डॉ॰विमला भण्डारी की रचना-धर्मिता

SHARE:

डॉ॰विमला भण्डारी की रचना-धर्मिता   - दिनेश कुमार माली   अनुक्रमणिका प्रस्तावना 1.बाल-साहित्य i. प्रेरणादायक बाल-कहानियाँ ii. जंगल ...

image

डॉ॰विमला भण्डारी की रचना-धर्मिता

 

- दिनेश कुमार माली

 

अनुक्रमणिका

प्रस्तावना

1.बाल-साहित्य

i. प्रेरणादायक बाल-कहानियाँ

ii. जंगल उत्सव

iii. बालोपयोगी कहानियां

iv. बगिया के फूल

v. करो मदद अपनी

vi. मजेदार बात

vii. अणमोल भेंट (राजस्थानी)

 

2. बाल-उपन्यास

i. सुनहरी और सिमरू

ii. किस हाल में मिलोगे दोस्त

iii. ईल्ली और नानी

3.किशोर-साहित्य

i. सितारों से आगे

ii. कारगिल की घाटी

4. प्रौढ़-साहित्य (कहानी-संग्रह)

i. औरत का सच

ii. थोड़ी सी जगह

iii. सिंदूरी पल

5. नाटक

i. माँ! तुझे सलाम

ii. सत री सैनाणी - राजस्थानी भाषा

 

6. कविता (विमला भंडारी का काव्य संसार)

7.अनुवाद(आभा)

8. संपादन

  1. आजादी की डायरी
  2. मधुमती
  3. सलिल प्रवाह

9. इतिहास (सलूम्बर का इतिहास)

10. शोधपत्र (राजस्थानी,हिन्दी और इतिहास)

11. जीवन वृत: ( लेखिका की कलम से)

12 . संस्मरण स्वप्नदर्शी बाल-साहित्य सम्मेलन

12. साक्षात्कार-मुलाकात विमला भंडारी जी से बातें-मुलाकातें

 

image

प्रस्तावना

बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित‘‘उत्पल’’ पत्रिका (वर्ष-4, अंक-6, दिसंबर-2013) में छपे डॉ॰ आशीष सिसोदिया के आलेख "दक्षिण राजस्थान का हिन्दी बाल साहित्य" में आदरणीय विमला भंडारी जी का नाम पढ़ा तो मेरा मन गौरव से खिल उठा। कुछ अंश आपके समक्ष दृष्टव्य है:-

‘‘ इस काल के बाल-साहित्य की सभी विधाओं में गुणातीत वृद्धि हुई है......प्रारंभ से लेकर अब तक दक्षिण राजस्थान के बाल साहित्य के प्रति सक्रिय लेखकों में विमला भंडारी का नाम उल्लेखनीय है। श्रीमती विमला भण्डारी ने वैज्ञानिक बाल-कथा लेखन के क्षेत्र में नाम कमाया है। .... (उत्पल पत्रिका पृष्ठ 19 व 21 से तक )"

इस आलेख ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैंने मन ही मन उनके ऊपर एक पुस्तक "डॉ॰ विमला भण्डारी की रचना-धर्मिता" शीर्षक नाम से लिखने का संकल्प किया। उनका समग्र साहित्य के अध्ययन करने के उपरांत लगभग दो साल के अथक प्रयास के बाद यह संकल्प पुस्तक का साकार रूप लेकर आपके हाथों में हैं। ऐसे भी बाल-साहित्य जगत को अपनी एक दर्जन पुस्तकों से समृद्ध करने वाली विमलादी को मूल रूप से राजस्थान का निवासी होने के नाते मैं उन्हें अपनी बड़ी बहन व गुरू के समान मानता हूं। साहित्य जगत में डॉ॰ विमला दीदी एक जाना-पहचाना नाम हैं,जो संवेदना से कहानीकार, दृष्टि से इतिहासकार, मन से बाल साहित्यकार और सक्रियता से सामाजिक कार्यकर्ता है। हिन्दी और राजस्थानी दोनों भाषाओँ में अपने सक्षम लेखन-कार्य के लिए जाने-पहचाने इस व्यक्तित्व की कहानियों में नारीत्व का अहसास, सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, गहरा जीवनबोध तथा कलात्मक परिधियों को ऊंचाई तक पहुंचा पाने का अनूठा कौशल कहानीकार की हर रचना को अविस्मरणीय बना जाता है। बाल-संवेदनाओं की सूक्ष्म से सूक्ष्म झलक उनके बाल-साहित्य, कहानी तथा उपन्यास में स्पष्ट अभिव्यक्त होती है। उनकी लेखन सक्रियता और प्रतिबद्धता के चलते राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती के नवंबर अंक का बतौर अतिथि संपादक के उन्होंने सम्पादन किया। राजस्थान के बाल साहित्य को लेकर प्रसिद्ध रचनाकार चित्रेश के शब्दों में इसे ऐतिहासिक महत्व का आंका गया। वहीं डॉ. श्याम मनोहर व्यास के विचार में यह अंक बाल साहित्य में शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी बन पड़ा है। पिछले वर्ष 2014 के छः-सात माह में साहित्यकुंज, साहित्य-अमृत, सरिता, बालहंस, ज्ञान-विज्ञान बुलेटिन, जागती-जोत और राजस्थान-पत्रिका आदि में विमलादी की कहानी, बाल-कहानी और शोध-आलेख प्रकाशित हुए है, पर एन.बी.टी. के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से प्रकाशित उनकी बाल पुस्तक ‘‘किस हाल में मिलोगे दोस्त’’ विशेष उल्लेखनीय बन पड़ी है। एन.बी.टी. के पत्र संवाद में इसके कथानक को रेखाकिंत किया है।

सिरोही राजस्थान में सन 1968 में जन्म लेने और जोधपुर की मगनीराम बांगड मेमोरियल इंजिनयरिंग कॉलेज से सन 1993 में खनन अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त करने के बाद विगत 20 वर्षो से मैं राजस्थान से बाहर ओड़िशा में कोल इंडिया की अनुषंगी कंपनी महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड में तालचेर में स्थित लिंगराज खुली खदान में बतौर वरीय प्रबन्धक(खनन) की पोस्ट पर काम करता हुआ राजस्थान प्रवासी की श्रेणी में आ चुका हूं। सन 2007 में मेरे अपने ब्लॉग (ओड़िया से हिन्दी में अनुवाद )  "सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ"  की वजह से मैं विमलादी के संपर्क में आया। दीदी को सरोजिनी साहू की कहानियाँ बहुत पसंद आई, मेरा अनुवाद भी। उसके बाद विमलादी ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया मेरे सर्जन-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए। मैंने सरोजिनी साहू के ओड़िया उपन्यास 'पक्षीवास' का हिन्दी में अनुवाद कर उसकी पाण्डुलिपि को एडिट करने व मुखबन्ध लिखने का अनुग्रह करते हुए सलूम्बर जाकर उन्हें थमा दी। दीदी अपने अनेकों कार्यक्रम में व्यसत होते हुए भी मेरी बात टाल न सकी, बल्कि खुले हृदय से आशीर्वाद दिया। बहुत ही बारीकी से उन्होंने एडिटिंग की, और साथ ही साथ एक अत्यंत ही रोचक, प्रभावशाली व हृदयस्पर्शी भूमिका लिखी, जो मेरे लिए आज भी बहुत बड़े गौरव की बात है। आज भी सात साल पुरानी सलूम्बर की वह यात्रा याद आती है! हाथ में पाण्डुलिपि, दीदी का मुस्कराता हुआ चेहरा, सलूम्बर का हाड़ीरानी के सतीत्व व त्याग की याद दिलाता वह किला, रात में रोशनियों के प्रतिबिंबों से झिलमिलाती वहाँ की पोखरी झील और कीमती लकड़ी के बीम पर बना हुआ दीदी का भव्य मकान और उनका पोथियों से भरा हुआ सजा-धजा अध्ययन-कक्ष। मनोहर चमोली ‘मनु’ के शब्दों में कहूं तो-  ‘‘हम उन्हें सर उठा कर देखना चाहेंगे इतना कि हमें आसमान में देखना पड़े तब जाकर उनका चेहरा दिखाई दें....मुझे विश्वास है ऐसी ही है हमारी विमलादी। यद्यपि साहित्य में आपकी विशेष रुचि बाल, एवं इतिहास लेखन में हैं,तथापि आपने साहित्य की अनेक विधाओं में जैसे इतिहास, कहानी, कविता,उपन्यास, नाटक, फीचर,लेख तथा शोध-पत्र प्रस्तुत कर भारतीय साहित्य को सुसमृद्ध किया हैं। बाल-साहित्य जगत में आपने  'बालोपयोगी कहानियां’, 'करो मदद अपनी,'जंगल उत्सव','मजेदार बात','बगिया के फूल','प्रेरणादायक बाल-कहानियाँ','सुनहरी और सिमरू','सितारों से आगे','ईल्ली और नानी'तथा 'किस हाल में मिलोगे दोस्त'जैसी अनमोल कृतियाँ प्रदान की है। किशोर-साहित्य मे 'कारगिल की घाटी' उपन्यास प्रकाशन से पूर्व ही बहुचर्चित रहा हैं। प्रौढ़-साहित्य वर्ग में उनके कहानी-संग्रह 'औरत का सच', 'थोड़ी सी जगह',तथा 'सिंदूरी पल' ने हिन्दी साहित्यिक जगत में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया हैं।ऐतिहासिक लेखन में ‘सलूंबर का इतिहास (मेवाड़ का प्रमुख ठिकाना)’ एक प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तक होने के साथ-साथ राजस्थान के इतिहास के गौरव को उजागर करने वाला मील का पत्थर साबित हुआ। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस कृति पर अपना अभिमत निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया:-

  "मुझे विश्वास है कि यह कृति हाड़ी रानी के शौर्य ,त्याग एवं बलिदान से गौरवान्वित सलूम्बर के इतिहास ,संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों और विकास का विविध आयामी ज्ञान करने वाली तथा इतिहासकार ,शोधकर्ता एवं विद्यार्थियों के लिए उपयोगी होगी।"

राजस्थानी साहित्य में आपका अनूदित उपन्यास 'आभा' बहु-चर्चित रहा। साथ ही साथ, राजस्थान की क्षत्राणियों के सतीत्व को उजागर करने वाले राजस्थानी नाटक 'सत री सैनानी' के माध्यम से मेवाड़ की वीरांगना हाडीरानी के गौरवमयी इतिहास को जन-जन के समक्ष लाने का प्रयास किया किया हैं। इस गौरव को व्यापक रूप देने के लिए आपने इस नाटक का हिन्दी में  "माँ !तुझे सलाम" के नाम से रूपांतरण किया गया, जिसमे परंपरागत चारण-चारणी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया सतत कथा-प्रवाह धर्मवीर भारती के 'अँधा-युग' की याद दिला देता है। इसके अतिरिक्त, इस पुस्तक में आपकी कुछ कविताओं की भी समीक्षा की गई है तथा आपके सम्पादन में स्वतन्त्रता सेनानी मुकुन्द पंडया की डायरियों पर आधारित पुस्तक  'आजादी की डायरी' पर अलग अध्याय में विवेचना की गई है तथा अंत में उनके जीवन-वृत पर भी एक अध्याय जोड़ा गया,ताकि हिन्दी के नए पाठक उनके बारे में कुछ जान सकें।

साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के वर्ष 2013 में बाल साहित्य (राजस्थानी भाषा) पुरस्कार ग्रहण करने के अतिरिक्त अपने अमूल्य योगदान के लिए आपको अनेकों राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय पुरस्कारों तथा सम्मानों से नवाजा गया हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी के शम्भूदयाल सक्सेना पुरस्कार (सन् 1994-95) 2011-12 में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य पुरस्कार, वर्ष 2012-13 में बालवाटिका का किषोर उपन्यास पुरस्कार, बालसाहित्य संस्थान उत्तराखण्ड से बाल उपन्यास पुरस्कार और साहित्य समर्था पत्रिका का श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार आपको इसी वर्ष में मिले। राष्ट्रीय बाल शिक्षा एवं बाल कल्याण परिषद का लाडनू श्यामा देवी कहानी पुरस्कार (सन् 2001-02) द्वारा आपको केंद्र तथा राज्य सरकार ने विभूषित किया।

इसके अलावा, कई विशिष्ट सम्मान जैसे युगधारा सृजन धर्मिता सम्मान (सन् 1995, 2008), राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य में विशेष सम्मान (सन् 2000), हिन्दी दिवस पर राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशेष सम्मान(सन् 2003), 2011 में भारतीय बाल कल्याण परिषद, कानपुर उ.प्र. द्वारा सम्मान  2011 बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केन्द्र, भोपाल. म.प्र. द्वारा सम्मान-पुरस्कार 2013 आदर्श क्रेडिट कॉपरेटिव सोसायटी लि. उदयपुर शाखा. अन्र्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर सम्मान 2014 मीरा नोबल साहित्य पुरस्कार, उदयपुर 2015 में लाॅयन्स साहित्य सृजन सम्मान आपको मिले है।

गणतंत्र दिवस पर सलूंबर नगर द्वारा विशेष सम्मान (सन् 1995, 2003), हाड़ारानी गौरव संस्थान सलूंबर द्वारा विशेष सम्मान (सन् 2007) के अतिरिक्त कई सरकारी,अर्द्ध-सरकारी , गैर सरकारी तथा सामाजिक संस्थाओं जैसे नगरपालिका कानोड़ , नेहरु युवा संगठन ईटाली खेड़ा एवं रोशनलाल पब्लिक स्कूल द्वारा समय-समय पर सम्मानित हो चुकी हैं। इतिहास मे विशेष रुचि होने की वजह से आपने समय-समय पर अपने दो दर्जन से ज्यादा शोध-पत्र राजस्थान के ठिकानों एवं घरानों की पुरालेखीय सामग्री, देशी रियासतों में स्वतंत्रता आंदोलन, युग-युगीन मेवाड़ एवं मेवाड़ रियासत तथा जनजातीय आदि विषयों पर प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर, मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय,माणिक्यलाल वर्मा राजस्थान विद्यापीठ, जवाहर पीठ कानोड,  राजस्थानी भाषा साहित्य अकादमी, ज्ञानगोठ इन्स्टीटयूट ऑफ राजस्थान स्टडीज, राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर , नटनागर शोध संस्थान सीतामई मध्यप्रदेश, आई.सी.एच.आर. नई दिल्ली, में वाचन एवं प्रकाशन प्रस्तुत कर ऐतिहासिक तथ्यों की विस्तृत जानकारियों को नया कलेवर प्रदान किया । समय-समय पर देश की प्रसिद्ध पत्रिकाओं मज्झमिका, महाराणा प्रताप, जर्नल ऑफ राजपूत हिस्ट्री एन्ड कल्चर, चंडीगढ़ तथा इंस्टीट्यूट ऑफ राजस्थान स्टडीज, जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ की शोध-पत्रिकाओं में आपके आलेख प्रकाशित होते रहे हैं।

साहित्य-साधना की रजत-जयंती पूरी करने वाली विमला दीदी के समग्र साहित्य की एक संक्षिप्त झलक आप इस पुस्तक के माध्यम से देख सकेंगे और साथ ही साथ, उनकी साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन व विश्लेषण के द्वारा उनकी संवेदना,चिंतन व विचारधारा से आप परिचित हो सकेंगे। मुझे विश्वास है कि प्रस्तुत कृति साहित्य प्रेमियों,शोधार्थियों और आमजन हेतु उपयोगी सिद्ध होगी।

