कहानी - मुट्ठी भर जिन्दगी

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रामानुज मिश्र कोलतार की काली सड़क दोपहर भर आग बरसाती रही । नौ दस बजते ही बेरहम सूरज ने अपने तापबाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी थी । गाँव-गिरा...

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रामानुज मिश्र

कोलतार की काली सड़क दोपहर भर आग बरसाती रही । नौ दस बजते ही बेरहम सूरज ने अपने तापबाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी थी । गाँव-गिरांव के सिवान ने तो इसे बर्दाश्त करने की आदत डाल रखी है पर शहर, कस्बे की पीठ पर उस समय की चाबुक असहनीय बन जाती है। अधमरे होकर भी लोग जिन्दा रहते हैं। सड़क अपनी गति से रेंगती रहती है। छोटे-बडे वाहनों पर सवार होकर आदमी, औरत, बच्चे और बूढे अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए बेकल हो रहे होते हैं। उनकी आँखों में एक अदृश्य याचना उमड़ रही होती है कि कोई रोक ले, ठंडी सी, प्यारी सी, छोटी सी छाँह उनके दामन में भर दे ।

रोज-रोज की तरह नौगढ़ सवारी स्टैण्ड की आवाजाही जारी है। अभी-अभी सवारियों से भरा एक आटो रुका है-भूसे की तरह ठसाठस । एक-एक कर निकलते बीसों लोग, जैसे किसी धधकते से मिट्टी के बर्तन निकल रहे हों। बब्बू पानवाले का हाथ तेज हो गया । पड़ोसी गुमटीवाला ताजा ठंडा पानी लाने सड़क पार चला गया। डी.जे. रोडलाइटवाला जोगेश मग्गे से कई बार पानी पी चुका है, पर प्यास है कि जाती ही नहीं ।

जैसे-तैसे सूरज पश्चिम की ओर लुढ़क गया । उसका चेहरा अब जाकर दुकानों के पीछे छिपा है। चिलचिलाती धूप पर छाया की हल्की चादर पड़ गयी है। जोगेश अपने डी.जे. को कई बार चेक करने के बावजूद बेकल है। अभी तक रोडलाइट ढोनेवाले लड़के-लड़कियाँ नहीं आये । रामगढ़ जाना है, तगड़ी लगन है आज । ट्रैक्टरवाला जाने कहाँ मर गया, उसके मुँह से गालियों की बौछार शुरु हो जाती है - सरवा मोटाय गइलयं सब ' उसका गुस्सा जब तक शान्त होता, ट्रैक्टर दुकान की ओर मुड़ता दिखाई दिया, लेकिन एकदम खाली । गाड़ी से उतरते ड्राइवर को उसने हड़काया - डेली काट लेब ससुर । लेट आदत बनाय ले ले हवुआ । ड्राइवर हींहीं करते हुए अपनी टोपी की चोंच पीछे कर देता है। वह लाल छींटेवाला और चमकदार पैंट बियाह बरात में जरूर पहनता है। मुसहरानवाले कहाँ गइलन सब ' जोगेश गमछे से माथे का पसीना पोंछता है। नये सिरे से ज्योंही उसका गुस्सा उठाने को हुआ, सामने आकर खड़े हो गये बंशिया, परबतिया, छता बुआ और अन्य दूसरे । इस बीच गर्मी में बेहाल ट्रैक्टर ड्राइवर जोगेश से दांत निपोर रहा है, ओस्ताद पानी पियावा, पियास लगल ह।

