1) ‘मृत्यु से पहला परिचय’ पहला परिचय तुमसे, बचपन में हुआ था तब मैं थी अबोध - अन्जान, बेबस भोली सी जब पार्थिव शरीर में दादी के तुम ...
1) ‘मृत्यु से पहला परिचय’
पहला परिचय तुमसे, बचपन में हुआ था तब
मैं थी अबोध - अन्जान, बेबस भोली सी जब
पार्थिव शरीर में दादी के
तुम उतरी 'भगवान' बन के
निश्चेष्ट दादी को पड़ा देख
पूछा मैंने रोक संवेग -
'दादी बोलती क्यों नहीं ?
आँख खोलती क्यों नहीं ? '
माँ बोली - आँचल में मुँह कर
ले गए 'भगवान' दादी को अब घर,
वहीं रहेगी दादी हर पल !
मैं उदास, खामोश, लगी रोने फिर झर-झर,
रोते - रोते लुढ़क गयी दादी पर
सुबक - सुबक कर कहती थी डर कर
'दादी, कहना मानूँगी
मिट्टी में नहीं खेलूँगी
टॉफी तुमको दे दूँगी..'
तभी उठाया मुझे किसी ने
तुरत लगाया गले किसी ने
कहा प्यार से थपक - थपक
वहीं रहेगी दादी अब बस
विदा करेगें हम तुम मिल सब
‘भगवान’
इस नाम से ‘तुमको’ जाना था तब !
2) 'मृत्यु से मेरा दूसरा परिचय'
मेरे आँगन में चिड़िया का बच्चा निष्प्राण पड़ा था,
और मेरा चुनमुन नन्हा मन खेल में पड़ा था,
आँगन में उछलती कूदती,
मैं एकाएक गम्भीर हो गयी,
'दादी' मुझको याद आ गयी,
जोर से चीखी,और बौंरा गयी,
माँ और नानी दौड़ के आयीं
पूछा - क्यों चीखी चिल्लायी ?
नन्ही अँगुली उठी उधर
पड़ा था 'वो' निश्चेष्ट जिधर
काँपे था तन मेरा थर-थर
हौले से मैं बोली,
यह बोलता नहीं....
आँख खोलता नहीं.....
इसे भी भगवान जी... कहते-कहते
माँ से लिपट गई मैं कस कर,
उस नन्हे बच्चे को,
निर्ममता से तुम ग्रस कर
मुझे बना गई थी पत्थर !
3)'मृत्यु से मेरा तीसरा परिचय'
पहाड़ी लड़कियों की टोली
जिसमें थी मेरी, एक हमजोली
नाम था - उसका ‘रीमा रंगोली‘
सुहाना सा मौसम, हवा थी मचली
तभी वो अल्हड़ 'पिरुल' पे फिसली
पहाड़ी से लुढ़की,
चीखों से घिरती
मिट्टी से लिपटी
खिलौना सी चटकी !
चीत्कार थी उसकी पहाड़ों से टकरायी
सहेलियां सभी थी बुरी तरह घबराई
पर -
मैं न रोई, न चीखी, न चिल्लाई
बुत बन गई, और आँखे थी पथराई,
मौत के इस खेल से, मैं थी डर गई,
दादी का जाना, चिड़िया का मरना
उसमें थी, एक नयी कड़ी जुड़ गई,
पहले से मानों मैं अधिक मर गई,
लगा जैसे मौत तुम मुझमें घर कर गईं,
दिलो दिमाग को सुन्न कर गईं
मुझे एकबार फिर जड़ कर गईं !
4) सहेली
'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से,
तुम मेरी और मैं तुम्हारी
सहेली कई बरस से,
तुम मुझे 'जीवन' की ऒर
धकेलती रही हो कब से,
"अभी तुम्हारा समय नहीं आया"
मेरे कान में कहती रही हो हँस के,
जब - जब मैं पूछती तुमसे,
असमय टपक पड़ने वाली
तुम इतनी समय की पाबंद कब से ?
