मूल्यों व संस्कारों की पुनर्खोज : बिगडैल बच्चे बिगडैल बच्चे -- समीक्षा ( लेखिका -मनीषा कुलश्रेष्ठ ) यह समय यह काल , जिसमें हम रह रहे हैं , म...
मूल्यों व संस्कारों की पुनर्खोज : बिगडैल बच्चे
बिगडैल बच्चे -- समीक्षा ( लेखिका -मनीषा कुलश्रेष्ठ )
यह समय यह काल , जिसमें हम रह रहे हैं , मानव सभ्यता के पूरे इतिहास में सबसे अधिक जटिल काल है। जटिल इसलिए कि इस काल में कुछ भी स्थिर नहीं है - न मूल्य , न आदर्श , न जीवन पद्धति , सांस्कृतिक छवियाँ ,आचार -विचार , रहन सहन , मानवीय व्यवहार कुछ भी स्थिर नहीं है। उदारीकरण और अपसंस्कृति ने भारतीय सामाजिक संरचना को बाहर से भीतर तक प्रभावित किया है। जीवन और समाज आधुनिकता के रंग में पूरी तरह सराबोर हैं जिसमें पाश्चात्य जीवन शैली , आडम्बर और विलासितापूर्ण सामग्रियों से सुसज्जित बाज़ार व घर में मनुष्य अपना जीवन जी नहीं बल्कि किसी तरह काट रहा है। दौड़ -भाग ,मार -काट, गति व सूचना से भरे जीवन में मात्र औपचारिकता ही शेष रह गयी है --औपचारिक मित्रता ,औपचारिक प्रेम ,औपचारिक मुस्कराहट , औपचारिक संवेदना, जहाँ ह्रदय तत्व सर्वथा नदारत है और बौद्धिकता व विवेकशीलता पर भी प्रश्न चिह्न लगा हुआ है।
विकास की तेज़ रफ़्तार में मनुष्य का मानवीय मूल्यों से निरंतर वंचित होते चले जाना आधुनिकता का एक ऐसा भीषण संकट है जिससे आज सभी प्रभावित हैं और केंद्र में है आज का युवा वर्ग ,जिस पर इस आधुनिकता का सबसे गहरा और गंभीर प्रभाव पड़ा है। ग्लोबलाईजेशन के इस दौर में नयी आधुनिकता के विषैले रूप से यूँ तो सभी आक्रांत हैं , किन्तु अधिक दंश देश के युवाओं को ही झेलना पड़ रहा है। उन युवाओं को जो प्राचीन व नवीन और भूत और भविष्य को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिनसे गुज़र कर ही प्राचीन आदर्श तथा सार्थक नैतिक मूल्य हर आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित होते हैं। युवाओं के बारे में आज यह आम धारणा बनी हुई है कि ज्ञान , ऊर्जा,शक्ति व आवश्यक संसाधनों से संपन्न आज के युवा भारत ने जिस परंपरा और संस्कृति को अपना लिया है , उसकी जड़ों से उनका कोई तालमेल नहीं है। अर्धवस्त्रावृता संस्कृति ने युवाओं के सांस्कृतिक परिदृश्य को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। भारतीय परंपरा व संस्कारों को छिछले तिरस्कार से हटा कर ,धर्म, नैतिकता व मूल्यों को पुराना दकियानूसी मानता हुआ अंग्रेजी सोच में जकड़ा युवा वर्ग बाज़ार और मीडिया के रचे मायाजाल में उलझा हुआ,खोया हुआ दिशा हीनता में ही आगे बढ़ रहा है। युवाओं का पथभ्रष्ट होकर अपसंस्कृतिवाद तथा बाजारवाद का शिकार होना आज वास्तव में सभी के लिए शोचनीय व चिंतनीय बना हुआ है। अणु शक्ति के समान शक्तिशाली युवाओं को बर्बादी के कगार पर देख कुछ न कर पाने की विवशता सभी पुरानी पीढ़ी के लोगों में देखी जा सकती है। "आज के नव युवक कितने बिगडैल हैं , फैशन परस्त हैं ,इनमें समझदारी नाम मात्र को भी नहीं ,कुछ बनने -बनाने की न तो काबिलियत है ,न अक्ल ,न हिम्मत। दिन पर दिन बदतमीज़ होते जा रहे हैं। संस्कार बचे ही नहीं।" किसी मुसीबत को ये समझदारी से सुलझा सकेंगे या नहीं। इनका खुलापन ,इस कदर लापरवाही क्या इन्हें खतरों की तरफ नहीं धकेलती ?" आदि जैसी धारणाएँ ,चर्चाएँ करना और सुनना आम बात सी हो गयी हैं।