सारे पहिले समान लदवाव, तब तरास मिटाव । गरदन में गगरी काँहें नहीं बाँध लेते। देखते-देखते सामान लदने लगा ट्राली में । पहले जनरेटर चढ़ाया गया, फिर एक-एककर बीसों गमले लदे । अब बारी थी परबतिया, छता बुआ, बंशिया और के बैठने की । भचकती परबतिया को ट्राली में चढ़ते समय जोगेश ने देखा, ई लंगड़ी के काहें ली अइले ' 'ओस्ताद थोड़ा मुरुक गयल गोड़ बंशिया ने गुटके का पिच्च बाहर थूकते जवाब दिया । ट्रैक्टर ट्राली में जनरेटर, रोशनी के कई गमलों को भरने के बाद इतनी जगह कहाँ बचती है कि उसमें आदमी आराम से बैठ सकें । रोडलाइटवाला ट्रैक्टर को इसलिए किराये पर लेता है कि उसका सामान बिना टूटेफूटे उसमें अमा जाये । आदमी तो उकडूमुकडू चले ही जाते हैं। शाम पाँच बजे तक रही सड़क पर ट्रैक्टर रवाना करते हुए जोगेश ने उन सबों को चेताया, एक्को तार टूटल, गमला फूटल खैर नाहीं ।

सुबह से ही परबतिया का जी अब तब कर रहा है । भीतर से हूल उठती है। लग रहा है जर कबरेगा । जब वह अपनी मड़ई से चली, डेढ़ हत्थी खटिया पर पड़ा बाप खाँस रहा था । ऐसा पहली बार नहीं, माँ बताती है सालों से इसी तरह से खाँस रहा है। गाँजा तो उसके आने के पहले से ही पीता था, पर दमा बाद में उभरा । खाँसने की थकान से ज्योंही फुरसत मिलती है, खटिया से सरककर जैसे-तैसे चिलम पूंकने लगता है। तब बाहर झाडूबुहारू करती परबतिया को एहसास होता है कि बाप, माँ की तरह एकाएक नहीं जायेगा । सड़क के मिजाज को भांपते हुए ट्रैक्टर कूद करते आगे बढ़ रहा था । परबतिया छता बुआ के साथ अभी उकडूमुकडू ही बैठी थी। इतनी जगह कहाँ कि वे पैर पसार सकें । बुआ को तो घुटने मोड़कर बैठने की आदत हो चुकी है, पर वह अकुला जाती है देर तक ऐसे बैठने में। बाप के लिए तो रोटी बनाकर चूल्हे के ऊपर तोप आई है। बस फिकर यही है कि उसका दमा न उकस जाय।

ट्रैक्टर हाई वे पर तेज दौड़ने लगा । ठंडी हवाओं का झोंका उसके गालों को छू रहा है । अनायास आसमान में उभरे बादलों की छाया में सड़क किनारे यूकोलिप्टस की पत्तियाँ गुनगुनाने लगी हैं। बंशिया कब से मोबाइल देख रहा है। देख, देख हिरोइनिया के कईसन सटल हे उसका मन तो अभी भी बाप के फिक्र में ही पड़ा है। वह भन्ना जाती है, मुँहझाँसा अपने बहिनिया के देखाव, हम खुदयं परेशान ' रफ्तार धीमी होने पर ट्रैक्टर गाँववाली लिंक रोड पर घूम गया । बड़ा पहिया गड़े में आ पडा, सब उछल गये । परबतिया के पेट में दर्द का गोला उठ गया, वह पेट सहलाने लगी । कभी-कभी ऐसा होता है, रोज-रोज नहीं । बुआ बताती है-खाली पेट भी दर्द होता है। बंशिया की अंगुलि में बझी जलती सिगरेट छता बुआ की साड़ी से छू जाती है। चिहुंककर वह गाली देने लगी, चोरवा जवान हो गयल ह, घबरो मत, चारय महीना में तोर नस-नस टूट जाई।

