विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा

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किसान - सौत का बेटा डॉ. विजय शिंदे सरकारें बदली, पार्टियां बदली पर देशी किसान के हालत नहीं बदल रहे हैं। आए दिन और एक आत्महत्या की खबर...

किसान - सौत का बेटा

डॉ. विजय शिंदे

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सरकारें बदली, पार्टियां बदली पर देशी किसान के हालत नहीं बदल रहे हैं। आए दिन और एक आत्महत्या की खबरें आ रही है। करें भी तो क्या करें, यह सिलसिला कब रूकेगा? कहां रूकेगा? या युं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा? प्रश्न यह उठता है कि इसे मरना कैसे कहां जाए? इसे आत्महत्या कैसे कहे?... यह तो हत्याएं है! यह तो खून है जो दिन दहाड़े हमारे देश के किसानों का हो रहा है। ‘खेती हमारे देश का आधार है’कितना सपाट और असंवेदनशील वाक्य है। हजारों ने लाखों बार लिखा, उच्चारित किया।

हमने शेखचिल्ली की कहानी बचपन में पड़ी थी जिसमें वह जिस डाल को काटना चाह रहा है उस पर ही बैठकर कुल्हाड़ी चला रहा है। अब हमें नहीं लगता कि देश का आधार बनी खेती और किसानी को हम कटवाने पर तुले हैं? वास्तविकता यह है कि हमारे देश में किसान अब खेती नहीं करना चाहता है। उसके सामने विकल्प उपलब्ध नहीं इसलिए वह मजबूरी में खेती कर रहा है। उसे अगर पूछे कि तुम अपने बच्चों को और अगली पीढ़ी को क्या बनाओगे तो वह साफ शब्दों में कहेगा कि किसानी छोड़कर उसे मैं कुछ भी बनाऊंगा। किसानों की यह मंशाएं वास्तविकता में उतर रही है।

दिन-ब-दिन किसानों के परिवार में किसानी करनेवालों की संख्या लगातार घट रही है। अच्छी पढ़ाई पाकर गांव और खेती को छोड़कर किसान के बच्चे उड़ रहे हैं। उसके माता-पिता उसकी अनुपस्थिति और अभाव में दुःखी है पर उनके लिए इस बात का बहुत बड़ा सुख है कि सालों-साल से हमारे कंधों पर लदा हल का बोझ हल्का हो रहा है। उसे अगर कोई खेती और किसानी की दुहाई देने लगे या उसके खेती की चिंता जताने लगे तो वह केवल होठों में धीमे से हंसेगा कारण दुहाई देनेवाले और चिंता जतानेवाले के मन में खोट हैं। किसानों के बच्चे अगर सरकारी नौकरी की स्पर्धा में उतर गए तथा प्रायव्हेट सेक्टर की नौकरियों की स्पर्धा में उतरने लगे तो हमारे बच्चों क्या होगा इसकी चिंता दुहाई देनेवालों को है

किसानों को यह पक्के तौर पर पता चला है कि सालों से हमें मुर्ख बनाया गया है, अर्थात् मिसगाईड किया है, अब वह झांसे में आनेवाला नहीं है। किसान और बच्चे भी याद रखे कि ऐसी पढ़ाई हम पाए जिसका बाजारमूल्य होगा, ऐसे स्किलों में हम महारत हासिल करे जिसके चलते हमारे जिंदगी का रूख बदल जाए। यहां भी मिसगाईड करनेवालों की संख्या कम नहीं है; भाषा, संस्कृति, देशभक्ति... और न जाने कौन-कौनसी दुहाई दी जाएगी। अतः इस मैदान में तय करके ही उतरो कि झांसा देनेवालों को पटखनी देनी है। अपनी जगह पर ईमानदार रहकर वह स्थान हमें पाना है, जिसे कोई चैलेंज ही न करे।

हमारे देश में किसान ध्रुव जैसे सौत का बेटा है जिसे अपने बाप के गोद से उतारकर फर्श पर पटक दिया है। अतः ध्रुव ने ‘तपस्या’कर जो स्थान पाने में सफलता पाई वह स्थान किसान का बेटा भी पाने में सफल हो जाए। यह भी याद रखे कि वह स्थान ‘तपस्या’ के फलस्वरूप ही मिलता है। गरीबी, अर्थाभाव, पीड़ाएं, मुश्किलें, खाना, रहना, भाषा... हजारों बांधाएं होगी पर बाधाओं के बिना ‘तपस्या’ अपने मकाम तक पहुंचती नहीं, अतः उससे लड़ने की मानसिकता बनानी चाहिए।

 

यह लेख जब लिख रहा हूं तब देश की राजधानी दिल्ली की राजनीति ने जबरदस्त करवट ली है और देश की सारी जनता को ‘आप’ का नाम का ‘बाप?’ सुराज की दुहाई देकर झांसे में लेने की कोशिश कर रहा है। दिल्ली देश की मेट्रो सिटी, राजधानी, राजनीतिक गतिविधि का अखाड़ा... अखाड़ा शब्द की जगह मैंने लेखन गति के भीतर ‘केंद्र’शब्द लिखा था पर केंद्र शब्द थोथा लगा, अतः अखाड़ा ही लिख रहा हूं। ‘आप’ में छिपा ‘मैं’ वाद देश के राजनीतिक भविष्य का अंधकारमय होना बता देता है।

