाली छोड्‌कर स्पेन चला गया। उसका विचार अमरीका जाकर वहां से आगे भारत पहुंचने का

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1519 में मैगालेन ने स्पेन से अपनी यात्रा शुरू की। वो अमरीकी महाद्वीप पहुंचकर वहां से आगे भारत जाना चाहता था। यह काम आसान नहीं था क्योंकि अमरीकी महाद्वीप - उत्तर से दक्षिण तक जमीन का एक बहुत विशाल विस्तार था।

अंत में मैगालेन बहुत दूर दक्षिण की ओर सफर करने के बाद 2० अक्टूबर 152० को एक पानी की खाड़ी (स्ट्रेट) के पास पहुंचा। वो खाड़ी में घुसा। वहां बहुत आधी और तूफान थे। फिर भी उसने अपनी यात्रा जारी रखी। उससे वो अमरीकी महाद्वीप के दूसरे छोर पर निकल पाया। आज भी मैगालेन के सम्मान में उसे ' स्ट्रेट ऑफ मैगालेन '( मैगालेन की खाड़ी) के नाम से जाना जाता है।

इस खाड़ी के दूसरे छोर पर मैगालेन ने एक दूसरे महासागर में प्रवेश किया। वहां पर सूरज चमक रहा था और कोई तूफान नहीं था। मैगालेन ने उसे ' फैसेफिक ' या' शांति-महासागर ' का नाम दिया। आज हम उसे ' फैसेफिक- ओशन ' या ' प्रशांत-महासागर ' के नाम से जानते हैं।

' स्ट्रेट ऑफ मैगालेन ' लगभग 54 डिग्री-एस है। भूमध्य-रेखा से दक्षिणी- ध्रुव तक वो 375 -दूरी पर स्थित है। और ' मैगालेन की खाड़ी ' के दक्षिण में एक और बड़ा जमीन का टुकड़ा है। जब वो लोग खाडी से गुजर रहे थे तो मैगालेन के नाविकों को जमीन पर आग कैम्पफायर दिखाई दिए। इसलिए उन्होंने उसे ' टेरा डेल फ़्यूजियो ' या ' आग की जमीन ' नाम दिया।

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मैगालेन ने ' टेरा डेल फ्यूजियो ' पर कोई ध्यान नहीं दिया। वो खाड़ी से निकलकर सीधा भारत आना चाहता था। वा भारत नहीं आ पाया। मैगालेन का फिलीपीन्स द्वीप में देहान्त हो गया पर उसके साथियों ने यात्रा जारी रखी।

8 सितम्बर 1522 को मैगालिन के पांच जहाजों में से केवल एक ही स्पेन वापस लौटकर आया। जहाज में केवल 18 नाविक ही बचे थे। पानी के जहाज द्वारा दुनिया की सम्पूर्ण परिक्रमा लगाने वाले यह पहले लोग थे।

कुछ भूगोल विद्वानों को भूमध्य-रेखा के दक्षिण स्थित जमीन वाली यूनानी किंवदंतियां याद आयीं। उन्हें लगा कि अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के दक्षिण में तो भूमि होगी ही। पर यह पर्याप्त नहीं था। उन्हें लगा कि भूमध्य-रेखा के उत्तर में जितनी भूमि थी उतनी ही भूमि भूमध्य-रेखा के दक्षिण में भी होगी। उन्हें लगा कि वहां भी एशिया या उससे बडे महाद्वीप होंगे।

शायद ' टेरा डेल फ्यूजियो ' उस महाद्वीप का भाग हो? उन्होंने एक ग्लोब पर एक काल्पनिक नवा बनाया) जिसमें ' टेरा डेल फ्यूजियो ' एक बडे महाद्वीप का भाग था। 1577 के अंत में ब्रिटिश नाविक फ्रांसिस डेरक ने दक्षिणी अमरीका के ' पैसेफिक ' तट तक की यात्रा शुरू की।

स्पेन और इंग्लैण्ड के बीच उन दिनों युद्ध छिड़ा था। अब दबंग ब्रिटिश नाविक) अमरीका में स्पैनिश व्यापारियों और जहाजों को लूट कर मालामाल बन सकते थे। स्पेन ने ' एटलांटिक ' तट पर भारी पहरेदारी शुरू कर दी थी। उन्हें ' पैसेफिक ' तट सुरक्षित लगा इसलिए उन्होंने उसे वैसा ही असुरक्षित छोड़ दिया।

डक ने मैगालेन की खाड़ी को पार किया और फिर 6 सितम्बर 1578 को उसने प्रशांत-महासागर में प्रवेश किया। फिर वो एक भयंकर तूफान में फंसा जिसके कारण उसे दक्षिण की ओर मुड़ना पड़ा। उसे दक्षिण में काफी यात्रा करनी पड़ी और फिर उसे ' टेरा डेल फ्यूजियो ' दिखा - जो एक द्वीप था और उसके दक्षिण में महासागर था।

समुद्र का यह भाग अब ' इंक-पैसेज ' के नाम से जाना जाता है।

टेरा डेल फ्यूजियो द्वीप पर लोग रहते थे। बहुत से लोगों को यह नहीं पता था कि वो दक्षिणी छोर पर जमीन का आखिरी टुकड़ा था जहां लोग निवास करते थे। टेरा डेल फ्यूजियो की दक्षिणी टिप को केप-हार्न कहते हैं। वो 56 डिग्री-एस पर स्थित है।

ड्रेक ने वहां रुक कर कोई खोजबीन नहीं की। वो लुटेरा था और लूटने में उसकी रुचि थी। उसने जहाज पर भरपूर सामान लादा और फिर अमरीका के ' पैसेफिक ' तट की ओर कूच किया। प्रशांत महासागर को पार कर वो वापस इंग्लैन्ड पहुंचा। वो समुद्र के जरिए दुनिया की परिक्रमा लगाने वाला दूसरा व्यक्ति था।

2. दक्षिण स्थित अंटार्कटिका सर्किल की ओर

अब लोगों को पता चला कि टेरा डेल फ्यूजियो महाद्वीप का भाग नहीं था) फिर भी लोगों का मानना था कि दक्षिण में कोई महाद्वीप जरूर होगा। वो शायद कहीं प्रशांत महासागर में हो। मैगालेन और डेरक के कार्य के कारण 1600 तक भूगोल वैज्ञानिकों को पृथ्वी का वास्तविक आकार और माप पता चल गया था। उन्हें मालूम था कि पश्चिम में अमरीकी तट और पूर्व में एशिया और अफ्रीकी तट हैं।

एक ओर अमरीका और दूसरी ओर एशिया और अफ्रीका के बीच में एक विशाल महासागर है जिसका विस्तार आधी पृथ्वी से भी बड़ा है। लोगों को यकीन करना मुश्किल था कि इतने बडे क्षेत्र में सिर्फ पानी-ही-पानी होगा। उन्हें लगा कि इतने बडे महासागर में जरूर भूमि के कुछ अनजाने महाखंड होंगे। उसके बाद से नाविक उन्हें खोजने में जुट गए।

एशिया के दक्षिणी-पूर्व में जो द्वीप थे वो ' ईस्ट-इंडीज ' कहलाते थे। क्या वे किसी महाद्वीप का भाग थे?