छिटपुट बादलों के पीछे छिपी दिन की आखिरी धूप ट्राली पर पड़ रही है। सुनहरे रंग में सबके चेहरे रंग गये। छत्ता बुआ एकाएक अपने आप में गुम हो गई। बरसों बाद शायद किसी की याद आई है। परबतिया को प्यास लग गई, टांग पसार प्यास को भूलने की कोशिश करती है। रास्ते की हिलडुल से अब इतनी जगह बन गई थी। गला चटकने लगा तो बुआ की अंगुलियों को खींचा। छत्ता उस दुनिया से जल्दी लौट आयी । ड्राइवर के साथ बैठे केशउवा को उसने आवाज़ दी, पर वह डी.जे. के किसी गाने में मगन था। तब उसे चिल्लाना पड़ा। जल्दी रोक मुतपियना, कोई पियासन मरय ।' केशउवा ने ड्राइवर की ओर देखा ई बुढिया बहुत हल्ला करय ले । मरु नहिनीं जात ।' प्यास की चटकन से परबतिया की आँखें मुंदी जा रही थीं।

हनुमान मंदिर परिसर में स्थित श्री खड़ेश्वरी विद्यालय तेन्दूका भवन साफ-साफ दिखाई दे रहा है। सामने हैं आम और महुआ के दो घने छायादार पेड़, साथ ही हैंडपाइप भी । ड्राइवर ने ट्रैक्टर रोक दिया । टाली से उतरते लोगों की अलग-अलग जरूरतें थीं। किसी को लघुशंका की तलब थी, किसी को सुस्ताने की । परबतिया प्यास से परेशन थी । गला तर करने के बाद कपड़े पर पड़ी धूल झाड़ने की बेमतलब कोशिश की । छत्ता बुआ पत्थर की पटिया पर करवट लेट गयी थी। उसके बगलवाले पत्थर पर एक सुस्ताती औरत चित्त पड़ी महुवे की घनी पत्तियों में शायद कुछ ढूंढ रही थी । उसके माथे पर चिपकी बड़ी सी टिकुली और रंगी एड़ियाँ उसकी उम्र को कुछ कम करने का प्रयास कर रही थीं । छंहाती औरत के चेहरे से निकल परबतिया की माँ कुछ पलों के लिए झाँकने लगी । माँ भी बड़ी टिकुली लगाती थी काम के बोझ से थकी उसके माथे पर उभरती पसीने की बूंदें टिकुली पर सरका करती थीं और जिस दिन बाप दारु नहीं पीता था उस दिन माँग का सिन्दूर चटख दिखाई पड़ता था । कितने दिनों की बातें याद हो आई हैं- भयंकर जाड़े में फटी कथरी जब दोनों के लिए पूरी नहीं पड़ती तब वह फटा हिस्सा अपनी ओर लेकर साबुत उसकी ओर कर देती थी । माँ की स्मृति से ममता भरा एक करुणामय आकाश उसके खोंइछे में आ गिरा।

‘चला सब बइठा जल्दी से । देर भयल जोगेशवा जान ले लेही’ । मन्दिर के मुख्य द्वार पर स्थित बाबाजी की गुमटी से एक बीड़ा पान बंधवाकर ड्राइवर स्टियेरिंग पर बैठते ही चिल्लाया । छत्ता बुआ ने परबतिया का हाथ पकड़ा और उठाकर खड़ा कर दिया। सभी चढ़ गये एक-एक कर । मिनटों बाद ही बारातवाला गाँव सामने था। इस बार देर नहीं हुई । ठिकाने पर पहुँचते-पहुँचते धूप खडेश्वरी स्कूल की छत को छूकर वापस हो गई और हल्का अंधेरा बस्ती की गलियों में धीरे-धीरे घुसने लगा। शाम के करीब सात बजे रामगढ़ पहुँचे। ट्रैक्टर से उतरकर सभी रामगढ़ प्राइमरी स्कूल के बरामदे में पहुँच गये। वह अपने पाँव सीधे फैला साड़ी की सिकुड़न को सीधी करने लगी। आराम पाते ही ट्रैक्टर की उठापटक से उपजा दर्द नरम पड़ गया । छत्ता बुआ पाँवों और साड़ी की धूल को अंगुलियों से साफ करने लगी । घुटनों तक मुड़ आई सलवटों को ठीक करने की असफल कोशिश दोनों ने की । परबतिया दूसरे दिनों की तरह आज अपनी धानी रंगवाली साडी न पहन सकी थी । सुबह से ही शरीर टूट रहा था, कब बुखार दबोच लेगा पता नहीं। मन तो बिल्कुल नहीं था काम पर आने को पर उसकी मड़ई में एक मुट्टी न चावल था, न ही पसर भर आटा । आलू और प्याज की तो बात ही क्या ? थोड़ा सा पिसान बचा था । दो रोटी बनाकर बाप के लिए तोप आई थी ।

