ज्ञान-विज्ञान : हमें डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला? आइजिक ऐसिमोव

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HOW DID WE FIND OUT ABOUT DINOSAURS? By: Isaac Asimov Hindi Translation : Arvind Gupta हमें डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला ? आइजिक ऐस...

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HOW DID WE FIND OUT ABOUT DINOSAURS?

By: Isaac Asimov

Hindi Translation : Arvind Gupta

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हमें डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला? आइजिक ऐसिमोव

हिंदी अनुवादः

अरविन्द गुप्ता

1 जीवाश्म

लोगों को डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला यह समझने के लिए हमें जमीन में मिली पत्थर जैसी दिखने वाली अजीबो-गरीब हड्डियों के बारे में जानना होगा। आज से दो सौ साल पहले तक यूरोप और अमरीका में लोगों को प्राचीन इतिहास के बारे में बहुत कम पता था। बाईबिल में जो कुछ लिखा था वो सिर्फ वही जानते थे। बाइबिल पढ़ने वाले लोगों को लगता था कि हमारी पृथ्वी आज से कोई छह हजार वर्ष पहले पैदा हुई थी। बाइबिल के अनुसार आज से कोई 4500 वर्ष पूर्व एक बहत बड़ी बाढ़ आई थी जिसमें सब कुछ नष्ट हो गया था। आज जो कुछ भी पृथ्वी पर दिखाई देता है वो उसके बाद विकसित ही हुआ और अलग-अलग राष्ट्र स्थापित हुए। इतिहास आज से कोई 3000 वर्ष पहले ही शुरू हुआ। इस बारे में हम बाइबिल के अलावा अन्य स्रोत्रों से भी जानते हैं।

1700 के अंत तक अधिकांश लोगों की यही मान्यता थी। अगर पृथ्वी महज 6000 वर्ष पुरानी होगी तो वहां पर जीवित चीजों में कोई खास बदल नहीं आई होगी। आज के जिन्दा लोग देखने में 2000 वर्ष पहले यूनानी में बनी लोगों की मूर्तियों जैसे ही दिखते हैं। और वो 4000 वर्ष पूर्व मिस्त्र में बने लोगों के चित्रों के समान ही दिखते हैं। प्राचीन ग्रंथों में जिन जानवरों का वर्णन था, वैसे ही जानवर आज वर्तमान में भी पाए जाते हैं जैसे - शेर, हाथी, बकरी, बाज, मधुमक्खी आदि। प्राचीन लोगों ने पड़-पौधों के जो वर्णन किए थे वो आजकल पाए जाने वाले पेड़-पौधों से कोई बहुत भिन्न नहीं थे। तब लोग पृथ्वी की उम्र को कुछ हजार वर्ष पुराना मानते थे। पर तब कुछ ऐसा घटा जिससे इस मान्यता को धक्का लगा। खनन के दौरान जमीन में कुछ अजीब सीे पत्थर जैसी चीजें मिलीं। लोगों को वो कुछ महत्व का नहीं लगीं और उन्होंने उसे नजरंदाज किया। लोग हमेशा से जमीन खोदते रहे हैं - आज से हजारों साल पहले भी लोग जमीन को खोदते थे। जमीन की गहराई में खनिज छिपे होते हैं जिनसे हम उपयोगी धातुएं मिलती हैं। कभी-कभी खुदाई करते समय लोगों को कुछ पथरीली वस्तुएं मिलती थीं जिनका आकार हड्डियों और सीपियों से मिलता-जुलता होता था। पर कभी-कभी इन वस्तुओं का आकार जानी-पहचानी हड्डियों और सीपियों से बिलकुल अलग होता था। उनके बारे में क्या करें? खुदाई करने वालों की दरअसल इन चीजों की खोज में कोई रुचि नहीं थी। वो इन चीजों को एक ओर फेंक देते और अपनी असली काम में व्यस्त हो जाते। आज से चार सौ वर्ष पहले जर्मन जियोरजियस एग्रिकोला दुनिया के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने खनन के काम को वैज्ञानिक नजर से देखा। उन्होंने अपनी सारी जिन्दगी खदानों में बिताई और जमीन के नीचे से निकले खनिजों का अध्ययन किया।

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मछली का जीवाश्म

1546 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था ‘डी नैचुरा फौसिलम’ - यह एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ होता है - खुदाई की प्रकृति। एग्रिकोला ने जमीन के अंदर खुदाई से निकली सभी चीजों को ‘फॅासिल’ नाम दिया। ‘फॅासिल’ एक लैटिन शब्द है जिसका मतलब है ‘खोदना’।

एग्रिकोला के लिए जमीन से निकले सभी पत्थर फॅासिल (जीवाश्म) थे, चाहें उनमें से कुछ दिखने में कुछ अजीब हों और हड्डियों जैसे नजर आते हों। तब से लोगों ने जमीन से निकले आम पत्थरों के लिए फॅासिल शब्द का उपयोग बंद कर दिया है। फॅासिल शब्द अब उन्हीं अजीब दिखने वाले पत्थरों के लिए किया जाता है जिनका आकार प्राचीन जानवरों की हड्डियों या पदचिन्हों से मिलता-जुलता है।

1500 में स्विटजरलैंड में एक वैज्ञानिक थे जिनका नाम था गैसनर। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं जिसमें उन्होंने प्रकृति में पाई जाने वाली सभी चीजों का वर्णन किया। गैसनर पहले व्यक्ति थे जिन्होंने फॅासिल (जीवाश्म) के चित्र बनाए। गैसनर ने फॅासिल को बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना। उनके लिए वो महज पत्थर थे जिनका आकार अन्यान्य कारणों से विकृत होकर हड्डियों जैसे दिखने लगा था। उन्होंने उन्हें इसलिए दर्ज किया क्योंकि वो प्रकृति में पाई गई सभी चीजों का वर्णन कर रहे थे। उसके लगभग सौ साल बाद एक ब्रिटिश प्रकृतिवादी जॉन रे, गैसनर से एक कदम आगे बढ़े। उनकी भी पौधों और जानवरों में गहरी रुचि थी और बचपन से ही उन्होंने अपने आसपास के सभी पौधों का गहन अध्ययन किया था। 1600 में उन्होंने पौधों पर अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित की। उसके बाद चालीस सालों तक वो अन्य पुस्तकें लिखते रहे जिनमें उन्होंने पौधों और जानवरों का सविस्तार वर्णन किया।

गैसनर के वर्णनों से रे असंतुष्ट थे। उन्होंने विभिन्न पौधों और जानवरों को अलग-अलग समूहों में रखा। कुछ जानवर अन्य जानवरों से मेल खाते हैं और कुछ पौधे, अन्य पौधों से मिलते-जुलते हैं। शेर, चीते और बिल्लियां एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। लोमड़ी, भेड़िए और कुत्ते भी एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। गाय-भैंस, भेड़ और बकरियों के खुर होते हैं और वे सभी घास खाते हैं और एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं।

रे पौधों और जानवरों के विस्तृत विवरण दर्ज करने में अभ्यस्त हो गए। जीवों की छोटी भिन्नताओं के आधार पर वो उन्हें किसी एक-समूह या फिर मछली का जीवाश्म दूसरे-समूह में रखते।

हड्डियों जैसे दिखने वाले पत्थर यानी जीवाश्म उन्हें कोई आकस्मिक घटना नहीं लगे। रे चीजों को बारीकी से जांचने-परखने में माहिर थे और उन्हें पत्थर की हड्डियां कई मायनों में असली हड्डियों जैसे दिखाई दीं। उन पत्थर की हड्डियों में जरूर कोई राज छिपा होगा!

1691 में लिखी अपनी पुस्तक में रे ने स्पष्ट लिखा कि पत्थरों की हड्डियों यानी जीवाश्म उन जानवरों के थे जो कभी बहुत पहले पृथ्वी पर रहे होंगे। ऐसा कहने वाले रे पहले व्यक्ति थे। जिन जीवाश्मों को रे ने देखा वो देखने में निश्चित रूप से किसी जानवर के थे। पर जिन जानवरों से रे परिचित थे वो उनकी हड्डियां नहीं थीं। और रे अपने समय में जानवरों के बारे में बहुत कुछ जानते थे। इसलिए रे इस नतीजे पर पहुंचे कि वो पत्थर की हड्डियों वर्तमान जानवरों की नहीं थीं। वो हड्डियां उन जानवरों की थीं जो बहुत पहले मर चुके थे - यानी वे ‘लुप्त’ हो चुके थे।

रे की धारणा उस जमाने में लोगों की प्राचीन इतिहास की कल्पना से काफी मिलती-जुलती थी। हो सकता है कि कुछ जानवर भयानक बाढ़ में मारे गए हों। इसलिए पाए गए जीवाश्म उन जानवरों की हड्डियों के होंगे जो भयानक बाढ़ में मरने के बाद लुप्त हो गए थे। रे के ही समकालीन एक और डैनिश वैज्ञानिक थे - निकोलस स्टेनो।

रे की तरह ही उनका भी यही मानना था कि जीवाश्म लुप्त हुए जानवरों के अवशेष थे।

स्टेनो को कुछ ऐसे जीवाश्म मिले जो बिल्कुल शार्क के दांतों से मिलते-जुलते थे। जीवाश्म और व्हेल के दांतों में इतनी समानता थी कि वो जीवाश्म शार्क के दांत के अलावा और कुछ और हो ही नहीं सकता था। पर जीवाश्म वाले दांत पत्थर के बने थे। इसका मतलब था कि मूल दांत के पानी में पड़े रहने से धीरे-धीरे उस दांत के पदार्थ का स्थान अन्य लवणों ने ले लिया था। clip_image008

शार्क के दांत का जीवाश्म

पर इस नजरिए में कुछ दिक्कत थी। अगर पत्थर के जीवाश्म कभी हड्डी, दांत या सीप रहे होंगे और अगर पत्थर धीरे-धीरे करके बना होगा तो उसमें बहुत लम्बा समय लगा होगा। यह सब एक लम्बे अर्से में हुआ होगा। जो हड्डियां जमीन में गाढ़ी गई होती हैं वो सैकड़ों साल बाद भी पत्थर में नहीं बदलती हैं। इसलिए हड्डियों से पत्थर बनने के काम में लाखों साल लगे होंगे। अगर यह सच था तो फिर महज 6000 साल पुरानी पृथ्वी पर पत्थरीले जीवाश्म कैसे बने होंगे? इतने कम समय में जीवाश्मों का बनना असम्भव था।

क्या यह सम्भव था कि पृथ्वी उससे कहीं अधिक पुरानी हो?