‘सुराज’ की दुहाई देकर हिटलरवाद, तानाशाही, मनमानी, अक्खड़, गर्व, घमंड़, मुंह में राम बगल में छुरी, गंधाते मुंहवाले सड़ांधता फैलानेवाले मोबाईल स्टींग, कुर्सी की गर्मी... बहुत कुछ हम देख रहे हैं और बहुत कुछ देखना बाकी है। सुराज की बात उठाकर जनता को गुमराह करना कोई नेताओं से सीखे। अब तो लग रहा है ‘सुराज’ शब्द गाली देने के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दिल्ली की राजनीति हमारे देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था का पाखंड़ी मुखौटा है। सरकारी अधिकारी बन जिसने भी एक बार कुर्सी की गर्मी चखी हो वह आदमी कभी भी अच्छा राजनेता नहीं बन सकता है। हमें आज नहीं समय बीतने के बाद पछतावा करना पड़ेगा कि अरे इससे तो पहलेवाली पार्टियां हजार गुना अच्छी थी।

यहां मेरा उद्देश्य राजनीतिक लायकों...? का मखौल उड़ाना नहीं है। राजनीतिक लायकों? ने अपने नालायकी की हदों को पार किया है उनपर चाहे जितने सवाल उठाए जाए कुछ फर्क नहीं पड़ता कारण उनकी चमड़ी गेंड़ा चमड़ी है। हम चिंतित है सुखे से, बेमौसमी बारिश से, तूफानी ओलों से, सरकारी अनास्था... और चारों ओर से हो रहे हमलों से। किसानों की कमाई को लूटा जा रहा है, नोचा जा रहा है।

‘गोदान’ के पहले, ‘गोदान’ के समय में, अब भी और भविष्य में भी होरी का मरना तय है। वह भूख से हो, आत्महत्या से हो, समय की मार से हो, कर्ज तले हो, साहुकारी और बैंकों के पाशों से हो या मजबूरी से हो मरना तो तय है। होरी (किसान) के कपड़े फटे ही रहेंगे। इस्त्रीवाले कपड़े पहनकर, बूट पहनकर और इनशर्ट करके किसानी थोड़े ही होती है। बूट औट टाय पहनकर फिल्मी गीत जैसा ‘साला मैं तो साहब बन गया’ गाना थोड़े ही हमें गाना है। हां बिना बूट और टाय के मीड़िया की वाहवाही जुटाने और जनता की आंखों में धूल फेंकने के लिए कॉमन मैन का मुखौटा पहनकर जरूर तानाशाह बन सकता है। परंतु दिल्ली की चकाचौंध सड़कों से थोड़ा बाहर भी इन जैसे नेता लोग नजर उठाकर देखे तो दिखाई देगा हमारा देश जिसके खून और पसीने को चूस रहा है वह होरी (किसान) किन स्थितियों में है –

 

"देखता हूं नित दिन, मैं एक इंसान को

धूप में जलता हुआ, शिशिर में पिसता हुआ

वस्त्र है फटे हुए, पांव हैं जले हुए

पेट-पीठ एक है, बिना हेल्थ जोन गए हुए।"

(किसान – राकेशधर द्विवेदी )

 

सवा सौ करोड़ का देश जिंदा है। वह जिंदा है इसका अर्थ उसकी थाली में कम-ज्यादा ही सही रोटी परोसी जा रही है। लेकिन मिट्टी को रोटी लायक बनानेवाले किसान के उत्पाद का बाजारमूल्य क्यों घट जाता है। अच्छी फसल हो जाए, खेत अनाज से लदे जाए तो किसान का कहां फायदा होता है। हमारी व्यवस्था किसानों से बहुत-बहुत कम दाम में अनाज खरीदकर बहुत-बहुत मंहगे दाम में बेचने की इजाजत दलालों, दुकानदारों और पॅकिंग कंपनियों को देती है। किसानों के ही पसीने की रोटी खाकर दिल्ली जैसे बड़े-बड़े शहरों में चकाचक रास्तों पर जबरदस्त राजनीति के अखाड़े खोले जाते हैं।

हिंदी के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने ‘किसान’ कविता के भीतर उसकी स्थितियों, दयनीयता, संघर्ष, शोषित, पीड़ित अवस्थाओं पर प्रकाश डाला है –

"घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा

घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा।

तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं

किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं।

बाहर निकलना मौत है, आधी अंधेरी रात है

है शीत कैसा पड़ रहा, थरथराता गात है।

तो भी कृषक इंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते

यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते।

संप्रति कहां क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है

है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है।"

 

अब किसानों को ध्यान रखना जरूरी है, सावधान रहना भी जरूरी है कि अपनी मेहनत पर कोई आकर झपट्टा मारे तो गलती खुद की है। आस-पास के पाखंड़, झूठ-फरेबों से समय पर चेतित होकर अपना रूख बदले, नीति तय करे तो इस मतलबी देश में वह, उसका परिवार और अगली पीढ़ी टिक पाएगी। आत्महत्या कर अपना जीवन खत्म करने की अपेक्षा खुद की जिंदगी दांव पर लगाकर, आग पर तपाकर अपने अगले पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित बनाने में लगा दें। जिस किसानी के चलते उसके जीवन की दुर्गत हो रही है उसी का सहारा लेकर इस बोझ से वह अपने बच्चों को मुक्त करें तो मौत पाने पर गर्व होगा। आत्महत्या से खुद को छुटकारा तो मिलेगा पर अपने पश्चात् सारे परिवार को दूसरों के दरवाजे पर भीख मांगने के लिए छोड़े जाना कहां की अक्लमंदी है। किसी दूसरे ने बताने की क्या जरूरत है भारत देश में किसान सौत का बेटा है। वह खुद ही समझ ले कि भाई मैं सौत का बेटा हूं परंतु अपने लिए न सही लेकिन अगले पीढ़ी के लिए वह पक्की जगह निर्माण करें जिससे उसे कोई धक्का देने का साहस ही न कर पाए।

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डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).

ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे

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रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा
विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा
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