सामाजिक जीवन में समय -समय पर अनेक रूढ़ियाँ बनतीं चलतीं हैं। यदि आत्म समीक्षा के द्वारा उन रूढ़ियों की पहचान न की जाये और उनका मूल्यांकन कर उन्हें तोड़ा न जाएँ , तो वे लम्बे समय तक बनी रह कर सामाजिक जीवन में न केवल उथल -पुथल मचा देतीं हैं , बल्कि उसके स्वाभाविक विकास को भी बाधित करती हैं। हम और हमारे युवा अनेक गतिशील प्रवृत्तियों के बावजूद भी स्थितियों की जड़ता का दर्द झेलने को विवश हैं जिसे शीघ्रातिशीघ्र तोडना अति आवश्यक है।
आज के भोगवादी और भौतिकतावादी समय में साहित्यिक और बौद्धिक में चिंतन के नाम पर अनेक विमर्शों की बाढ़ सी आई हुई है। स्वतंत्रता के बाद से ही सामाजिक ,आर्थिक,सुरक्षा,चिकित्सा,उद्द्योग,तकनीकी,कृषि यहाँ तक कि शिक्षा में भी इन विमर्शों में अपनी जगह बनाई है। यह विडंबना ही है कि राष्ट्र की भाग्यलिपि को लिखने वाले युवाओं पर कोई सार्थक विमर्श अब तक प्रारंभ नहीं हो सका है। लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से एक ऐसे अछूते और विलक्षण विषय की ओर हम सभी का ध्यानाकर्षित किया है जिसकी ओर कथाकारों की दृष्टि अभी तक ,कम से कम मेरी जानकारी में तो नहीं , नहीं पड़ी है , और यदि पड़ी भी है तो कम ही। मूल्य विघटन और अपसंस्कृति जैसे आरोपों को सहन करते हुए आज के युवा मानस में निहित अदृश्य जीवन मूल्यों को पुनर्परिभाषित करने जो प्रयास लेखिका ने किया है ,वह निश्चित रूप से मील का पत्थर सिद्ध होगा । हिंदी साहित्य की चर्चित युवा कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ ने आधुनिकता को ,विशेष तौर पर युवाओं के सन्दर्भ में तथा प्रचलित मान -मूल्यों को पारंपरिक दृष्टि से अलग हट कर एक नए दृष्टिकोण और एक नए परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया है।
कहानी का प्रारंभ लेखिका की रेलयात्रा से होता है जिसकी विशेषता यह है कि अपने निजी अनुभवों को लेखिका ने कहानी का आधार बनाया है। वे इसमें नेरेटर की भूमिका में उपस्थित हैं। दिल्ली के सरायोहिल्ला से जयपुर तक की रेलयात्रा के दौरान घटी घटनाओं को उन्होंने बड़ी ही मार्मिकता के साथ इस तरह से प्रस्तुत किया गया है ,जिसमें एक ओर विचारशीलता, कल्पनाशीलता ,भावुकता व मार्मिकता है ,तो वहीँ संशय,द्वंद्व और प्रश्नाकुलता भी दिखाई देती है।
सम्पूर्ण कहानी का केंद्र बिंदु वे तीन बच्चे हैं जो अपने क्रियाकलाप ,रहनसहन,वेश-भूषा,भाषा,हाव-भाव और व्यवहार से आजकल की बिगड़ी युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहानी का पूर्वार्द्ध पुरानी पीढ़ी की इस अवधारणा पर अवस्थित है कि आज की पीढ़ी के बच्चों में समझदारी ,सामाजिक मूल्यों और संस्कारों का नितांत अभाव है। वे दिन पर दिन निहायत ही बदतमीज़ होते जा रहे हैं। बड़े और छोटों की भावनाओं का उन्हें ज़रा भी ध्यान नहीं है। भोगवाद और भौतिकवाद में सर से पाँव तक रंगे आज के युवा महास्वार्थी हैं। लेखिका अपनी बेटी को लिवाने जयपुर जा रहीं हैं।