तब खोलती भेद, कहती मुझसे,
ना, ना, ना, ना असमय नहीं,
आती हूँ समय पे शुरू से,
'जीवन' के खाते में अंकित
चलती हूँ, तिथि - दिवस पे
'नियत घड़ी' पे पहुँच निकट मैं
गोद में भर लेती हूँ झट से !
'जीवन' मिला है जब से,
तुम्हारे साथ जी रही हूँ तब से !
5) सूक्ष्मा
तू इतनी सूक्ष्म , तू इतनी सूक्ष्म कि
तुझे देखा नहीं जा सकता
छुआ नहीं जा सकता
बस तुझे महसूस किया जा सकता है,
जब तेरा अस्तित्व तन मन में समा जाता है,
हर साँस बोझिल, दिल बुझा-बुझा हो जाता है,
तू "सूक्ष्म" पर तेरा बोझ कितना असहनीय !
6) 'बोलो कहाँ नहीं हो तुम '
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
जगाया सोई मौत को कह कर मैने -
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !
बोलो कहाँ नहीं हो तुम !
अचकचा कर उठ बैठी सचमुच ,
देखा मुझे अचरज से कुछ,
बोली –
मैं तो सबको अच्छी लगती - सुप्त-लुप्त
मुझे जगा रही तुम, क्यूं हो तप्त ?
मैं बोली - जीवन अच्छा, बहुत अच्छा लगता है
पर, बुरी नहीं लगती हो तुम
बुरी नहीं लगती हो तुम !
ख्यालों में बनी रहती हो तुम
जीवन का हिस्सा हो तुम,
अनदेखा कर सकते हम ?
ऐसी एक सच्चाई तुम
जीवन के संग हर पल, हर क्षण,
हर ज़र्रे ज़र्रे में तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
जल में हो तुम, थल में हो तुम,
व्योम में पसरी, आग में हो तुम,
सनसन तेज़ हवा में हो तुम,
सूनामी लहरों में तुम,
दहलाते भूकम्प में तुम,
बन प्रलय उतरती धरती पे जब,
तहस नहस कर देती सब तुम,
अट्ठाहस करती जीवन पर,
भय से भर देती हो तुम !
उदयाचल से सूरज को, अस्ताचल ले जाती तुम,
खिले फूल की पाँखों में, मुरझाहट बन जाती तुम,
जीवन में कब - कैसे, चुपके से, छुप जाती तुम
जब-तब झाँक इधर-उधर से, अपनी झलक दिखाती तुम,
कभी जश्न में चूर नशे से, श्मशान बन जाती तुम,
दबे पाँव जीवन के साथ, सटके चलती जाती तुम,
कभी पालने पे निर्दय हो, उतर चली आती हो तुम
तो मिनटों में यौवन को कभी, लील जाती हो तुम,
बाट जोहते बूढ़ों को, कितना तरसाती हो तुम,
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
बोलो कहाँ नहीं हो तुम ?
7) चिरायु
मृत्यु तुम शतायु हो, चिरायु हो !
तभी तो इन शब्दों के समरूप हो, समध्वनि हो,
शतायु, चिरायु, मृत्यु
तुम अमर हो, अजर हो,
तुम अन्त हो, अनन्त हो,
तुम्हारे आगे कुछ नहीं,
सब कुछ तुम में समा जाता है,
सारी दुनिया, सारी सृष्टि
तुम पर आकर ठहर जाती है,
तुम में विलीन हो जाती है,
तुम अथाह सागर हो,
तुम निस्सीम आकाश हो,
इस स्थूल जगत को अपने में समेटे हो,
फिर भी कितनी सूक्ष्म हो
संसार समूचा तुमसे आता, तुम में जाता,
महिमा तुम्हारी हर कोई गाता,
रहस्यमयी सुन्दर माया हो
आगामी जीवन की छाया हो !!