रंग-बिरंगी रोशनियोंवाले गमले को मीलों दूर कन्धों पर साधकर ढोनेवाले आदमी, औरतें, बच्चे पहले बड़े सस्ते थे, पचास रुपये में आराम से मिल जाते थे । साल दो साल में सौ रुपये गाँठ बाँध लिया और अब तो दो सौ से नीचे की बात नहीं सुनते । हाँ, औरतें अभी भी कुछ सस्ती हैं, सौ में ही काम चल जाता है और शान मटक्का हो जाता है अलग से । रोडलाइट मालिक एक-एककर गमलों को रखवाने लगा माथे पर । परबतिया की बिठई नीचे गिर गई । नरेशवा की घूरती तेज निगाह से वह हड़बड़ा सी गई थी । एक लाइन में बंशिया की कम्पनी और दूसरी में छत्ता बुआ, परबतिया तथा अन्य की । रोशनियाँ दूर से सितारों से भी ज्यादा जगमग दिखाई दे रहीं हैं, लेकिन जो इनके आधार हैं, वहाँ तो केवल मटमैला अंधेरा है। इन लोगों के चेहरे बारात में बेनामी शक्ल में गतिमान हो रहे हैं । चमकती, लहराती, डबडुब करती रोशनियों के बीच आमन्त्रित बाराती हैं। उनके नाम हैं, पते हैं, रिश्तेदारियाँ हैं, पडोसदारी है । पर डी.जे. चलानेवाले केवल छोकरे हैं । माथे पर घंटों मीलों तक रोशनी की छतरी उठानेवाले केवल रोडलाइटवाले हैं ।

दूल्हे राजा की सवारी हिल रही है...डोलने लगी है आहिस्ता-आहिस्ता । डी.जे. ने अपनी गंभीर आवाज़ में एलान शुरु कर दिया बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है। बुजुर्ग बारातियों को भी संभवतः याद आने लगी हैं उनकी माशूकायें । मन की स्वीकृति में इनके सिर हिल रहे हैं । रोडलाइटवाले डी. जे. का पहिया रुका । अरसे बाद टाई कोट में सजा दूल्हे का बहनोई झूमने लगा । दूसरे कहाँ कम थे । कोई भतीजे के लिए नाचने लगा, कोई भांजे के लिए, कोई दोस्त के लिए, कोई पड़ोसी बारात के लिए। परबतिया ने अपनी जगह पर खड़े-खड़े देखा उसके एड़ी की कचट जाग उठी थी । समसुआ पंचरवाला लड़का भी हाथ-पाँव मचका रहा है कुकुरमाछी पिल्ले की तरह। कहते हैं कि कुक्कुर की मार अढ़ाई घड़ी । इंसान कहाँ कम है। अभी कल ही तो उसका बाप पैसा चुराने के कारण उसे बोंगरी से पीट रहा था । छत्ता बुआ की ओर निगाह गई। वह अपने लटिआये बालों को खुजला रही थी । उसकी एडी की कचट अब तकलीफ़ देने लगी थी । मन ने किया कि वह अपने हाथों से दर्दवाली जगह को सहला ले, पर पाँव तक झुकने का अवसर कहाँ । सिर में भी मीठामीठा शूल उठना शुरु हो गया ।

