गीता दुबे की कहानी - हाँ मैं डायन...पिशाचिनी......

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हाँ मैं डायन...पिशाचिनी...... . उ से आज भी याद है जब वह इस गाँव में बहू बनकर आई थी तो इस गाँव की औरतें, बच्चे उसकी एक झलक देखने के लिए किस...

हाँ मैं डायन...पिशाचिनी.......

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से आज भी याद है जब वह इस गाँव में बहू बनकर आई थी तो इस गाँव की औरतें, बच्चे उसकी एक झलक देखने के लिए किसी न किसी बहाने नंदू के घर आ जाते। पूरे गाँव में यह खबर फैल गई थी कि नंदू बहुत खूबसूरत बहू ब्याह लाया है। सचमुच गेहूंआ रंग होते हुए भी फूलमनी की शक्ल ऐसी थी मानो उसे किसी मूर्तिकार ने अपने साँचे से बाहर निकाला हो, कहीं कोई खोट नहीं। एक बार देखने के बाद उसे निहारने को जी चाहता। उसपर उसकी हँसी... जब हँसती तो मानो फूलों की बारिश हो रही हो। उमर उसकी यही कोई सतरह-अठारह रही होगी। घर में बस तीन ही थे। नंदू, फूलमनी और नंदू की माँ सोमारी।

कहीं नई-नवेली दुल्हन को गाँव वालों की नजर न लग जाए इसलिए सोमारी फूलमनी को घर में ही कामों में बझाए रखती, उसे घर की चौखट से बाहर नहीं निकलने देती। नंदू तो फुलमनिया पर इस कदर फिदा था कि कई-कई दिन काम पर न जाता, दिन-भर उससे बतियाते रहता, हँसी- ठिठोली करता रहता। लेकिन नंदू के सुनहरे दिन ज्यादा दिन के नहीं थे। तीन महीने बाद ही ठीकेदार ने उसे काम से निकाल दिया। अब दिन भर नंदू घर पर ही पड़ा रहता। धीरे-धीरे नंदू गाँव के आवारा, मवालियों के साथ उठने-बैठने लगा उसे पीने की लत लग गई। गाँव से थोड़ी दूर पर शहर जाने वाले रास्ते पर एक ढाबा था। सोमारी वहीं झाड़ू- पोंछा और बर्तन धोने का काम करती। सुबह तड़के वह घर से निकल जाती और सूर्यास्त के बाद घर लौटती। वहाँ से जो कुछ भी मिलता उसे आकर बहू के हाथों में रख देती और बहू भी तुरत कटोरी में तेल लेकर सास के पैरों तले बैठ जाती। पूरे गाँव में यह बात फैल गई कि नंदू की बहू फूलमनी रूपवती होने के साथ-साथ स्वभाव की भी भली है। इसी तरह चार वर्ष बीत गए लेकिन फूलमनी अब तक सोमारी की गोद में एक पोता नहीं दे पाई थी। वही सोमारी अब फुलमनिया को बात-बात पर ताने मारने लगी।

‘तोर बाप के हमनी का बिगड़लियोहल कि उ तोहार इहाँ ला के बांध देल्थुन रे बांझिन’(तुम्हारे बाप का हमने क्या बिगाड़ा था कि वो तुम्हें यहाँ लाकर बाँध गए) और उसे और हर तरह की गालियाँ देती फिर अपनी भाषा में राग अलापने लगती “नंदू रे नंदू तू दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेता रे नंदू”...... अरे नंदू रे नंदू .....।

उस दिन जब सोमारी ढाबे से घर लौटी तो उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। दोनों हाथों से अपना सर पकड़ वह कराहे जा रही थी। फुलमनिया ने उसे देखा तो दौड़कर उसके पास आई लेकिन सोमारी ने उल्टे उसे फटकारते हुए अपनी भाषा में कहा..

‘हाथ मत लगाना मुझे बांझिन’ न जाने क्या सोचकर तू इस घर में आई कि आते ही तूने नंदू की नौकरी छुडा दी, उसे शराबी बना दिया, अब मेरे पास मत आना...., कौन जाने अब तेरा इरादा मुझे मारने का भी हो....’

उसी समय पता नहीं कहाँ से नंदू आ टपका। आते ही वह फुलमनिया पर बरस पड़ा ... अपनी भाषा में कहने लगा....

‘ क्या कहा तूने! क्या कहा... तू माँ को मारना चाहती है.....बोल मेरी माँ को तू मारना चाहती है.. इतनी तेरी हिम्मत.... और फुलमनिया का झोंटा खींचकर जोर से एक घूँसा उसके पीठ पर मारा और उसे जोर से धकेल दिया। फुलमनिया जमीन पर मुँह के बल जा गिरी और उसके सामने का एक दाँत टूट गया। साँचे से निकली मूर्ति में अब एक खोट आ गई थी। हा नारी! नारी होकर भी तू नारी का मर्म नहीं समझती...और उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन बैठी है....  