दिनेश कुमार माली

अध्याय:प्रथम

बाल-साहित्य

बांग्ला में कहा जाता है कि जो साहित्यकार बाल-साहित्य नहीं लिखता उसे स्थापित साहित्यकार कहलाने का कोई हक नहीं।वास्तव में विश्व-कवि रवींद्र ठाकुर तक ने अपनी भाषा में बाल साहित्य का सृजन किया है। स्वाभाविक है कि बांग्ला में पहले से ही उत्कृष्ट बाल साहित्य लिखा जा रहा है,जबकि हिन्दी में आज भी उनके स्वनाम-धन्य महाकवि अथवा समालोचक बच्चों के लिए लिखना साहित्य-सृजन का अंग नहीं मानते। बाल-साहित्य के प्रति उपेक्षा का भाव आज तक बना हुआ है, अन्यथा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास-लेखक उसके प्रति पूर्वाग्रह क्यों अपनाता? उक्त इतिहास में न केवल बाल-साहित्य,बल्कि अहिंदी-भाषा भाषियों का हिन्दी साहित्य-सृजन,विश्व के हिन्दी लेखकों का लेखन आदि विषय भी नहीं लिए गए। अंग्रेजी, फ्रेंच, रूसी, जापानी, इतालवी आदि भाषाओं में बाल-साहित्य की समृद्धि का पता इस तथ्य से चल जाता है कि इन भाषाओं का बाल साहित्य हिन्दी साहित्य अनेक भाषाओं में अनूदित हुआ है उदाहरणार्थ किपलिंग,चार्ल्स डिकिन्स,मोपासाँ,टॉलस्टाय आदि के बाल-साहित्य के अतिरिक्त हाल ही में बहुचर्चित बाल-कृति ‘हैरी पॉटर’ हिन्दी में प्रकाशित हुई है। अंग्रेजी में इस पुस्तक का करोड़ों की संख्या में विक्रय हुआ,जिसे प्राप्त करने के लिए छात्रों की  लंबी-लंबी लाइनें लगती रही हैं। काश, हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में भी ऐसा बाल साहित्य प्रकाशित होता!  किन्तु हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि हमारे संस्कृत साहित्य में लिखित ‘पंचतंत्र’ ने आज विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित होकर वहाँ के बाल-साहित्य की अभिवृद्धि की है। इस प्रकार पश्चिमी बाल साहित्य को महत्त्वपूर्ण अवदान के रूप में हमारा ‘पंचतंत्र’ उपस्थित है। मगर इसी प्रकार ‘भर्तृहरि नीति शतक’ में भी बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उनके लिए नैतिक शिक्षा का समावेश किया गया है,जिसे सही ढंग से प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी ‘व्यवहार भानु’ पुस्तक बच्चों के लिए गुजराती हिन्दी में लिखी थी, जिसके भारतीय तथा विश्व भाषाओं में अनुवाद होने चाहिए, किन्तु जिस देश में भ्रष्ट राजनीति ने वातावरण को दूषित किया हुआ है, वहाँ इस प्रकार के सुझाव नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाते है । इस सब के बावजूद हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर पंडित सोहन लाल द्विवेदी तक ने ढेर सारा बाल साहित्य माँ-भारती को दिया है। बाद के लेखकों में निरंकार देव सेवक, चंद्रपाल सिंह यादव‘मयंक’, राष्ट्रबंधु, जयप्रकाश भारती, उद्भ्रांत, डॉ॰ विमला भण्डारी आदि अनेक नाम है – जिन्होंने बाल साहित्य के क्षेत्र में नए कीर्तिमान दिए।इस अध्याय में सर्वप्रथम हम डॉ॰ विमला भण्डारी द्वारा लिखे गए बाल-साहित्य पर एक-एक कर विहंगम दृष्टि डालेंगे।

1. प्रेरणादायक बाल कहानियां

डॉ. विमला भंडारी के इस कहानी संग्रह में कुल तेरह कहानियां हैं। जैसा कि इस पुस्तक का शीर्षक हैं- "प्रेरणादायक बाल कहानियां’’ वैसे ही इन सारी कहानियों में बच्चों को प्रेरणा देने वाले उम्दा कथानकों का समावेश हैं। एक-एक कहानी अलग-अलग प्रेरणाओं के स्रोत बनते प्रतीत होते हैं। कहानी आदिकाल से मनुष्य के ज्ञानार्जन एवं मनोरंजन की साधन रही है। बच्चे आरंभिक अवस्था से ही दादी, नानी, माता-पिता, बुआ, मौसी आदि से कहानी सुनने और बाद में पुस्तकों, रेडियो, टी॰वी॰ तथा मनोरंजन के अन्य साधनों द्वारा कहानी पढ़ने,सुनने, देखने में रुचि लेते हैं। कहानीकार बाल-मनोविज्ञान के अनुसार यथार्थ के धरातल पर खड़ी कहानी को कल्पनाओं के बहुरंगी रंग भर कर सरल,सारस,बोधगम्य शब्दों के शिल्प से ऐसा रोचक रूप प्रदान करता है कि उसे पढ़ सुनकर बालक आलौकिक आनंदानुभूति करता हुआ उसमें अपनी इच्छाओं,आकांक्षाओं,विश्वासों,मान्यताओं और आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी ही छवि के दर्शन करने लगता है।

‘तलाश सूरज की‘ इस संकलन की पहली कहानी हैं। इस कहानी में जानवरों द्वारा ‘सूरज की तलाश‘ करते हुए यह दर्शाया गया हैं, अगर सूरज नहीं होता तो किस तरह घुप्प अंधेरा छा जाता हैं और समस्त जीव-जंतुओं का जीवन त्राहिमाम हो जाता। बच्चों में सूरज की आवश्यकता के प्रति कल्पनाशीलता को जगाने के लिए लेखिका ने भले ही सोनू चूजे, बतख, उधम चूहा, पूसी बिल्ली, मोती कुत्ता या मगरमच्छ जैसे जलचर व थलचर जीवों का आधार लिया हो। मगर उनका मुख्य उद्देश्य सृष्टि के प्रारम्भ से शक्ति पुंज के रूप में पूजे जा रहे खगोलीय पिंड सूरज की ओर बच्चों का ध्यान आकृष्ट कर लौकिक व अलौकिक शक्तियों के बारे में बाल-जगत में अपना संदेश पहुंचाना हैं कि बिना सूरज के हम पृथ्वीवासी जी नहीं सकते।

‘नटखट तितली‘ कहानी में अलबेली तितली अपनी मां के बीमार होने की अवस्था बगीचे के सुंदर-सुंदर फूलों जैसे चमेली, गेंदा, चंपा, द्वारा कहने व लुभाने पर भी मकरंद नहीं लेकर गुलाब के फूल से मकरंद एकत्रित करना चाहती हैं, तो गुलाब का फूल उसे कांटा चुभा देता हैं। उस अवस्था में वह गिरते-मरते अपने आपको बचाते हुए घर पहुंचती हैं। लेखिका का कहने का आशय यह हैं कि हमें बिना किसी प्रलोभन में आए अपने ध्येय लक्ष्य में सफलता प्राप्ति के लिए स्थिर मन से प्रयास करना चाहिए। बचपन से अगर यह विचार धारा किसी बालक के मन-मस्तिष्क में उतार दी जाती हैं तो वह कभी भी बाहरी आकर्षण के चक्कर में नहीं पड़ेगा वरन ‘सहज मिले सो अमृत हैं‘ वाली उक्ति को अपने जीवन का विशेष-सूत्र बना देगा।

‘अनोखा मुकाबला‘ कहानी में चूहे और हाथी के मल्ल-युद्ध की राजा शेर द्वारा स्वीकृति दिया जाना इस बात का द्योतक है कि अक्ल बड़ी या भैंस? चूहा छोटे होते हुए भी विषम परिस्थितियों में अपनी बुद्घि का इस्तेमाल कर हाथी जैसे ताकतवर जानवर को मल्ल-युद्ध के अखाड़े के नीचे सुरंग बनाकर उसे खोखला कर चित्त कर देता हैं। एक और बात इस कहानी में देखने को मिलती है, वह है आधुनिक प्रबंधन-प्रणाली के अनुरूप किसी भी प्रकार की समस्या या व्यवधान आने पर निष्ठापूर्वक सामूहिक रूप से लिया जाने वाला निर्णय उसका सही समाधान हो सकता है। जिस तरह चूहे की जान पर आफत आने पर उसकी बिरादरी वालों की मीटिंग बुलाकर उसे बचने का उपाय खोजने के लिए विचार मंथन चलता रहा, ठीक उसी तरह आधुनिक औद्योगिक संस्थाएं किसी भी प्रकार की चुनौती आने पर उसके सारे कर्मचारी व अधिकारी बैठकर अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए सही निर्णय लेने का प्रयास करते है। यह सही कहा गया हैं, बुद्धि बड़ी होती हैं न कि भैंस ।

‘बेचारी चुनिया‘ एक चुनिया बंदरिया की कहानी हैं, जो किसी दूर बस्ती से कुछ सामान चुराकर लाती है कभी जूता, कभी चाबी का छल्ला, कभी आइना और बदले में जंगल के प्राणियों से कुछ ना कुछ खाने के लिए सामान लेती रहती है। इस वजह से उसकी यह चोरी करने की आदत बनती जाती हैं। अंत में वह बस्ती के लोगों द्वारा पकड़ ली जाती है। इस प्रकार लेखिका ने इस छोटी-सी कहानी के माध्यम से एक तीर से दो निशान साधे हैं। पहला चोरी करना गुनाह है, उसके परिणाम खतरनाक हो सकते है। दूसरा पराधीन सपनेहुं सुख नहीं। कोई भी प्राणी किसी के भी अधीन रहना पसंद नहीं करेगा। जब वह बंदरिया मदारी की गुलाम हो गई तो मदारी जो-जो कहता ,वैसे-वैसे वह नाच दिखाती। नई दुल्हन का नखरा बताती, दूल्हे की अकड़ बताती, बुढ़िया की खांसी बताती, घाघरा-चोली पहने चुनिया के करतबों पर बच्चे तालियां बजाते, पर वह उदास रहती। काश, वह आजाद होकर जंगल लौट पाती!

‘दरबारी ढोल‘ एक ऐसी कहानी हैं जिसमें ढिंढोरा पीटने वाला ढ़ोल जंगल में कही गिर जाता है तो जंगल के छोटे-छोटे जानवर उस पर कूदते-फांदते ‘निकम्मा ढोल! निकम्मा ढोल!‘ कहकर चिढ़ाते हैं। वह ढोल अपने पुराने दिनों की याद से दुखी हो जाता हैं और उन दिनों को याद कर आकाश की ओर देखते हुए बजना शुरू हो जाता हैं, यह कहते हुए कि वर्षा हो सकती है! यह खबर सुन जंगल के सारे जानवर खुश हो जाते है और उनकी बातचीत सुनकर ढोल खुश हो जाता है। एक बार झूठ-मूठ तूफान आने की सूचना दे देता हैं वह ढोल। वह सुनकर जंगल के जानवर सारी रात चिंता में बिताते हैं तो वह प्रतिज्ञा लेता हैं कि जीवन में ऐसा कभी नहीं करेगा। एक दिन पहाड़ों की ओर से उड़ती धूल देखकर दुश्मन के आने की सूचना देता है तो जंगल के राजा ने आपातकालीन सभा बुलाकर महामंत्री, सेनापति सभी के साथ युद्ध की रणनीति बनाकर शत्रुओं को खदेड़ने में सफल हो जाता हैं। और इस कार्य में सहयोग करने के लिए उस बेकार पड़े ढोल को दरबारी ढोल बना देता है।

‘विषधर का शौर्य‘ में सांप के बच्चे अर्थात् किसी सपोले को एक बाज झपट कर उठा लेता हैं और उसे एक अनजान जगह में फेंक देता हैं। जैसा कि अक्सर होता आया है कि कोई भी साधारण जीव-जंतु सांप से डरते हैं, विषधर होने के कारण। इस वजह से पेड़ पर रह रहे सारे पक्षी भी डर जाते हैं और उसे उस पेड़ में शरण नहीं देने की बिनती करते है। मगर वह पेड़ दयालु होता है और अपनी खोल में रहने के लिए दे देता है। सुबह जब दो आदमी पेड़ काटने के लिए आते है तो उसके कुल्हाड़ी की आवाज ‘ठक्क‘ सुनकर सारे पक्षी भाग जाते हैं, मगर वह विषधर फन उठाकर उनका सामना करने के लिए पेड़ के खोखल से बाहर निकलता है। उसे देखकर वह दोनों आदमी वहां से भाग जाते है। इस तरह वह विपत्ति में सबके काम आता है। उसका यह साहस देख उसे पेड़ के सारे जीव-जन्तु उसे वहां रहने का निवेदन करते है। उसे नाग देवता के रूप में सम्मानित करते है।

‘कमजोर का महत्त्व‘ कहानी में डॉ॰ विमला भंडारी ने दो बड़े पेड़ों तथा कुछ छोटे पौधों के माध्यम से समाज में कमजोर वर्ग की सहायता करने का संदेश दिया हैं कि तकलीफ के समय वह कमजोर वर्ग ही बड़े लोगों की सहायता करेगा। एक पेड़ जिसे अपनी विशालता पर घमंड होता है, वह अपने नीचे छोटे-मोटे पेड़-पौधों को उगने नहीं देता। जबकि दूसरा पेड़ अपने नीचे छोटे-मोटे पेड़-पौधों की उगने में हर संभव सहायता करता हैं। एक बार तेज बारिश के समय घमंडी विशाल वृक्ष के नीचे की मिट्टी पानी में बहकर चली जाती है और तेज हवा के झोंकों में वह पेड़ उखड़ जाता है। जबकि दूसरा सहृदय पेड़ के नीचे पनपे पौधे मिट्टी को बांधकर रखते है और तेज हवाओं के थपेड़े भी खुद सहन कर पेड़ को गिरने से बचाते है। तब घमंडी पेड़ को इस बात का अहसास होता है, जिन्हें वह कमजोर समझ रहा था, मगर दुख के समय काम आनें वाले तो वो ही है। ‘हितोपदेश‘ व ‘पंचतंत्र‘ के रचयिता ने जिस तरह प्रकृति, जंगल व जानवरों से जो कुछ सीखा है और लिपिबद्ध किया हैं, ठीक इसी तरह डॉ. विमला भंडारी की कुशाग्र बुद्घि ने भी प्रकृति व विज्ञान के अन्योऽन्याश्रित संबंधों पर अपनी विहंगम दृष्टि डालते हुए समाज के भीतर गरीब व अमीर के बीच सौहार्द्र-संबंध तथा ‘जियो व जीने दो‘ के सिद्धांत की पुष्टि करते हुए बाल-मानस पर स्मरणीय कथानक के रूप में एक प्रेरणादायी कहानी का निर्माण किया है।