16०2 में स्पैनिश नाविक लुई वाज द टोरेज ने इन द्वीपों की यात्रा की और उनके तटवर्ती इलाकों का निरीक्षण किया। ' ईस्ट-इंडीज ' के सबसे पूर्वी और बड़ा द्वीप का नाम ' न्यू-गिनी ' था।

टोरेज ने उस द्वीप की दक्षिण तटरेखा का मुआयना किया और उस इलाके को आज भी उसके सम्मान में ' टोरेज-स्ट्रेट ' के नाम से जाना जाता है। टोरेज-स्ट्रेट के

दक्षिण में स्थित एक बहुत बड़ा भूमि का टुकड़ा था जो उस समय टोरेज को दिखाई नहीं दिया।

टोरेज की यात्रा के एक साल के अंदर ही डच व्यापारियों ने ईस्ट-इंडीज पर कब्जा कर लिया था। वैसे टोरेज वो वहां भूमि नहीं दिखाई दी थी पर भूमि के बडे टुकड़े के बारे में जानकारी धीरे- धीरे डच व्यापारियों के कानों तक पहुंची।

1642 में ईस्ट-इंडीज के गवर्नर एंटोन फान डायमेन ने एविल जैन्सन टासमैन के नेतृत्व में दक्षिण की ओर एक खोजी दल भेजा।

टासमैन की तकदीर वाकई में खराब थी। वो दस महीने तक अमरीका जितने बडे भूमिखंड के चारों ओर जहाज में यात्रा करता रहा और उसे भूमि का एक टुकड़ा भी नहीं दिखा!

पर उसे महाखंड के आसपास कुछ छोटे द्वीप अवश्य मिले। महाखंड के दक्षिणी-पूर्व में उसे एक द्वीप दिखा जिसे उसने ईस्ट-इंडीज के गवर्नर के नाम पर ' फान डायमेन लैन्ड ' नाम दिया। बहुत सालों बाद खोजकर्ता टासमैन के नाम पर उसका नाम टासमानिया पड़ा।

उसके आगे दक्षिणी-पूर्व में टासमैन ने दो बडे द्वीप और खोजे जिसका नाम उसने ' जीलैन्ड ' के नाम पर ' न्यू-जीलैन्ड 'डच प्रान्त रखा।

1644 की यात्रा में टासमैन को महाखंड का उत्तरी तट जरूर दिखा। अपनी पिछली यात्रा में टासमैन इसे देखने से वंचित रह गया था। इसके अलावा और भी जानकारी थी जिसके बारे में कोई पुष्टि नहीं थी। डच लोगों ने उसे ' न्यू-हौलेन्ड ' नाम दिया परन्तु उस क्षेत्र के बारे में उन्हें बहुत कम मालूम था।

पर इन खोजों से वे लोग बिल्कुल संतुष्ट नहीं हुए जो दक्षिण में एक बडे महाद्वीप की खोज का सपना संजो रहे थे।

कुछ लोगों का मानना था कि दक्षिण- ध्रुव के पास एक बड़ा महाद्वीप होगा और वो प्रशांत महासागर में दूर तक फैला होगा। प्रशांत महासागर बहुत विशाल था और यात्रा करते समय वहां किसी बडे महाद्वीप का अचानक मिलना बहुत अचम्भे की बात होती। इसके लिए फिर दक्षिण की यात्रा क्यों न की जाए? तब यात्री जहाज को महाद्वीप जरूर मिलता और तब जहाज प्रशांत महासागर में उसकी तटरेखा के पास यात्रा कर सकता था।

1738 में एक फ्रेंच नाविक पियरे बोविट डी कोजियर ने दक्षिण अफ्रीका के सबसे दक्षिणी छोर से दक्षिण की यात्रा शुरू की। इस यात्रा का एकमात्र उद्‌देश्य था -दक्षिणी महाद्वीप को खोजना। पर वो केवल कुछ छोटे द्वीप ही खोज पाया जिनका नाम उसने खुद के सम्मान में ' बोविट-द्वीप ' रखा।

1771 में एक अन्य फ्रेंच नाविक म्‌स जोजेफ डी करग्यूइलन ट्रीमार्क ने अभियान शुरू किया। उसने भी दक्षिण अफ्रीका के आसपास खोजबीन की। उसे भी एक छोटा द्वीप मिला जिसका नाम उसने ' करग्यूइलन-द्वीप ' रखा।

दोनों द्वीप ' बोविट-द्वीप ' और ' करग्यूइलन-द्वीप ' अफ्रीका के बिल्कुल दक्षिण छोर पर नहीं थे। केप-हार्न आज भी अफ्रीका में सबसे दक्षिण स्थित जमीन का टुकड़ा है। पर तभी एक महानाविक समुद्र में खोजबीन कर रहा था। वो अंग्रेज था और उसका नाम था जेम्स कुक। वैसे आजकल वो कैप्टन कुक के नाम से ही प्रसिद्ध है। 1768 से 1771 तक तीन महान समुद्री यात्राओं में कैप्टन कुक ने दक्षिणी-प्रशांत महासागर की यात्रा की और न्यू-गिनी) न्यू-हौलेन्ड और न्यू-जीलैन्ड के तटों का निरीक्षण किया।

टासमैन को जो नहीं दिखा उसे कैप्टन कुक स्पष्टता से दिखा पाया। न्यू-हौलेन्ड दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप है। वो इतना बड़ा है इसलिए उसे अब महाद्वीप समझा जाता है। कैप्टन कुक ने उसे ' आस्ट्रेलिया ' नाम दिया। लैटिन में ' आस्ट्रेलिया ' का मतलब ' दक्षिण ' होता है इसलिए यह नाम बहुत उपयुक्त था। अफ्रीका और दक्षिणी- अमरीका दोनों आस्ट्रेलिया से बडे थे पर दोनों का केवल कुछ ही भाग भूमध्य-रेखा से नीचे था। पर आस्ट्रेलिया पूरी तरह भूमध्य-रेखा के नीचे था। यह भूमध्य-रेखा के नीचे खोजा जाने वाला सबसे विशाल भूमि का महाखंड था।

पर शायद यह अंत नहीं था। क्या प्रशांत महासागर के विशाल विस्तार में कोई और महाद्वीप हो सकता था?

1772 में कैप्टन कुक अपने दूसर अभियान पर निकले। इस बार उनका उद्‌देश्य प्रशांत महासागर - विशेषकर भूमध्य-रेखा के नीचे और किसी महाखंड को खोजना था। उन्होंने महासागर का चप्पा-चप्पा छान मारा और वो इस निर्णय पर पहुंचे कि दक्षिण प्रशांत महासागर में आस्ट्रेलिया ही जमीन का सबसे बड़ा भूमिखंड था।

अपनी तीसरी यात्रा में कैप्टेन कुक ने प्रशांत महासागर के उत्तरी और दक्षिणी दोनों भागों की खोज की। 1799 में हवाई द्वीप में उनका देहान्त हुआ।

अब हम पृथ्वी के ग्लोब की कल्पना करें। भूमध्य-रेखा के पास ' टौरिड-जोन '( गर्म इलाका) है जिसका विस्तार 23. 5 डिग्री-एन से लेकर 23. 5 डिग्री-एस तक है। भूमध्य-रेखा के इस उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्र में किसी समय सूर्य दिन में 12 बजे बिल्कुल सिर के ऊपर होगा।

' नार्थ टेम्परेट जोन ' का विस्तार 23. 5 डिग्री-एन से लेकर 65. 5 डिग्री-एन तक होगा। यहां पर सबसे लम्बा दिन 21 जून को) और सबसे छोटा दिन 21 दिसम्बर को होगा।