8) 'मौत में जीवन'
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
सूखी झड़ती पत्तियों के बीच फूल को मुस्कुराते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
दो बूँद सोख कर नन्हे पौधे को लहलहाते देखा है
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
'पके' फलों के गर्भ में, जीवन संजोये बीजों को छुपे देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
मधुमास की आहट से, सूनी शाखों में कोंपलों को फूटते देखा है
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
राख के ढेर में दबी चिन्गारी को चटकते, धधकते देखा है।
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
सूनी पथराई आँखों में प्यार के परस से सैलाब उमड़ते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
बच्चों की किलकारी से, मुरझाई झुर्राई दादी को मुस्काते देखा है,
मौत में मैने जीवन को पनपते देखा है !
9) जीवन स्रोत
जीवन के दो छोर
एक छोर पे जन्म
दूसरे पे मृत्यु
जन्म से आकार पा कर ‘जीवन’
एक दिन मृत्यु में विलय हो जाता है
ऐसा तुम्हे लगता है,
पर मुझे तो कुछ और नज़र आता है,
"मृत्यु जन्म की नींव है "
जहाँ से जीवन फिर से पनपता है,
मृत्यु वही अन्तिम पड़ाव है,
जिस से गुज़र कर, जिसकी गहराईयों में पहुँचकर
सारे पाप मैल धो कर, स्वच्छ और उजला हो कर
जीवन पुनः आकार पाता है !
'मृत्यु' उसे सँवार कर, जन्म की ऒर सरका देती है,
और यह 'संसरण' अनवरत चलता रहता है !
फिर तुम क्यों मृत्यु से डरते हो, खौफ खाते हो ?
अन्तिम पड़ाव, अन्तिम छोर है वह,
जन्म पाना है तो सृजन बिन्दु की ऒर प्रयाण करना होगा,
इस अन्तिम पड़ाव से गुज़रना होगा,
उस पड़ाव पे पहुँचकर, तुम्हे जीवन का मार्ग दिखेगा,
तो नमन करो - जीवन के इस अन्तिम, चरम बिन्दु को
जो जीवन स्रोत है, सर्जक है !
10) अन्तिमा
हे अन्तिमा जब दिल में समा जाती है तू
तो अजब सी शान्ति, ठन्डक का एहसास बन जाती है तू,
जीवन्तता से आपूरित मन,
अद्भुत शक्ति, ठसक से भरा होता है तन,
तन मन को आलिंगन करने के तेरे ढंग निराले,
कभी तू हँसते हँसते आ जाती है,
कभी तू खेलते खेलते आदमी से लिपट जाती है,
कभी तू खाने वाले के ग्रास में छुप कर बैठ जाती है,
कभी तू सोए हुए को चिरनिद्रा में ले जाती है,
तू बड़ी नटखट है .....
नहीं आती तो देह से लाचार, धुंधली नज़र से टटोलती,
खटिया पर गुड़ी मुड़ी पड़ी दादी के
बुलाने, मिन्नते करने पर भी नहीं आती,
कभी तू किसी की इच्छा के बिना, उसके जीवन में
इस तरह बैठ जाती है कि जीवन एक चलती फिरती लाश लगता है,
कभी तू मरने वाले के लिए उत्सव बन जाती है,
न जाने कितनी लालसाएँ लिए वह तेरी बाँहों में समा जाता है,
दूसरा जन्म पाने की आशा में खुशी खुशी मर जाता है,
कभी तू अमृत को विष और विष को अमृत बना देती है
कभी तू कंस का काल बन जाती है,
कभी तू रावण के तीर भोंक देती है,
तू सर्वशक्तिमान, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी है
इसलिए तू सन्मति, सद्गति और अन्तिम परिणति है !
11) जब भी आऒ, अपनो की तरह आऒ
तुम जब भी आऒ, अपनो की तरह आऒ
मैं नहीं चाहती कि तुम ‘अतिथि’ की तरह आऒ,
पहले से – ‘तारीख – समय’ बता कर आओ,
बिल्कुल मेरी अपनी बन कर आऒ,
पर, जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
तुम जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
ले कर विदा सबसे, गले तुम्हारे लग जाऊँगी
लेकर होठों पे मुस्कान, जाने को तैयार रहूँगी
मुड़कर पीछे न देखूँगी, रुदन न हाहाकार करूँगी
पर, जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
तुम जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
बच्चों को, अपने घर को, पन्नों पे कविता छन्दों को
आँगन के कोने -कोने को, गमले में खिलते फूलों को
जाने से पहले देखूँगी, एक बार जी भर कर सबको
पर, जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
तुम जब भी आऒ अपनो की तरह आऒ
12) परम समाधि'
युगों - युगों से सन्तो ने
आत्मिक मन्थन कर के
अनन्त अमरता साधी
पर मैनें, तुमने, हमने,
झेली तन की हर व्याधि,
ढेली मन की हर आधि !