इस कहानी-संकलन की कहानी ‘उपहार‘ एक ऐसी कहानी है, जिसमें दीनू अपने प्रधानाचार्य की सेवा-निवृत्ति पर कक्षा के सभी लड़कों के साथ मिलकर उन्हें घड़ी उपहार देना चाहता है, जिसके लिए उसे दो रुपए की जरूरत होती हैं। मगर दीनू एक गरीब परिवार का लड़का होता हैं, उसके पास इतने रुपए होना मुश्किल होता हैं। उस अवस्था में वह हीन-भावना का शिकार होने लगता हैं। तभी उसके पिताजी एक अमरूद का पौधा लाकर प्रधानाचार्य को उपहार देने के लिए देता हैं। यह अनोखा उपहार पाकर न केवल प्रधानाचार्य गदगद हो जाते हैं, वरन स्कूल के सभी बच्चों को अपने साथ ले जाकर घर के आंगन में गड्ढा खोदकर उसे रोप देते है। यह देख दीनू अत्यंत खुश हो जाता हैं। लेखिका ने इस कहानी में दो चीजों की तरफ विशेष ध्यान आकर्षित किया हैं। पहला, किसी को भी उपहार देने के लिए यह जरूरी नहीं हैं कि आप दूसरों की नकल करें तथा अपनी कमाई से ज्यादा उपहार दें। अपनी क्षमता के अनुसार दिया गया अंशदान भी कोई कम नहीं होता है। रामसेतु बनाने में जितना योगदान वानर सेनाओं का रामनाम लिखकर पत्थर डालने में हैं। उतना ही योगदान बालू के ढेर में अपनी पूंछ लगाकर बालू के कण फेंक कर दिए जाने वाले गिलहरी के अपने योगदान में हैं। अर्थात् दान, उपहार या कोई भी आनुषंगिक कार्य हो, उसमें दिए जाने वाले अंशदान में भावना प्रमुख होती हैं। दूसरा जैसे कि गीता में आता है। भगवान ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं' अर्थात पत्र,पुष्प,फल या जल से भी खुश हो जाते हैं। इसी प्रकार प्रधानाचार्य भी अमरूद की पौध पाकर प्रसन्न हो जाते हैं। न कि उन्हें किसी भी प्रकार के भौतिक वस्तु की लालच या लोभ है। लेखिका की कलम ने इस प्रकार एक छोटी-सी बाल कहानी के माध्यम से ‘गागर में सागर‘ भरने की परिकल्पना की हैं। जो उनके मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ उच्च कोटि के दर्शन को दर्शाती हैं।

अगली कहानी ‘तुम्हारा शहर‘ अत्यंत ही रोचक व प्रेरणास्पद बाल-कहानी है। इस कहानी में लेखिका ने एक कबूतर के माध्यम से गांव व शहर में तुलना कर न केवल शहरवासियों का अपने चारों तरफ के परिवेश की सुरक्षा, सौंदर्य तथा सौहार्द्रता के बारे में ध्यानाकृष्ट किया है। उस शहर से तो वह गांव अच्छा हैं,  जहां खाने को स्वच्छ भोजन मिलता हो, जहां पीने को साफ पानी नसीब होता हो,   जहां  सांस लेने के लिए शुद्ध आक्सीजन मिलती हो, और जहां लोगों में ‘अतिथि देवो भवः' की धारणा जीवित हो। जबकि शहर में किसी भी प्रकार की सौहार्द्रता नही हैं, परिवेश में गगनचुम्बी इमारतें, मिल व धुंआ ही धुंआ, पीने को दूषित जल और खाने में नैसर्गिक भोजन के स्थान पर फास्ट-फूड मिलते हों। ऐसी अवस्था में लोगों को शहर क्यों रास आएंगे, जब कबूतर जैसे साधारण जीव का शहर में दम घुटने लगता हो। लेखिका ने इस कहानी में न केवल शहरों में पर्यावरण सुरक्षा को अपना मुद्दा बनाया हैं, बल्कि भारतीय ग्राम्य संस्कृति के सुसंस्कारों ‘अतिथि देवो भवः‘ को भी सूत्रपात किया हैं। यह कहानी न केवल पठनीय हैं, वरन चिरकाल तक स्मरणीय भी।

‘अनजाने सबक‘ में लेखिका ने घर-घर के यथार्थ को सामने लाने का प्रयास किया हैं, जिसमें बाल-हठ हावी हो जाती है अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए। इस अवस्था में अगर मां-बाप अपने बच्चों को सही ढंग से समझाने का प्रयास नहीं करे तो मानवीय संवेदनाएं एक साथ तिरोहित होती नजर आएगी। साकेत अपने मम्मी-पापा के साथ दार्जलिंग घूमना चाहता हैं। उसी  दौरान दादी की फिसलने के कारण पांव की हड्डी टूट जाती हैं। मगर साकेत अपनी जिद्द पर अड़ा रहता हैं कि आप दादी को बुआ के घर छोड़कर हमारे साथ दार्जलिंग चलो। उसकी बात नहीं मानने पर वह तरह-तरह की बातें करने लगता है। तब उसकी मां यह कहकर उसे समझाती हैं, कि अगर उसकी हड्डी टूट जाती तो भी क्या वह घूमने जाने की जिद्द करता? उस समय वह समझ जाता है कि मां के मन में दादी के प्रति कितनी सहानुभूति व सेवा-भावना है और उसका हठ करना अनुचित हैं। इस प्रकार लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से जाने-अनजाने अगर बच्चों को सही सबक सिखाएं जाए तो वे आसानी से वस्तु स्थिति को भांप कर सही निर्णय लेने में सफल सिद्ध होंगे। उससे ज्यादा, उनके दिलों में भी बड़े-बुजुर्गों प्रति मान-सम्मान, श्रद्धा, प्रेम, आत्मीयता तथा सहानुभूति जैसे गुण बरकरार रहेंगे।

2. जंगल उत्सव:

डॉ॰विमला भंडारी के इस बाल कहानी-संग्रह में आठ कहानियां है।‘नकलची बंदर’ डॉ॰ विमला भंडारी की हितोपदेश की तरह बंदरों की उन कहानियों में से एक कहानी है, जो राह चलते राहगीर के पेड़ के नीचे सुस्ताने पर उसकी टोकरी में रखी सारी टोपियां उस पेड़ पर रह रहे बंदर ले जाते है और जब उसकी नींद खुलती है तो खाली टोकरी देखकर वह इधर-उधर देखने लग जाता है और जब उसका ध्यान पेड़ के ऊपर टोपी पहने बंदरों की तरफ जाता है तो वह उन्हें पत्थर मारना शुरू करता है, यह देख बंदर उसे आम तोड़कर उसकी तरफ फेंकना शुरू करते हैं। यहीं से वह राहगीर बंदरों की नकल प्रवृत्ति को पहचान लेता है और उस प्रवृत्ति का लाभ लेने के लिए अपनी टोपी को उतार कर नीचे फेंक देता है जिसे वह बटोरकर अपनी राह चल देता है। ठीक इसी तरह विमला जी ने बंदर को नानी के घर जाते समय रास्ते में चुहिया के नमस्ते करने के अंदाज, चिड़िया के घोंसले बनाने तथा सूंड़ से अपने शरीर पर पानी फेंकते हाथी की नकल करने की वजह से वह जग हंसाई का पात्र बन जाता है। जो बाल-मन को मौलिक सृजन की ओर प्रेरित करने के साथ-साथ नकल करने की आदत से निजात पाने की ओर संकेत करती एक शिक्षाप्रद कहानी है।

‘टीटू ओर चिंकी’ एक पेड़ पर रह रही गिलहरी और चिड़िया तथा उनके परिवार की अनुकरणीय कहानी है जो ‘संघे-शक्ति कलयुगे’ एकता की ताकत के साथ-साथ आदर्श पड़ौस के महत्त्व को उजागर करती है। जब छोटे बच्चों में जाति-बिरादरी को लेकर एक ही मोहल्ले में लड़ाई की नौबत आती है तो यह कहानी आपत्तिकाल में उन्हें एक दूसरे की मदद कर एकजुट होकर रहने की प्रेरणा भी प्रदान करती हैं। इससे पहले की बालमन इधर-उधर की बातों को सुनकर‘श्रुति-विप्रति पन्ना’ बन अपने-अपने पूर्वाग्रहों को जन्म देना शुरू करें, ये कहानियां बच्चों के मन में निर्दोष भाव बनाए रखने के साथ‘-साथ साहचर्य की भावना को बलवती करने में अपनी अहम भूमिका अदा करती है। बारिश के समय में पेड़ की खोखल में जहां चिड़िया के अंडे सुरक्षित रहते है वहीं बाढ़ के समय में गिलहरी के अंडे घोंसले में महफूज रह सकते है। जब सांप खोखल तक पहुंचने की कोशिश करता है, चिड़िया सपरिवार पेड़ के तने पर चोंच मारना शुरू कर देती हैं, जिससे पेड़ का लसलसा क्षार निकलकर सांप के चढ़ने के मार्ग को अवरूद्ध कर दें, ठीक उसी तरह जब किसी काले कौए का अक्समात घोंसले पर आक्रमण हो तो गिलहरी अपने पंजों का प्रयोग करते हुए उसे भागने पर विवश कर देती है। इस तरह के प्रयोग बालकों के निष्कपट मन में साहचर्य की भावना को बल देती है। यह कहानी न केवल स्मरणीय है, वरन भाषा-शैली से भी अत्यन्त ही सुसमृद्ध है।

राजस्थानी लोकोक्ति ‘देख पराई चुपड़ी मत ललचावै जीव, रूखी सूखी खाईकै ठण्डा पानी पीव’ को चरितार्थ करती ‘ऐसे मिला निमंत्रण’ कहानी शालू खरगोश के हरे-भरे लहलहाते चने के खेतों को देखकर जब सोहन मुर्गी के मुंह में पानी भर आता है और खरगोश से खाने के लिए मांगती है। प्रत्युत्तर में खरगोश उसे लताड़ देता है और मेहनत करने की सीख देता है। अपमान सहकर मुर्गी स्वावलंबी होने के लिए कृतसंकल्प हो जाती है और देखते ही देखते वह भी लहलहाते खेतों की मालकिन बन जाती है। कहने का बाहुल्य यह है, किसी अपमान का उद्देश्य अगर सकारात्मक हो तो वह भी मंजिल पाने में सहायक सिद्ध होता है। ऐसे भी किसी के सामने मांगना या किसी वस्तु के लिए गिड़गिड़ाना अत्यन्त ही शर्मनाक व शास्त्र विरुद्ध हैं। कबीरदास ने तो यहां तक कहा है ‘मांगन मरण समान है, मत कोई मांगों भीख’ अर्थात मांगना मृत्यु के तुल्य है जबकि परिश्रम के बलबूते पर दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे इंसान पा नहीं सकता हो, मगर यह भी सत्य है कि सोते शेर के मुंह में शिकार नहीं घुसता है। जीवन में सफल होने पर सब कोई पूछता है, अपने घर आने का निमंत्रण देता है। ऐसे अनेकानेक जीवन के यर्थाथ दर्शन को समेट कर ‘ऐसे मिला निमंत्रण’ कहानी के माध्यम से पहुंचाने में डॉ. विमला भण्डारी सफल हुई है।

बाल-साहित्य अनेक विषयों पर लिखा जा सकता है। गणित, भौतिक, रसायन, भूगोल, इतिहास, समुद्री विज्ञान, खगोल विज्ञान, पता नहीं कितने-कितने प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए न केवल बाह्य जगत से भी बहुत कुछ तत्त्व लिए जा सकते है। डॉ. विमला भंडारी की कहानी ‘छोड़ो आपस में लड़ना’ न केवल समुद्र विज्ञान, मछलियों के प्रकार जैसे झींगा, केटलफिश, सटर फिश मत्स्य जंतुओं जैसे आक्टोपस तथा मछुआरों से होने वाले खतरों की ओर बाल पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है, वरन समुद्री जीवों के अंतर्मन की व्यथा को उजागर करते हुए किसी भी प्रलोभन में आकर लड़ने-झगड़ने से होने वाली क्षति को जिस स्तर पर प्रकट करती है उसी धरातल पर मनुष्य समाज को भी सचेत करती है कि किसी भी तरह प्रलोभन उनके वंश के लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है। जिसे देखकर अगर वे आपस में लड़ना-झगड़ना शुरू कर दें। वृहद स्तर पर राष्ट्र को भी संदेश  देती है यह कहानी कि देश के आंतरिक लड़ाई में गृहयुद्ध व मारधाड़ की अवस्था में जाल लेकर आए हुए मछुआरे की तरह अंतरराष्ट्रीय जगत के किसी विराट खतरे को आमंत्रित करने के सदृश्य है। भले ही डाॅ. विमला भंडारी बाल साहित्यकार है मगर उनकी कहानियों में कथानक एक विस्तृत आयाम को अपने भीतर समेटे हुए है। जो न केवल स्थानीय राजनीति वरन राष्ट्रीय, अतंरराष्ट्रीय राजनीति व  विदेश नीति जैसे गंभीर मुद्दों पर एक बेंच मार्क बनकर सोचने को बाध्य कर देती है।

बच्चे दिल के सच्चे होते है। मगर बचपन से ही स्कूलों में किसी की पेंसिल, रबर, स्केच-पैन अच्छी देखकर उससे बिना पूछे उठा लेने की आदत पड़ जाती है और धीरे-धीरे चोरी के प्रारंभिक कदम शुरू हो जाते है। डॉ. विमला भंडारी की कहानी ‘ सुलझा चोरी का रहस्य’ पढ़ते समय मन ही मन एक दूसरी कहानी याद आने लगी। जिसका कथानक होता है- एक बच्चा बचपन में छोटी-छोटी चोरियां करता है मगर मां जानकर भी उसे टोकती नहीं है, वरन और चोरी करने के लिए प्रोत्साहित करती है। आगे जाकर नतीजा यह निकलता है कि यह अपने जीवन में बहुत बड़ा चोर बन जाता है और उसे फांसी की सजा हो जाती है। फांसी लगाने से पूर्व जब जल्लाद उसे अपनी अंतिम इच्छा के बारे में पूछता है तो तो वो कहता है कि उसे अपनी मां से बात करनी है। जब मां को उसके पास बुलाया जाता है तो कान में कुछ कहने के बहाने उसका एक कान काट लेता है। जब उससे उसका कारण पूछा जाता है तो उसका उत्तर होता है कि जब मैंने चोरी करना सीखा था, मां जानती थी और अगर उस समय वह मुझे डांट-फटकार कर यह काम करने के लिए मना करती और निरुत्साहित करती तो निश्चय ही आज मुझे यह दिन देखने को नहीं मिलता। इस तरह फांसी की सजा नहीं मिलती और मैं एक अच्छा इंसान बन गया होता। जिस तरह ‘चैरिटी बिगेनस एट होम’ ठीक उसी तरह अच्छे गुणों की विकास स्थली भी घर ही हुआ करता है। ‘सुलझा चोरी का रहस्य कहानी में एक शृंखला बताई गई कि किस तरह कौए राजकुमारी का हार अनार के दाने समझकर उठा लेता है और जब उसे खा नहीं पाता है तो किसी पेड़ की टहनी के नीचे फेंक देता है जिससे खींचकर चुनचुन चुहिया अपने बिल में ले जाती है और भूरी बिल्ली मौसी के किसी पार्टी में जाने पर तैयार होने के लिए मांगने पर वह उसे पहनने के लिए दे देती है, जहां इंस्पेक्टर गेंडाराम उसे चोर समझकर गिरफ्तार कर लेता है। गहराई से पूछताछ करने पर सच सामने आता है कि कौआ वास्तविक अपराधी है।

इस कहानी के माध्यम से डॉ. विमला भंडारी ने न केवल बाल-जगत को यह संदेश दिया है कि किसी दूसरों के सामान को कभी भी नहीं उठाना चाहिए। साथ ही साथ वयस्क समाज में शृंखलाबद्ध चोरी की ओर ध्यान खींचा है कि किस तरह किसी की कार चोरी होने पर गैरेज में आती है और वहां से कोई ओर उठा ले जाता है तो वास्तविक अपराधी का पता करने के लिए पुलिस द्वारा छानबीन के बाद ही सही नतीजों पर पहुंचा जा सकता है। इस तरह यह कहानी न केवल बाल-जगत के लिए शिक्षाप्रद है वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी है।