हम जितना अधिक उत्तर की ओर जाएंगे उतने की दिन लम्बे होंगे और रातें छोटी होंगी। इसके अलावा दिसम्बर में दिन छोटे होंगे और रातें लम्बी।

इसी प्रकार ' साउथ टेम्परेट जोन ' का विस्तार 23. 5 डिग्री-एस से लेकर 65. 5 डिग्री-एस तक होगा। यहां पर सबसे लम्बा दिन और सबसे छोटी रात 21 दिसम्बर को होगी। और सबसे छोटा दिन और सबसे लम्बी रात 21 जून को होगी। आप जितना अधिक दक्षिण की ओर जाएंगे वहां उतनी अधिक लम्बी रातें होंगी और दिन उतने ही छोटे होंगे।

उत्तर और दक्षिण में सर्दी का मौसम विपरीत कालों में आता है। ' नार्थ टेम्परेचर जोन ' में सबसे अधिक सर्दी जनवरी-फरवरी में होती है और सबसे अधिक गर्मी जुलाई- अगस्त में होती है। इसके विपरीत ' साउथ टेम्परेट जोन ' में सबसे अधिक गर्मी जनवरी-फरवरी में होती है और सबसे अधिक सर्दी जुलाइ- अगस्त में होती है।

65. 5 डिग्री-एन से उत्तर में उत्तरी- ध्रुव तक ' आर्कटिक-जोन ' होगा। वहां पर 21 जून को दिन इतना लम्बा होता है कि 24 -घंटे सूर्य चमकता है। आप उत्तरी- ध्रुव के जितना नजदीक जाएंगे वहां पर सूर्य उतनी ही देर आसमान में दिखेगा। और उत्तरी- ध्रुव पर सूर्य पूरे छह-महीने तक लगातार चमकता रहेगा ( वो ज्यादातर समय क्षितिज के पास रहेगा)।

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' आर्कटिक-जोन ' में 21 दिसम्बर वाले दिन सूर्य बिल्कल अपना मुंह नहीं दिखाएगा। आप जितना अधिक उत्तर की ओर जाएंगे सूर्य उतनी अधिक देरी तक नहीं दिखेगा। ध्रुव पर और उत्तरी- सूर्य पूरे छह-महीने तक लगातार नहीं दिखेगा।

' साउथ टेम्परेट जोन ' में हालात आर्कटिक-जोन के बिल्कुल विपरीत होंगे। पर वहां पर सूर्य की स्थिति और बर्ताव बिल्कुल आर्कटिक-जोन जैसा ही होगा। यह ' अन्टार्कटिक-जोन ' ( यानि ' आर्कटिक ' का बिल्कुल उल्टा) होगा।

डिग्री-एस की रेखा के चारों ओर एक गोला बनाती है। यह ' अन्टार्कटिक-जोन' की दीवार है और इसे ' अन्टार्कटिक-सर्किल' भी कहते हैं।

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' अन्टार्कटिक-जोन' में सूर्य 21 दिसम्बर को पूरे दिन चमकेगा और 21 जून को आसमान में अपना मुंह भी नहीं दिखाएगा। यह स्थिति ' आर्कटिक-जोन ' से बिल्कुल उल्टी होगी। आप दक्षिणी- ध्रुव के जितने करीब जाएंगे वहां जून में सूर्य उतनी ही अधिक देर आसमान में रहेगा और दिसम्बर में उतनी ही अधिक देर सूर्य आसमान से गायब रहेगा। दक्षिणी-ध्रुव पर सूर्य आसमान में छह-महीने दिखेगा और छह-महीने गायब रहेगा।

पुर्तगाली नाविकों के समय से जितने भी अभियान हुए उनमें से कोई भी साउथ-टेम्परेट-जोन के आगे नहीं जा पाया।

17 जनवरी 1773 को कैप्टन कुक अपने जहाज को इतना अधिक दक्षिण की ओर ले गए कि उसने ' अन्टार्कटिक-सर्किल' पार कर लिया। कुक और उसके साथी पहले मनुष्य थे जिन्होंने ' अन्टार्कटिक-सर्किल' को पार कर अन्टार्कटिक क्षेत्र में प्रवेश किया। कुक ने इस अभियान में दो बार इस सीमा को लांघा। वो दक्षिण में सबसे अधिक दूर 3० जनवरी 1774 को गया। तब उसने डिग्री-एस को पार किया।

उसने भूमध्य-रेखा से दक्षिणी-ध्रुव के बीच की 475 दूरी तय की थी। वो दक्षिणी-ध्रुव से अब मात्र २१००-किलोमीटर दूर था।

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' अन्टार्कटिक-सर्किल ' पार करने के बाद भी कैप्टन कुक को कहीं जमीन नहीं दिखी। वे जितना अधिक दक्षिण गए वहां उतनी ही ठंड बड़ी। वैसे कैप्टन कुक ने ' अन्टार्कटिक-सर्किल ' को गर्मी के दिनों में पार किया था। पर उस समय भी वहां दक्षिण में इतनी ठंड थी कि बर्फ ने कुक को आगे जमीन तक जाने नहीं दिया।

अपने दक्षिणी अभियान के दौरान कैप्टन कुक को एक द्वीप मिला - साउथ जार्जिया द्वीप जिसका नाम उन्होंने जार्ज-तृतीय के ऊपर रखा। यह द्वीप टेरा डेल ष्णुइजयो से 177० -किलोमीटर दूर था। कैप्टन कुक साउथ सैंडविच द्वीप के पास से भी गुजरे। इसका नाम अर्ल ऑफ सैंडविच के नाम पर रखा गया था। वे उस समय ब्रिटिश नौ-सेना के चीफ थे।

साउथ जार्जिया द्वीप और केप हार्न की दक्षिण स्थिति लगभग एक-समान थी।

परन्तु साउथ सैंडविच द्वीप उसके और ज्यादा दक्षिण में स्थित था। केप हार्न से भी अधिक दक्षिण स्थित पाए जाने वाले यह पहले द्वीप थे। इनका सबसे दक्षिण द्वीप

59 .4 डिग्री-एस पर स्थित था) जो अभी भी साउथ टेम्परेट जोन में था।

कैप्टन कुक को अन्टार्कटिक क्षेत्र में कोई भूमिखंड दिखाई नहीं दिया।

3. दक्षिण में अन्टार्कटिका के किनारे

कैप्टन कुक के अभियानों से पता चला कि दक्षिण महासागरों के पानी में बहुत सारी सील्स और व्हेल थीं। सील्स अपने ' फर ' और व्हेल अपनी चर्बी के लिए मशहूर हैं। शिकारी जहाज सील्स और व्हेल के शिकार के लिए दक्षिण के समुद्रों में जाते रहते हैं। अन्वेषक और खोजकर्ता भी यही करते हैं।

अक्टूबर 1819 में ब्रिटिश नौसेना के एक अफसर विलियम स्मिथ ने साउथ शेटलैन्ड द्वीपों की खोज की (इनका नाम स्काटलैन्ड के उत्तर में स्थित शेटलैन्ड द्वीप के नाम पर पड़ा था)। यह फाल्कलैन्ड द्वीप के बिल्कुल दक्षिण में स्थित थे और उनकी स्थिति 63 डिग्री-एस की थी। यह द्वीप अभी तक खोजा गया सबसे दक्षिणी द्वीप था पर वो अभी भी साउथ टेम्परेट जोन में था।