बीन लगाओ, बीन बजाओ' चिल्लाकर किसी बाराती ने कहा । लाल, पीले, हरे रंगों की बौछारें होने लगी । धुन का मिजाज बदलते ही नचनिहा बारातियों के हाथों में छोटीछोटी रुमालें फंस गई जिसका एक सिरा उनके मुँह में था । सपेरा अब नागिन को रिझायेगा । आसपास हो आई छता बुआ ने परबतिया को आँखों ही आँखों में कुछ कहा-देखो अब कुछ होगा, सावधान रहना । परबतिया की निगाह अभी भी छत पर टिकी थी । जहाँ कुछ जवान, कुछ अधेड़ औरतें इन बारातियों की उछलकूद से जुड़ गयी थीं । बारजे के नीचे खड़ी किशोरियों की चंचलता नाचनेवालों के चारों ओर थिरक रही थी । इसी बीच नाचनेवाले गोल घेरे को तोड़ फुल्कीवाला नरमुवा झुकतेझुकाते रुमाली बीन बजाते लड़कियों के झुण्ड में घुस ही गया । देखते-देखते चप्पलों की तड़तड़ाहट शुरु हो गयी। बाराती उचके, फिर ताव में आ गये । रोशनीदार गमलों पर अंगुलियों का दबाव बढ़ गया । तार टूटते-टूटते बचा । आगे पीछे होतेहोते परबतिया के बायें पाँव की एड़ी में कूड़े की एक कील गयी । एडी उठाकर किसी तरह उसने निकालने की कोशिश की । अच्छा था कि वह कील नहीं थी, कोई बबूल का काँटा था जो टूटकर चप्पल के छेद से भीतर धेस गया था। पर तीखी करक ने अन्दर तक उसे हिला दिया । डी.जे. जल्दी ही कई मीटर आगे बढ़ गया ।

गाँव की संकरी घुमावदार गली में घूमते हुए दूल्हे का रथ परबतिया को साफ दिखाई दे रहा है। दूल्हे के साथ बैठा सोबल्ला ऊंघ रहा है। छत्ता बुआ के साथ वह सांसत से उबर चुकी थी । दूल्हे के साथ तो दुल्हन को होना चाहिए, चमकते बंद गोले का उसका सुनहरा कोट उसके भीतर तक पहुँच गया। गली में रेंगते-रेंगते एकाएक आये घूर पर परबतिया के पाँव पड़े। अचकचा गई वह सिर पर टंगा गमला नीचे आते-आते रह गया । नरेशवा उसके बगल में आ खड़ा हुआ। लंगड़ी तोर गोड़ तोड़ देब त कइहे ।' अन्तर्मन से उपजी एक विकलता ऊपर तक गयी थी । क्षण भर के लिए बंद ऑखें जब खुली, वह संभल चुकी थी । दूल्हे का राजसी साफा फिर दिखाई दे रहा था । समय का वर्तमान टुकड़ा तेजी से पीछे की ओर भाग चला ।

ढोल-नगाड़े के साथ उसका दूल्हा भी बारात लेकर गाँव आया था । औरतों की भीड़ के पीछे खड़ा होकर उसने परखा था अपने वर राजा को । ज्यों का त्यों सब कुछ तो याद नहीं आ रहा है लेकिन उसकी आँख का काजल उसके होंठो को छूने की कोशिश कर रहा है। बंशिया की टांगों में तार उलझ गया । तुरन्त लौट आना पड़ा पीछे से बड़बड़ाते हुए वह तार छुड़ाने लगा।