लेखिका जानती हैं कि बच्चों में भारतीय संस्कार, सकारात्मक सोच,प्रकृति,जीव-मात्र के प्रति प्रेम-संवेदना और जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था जगाने का सर्वोत्तम काल है-बाल्यावस्था। बच्चों को उपदेश या गहन गंभीर विषयों द्वारा नहीं, खेल-खेल में उनकी रूचियों, आवश्यकताओं और परिचित परिवेश के साक्ष्य से अर्जित ज्ञान को आत्मसात कराया जा सकता है। सच तो यह है कि ये पुस्तक मात्र अक्षर ज्ञान नहीं कराते, अपितु जीवन जीने की कला,पशु,पक्षियों,प्रकृति और मानव-मात्र से प्रेम करना सिखाते हैं, अत्याचार के विरोध की जागृति प्रदान करते हैं और राष्ट्रीयता का भाव एवं जीवन मूल्यों में आस्था हैं।

3. बालोपयोगी कहानियाँ

डॉ॰विमला भंडारी का कहानी-संग्रह ‘बालोपयोगी कहानियाँ’ में विज्ञान पर आधारित उनकी स्वरचित कहानियों का संकलन है, जिसमें ऊर्जा-संरक्षण,एक्स-रे, परमाणु बिजलीघर, पर्यावरण, नीम के गुण, प्रकाश-संश्लेषण आदि वैज्ञानिक प्रक्रियाओं का अत्यंत ही सरल, सहज व बाल सुलभ भाषा में वर्णन किया गया है।

‘ऊर्जा संरक्षण’ कहानी में नन्ही अनुपमा अपनी माँ से ऊर्जा-संरक्षण के बारे में जानकारी प्राप्त करती है। आधुनिक ज़माने की सारी मशीनों की गतिशीलता के पीछे ऊर्जा के जिस स्वरूप की व्याख्या लेखिका ने की है,उसमें उन्होंने ऊर्जा के प्राचीन से लगाकर अत्याधुनिक स्रोतों की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है,उदाहरण के तौर पर जैसे लकड़ी, कोयला, मिट्टी का तेल, पेट्रोलियम, विद्युत-ऊर्जा, खनिज ऊर्जा, रासायनिक ऊर्जा, सौर ऊर्जा और आणविक ऊर्जा इत्यादि के स्वरूपों की व्याख्या के माध्यम से लेखिका ने ऊर्जा के पारंपरिक और गैर-पारंपरिक स्रोतों का वर्णन किया है। जहाँ विश्व में बढ़ती आबादी के कारण ऊर्जा के प्राकृतिक भंडार कम होते नजर आते हैं, जिसके फलस्वरूप भौतिक सुख-सुविधाओं के आदी मनुष्य के लिए ऊर्जा-संरक्षण का महत्त्व उतना ही महत्त्व जरूरी हो जाता है। इस हेतु लेखिका ने संचार-माध्यमों के प्रयोग से जन-जागरण के प्रति महत्ता पर प्रकाश डाला है। गैस की बचत के लिए प्रेशर कुकर का प्रयोग, अनावश्यक कार्यों में बिजली उपकरणों के दुरुपयोग रोककर विद्युत ऊर्जा की बचत के साथ-साथ पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण के खतरों से बचने के लिए सौर (अक्षय) ऊर्जा के उपयोग करने के भी लेखिका ने सुझाव दिए हैं। इस प्रकार बचपन से ही बच्चों को ऊर्जा-संरक्षण के महत्त्व को समझाकर एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का बीजारोपण किया है।

‘साकार होता सपना’ कहानी ‘ऊर्जा संरक्षण’ कहानी का एक विस्तार है, जिसमें मनीष और दीपाली अपने नानाजी के घर बार-बार बिजली की आँख-मिचौनी देखकर परेशान हो जाते हैं, तो उनके नानाजी कोयला और पानी से पैदा हो रही बिजली की अनवरत खपत से निपटने के लिए परमाणु बिजलीघर की आवश्यकता के बारे में बताते है, जिसमें बिहार की सिंहभूमि के जादूगोड़ा में यूरेनियम की भूमिगत खदानों, भारत में परमाणु बिजली घरों के स्थल, जैसे नादोरा, कोटा, तारापुर, कलपक्कम परमाणु ऊर्जा आयोग, भारत की ऊर्जा-नीति भारतीय परमाणु बिजली निगम लिमिटेड आदि की संक्षिप्त गतिविधियों की तरफ बाल-पाठकों की रुचि जागृत करने का लेखिका ने अथक प्रयास किया है।

‘रोजी का हुआ एक्स-रे’ कहानी खो-खो खेलते हुए राधिका के असंतुलित होकर गिरने से पैर मुड़ने के कारण प्राथमिक उपचार करने के बाद फ्रेक्चर की जांच के लिए एक्स-रे व्करवाने करवाने के डाक्टरी निर्देश से शुरू होती है । उसके बाद एक्स-रे की परिभाषा, चुंबकीय विकिरणों के प्रकार, एक्स-रे का आविष्कार, सी॰टी स्कैन, अल्ट्रा-साउंड, एम॰आर॰आई द्वारा शरीर के किसी भी भाग के त्रिआयामी चित्र खींचने की प्रक्रिया की साथ-साथ विकिरणों का मनुष्य-शरीर पर होने वाले दुष्प्रभावों की ओर लेखिका ने केवल विज्ञान में रुचि रखने वाले बाल-पाठकों,वरन समस्त किशोर व प्रौढ़ पाठकों को विज्ञान की इन नई उपलब्धियों की जानकारी प्रदान की है।

‘पर्यावरण की रक्षा’ एक ऐसी बाल कहानी है, जिसमें सरकार द्वारा किसी गाँव में प्रदर्शनी के माध्यम से पर्यावरण की सुरक्षा हेतु उठाए गए अनेकानेक कदमों को जन-जागरूकता अभियान में शामिल किए जाने का कथानक है। इस प्रदर्शनी के माध्यम से रियो दि जेनेरो के पृथ्वी शिखर सम्मेलन से प्रारम्भ कर ओज़ोन परत, जल-थल-नभ प्रदूषण, घातक कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों की ओर इंगित करते हुए लेखिका ने आने वाली पीढ़ी की रक्षा के लिए अभी से पर्यावरण सुरक्षा की ओर जागरूक होने का संकल्प लेने के लिए पाठकवृंद से अपील की है।

‘नीम का कड़वापन’ कहानी में लेखिका ने नीम की उपयोग के बारे में विस्तार से जानकारी दी है । नीम की टहनी से दातुन, नीम की पत्तियों का नहाने में प्रयोग, नीम की सूखी पत्तियों द्वारा अनाज के भंडार में कीड़े लगने से बचाने नीम के फूल (खिचड़ी) व नीम का फल (नीम कौड़ी) के प्रयोग से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ नीम की सूखी पत्तियों को जलाकर धुएँ द्वारा मच्छर भगाने, चर्म रोग से बचाव आदि गुणों की सटीक व्याख्या अत्यंत ही सरल भाषा में की गई है।

‘सबसे बड़ा कौन’ कहानी में ‘कमल का फूल’ अपने आपको बड़ा समझता है तथा पत्ती को तुच्छ। मगर जब पत्ती को सूरज किरणों के साथ मिलकर प्रकाश संश्लेषण क्रिया के माध्यम से कमल के फूल के निर्माण के लिए आवश्यक भोजन बनाने की प्रक्रिया में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में पता चलता है तो उसका इंफीरियरिटी कांप्लेक्स दूर हो जाता है।

विज्ञान पर आधारित विषयों को कथानक बनाकर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बच्चों की प्रवृत्तियों, क्षमताओं और उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बाल-साहित्य सृजन करना कोई सरल कार्य नहीं है। डॉ॰ विमला भंडारी के इस कहानी संग्रह को श्रेष्ठ वैज्ञानिक बालसाहित्य की श्रेणी में लिया जा सकता है, जिससे बच्चों की बौद्धिक, भावात्मक, कलात्मक रुचियों के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कल्पना-तत्व जगाने में मदद मिलती है।

4. बगिया के फूल

‘बगिया के फूल’ विमला भंडारी का एक ऐसा बाल कहानी संग्रह है जिसमें बच्चों के लिए 15 प्रेरणादायी कहानियों का संकलन है। जिस तरह जीजाबाई ने शिवाजी को बचपन से वीर गाथा सुनाकर उन्हें चक्रवर्ती राजा बनाने का संकल्प किया, ठीक उसी तरह महात्मा गांधी की माता पुतलीबाई ने उन्हें राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाकर जीवन में सत्य-निष्ठा के महत्त्व व पालन हेतु प्रेरित किया, वैसे ही विमला भंडारी का कहानी संग्रह ‘बगिया के फूल’ बचपन से बच्चों को संस्कारवान बनाने की प्रेरणा देने वाली अनमोल कहानियों का एक संग्रह है।

‘नन्हा सैनिक’ कहानी में दुश्मन देश के घायल सेनानायक की सेवा कर गोलू ने न केवल देश की परिधियों से परे ‘मानव सेवा’ का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया, वरन ‘वसुधैव--कुटुंबकम्’’ की महत्ती भावना का भी सभी के समक्ष उज्ज्वल आदर्श प्रतिपादित किया।

‘अजय के दोस्त’ कहानी में सरकारी आवास में रहने वाले अजय की निसंगता को मिटाने के लिए कुत्ते के छोटे-छोटे, गोल-मटोल, झबरीले बालों वाले पिल्लों से दोस्ती कर ‘जैव-मैत्री’ अर्थात जानवरों के प्रति दयाभाव को उजागर करने का कथानक है।

‘दीप झिलमिला उठे’ एक ऐसी कहानी है जो न केवल राजस्थान वरन उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों में अभी भी बाल-विवाह प्रथा के प्रचलन को दर्शाती है। कम उम्र में लड़कियों की शादी उसके पिता वरपक्ष से पैसे लेकर अपने शराब-सेवन जैसे दुर्व्यसनों की पूर्ति के लिए कर देते है। इस कहानी में आलोक अपने सहपाठियों के साथ मिलकर प्रधानाध्यापक को बाल-विवाह की शिकायत दर्ज करवाकर उनकी सहायता राधाबाई की नाबालिग लड़की कमला का विवाह होने से रूकवा देता है। शिक्षा के व्यापक प्रचार से किस तरह छोटे-छोटे बच्चों की मानसिकता में परिवर्तन आता है, उसको दर्शाती यह कहानी आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अपना अनोखा स्थान रखती है।

बच्चों को उनके जन्म-दिवस पर उपहार देना हर्ष का विषय है, मगर कोई ऐसा उपहार उन्हें बचपन में दिया जाय, जो उसके जीवन को संवार दे तथा उसके व्यक्तित्व में अनूठा निखार लाये। ऐसे उपहार की अवधारणा विमला भंडारी की कहानी ‘अनूठा उपहार’ में मिलती है जब पुलकित की मौसी उसे उसके जन्म-दिवस पर अंजलि में थोड़ा पानी देते हुए शपथ दिलवाती है कि उसका यह संकल्प उसके जीवन की प्रतिज्ञा बन जाती है। इस तरह सामाजिक मूल्यों को स्थापित करती विमला भंडारी की कहानियां अपने आप में अनुपम है।

‘नादान शरारत’ गली के कुछ शरारती लड़कों को अनियंत्रित होकर होली के समय चंदा नहीं देने वालों के खिलाफ जानबूझ कर की जाने वाले जानलेवा साजिशों को सामने लाती है। चंदा नहीं देने वाले रहमान के घर पेड़ पर चढ़कर पेट्रोल से आग लगाते समय शरारती माधव व देवराज दोनों असंतुलित होकर न केवल पेड़ की टहनी से गिर जाते है, वरन अग्नि-विभीषिका के शिकार हो जाते हैं। इस तरह बच्चों की नादानी भर शरारतें नहीं करने का आवाहन करती यह कहानी उन्हें सही रास्ते पर चलने की दिशा दिखाती है।

मां और बेटी का झगड़ा मनोवैज्ञानिक स्तर पर स्वाभाविक होता है। इस विषय पर काफी शोध भी हो चुके है। ‘मदर एण्ड डाटर कॉन्फ्लिक्ट' विषय पर प्रख्यात नारीवादी लेखिका डॉ॰ सरोजिनी साहू कहती है कि मां और बेटी की आशाएँ,आकांक्षाएं तथा उम्मीदें अन्योऽन्याश्रित होती है। मां की इच्छा होती है कि बेटी उसके घरेलू-कार्यों के अतिरिक्त उसके सुख-दुख में काम आए और वैसी ही बेटी मां को दुनिया के दुख-दर्द से बचाने के लिए ढाल के रूप में प्रयुक्त करती है।

‘सहेली की सीख’ कहानी के कथानक में प्रज्ञा और उसकी मां के बीच उतने आत्मीय संबंध नहीं होते है, जितने कि उसकी सहेली शैलजा ओर उसकी मां के बीच। जब शैलजा इस सौहार्द संबंध का रहस्योद्घाटन करती है तो प्रज्ञा की बुद्धि में यह बात घुस जाती है ओर वह भी अपनी मां के घरेलू कामों में हाथ बंटाना शुरू कर देती है। इस छोटी-सी बाल कहानी के माध्यम से लेखिका ने इस विवादित विषय पर विश्व-व्यापी दृष्टि को आकर्षित करने का सराहनीय प्रयास किया है।

‘प्रश्नों का पिटारा’ एवं झीलों की नगरी’ इस संकलन की दो शिक्षाप्रद कहानियां है, जो बच्चों को राष्ट्र-गान, राष्ट्र-चिह्न, राष्ट्रीय पशु-पक्षी व फूल तथा उदयपुर की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विरासतों जैसे सहेलियों की बाड़ी, महाराणा प्रताप का स्मारक, फतेहसागर झील में बोटिंग के आनंद, पिछोला झील, राजमहल, दूधतलाई पार्क, म्यूजिकल फाऊंटेन तथा वहां के सजे-धजे बाजार के बारे में जानकारी प्रदान करती है। ऐसी कहानियां न केवल बच्चों के मन में नई-नई जानकारियों को वृद्धि करने के बारे में प्रेरित करती है, वरन राष्ट्रीय धरोहरों व उनके महत्त्व के प्रति जागरूक भी बनाती है।

इसी संकलन की कहानी ‘लाल आंखे’ एक घरेलू कहानी है, जो ‘जैसा बाप वैसा बेटा’ उक्ति चरितार्थ करती है। शराबी बाप हजारी की लाल आंखें देख तेरह वर्षीय मुकुल उनका अनुकरण करते हुए अपनी आंखों को लाल करने के लिए शराब के घूंट चखना शुरू करता है। धीरे-धीरे वह उसकी आदत में परिणित हो जाता है और शराब खरीदने के लिए उसे पैसों की जरूरत होती है। उसके लिए वह अलमारी का ताला खोलकर पांच हजार रुपये चोरी कर लेता है। जिस तरह चुंबक लोहे के तरह-तरह के सामानों को अपनी ओर आकृष्ट करता है, वैसे ही बचपन की एक गंदी आदत तरह-तरह की बुरी आदतों को अपनी और खींचने लगती है। मुकुल की चोरी का पर्दाफाश तो तब होता है, जब वह चोरी के बचे हुए रुपये लेकर बचने के लिए कहीं भागता है और भागते-भागते वह दुर्घटना का शिकार हो जाता है। तब जाकर उसके पिता की आंखें खुलती है और वह जीवन-पर्यन्त इस प्रकार की गलती नहीं करने का संकल्प लेता है।