ब्रिटिश नौसेना के कमान्डर एडवर्ड बैन्सफील्ड ने शेटलैन्ड द्वीपों का नवा बनाया और फिर वो और दक्षिण में 65. 5 डिग्री-एस तक गया। साउथ शेटलैन्ड द्वीपों और उसके नीचे के भूखंड के बीच के पानी को एडवर्ड बैन्सफील्ड के सम्मान में बैन्सफील्ड खाड़ी के नाम से बुलाया जाता'' है।

उसी साल 16 नवम्बर 182० को एक 21 -साल के अमरीकी नथैनियल ब्राउन पाल्मर एक छोटे जहाज का कमान्डर था। यह जहाज सील्स का शिकार करने वाले एक बडे खेमे का सदस्य था। पाल्मर को बैन्सफील्ड खाड़ी के दक्षिण में भूखंड दिखाई दिया।

बैन्सफील्ड और पाल्मर द्वारा देखा गया भूमिखंड एक सकरे ' एस- आकार ' के उपद्वीप (पेनिनसुला) का हिस्सा था। अमरीकियों ने उसे पाल्मर के सम्मान में ' पाल्मर लैन्ड ' बुलाया। पर क्योंकि बैन्सफील्ड ने उसे पहले देखा था इसलिए अंग्रेजों ने उसे उस समय के नौसेना कमान्डर के सम्मान में ' ग्रैहम लैन्ड ' बुलाया।

1964 में यह विवाद सुलझ पाया। इस क्षेत्र को अब अन्टार्कटिक पेनिनसुला बुलाया जाता है। बैन्सफील्ड और पाल्मर पहले लोग थे जिन्होंने इस बडे विशाल भूखंड को देखा था पर उन्होंने क्या देखा था इसका उन्हें कुछ पता नहीं था।

7 फरवरी 1821 को एक अमरीकी सील शिकारी जौन डेविस ने पहली बार अन्टार्कटिक पेनिनसुला पर अपना पैर रखा। यह बात किसी को पता नहीं थी परन्तु 1955 में उसके जहाज की डायरी ' लाग-बुक ' बरामद हुई और उससे यह खुलासा हुआ। डेविस ने ' लाग-बुक ' में अपना मत व्यक्त किया कि वो भूखंड अन्टार्कटिक महाद्वीप का एक भाग था। पर डेविस के पास इसका कोई प्रमाण नहीं था। पर अन्टार्कटिक महाद्वीप पर पैर रखने वाला वो पहला व्यक्ति था।

अन्टार्कटिक पेनिनसुला के जिस भाग से बैन्सफील्ड पाल्मर और डेविस जुडे थे वो असल में अन्टार्कटिक क्षेत्र नहीं था। साउथ टेम्परेट जोन से उत्तर की ओर पेनिनसुला का बहुत विस्तार था। असल में अन्टार्कटिक पेनिनसुला का उत्तरी छोर 63 डिग्री-एस पर स्थित है और वो अन्टार्कटिक-सर्किल से 400 -किलोमीटर दूर था। इसी बीच रूसी खोजकर्ता आर्कटिक क्षेत्र के उत्तरी हिस्सों का अन्वेषण कर रहे थे। उन्हें लगा कि अन्टार्कटिक क्षेत्र की खोज भी रोचक होगी।

1819 में रूसी जार एलिग्जैंडर-प्रथम ने फैबियन गौटिलिब बेलिंगहाउसिन को दक्षिण में अन्वेषण के लिए भेजा। बेलिंगहाउसिन को आदेश थे कि वो कैप्टन कुक के खोज स्थान से और दक्षिण की ओर जाए। बेलिंगहाउसिन ने बहुत कोशिश की परन्तु बर्फ ने कैप्टन कुक वाले स्थान से पहले ही उसे रोक दिया। बेलिंगहाउसिन को एक द्वोप मिला जिसे उसने रूसी सम्राट पीटर द ग्रेट के नाम पर पीटर-प्रथम-द्वीप रखा।

पीटर-प्रथम-द्वीप की स्थिति 68. 8 डिग्री-एस की है और वो अन्टार्कटिक सर्किल से 25० -किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।

फिर बेलिंगहाउसिन ने अन्टार्कटिक पेनिनसुला के दक्षिण में एक द्वीप खोजा और उसने उसे ' एलिग्जैंडर-प्रथम द्वीप ' का नाम दिया। इसी रूसी जार ने उसे अभियान पर भेजा था। ' एलिग्जैंडर-प्रथम द्वीप ' अन्टार्कटिक क्षेत्र का सबसे बड़ा द्वीप निकला। वो केप हार्न के दक्षिण में सबसे बड़ा द्वीप था।

यह पक्का पता नहीं कि बेलिंगहाउसिन ने महाखंड देखा या नहीं। अगर मोटी बर्फ की परत जमी हो तो यह कहना मुश्किल था कि उसके नीचे जमीन थी या नहीं। अगर उसने देखा होगा तो बेलिंगहाउसिन महाखंड को देखने वाला पहला व्यक्ति होगा।

विवाद में फंसने से अच्छा हो कि इस खोज का श्रेय हरेक को दिया जाए। हम कह सकते हैं कि अमरीका के पाल्मर ब्रिटेन के बैन्सफील्ड और रूस के बेलिंगहाउसिन ने 182० इस नए अन्टार्कटिक महाखंड के दर्शन किए थे।

एक महत्वपूर्ण बात हमें ध्यान में रखना चाहिए। इन तीनों को यह नहीं पता था कि वो भूखंड किसी महाद्वीप का भाग था या फिर महज एक द्वीप था। डेविस ने उसके महाद्वीप होने का दावा किया था परन्तु वो भी सिर्फ तुक्का मार रहा था। उसके पास इसका कोई प्रमाण नहीं था।

1823 में कैप्टन कुक का दक्षिणी बिन्दु लांघा गया। जेम्स वैडल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश -लिंग जहाज ने महासागर के एक ऐसे भाग को खोजा जिसका दक्षिण में बहुत दूर तक विस्तार था। 2० फरवरी 1823 को वैडल 72. 25 डिग्री-एस पहुंचा। वहां पर तेज हवाओं और बर्फ ने उसे रोका और उसे वापस लौटना पड़ा।

वो एक नया कीर्तिमान था। अब वैडल दक्षिणी- ध्रुव से सिर्फ 2000 -किलोमीटर दूर था।

महासागर के जिस भाग में वैडल का जहाज गया था वो अन्टार्कटिक पेनिनसुला के पूर्व में स्थित है। इसलिए उसे वैडल के सम्मान में ' वैडल-सी ' बुलाया जाता है।

वैडल को लगा कि यह समुद्र सीधा दक्षिणी- ध्रुव तक जाता होगा और केवल बर्फ ही यात्रा में रोड़ा बन रही थी। लेकिन बाद के सालों में ऐसा नहीं हुआ। वैडिल-सी का सबसे दक्षिणी भाग 76 डिग्री-एस पर स्थित था और वहां से दक्षिणी- ध्रुव केवल 1500 -किलोमीटर दूर रह जाता था।

182० की सारी खोजें अन्टार्कटिक-सर्किल के आसपास ही हुई थीं और यह क्षेत्र ' टेरा डेल फ्यूजियो ' के दक्षिण में था। 1831 में पहली बार अन्टार्कटिक क्षेत्र के दूसरी ओर से अन्टार्कटिक भूखंड को देखा जा सका।