जीवन - यात्रा करते - करते,
और इसमें ही जीते मरते
काटी ज़िन्दगी आधी !
लीन हो गए मन से,
मुक्त हो गए तन से,
मृत्यु बनी परम समाधि
मृत्यु बनी परम समाधि !
13) "मुक्ति का द्वार"
अब मैं समझ गई हे!मौत,
तुम कहीं भी, कभी भी आ सकती हो,
तुम्हारा आना निश्चित है, अटल है,
जीवन में तुम ऐसे समाई हो,
जैसे आग में तपन, काँटे में चुभन !
सोच-सोच हर पल तुम्हारे बारे में,
मैं निकट हो गई इतनी,
सखी होती घनिष्ठ जितनी,
तुम बनकर जीवन दृष्टि,
लगी करने विचार- सृष्टि
भावों की अविरल वृष्टि !
मैं जीवन में 'तुमको', तुम में लगी देखने 'जीवन'
इस परिचय से हुआ अभिनव 'प्रेम मन्थन'
प्रेम ढला "श्रद्धा" में
"श्रद्धा" से देखा भरकर
तुम लगी मुझे तब "सिद्धा" !
तुम्हारे लिए मेरा ये "प्यार"
बना जीवन "मुक्ति का द्वार" !
14) कहाँ गए वो दिन
अपने साथ जीने के लिए
नदी किनारे दरख़्त की छाँव में
बैठ जाती हूँ जब मैं.....
लौट आते है एक-एक करके
बचपन के मासूम दिन
साझे रहन-सहन की मीठी खुशनुमा यादें
प्यार की झिडकियों, फटकार,
तकरार, इनकार, इकरार
गलबहियों वाला परिवार
तितलियों की छवियाँ
नन्ही चिड़िया का पहले हौले-हौले पास आना
फिर फुर्र से उड़ जाना,
गिलहरी का नन्हा सा मुँह उठाकर
इधर-उधर देखना और
सरपट भाग जाना
माँ से मेरा हठ करना,
फिर उसकी डांट खाकर
उस की गोद में सिर रख कर सो जाना
इतवार सा त्यौहार अब नही
हर इतवार खास चीजे बनाती थी नानी...
प्यार से दुलारती खिलाती थी मामी
मौसी जब लेती हर बात में बलैयां
भय्या मुँह चिढाता, करता छुपम-छिप्पैया
सर्द दोपहर कटती थी छत पे धूप सेकते
लेट के कहानी पढते - बीच में उंघते ,
और कभी मूंगफली - भुने चने टूंगते
दूर गगन के सफेद बादलों में
हंस, सारस, बगूले खोजते
फोन नहीं होते थे..... पर
दिल से दिल के तार मिले होते थे
दूर बैठे सब एक दूसरे के
मन की पुकार सुन लेते थे
और अगले ही दिन मामा अपना बैग थामे
सामने खड़े होते थे - कहते हुए....घर की याद आ रही थी
बेतार का तार मिला तो दौड़ा चला आया !
अब तो फोन पे सुख-दुःख कहने पर भी लोगों को सुनाई नही पडता
लोगों के कान तो ठीक है - दिल बहरे हो गए हैं
आँखे भी ठीक है - पर मन अंधे हो गए हैं
घर में बहुत कुछ न होने पर भी
किसी कमी का एहसास नही था
कोई सूरज बन गर्माहट देता,
तो कोई चाँद बन ठंडक बरसाता था
कोई नदी बन जल देता
तो कोई फलदार पेड बन जाता था
'तेर-मेर' जैसा कुछ भी तो नहीं था
अब न जाने कहाँ से 'अलगाव' सा आ गया
'मनमुटाव' हर घर में छा गया
'रंजिशो और मसलों' के ढेर में दब गई है जिंदगी
'सुख-चैन' हर शख्स का जाने कहाँ बिला गया ?