उन्हीं के कम्पार्टमेंट में उनकी सामने वाली बर्थ पर गोवा के तीन युवा बच्चे यात्रा कर रहें हैं , जिनमें एक युवा लड़की ,उसका होने वाला पति और साथ में लगभग पन्द्रह वर्ष का एक बच्चा भी है ,जो उस लड़की का भाई है। अपने गिटार,कैमरा ,वाकमैन के अलावा तीन पुराने से बैग,ढेर सारे चिप्स के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक की बॉटल्स और कुछ पत्रिकाएँ लेकर वे तीनों ट्रेन में चढ़े थे। लेखिका की बगल वाली बर्थ पर एक दंपत्ति भी यात्रा कर रहे हैं। पति डॉक्टर तथा पत्नी अध्यापिका है। अपनी इस यात्रा के दौरान लेखिका तीनों बच्चों की वेश -भूषा,भाषा,व्यवहार तथा हाव-भाव को देख कर खीजती हैं और ग़ैर-ज़रूरी चिडचिडाहट से भर उठती हैं। उनका शौक़ीन व फैशनेबल मिजाज़ ,कानफोडू संगीत,प्रेमालाप तथा बिंदास खुलापन जैसी तथाकथित आधुनिकता को देख कर लेखिका और सहयात्री दंपत्ति युवा पीढ़ी को कोसते हैं,उनके व्यवहार की आलोचना करते हैं और पुरानी पीढ़ी से उनकी तुलना करते हैं। सिद्धांतों और मूल्यों में भीषण वैचारिक टकराव होता है। लेखिका के मन में अनेक प्रश्न और द्वंद्व उमड़ते हैं। अच्छे -बुरे और सही -गलत,उचित अनुचित के बीच मानसिक संघर्ष चलता है। इससे पहले कि लेखिका कोई निर्णय ले पातीं कहानी के उत्तरार्द्ध तक आते- आते कथानक में अचानक ही तीव्र मोड़ आता है।इस मोड़ तक आते -आते पाठकों की उत्सुकता और रोचकता बढ़ती जाती है जो कहानी की विचारपूर्ण तारतम्यता को तोडने में सहायक रही है। इस दौरान जो कुछ भी घटित होता है उससे लेखिका की युवा पीढ़ी के प्रति बनाई हुई अवधारणा खंडित हो जाती है।यही तथाकथित ' बिगडैल बच्चे ' जिनको आधार बना कर युवा पीढ़ी का विश्लेषण किया गया है ,परिस्थिति के अनुसार अपनी मौज-मस्ती छोड़ कर आशातीत समझदारी का प्रदर्शन करते हुए घायल लेखिका को उनके गंतव्य तक सुरक्षित पहुँचाने भी जाते है जबकि डॉक्टर दम्पति कोई भी सहायता न करते हुए वहाँ से खिसक जाते हैं।
प्रथम दृष्ट्या, कहानी का शीर्षक बिगडैल बच्चों के कारनामों को प्रस्तुत करने का प्रयास ही दिखाई देता है ,किन्तु उत्तरार्ध तक आते -आते शीर्षक में छिपा तीखा व्यंग्य स्पष्ट नज़र आने लगता है जो पाठकों के मर्म पर गंभीर और तीव्र प्रहार कर उन्हें भीतर तक झिझोड़ देता है। कहानीकार ने नयी पीढ़ी की सोच,चिंतन,दशा-दिशा तथा उन परिस्थितियों की भी बिना पक्षपात के चर्चा की है जो प्रगतिशीलता तथा आधुनिकता के नाम पर युवाओं की उच्छ्रन्खलता को पोषित कर रही है।कुछ वेस्टर्न कल्चर का असर है और बचा खुचा टीवी चैनलों ने पूरा कर दिया है । इस यात्रा के दौरान युवाओं के उन्मुक्त व्यवहार तथा क्रिया कलापों का बड़ी ही बारीकी से अवलोकन कर स्वाभाविक रूप से चित्रित किया गया है। ऐसे दृश्य आज हर जगह यहाँ -वहाँ आसानी से दिखाई पड़ जाते हैं और इसी प्रकार की प्रतिक्रिया मिलती है -- "देखने में तो मिडिल क्लास लग रहे हैं …पर फैशन और रहन -सहन देखो। ये लोग तो होते ही ऐसे हैं। कितनी बेशर्मी से गन्दी -गन्दी किताबें देख रहे हैं ,बड़े -बूढों का लिहाज़ ही नहीं।" लेखिका का यह कथन कि "बात एक जाति की नहीं ,हमारी यंग जेनेरेशन पूरी की पूरी ही ऐसी है।" समस्या की व्यापकता को सिद्ध करता हुआ प्रतीत होता है। युवाओं की इस वर्तमान स्थिति के लिए पश्चिमी संस्कृति , अपसंस्कृति , बाजारवाद , ग्लोबलाइज़ेशन,मिडिया ,फैशन या सिनेमा आदि को प्रत्यक्ष रूप से दोषी मान लेने भर से पुरानी पीढ़ी के लोगो के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। हमेशा युवाओं को उनकी स्वछंद प्रवृति के लिए दोष देना या उन पर आक्षेप लगाना और कुछ न करना ही स्थितियों की जड़ता की ओर इशारा करता है। जो माहौल उनको मिला,क्या अकेले वे ही इसके लिए दोषी हैं ?