उसी वर्ष एक ब्रिटिश नाविक जौन बिस्को का अफ्रीका के दक्षिण में एक तटरेखा दिखी। वो अन्टार्कटिक-सर्किल के 96 -किलोमीटर उत्तर में थी इसलिए वो साउथ टेम्परेट जोन में थी। उसने अपने जहाज के मालिकों के नाम पर उसे एंडरबी-लैन्ड का नाम दिया। वैसे उसने इस भूमिखंड को दूर से ही देखा था। बर्फ के कारण वो वहां नहीं पाया था।

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184० में फ्रेंच अन्वेषक जूल्स डयूमोंट डिउरविले ने आस्ट्रेलिया के दक्षिण से यात्रा शुरू की और वो अन्टार्कटिक-सर्किल पर एक शुइमरेखा को देख पाया। अपनी पत्नी के नाम पर उसने उसे एडिली-लैन्ड नाम दिया।

लगभग उसी समय एक अमरीकी अन्वेषक चार्ल्स विल्किस अपने जहाज को एंडरबी-लैन्ड और एडिली-लैन्ड के बीच से लेकर जा रहा था। यह तटरेखा बिल्कुल अन्टार्कटिक-सर्किल के वक्र के सीध में थी। भारतीय महासागर के दक्षिण में स्थित इस तटरेखा अब विल्किस-लैण्ड के नाम से जानी जाती है।

उसके तर्क बहुत सटीक थे और बाकी अन्वेषकों को उसकी बात माननी पड़ी।

दक्षिण का महाद्वीप पूरी तरह से अन्टार्कटिक क्षेत्र में था। पर वो पूरा-का-पूरा इलाका बर्फ से डंका था। यह वैसा महाद्वीप नहीं था जहां मनुष्य रह सकें। आज भी इस इलाके में केवल वैज्ञानिक और अन्वेषक ही पाए जाते हैं और वो वहां अस्थाइ समय के लिए ही होते हैं।

इस महाद्वीप का प्राकृतिक नाम अन्टार्कटिका था।

4. दक्षिणी- घुव्र के भी दक्षिण

अन्टार्कटिका की खोज के पश्चात वहां पर अन्वेषण के काम ने गति पकड़ी। लोग इस नए महाद्वीप के बारे में विस्तृत जानकारी जानने के इच्छुक थे।

जनवरी 1841 में स्काटिश अन्वेषक जेम्स क्लार्क रॉस अन्टार्कटिक तट से समुद्र में उतरा। यह क्षेत्र न्यूजीलैण्ड के दक्षिण में था और रॉस के सम्मान में उसे रॉस-सी बुलाया जाता है।

रॉस ने उसके पश्चिमी तट को इंग्लैन्ड की महारानी के सम्मान में ' विक्टोरिया 'रखा। महारानी विक्टोरिया ने चार वर्ष पूर्व ही अपना राज्यकाल शुरू किया था। पश्चिमी तट के पास एक पहाड़ था जिसे रॉस ने महारानी विक्टोरिया के पति के सम्मान में' प्रिंस एल्वर्ट माउंटेन ' नाम दिया।

रॉस ने रॉस-सी में दक्षिण की ओर यात्रा की। बाद में उसे 6० से 9० -मीटर ऊंची बर्फ की दीवार ने आगे जाने से रोका। यह ' आइस-शेल्फ ' निकला। यह पहले भूमि पर बना था पर धीरे- धीरे और अधिक बर्फ जमने के कारण वो समुद्र में धकेला गया।

रॉस-सी इस मोटे ' आइस-शेल्फ ' से लगभग पूरी तरह घिरा था। आज इसे ' रॉस आइस-शेल्फ ' के नाम से जाना जाता है और इसका फैलाव फ्रांस के क्षेत्रफल जितना है जहां पर रॉस को आईस-शेल्फ मिला वहां पर एक जमीन का टुकड़ा था जिसे रॉस-द्वीप कहते हैं। उस द्वीप पर रॉस ने 17 जनवरी 1841 को दो ज्वालामुखी खोजे - जिनका नाम उसने अपने दोनों जहाजों के नामों पर ' माउंट एरीबस ' और ' माउंट टेरर ' रखा। इन दोनों में माउंट एरीबस ऊंचा है और उसकी ऊंचाई 3. 7 -किलोमीटर की है। यह ज्वालामुखी अभी भी जीवित है और शायद दुनिया में सबसे दक्षिण स्थित सक्रिय ज्वालामुखी है।

रॉस-द्वीप के पूर्व में खुले समुद्र का विस्तार दक्षिण में अधिक और पश्चिम में कम था। रॉस-द्वीप की इनलेट को जहाज के एक मल्लाह के नाम पर ' मिकमरडो-बे ' बुलाया जाता है।

रॉस ने रॉस आईस शेल्फ के 720 -किलोमीटर के सर्वेक्षण के बाद ही अन्टार्कटिका छोड़ा। 1842 में वो रॉस-सी वापस गया और फिर उसने 78. 15 डिग्री-एस पहुंचकर एक नया रिकार्ड स्थापित किया। यह स्थान दक्षिणी- ध्रुव से केवल 1300 -किलोमीटर दूर था।

अगर हम रॉस आईस शेल्फ के लुप्त होने की कल्पना करें तो हम साफ देख पाएंगे कि रॉस-सी का दक्षिण की ओर विस्तार अन्य किसी भी महासागर की तुलना में अधिक है। उसकी सबसे अंतिम दक्षिणी टिप 86. ० डिग्री-एस जो दक्षिणी- ध्रुव से केवल 45० -किलोमीटर दूरी पर है।

1800 के मध्य तक यह स्पष्ट हो गया था कि दक्षिणी- ध्रुव अन्टार्कटिका महाद्वीप में स्थित था और रॉस का दक्षिणी छोर वो अंतिम छोर था जहां जहाज द्वारा जा पाना सम्भव था। जो कोई भी उसके बाद दक्षिणी- ध्रुव जाना चाहता उसे जमीन के रास्ते ही आगे का सफर करना पड़ता।

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पर अन्टार्कटिका पर असल में कोई जमीन तो थी ही नहीं - वहां तो केवल बर्फ थी। बर्फ पर बहुत लम्बी दूरियां तय करना कोई आसान काम नहीं था। रॉस की यात्रा के बाद अनेकों जहाजों ने अन्टार्कटिका की ओर रख किया परन्तु कोई भी व्यक्ति उस महाद्वीप पर अपना पैर नहीं रख पाया।

1895 में एक नारवेजिन -लिंग जहाज लियोनार्ड क्रिस्टनसन के नेतृत्व में रॉस-सी पर विक्टोरिया लैन्ड जा रहा था। तब 23 जनवरी को जहाज के दल ने उतर कर अन्टार्कटिका पर पैर रखा।

सदस्य का एक दल था कार्टसन बोर्चग्रेवनिक था। 1898 में वो एक 9 -सदस्यीय दल के साथ वापस लौटा और उसने पूरी सर्दी अन्टार्कटिका के तट पर बिताई। यह पहला मौका था कि किसी ने अन्टार्कटिका के तट पर अपनी सर्दियां बिताई हों।

1900 में बोर्चग्रेवनिक वापस गया और इस बार उसने अन्टार्कटिका के तट पर खडे होने के अलावा भी कुछ और भी किया। वो जहाज से उतरा) उसने स्की ( बर्फ पर स्केट करने की पट्‌टियां) पहनीं और दक्षिण की ओर सैर लगाई। यह पहली बार था कि किसी ने अन्टार्कटिका पर सैर करने की कोशिश की।