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1700 के दौरान लोग पृथ्वी की आयु के बारे में अटकलें लगाने लगे। कुछ को लगा कि पृथ्वी वास्तव में बहत पुरानी होगी। परन्तु बाइबिल का खंडन करना कोई आसान काम नहीं था। इसलिए इन वैज्ञानिकों की धारणा धीरे-धीरे करके ही सामने आई।

एक फ्रेंच प्रकृतिवादी काउंट डी बूफोन ने पहली बार बहुत हिम्मत करके पृथ्वी की आयु का वैज्ञानिक आकलन किया। 1745 में उन्होंने सुझाव दिया कि हमारे सौर-मंडल के ग्रह तब बने होंगे जब हमारा सूर्य किसी अन्य विशाल पिंड से टकराया होगा। इस टक्कर में सूर्य के कुछ टुकड़े अलग होकर गिरे होंगे और उनसे ही ग्रह बने होंगे। बूफोन ने एक अहम प्रश्न का जवाब देने का प्रयास किया। अगर हम सूर्य के तापमान से शुरू करें तो पृथ्वी को आज के तापमान पर आने में कितने वर्ष लगे होंगे? उनकी गणना के अनुसार इसमें 75000 वर्ष लगे होंगे। और पृथ्वी के बनने के 40000 साल बाद तापमान पौधों और जानवरों के विकास के लिए उपयुक्त रहा होगा। बूफोन की अवधारणा क्योंकि बाइबिल के खिलाफ जाती थी इसलिए तमाम लोगों को उससे झटका लगा। परन्तु पृथ्वी पर 40000 साल का जीवन भी जीवाश्मों को समझाने में विफल रहा। पृथ्वी की आयु का आकलन गलत था। पृथ्वी की आयु और उस पर जीवन इससे कहीं अधिक पुराना था।

2 आपदाएं

बूफोन के बीस साल बाद एक स्विस प्रकृतिवादी चार्ल्स बोहने को इस समस्या का एक हल सूझा। यह हल जीवाश्मों की उत्पत्ति समझाता, पृथ्वी को बहुत पुराना मानता और उसके बावजूद बाइबिल के कथन की खिलाफत नहीं करता था। मान लो कि पृथ्वी बहुत पुरानी है। इस लम्बे काल में उस पर अलग-अलग तरह से जीव रहे होंगे। बीच में कभी कोई भयानक आपदा आई होगी जिसमें उन सभी जीवों की मृत्यु हो गई होगी। उसके बाद में कुछ समय के लिए पृथ्वी निर्जीव रही होगी। परन्तु उसके बाद पृथ्वी पर दुबारा नए प्रकार के जीवन ने जन्म लिया होगा जो फिर हजारों सालों तक पनपा होगा। उसके बाद में फिर कोई भयानक आपदा आई होगी जिसमें पृथ्वी पर समस्त जीवन तबाह हो गया होगा। पृथ्वी के लम्बे इतिहास में ऐसी आपदाएं बार-बार आई होंगी। बोहने के अनुसार आखिरी आपदा कोई 6000 वर्ष पूर्व आई होगी।

इसलिए आज पृथ्वी पर मानव समेत जितने भी जीव मौजूद हैं वो तब से ही जीवित होंगे। इसलिए बाइबिल में केवल पिछले 6000 सालों का ही उल्लेख है। उससे पहले के लम्बे कालखंड का बाइबिल ने तभी कोई उल्लेख नहीं किया है। बोहने को लगा कि जीवाश्म प्राचीन जीवों के अवशेष होंगे जो आखिरी आपदा से पहले पृथ्वी के किसी अन्य कालखंड में जिन्दा रहे होंगे। ये जीवाश्म शायद बहुत पुराने हों। वे हजारों-लाखों साल पुराने भी हो सकते हैं। परन्तु उनका बाइबिल में लिखे इतिहास से कोई लेना-देना नहीं होगा। बोहने ने समझाया कि जीवाश्मों की हड्डियां वैसे तो जिन्दा जीवों की हड्डियों से मिलती थीं, फिर भी वे उनसे एकदम मेल नहीं खाती थीं। क्यों? अगर वे जानवर किसी पुराने कालखण्ड के थे तो उनकी बनावट वर्तमान में पाए जाने वाले जानवरों से भिन्न होनी ही चाहिए थी। इससे बिल्कुल अलग मत एक स्कॅाटिश वैज्ञानिक जेम्स हटन ने पेश किया। हटन की जीवाश्मों में कोई विशेष रुचि नहीं थी। उनकी रुचि पृथ्वी के ढांचे को समझने में थी। हटन को अपनी अांखों के सामने वर्तमान में पृथ्वी में बदलाव होते नजर आए। नदियां अपने साथ नमक बहा कर ले जाती हैं और उसे समुद्र में डालती हैं जिससे समुद्र का पानी लगातार और खारा होता जाता है। नदियां अपने साथ बहुत सी मिट्टी भी समुद्र में बहा ले जाती हैं। यह मिट्टी धीरे-धीरे करके नदी की तलहटी या नदी जहां समुद्र में मिलती है उस मुहाने पर समुद्र की तलहटी में बैठ जाती है। जैसे-जैसे और ज्यादा मिट्टी की तहें एक-दूसरे पर बैठती हैं वो एक-दूसरे को दबाती हैं और उनसे पत्थर बनते हैं।

एक अन्य प्रक्रिया द्वारा भी पत्थर बनते हैं - जब ज्वालामुखियों से लावा तेजी से बाहर निकलता है। लावा के ठंडे होने के बाद उसके ठोस पत्थर बनते हैं। धीरे-धीरे करके इन पत्थरों की मोटी तहें बन जाती हैं। पत्थर न केवल बनते हैं वे टूटते भी हैं। हवा और पानी के बहाव के कारण सभी प्रकार के पत्थर धीरे-धीरे करके टूटते हैं और मिट्टी या रेत बनते हैं।

यह सभी बदलाव बहुत धीरे-धीरे होते हैं। परन्तु एक जमाने में लावा और मिट्टी के कारण पत्थरों की बहुत मोटी-माटी परतें बनीं होंगी। और धीरे-धीरे उन पत्थरों से बहुत मात्रा में मिट्टी और रेत का निर्माण भी हुआ होगा। क्योंकि यह सब बदलाव बहुत धीमी गति से हुआ होगा इसका मतलब है कि हमारी पृथ्वी भी बहुत पुरानी होगी।

1785 में हटन ने ‘थ्योरी ऑफ द अर्थ’ नाम की एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने अपने सभी सिद्धांतों को पेश किया। उन्होंने लिखा कि पृथ्वी इतनी अधिक पुरानी है कि हम उसकी शुरुआत के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। हटन को पृथ्वी पर आई आपदाओं वाली बात सरासर गलत लगी। उन्हें लगा कि पृथ्वी में आज जो धीरे-धीरे बदल हो रही है वो बदल अतीत में भी लगातार उसी धीमी चाल से होती रही थी।

1700 के अंत तक बहुत से वैज्ञानिक इस बात को मानने लगे थे कि हमारी पृथ्वी बहुत पुरानी है। परन्तु पृथ्वी का इतिहास क्या था? क्या बोहने द्वारा सुझाए अनुसार उसमें बहुत सारी आपदाएं आइ थीं? या फिर उसमें हटन द्वारा सुझाए अनुसार बहुत धीमी गति से बदलाव आया था? काफी समय तक बोहने की बात लोगों में बहुत लोकप्रिय हुई और हटन का मत किसी को नहीं जंचा। इसका एक कारण था कि बोहने का सिद्धांत बाइबिल के मत के अनुकूल था। इसके अलावा कुछ अन्य तर्क भी थे।

क्या कभी आप ऐसे स्थान से गुजरे हैं जहां किसी पहाड़ी को काटकर उस पर रास्ता बनाया जा रहा हो? अगर हां, तो आपने वहां पर पत्थरों की अलग-अलग तहों को जरूर देखा होगा। सबसे पहले इनका वर्णन शार्क दांत के जीवाश्म खोजने वाले स्टेनो ने किया। 1670 के आसपास स्टेनो ने इन पत्थरों की अलग-अलग तहों को ‘स्ट्राटा’ नाम दिया। ‘स्ट्राटा’ एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ होता है, ‘तहें’।