कभी-कभी हमारे साथ ऐसी घटनाएं घटने लगती है कि हम भयाक्रांत हो जाते है और किसी अनजान खतरे के प्रति आशंकित हो उठते है। और यह अगर किसी छोटे बच्चे के गुम होने जैसी बात हो तो फिर कहना ही क्या? हमारे मन-मस्तिष्क में अन्तर्निहित डर तरह-तरह खौफनाक आशंकाओं का रूप लेने लगता है जबकि यथार्थ कुछ और होता है। डॉ. विमला भंडारी की कलम ने इस मनोवैज्ञानिक स्तर का रेखांकन बहुत ही सशक्त रूप से अपनी कहानी ‘जब निक्की खो गई’ में किया है, जिसमें लेखिका की देवरानी कुसुम की चार वर्षीय बेटी निक्की उन्हें मिलने आती है, उनके साथ गपशप करती है और बिना कुछ बोले कहीं चली जाती है। इसी दौरान एक साधु उनके यहां भीख मांगने आता है। कुछ समय बाद निक्की को खोजती उसकी मां लेखिका के पास पहुंचती है तो वहां न पाकर वह अनेकानेक आशंकाओं से ग्रस्त हो उठती है कि कहीं उसे साधु तो हीं उठा ले गया? तरह-तरह के अपराध-बोध उनके मन-मस्तिष्क पर छाने लगते है। चारों तरफ घर में हताशा का वातावरण पैदा हो जाता है और जैसे ही घर में रोने-धोने का कोहराम शुरू होता हो जाता है वैसे ही लेखिका का ध्यान बिना कुंडी लगे बंद बैठक के कमरे की तरफ जाता है। जब उसे खोला जाता है तो शृंगारपेटी के शृंगार सामानों जैसे पाऊडर, लिपिस्टिक, नेल पालिश, चूड़ियां-बिंदी सभी को फैलाकर चुपचाप खेलती हुई निक्की वहां नजर आती है। आशंकित मां अपने सौन्दर्य-प्रसाधनों की बुरी हालत देखकर भी निक्की को खुशी से चूमने लगती है। इस कहानी में आशंका, भय के मनोविज्ञान का जबर्दस्त प्रयोग हुआ है।

यह भी देखा गया है कि हमारे घरों में अधिकतर बच्चे अपनी भूख से ज्यादा खाना थाली में ले लेते है और नहीं खा पाने के कारण उसे उच्छिष्ट समझकर नालियों में फेंक देते है। यह देश की ज्वलंत समस्या भी है। खाद्य-सुरक्षा जैसे अधिनियम भी इस संदर्भ में सरकार द्वारा पारित हुए है। भोजन सुरक्षा  देश के हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। देश में कई जगह लोगों को दो वक्त खाना भी नसीब नहीं होता है। ऐसी अवस्था में बचपन से ही बच्चों में ऐसे संस्कार पैदा कर दिए जाने चाहिए ताकि जीवन भर इस असमानता को ध्यान में रखते हुए अन्न देवता का सम्मान करें। इसी थीम पर आधारित डॉ. विमला भंडारी की कहानी ‘सबक’ में मौसी पींटू और चींटू को खाना व्यर्थ नहीं करने के लिए खेतों में ले जाकर गरीबी से जूझते किसान से मुलाकात करवाती है। यहां उन्हें यह सबक मिलता है, जो अनाज को उपजाता है उसके पास खुद खाने के लिए पर्याप्त अन्न नहीं है जबकि वे अपनी थाली के ज्यादा अन्न को उच्छिष्ट समझकर बाहर फेंक देते है।

डॉ. विमला भंडारी की अंतर्दृष्टि को दाद देनी चाहिए कि उनकी कहानियों के कथानक समाज की जूझती समस्याओं तथा उनके संभावित निदान पाने के तौर-तरीकों पर आधारित होते है। कहा जाता है बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, जैसे ही बचपन में दिए गए छोटे-छोटे संस्कार समाज व देश का अच्छा नागरिक बनने में अपनी अहम भूमिका अदा करते है ।

जहां चाह, वहां राह की उक्ति को चरितार्थ करती कहानी सफलता का राज में अभिलाषा अपनी बुआजी से अपनी सहेलियों ’कामना’ और आकांक्षा से परिचय करवाती है तब बुआजी उन सभी का  ध्यान उनके नामों के अर्थ की आकृष्ट कराती है जो एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द है जिसका अर्थ होता है गहन इच्छा इन्हीं शब्दों का अर्थ बताते-बताते वह उन्हें सफलता का राज समझाने लगती है कि अगर  आपके मन में कुछ करने या कुछ बनने की अभिलाषा है तो सबसे पहले अपने भीतर एक प्रबल इच्छा शक्ति को जन्म देना होगा। प्रबल इच्छा शक्ति को साहित्यिक लोग कामना, अभिलाषा या आकांक्षा के नाम से संबोधित करते हैं। कुछ लोग भाग्य को भी सफलता का एक घटक मानते है, जबकि सत्य यह है कि भाग्य को भी सफलता का एक घटक मानते है, जबकि सत्य यह है कि भाग्य का इससे कोई लेना-देना नहीं होता है वरन चाह का पोषण पूरी संवेदना से नहीं किया जाना ही असफलता का प्रतीक है। जितनी चाह बलवान होगी लालसा उतनी ही अदम्य होगी और सफलता उतनी ही करीब होती है। केवल हवाई किले बनाने से कुछ भी हासिल नहीं होना है। सफलता के लिए मन में दृढ़-संकल्प तथा लक्ष्य का स्पष्ट आकार व रूप तय होना चाहिए जिसे पाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जी-जान से जुट जाना ही सफलता की पहली सीढ़ी है।

’जोत जल उठी’ कहानी में लेखिका प्रौढ़-शिक्षा की आवश्यकता व अपरिहार्यता की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करती है। किस तरह अमित दूध वाले अनपढ़ ग्वाले का पैसा देते समय सौ रुपये मार लेता है, किस तरह सरकारी बाबू खाली कागज पर अंगूठे लगवाकर उसकी अज्ञानता का लाभ उठाकर उसे ठगते रहते है इस कारण जब देवा पढ़ाई का महत्त्व समझकर ज्योति से पढ़ना शुरू कर देता है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता और वह सोचने लगती है कि आखिर जोत जल उठी।

’विदेशी मेहमान’ दो दोस्तों की कहानी है- शिवप्रसाद और जानकीलाल। शिव प्रसाद विदेश चला जाता है और जानकीलाल भारत में रहकर किराणे का व्यापारी बन जाता है। बरसों बाद जव शिवप्रसाद उसे मिलने गांव आता है तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है वह अपने स्तर पर उनके रहने, खाने-पीने की सारी व्यवस्था कर देता है। मगर ये व्यवस्था शिवप्रसाद के बेटे शेरेन को पसंद नही आती है, तो वह कहने लगता है, इंडिया में ऐसा ही होता है। उसका यह डायलोग जानकीलाल और उसके बेटे अशोक को तीर की तरह लगता है। उनके सामने अपने देश की आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं होती। मगर मेहमाननवाजी के कारण कुछ नहीं कह पाता हैं। फिर जब उसके बच्चे शेरेन और नेरूल बिना बताये बाहर चलें जाते है तो और गली के कुत्ते उनके पीछे लग जाते है तो अशोक के दोस्त उन्हें बचाकर उनके घर ले आता है। तब शिवप्रसाद कह उठता है, भारत में ऐसा ही है। इस तरह लेखिका ने अपनी कहानी में हमारे देश के दो स्वरूपों को प्रस्तुत किया है। पहला, इंडिया, जो गरीब है और जहां सारी भौतिक सुख-सुविधाओं के सामान उपलब्ध नहीं है और दूसरा, भारत, जहां आदमी से आदमी के बीच प्रेम संबंध है। एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते है तथा ’’वसुधैव कुटुंबकम’’  जैसे विचार धाराओं वाले दर्शन से ओत-प्रोत है। इतनी महीन बारीकियों वाले कथानक को अपने भीतर आत्मसात कर कहानी में गूंथकर नया रूप प्रदान करने में डॉ. विमला भंडारी के अत्यंत ही संवेदनशील होने के साथ भाव-प्रवण होना है, जो समाज की सूक्ष्म-अवधारणाओं को ग्रहण कर सके। इस कहानी-संकलन की अंतिम कहानी है ’मां की ममता’ में यह दर्शाया है कि मां अपने बेटे के हर कार्य पर ममतामयी सहमति जताती हैं, उसका बेटा जो कुछ भी करेगा, वह सही ही करेगा। इसलिए उसके द्वारा लिए हर निर्णय में सकारात्मक पहलू ही खोजती है और गलत निर्णय पर भी उसे डांटती-फटकारती नहीं है। जब मां अपने बेटे को गाय बेचने के लिए भेजती है तो वह उसकी जगह कहीं गधा, तो गधे की जगह मुर्गी, तो मुर्गी की जगह जूते तो कभी जूतों की जगह पंखों की टोपी से एक्सचेंज करता है। अंत में, वह टोपी भी नहीं बचती है, आते समय ठोकर लगने के कारण कुएं में गिर जाती है। इस वजह से वह सोचता है कि उसके द्वारा लिए गए लापरवाही व गलत निर्णय के लिए मां की डांट-फटकार सुननी पड़ेगी, मगर ऐसा नहीं होता हैं।

मां उसके हर निर्णय का स्वागत करती है और यहां तक कि टोपी गिर जाने पर भी तनिक दुखी हुए बगैर कहती है ’’कोई बात नहीं, बेटा तुम तो सकुशल लौट आए। कहीं चोट तो नहीं लगी तुम्हें।’’

5. करो मदद अपनी

बाल-मन मूलतः जिज्ञासु होता है। वह निश्छल और सहज होता है,सजग होता है,लेकिन सतर्क भी होता है। बाल साहित्यकार के लिए बच्चों की इस मूल प्रवृत्ति को समझ लेना जरूरी है। इसी के साथ उसे यह भी समझना जरूरी है कि बचपन में दिए गए संस्कारों के इर्द-गिर्द ही बच्चों का पूरा व्यक्तित्व विकसित होता है, अतः बाल साहित्यकार जो कुछ लिखे उससे बालमन पर अच्छे संस्कार पड़ें।

"करो मदद अपनी" विमलाजी का एक ऐसा बाल कहानी संग्रह है, जो बच्चों में साहस भरने के साथ-साथ अच्छे संस्कार व अपनी मदद खुद करने के लिए उन्हें प्रेरित करती है। चाची चींटी, साबूदाना, श्यामा बकरी, चुनमुन चुहिया, शरबती मकौड़े आदि को माध्यम बनाकर चाची चींटी द्वारा खीर बनवाने में श्यामा बकरी की ओर से दूध, शरबती मकौड़े की ओर से शक्कर तथा चुनचुन चुहिया की तरफ से सूखे मेवे काजू, किशमिश, बादम, चिरौंजी मिलने पर साबूदाना चाची चींटी से पूछ बैठता है कि सब आपकी मदद करने को क्यों तैयार है? उसका उत्तर होता है- 'जो खुद अपनी मदद करता है, उसकी मदद हर कोई मदद करता है।' कहानी की कथ्य शैली इतनी प्रभावशाली है कि बाल-मन के किसी कोने में इस बात का असर छोड़ने में कामयाब हो जाती है कि अर्थात् जो अपनी मदद करता है, ईश्वर स्वयं उसकी मदद करते हुए उन्निति के नये रास्ते खोलते है। फ्रायड मनोविज्ञान भी इस कथन की पुष्टि करता है कि बालमन एकदम खाली पन्ने की तरह होता है, उसने भाषायी विशेषण जैसे- शरबती, चुनचुन, श्यामा के साथ साथ नए-नए शब्द जैसे किशमिश, बादाम, चिरौंजी आदि मस्तिष्क के कोष में जोड़ते जाते हैं।‘जीत ली बाज’ में जंगल में जानवरों की नृत्य-प्रतियोगिता में प्रतिभागी हाथी, मुर्गे, गधे, कबूतर, मोर, चुहिया में मोर के हार जाने तथा चुहिया के विजेता होने के कारणों पर सूक्ष्म अनुभवों द्वारा दृष्टिपात करते हुए मोर के पास सब-कुछ खूबियां होने के बाद भी मस्ती से झूम रही चुहिया के सामने हारने का कारण आत्मविश्वास की कमी बताया है। सफलता का यह मंत्र ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’ प्रतिपादित करने में लेखिका पूरी तरह से सफल हुई है।विमला जी की ‘दुम दबाकर’ कहानी ओडिया लेखक जगदीश मोहंती की कहानी ‘स्तब्ध महारथी’ की याद दिलाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि बाल कहानियों के अंदर भी वही मर्म छुपा हुआ होता है जो किशोर व प्रौढ़ पाठकों के लिए रचनाकार अक्सर अपनी रचना धर्मिता में प्रयोग करते हुए नजर आते है। कई हद तक कथानक इतना ही दमदार होता है। काली बिल्ली सफेद बिल्ली की दोस्ती में धीरे-धीरे तरह-तरह के कामचोरी के बहने बनाकर अकर्मण्य सफेद बिल्ली काली बिल्ली के सारे संसाधनों का अपनी मन मुताबिक प्रयोग करना शुरू कर देती है। मुसीबत तो तब आती है जब काली बिल्ली के जन्म-दिवस के अवसर पर सभी जानवर दोस्तों के लुका-छिपी खेलते समय खीर चाटने का भंडाफोड़ हो जाता है और वह लज्जित होकर उसके घर से निकलने पर विवश हो जाती है,मानो वह जा रही हो बड़े बेआबरू होकर। कथानक की संवेदनशीलता, शब्दों का प्रयोग तथा भाषा की सरलता बाल पाठकों को बरबस पढ़ने के साथ-साथ उसे याद रखने के लिए असरदार साबित होती है।‘चिडि़या चुग गई खेत’ किसी मुहावरे की आधी पंक्ति है। पूरी पंक्ति इस तरह होती है- ‘अब पछताए क्या होत, जब चिड़िया चुग गई खेत’। चुन्नू चूहा अपने बड़ों तथा समव्यस्कों की सलाह का निरादर कर उन्मुक्त जीवन जीना चाहता है, आसन्न खतरों से बेपरवाह हुए। नतीजा यह होता है, वह अपने जीवन को खतरनाक संकट में डाल देता है। विमला भंडारी की यह कहानी बचपन से ही दूरदर्शी सतर्क जीवन दर्शन का बीजारोपण करती है। न केवल बड़ो की सही सलाह का आदर करना वरन संकट के आकलन में अपनी बुद्धि के इस्तेमाल के साथ दूरदर्शिता का आवाहन करने वाली यह कहानी हितोपदेश की किसी कहानी से कम नहीं हो सकती है।

‘गप्पी और पप्पी’ दो मेढ़कियों द्वारा कुकरमुत्ते की नांव बनाकर पानी में सैर करने की ऐसी कहानी है, जो न केवल पाठकों को नौका-विहार का अहसास  करवाती है, वरन दुख के समय धीरज रखने की सलाह भी देती है। तुलसीदास ने रामचरित मानस में सही कहा हैं,

"धीरज,धर्म,मित्र अरु नारी;आपदकाल परखेऊ चारी"

वे मेढ़कियों बच्चों से अपने आपको बचाने के लिए ग्वालिन की टोकरी में छुप जाती हैं, जिसे वह लेकर अपने घर चली जाती है और वे दोनों वहां दही की हांडी में फंस कर रह जाती है। उस अवस्था में अगर वे हिम्मत हार जाती तो शायद जिन्दा नहीं बचती। ऐसी घड़ी में अपनी शारीरिक क्षमताओं का भरपूर प्रयोग कर उनके अनवरत तैरने के कारण दही बिलोकर छाछ बन जाता है और जिस पर तैरते हुए उनके लिए अपनी जान बचाना उतना ही सुगम हो जाता है।