16 फरवरी 1900 में बोर्चग्रेवनिक 78. 8 डिग्री-एस के बिन्दु पर पहुंचा। वहां से दक्षिणी- ध्रुव केवल 125० -किलोमीटर था। उसने रॉस के 6० -साल पुराने रिकार्ड को तोड़ा था।n

उसके बाद अन्टार्कटिका के हरेक अभियान दल पहले रॉस आईस शेल्फ पर

उतरा। उसके बाद लोगों ने आगे) और आगे जाने की कोशिश की। उन्होंने वहां पहुंचने का प्रयास किया जहां पहले और कोई नहीं गया था। हरेक की दिली तमन्ना थी कि वो सबसे पहले दक्षिणी- ध्रुव पर पहुंचें।

एक व्यक्ति में यह रिकार्ड कायम करने की प्रबल इच्छा थी। वो था ब्रिटिश अन्वेषक राबर्ट फैल्कन स्काट।

आप दक्षिणी- ध्रुव की लम्बी दूरी को सिर्फ चलकर या फिर स्की करके नहीं पार कर सकते। आपको साथ में भोजन) ईंधन) तन्त्र और अन्य सप्लाई ले जाना जरूरी होगा नहीं कछ समय बाद ही आप भूख और ठंड से ठिठुर कर मर जाएंगे।

इसका मतलब आपके पास बर्फ गाड़ी यानि स्लेज होना जरूरी था। स्लेज पर आप अपनी सारा बारदाना लाद सकते थे। फिर आप स्लेज को खुद खींच सकते थे या फिर उन्हें कुत्तों द्वारा खींच सकते थे। इसके लिए मोटे फर वाले कुत्ते सबसे उपयुक्त होते।

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19०2 के अंत में स्काट रॉस-सी पहुंचा और उसने उसके पूर्वी तट को एडवर्ड-सप्तम लैन्ड नाम दिया। उसने यह नाम उस समय इंग्लैण्ड के राजा एडवर्ड के सम्मान में दिया था। फिर स्काट और उसके साथियों ने स्लेज के जरिए आगे बढ़ना शुरू किया। 13 दिसम्बर 19०2 को वे डिग्री-एस के बिन्दु पर पहुंचे जो दक्षिणी-ध्रुव से मात्र ९७०-किलोमीटर की दूरी पर था। जनवरी 19०9 में स्काट का एक साथी अन्वेषक अर्नेस्ट शैकिल्टन ने दक्षिणी-ध्रुव पर पहुंचने का एक और प्रयास किया। 9 जनवरी 19०9 उसके चार लोगों के दल ने स्लेजों के साथ 88. 38 डिग्री-एस बिन्दु तक पहुंचे। यह दक्षिणी- ध्रुव से मात्र 18० -किलोमीटर की दूरी पर था।

वहां से वे लौटने को मजबूर हुए। अगर वो और आगे जाते तो लौटते समय उनके पास भोजन का राशन खत्म हो जाता। उन्होंने इतना जरूर दिखाया कि दक्षिणी- ध्रुव एक ऊंचे टीले पर स्थित था।

अभी भी आखिरी चरण बाकी था। स्काट ने एक और प्रयास करने की ठानी। एक नौरविजियन अन्वेषक रोआल्ड एगुंडसन पहले आर्कटिक के कई क्षेत्रों में अभियान दल लेकर गया था। उसने भी दक्षिणी- ध्रुव जाने की सोची।

एडसन ने अपने अभियान के बारे में बहुत गहराई से सोच कर पक्की योजना बनाई। उसने अपने साथ में इतने कुत्ते लिए जितने अभी तक कोई खोजकर्ता नहीं लेकर गया था। 52 कुत्ते उसकी स्लेज खींच रहे थे जिन पर अभियान की सारी सप्लाई लदी थी। 2० अक्टूबर 1911 को उसके दल ने रॉस आईस शेल्फ पार किया। आगे बढ़ते-बढ़ते उसने कमजोर कुत्तों को मार डाला और उनका गोश्त दूसरे कुत्तों को खिलाया। इस प्रकार जो खाना स्लेज पर लदा था वो मनुष्य दल के काम आया और पूरे अभियान में उन्हें भोजन की कोई कमी नहीं हुई।

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14 दिसम्बर 1911 को एगुंडसन का दल दक्षिणी-धुव पर पहुंचा। उसने वहां पर पहचान के लिए कुछ चिन्ह छोड़े और उसके बाद उसका दल 21 जनवरी 1912 को अपने जहाज पर वापस पहुंचा। उसके 12 कुत्ते अभी भी जीवित थे और भोजन की काफी सप्लाई भी बची थी। अभियान दल के सभी सदस्य जीवित और अच्छी सेहत में वापस लौटे थे।

स्काट के दल ने अभियान की योजना इतनी निपुणता से नहीं बनाई थी। वे अपने साथ पर्याप्त कुत्ते नहीं ले गए थे। इसलिए उन्हें अंतिम 64० -किलोमीटर की यात्रा के दौरान अपनी- अपनी स्लेज को खुद खींचना पड़ा।

17 जनवरी 1912 को उनका दल भी दक्षिणी- ध्रुव पहुंचा जहां उन्हें एगुंडसन द्वारा छोड़े चिन्ह दिखाई दिए। स्काट के लोग इस रेस में हार गए थे। उन्हें दक्षिणी- ध्रुव पहुंचने में 69 दिन लगे जबकि एगुंडसन को केवल 55 दिन लगे थे।

स्काट और उसके चारो साथी थक कर चूर-चूर हो गए थे। पर उनके पास वहां पर सुस्ताने का वक्त नहीं था। वे तुरन्त वापस लौटे नहीं तो उनका भोजन समाप्त हो जाता। लौटते वक्त वे एक बर्फीले तूफान में फंस गए जिसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। 29 मार्च 1912 को पांचों लोगों का ठंड से देहान्त हो गया।

इस बीच एक जर्मन अन्वेषक विल्हेम फिल्चनर ने वैडल-सी पर खोजबीन की और उसे वहां दक्षिण में उसे एक आईस शेल्फ मिला जो रॉस आईस शेल्फ जितना ही बड़ा था। इसे फिल्चनर आईस शेल्फ कहते हैं।

अगर आईस शेल्फस को नजरंदाज करें तो रॉस-सी और वैडल-सी के बीच में जमीन होगी और वे एक-दूसरे से 965 -किलोमीटर दूर होंगे। यह अन्टार्कटिका के दो भागों को जोड़ने वाल एक ' इस्युमस ' था।

अन्टार्कटिका के पूर्वी और पश्चिमी भाग दोनों का साइज अलग- अलग है।

पश्चिमी अन्टार्कटिका जो अमरीकी महाद्वीप के दक्षिण में है की तटरेखा टेढी-मेडी है और उसमें अन्टार्कटिक पेनिनसुला भी है। यह अन्टार्कटिका का केवल एक-तिहाई भाग है।

पूर्वी अन्टार्कटिका की तटरेखा अर्ध-गोलाकार है और लगभग अन्टार्कटिक सर्किल की सीध में है। वो आस्ट्रेलिया अफ्रीका और एशिया के दक्षिण में है।

' इस्युमस ' को लांघ कर और रॉस-सी एवं वैडल-सी के पूर्व में अन्टार्कटिका की सबसे बड़ी पर्वत श्रृंखला - ट्रांस-एटलांटिक माउंटेनस है। उसके एक शिखर का नाम है माउंट फिडजोफ नैनसेन - यह एक नौरवेजियन अन्वेषक का नाम था जिसने