स्टेनो द्वारा पत्थरों की तहों को ‘स्ट्राटा’ नाम दिए जाने के सौ साल बाद भी किसी ने उन पर गम्भीरता से विचार नहीं किया। फिर 1793 में एक ब्रिटिश नागरिक विलियम स्मिथ को इंग्लैंड में नहरें खोदने का काम सौंपा गया। नहरों में पानी बहने के लिए कई पहाड़ियों को काटा गया। स्टेनो जैसे स्मिथ को भी कटे पहाड़ों पर पत्थरों की अलग-अलग तहें दिखाई दीं। स्मिथ को पत्थरों की तहों में जीवाश्म भी मिले। एक और खास बात नजर आई। हर तह में एक विशेष प्रकार के जीवाश्म ही मिले जो अन्य तहों में मिले जीवाश्मों से बिल्कुल अलग थे। स्मिथ ने इन तहों की तहकीकात की और पाया कि वे बहुत दूर-दूर तक जाती थीं। इधर-उधर वे मुड़ी और टूटी भी होती थीं। कुछ स्थानों पर हवा और पानी के असर से वे लुप्त भी हो जाती थीं। पर फिर मीलों दूर, किसी अन्य जगह पर वही ‘स्ट्राटा’ दुबारा दिखाई पड़ता था। वहां पर भी उन तहों का क्रम पूर्व जैसा ही रहता और हरेक ‘स्ट्राटा’ में उसी विशेष प्रकार के जीवाश्म मिलते। स्मिथ ने जो कुछ देखा उसे उसने 1816 में ‘द ज्योलौजिकल मैपिंग ऑफ इंग्लैंड’ नाम की पुस्तक में प्रकाशित किया। इतना जरूर कहा जा सकता था कि जहां तक ‘स्ट्राटा’ की बात थी वहां पर बोहने का आपदाओं वाला मत ठीक था। हर तह मिट्टी की बनी थी जो धीरे-धीरे करके नदी की तलहटी में बैठ गई थी। ऊपर की तहों के दबाव में वे तहें दबकर सख्त होकर पत्थर बनीं। हो सकता है कि हरेक तह लाखों सालों तक मिट्टी के नदी की तलहटी में बैठने के कारण बनी हो। हो सकता है फिर कोई आपदा आई हो जिसके बाद से वही प्रक्रिया दुबारा शुरू हो गई हो। इस प्रकार अलग-अलग मिट्टियों की भिन्न-भिन्न परते बनती रहेंगी और हरेक तह दूसरे से देखने में कुछ अलग लगेगी।

यह सम्भव है कि अलग-अलग कालखण्डों में अलग-अलग जीव रहे हों। और अगर दो आपदाएं दो भिन्न कालखण्डों में आई हों तो उन तहों में भिन्न जीवों के जीवाश्म मिलना भी स्वाभाविक होगा। आप प्रत्येक तह को उसके अंदर मिले जीवाश्मों द्वारा पहचान पाएंगे। तब स्मिथ की खोज सही लगेगी।

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3 एवोल्यूशन (क्रमिक विकास)

जब हम कहते हैं कि जीवाश्मों में अंतर होता है तो उसका क्या मतलब है? दो जीवाश्मों के बीच का अंतर बहुत सूक्ष्म या बारीक हो सकता है। उन सूक्ष्म अंतरों के बारे में निश्चितता से कुछ कहने से पहले हमें जीवित प्राणियों का विस्तार से अध्ययन करना होगा। तभी हम पौधों और जानवरों में भिन्नताओं और उनके बीच के स्थूल और सूक्ष्म अंतरों को समझ पाएंगे। फिर उसके बाद ही हम जीवाश्मों का अध्ययन कर देख पाएंगे कि वो कैसे इस स्कीम में फिट होते हैं।

स्वीडिश प्रकृतिवादी कैरोलस लिनियस ने इसकी शुरुआत की। 1735 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने उन सभी पौधों और जानवरों की सूची दी जिनका उन्होंने अध्ययन किया था। उन्होंने बहुत समझ-बूझ कर उनका वर्णन किया और उनको समूहों में बांटा। हर प्रकार का पौधा या जानवर एक प्रजाति ‘स्पीसीज’ का होता है।

एक-दूसरे से बहुत करीबी से मिलते-जुलते जीवों को लिनियस ने वंश या ‘जीनस’ बुलाया। उन्होंने प्रत्येक पौधे और जानवर को दो लैटिन शब्दों का नाम दिया - पहला उसके ‘जीनस’ दर्शाता और दूसरा उसकी ‘स्पीसीज’।

शेर, चीते और बिल्लियां अलग-अलग प्रजातियों की होती हैं। पर वे सभी ‘फीलिस’ नाम के एक ही ‘जीनस’ के सदस्य हैं। ‘फीलिस’ एक लैटिन शब्द है और उसका मतलब होता है ‘बिल्ली’। लिनियस ने शेर को फेलिस लियो, चीते को फेलिस टिगरिस और बिल्ली को ‘फेलिस डोमिस्टिकस’ नाम दिए। किसी पौधे या जानवर को एक प्रजाति में रखने से पहले उसका बहुत बारीकी से अध्ययन करना पड़ता था। उसके बाद ही उसे सही ‘जीनस’ में रखा जा सकता था। बाद में पौधों और जानवरों के और बड़े समूह बनाए जा सकते थे।

उदाहरण के लिए वो सभी प्रजातियां जिनके बाल और गर्म रक्त होता है ‘स्तनपायी’ या ‘मैमल्स’ कहलाती हैं। इसलिए मैं और आप स्तनपायी हैं। जिन प्रजातियों के पंख और गर्म रक्त होता है वे ‘पक्षी’ होते हैं। जिन प्रजातियों के ‘स्केल्स’ शल्क होते हैं वे सरीसृप या रेप्टाइल्स हाते हैं। जिन प्रजातियों के शल्क होते हैं और जो पानी में सांस लेती हैं वे मछलियां होती हैं।

स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप और मछलियों में एक समानता है कि उन सभी की हड्डियां उनके शरीर के अंदर होती हैं। इसलिए वे सभी एक बड़े समूह ‘वर्टाब्रेटस’ या रीढ़ की हड्डी वाले प्राणी हैं।

लिनियस की प्रणाली जिसमें विभिन्न प्रजातियों को बड़े और बड़े समूहों में रखा जाता था को एक फ्रेंच जीवशास्त्री जौरजिस कूवये ने और सुधारा। कूवये शरीर रचना विज्ञान के विशेषज्ञ थे। वे प्राणियों की शरीर रचना, उनके आकार और हड्डियों से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने अपने विस्तृत ज्ञान के आधार पर अलग-अलग प्रजातियों को समूहों में बांटा।

1790 में कूवये ने दिखाया कि विभिन्न जानवरों मं कुछ गुणधर्म एक साथ पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए सींग और खुर ज्यादातर पौधे खाने वाले जानवरों में पाए जाते हैं। किसी मांसाहारी जानवर के सींग और खुर नहीं होते। मांसाहारी जानवरों के विशेष प्रकार के दांत होते हैं जो शाकाहारी जानवरों में नहीं होते। कूवये की खोज के अनुसार हम किसी जानवर के शरीर के छोटे से भाग से - मात्र एक दांत से भी उस जीव के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं।

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कूवये ने पौधों और जानवरों को बहुत बड़े समूहों में रखा जिसे उन्होंने ‘फायलम’ नाम दिया। उदाहरण के लिए हरेक जानवर जिसमें कोशिकाओं का एक बेलनाकार समूह शरीर को सहारा देता है वो ‘नौटोकोर्ड’ होता है – और ‘कॉरडेट’ नामक फायलम का सदस्य होता है। हरेक रीढ़ की हड्डी वाला जीव - जैसे मनुष्य, हाथी, सांप, मेंढ़क और कॉडफिश इस फायलम के सदस्य होते हैं। (रीढ़ की हड्डी वाले जीवों के भ्रूण में ‘नौटोकोर्ड’ होता है जो बाद में जाकर मेरूदंड बनता है।) तितली, मकड़ी, झींगा मछली और कनखजूरा एक अन्य फायलम के सदस्य हैं जिसका नाम है ‘आरथोपोडा’। कूवये इस वर्गीकरण को खत्म करने के बाद उसे जीवाश्मों पर भी लागू कर सकते थे। उन्हें जीवाश्म और जीवित प्राणियों में कुछ खास अंतर नहीं नजर आया। उन्होंने जिस भी जीवाश्म का अध्ययन किया उन्हें वो किसी-न-किसी जाने-पहचाने फायलम का सदस्य नजर आया। कुछ जीवाश्म ‘कॉरडेट्स’ के थे तो कुछ ‘एंथ्रोपॉड्स’ के। हां, उनमें अंतर थे। कोई जीवाश्म ‘कॉरडेट्स’ का हो सकता था पर वो वर्तमान में पाए ‘कॉरडेट्स’ जैसा एकदम हू-बहू नहीं था। कूवये ने अलग-अलग परतों में पाए जाने वाले जीवाश्मों के बारे में एक और खोज की। कल्पना कीजिए एक पहाड़ी के कटान की जिसमें पांच स्ट्राटा या तहें हैं जो एक-दूसरे के ऊपर हैं। ऐसा सोचना तार्किक होगा कि सबसे नीचे वाली तह सबसे पुरानी होगी। वो सबसे पहली बनी होगी और उसके ऊपर दूसरी और तीसरी तहें बनी होंगी। सतह में सबसे ऊपर सतह सबसे नई होगी। इसका मतलब कि स्ट्राटा में जितनी गहराई पर जीवाश्म मिलेगा वो उतना ही पुराना होगा। हरेक स्ट्राटा में अपने विशेष प्रकार के जीवाश्म थे। कूवये ने पाया कि सबसे ऊपरी परतों के जीवाश्म आज के जीवित प्राणियों से सबसे अधिक मेल खाते थे। स्ट्राटा की निचली गहराईयों में मिलने वाले जीवाश्म वर्तमान में पाए जाने जीवित प्राणियों से बहुत भिन्न थे।