पर मुझमें बीता समय आज भी ज़िंदा है
कोई करे न करे - मैं सबकी परवाह करती हूँ
कोई चाहे न चाहे - मैं सबका भला चाहती हूँ
और हाँ, आहत होकर कभी नाराज़ भी होती हूँ
अपना कोई प्यार से न समझे, तो उस पे अधिकार से बरस पड़ती हूँ
मन में रिश्ता प्यार से संजोये रखती हूँ
बीते समय से हर पल सीखती रहती हूँ
हँसती, खिलखिलाती , सुकून में रहती हूँ
बीते को आधार बना, भविष्य का आकार बनाती हूँ
ईश्वर के आशीष से उसे साकार पाती हूँ !!
15) खंडहर - दर - खंडहर
ऐतिहासिक स्मारक दुनिया के
अचरज से तकते हम उनको
महल-दुमहलों और खम्भों को
सूने आंगन और जंगलों को
खंडहर बनी दीवारे कहती
रीत गई शानो-शौकत को...
ऐसे ही ये काया भी तो
एक 'जीवन-स्मारक’ है
काया के खंडहर के अंदर
दिल का खंडहर हिला हुआ है
जगह-जगह दरारे इसमें
फिर भी देखो , बना हुआ है !
ये काया नन्ही सी थी जब
तब से इसके साथ बनी हूँ
पल-पल इसके संग जीती हूँ !
अजब-गजब ऋतुओ से गुज़री
तपते एहसासों से झुलसी
नेह से अपनों के, मैं भीगी
बासंती सरसों सी महकी,
तभी चल पड़ी सांय-सांय
दुःख- दर्दों की तेज़ हवाएँ.
सहम-सहम के उनको झेला
भरी थी सन्नाटे से काया
घबराई तूफानों से
उतर गई सोपानों से
दी शरण तुरत
इसी काया ने
मन्त्र दिया किसी छाया ने -
जीना हरदम जीवट से
खेते जाना केवट से
मत रहना तुम बेबस से !
मन्त्र दबाएँ होठो में
बढ़ती गई मैं चोटों में.......
गुजर चुका था काला मंज़र
जीर्ण-शीर्ण लगता था पिंजर
समय लिख रहा था इस काया पे
तिथि सहित इतिहास पलों का,
हर दिन, हर माह और वर्षों का
सब कुछ वैसा नहीं रहा अब
चलती-फिरती अब ये काया
है संजोये मोह औ माया
माँ, बच्चे और साथी-संगी
कभी न ये मन, भूल है पाया
शैशव से अब तक की सारी
ऐतिहासिक यादे हैं तारी
जब-जब देखूँ जर्जर होते
काया के इस खंडहर को
हर्षा - मुरझा जाती हूँ
पर............,
बेशकीमती इस खंडहर में
सुकून बड़ा मैं पाती हूँ !