विज्ञान की भाषा का भी लेखिका ने भरपूर प्रयोग किया है, जैसे- 'आंखों पर पारदर्शी झिल्ली चढ़ा दो', 'हमारी अंगुलियों के बीच जाली बनी हुई है। इसी कारण तो हम चप्पुओं की तरह आसानी से पानी को ठेलकर चलाकर तैर लेती है।' इन कथनों के माध्यम से बाल जिज्ञासा को वैज्ञानिक तरीके से संतुष्ट करने का लेखिका ने अथक मनोवैज्ञानिक प्रयास किया है कि मेढ़क की आंखों पर पलकें नहीं होती है, एक पारदर्शी झिल्ली अवश्य होती है। ठीक उसी तरह अंगुलियों के बीच की जाली मेढ़क के लिए गाढ़े द्रव्य में तैरने में सहायक होती है। इस प्रकार के प्रयोग बाल साहित्य में अत्यन्त ही अनुपम तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाले होते है। विज्ञान की पृष्ठभूमि होने के कारण लेखिका इस प्रकार के मौलिक प्रयोग बड़ी सहजता से करती है।

6. मजेदार बात

‘प्यारा तोहफा’ अत्यन्त ही प्यारी बाल-कहानी है, जिसमें एक मां अपने दोनों झगड़ालू बच्चों को शांति से रहना सिखाना चाहती है मगर वह ऐसा नहीं कर पाती है। उसके जन्म दिन के अवसर पर दोनों बच्चे अपनी तरफ से तोहफा देना चाहते हैं मगर वे अपने इच्छित तोहफे लाने में विफल हो जाते है। साथ ही साथ, जानलेवा खतरों से संघर्ष करते है। ये खतरे उन्हें एक साथ रहने के लिए प्रेरित करते है। जब यह बात मां को पता चल जाती है तो वह अत्यन्त खुश हो जाती है कि उसके जन्म-दिवस पर उससे बढ़कर और क्या प्यारा तोहफा हो सकता है। सामाजिक व पारिवारिक मूल्यों को प्रतिपादित करती यह कहानी अपने आप में अनोखी है कि किस तरह कभी-कभी आपदाएं अथवा विपदाएं मिल-जुलकर कार्य करने के साथ-साथ आत्मावलोकन करने में खरी उतरती है।

‘लगन रंग लाई’ कहानी में पूसी बिल्ली चंपक वन की भूरी बिल्ली के बेटे शेरू को फूलों की माला गूंथने की कला सिखाने से इंकार कर देती है, जिसमें उसे महारत हासिल होती है। यह कहकर कि यह कला वह सिर्फ बिल्लियों को ही सिखाती है, बिल्लों को नही। इस अवस्था में बिना हिम्मत हारे शेरू पूसी बिल्ली को मनाने का प्रयास करता है। मना करने के बावजूद भी वह पूसी बिल्ली के घर के बाहर खड़ा रहकर माला गूंथते देखकर उसे सीखने का प्रयास करता है। काम खत्म कर जब पूसी बिल्ली विश्राम करने जाती है तो वह उसके कमरे की सफाई करने लगता है। इस तरह वह पूसी बिल्ली का दिल जीत लेता है और काम करने की लगन देखकर उसे तरह-तरह के गजरे, वेणी, गुलदस्ते व मालाएं बनाना सिखाती है और देखते ही देखते वह अपने काम में महारत हासिल कर लेता है। कहने का अर्थ है अगर कोई भी शिष्य सीखना चाहता है तो उसके मन में विनीत भाव होने के साथ-साथ समर्पणशीलता, लगन तथा सेवा करने की अदम्य उत्कंठा होनी चाहिए जो गुरु का मन उस तरफ आकर्षित कर सके। गीता के अध्याय चार के 34वें श्लोक में आता है-

‘‘तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानम ज्ञानिनस्त्त्वदर्शिन:"

गुरुकृपा व गुरु-आशीर्वाद पाकर दुनिया के महान से महान काम करना क्षण भर में संभव है। जब विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरु मिले या यूं कहा जाए जब रामकृष्ण परमहंस को विवेकानन्द जैसे समर्पणशील व सेवा भावी शिष्यगण मिला तो उसने अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर उनकी शिक्षाओं सभी दिगंत में प्रचुरता के साथ फैला दिया, जिसका डंका आज भी सारे विश्व में सुना जा सकता है। डॉ. विमला भंडारी की कहानियां ‘गागर में सागर’ भरने जैसी होती है, जो अपने कलश में सारे संस्कारों को उफनते समुद्र को समाहित कर सार्वभौमिक नीति शास्त्रों को विश्व परिदृश्य में प्रस्तुत करती है। उनके कलश का एक एक मोती बाल चेतना को स्फुल्लिंग को दैदीप्यमान करने में सक्षम है। बालमन की निश्छल,कोमल,सजग और जिज्ञासु प्रवृत्ति को सहज और सरल व्यंजना के साथ सुलझाने का सामर्थ्य रखने वाली लेखिका विमला भण्डारी ने बाल-मन की गुत्थियों को क्रमवार सुलझाते हुए जिस प्रकार का बाल-साहित्य दिया है, निःसंदेह उसकी श्रेष्ठता कालजयी है।

6.अनमोल भेंट (राजस्थानी भाषा)

डॉ॰ विमला भण्डारी का राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत राजस्थान बाल-कहानी-संग्रह ‘अनमोल भेंट’ शिक्षाप्रद,प्रेरक-यात्रावृत और वैज्ञानिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ सामाजिक, पारिवारिक रिश्तों और आपसी मतभेद आदि के आधार पर बने कथानकों से गुंथी हुई एक अनोखी माला है। यह कहानी-संग्रह 2011 में अनुपम प्रकाशन, उदयपुर से प्रकाशित हुआ। इस कहानी-संग्रह में कुल 11 कहानी हैं।

कहानी ‘मुसीबत सूं मुकाबलों’ में एक छोटी लड़की शानू के खाट के नीचे अचानक किसी मगरमच्छ के आ जाने पर निडरता पूर्वक उस परिस्थिति का सामना करते हुए दरवाजे पर चिटकनी लगाकर बाहर जाकर लोगों से मदद मांगना और जब उस मगरमच्छ को रस्सियों और सांकलों से बांधकर घिसते हुए बाहर निकालते समय उसका खून से लथपथ शरीर देखकर उसके मन में दया का भाव उभरना इस कथानक की प्रमुख विशेषता है। मुसीबतों से मुकाबला करते-करते मनुष्य को किसी भी हाल में न तो अपना संयम खोना चाहिए और न ही उनमें मानवीय गुणों व संवेदनाओं का ह्रास होना चाहिए। इस प्रकार विमला भण्डारी की यह कहानी बच्चों में बचपन से ही दुर्दिनों का सामना करने के संस्कारों के बीज रोपती है।

‘वह रे दीनू कहानी में’ एक निर्धन प्रतिभावान छात्र दीनू को अपने प्रधानाचार्य की सेवा-निवृत्ति पर उपहार स्वरूप देने के लिए कुछ भी पैसा देने में असमर्थ उसके पिताजी अमरूद का पौधा उपहार देने के लिए प्रदान करते है। यह उपहार प्रधानाचार्य को बहुत पसंद आता है और वह सारे बच्चों को पर्यावरण के बारे में वृक्षारोपण की महत्ता को प्रकाश डालते हैं। इस तरह यह प्रधानाचार्य के लिए एक अनमोल भेंट बन जाती है, जो कि इस कहानी संग्रह का शीर्षक है। दिनचर्या की छोटी-छोटी बातों की खोज करना लेखिका की सूक्ष्म अन्वेषी दृष्टि को दर्शाती है।

तीसरी कहानी ‘आ धरती मीठा मोरा री’ कहानी में लेखिका ने भारतीय संस्कृति, परिवेश की तुलना विदेश की धरती अमेरिका से तुलना करते हुए यह सिद्ध किया है कि भले ही विदेशी लोग विकसित हो, मगर भारतीय संस्कार, साहचर्य और सहयोग भावना से वे कभी भी उन्नत नहीं हो सकते। इस प्रकार यह कहानी न केवल स्वदेश प्रेम की भावना को बलवती करती है,बल्कि भारतीय संस्कारों की बची-खुची पूंजी को भी अक्षुण्ण रखने के लिए बाल-मन को प्रेरित करती है।

‘समझ ग्यो स्टीफन’ कहानी में स्टीफन शिमला जाना चाहता है, अपने माँ के साथ। मगर उसी दौरान उसकी दादी गिर जाती है और उसकी हड्डी में क्रेक आ जाती है। इसीलिए उसकी माँ शिमला जाने का प्रोग्राम स्थगित कर देती है। मगर स्टीफन इस स्थगन पर राजी नहीं होता है। तब उसकी माँ उसे याद दिलाती है कि अगर वह गिर जाती तो भी क्या वह शिमला जाने कि जिद्द करता ? उस पर स्टीफन समझ जाता है और शिमला जाने का प्रोग्राम रद्द कर देता है। लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से पारिवारिक रिश्तों में सुदृढ़ता लाने के लिए संवेदनाओं के प्रति बचपन से ही बच्चों को प्रेरित करने का एक सफल प्रयास किया है।

‘उदयपुर री सैर’ कहानी में लेखिका ने विश्व-प्रसिद्ध पर्यटक स्थल उदयपुर के दर्शनीय स्थानों का आकर्षक वर्णन करते हुए वहाँ के नैसर्गिक प्राकृतिक सौन्दर्य, ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ व्यापारिक गतिविधियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। झील की नगरी उदयपुर की शिल्पकला, जल-संग्रह की वैज्ञानिक तकनीक, फतह सागर, मोती मगरी पर महाराणा प्रताप की प्रतिमा, पिछौला झील, हाथी पोल, लेक पैलेस, दूध तलाई पार्क का म्यूजिकल फाउंटेन व 'रोप वे' के साथ-साथ वहाँ की जूतियों और बंधेज की चुंदड़ी के बारे में बताना न भूलते हुए लेखिका ने बच्चों की जिज्ञासा,उत्सुकता और प्रकृति के प्रति प्रेम भाव को बलवती करने का सशक्त प्रयास किया है।

‘राति आंखां’ कहानी में लेखिका ने जैसा बाप वैसा बेटा उक्ति को चरितार्थ करने का प्रयास किया है। एक शराबी बाप की लाल-लाल आँख देखकर उसका बेटा सोनू अपनी आँखें लाल करने के लिए घर की आलमारी से 5000 रुपये चोरी कर शराब पीना शुरू करता है। जब उसकी चोरी का पर्दाफाश होने लगता है तो वह घर से भाग जाता है और सड़क दुर्घटना का शिकार हो जाता है। यह देखकर शराबी पिता के मन में पश्चाताप होने लगता है। लेखिका बच्चों में “सार सार को महि रहे, थोथा दहि उड़ाए” तथा 'यानि अस्माकम सुचरितानी तानि उपस्यानि नो इतराणी' उक्ति को चरितार्थ करते हुए उन्होंने अच्छे गुणों को स्वीकार करने तथा दुर्गुणों का परित्याग करने का संदेश देती है।

“मोबाइल री गाथा” कहानी में एक लड़की तान्या को मोबाइल खरीदने के प्रति क्रेज को देखकर उसके पिताजी उसके लिए एक मोबाइल खरीद लेते है, मगर वह उसे संभाल नहीं पाती है और वह खो जाता है। इस पर लेखिका यह प्रकाश डालना चाहती है कि एक दूसरे के देखा-देखी अथवा नई-नई चीजों के प्रति बच्चों में उत्सुकता की वजह से वे कई बार बाल-हठ कर लेते हैं। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि माँ-बाप उनकी सारी मांगों का पूर्ति करें। होना यह चाहिए कि वे अपने बच्चों को अपनी आर्थिक, पारिवारिक स्थिति के साथ-साथ अपने इर्द-गिर्द वातावरण के खतरों से भी समझदारी पूर्वक सचेत करें ताकि भविष्य में वे कभी भी अनिश्चितता के खतरों से जूझते हुए किसी भी प्रकार का खतरा मोड़ नहीं ले।

“भाई बहन” कहानी में घर में भाई बहन के पारस्परिक झगड़ों के कारण जब बहन की विवेकानंद की पेंटिंग खराब हो जाती है और वह फिर से उसे बनाना नहीं चाहती है तब उनकी माँ विवेकानंद की उस पेंटिंग पर प्रेरणादायक विचार प्रस्तुत करती है कि किस तरह 11 सितंबर 1893 को उन्होंने शिकागो में विश्वधर्म सम्मेलन में सारे अमेरिका वासियों का ‘मेरे प्यारे भाई बहनों’ के सम्बोधन से उनका दिल जीत लेते हैं। कहने का अर्थ भाई बहन सम्बोधन के मर्म में छुपा हुआ प्रेम में विश्वविख्यात बना देता है। इस सीख के माध्यम से वह भाई बहन बीच में सुलह करा देती है। इस तरह भारत के महान व्यक्तित्वों के दृष्टान्तों के माध्यम से लेखिका ने उस पृष्ठभूमि को तैयार करने का सफल प्रयास किया है जिसमें पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता से “वसुधैव कुटुंबकम” विचारधारा व संकल्प में परिणित किया जा सकता है।

“किस्तर व्हियों” कहानी में लेखिका ने मकर-संक्रांति के दिन पतंग उड़ाने के दौरान किसी लड़के के छट की मुंडेर से गिर कर दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर उसका सारा दोषारोपण उसके मित्रो पर मढ़ दिया जाता है कि उसने उसको छत से धक्का दिया होगा अन्यथा ऐसे कैसे हो गया। लेखिका ने पतंग उड़ाने के दौरान गिर जाने वाली सावधानियों का उल्लेख करते हुए छोटे-छोटे बच्चों को यह शिक्षा देने का प्रयास किया है कि वे हमेशा कोई भी कार्य हो सावधानी से करें और किसी पर भी झूठा आरोप न मढ़े।

“कठ्फूतली री मान” कहानी में कठपुतली के खेल के माध्यम से लेखिका ने प्रौढ़-शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस कहानी में यह दर्शाया गया है किस तरह एक पढ़ा-लिखा आदमी को चलाखी से मूर्ख बनाकर ज्यादा पैसा ऐंठ लेते हैं। अतः प्रौढ़-शिक्षा भी उतनी ही जरूरी है, जितनी बाल-शिक्षा।

“जस जसो नाम” कहानी में भाँप के इंजन के आविष्कार कर्ता जेम्स वाट की सूक्ष्म अन्वेषण दृष्टि से केतली में बनने वाली भाप से ढक्कन को उड़ते देख भाप के इंजिन का विचार उसके मन में आ जाता है जिससे वह ल्यूनर सोसाइटी के सदस्य बर्मीघम के प्रसिद्ध उद्योगपति ‘मेथ्यु बोलटन’ के साथ मिलकर भाप इंजिन का निर्माण करते हैं। लेखिका विज्ञान की छात्रा होने के कारण अपनी बाल-कहानियों में विज्ञान की चीजों की खोज जैसे बिजली, फोन, फिल्म, टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, इन्टरनेट आदि के बारे में बहुत ज्यादा जिक्र किया है। लेखिका का मुख्य उद्देश्य बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने के साथ-साथ उनमें नए आविष्कारों के लिए आवश्यक अन्वेषण के दृष्टि को पैदा करना है।

अंत में यह कहा जा सकता है कि यह कहानी-संग्रह वास्तव में बाल-जगत के लिए एक अनमोल भेंट है, मेरा तो यह भी सोचना है कि अगर इस कहानी-संग्रह का देश की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में अनुवाद होता है तो न केवल सम्पूर्ण देश के बाल जगत को इस दिशा में एक नई दृष्टि प्राप्त होगी।