ऐसा लगता था कि जब आज से लाखों साल पहले सबसे निचली परत का निर्माण हो रहा था उस समय के जीव आज पाए जाने वाले प्राणियों से काफी भिन्न थे। समय के बीतने के साथ धीरे-धीरे बदल आई और धीरे-धीरे पौधे और जानवर आज पाए जाने वाले जीवों से कुछ-कुछ मेल खाने लगे। और जब स्ट्राटा की सबसे ऊपर वाली परतें बनीं तब तक पौधे और जानवर वर्तमान के जीवों से बिल्कुल मिलने लगे थे। प्रकृति में हुई इस धीमी गति की बदल को क्रमिक विकास या ‘एवल्यूशन’ कहते हैं। कूवये की खोजों से निश्चित तौर पर ऐसा लगा जैसे कि एवल्यूशन हुआ होगा परन्तु कूवये को उस पर खुद यकीन नहीं था। कूवये निश्चित तौर पर मानते थे कि प्रजातियां बदलती नहीं हैं। बोहने की तरह उनकी भी ‘आपदाओं’ के सिद्धांत में विश्वास था जिसके अनुसार हर आपदा के बाद नई प्रजातियां जन्म लेती थीं। और हर बार जो नई प्रजातियां जन्म लेतीं वे वर्तमान में पाए जाने जीवों से मिलती-जुलती थीं परन्तु उनमें और पिछली प्रजातियों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं था। जैसे-जैसे अन्य जीवाश्मों की जांच-परख हुई वैसे-वैसे आपदाओं में सभी जीवों के मरने की बात सही नहीं लगी। वैसे हरेक तह में विशेष जीवाश्म थे परन्तु अक्सर एक तह के कुछ जीवाश्म किसी अन्य तह में भी मिलते थे। इसका अर्थ यह था कि कुछ प्रजातियां जीवित रहती थीं और वो अगली पीढ़ी के पौधों और जानवरों की पूर्वज बनती थीं।

इसलिए कई वैज्ञानिक हटन के मत - धीमी गति वाले शाश्वत विकास के पक्षधर हो गए। उनमें सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे स्काटलैंड के वैज्ञानिक चार्ल्स लॅाइल।

1830 और 1833 के बीच लाइल ने तीन खण्डों में ‘द प्रिंसिपिल्सऑफ जियोलोजी’ नाम के ग्रंथ छापे। इसमें उन्होंने बहुत समझबूझ कर सबूत इकट्ठे किए और ‘आपदा’ वाले सिद्धांत का खण्डन किया। उन्होंने तार्किक आधार पर सिद्ध किया कि पृथ्वी पर सबसे प्राचीन जीवाश्मों के जमाने से ही जीवन चला आ रहा है। लॅाइल को लगा कि सबसे पुराने जीवाश्म सैकड़ों करोड़ों साल पुराने लगे। (इसकी तुलना लॅाइल से सौ वर्ष पहले बोहने की 40000 साल की गणना से करें)। लॅाइल की पुस्तक इतनी प्रखर थी कि उसके बाद से ‘आपदाओं’ का सिद्धांत - जिसमें पृथ्वी के सभी जीव नष्ट हो जाते थे को हमेशा के लिए त्याग दिया गया। फिर 1830 के बाद से लोग इस विचार को मानने लगे कि पृथ्वी पर जीवन निर्बाध रूप से सैकड़ों-करोड़ों सालों से लगातार चलता आया ह। इससे पहले भी कई वैज्ञानिकों ने एवल्यूशन या पृथ्वी पर क्रमिक विकास के बारे में चिंतन किया था। परन्तु जिस ब्रिटिश वैज्ञानिक ने इस सिद्धांत को स्थापित किया वो थे चार्ल्स रॅाबर्ट डारविन।

1831 में डारविन पांच साल की समुद्री यात्रा पर गए। इस दौरानउन्होंने पूरी दुनिया का दौरा किया और हर जगह के पौधों और जानवरों का अध्ययन किया। वो लॅाइल की पुस्तक का पहला खण्ड साथ में ले गए जिसे उन्होंने बेहद रुचि से पढ़ा। अपनी यात्रा के दौरान उन्हें पृथ्वी की लम्बी आयु के अनेकों प्रमाण मिले। उन्हें ऐसे जीवाश्म मिले जिनसे यह सिद्ध हुआ कि प्राचीन काल के जानवर अलग किस्म के थे। उन्होंने कुछ द्वीपों के जीवन का अध्ययन किया और पाया कि वहां पर प्रजातियां अलग-अलग द्वीपों की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालती थीं। उन्हें यह भी समझ में आया कि वर्तमान की तुलना में अतीत में पृथ्वी पर पौधों और प्राणियों की प्रजातियां बहुत अलग रही होंगी। पुरानी प्रजातियां धीरे-धीरे बदली होंगी और वर्तमान में पाई जाने वाली प्रजातियों जैसे बनी होंगी। डारविन ने 1858 में ‘द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज’ नाम की पुस्तक लिखी जिसमें उन्हें बहुत समझबूझ कर और सावधानी से जो भी प्रमाण उन्हें मिले थे उसका वर्णन किया।

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बहुत से लोगां को डारविन की किताब से धक्का लगा और वे हैरान हुए क्योंकि क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) की अवधारणा पूरी तरह बाइबिल के खिलाफ जाती थी। पर डारविन ने अपनी पुस्तक में अकाट्य प्रमाण पेश किए थे जिससे कि क्रमिक विकास (एवोल्यूशन) की अवधारणा को वैज्ञानिकों ने स्वीकारना शुरू किया। फिर धीरे-धीरे उसके पक्ष में और सबूत जुटने लगे। सबसे अधिक प्रमाण जीवाश्मों से मिले। इसलिए हम जीवाश्मों पर दुबारा वापिस जाएंगे।

4 प्राचीन जानवर

जब कूवये जीवाश्मों पर काम कर रहे थे तो वे जीवाश्मों पर अपने जमाने के सबसे बड़े विशेषज्ञ समझे जाते थे। जब कभी लोगों को जीवाश्म मिलते तो वे तुरन्त उन्हें कूवये के पास लाते। उदाहरण के लिए उनके पास एक बार एक बड़े पंजे का जीवाश्म लाया गया। वो अमरीका में मिला था और लोगों को लगा था कि वो बड़ा पंजे किसी विशाल शेर का होगा जो अब लुप्त हो चुका था। कूवये ने पंजे का अध्ययन किया और वो उन्हें शेर या किसी अन्य मांसाहारी प्राणी का नहीं लगा। उन्हें वो पंजा एक प्रकार के भालू (स्लाथ) का लगा। स्लाथ दक्षिण अमरीकी प्राणी हैं - वे पेड़ों पर रहते हैं और पत्तियां और टहनियां खाते हैं। वो अक्सर टहनियों को अपने मजबूत पंजों से पकड़कर उल्टा होकर लटकते है और फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। कूवये को लगा कि वो पंजा किसी भीमकाय स्लाथ का होगा। और

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उनका अनुमान ठीक निकला। दूसरे जीवाश्मों से पता चला कि कभी अमरीका में इतने भीमकाय स्लाथ थे कि वो पेड़ की टहनियों से नहीं लटक पाते थे। कुछ तो 20-फीट लम्बे थे और उनका भार वर्तमान हाथी जितना था। क्योंकि इतना बड़ा जीव केवल जमीन पर ही रह सकता था इसलिए उनका नाम ‘ग्रांउड-स्लाथ’ पड़ा। उनका वैज्ञानिक नाम मेगाथीरीयम है जिसका मतलब होता है ‘बड़ा जानवर’।

डारविन

जीवाश्मों की कई हड्डियां भी कूवये के पास लाई गयीं। उनमें न केवल पंजे थे परन्तु शरीर की अन्य हड्डियां भी थीं।

1766 में नेदरलैंड में म्यूस नदी (जिसे प्राचीन रोमवासी मोसा बुलाते थे) के पास एक पत्थर की खदान थी। वहां से लोग घर बनाने के लिए पत्थरों की खुदाई करते थे। एक दिन खुदाई के दौरान कुछ मजदूरों को कुछ जीवाश्म हड्डियां मिलीं।

भाग्यवश, पास के शहर में जीवाश्मों का एक जानकार रहता था। उसने मजदूरों से जीवाश्म लेकर उन्हें सुरक्षित रखे। फिर अन्य हड्डियां मिलीं और फिर 1780 में वहां एक बड़ी खोपड़ी मिली। वो हड्डियां किस जानवर की हो सकती थीं इसके बारे में कई मत थे।