लेखिका का दुर्घटना ग्रस्त होना ,सहयात्री डॉक्टर व अध्यापिका द्वारा सहायता से इंकार कर देना तथा अन्य यात्रियों का भी तमाशबीन बन कर खड़े रहना आदि दर्शाता है कि पुरानी पीढ़ी के लोग जो स्वयं सभ्य ,सुसंस्कृत होने का तथा मूल्यों व आदर्शों को वहन करने का अभिमान और अभिनय मात्र करते हैं। सच तो यह है कि बड़े लोगों के पास समय ही कहाँ है उनको समझाने का। मूल्यों और आदर्शों का मुखौटा लगा कर खोखले दावे करने वाले बड़े लोगों से तो खुली सोच और साफ़ ह्रदय वाले आज के युवा कहीं ज्यादा अच्छे हैं,जिनमें दिखावा या बनावटीपन लेश मात्र भी नहीं है। सच बोलने के खतरे उठाते है वे और कड़वी किन्तु सच्ची बात कहने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। दूसरी ओर आदर्शों व् मूल्यों पर बड़ी -बड़ी बातें करने और वाले संस्कारी होने का दम भरने वाले पुरानी पीढ़ी के लोग अवसर पड़ने मानवीयता का भी लिहाज़ नहीं करते।जिस निर्भीकता और बेबाकी के साथ लेखिका ने इस विषय को प्रस्तुत किया है वह प्रशंसनीय है।
लेखिका का संशय और द्वंद्व इतने तक ही सीमित नहीं रह पाता। ऐसे आधुनिक बच्चों की बेख़ौफ़ निर्भयता को देख कर कोई भी माता -पिता स्वाभाविक रूप से यही सोच सकता है कि वे बिना किसी बड़े या अभिभावक के यात्रा वे कैसे पूरी कर पाएंगे? कैसे होंगे वे दु:साहसी माता -पिता जिन्होंने इन्हें अकेले दुनिया देखने भेज दिया फिर बहुत संयम और कठोर अनुशासन में पले -बढ़े अपने बच्चों से तुलना करते हुए उन पर गर्व और अपनी परवरिश पर संतोष का अनुभव करते किन्तु , उन बच्चों का खुलापन ,बिंदास ठाठ ,उन्मुक्त चेहरे की चमक देख कर अगले ही पल लेखिका का एक नया संशय इस भावुक स्वीकारोक्ति के साथ प्रस्तुत होता है कि कठोर अनुशासन व सुरक्षित वातावरण में पाल-पोस कर उन्होंने अपनी बेटी के विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया है। वह दब्बू बन कर रह गयी।अन्यथा आज उसका भी चेहरा खूबसूरत और दमकता हुआ दिखाई देता जैसा कि सामने बैठी हुई लड़की का दिखाई देता है। इसी सन्दर्भ में वे स्त्री शिक्षा ,सशक्तिकरण तथा स्त्री की बाज़ार में बनी छवि आदि विषयों पर भी तर्कपूर्ण ढंग से विचार करती हैं। शादी कर देने भर से क्या एक लड़की का जीवन और भविष्य सुरक्षित हो जाता है ?नारीवादी होने का अर्थ है -निर्णय लेने का अधिकार। आर्थिक रूप से स्वतंत्र लड़की अपनी पसंद से शादी करके आत्मविश्वास के साथ ज़माने की समस्याओं से जूझने की समझ रखती। जब तक स्त्री अपने फैसले खुद करना और उन पर अमल करना नहीं शुरू करेगी ,तब तक स्त्री के लिए स्वाधीनता की मंजिलें उससे कोसों दूर रहेंगी। अपनी लड़की को अनुशासन और सुरक्षित माहौल में पालने का परिणाम यह हुआ कि वह आज अकेले सफ़र करने से घबराती है ,एम् बी ए करने के बावजूद भी ज़रुरत के पैसों के लिए भी पति की इच्छा पर निर्भर रहती है। असमय ही बुढ़ापे और स्थायी हताशा के चिह्न उसके चेहरे पर देख लेखिका का मन अपनी बेटी के प्रति सहानुभूति से भर उठता है।वे कहीं न कहीं नयी पीढ़ी की तथाकथित स्वाधीनता और निर्भयता को अपनी मौन स्वीकृति प्रदान करती हैं।