अध्याय-दो

बाल-उपन्यास

1. सुनेहरी और सिमरू

सुभद्रा पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रब्यूटर्स द्वारा प्रकाशित डॉ. विमला भंडारी का बाल उपन्यास ‘‘सुनेहरी और सिमरू’’ अत्यन्त ही रोचक, रोमांचक तथा प्राकृतिक सुषमा का जीवंत वर्णन प्रस्तुत करती है। सुनेहरी एक तगड़ा-फुर्तीला बाघ और सिमरू दो महीने का मासूम सा गुदगुदा प्यारा भालू का बच्चा। कहानी शुरू होती है एक बर्फीली घाटी से जहां लगातार बर्फ गिरने से सभी जीव-जन्तु अपने अपने बिलों में दुबके रहते है। कई दिनों से कोई शिकार नहीं। भूख से सारे जी-जन्तु बेहाल। कुछ समय बाद मौसम में सुधार होना शुरू हुआ। जीव-जन्तु अपने आखेट की तलाश में निकले। ऐसे ही सुनेहरी भी अपनी आखेट की तलाश में था। उधर भालू का बच्चा नरम-नरम घास पर प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हुए अठखेलियां खेल रहा था। इस कहानी में लेखिका की कलम ने जिस धाराप्रवाह भाषा-शैली का प्रयोग किया है पढ़ते समय ऐसा लगता है मानो किसी सुरमयी काव्य का पाठ किया जा रहा हो। हिमालय की बर्फीली घाटियों में वृक्षाच्छादित झुरमुटों के अन्दर सूरज की नरम-नरम किरणों का दृश्य प्राकृतिक चारु-चित्रपट को लेखिका ने इस तरह प्रस्तुत किया कि पाठक स्वयं उस नैसर्गिक यात्रा में जहां खो जाता है, वहीं वह जीवन और मृत्यु के बीच हो रही नजदीकियां और दूरियों की अनुभूतियों को आत्मसात कर रोमांचित हो उठता है। पाठक के शरीर में सिहरन उठने लगती है। वहीं सिमरू के चेहरे पर ‘सुनेहरी’ बाघ का पंजा लगते ही मुंह लहूलुहान होते अनुभव कर रोंगटे खड़े होने लगते है। एक तरफ कहां आप प्राकृतिक वादियों में घटाओं और ठण्डी-ठण्डी हवाओं का आनंद उठाने में मशगूल होते हैं, वहीं दूसरी तरफ सिमरू जैसे मासूम बच्चे की अपनी जान बचाने के लिए की जा रही दौड़-भाग, टूटे लकड़ी के तने के पुल पर संभल-संभल कर चलते हुए जान बचाने का प्रयास और वहीं दूसरी तरफ सामने बाघ को देख उसकी घिग्घी बंध जाना और भयाक्रांत सिमरू के पेड़ के तने का टूट जाना और तेज रफ्तार वाले प्रपात में जान बचाने का पुनः प्रयास करना, उससे ज्यादा तो सुनेहरी बाघ का नदी के किनारे-किनारे उसका अनुसरण करते हुए फिर से मौत बनकर सिमरू के सामने प्रकट होना, फिर पानी में छलांग लगाकर जान बचाने का प्रयास करना ओर सुनेहरी द्वारा लम्बी छलांग लगाकर एक बार फिर सिमरू पर जानलेवा हमला करना जैसे दृश्य किसी भी संवेदनशील पाठक के रोआं खड़े किए बिना नहीं रह सकते। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग इस कहानी को न केवल चिरस्मरणीय बनाती है, वरन सुषुप्त कल्पनाशील मन को उजागर होने का प्रयास करती है। किसी बाघ द्वारा भालू के बच्चे का शिकार करने जैसी छोटी-सी घटना को जिस प्रभावशाली शैली में डाॅ. विमला भंडारी ने वर्णन किया है, वह देखते ही बनता है। कहानी में एक और रहस्य का पर्दाफाश होता है, वह यह है कि सिमरू सोचता है कि उसके जोर से चिल्लाने कर वजह से बाघ दूसरी चट्टान पर छलांग लगा दी, वरन तथ्य यह होता है कि सिमरू की ‘बचाओ-बचाओ’ ‘मां-मां’ आवाज सुनकर उसकी मां मौका-ए-वारदात पर पहुंच जाती है और उसकी तेज दहाड़ सुनकर शेर उसे बख्श कर सरपट हो जाता है। डाॅ. विमला की कहानियों में जीवन के अनमोल दर्शन छुपा है, जीवन के उल्लास, मृत्यु के शोक, सामाजिक संबंध तथा निष्कपट प्रेम के आवेग की प्रस्तुति उनकी कहानियों में आसानी से देखी जा सकती है।

यह कहानी पढ़ते-पढ़ते जब मैं आत्म विभोर हो गया तो मेरी आंखों के समक्ष नीमो मछली की फिल्म घूमने लगी कि उस मछली को किस तरह उसकी मां बाहर निकलने के लिए मना करती है, फिर वह अपने हिम्मत की दाद देते हुए विस्तृत समुद्र की जल-राशि में लुप्त हो जाती है और उसे जहां-तहां शार्क मछलियों के हमले, कछुए के दल, ऊपर बगुलों के झुंड किन-किन खतरों का सामना नहीं करना पड़ता है। ठीक ऐसे ही सिमरू को उसकी मां के मना करने के बाद की वह प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाने के लिए अकेले ही घास पर खेलने-कूदने का दुस्साहस कर बैठता है और शुरू हो जाती है, एक  कहानी आत्म-संघर्ष की जीवन और मौत के बीच। लेखिका ने सारे दृश्यों को इतने जीवंत तरीके से लिखा है कि सारा घटनाक्रम आप अपने इर्द-गिर्द अनुभव कर सकते है। प्रकाशक ने भी रंगीन फोटोग्राफ प्रस्तुत कर इस पुस्तिका में चार चांद लगाकर दर्शनीय बना दिया है। हिन्दी पाठकों से आग्रह है कि न केवल वे स्वयं इस पुस्तक को पढ़े वरन अपने बच्चों को पढ़ने के लिए अवश्य प्रेरित करें।

2. किस हाल में मिलोगे दोस्त

डॉ. विमला भंडारी की भारत सरकार के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) द्वारा प्रकाशित सन 2014 की पुस्तक का पहला संस्करण (आईएसबीएन 978-81-237-7121-2) है ‘किस हाल में मिलोगे दोस्त’। लेखिका की गहरी अंतर्दृष्टि अतीत व यथार्थ को झांकने के लिए मजबूर करती है। बचपन में प्रारंभिक कक्षाओं में एक कविता पढ़ाई जाती पी, जिसका मूलभाव था, बारिश की एक बूंद हवा के झोंके से अपना रास्ता भटक कर सीपी के मुंह जा गिरती है तो वह मोती बन जाती है, इस प्रकार दूसरी बूंद बेले के पत्ते पर जाकर लटक जाती है और वह कपूर बन जाती है जबकि तीसरी बूंद किसी विषधर नाग के मुंह में जाकर गिर जाती है और वह विष बन जाती है। इसी तरह कागज के पल्प में कुछ रसायन मिल जाने से एक कागज मटमैला व खुरदरा बन जाता है जबकि दूसरा कागज सफेद चिकना बन जाता है। लेखिका ने इस कहानी में एक जगह यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि समाज में गुणों की कद्र होती है। सफेद चिकना कागज किताबों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जबकि खुरदरा व मटमैला कागज अखबार बनाने के काम में लिया जाता है। दूसरे शब्दों में कोयल की आवाज मधुर होने के कारण सदियों से वह सम्मानित होती आई है, जबकि कौआ अपनी कर्कश आवाज के कारण उपेक्षित होता है। वैसे ही अखबार का वह कागज किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम आता है और उसमें भी आकर्षक नहीं दिखने पर सड़क पर फेंक दिया जाता है और उसकी जगह खाकी कागज जिल्दबंदी में प्रयुक्त किया जाता है। लेखिका की इसी अवधारणा को प्रबंधन गुरु शिव खेड़ा अपनी पुस्तक ‘आपकी जीत’ में दो गुब्बारों का उदाहरण देते हुए बच्चों को समझाने का प्रयास करते हैं कि जिस गुब्बारे में हीलियम या हाईड्रोजन गैस भरी होती है, वह गुब्बारा आकाश की ऊंचाइयों में उड़ते जाता है, जबकि जिस गुब्बारे में मुंह से हवा फूंकी जाती है वह उन ऊंचाइयों को तय नहीं कर पाता बल्कि वह ऊपर उड़ नहीं पाता है।कहने का तात्पर्य यह है, गुब्बारों के भीतर की गैस उसके उड़ने की गुणवत्ता का निर्धारक है। ठीक, इसी प्रकार कागजों के अंतर्निहित रसायनिक तत्त्व उसकी स्निग्धता, खुरदरापन अथवा रंगों को निर्धारित करता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका के साथ-साथ एक अनछुए तथ्यों को उजागर करने की भी कोशिश की है। वह है मैत्री-भाव। दुनिया की हर वस्तु का अपना एक अलग महत्त्व होता है, अलग उपयोग होता है। सुई की जगह सुई ही काम आ सकती है न कि तलवार। अतः सुई की अवहेलना नहीं की जा सकती है। वरन सुई और तलवार का मैत्री-भाव हमेशा बने रहना चाहिए। लेखिका ने बाल-मन के सुकोमल हृदयों में दोस्ती की भावना को प्रज्ज्वलित करते हुए दोनों कागजों के रोल के आत्मीय संबंध से अपनी कहानी शुरू की। दोनों कागजों के रोल गोदाम में थे, एक दूसरे से घनिष्ठता पूर्वक सटे हुए। फिर प्रेस का एक मालिक उन्हें खरीद कर ले जाता है। सफेद स्निग्ध कागज से अखबार बनाने का आदेश देता है। यही से दोनों बिछुड़ जाते है। सोनू अपनी किताब पर जब अखबार की जिल्द चढ़ाता है तो फिर से दोनों दोस्तों का मिलन। मगर जब सोनू की क्लास टीचर उस असुन्दर कवर को देखकर उसकी जगह खाकी कवर लगाने की सलाह देती है तो फिर से दोनों का बिछोह। जब अखबार के फेंके हुए कवर को सोनू की मां रद्दी वाले को बेच देती है और वह रद्दी वाला उसका ठोंगा बनाता है। उस ठोंगे में चने डालकर चने बेचने वाला स्कूल के बाहर चने बेचता है, जिसे सोनू खरीदकर उसकी पुड़िया बनाकर अपने बस्ते में डाल देता है। फिर से दोनों दोस्तों का एक बार पुनर्मिलन। किताब का कागज उसका हाल देखकर दुखी हो जाता है। चने खाकर ठोंगे के कागज का हवाई जहाज बनाकर सोनू उसे उड़ा देता है। वह स्कूल की दीवार से टकरा कर नीचे जमीन पर गिर जाता है। चोट लगने की वजह से वह फट जाता है ,और तो और मैदान में खेलने वाले बच्चे उसे कुचलते हुए आगे बढ़ जाते है। इधर वह दर्द से कराह रहा होता है और उधर सोनू स्कूल से छुट्टी होने पर घर जाते समय वहां फिसल कर गिर पड़ता है। उस कागज के ऊपर किताबें बिखर जाती है, उस कागज के ऊपर। फिर से दोनों कागजों का मिलन। यहां पर आकर लेखिका ने दोनों दोस्तों के बीच होने वाले वार्तालाप के माध्यम से कहानी में खास मोड़ लिया है। जब मटमैला कागज कहता है, ‘‘तुम्हारी इज्जत का कारण तुम्हारे गुण है।’’ जबकि किताब का कागज उत्तर देता है, ‘‘दुनिया में हर चीज का अपना महत्त्व है। जो काम आप कर सकते हो, वह मैं नहीं कर सकता।’’ तभी सोनू किताब उठाकर अपने बस्ते में डालकर चला जाता है। फिर से दोनों में बिछोह!

लेखिका का दार्शनिक स्तर से सोचने का ढंग इतना उच्चकोटि का है कि वह हर अवस्था में जीवन के सत्य, यथार्थ और संबंधों को व्यापक दृष्टि से देखती है और उनके सूक्ष्म पहलुओं पर दृष्टिपात करने के लिए अंतश्चक्षुओं से बनी सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) का प्रयोग करती है। जो चीज हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में देखते हैं मगर उस तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता है। मगर लेखिका की तीव्र दृष्टि से साधारण चीजें भी अछूती नहीं रह पाती है और उसे अपने विचारों का उन्नत जामा पहनाकर साहित्यिक रूप में प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता है। जीवन में मिलना-जुलना और बिछुड़ना लगा रहता है, मगर किस तरह उन कागजी दोस्तों की तरह? जीवन की शृंखलाओं में कितना उतार-चढ़ाव है? कहां गुण, कहां अवगुण। कब सौभाग्य, कब दुर्भाग्य। सब कुछ संभव है। तभी तो लेखिका ने इसका शीर्षक दिया है, ‘‘किस हाल में मिलोगे दोस्त।’’    

3. ईल्ली और नानी

‘‘ईल्ली और नानी’’ डॉ. विमला भंडारी का लिखा एक ऐसा बाल-उपन्यास है जो अपने समय में बहुत ज्यादा चर्चित रहा। न केवल बाल-पाठकों में वैज्ञानिक शब्दावली को समझने वरन उनमें नैसर्गिक प्रकृति को नजदीक से समझने एवं उत्सुकतापूर्वक मक्खी, चींटी, मच्छर, कीड़े, मकोड़े, टिड्डे, दीमक व तितली के जीवन संबंधित वैज्ञानिक तथ्यों को सरस, सरल व मनमोहक तरीके से आत्मसात करने का अनूठा प्रयोग है। हमारे देश में वैज्ञानिक पृष्ठभूमि वाले साहित्य बच्चों के लिए बहुत कम लिखा जाता है, जबकि विदेशों में ‘नीमो’ जैसे जलीय जीवों पर कंप्यूटरीकृत फिल्में बनी है। पैसों, तकनीकी व दर्शकों की जागरूकता के अभाव में हमारे देश बच्चों के ऐसी ज्ञान-जन्य फिल्में बहुधा कम बनती है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में लेखिका का यह उपन्यास हिन्दी बाल-जगत में अपना एक स्थान रखता है। इसके अतिरिक्त, सही-सही सटीक शब्दों में वैज्ञानिक तथ्यों को पिरोकर जिन सरल वाक्य संरचना के साथ लेखिका ने प्रस्तुत किया, वह न केवल उनके विज्ञान पृष्ठभूमि को दर्शाती है, वरन विज्ञान आधारित विषयों में अतिरेक अभिरुचि के साथ-साथ जिज्ञासा पूर्वक उन्हें समझने और समझाने को कठिन श्रमसाध्य कर्म को विशिष्ट बाल-पाठकों के लिए अनुपम व उपयोगी बनाती है। इस उपन्यास की शुरूआत पुस्तकों की दुकान वाले दयाल बाबू के पास पांचवीं कक्षा तक पढ़े नौकर केशू के सपनों में एक के बाद एक मक्खी, मच्छर, टिड्डा, दीमक, चींटी, मकड़ी व तितली आदि के जीवन-प्रसंगों से संबंधित दृश्य से होती हैं।  किसी शिक्षाविद् का यह कथन कि प्रारंभिक शिक्षा में जो चीजें पढ़ाई जाती है, उनकी स्मृति जीवन पर्यंत रहती हैं, यह उदाहरण ‘ईल्ली और नानी’ के साथ भी लागू होता है। यहीं ही नहीं, अगर किसी बाल-उपन्यास में रोचकता पचहत्तर प्रतिशत हो तो, वह उपन्यास उस भाग के बाल-जगत का उज्ज्वल नक्षत्र बन जाता है। विमला भंडारी का यह उपन्यास अत्यन्त ही रोचक व शिक्षाप्रद है। जिसे कोई भी पाठक चाहे बड़ा हो या छोटा अगर एक बार पढ़ लेता है तो भाषा की शैली, सातत्य व संप्रेषणशीलता की वजह से वह हमेशा-हमेशा के लिए उनके स्मृति-कोशों में अमरता को प्राप्त कर लेता है।