अंत में 1795 में वे सारे जीवाश्म कूवये के पास भेजे गए। अब उनका बारीकी से जांच-पड़ताल का काम शुरू हुआ। एक जिन्दा स्तनपाई और सरीसृप के बीच अंतर करना आसान होता है क्योंकि स्तनपाई के बाल और गर्म-रक्त होता है और सरीसृप का ठंडा-रक्त और शल्क होते हैं। पर कल्पना करें आपके पास केवल उनकी हड्डियां हैं। क्योंकि स्तनपाई और सरीसृपों की हड्डियां भी कुछ भिन्न होती हैं इसलिए विशेषज्ञ उनके बीच अंतर को बता सकते हैं।

खोपड़ी के अंदर हड्डियों की सजावट से कूवये इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पत्थर की खदान में मिला जीवाश्म किसी सरीसृप का था और कि किसी स्तनपाई का। छिपकलियां, सांप, कछुए और मगरमच्छ वर्तमान में पाए जाने सरीसृपों के उदाहरण हैं। कूवये को वो जीवाश्म का कंकाल किसी छिपकली का लगा। इस प्राचीन छिपकली के पैरों की बनावट बिल्कुल नाव खेने वाले चप्पुओं जैसी थी। वो अंत में एक समुद्री छिपकली निकली और उसका नामकरण हुआ मोसासौर - यानी मौसा छिपकली। वो एक बहुत बड़ा जीव था। कुछ अन्य जीवाश्मों की खोज हुई जिससे मौसासौर की लम्बाई 45-फीट और उसका आकार एक बड़ी व्हेल जितना बड़ा होने का अनुमान लगाया गया। कूवये ने यह दिखाया कि प्राचीन कालखण्डों में भीमकाय स्तनपाई और भीमकाय सरीसृप दोनों थे। कभी पृथ्वी पर भीमकाय राक्षस रहते थे इस जानकारी से लोग बहुत उत्साहित हुए। क्या यह सम्भव है कि गुफाओं में रहने वाले हमारे पूवजरें ने उन राक्षसों से लड़ाई लड़ी हो? क्या यही दानवों और राक्षसों की कहानियों का स्रोत्र हो?

नहीं, वास्तविकता में ऐसा नहीं हुआ। असल में इन भीमकाय प्राणियों के जीवाश्म बहुत प्राचीन तहों में मिले। मनुष्य के आगमन से बहुत लम्बे काल पहले वे जीव पृथ्वी पर आबाद थे। मनुष्यों के पृथ्वी पर आने से बहुत पहले ही यह जीव लुप्त हो चुके थे।

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इतना अवश्य है कि मनुष्यों द्वारा बहुत प्राचीन काल के जीवाश्मों की खोज के बाद उन्हें पता चला कि कभी पृथ्वी पर राक्षसों और जानवरों जैसे भीमकाय जीव राज्य करते थे।

ऐसा नहीं है कि जीवाश्मों का बड़ा आकार ही सिर्फ लोगों की रुचि का विषय था। कूवये ने एक बहुत पुराने जीवाश्म के बारे में सुना था जो असल में बहुत छोटा था। हड्डी वाले किसी जीव की तरह उसके भी चार पैर थे। पर इस विशेष नमूने के आगे वाले पैर बहुत ज्यादा लम्बे थे। इस जीवाश्म के चित्रों का कूवये ने बहुत बारीकी से अध्ययन किया।

उसमें हड्डियों की बनावट एकदम किसी सरीसृप जैसी थी, परन्तु उसके बहुत ज्यादा लम्बे आगे वाले पैर क्यों थे? आगे वाले पैरों के अंत में चार जोड़ी उंगलियों की हड्डियां थीं। उनमें से तीन एकदम साधारण और छोटी थीं परन्तु उंगलियों की चौथी और अंतिम हड्डी बाकी हाथ से भी लम्बी थी। अगले हाथों की एक उंगली ने उस हाथ को इतना लम्बा बना दिया था। सिर्फ वो एक उंगली इतनी लम्बी क्यों थी? कूवये को उसके पीछे सिर्फ एक कारण लगा - उंगली के साथ कोई जरूर कोई त्वचा का जाल चिपका होगा। ऐसी खिंची हुई चमड़ी केवल पंख ही हो सकती थी। दूसरे शब्दों में जिस प्राचीन सरीसृप की वो जांच-पड़ताल कर रहे थे वे उसके पंख थे और वो उड़ सकता था। कूवये ने उसे ‘टेरोडेक्टेल’ - यानी ‘पंख-उंगली’ नाम दिया।

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कूवये की इस खोज ने हलचल मचा दी। क्योंकि वर्तमान में तो इस प्रकार का उड़ने वाला कोई सरीसृप था ही नहीं। कूवये ने जिस जीवाश्म का सबसे पहले अध्ययन किया वो बहुत बड़ा नहीं था परन्तु कुछ साल बाद एक बहुत बड़ा उड़ने वाला कोई सरीसृप मिला।

इस पूरे समूह का नाम ‘टेरोसौरस’ पड़ा जिसका मतलब होता है ‘उड़ने वाली छिपकली’।

इनमें कुछ के खुले पंख छोर-से-छोर तक 25-फीट लम्बे थे। ये पृथ्वी पर उड़ने वाले सबसे विशाल जानवर थे। कूवये द्वारा टेरोडेक्टेल की खोज के एक साल पहले मेरी एनिंग नाम की बारह साल की लड़की को दक्षिण इंग्लैंड में अपने घर के पास की पहाड़ी पर एक विशाल जानवर के जीवाश्म मिले। इस जीवाश्म की हडिडयां 30-फीट लम्बी थीं।

उसकी हडिडयां की सजावट मछली से काफी मिलती-जुलती थी। पर जब उसकी खोपड़ी की हडिडयों की जांच-पड़ताल की गई तो वो जानवर मछली की बजाए समुद्री सरीसृप निकला। कूवये ने इस निर्णय में पहुंचने में मदद की।

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आज भी समुद्री सांप और समुद्री कछुओं जैसे सरीसृप पाए जाते हैं।

परन्तु किसी भी सरीसृप का आकार मछली जैसे नहीं होता है। मेरी एनिंग के जीवाश्म का नाम ‘इखतीउहसौर’ पड़ा - जिसका मतलब होता है ‘मछली-छिपकली’।

मेरी एनिंग ने अब जीवाश्म खोजने को अपना पेशा बना लिया था। 1821 में उसने एक अन्य समुद्री सरीसृप की खोज की। उसके हाथ मौसोसौर की तुलना में ज्यादा लम्बे थे और उसकी गर्दन भी बहुत लम्बी थी। उसका नाम ‘प्लीसीसौर’ पड़ा जिसका मतलब होता है ‘छिपकली जैसी’। इखतीउहसौर की तुलना में वो सरीसृप ज्यादा और मछली जैसी कम दिखती थी।

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ऐसा नहीं था कि हमशा कूवये के निष्कर्ष सही निकलते हों। कूवये ने कई बार गलितयां भी कीं।

1822 में एक ब्रिटिश जीवाश्म खोजी गिजियन एल्गरनान मैन्टेल को कुछ दांतों और हड्डियों के जीवाश्म मिले। वो किसी 20-फीट लम्बे जानवर के लगते थे। मैन्टेल ने कुछ दांतों और हड्डियों के नमूने कूवये को भेजे। कूवये ने उनकी बहुत बारीकी से जांच-परख की और उसे वो किसी बड़े स्तनपाई के अवशेष लगे। उसे वो दांत किसी गैंडे के लगे।

क्योंकि कूवये जीवाश्मों के जाने-माने विशेषज्ञ थे इसलिए मैन्टेल के पास उनकी बात मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था। फिर कुछ वर्ष बाद मैन्टेल को कुछ दांत मिले जो उत्तरी अमरीका के रेगिस्तान में रहने वाली इगुआना नाम की विशाल छिपकली के थे। वो दांत एकदम मैन्टेल के पुराने जीवाश्म के दांतों से मेल खाते थे।

बस इतना फर्क था कि जीवाश्म के दांत बहुत बड़े थे। उससे यह निष्कर्ष निकलता था कि वो जीवाश्म किसी सरीसृप के होंगे। मैन्टेल ने उस जीवाश्म का नाम ‘इगुआनोडान’ रखा जिसका मतलब होता है ‘इगुआना का दांत’। जब कूवये ने इगुआना का दांत देखा तो उन्हें अपनी गलती स्वीकार करनी पड़ी। मैन्टेल की बात सही निकली। इगुआनोडान जब जीवित थी तो वो देखने में एक विशाल, भारी कंगारू जैसी दिखती थी। उसका शरीर शल्कों से भरा था और उसका भार हाथी से अधिक था।

1840 का ढेर सारे जीवाश्म खोज जा चुके थे। खोजे जीवाश्मों की संख्या इतनी अधिक थी कि उन्हें उनकी हड्डियों और खोपड़ी की बनावट और सजावट के अनुसार अब अलग-अलग समूहों में रखा जा सकता था।

इखतीउहसौरस का तो अपना एक अलग से समूह बना। प्लीसियोसौरस एक दूसरे समूह में रखे गए और टेरोसौर तीसरे समूह में। दरअसल इन भीमकाय जानवरों से डरने की कोई बात नहीं थी।

इखतीउहसौरस और प्लीसियोसौरस समुद्री जीव थे और वे जमीन पर नहीं आ सकते थे। अगर वो आज जिन्दा होते तो उनसे मनुष्यों को कोई खतरा नहीं होता।

