गुलाम हैं या गूँगे-बहरे - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 dr.deepakaacharya@gmail.com आ जादी के इतने साल बाद भी हमारे खून में गुलामी और मूक...
गुलाम हैं
या गूँगे-बहरे
- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
आजादी के इतने साल बाद भी हमारे खून में गुलामी और मूक द्रष्टा भाव के कतरे उसी अनुपात में बने हुए हैं जितने आजादी के पहले।
यों कहें कि आजादी पाने के जुनून के दौर में हमारा जो देशभक्ति और आजादी का जज्बा था वह भी अब सिर्फ 15 अगस्त या 26 जनवरी को ही देखने को मिलता है और वह भी हमारे दिल में नहीं बल्कि उन माइकाें में जो इन पर्वो के दिनों में फूल वोल्युम में बजते रहकर हम सभी को आजादी या गणतंत्र की याद दिलाते हैं।
हमारे यहाँ लोगों की विभिन्न प्रजातियों का दम-खम रहा है। इनमें वे लोग अल्पसंख्यक हैं जो ईमानदारी से काम करते हैं और पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों को पूरा करते हैं। सच मानें तो इन्हीं लोगों के भरोसे देश चल रहा है वरना कभी का कुछ न कुछ हो ही जाता।
एक किस्म उन लोगों की है जिन्हें कोई काम आता नहीं या करना नहीं चाहते । इन लोगों की मानसिकता यही होती है कि उदासीन बने रहो और निःशक्तों, परित्यक्ताओं, विधवाओं या असहायों की तरह सरकारी पेंशन की ही तरह मासिक पगार या पारिश्रमिक प्राप्त करते रहो। ऎसे लोगों को न संस्थान से मतलब है, न समाज या देश से।
एक प्रजाति ऎसी भी है जो कि हद दर्जे की दासत्व परंपरा को धन्य कर रही है। इस प्रजाति के लोग चाहे कितने बड़े और प्रभावशाली लोगों की सेवा में दिन-रात रहें या बड़े से बड़े गलियारों में अपना प्रभावी दखल रखें मगर ये न अपने लिए किसी को कुछ कह पाते हैं न अपने सहकर्मियों या बिरादरी वालों के लिए।
ये लोग हर शोषण और अन्याय को मूक दर्शक होकर सहते रहते हैं और पूरी जिन्दगी गुलामों की तरह गुजार दिया करते हैं। फिर गुलामी के बाड़ों के बाहर निकलने के बाद भी इनके खून में गुलामी के बीज इस कदर भरे रहते हैं कि वे अपनी फिक्र का जिक्र भी मरते दम तक नहीं कर पाते हैं।
इन्हीं में से काफी कुछ लोग ऎसे होते हैं जो मरते दम तक गुलाम ही गुलाम बने रहना चाहते हैं और अगले जन्मों में भी दासत्व पाने के अरमानों के साथ विदा होते हैं। इस प्रकार के प्रबुद्ध गुलामों की कई प्रजातियां हमारे सामने हमेशा रही हैं जो बड़ी-बड़ी बातें करने में माहिर हैं लेकिन हद दर्जे के गुलाम की तरह कुढ़ती रहती हैं।
ये चाहते हुए भी न बोल पाते हैं, न लिख पाते हैं और न ही किसी से कुछ कह पाते हैं। इन्हें सिखाया ही गया होता है कि गुलामी में चुपचाप सहन करते हुए जीने से अधिक निरापद जमाने भर में कुछ नहीं है।
फिर इनके वंश में कोई कभी मुखर हो ही नहीं सकता। नीचे से लेकर ऊपर तक की पूरी श्रृंखला गुलामों से भरी पड़ी है। कोई बड़ा गुलाम है, कोई छोटा। यही नहीं तो गुलामों के भी अपने गुलाम हैं जो अपने आकाओं की हर ख्वाहिश को पूरा करने में जी जान लगा देते हैं। कभी खुद को परोस दिया करते हैं कभी औरों को तैयार कर देते हैं।
