न उपयोगिता रही , न कीमत - डॉ. दीपक आचार्य dr.deepakaacharya@gmail.com हम अपने आपको कितना की मूल्यवान और उपयोगी समझें, समझते रहें। हमा...
न उपयोगिता रही, न कीमत
- डॉ. दीपक आचार्य
हम अपने आपको कितना की मूल्यवान और उपयोगी समझें, समझते रहें। हमारा क्या मूल्य है और कितनी उपयोगिता है, यह हमारी आत्मा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। क्योंकि हम अपने अहंकारों और भ्रमों से इतने भरे हुए हैं कि हमें हर क्षण यही लगता है कि दुनिया में हमारे मुकाबले कोई है ही नहीं, हम ही हम हैं जिन्हें श्रेष्ठ माना जाना चाहिए।
अपने आपको सर्वोत्कृष्ट और लोकप्रिय, महान और अन्यतम मानने और मनवाने का शौक या फोबिया हम सभी पर इतना हावी हो गया है कि हम अपने आपको भुलते जा रहे हैं और खुद की छवि को लेकर जाने कौनसे आसमान पर उड़ रहे हैं।
आत्ममुग्ध और आत्म महानता स्वीकारने का जो शगल हाल के वर्षो में हम पर हावी हुआ है वह अपने आप में किसी भूत-प्रेत या ब्रह्मराक्षस से कम नहीं है।
हम जो हैं वह स्वीकार नहीं करते हैं और जो नहीं हैं उसे स्वीकार कराने-करने के लिए जाने किन-किन रास्तों का सहारा लिया करते हैं।
आदमी के मिथ्या अहंकार की स्थिति गांवों-शहरों से लेकर महानगरों तक में कांग्रेस घास या बेशर्मी की तरह पसरती जा रही है।
ईश्वर ने हमें वह सब कुछ दिया है जो जानवरों के भाग्य में नहीं बदा है। हमें सबसे अलग बनाया गया है, कुछ भी करने की बुद्धि और स्वाधीनता दी है। इसके बावजूद अधिकांश लोग हमारी ही तरह हैं और उसी तरह जिंदगी जी रहे हैं जिस तरह पशु-पक्षी।
प्रचुर बुद्धि और सामथ्र्य के साथ समय का हम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं और यथास्थितिवाद में दिन काट रहे हैं। हमें यह भी पता नहीं है कि हम क्यों पैदा हुए, क्या करना है और किस प्रकार जीना है।
हमें यह भी गर्व नहीं है कि भगवान ने कितनी आशाओं और अपेक्षाओं से हमें भोगभूमि की बजाय कर्मभूमि भारत में पैदा किया है।
कर्म के मामले में हमारे जीवन में दो धाराएं साफ-साफ दिखाई दे रही हैं।
एक वे हैं जो अपने लिए जी रहे हैं और तमाम प्रकार के जानवरों के लक्षणों से युक्त होकर अपने ही अपने स्वार्थ के लिए टूट पड़ रहे हैं, संग्रह को जीवन का लक्ष्य बना चुके हैं और चाहत यही है कि दुनिया भर पर उनका स्वामित्व हो। इस किस्म में अधिसंख्यों के नाम दर्ज है।
दूसरे मामूली संख्या में हैं जो अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए जी रहे हैं, समाज और देश के लिए जी रहे हैं तथा जिनके जीवन का लक्ष्य अपना विकास नहीं बल्कि सभी का उत्थान है, सभी के लिए काम करते हैं, सुख-दुःख में भागीदारी निभाते हैंं और श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में सेवा, सहयोग एवं सहकार को तत्पर रहते हैंं।
समाज के लिए इन लोगों की उपादेयता स्वयंसिद्ध है और इस उपयोगी स्वभाव एवं कर्मयोग की वजह से उनका मूल्य भी है। समाज को उनकी क्षमताओं और सेवा व्रत पर पूरा भरोसा है और यही कारण है कि सभी लोग चाहते हैं कि वे अधिक से अधिक समय हमारे बीच रहें और जीव तथा जगत के कल्याण में रमे रहें।