आर्कटिक क्षेत्र को खोजा था। 4०68 -मीटर ऊंचा यह शिखर अन्टार्कटिका का दूसरा सबसे ऊंचा शिखर है।

दक्षिणी- घुव्र पर मनुष्य के कदम रखने के बाद एक आस्ट्रेलियन अन्वेषक डगलस मौसन ने बहुत सावधानी से पूरे अन्टार्कटिका की तटरेखा का चित्र बनाया। 2० दिसम्बर 1928 पर अन्टार्कटिका पर हवाईजहाज ने पहली उड़ान भरी।

हवाईजहाज अन्वेषण जगत में एक नया औजार था। हवाईजहाज द्वारा बहुत लम्बी दूरी को बहुत कम समय में तय किया जा सकता था। अगर आप लम्बी यात्राओं को पैदल तय नहीं करना चाहते थे तो अब आप वहां हवाईजहाज से जा सकते थे।

1929 में अमरीकी अन्वेषक रिचर्ड एवलिन वायर्ड ने ऐसी हवाई यात्रा की। वो अन्टार्कटिका की तटरेखा से दक्षिणी- ध्रुव पर एक दिन में जाकर वापस आया और उस दौरान 2500 -किलोमीटर की दूरी तय की। उसने रॉस आईस शेल्फ की पूर्वी किनार पर रूजावेल्ट ताल के पास एक ' बेस ' स्थापित किया जिसे उसने ' लिटिल अमेरिका ' का नाम दिया।

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1934 में अपनी 'बेस' से २००-किलोमीटर दूर वायर्ड ने अकेले सर्दी का मौसम गुजारा। यह पहला मौका था जब किसी ने अन्टार्कटिका के अंदरूनी भाग में पूरा सर्दी का मौसम बिताया हो।

1935 में एक आस्टेलियन अन्वेषक हयूबर्ट विल्किंस और एक अमरीकी लिंकन एल्सवर्थ ने अन्टार्कटिका महाद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर तक की हवाई यात्रा की और 3700 -किलोमीटर की दूरी तय की।

1939 में वायर्ड के नेतृत्व में एक अभियान दल ने अन्टार्कटिका के साढ़े तीन लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का हवाई जहाज से नवा बनाया।

फिर 1957 में विवियन फुक्स के नेतृत्व में एक अभियान ने अन्टार्कटिका की एक छोर से दूसरे छोर तक जमीन द्वारा यात्रा की।

अब भौगोलिक रूप से अन्टार्कटिका का अन्वेषण मोटे तौर पर लगभग पूरा हो चुका था। अब उसमें बस बारीकियां भरना बाकी रहा था।

5. अन्टार्कटिका पर जीवन

जब अन्टार्कटिका का अध्ययन हवाई जहाज से हुआ तो किसी को भी यह पता नहीं चला कि वो पूरी तरह बर्फ से डंका होगा। अन्टार्कटिका में बर्फ से ढकी सतह का क्षेत्रफल अमरीका के पूरे क्षेत्रफल का डेढ़-गुना है। यह बर्फ औसतन 1 –किलोमीटर मोटी है। कई स्थानों पर बर्फ की तह 4 -किलोमीटर मोटी है।

पूरी पृथ्वी पर जितनी बर्फ है उससे नौ-गुनी ज्यादा बर्फ सिर्फ अन्टार्कटिका में है। कई स्थानों पर ऐसे टुकड़े हैं जहां बर्फ नहीं है जैसे कि अन्टार्कटिका के तट पर। सबसे बड़ा ऐसा जमीन का टुकड़ा पूर्वी तट रॉस आईस शेल्फ पर है। वहां पर जमीन का एक टुकड़ा है जो 4० -किलोमीटर लम्बा और 2० -किलोमीटर चौड़ा है।

अन्टार्कटिका के अंदरूनी हिस्सों में भी इस प्रकार के जमीन के टुकड़े हैं। कई पहाड़ों की बर्फ तेज हवाओं द्वारा उड़ गई है और उनके शिखर आसमान तले नंगे खडे हैं।

घाटियों में भी कहीं-कहीं बिना बर्फ के टुकड़े नजर आते ह। वहां पर बर्फ क्यों नहीं है इसके बारे में वैज्ञानिकों को कुछ पता नहीं है। पूरे अन्टार्कटिका में केवल ००-वर्ग किलोमीटर पर ही जमीन के टुकड़े होंगे। यह लग्जमबर्ग के क्षेत्रफल का मात्र तीन-गुना क्षेत्रफल है।

सबसे अधिक दक्षिण में यह जमीन के टुकड़े माउंट होवी में मिलते हैं। यह क्षेत्र दक्षिणी-ध्रुव से सिर्फ २५०-किलोमीटर की दूरी पर है।

शायद इन टुकड़ों पर बर्फ न होने का एक कारण नीचे से निकलती ऊष्मा हो सकती है। घाटियों में ऐसे कई तालाब भी हैं जहां सर्दियों में अत्यंत ठंड के बावजूद पानी हमेशा तरल स्थिति में रहता है। 1947 में एक हवाई जहाज ने ऐसा टुकड़ा खोजा जहां कुल मिला कर पानी के 23 तालाब थे।

यह तालाब बडे नहीं होते हैं। मिसाल के लिए सैन जुआन ताल एक फुटबाल मैदान जितना बड़ा होगा और उसमें पानी की गहराई मात्र सेंटीमीटर गहरी होगी। अन्टार्कटिका के अंदरूनी भागों में जीवन का कोई नामोंनिशा नहीं है। बर्फ पर कोई जीवन नहीं है। तालाबों और जमीन पर कुछ बहुत सरल पौधे हैं - एलााई, लाइकिन और मौस। अन्टार्कटिका में 200 प्रकार की एलााई, 400 प्रकार की लाइकिन और 75 किस्म की मौस पाई जाती हैं।

साउथ टेम्परेट जोन वाले अन्टार्कटिक पेनिनसुला में दो प्रजातियों के फूल वाले पौधे भी मिलते हैं।

दक्षिणी-ध्रुव से ४००-किलोमीटर की दूरी पर भी पत्थरों पर लाइकिन पाई गई है। अन्टार्कटिका में केवल जीवन के यही तत्व पाए जाते हैं। मनुष्य और उनके द्वारा लाए जीवों की बात अलग है।

अन्टार्कटिका में पशु जीवन तो पौधों से भी कम है। अन्टार्कटिक में 7० प्रजातियों के कीड़े और माईट्‌स पाए जाते हैं। माईट्‌स, मकड़ी के परिवार के सदस्य हैं।

अन्टार्कटिका का सबसे बड़ा जानवर बिना पंखों वाला 173 सेंटीमीटर लम्बा जीव है। माईट्‌स, दक्षिणी-ध्रुव से रुष्ट-किलोमीटर की दूरी पर भी पाए गए हैं।

वैसे अन्टार्कटिका की जमीन पर जीवन मिलना दुर्लभ है पर पास के समुद्र में अपार जीवन है। ठंडे महासागर में पानी की ऊपर तहों में भिन्न प्रकार के छोटे पौधे पाए जाते हैं। साथ में वहां पर सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर विशाल व्हेल भी होती हैं।

न्तु व्हेल अन्टार्कटिका के महासागरों में रहती है और वहीं अपने बच्चे जनती है। न्तु व्हेल 3० -मीटर लम्बी और 15० -उन भारी तक हो सकती है।