कहानी में पूरी ईमानदारी और तार्किकता के साथ विकास के पश्चिमी प्रतिरूपों पर सवालिया निशान लगाया गया है तथा देशी अवधारणाओं की समीक्षा कर उनके पुनर्मूल्यांकन करने का आग्रह कहानी में प्रतिध्वनित है। कहानी आज के समय की आँख में आँख डाल कर यथार्थ की अभिव्यक्ति करती है। कहानी पढ़ते हुए पाठक स्वयं भी लेखिका के साथ एक सहयात्री बन इस यात्रा से गुज़रता हुआ महसूस करता है। यही इस कहानी की सबसे बड़ी विशेषता है। हर रोज़ हम इन्हीं प्रकार के दृश्यों और व्यवस्थाओं के सुराखों से से रु-ब-रु होते हैं,सालों पुराने चलन जो भारतीय परिवेश में बंद नहीं हो सकते । एक ही प्रकार की शब्दावली को सुनते रहते हैं। प्रतिदिन घटित होने वाले घटना- क्रम ,स्टेशन का दृश्य ,आम भारतीय की मानसिकता और उनके व्यव्हार करने का सलीका आदि को सहजता और स्वाभाविकता से कहने का विलक्षण तरीका ही इस कहानी की विशिष्टता है। आधुनिक युवा जीवन को व्याख्यायित करने के कारण इसकी भाषा में हिंदी व अंग्रेजी दोनों प्रकार की शब्दावली का बड़ा ही स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। युवाओं के सन्दर्भ में फकिन ,फकअप ,फेडेड जींस ,एस्प्रेसो कॉफ़ी ,सोशल वेल्यूज़ -आदि जैसे अंग्रेजी शब्दों के साथ अजीब किस्म के शौक ,शक्लो सूरत,मरगिल्ले ,अदाओं ,क़त्ल जैसे शब्द तथा प्रौढ़ वर्ग व लेखिका द्वारा साहित्यिक हिंदी भाषा के शब्दों के साथ मिश्रित शब्दावली में भाषा की रवानगी काबिले तारीफ है। भाषा पर पकड़ व शैली लेखिका की स्वयं की है ,फिर चाहे आधुनिक युवाओं के बातचीत करने का लहज़ा हो या सामान फेंकने का ढंग ,चाल- ढाल ,बाल ,चप्पलें आदि वर्णन से यथार्थ शब्द चित्र प्रस्तुत किया है। संवाद भी प्रसंगानुकूल और पात्रानुकूल है जिसकी भाषा सरल और लचीली होने के कारण पाठकों को अंत तक बाँधे रखने में पूर्णतः सक्षम है।
भारतीय परंपरा और आधुनिकता के सन्दर्भों में युवाओं के साथ -साथ पुरानी पीढ़ी के सांस्कृतिक क्षरण का नए सन्दर्भों में पुनर्मूल्यांकन के साथ ही उसके विभिन्न पक्षों का बेहतरीन विश्लेषण किया गया है जो सोचने को विवश करता है कि किसी भी धर्म ,काल और संस्कृति से मानवीयता जैसे शाश्वत मूल्य और आदर्श का कोई सम्बन्ध नहीं। इस कहानी का अघोषित सन्देश इसे मूल्यवान बनता है। आधुनिक समय में पश्चिमी और भौतिकतावादी तत्वों के आगमन से सांस्कृतिक क्षरण क्या केवल युवाओं का ही हुआ है ?पुरानी पीढ़ी का नहीं ?यह अत्यंत विचारणीय प्रश्न है। लेखिका स्पष्ट कहतीं हैं , "भोगवाद कहें या भौतिकवाद…इससे हम भी कहाँ अछूते हैं ?" इस माहौल में किसी भी पुरानी पीढ़ी के लोगों का अपेक्षित व्यव्हार कैसा होता ?मूल्य विघटन और अपसंस्कृति जैसे आरोपों को सहन करते हुए आज के युवा मानस में निहित जीवन मूल्यों को परिभाषित करने को जो पहल इस कहानी में की गयी है ,वह निःसंदेह प्रशंसनीय है ।