आदमी की उपयोगिता और मूल्य का आकलन व्यक्ति स्वयं नहीं कर सकता। हम सभी कुछ क्षण स्थिर रहकर गंभीरतापूर्वक सोचें कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसका क्या अर्थ है।
इंसान का शरीर ही एक मात्र ऎसा है जिसका मरने के बाद भी कोई उपयोग नहीं है। और जिन्दा रहते हुए भी यह धरती पर बोझ ही है यदि हम किसी के काम न आएं।
अपने लिए खाने-पीने और दूसरी व्यवस्थाएं करने का काम तो घटिया से घटिया जानवर भी हमसे अच्छी तरह कर लिया करते हैं।
आजकल आदमी की मूल्यहीनता का संकट व्याप्त है। हम या तो अपने आपको भुलने लगे हैं या फिर कुछ करना चाहते ही नहीं।
हम आजकल जो कुछ करते हैं उसमें हमें जरूरतमन्द, कुटुम्बी और समाज, देश आदि कुछ नहीं दिखता।
हमें लाभ पाने के हर मामले में खुद का ही अक्स सर्वत्र नज़र आता है। दूसरों की तरफ न हम देखना चाहते हैं न हमारा स्वार्थी मन और खुराफाती दिमाग स्वीकार ही करता है।
मनुष्यों में से खूब सारी जनसंख्या आज उस स्थिति में पहुँच चुकी है जहाँ सामाजिक दृष्टि और सेवा के सरोकारों के मामले में हम सब मूल्यहीन हो गए हैं। हमारी न कोई उपयोगिता है, न कोई मूल्य। बस जैसे-तैसे पेट भरना, घर भरना और टाईमपास करते हुए दिन काटना ही हमारा परम ध्येय होकर रह गया है।
हम समाज और राष्ट्र की सेवा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करना जानते हैं, राष्ट्रवाद, समाजवाद और जाने कितनी तरह के वादों और दावों का उद्घोष करते हुए तरह-तरह के स्वाँग रचते हुए अपने अभिनय को जी रहे हैं।
हम दूसरों से तो खूब अपेक्षाएं करते हैं लेकिन अपनी भागीदारी की चिन्ता कभी नहीं करते। हम ऊपर से चाहे कितने ही आदर्शों और सिद्धान्तों की बातें करें, असल में हम सभी लोग दोहरे चरित्र को जी रहे हैं।
हम जो कुछ कर रहे हैं उसकी समाज या देश के लिए कोई उपयोगिता नहीं है। ऎसे में हमारे होने या न होने का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हममें से अधिकांश लोग उस स्थिति में जी रहे हैं जहाँ न हमारे मौजूद होने का कोई अर्थ रह गया है, न हमारे चले जाने का किसी को कोई गम है। हो भी क्यों, समाज के लिए हम कुछ करना चाहते ही नहीं, हम जो कुछ करते हैं वह हमारे अपने लिए ही।
यही कारण है कि आदमी का सामाजिक मूल्य समाप्त होता जा रहा है और उसकी कोई पूछ नहीं रही। हमारे ज्ञान, हुनर, विद्वत्ता, दीर्घकालीन अनुभवों और सामथ्र्य का कोई मूल्य नहीं है यदि इनका समाज के लिए उदारतापूर्वक कोई उपयोग न हो।
लेकिन हमारे भीतर न भावना और उदारता बची है, न औरों के प्रति संवेदनशीलता। किसी गरीब और जरूरतमन्द के दर्द को समझने तक की संवेदना तक हममें नहीं बची है। हम सारे के सारे लोग अपने आप में धंधा हो चुके हैं।
और यही कारण है कि समाज ने हमें नाकारा के रूप में स्वीकार लिया है और पृथ्वी भार मानने लगी है तथा हम स्वयं मूल्यहीन और अनुपयोगी होकर टाईमपास कर रहे हैं। जहाँ हम खुद भी मौत की प्रतीक्षा में हैं और हमारे नाकारापन से त्रस्त समाज भी हमारी मुक्ति के लिए प्रार्थना करने में व्यस्त रहने लगा है।
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