मछली खाने वाले कई जानवर अपना काफी समय अन्टार्कटिका के तटों पर बिताते हैं और वहीं अपने बच्चों को जन्म देते हैं। इसमें पांच प्रकार की सील्स शामिल हैं।

इनमें सबसे दक्षिण में रहने वाली वैडल सील है और वो हमेशा समुद्र तट के किनारे ही रहती है। उसे अक्सर तटों पर बर्फ के नीचे पाया जा सकता है। वो बर्फ में छेद करतो है और उन छेदों से सांस लेती है।

अन्टार्कटिका के तटों पर मछली खाने वाले करीब 15 प्रकार के उड़ने वाले पक्षी पाए जाते हैं। इनमें सबसे दक्षिण में पाया जाने वाला पक्षी एक प्रकार का ' गल ' है जिसे उसे स्कूआ कहते हैं। वो अन्टार्कटिका पर लम्बी-लम्बी उड़ाने लगाता है और शायद वो दक्षिणी- ध्रुव पर भी उड़ान लगाता है। इसलिए मनुष्यों से पहले वो दक्षिणी- ध्रुव पर पहुंचने वाला एकमात्र जीव होगा।

अन्टार्कटिका पर दो प्रकार की न-उड्‌ने वाले पक्षी भी पाए जाते हैं। इन्हें पेंगुइन कहते हैं। वो अपने पंखों से उड नहीं सकती परन्तु वो अपने पंखों द्वारा पतवार जैसे पानी में बहुत कुशलता से तैर सकती हैं। पानी के अंदर पेंगुइन 48 -किलोमीटर प्रति घंटे की गति से तैर सकती हैं। वो मुड़ने आदि में भी बेहद निपुण होती हैं।

अन्टार्कटिका में पाई जाने वाली एक पेंगुइन है - एडली पेन-घुन क्योंकि वो एडली द्वीप पर पाई जाती है इसलिए उसका नाम एडली पेंगुइन पड़ा है। वो

०-सेंटीमीटर ऊंची होती है और उसका भार किलोग्राम का होता है। यह पेंगुइन समुद्र के तट के पास की जमीन पर अपना घर बनाती हैं।

दूसरी अन्टार्कटिका पेन-घुन, बाकी सभी पेंगुइन्स में सबसे बड़ी है। वो एम्परर, पेंग्विन है और उसकी ऊंचाई १२०-सेटीमीटर ऊंची होती है और उसका भार किलोग्राम का होता है।

एम्पर्र पेंगुइन के घोंसले दुनिया के पक्षियों में सबसे अनूठे होते हैं। बहुत सारी एम्परर, पेंग्विन एक साथ भीड़ में इकट्‌ठी होकर रहती ह। इन्हें रुकरीज' कहते हैं। और वो वहां अपने अंडे देती हैं। अभी तक ऐसी 14 रुकरीज' मिली हैं जहां हरेक में औसतन 11000 एम्परर, पेंगुइन हैं।

यह रुकरीज' समुद्र तट से 80 से १००-किलोमीटर अंदर की ओर बनाई जाती हैं। एम्परर, पेंगुइन को अपना सारा भोजन समुद तट के पास मिलता है क्योंकि वे मछलियां खाती हैं। पर जब अंडे देने का समय आता है तो वे चलकर अपनी रुकरीज' में वापस जाती हैं। वापस जाने में उन्हें एक महीने का समय लगता है।

वापस जाते समय उन्हें एक महीने भूखे रहना पड़ता है क्योंकि रास्ते में उन्हें कुछ भी भोजन नहीं मिलता है। सर्दी के शुरू वो अपनी ' रुकरीज ' में जाती हैं और वहां मादा एक अंडा देती हैं। अंडे के लिए कोई घोंसला नहीं होता है। अंडे की देखभाल नर एम्परर, पेंगुइन करता है। वो उसे अपने पैर से ढंक कर रखता है जिससे अंडा गर्म रहता है।

अंडा देने के तुरन्त बाद मादा दुबारा समुद्र तट की ओर कूच करती है। इसमें एक महीना और बीतता है। उसे बिना भोजन मिले दो महीने बीत जाते हैं।

नर पेंगुइन ' रुकरीज ' में दो महीने अन्टार्कटिका की सर्दी में बिताता है। इस दौरान वो अंडे को गर्म रखता है। ' रुकरीज ' में आने से पहले नर अपने शरीर में चर्बी की मात्रा बढ़ाता है) क्योंकि यही चर्बी उसे दो माह तक जिंदा रखती है।

' रुकरीज ' में हजारों नर पेंगुइन एक-दूसरे से सटे होते हैं। हरेक के पास उसका अंडा होता है। उस समय अन्टार्कटिका का तापमान शून्य से 6० -डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है और 144 -किलोमीटर प्रति घंटे की सर्द हवाएं चल रही होती हैं। जो पेंग्विन घेरे में बाहर होती हैं वो लगातार खुद को गर्म करने के लिए अंदर जाने का प्रयास करती हैं। इससे गर्म वाली पेंगुइन बाहर आती हैं और वे फिर जोर लगाकर अंदर जाने की कोशिश करती है। इससे हरेक पेंगुइन को अंदर और बाहर रहने का अवसर मिलता है।

अंडों में से बच्चों के निकलते समय मादाएं फिर से वापस आती हैं और मातृत्व का भार संभालती हैं। उसके बाद 4 महीने भूखे रहने के बाद नर वापस समुद्र पहुंचते हैं। इन चार महीनों में नर पेंग्विनों का भार 25 से 4० -प्रतिशत तक घट जाता है।

अंडे से बच्चे के निकलने के बाद मादा उसे खिलाती है। पर मादा के पास संजो हुआ भोजन ज्यादा समय नहीं चलता है। इसके लिए नर पेंगुइन का वापस आना जरूरी होता है। इस प्रकार दोनों पति-पत्नी समुद्र वापस जाकर खा-पीकर मोटे होकर फिर वापस आकर बच्चे को खिलाते हैं।

अंत में जब अन्टार्कटिका की सर्दी समाप्त होती है तब पेंगुइनस के जो बच्चे जीवित बचते हैं वो इतने बडे हो जाते हैं कि वे खुद समुद्र तट की यात्रा कर सकें और वहां जाकर अपना पेट भर पाएं।

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एम्पर्र पेंगुइन का जीवन कष्टों से भरा होता है। परन्तु अपनी ' रुकरीज ' में वे पूरी तरह सुरक्षित होते है क्योंकि वहां पर उनके अलावा और कोई जीव नहीं होता है। अब केवल मनुष्य ही उनके करीब आ सकते हैं।

अब अन्टार्कटिका का अध्ययन करने के लिए वहां हर समय लोग रहते हैं। वहां पर कुछ प्राचीन जीवों के अवशेष भी मिले हैं। यह जीव दुनिया के ऐसे काल में रहे होंगे जब मौसम इतना सर्द नहीं होगा। बाद में करोडों साल पहले यह क्षेत्र दक्षिणी- ध्रुव में मिल गया होगा। अन्टार्कटिका में भी कोयला मिला है।

अन्टार्कटिका से बर्फ की जो बड़ी चट्‌टानें टूटती हैं वो भविष्य में दुनिया के लिए स्वच्छ पानी का स्रोत्र होंगी। अभी शायद अन्टार्कटिका पिकनिक और सैर-सपाटे की जगह न हो पर भविष्य में वो मानवता के लिए बहुत महत्वपूर्ण स्थान होगा।

समाप्त

 

(अनुमति से साभार प्रकाशित)

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