16) मेरी कलम रुक गई
कल पडौस में किसी नवेली दुल्हन ने
तिमंजिले से कूद कर आत्महत्या कर ली
पीड़ा लिए, वो दुनिया से कूच कर गई
मेरी कलम चलते - चलते रुक गई
मेरे मन में उमडती कविता मर गई
परसों दो घर छोड़ कर एक घर में
नवजात बच्ची के रोने की आवाज़
घुट के, माँ के रोने की आवाज़ बन गई
मेरी कलम चलते - चलते रुक गई
मेरे मन में उमडती कविता मर गई
दो दिन पहले एक होनहार मासूम लड़की
नौकरी पे जाते समय अगुवा कर ली गई
शाम ढले, नदी किनारे बेजान पाई गई
मेरी कलम चलते - चलते रुक गई
मेरे मन में उमडती कविता मर गई
17) ज़िन्दगी
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी धरती तो कभी आसमां लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी कलकल करती नदिया, तो कभी ठहरा समन्दर लगती है
कभी ख़ौफ़नाक आंधी, तो कभी शीतल बयार लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी चहकी - चहकी सुब्ह, तो कभी उदास शाम लगती है
कभी परिन्दे की ऊँची उड़ान, तो कभी घायल पंछी सी बेजान लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी होंठो पे तिरती मुस्कान, तो कभी आँख से ढला आँसू लगती है
कभी मीरा सी बैरागन, तो कभी राधा सी प्रेम दीवानी लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी श्वेत कोहरे सी सर्द, तो कभी खिली सुनहरी धूप लगती है
कभी नाशाद तो, कभी शादमानी लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी बच्ची सी चुलबुली, तो कभी बुज़ुर्गियत का लिबास ओढ़ लेती है
कभी बुझा – बुझा मन, तो कभी धड़कता दिल लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
कभी बहकी – बहकी, तो कभी समझदार सी सधे कदम चलती है
कभी सब्ज़ ताज़ा पत्ता, तो कभी पीला पत्ता लगती है
ज़िन्दगी हर पल बदलती सी लगती है
18) ' अभी.........'
अभी अंधेरों से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन उजाला बन जाऊँगी मैं
सूरज में उतर जाऊँगी मैं
अभी उदासी से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन प्रफुल्लता बन जाऊँगी मैं
खिलखिलाहट में समा जाऊँगी मैं
अभी बेचैनी से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन सुकूं से लिपट जाउंगी मैं
उसे अपना वजूद बनाऊँगी मैं
अभी अश्कों से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन मुस्कराहट बन जाऊँगी मैं
खुशी में पसर जाऊँगी मैं
अभी पतझड़ से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन मधुमास बन जाऊँगी मैं
फूल सी महक जाऊँगी मैं
अभी तपिश से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन बरसात बन जाऊँगी मैं
रिमझिम-रिमझिम बरस जाऊँगी मैं
अभी घटाओं से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन इन्द्रधनुष बन जाऊँगी मैं
रेशमी रंगों में ढल जाऊँगी मैं
19) अवलोकन
आपकी संवेदनाएं अभी जीवित है
यदि आपकी आँखे भर आती है
आपमें भावनाएँ अभी बरक़रार है
यदि आप आहत महसूस करते हैं
आपका विवेक अभी सलामत है
यदि आप सही बात के पक्ष में खड़े होते है
आपका साहस मरा नहीं है
यदि आप अन्याय के खिलाफ़ बोलते है
आपका दिमाग सक्रिय है
यदि आपको चिंताएं सताती है
20) जिसको भी देखा...
जिसको भी देखा, दुखी पाया
अपनी वीरानियों से जूझते पाया
नम आँखों से कुछ तलाशते पाया
जिसको भी देखा, उदास पाया
चेहरे पे तैरता दर्द पाया
पीले पत्तों पे अकेले चलता पाया
जिसको भी देखा, बोझिल पाया
सन्नाटों के साथ जीता पाया
शून्य में कुछ तलाशता पाया
जिसको भी देखा, बेज़ार पाया
दिल के सहरा से उलझते पाया
पीर का हमसफ़र पाया
जिसको भी देखा बेहाल पाया
दर्द से तर - बतर पाया
यादों के दरिया में तैरता पाया
जिसको भी देखा तरसता पाया
अपनों के बीच अकेला पाया
जीने का बहाना खोजता पाया
जिसको भी देखा बिखरता पाया
मन ही मन कुछ समेटता पाया
चंद खुशियों को सहेजता पाया
-
डॉ. दीप्ति गुप्ता
संपर्क - drdeepti25@yahoo.co.in
बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी हैं आपकी कवितायेँ ....जीवन के उसकी धडकनों के साथ भी और मौत की रहस्यमय गहराइयों और उसकी हर जगह उपस्थिति से भी परिचय कराती ...मेरी बहुत बहुत बधाइयाँ और आशीर्वाद ...
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