टेरोसौरस उड़ने वाले जीव थे। वे बहुत छोटे थे और शायद चीलों से भी कम खतरनाक थे। साथ में जमीनी सरीसृपों के भी दो समूह थे - जिनकी खोपड़ियां देखने में टेरोसौरस जैसे दिखती थीं। वे ज्यादा खतरनाक थे। वे शायद जमीन पर रहने वाले सबसे विशाल मांसाहारी जीव थे। उनकी तुलना में शेर बिल्कुल बिल्ली के बच्चे जैसा लगेगा। कुछ शाकाहारी सरीसृप उनसे भी बड़े थे। अगर मनुष्य तब जिन्दा होते तो भी ये सरीसृप उन्हें नहीं खाते पर उनके पैरों के नीचे कुचले जाने का डर हमेशा बना रहता।

1842 में इन विशाल सरीसृपों के दोनों समूहों का डायनोसौर नाम पड़ा। डायनोसौर का मतलब होता है ‘खतरनाक छिपकली’। यह नाम एक ब्रिटिश प्रकृतिवादी रॉबर्ट अॅवन ने दिया। जिस डायनोसौर की सर्वप्रथम खोज हुई वो था इगुआनोडौन – जिसे पहचानने में कूवये ने गलती की थी। कूवये ने जीवाश्मों के बारे में बहुत मौलिक खोजें कीं परन्तु फिर भी उन्हें पहला डायनोसौर की खोज का श्रेय नहीं मिला। पहला डायनोसौर खोजने का श्रेय मैन्टेल का गया।

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5 सरीसृपों का विकास

जब डारविन की क्रमिक विकास (एवल्यूशन)1859 में डारविन की पुस्तक के छपने के पश्चात लोग लुप्त हुए डायनोसौर और अन्य जानवरों में रुचि लेने लगे।

डायनोसौर न केवल भीमकाय और अजीबो-गरीब प्राणी थे, पर वे कभी जिन्दा थे और अब पूरी तरह से लुप्त हो गए थे। वो पृथ्वी पर जीवन के विकास के एक लम्बे इतिहास का एक अंग थे। विशाल स्तनपाईयों की तुलना में भीमकाय सरीसृपों के जीवाश्म निचली और पुरानी परतों में मिलते थे। सच तो यह था कि जिन परतों में भीमकाय सरीसृपों के जीवाश्म मिलते थे वहां पर विशाल स्तनपाईयों के जीवाश्म नहीं मिलते थे।

क्या यह सम्भव है कि स्तनपाईयों के जन्म से पहले पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण जीव सरीसृप रहते हों? क्या सरीसृपों न धीरे-धीरे करके स्तनपाई प्राणियों ने जन्म दिया? क्या अब लुप्त सरीसृप हमारे पूर्वज थे?

डारविन के जमाने से ही जीवाश्म खोजी भरपूर कोशिश कर ज्यादा-से-ज्यादा जीवाश्म इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं। वो पत्थरों की अलग-अलग परतों की आयु मालूम करके उनमें मिलने वाले वाले खास जीवाश्मों को खोजते थे। वो जीवाश्मों के आकार और उनकी बारीकियों की अच्छी तरह जांच-पड़ताल करते थे जिससे वो उन पौधों या जानवरों की पहचान कर सकें। इससे पृथ्वी पर जीवन किस तरह विकसित हुआ इसका उन्हें पता चलता था। इससे उन्हें यह भी समझ में आता था कि लाखों-करोड़ों सालों में पृथ्वी पर प्रजातियां एक से दूसरे में किस प्रकार बदलीं। जीवन का इतिहास समझने के लिए हमें पत्थरों की सबसे निचली और पुरानी परतों में मिले जीवाश्मों से शुरू करना चाहिए। 1907 तक वैज्ञानिकों ने इन परतों की आयु पता करने की तकनीक खोज ली थी। इसके लिए वो पत्थर में पाए जाने कुछ रासायनों के बदलने की धीमी गति को मापते थे। वे रासायनों के बदलने की गति मालूम और कितना रासायन बदला है यह पता करते। इनसे वो पत्थरों की आयु ज्ञात कर सकते थे। पत्थरों की आयु मालूम करते समय यह पता चला कि सबसे पुराने जीवाश्म आज से 60-करोड़ वर्ष पुराने पत्थरों में मिलते हैं। यह सबसे पुराने जीवाश्म भी काफी जटिल प्राणियों के अवशेष है। उसके पहले भी लाखों-करोड़ों साल तक जीवन फूला-फला होगा। जीवन के शुरुआत में जो जीव थे उनके मुलायम शरीर में कोई हड्डियां या सीपियां नहीं थीं। इसलिए पूर्व के प्राणी अपने पीछे जीवाश्म नहीं छोड़ गए।

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पृथ्वी पर जीवन कैसे विकसित हुआ

सबसे पुराने जीवाश्मों में अलग-अलग प्रकार के समुद्री जीव हैं -

उदाहरण के लिए उनमें विभिन्न प्रकार की शेलफिश है। वर्तमान में जितने भी ‘फायला’ मौजूद हैं उनमें से एक को छोड़ कर बाकी सभी 60-करोड़ वर्ष पहले भी मौजूद थे।

जो अपवाद है उसका नाम है ‘कौरडेट फायलम’ - इस समूह में स्तनपाई और सरीसृप आते हैं। सबसे पहले कौरडेट फायलम पत्थरों की तहों में निकले जो 50-करोड़ वर्ष पुरानी थीं। उसके 10-करोड़ साल बीतने के बाद मछली जैसे कौरडेट बहुतायत में मिलने लगे। सभी कौरडेट्स अपने विकास काल में समुद्री जीव थे। करीब 42-करोड़ वर्ष पूर्व तक पृथ्वी पर जीवन के कोई चिन्ह नहीं दिखते थे। हो सकता है कि जमीन में बैक्टीरिया हों परन्तु निश्चित रूप से पौधे और जानवर नदारद थे। पर समुद्रों में जीवित प्राणी मौजूद थे। और ज्वार-भाटे के दौरान उनमें से कुछ समुद्री जीव कुछ समय के लिए जमीन पर फंस जाते थे। उनमें से कुछ जीव जमीन के सूखे परिवेश को अच्छी तरह झेल सके और उन्होंने अपने ही जैसी संतानें पैदा कीं। इस तरह लाखों सालों के अंतराल में समुद्री प्राणी लम्बे अर्से तक जमीन पर जिन्दा रहने के आदी बने। उसके बाद जमीन पर पौधे भी उगने लगे। जो छोटे प्राणी अपने जीवन को सूखी जमीन के अनुकूल ढाल पाए जैसे - मकड़ियां, कीट और घोंघे अब जमीन पर प्रचुर मात्रा में उग रहे पौधों को खा सकते थे।

ज्वार-भाटे के बाद पानी का स्तर कम होने के बाद कौरडेट भी जमीन पर फंसे। या फिर वो झीलों में रहे जो गर्मियों के दिनों में पूरी तरह सूख जाती थीं। इसलिए उन्हें किसी दूसरी झील में पनाह लेने के लिए जमीन पर चलना जरूरी हो गया। जो कौरडेट इसके लिए सबसे उपयुक्त थे उनके मजबूत गलफड़े थे। वे अपने गलफड़ों की सहायता से जमीन पर किसी प्रकार रेंगने लगे। लाखों-करोंड़ों सालों के विकास के बाद वे गलफड़े पैरों में बदले और मछलियां सांस लेने लगीं। वे अंडे सेने लगीं पर इन अंडों का कोई सुरक्षा कवच नहीं था। उन अंडों को पानी में सेना जरूरी था नहीं तो वे सूख कर मर जाते। अंडों से निकले वाले नन्हें जीवों को व्यस्क होने तक पानी में ही रहना अनिवार्य था। फिर उनके पैर उग आते और वे आराम से जमीन पर चल पाते।

ऐसे जीव जो अपना बचपन पानी में बिताते हैं और जो बड़े होने के बाद जमीन पर आते हैं उन्हें ‘एम्फीबियन’ कहते हैं। ‘एम्फीबियन’ का मतलब होता है ‘दोहरी जिन्दगी’। आज के सबसे जाने-पहचाने और आम ‘एम्फीबियन’ मेंढक हैं। वो अपने अंडे पानी में सेते हैं। उनसे निकले छोटे मेंढक (टैडपोल) पानी में रहते है। अंत में इन छोटे मेंढकों के पैर और फेफड़े विकसित होते हैं जिसके बाद वे जमीन पर आते हैं। आज से 35-करोड़ वर्ष पहले जमीन पर जीने वाले सबसे विशाल प्राणी ‘एम्फीबियन’ थे। वे देखने में बिलकुल मंढकों जैसे नहीं थे। वे शक्तिशाली जीव देखने में मगरमच्छों जैसे दिखते थे। कुछ 10-15 फीट लम्बे थे।