कई गुलामों के दर्जनों मालिक होते हैं जो जब मौका मिलता है गुलामों को पेलने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। कुछ मामलों में बड़े गुलामों और छोटे गुलामों में कोई फर्क नहीं पड़ता। खूब सारे गुलाम बाड़ों में रहते हैं तब पूरे दम के साथ कहा करते हैं कि बाहर निकल कर कुछ करेंगे।
लेकिन जैसे ही बाड़ों से बाहर निकल जाते हैं तब या तो किसी दूसरे बाड़े में बंध कर अनुबंधित हो जाते हैं या फिर चुपचाप मर जाने का इंतजार करते हैं। कुछ नालायक तो इस कदर गुलाम हैं कि बाड़ों से मुक्त होने के बाद भी पुराने मालिकों के गुणगान करते नहीं अघाते, दिन-रात किसी न किसी की चापलूसी या कसीदे पढ़ने, प्रशस्ति गान या पब्लिसिटी में लगे होते हैं।
इन लोगों को न समाज से मतलब है, न देश, धर्म, जाति और बुढ़ापे के आध्यात्मिक कर्म से। मौत आने तक ये अधमरे लोग किसी न किसी की परिक्रमा या जयगान में लगे होते हैं। ऎसे लोग लोक में निन्दा के पात्र होते हैं और ईश्वर के घर जाकर भी इन्हें लज्जित ही होना पड़ता है।
हरे-भरे खेत में मुँह बाँधे बैलों की तरह साठ साल तक फिराये जाने वाले इन दासों का जमीर एक बार खत्म हो जाता है तो फिर दोबारा कभी अंकुरित हो ही नहीं पाता। पराया और हराम का माल खा-खाकर इनके भीतर की सारी इंसानियत, संवेदनाएं सब कुछ मर जाती हैं।
इन गुलामों के भीतर दासत्व के कतरे इस कदर ठूँस-ठूँस कर भरे होते हैं कि जानकार लोग ईश्वरीय विधान पर आश्चर्य करते हैं कि जिन लोगों को गधे होना चाहिए वे बुद्धिजीवी होकर औरों के पिछलग्गू बने हुए मिथ्यागान में रमे हुए हैं।
ऎसे नालायक गुलाम लोगों को प्रकृति, ईश्वर या आने वाली पीढ़ी कहीं से माफी नहीं मिल पाती। हमारे आस-पास भी ऎसे खूब सारे गुलामों की लम्बी श्रृंखला विद्यमान है जो सदियों से चली आ रही है और जिसे पता तक नहीं है कि हम आजाद हो गए हैं।
इन लोगों को लगता है कि जैसे गौरों की बजाय अब काले अंग्रेज हम पर हावी हैं फिर आजादी कैसी और इस आजादी का अर्थ क्या है। हमारे आस-पास कुछ भी हो, होता रहे, हमें क्या। देश में क्या हो रहा है, इससे हमें कोई सरोकार नहीं रहा। इस किस्म की सोचने वाले गूंगे-बहरों से भी हमारा देश भरा हुआ है।
ये लोग हर तरफ पसरे हुए चुपचाप सब कुछ देख रहे हैं। इन्हें पता हर बात का है लेकिन साहस नहीं कि कुछ कह पाएं। ऎसी पूरी की पूरी बिरादरी है जिसे जानवरों के बीच होना चाहिए था लेकिन जाने किस गलती से इंसानों की बस्तियों के पैदा हो गए हैं।
कोई सच को सच नहीं कह सकता, अच्छे को अच्छा, बुरे को बुरा और झूठे को झूठा नहीं कह सकता। इससे बड़ा अन्याय क्या होगा। हमारी आस्थाएं और निष्ठाएं सब कुछ दफन हो गई हैं। हम अपने स्वार्थ की बात आने पर किसी के भी साथ हो लिया करते हैं।
हमें अपने काम से मतलब है। कौन कैसा है, इससे हमारा कोई अर्थ नहीं। समाज और देश में जो कुछ हो रहा है उससे हम जैसे लोगों का क्या लेना-देना, हमें तो हमारे अपने मौज-शौक, जमीन-जायदाद, हरामखोरी, मुफ्तखोरी और भोग-विलास से मतलब है, हमें और किसी से क्या ।
इस मानसिकता में जीने वाले गुलामों, गूंगों और बहरों ने ही देश का हुलिया बिगाड़ कर रख दिया है। नज़र दौड़ाएं, अपने आस-पास रहने और काम करने वाले गुलामों, गूंगों और बहरों को देखें, सब कुछ पता चल जाएगा। इनमें भूतपूर्व, अभूतपूर्व और वर्तमान सभी प्रकार के हैं।
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