परबतिया के पाँव की करक तेज हो गई । उसने दर्द को रोकने की कोशिश की । नाचनेवाले धकिया रहे थे । एड़ियों को मजबूती से टिकाते हुए उसकी निगाह छज्जे पर पड़ी । छत पर खड़ी नवविवाहिता का माँगटीका चमक रहा था । मंगलसूत्र लाल साड़ी के ऊपर छातियों को छू रहा था । लगता है प्रथम मिलन की यात्रा अधूरी छोड़ छत पर आ गयी है इस दूल्हे को देखने । सुहागवाली रात में उसने भी पहना था मंगलसूत्र पानी चढ़ा ही सही । रात के बड़े हिस्से तक कमरे में टिमटिमाती दीये की रोशनी में अपनी कल्पनायें घोलती रही। वह आया था झूमते, लड़खड़ाते लगा कि चौखट पर अब गिरा, तब गिरा । उसके आने के पहले ही दारु की महक कमरे में झटके से घुस आयी थी । पलंगरी पर आते-आते भरभरा कर गिर गया था । उसे वह उठायी, जगायी । उसके सारे सपने पल भर में काँच के मानिन्द कच्ची फर्श पर टूटकर बिखर गये थे । कोने में झिलमिलाती ढिबरी भी संभल सकी । बची हुई रात में पहली बार ही वह सन्नाटे से हार गयी थी ।

रोडलाइट के आगेवाले लड़के के पाँव में उलझा तार टाइट हो गया । रोशनी का छतनार गिरने को हुआ, दूसरे ने संभाल लिया । द्वारपूजा पर खड़ी औरतें मंगल गीत गाने लगीं । परबतिया मंगल गीतों के स्वर पर सवार फिर पहुँच गयी अपनी व्यतीत हुई छोटी सी जिन्दगी में। आज ऐसा क्यों लग रहा है, उसे समझ में नहीं आता । इन्तजार की कई रातें उस कमरे तक आयीं सुहाग का एकतरफा निमंत्रण लेकर । पर सिमट गई, दारु की भभक में, एक पुरुष के नामर्द दम्भ में । ससुराल में कितने पल अर्थहीन बीत गये, इसकी गणना बेमानी सी है। वहाँ से लौटने पर उसने देखा, माँ कथरी पर धराशायी है, शायद उसका ही इन्तजार कर रही थी, फिर माँ ने आँखें भी मूंद ली ।

घंटों बीत चले, छत्ता बुआ भी थकान के मारे एक ओर लरकने लगी । बुढिया होश में रह । नरेश ने ललकारा । परबतिया अब कितने समय तक अपने को संभाल पायेगी-भीतर ही भीतर हूल चल रही थी, जर कबरने वाला है अब । पहर भर से हाथ ऊपर किये गमले को ढो रही है। भूख कब से उठ रही है. उसका गंजेड़ी ससुर बिदाई के लिए उसके बापू से कितने दिनों तक लड़ताझगड़ता रहा, पर उसने खुद झटक दिया उसे । वह कहीं नहीं जायेगी । दमे से गाफिल बाप को झोपड़ी में मरने के लिए वह नहीं छोड़ेगी फिर जायेगी तो किसके पास, किसलिए ?

उसका माथा चकरा रहा है, चिन्ता है कि बापू ने रोटी खायी कि नहीं, पानी तो लोटे में रख आई थी । भीतर ही भीतर कोई उसकी ताकत को छीन रहा है। अब उसे कोई साबूत खड़ा नहीं रख सकता । भरभरा कर नीचे गिर पड़ी। रोशनी की एक बाजू कट गई थी । दूर से बौखलाया नरेश दहाड़ा, घबड़ा मत बुढिया, गुल्ली गबाड़ी तोरै ह, चल घरे । छत्ता चुप नहीं रही-देख, कवन गिरवले मुतपियना । जमीन पर गिरी परबतिया के चेहरे को छूते हुए छत्ता बुआ ने महसूस किया उसका शरीर रहा है बुरी तरह। नाक, मुँह, कान सभी सन गये थे राख में । केवल निस्तब्ध अंधेरे ने देखा... छत्ता बुआ की आँखों में कई बूंद आँसू झिलमिला रहे हैं। पास में डी.जे. का गाना अपने आखिरी मुकाम पर था-

बलम जी दाबा न मोर करिहइयाँ

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी - मुट्ठी भर जिन्दगी
कहानी - मुट्ठी भर जिन्दगी
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