यह ‘एम्फीबियन’ पानी के पास रहते जिससे कि वे अपने अंडे वहां सेने के लिए जा सकें। अंडों से निकले नन्हें शिशु काफी असहाय और असुरक्षित होते और उन्हें पानी में ही रहना पड़ता था। उसके बाद एक और बदलाव आया। कुछ ‘एम्फीबियन’ ऐसे अंडे सेने लगे जो पहले से कहीं ज्यादा सुरक्षित थे। कुछ अंडों का कवच था और उनके अंदर पानी था जिससे कि वे सूखे नहीं। कवच में से हवा अंदर-बाहर आती जिससे कि भ्रूण सांस ले सके। अब यह प्राणी जमीन पर अंडे से सकते थे। अंडों को ऐसे स्थानों पर सेया जा सकता था जहां वे सुरक्षित रहें। नन्हा शिशु अंडे के अंदर ही विकसित हो सकता था। तब तक उसके पैर और फेंफड़े विकसित हो जाते और फिर वो आराम से जमीन पर जिन्दा रह सकता था।

ऐसे प्राणियों को अंडे सेने के लिए पानी में वापस जाने की जरूरत नहीं थी। ये प्राणी पहले सरीसृप थे। पहले सरीसृप बहुत छोटे जीव थे। अब उन्हें पानी में अंडे सेने की जरूरत नहीं थी और क्योंकि उनके अंडे अब सुरक्षित थे इसलिए उनकी संख्या में तेजी से बढ़ौत्तरी हुई। वो जमीन पर उन स्थानों पर गए जहां एम्फीबियन्स का पहुंचना बहुत मुश्किल था। सरीसृप पृथ्वी पर पाए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण प्राणी थे।

मुर्गी का अंडा

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6 डायनोसौर का काल

करीब 25-करोड़ वर्ष पहले सरीसृपों का जमीन पर साम्राज्य था। उनमें से कुछ - इखतीउहसौरस और प्लीसियोसौरस समुद में वापस चले गए थे। बाकी जमीन पर बने रहे। जिन प्राणियों को हम डायनोसौर कहते हैं वो करीब 25-करोड़ वर्ष पहले विकसित हुए। 25-करोड़ वर्ष पहले सरीसृपों की सबसे आम प्रजाति डायनोसौर की थी। वो दो समूहों में बंटे थे। एक समूह की कूल्हे की हड्डी थी जैसे आज वर्तमान छिपकलियों की होती है और उनका नाम था ‘सौरसकीनस’ - जिसका मतलब होता है ‘कूल्हों वाली छिपकली’। दूसरों की कूल्हों की हड्डी वर्तमान पक्षियों जैसे थी और उनका नाम था ‘औरनिहथिसकीनस’ - जिसका मतलब होता है ‘पक्षियों जैसे कूल्हों वाली’। पूर्व के डायनोसौर देखने में छिपकलियों जैसे थे और वे अपने पिछले पैरों पर दौड़ते थे। उनकी लम्बी पूंछ थी जो शायद सिर वाले भाग को संतुलित करती थी। उनके आगे के पैर छोटे थे और वो उनसे शायद अपना भोजन पकड़ते थे। दो पैरों पर तेजी से दौड़ने के कारण मांसाहारी जीवों को अपना शिकार पकड़ने में आसानी होती होगी और शाकाहारी प्राणी अपने दुश्मनों से जल्दी पलायन कर सकते हांगे। कुछ डायनोसौर 10-करोड़ वर्ष पहले धीरे-धीरे करके विशाल और भीमकाय प्रजातियों में बदले होंगे। उनमें से सबसे प्रसिद्ध है ‘ट्रिनोसौरस’ - जिसका मतलब होता है ‘मास्टर छिपकली’।

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वो देखने में एक विशाल कंगारू जैसा लगता है। सिर से शीर्ष से पूंछ के सिरे तक उसकी लम्बाई करीब 50-फीट की होगी। उसका सिर 6-फीट लम्बा था जिसमें छह दांत थे जो जमीन से कोई 20-फीट की ऊंचाई पर होंगे। वो जिराफ से भी ज्यादा ऊंचा था! उसका 12-टन का वजन सबसे भारी हाथी से भी अधिक था! ट्रिनोसौरस और उस जैसे अन्य डायनोसौर जमीन पर जीने वाले सबसे विशाल मांसाहारी प्राणी थे। पर कुछ डायनोसौर शाकाहारी यानी पौधे खाने वाले भी थे। शाकाहारी डायनोसौर धीरे-धीरे इतने बड़े हो गए कि उनके लिए पिछले दो पैरों पर खड़े होना असम्भव हो गया। अब उन्हें खड़े होने के लिए अपने अगले पैरों का भी इस्तेमाल करना पड़ा। उनमें से सबसे बड़े डायनोसौर को खड़े होने के लिए हमेशा अपने चारों पैरों का उपयोग करना पड़ता था। उनके पैर एकदम मोटे बिलकुल खम्बों जैसे थे।

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उनमें से एक था डिपलीडोकस - जिसका मतलब होता है ‘दोहरे खम्बे’ क्योंकि उसके पिछले और अगले पांव देखने में एक-समान थे। डिपलीडोकस की गर्दन एकदम पतली और लम्बी थी और उसके ऊपर एक छोटा सिर था। दूसरे छोर पर एक लम्बी, पतली पूंछ थी। बीच में एक मोटा शरीर था जो चार मोटे खम्बों पर टिका था। नाक से पूंछ के सिरे तक उसकी लम्बाई 90-फीट की थी। वो जमीन पर रहने वाला सबसे लम्बा जीव था। वैसा ही एक और डायनोसौर था - ब्रौटोसोरस - जिसके मतलब होते हैं ‘तूफानी छिपकली’ क्योंकि उसके पदचापों की आवाज तूफान जैसे सुनाई देती होगी। वो डिपलीडोकस जैसा लम्बा तो नहीं था पर वो उससे ज्यादा मोटा और वजनदार था। उसका वजन शायद 30-टन का रहा हो जो सबसे बड़े हाथी के भार से तीन-गुना ज्यादा होगा।

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इन डायनोसौर में सबसे भारी था ब्रैकीसोरस - जिसके मतलब होते हैं ‘हाथ-छिपकली’। उसका यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उसके अगले पैर किसी डायनोसौर के लिए बहुत लम्बे होंगे। उसकी गर्दन बहुत लम्बी परन्तु पूंछ छोटी थी। वो बहुत मोटा था और उसका भार कोई 50-टन का होगा। वो जमीन पर जीने वाला सबसे भारी प्राणी रहा होगा। इन बड़े भीमकाय डायनोसौर के बारे में तो लोग जानते हैं। अगर आपको कभी किसी डायनोसौर का चित्र दिखे तो वो सम्भवतः ब्रौटोसोरस का होगा।

1870 में ब्रौटोसोरस जैसे विशाल डायनोसौर के जीवाश्म मिले जो उस समय लोगों के लिए एक बहुत सनसनीखेज खबर बनी। एक अमरीकी जीवाश्म खोजी चार्ल्स औथनील मार्श ने यह खोज की। उसने कुल मिलाकर अस्सी नए डायनोसौर की खोज की। उस समय के एक और जीवाश्म खोजी का नाम था एडविन ब्रिकर कोप। मार्श और कोप में सबसे पहले नए डायनोसौर खोजने की लगातार होड़ और लड़ाई चलती रहती थी।

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अन्य समूहों के डायनोसौर जैसे औरनिहथिसकीनस भी अपने पिछले दो पैरों पर दौड़ते थे। इसमें इगुआनोडौन्स शामिल थे। इगुआनोडौन्स सबसे पहले खोजे गए डायनोसौर थे। इस समूह के अन्य सदस्यों ने जिन्दा रहने के बहुत सख्त और मोटी चमड़ी विकसित की। दुश्मन पर वार करने के लिए उनके शरीर पर सींग और नुकीली कीलें विकसित हुयीं। इस प्रकार के सबसे अच्छे नमूने मार्श ने खोजे। इनमें से एक है 20-फीट लम्बा स्टेगोसौरस - जिसका मतलब होता है ‘छत-छिपकली’। इसका कारण था कि उसकी जीवाश्म हड्डियों में बहुत सारी चपटी हड्डियां मिलीं। पहले तो जीवाश्म विशेषज्ञों को लगा कि वो चपटी हड्डियां उस जानवर की पीठ पर छत के कबेलुओं जैसी खड़ी होंगी और उसे दुश्मनों से बचाती होंगी। परन्तु विस्तृत जांच से पता चला कि वो चपटी हड्डियां एक दोहरी कतार में रीढ़ की हड्डी पर खड़ी रहती थीं।

स्टेगोसौरस की पूंछ पर भी लम्बी और नुकीली कीलें थी। वैसे तो स्टेगोसौरस एक शाकाहारी डायनोसौर था। परन्तु उसकी पीठ की हड्डियों और पूंछ पर नुकीली कीलों जैसे हथियारों के कारण कोई भी मांसाहारी डायनोसौर उसके पास आने से डरता होगा।

किसी भी डायनोसौर का मस्तिष्क बहुत बड़ा नहीं था। स्टेगोसौरस का

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मस्तिष्क तो बहुत छोटा था। वैसे उसका आकार हाथी से बड़ा था पर उसका मस्तिष्क बस बिल्ली के बराबर का था। ट्रिसेरोट्राप्स - जिसका मतलब होता है ‘तीन सींग वाला चेहरा’ नाम के डायनोसौर का शरीर भी भारी सुरक्षा कवच से लैंस था। वो अपने सिर से खुद की सुरक्षा करता था। उसकी खोपड़ी पर हड्डियों की एक झालर थी जो गर्दन तक जाती थी। उसकी अांख के ऊपर दो लम्बे सींग थे, और एक उसकी नाक के ऊपर। वो 20-फीट लम्बा था। ट्रिसेरोट्राप्स भी शाकाहारी था और वो ट्रिनोसौरस के काल में जीवित था। देखने में भयानक ट्रिनोसौरस की कभी ट्रिसेरोट्राप्स से लड़ने या फिर उसके सींगों के नजदीक आने की हिम्मत नहीं थी।