सोमारी के सर का दर्द कम नहीं हो रहा था लेकिन वह फुलमनिया को पास फटकने नहीं देती थी। कल से उसे तेज बुखार भी रहने लगा। नंदू को इसकी जरा भी परवाह नहीं थी। फूलमनी ने गाँव के हकीम को बुला लाया, हकीम ने दवा दी लेकिन फिर भी बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था। दो दिन बाद पर्वतिया चल बसी। माँ के मर जाने पर नंदू फुलमनिया को कहने लगा कि तू डायन है तू ही माँ को खा गई और हमेशा उसपर लात- घूँसा बरसाया करता था। फूलमनी अब दिन-भर इधर-उधर खेतों में घास काटती और उसे खटाल में बेच देती। दिनभर में वह सात या आठ बोझा बनाती। आमदनी का यही जरिया था। इत्तिफाक देखिए पर्वतिया के मरते ही फूलमनी गर्भवती हो गई लेकिन बच्चा बच न पाया। फूलमनी फिर गर्भवती हुई लेकिन फिर बच्चा बच न पाया। वह अब हर साल बच्चा जनने लगी। उसने कुल छह बच्चे जने थे जिसमें एक ही बचा था वो भी गूंगा। गाँव भर में यह बात फैल गई कि फुलमनिया सच में डायन है। वह अपने ही बच्चों को एक एक कर खा गई और एक को गूंगा बना कर छोड़ दिया। गाँव वालों ने उसे अपनी बिरादरी से निकाल दिया था।

फुलमनिया की साँसें उसके गूंगे बेटे से बंधी थी। उसी की नींद उठती और उसी की नींद सोती। गरीबी, अज्ञानता और दिन-रात की कड़ी मेहनत ने उसे काफी दुर्बल बना दिया था उस पर से गाँववालों की अवहेलना सहते-सहते वह कमजोर हो चली थी, बिल्कुल एक सूखी लकड़ी की तरह हो गई थी, जिसे जब चाहे जहाँ से कोई तोड़ दे। क्या उम्र थी उसकी बस तीस वर्ष... जब जवानी अपनी पराकाष्ठा पर होती है लेकिन उसने तो इसी उम्र में जीवन के सारे खेल देख लिए थे। इन पन्द्रह सालों में साँचे से निकली वह मूर्ति टूट चुकी थी।

आज फुलमनी की तबियत कुछ ठीक नहीं है। काम पर जाने की उसकी तनिक भी इच्छा नहीं है लेकिन जब उसकी नजर सो रहे अपने बेटे पर पड़ी तो वह हिम्मत जुटा घास काटने घर से निकल पड़ी। दो बोझा घास काटते-काटते उसके पैर डगमगाने लगे। वह घास देने खटाल नहीं जा सकी। कुछ ही देर में खटाल वाला लड़का घास लेने उसके घर पहुँच गया। उसने एक बोझा घास साईकिल के पीछे बाँध लिया और दूसरा पैडल की आगे वाली जगह में फंसा लिया। और कच्चे रास्ते पर पैडल मारते-मारते खटाल की ओर चल पड़ा। अचानक उसे ऐसा लगा मानो पैर के अंगूठे में कुछ चुभ गया है, उसने देखा तो उसके होश उड़ गए। साईकिल की चेन के नीचे वाली रॉड पर एक साँप लिपटा था। खटाल पहुँचने के पहले ही वह रास्ते में गिर गया और कुछ ही देर में उसकी मौत हो गई। गाँव भर में यह हल्ला फैल गया कि फुलमनिया खटाल वाले लड़के को खा गई। इससे पहले कि वह गाँव के किसी व्यक्ति को अपना शिकार बनाए लोगों ने उसे जान से मारने की योजना बना ली। सुबह फुलमनिया की नींद कुछ देर से खुली। गाँव वालों की बातों से बेखबर वह हँसुआ ले घास काटने निकलने वाली थी कि उसने देखा गाँव वालों का एक हुजूम उसके घर की ओर बढ़ा चला आ रहा है, किसी के हाथ में लाठी है तो किसी के हाथ में फरसा... फुलमनिया डायन है...फुलमनिया डायन है... इसे मार डालो ...इसे मार डालो हल्ला करते लोगों का हुजूम उसके घर की ओर तेजी से बढ़ता आ रहा था, फूलमनी ने जब यह सुना तो वह मारे डर के लगी काँपने.. क्या करे? कहीं भाग भी तो नहीं सकती..भीड़ घर के करीब आ चुकी थी। बस कुछ ही देर में लोगों ने फुलमनिया के टीन का दरवाजा तोड़ डाला और उसके घर में घुस गए.. फुलमनिया डर से काँप रही थी ... भीड़ को देख उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे .. कोई रास्ता न देख उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर हँसुआ उठाया और तन कर खड़ी हो गई.. साड़ी लपेटी और बन गई चंडी .. ऐसा करते ही उसका काँपना बंद हो गया.. न जाने कहाँ से उसमें इतनी शक्ति आ गई कि उसके गर्जन से धरा भी काँप उठी...वह दहाड़ते हुए बोली (अपनी भाषा में) ... हाँ मैं डायन हूँ...पिशाचिनी हूँ... अगर एक कदम भी आगे बढ़ाया तो तुम सबको लील जाऊँगी.. रक्त पी जाऊँगी तुमलोगों का... फुलमनिया की गर्जना सुनते ही गाँव वालों का हुजूम जितनी तेजी से उसके घर आया था उतनी ही तेजी से उल्टे पाँव भाग गया। आज फुलमनिया को अपनी ताकत का एहसास हो गया। अब वह अच्छी तरह जान गई है कि गाँव का तिनका भी उसका बाल बांका नहीं कर सकता, वह शान से उसी गाँव में रहती है

गीता दुबे

जमशेदपुर, झारखण्ड

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. sahi hai naari jab tak apni shakti nahin pehchanti tabhi tak abla hai.....sarthak rachna..abhar

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    1. गीता दुबे7:34 pm

      सोमाली जी सकारात्मक टिप्पणी के लिए धन्यवाद|

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रचनाकार: गीता दुबे की कहानी - हाँ मैं डायन...पिशाचिनी......
गीता दुबे की कहानी - हाँ मैं डायन...पिशाचिनी......
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