आज समाज में नैतिकता ,मर्यादा ,अनुशासन ,निष्ठा और कर्तव्य के प्रति लगन की भावना प्रायः निष्प्राण सी हो गयी है ,जो पुरानी पीढ़ी के लोगों में भी दिखाई पड़ती है ,फिर युवाओं को ही इसका ज़िम्मेदार क्यों ठहराया जाये ?आज सोच को बदलने की ज़रूरत है। युवाओं के मनोभावों को हमें ही समझना होगा। वाह्य वेश-भूषा और तौर-तरीकों के आधार पर युवाओं में अवस्थित मानवीय मूल्यों के बुनियादी रूप को भी सिरे से नकारते चले जाना बड़े लोगों के लिए उचित नहीं है। यह स्वीकार करते हुए हमें तनिक भी संकोच नहीं कि आज की युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की अपेक्षाकृत अधिक समझदार और ऊर्जावान है ,तो उनकी सोच और समझ पर हमें विश्वास भी करना होगा। जीवन मूल्यों ,आदर्शों और सामाजिक संरचना से जुडी परंपरा की विशालकाय मूर्ति को जैसे के तैसा स्वीकार करना आज के वातावरण में संभव नहीं हो सकता। दो पीढ़ियों के बीच समय का अन्तराल उनकी सोच को भी प्रभावित करता है। परवरिश के पारंपरिक तरीकों के पुनर्मूल्यांकन करने की आज महती आवश्यकता है। परम्पराएँ परिवर्तनशील होती हैं। समय और परिस्थिति के अनुसार उनके वाह्य स्वरुप में परिवर्तन आना भी स्वाभाविक ही है। आन्तरिक तनावों और वाह्य चुनौतियों से वे प्रभावित होतीं हैं। सन्दर्भ बदल रहें हैं क्यों कि साधन भी नए- नए रूपों में प्रस्तुत हो रहे हैं। नयी सामग्रियां ,नए कौशल, नए सन्दर्भों की रचना निरंतर होती जा रही रही हैं। उनमें बहु समादृत मानवीय मूल्यों का रूप ,जो शाश्वत है ,बदल कर सामने आ रहा है ,जिसे हम नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। रचनाकार अपनी आँख से जीवन और समाज के उस सौन्दर्य को देखता है ,जिसे दूसरे नहीं देख पाते।
खंडित चेतना से जूझ रहे युवा समाज के लिए प्रस्तुत कहानी एक सद्भावी मित्र की भूमिका निभाती है तथा उनके मनोभावों को समझते हुए उनमें मानवीय मूल्यों और संवेदना को जाग्रत करने हेतु ,उन्हें पुष्ट बनाने हेतु बड़ी पीढ़ी के लोगों द्वारा सहानुभूतिपूर्ण व्यव्हार करने के लिए प्रेरित करती है और पुरानी पीढ़ी के लोगों को भी नए सिरे से सोचने और चिंतन करने पर मजबूर करती है कि युवाओं के प्रति इतना असहिष्णु होना उचित नहीं ,जो भी हो इन्हीं पर हमारा भविष्य टिका है। हर पीढ़ी में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ तो होती ही हैं। मनुष्य ,भेड़ या भेड़िया बनना मनुष्य की प्रवृति पर निर्भर करता है न कि परस्थितियों पर। इनमें से वह क्या बनना चाहता है ,इसका निर्णय उसे स्वयं करना है लेखिका ने इस क्षेत्र में सर्वथा एक क्रन्तिकारी सोच को स्थापित किया है। क्रांति का अर्थ सशस्त्र आन्दोलन करना नहीं है ,या किसी भी विद्रोह को क्रांति नहीं कहा जा सकता। क्रांति का अर्थ है ,प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा। साधारणतः लोग जीवन की परंपरागत दशाओं के साथ इस कदर चिपक जाते हैं कि विभिन्न दृष्टिकोणों से उन पर विचार करना भी उचित नहीं समझते। लेखिका ने युवाओं के प्रति बनी बनाई धारणा को तोड़ने का प्रयास करते हुए उसे नए परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। प्रत्येक वर्ग के लिए पठनीय यह कहानी निःसंदेह मील का पत्थर साबित होगी। ऐसा मेरा विश्वास है।
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डॉ पूनम पाठक
कोलकाता
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