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सबसे मजबूत सुरक्षा कवच अंखलीसौरस नाम के डायनोसौर का था।

अंखलीसौरस का मतलब होता है ‘साथ बढ़ने वाली छिपकली’। उसके शरीर पर हड्डियों की प्लेट्स आपस में मिलकर एक ठोस सुरक्षा कवच बनाती थीं। यह कवच और सींग उसकी पूंछ तक जाते और पूंछ के सिरे पर एक हड्डियों का बड़ा गदा जैसा होता था। अंखलीसौरस बिलकुल एक जीवित फौजी टैंक था।

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यह सभी डायनोसौर एक विशेष काल में जीवित नहीं थे। कुछ विकसित होकर लाखों सालों तक जिन्दा रहे और फिर लुप्त हो गए। और फिर उनकी जगह पर दूसरे प्रकार के डायनोसौर आए। उदाहरण के लिए स्टैगासौर करीब 15-करोड़ वर्ष पहले जीवित था। वो लाखों सालों तक जिन्दा रहा पर फिर बाद में अंखलीसौरस और ट्रिसेरोट्राप्स विकसित हुए। उन दोनों के सुरक्षा कवच स्टैगासौर से बेहतर थे और उनके मस्तिष्क भी बड़े थे। स्टैगासौर उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया। और फिर अचानक 7-करोड़ वर्ष पहले सभी डायनोसौर लुप्त हो गए।

किसी को भी नहीं पता कि असल में क्या हुआ। इसके बारे में लोगों ने अलग-अलग मत हैं। शायद यह मौसम के बदलाव की वजह से हुआ हो। हो सकता अन्य प्राणी डायनोसौर के अंडे खा गए हों। शायद ऐसा कुछ हुआ हो जिसकी हम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते। किसी को भी नहीं पता। हमे इतना अवश्य पता है कि सारे डायनोसौर्स की मृत्यु हो गई। पत्थरों की एक परत में हमें अंतिम चरण में विकसित डायनोसौर - जैसे ट्रिनोसौरस और ट्रिसेरोट्राप्स के जीवाश्म मिलते है। और उसके तुरन्त ऊपरी परत में डायनोसौर्स के जीवाश्मों का कोई नामोंनिशां नजर नहीं आता है। न केवल डायनोसौर्स लुप्त हुए पर उनके साथ-साथ बड़े सरीसृप जैसे प्लीसियोसौर और इखतीउहसौरस भी सदा के लिए लुप्त हो गए। पंखां वाला टेरोसौरस भी लुप्त हो गया और साथ में कुछ अन्य महत्वपूर्ण जानवरों का समूह भी लुप्त हुआ जो सरीसृप नहीं थे।

ये सब क्यों हुआ यह आज भी एवल्यूशन के इतिहास का सबसे बड़ा रहस्य है।

7 डायनोसौर्स के बाद

इतना जरूर है कि सभी सरीसृप लुप्त नहीं हुए। डायनोसौर्स क दोनों समूह जिस क्लास के मेम्बर थे उसके कुछ सदस्य जीवित रहे। आज के मगरमच्छ उन्हीं के वंशज हैं। मगरमच्छ वैसे तो डायनोसौर नहीं हैं परन्तु वे उनके सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार है। कछुओं का परिवार डायनोसौर से भी पुराना है और कछुए आज भी जीवित हैं। सांप और छिपकलियां आज भी जिन्दा है। जब डायनोसौर्स का पृथ्वी पर साम्राज्य था तब भी कुछ सरीसृपों में काफी बदलाव आए। उन्होंने सरीसृप होना बंद कर दिया। करीब 15-करोड़ वर्ष पहले कुछ छोटे सरीसृपों के शरीर पर स्केल्स (शल्क) विकसित हुए जो त्वचा से चिपके नहीं पर बाहर की ओर फैले। बाद में उनके ही पंख बने। 1860 में एक जीवाश्म मिला जो देखने में बिलकुल पंख जैसा लगता था। यह खोज एक जर्मन जीवाश्म खोजी हरमन फॅान मेयर ने की थी। उसने उस पंख वाले जीव का नाम दिया एखरीऑपटेक्स जिसका मतलब होता है ‘प्राचीन पंख’। उसी साल एक और जीवाश्म कंकाल मिला जिसमें पत्थर में पंख के निशान थे। यह जीवाश्म एक पक्षी का था जिसमें सरीसृप के कुछ गुणधर्म थे। उसके जबड़ों में दांत थे जो वर्तमान में किसी पक्षी में नहीं पाए जाते। उसके पंख के नीचे पंजे थे जैसे टेरोडैक्टाइल में होते हैं। उसकी पूंछ किसी पक्षी की बजाए देखने में एक छिपकली जैसी थी।

यह एक बहुत महत्वपूर्ण खोज थी। बहुत से लोग जो एवल्यूशन (जीव-विकास) की खिलाफत करते थे अक्सर कहते थे, ‘अगर कुछ जीव, अन्य प्रकार के जीवों में बदलते हैं तो फिर हमें आधे-बदले जीव क्यों नहीं दिखाई देते?’

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आर्चोपेट्रिक्स एक ऐसी ही नायाब खोज थी। वो सरीसृप और पक्षियों के बीच का जीव था। उसमें दोनों के गुणधर्म थे। उससे यह भी साफ साबित हुआ कि पक्षी सरीसृपों से विकसित हुए थे। डायनोसौर और बड़े सरीसृपों की मृत्यु के बाद भी बहुत से पक्षी जिन्दा रहे और वर्तमान के सभी पक्षी उन्हीं से विकसित हुए हैं। कुछ शुरुआती सरीसृपों के दांत विकसित हुए जा साधारण सरीसृपों के दांतों से कहीं अधिक जटिल थे। उनके दांत आज के स्तनपाईयो से मिलते-जुलते थे। उन्होंने वर्तमान में पाए जाने वाले स्तनपाईयों जैसे अन्य गुणधर्म भी विकसित किए।

इनमें से कुछ सरीसृपों (जो डायनोसौर नहीं थे) के बाल विकसित हुए और वे सचमुच के स्तनपाई बने। जिस काल में पृथ्वी पर डायनोसौर्स का साम्राज्य था तब वहां स्तनपाई भी मौजूद थे पर तब वे छोटे और महत्वहीन प्राणी थे।

पर डायनोसौर्स और सरीसृपों की मृत्यु के बाद जो छोटे प्राणी जीवित बचे उनमें मुख्यतः छोटे स्तनपाई थे।

क्योंकि अब सरीसृपों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी इसलिए उन स्तनपाई जीवों की अनेकों प्रजातियां विकसित हुयीं। उनमें से कुछ जैसे मेगाथीरियम जिसे कुवये ने पहचाना था का आकार बहुत बड़ा था। पृथ्वी पर चलने वाला सबसे बड़ा स्तनपाई शायद बलूचीथीरियम था। बलूचीथीरियम का मतलब होता है ‘बलूचिस्तान का जीव’ क्योंकि वो बलूचिस्तान में ही पाया जाता था। वो देखने में गैंडे जैसे था और आज से 3-करोड़ वर्ष पूर्व पाया जाता था। जमीन से उसके कंधों की ऊंचाई कोई 18-फीट ऊंची थी और जब वो अपना सिर उठाता तो उसका शीर्ष जमीन से 27-फीट की ऊंचाई पर होता। उसका वजन दो हाथियों जितना यानी 20-टन का था। पर फिर भी उसका भार बड़े डायनोसौर्स से बहुत कम था।

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पर बहुत से बड़े स्तनपाईयों की मृत्यु भी हुई। करीब एक-करोड़ वर्ष पहले कुछ स्तनपाई छोटे वनमानुष जैसे प्राणियों में विकसित हुए और उनकी प्रगति भी अच्छी थी। उन्हीं से बाद में वनमानुष और अंत में मनुष्य जैसी प्रजातियां विकसित हुयीं। उनका नाम होमोनिड्ज है।

पिछले दस लाख सालों में होमोनिड्ज विकसित होकर ऐसी प्रजाति बने जो देखने में वर्तमान मनुष्यों जैसे दिखती थीं। अंत में एक ऐसी प्रजाति विकसित हुई जो देखने में बिलकुल हम से मेल खाती थीं। होमोनिड्ज की सबसे नई प्रजाति का ‘होमो सेपियन्स’ कहलाती है - जिसका अर्थ होता है ‘विवेकशील आदमी’। होमोनिड्ज की अब यही एक प्रजाति पृथ्वी पर जीवित है और उसमें मैं और आप हम सभी शामिल हैं। पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों सालों में जीने वाली असंख्यों प्रजातियों में मनुष्य के अलावा सबसे रोचक प्रजाति डायनोसौर्स की ही होगी।

अंत

(अनुमति से साभार प्रकाशित)

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रचनाकार: ज्ञान-विज्ञान : हमें डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला? आइजिक ऐसिमोव
ज्ञान-विज्ञान : हमें डायनोसौर्स के बारे में कैसे पता चला? आइजिक ऐसिमोव
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