एक इल्ली नामक नन्ही मक्खी पेचिश, तपेदिक, कुष्ठ और टायफाइड कीटाणुओं का ट्रक भर-भरकर व्यापार करती है। बरसात के दिनों में तो कहना ही क्या। ईल्ली की मां की व्यस्तता के कारण उसकी नानी का तार आने पर वह स्वयं कीटाणुओं से लदे ट्रक लेकर नानी को मिलने सौरपुर शहर चली जाती है। नानी उसे सौरपुर शहर की सारी जगहों जहां कीटाणुओं का व्यापार किया जा सकता है, दिखाने लगती है। उनमें मिठाई की दुकानें, रेलवे-प्लेटफार्म, बस-स्टेण्ड, अस्पताल, बिखरे मलबे का ढ़ेर, बदबूदार शौचालय, शहर के किनारे बसी कच्ची बस्ती तथा वहां के सारे पर्यटन स्थल शामिल है। इन जगहों पर बीमारियों के कीटाणुओं का आदान-प्रदान सहज है। जब नानी ईल्ली को एनाफिलीज मादा मच्छर से मुलाकात करवाती है तो उसकी जिज्ञासा बढ़ जाती है। जब लेखिका उसमें यह तथ्य जोड़ देती है कि ‘मलेरिया पैरासाइट’ जैसा कीटाणु ऐनाफिलीज के पेट में अपना आधा जीवन पूरा करता है और शेष आधा जीवन मनुष्य की त्वचा को भेदकर उनका खून चूसते हुए अपनी लार द्वारा उनमें प्रवेश कराती है। ऐनाफिलीज के बारे में यह जानकारी न केवल बाल पाठकों में वैज्ञानिक जिज्ञासा को जन्म देती है, वरन मलेरिया होने की प्रक्रिया में जादू-टोने जैसे अंधविश्वास के स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बारे में अपनी बात रखने में खरी उतरती है। उसके साथ ही साथ टी.वी. विज्ञापनों से मलेरिया मच्छरों से निदान पाने वाले कारगर उपायों की नई-नई जानकारियां बाल-जगत के समक्ष प्रस्तुत करती है।आगे जब वह लिखती है कि एक संक्रमित एनाफिलीज मच्छर स्वस्थ आदमी को अगर काट लेती है, जिसे आगे फैलाने का कार्य करती है। यह सिलसिला जारी रहता है। यहीं ही नहीं, ‘क्यूलेक्स’ एवं ‘एडीस’ जैसे मच्छर डेंगू ज्वर और फील पांव तथा पीत ज्वर को जन्म देते है। भले ही, बच्चों के लिए विज्ञान जैसा जटिल विषय हो, मगर लेखिका कहने का रोचक ढंग उपन्यास को पठनीय बनाता है। सच में बाल-साहित्य के लिए यह आवश्यक शर्त है।

एनाफिलीज के जीवन चक्र, दो सौ से चारा सौ तक अंडे देना और अंडो से लार्वा, लार्वा से प्यूपा बनना आदि सूक्ष्म जानकारियों को लेखिका ने जिज्ञासु ईल्ली के डायरी-लेखन की प्रवृत्ति से बच्चों में नई-नई चीजों को सीखकर अपनी डायरी में लिखने जैसे गुणों को अपनाने की प्रेरणा देती है।

मक्खियां अपने अंडे घोड़े की लीद, मुर्गियों की बीट, मनुष्य का मल, सड़े-गले फल और सब्जियां, गौशाला जैसी जगहों पर गर्मी या बसंत ऋतु में पांच सौ से लेकर छः सौ अंडे एक ही बार में देती है। जब नानी अंडे देने लगती है, तो मेंढक लसलसी जीभ से लपलपाते हुए खाने के लिए आगे बढ़ती है।इस तरह की जानकारियां देते हुए लेखिका दूसरे जीव-जंतुओं से बाल जगत का परिचय करवाती है। एनाफिलीज से परिचय करवाने के बाद लेखिका का लक्ष्य होता ‘खिता’ टिड्डा जो कि अफ्रीका के प्रवासी यूथी टिड्डी दल का नायक होता है। और वह रानी मक्खी अर्थात नानी का उसके इलाके के हरे-भरे खेतों का पर्णहरित खाने के लिए धावा बोलने के बारे में सूचित करता है। मगर ईल्ली के निवेदन पर वह कुछ दिनों के लिए अपने आक्रमण की योजना को स्थगित कर देता है। इसी दौरान ईल्ली की किसी वाहन से टकराकर दुर्घटना हो जाती है जिसे ‘खिता’ देख लेता है और वह उसे बचाकर अपने घर ले आता है। ऐसे ही रोचक ढंग से शुरू होती है, टिड्डे के जीवन की कहानी और ईल्ली के प्रति संवेदनशीलता पंखों के भिनभिनाने से से उसकी सुरीली आवाज और खिता का मधुर गान

कल होगी एक सुन्दर सुबह

ताजी बहेंगी हवाएं

उड़न झूलों पर हवा बैठकर आएगी

एक सलोनी मक्खी को

अपने संग उड़ा ले जाएगी

उसकी पोशाक का

लाल पीला रंग

दूर आसमान में

पतंग बन

लहर लहर लहरायेगा

ईल्ली के दर्द को जहां कम करता है, वहीं पाठकों को प्रकृति की उस मनोरम दुनिया की ओर खींच ले जाता है, जिसकी सुषमा, संगीत तथा अनेकानेक रहस्य परत-दर-परत खुलते चले जाते हैं। जो न केवल बालकों की कल्पना-शक्ति को बढ़ाती है, वरन उनके अभिव्यक्ति की शैली में नए-नए भावों व शब्दों को पिरोती हुई अंतर्जगत् की नई दुनिया का निर्माण करती है।

किसी भी पाठक के लिए यह कल्पनातीत सत्य होगा कि एक वर्ग किलोमीटर में लगभग पांच करोड़ टिड्डियां होती है और एक दिन में करीबन 100 टन वनस्पति का भक्षण करती है। वे पन्द्रह से सत्तरह घंटे बिना रुके लगातार उड़ सकते है। एक हजार किलोमीटर से लेकर पन्द्रह हजार किलोमीटर की दूरी तय करना उनके लिए कोई दुष्कर कार्य नहीं है। यह तो हुई टिड्डों के बारे में वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी। मगर जब लेखिका लिखती है कि जब टिड्डों का दल एक साथ उड़ता है तो सूरज भी छिप जाता है या एक बार लाल सागर पार करते समय उनका दल पांच हजार वर्ग किलोमीटर तक फैल गया, तब लेखिका का लक्ष्य बाल-मन को कल्पना के उस महासागर में उड़ाना है जहां वह स्वयं को टिड्डा बनाकर उस अनुभूति को अनुभव कर सके।

डाॅ. विमला भंडारी के लेखन सौन्दर्य के साथ-साथ दूसरी विशेषता है शब्दों का माधुर्य। जैसे टिड्डी एक बार में अस्सी से लेकर 150 अण्डे देती है। जिनसे लगभग 15 दिन बाद बच्चे निकल आते है जिन्हें हम ‘फुदक’ कहते है। ‘फुदक’ शब्द के माधुर्य व सरलता का क्या कहना! अपने आप पाठक इस चीज को पकड़ लेते है कि तीन सप्ताह के बाद ही टिड्डों के बच्चों को उड़ना आता है तब तक वे केवल फुदकते रहते है इसलिए प्यार से लेखिका ने उनका नाम ‘फुदक’ रखा है। इसके अतिरिक्त ईल्ली के संस्मरण या डायरी-लेखन की आदत निष्कपट पाठकों को अत्यंत प्रभावित करती है। बीच-बीच में कहीं नन्हे पाठक बोर न हो जाए, सोचकर लेखिका ‘अंडों की चोरी’ जैसे प्रसंग भी जोड़ देती है। इसी तरह ईल्ली की मुलाकात चींटेराम से हो जाती है और उसे कैसे पता चलता है कि उसके अंडे दीमक चुरा कर ले गए है? दीमकों के महल और चींटियों के बिल के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए इस क्रम के सातत्य को बनाए रखने के लिए डाॅ. विमला भंडारी के तेज दिमाग ने बच्चों की जिज्ञासु प्रवृत्ति पर आनन-फानन में आधिपत्य जमा लिया और देखते-देखते उनके मन-मस्तिष्क की शिरा-धमनियों में बहते हुए आगे की यात्रा का वृतांत दूसरे भाग में जारी रखा।

दीमक का किले का रास्ता। तुंड सैनिक पहरेदार। न खत्म होने वाली सुरंग। राजा-रानी के विशाल किले के चारों तरफ दीमकों की विशाल सेना की घेराबंदी। किले के चारों तरफ सुंदर बगीचे। उन बगीचों में काम करते श्रमिक दीमक।

इस प्रकार का लेखिका का वर्णन इतना सजीव है मानो सही मायने में किसी राजा-महाराजा की धरोहर की स्थापत्य व वास्तुकला आंखों के सामने उभरने लगी हो।

अंदर कई कक्ष। बीचो बीच एक बड़ा कक्ष। दरवाजों और खिड़कियों पर रेशमी पर्दे। कक्ष के बाहर लिखा था ‘राॅयल चेंबर’। लिखते-लिखते लेखिका मानों लेखन-कार्य में पूरी तरह डूब चुकी हो। वह स्वयं ईल्ली बनकर दीमक की बांबी का परिदर्शन कर रही हो। साथ ही साथ दीमक के राजा द्वारा उसे बंदी बनाना यह कहकर कि तुम्हारा उद्देश्य हमारे यहां कीटाणु फैलाकर हमें खत्म करना है। उनमें गुप्तचर तंत्र होने की पुष्टि करता है। मनुष्य की तरह ही उनमें भी श्रम-विभाजन, अनुशासित ढंग से रहने के तौर-तरीके, जीवन-शैली सब-कुछ दर्शाया है लेखिका ने। किस तरह दीमकों के तुंड सैनिक अपनी काॅलोनी की रक्षा करने के साथ-साथ अपने तुंडक से चिपचिपा रस निकालकर लकड़ी, कागज-गत्ता जैसी चीजों को घोलने का काम करते है। किस तरह साधारण दीमक रास्ते में गंधयुक्त पदार्थ छोड़ते जाते है, जो उन्हें अपने कक्षों या घोंसलों में लौटने के लिए मार्ग रेखा का कार्य करता है। उन्हें सूंघ-सूंघ कर अपने मूल स्थान पर वापस पहुंच जाते है। ठीक इसी तरह, श्रमिक दीमक अपने श्रम कार्यों में व्यस्त रहते हैं। बहुत कुछ चीजें सीखी अथवा सिखायी जा सकती है, इस तरह बाल-साहित्य से। साथ ही साथ, विदेशों की तरह यहां भी बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बचपन से ही विकसित किया जा सकता है। ईल्ली अगले क्रम में चींटे को अपने घर पर चाशनी से तर-बतर मजेदार जलेबी, रसगुल्ले, गुलाब-जामुन और मावे की बरफी की दावत पर बुलाती है। तो बातों-बातों में चींटाराम अपनी आप बीती घटना, कल्लू हलवाई की दुकान के नीचे गिरे रसगुल्ले को उनकी टोली के गुप्तचर द्वारा उसकी मां को खबर करने पर किसी उनकी प्रजाति की सारी चींटियां बिलों से बाहर कतारबद्ध होकर निकलती है, सुनाता है। उनकी भेड़चाल पर नानी मक्खी व्यंग्यात्मक दृष्टि से हंसने लगती है तो चींटाराम वहां से उठकर चल देता है अपने बिल की तरफ। पीछे-पीछे इल्ली। सारा दृश्य फिर एक बार ऐसा प्रस्तुत होता है, जैसा मैंने कभी अपनी सातवीं-आठवीं कक्षा में ‘‘पिपीलिका’’ नामक अध्याय में पढ़ा था अथवा गोपी मोहंती की ओडिया कहानी ‘पिंपुड़ी’ (चींटी) का अनुवाद करते समय अनुभव किया था कि किस तरह निर्धन आदिवासी लोग चींटियों की तरह अपने कंधों पर चावल के बोरे लादे ओडिशा के कोरापुट की पहाड़ी इलाकों से आंध्रप्रदेश के समतल मैदानों में तरक्की करने में लगे हुए थे।

ईल्ली को चींटेराम के पीछे-पीछे जाने के बहाने जमीन के नीचे बिछे चींटियों के नगर अर्थात भूमिगत बिल के घुसने का अवसर प्राप्त हो जाता है। जंगल से खुलता बिल का मुख्य मार्ग, किसी भी प्रकार की विपदा से बचने के लिए बिल के द्वार पर कोई द्वारपाल नहीं। झींगुर, मकड़ी जैसे कामचोर कीड़ों द्वारा उनके भोजन पर आक्रमण। चींटियों के दल में वंशागत पारस्परिक युद्ध। मेहनती कृषक चींटियों के खेत। उनका अनुशासन और व्यवस्थित जीवन। मनुष्यों की तरह मजदूर चींटी, इंजीनियर चींटी, बाॅडीगार्ड चींटी सब-कुछ। चींटियों की पालतू गायें-भुनगा कीड़ो की और अचानक उनके बिलों में बाहर तेज बारिश होने के कारण पानी भर जाना। बहुत कुछ देखा और अनुभव किया ईल्ली ने। मगर अपने डूबते छटपटाते चींटेराम को बचाकर वह किसी अन्य सुरक्षित जगह पर ले जाती है तभी उसकी नजर पड़ती है एक मकड़ी पर जो चींटेराम के इर्द-गिर्द जाला बुनकर उसे अपने गिरफ्त में लेना चाहती है। ईल्ली के अचानक चिल्लाने पर वह बचने का प्रयास करता है, मगर तब तक उसकी एक टांग जाले में बुरी तरह उलझ चुकी होती हैं बलि के बकरी की तरह वह विवश असहाय खड़ा नजर आता है। दुष्ट मकड़ी से अनुनय-विनय करने के बाद भी जब वह उसे नहीं छोड़ती है तो उसे अपने टिड्डे मित्र की याद हो आती है। वह आकर उसे बचाता है, तब तक चींटेराम की एक टांग टूट चुकी होती है। जब खिता उसकी टांग तोड़ना चाहता है तो चींटा उसे कहने लगता है मकड़ी अष्टपदा है। कोई भी टांग टूटने से फिर निकल आती है। यहीं ही नहीं, उसकी आठ आंखें भी होती है। सारा दिन जाला बुनकर शिकार फंसाती है और खाकर आराम से सुस्ताती है। वह अपने जाले में खुद नहीं फंसती है क्योंकि उसके पैरों में एक प्रकार का तेल पैदा होता रहता है, जो उसे जाले के चिपचिपे धागे में फंसने नहीं देता। यही ही नहीं, मकड़ी का जाला उसके मुंह की लार है, जो हवा के संपर्क में आते ही सूखकर मजबूत हो जाता है। इस तरह लेखिका ने उपन्यास में जगह-जगह पर वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारियों को अत्यंत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।

अंत में ईल्ली का परिचय रंग-बिरंगी तितलियों, भौरों व मधुमक्खियों से प्रकृति का सुन्दरतम जीव और उतनी ही सुंदर उनकी जीवन और कार्यशैली से होता है। फूलों से पराग इकट्ठा करती तितलियां भौंरों का गुंजन और शहद का छत्ता बनाती मधुमक्खियां का फूलों पर मंडराना अंधेरे में जुगनूओं का चमकना बहुत कुछ प्रभावित करता है इल्ली। यहां उसे इस बात का अहसास होता है कि कीटाणुओं का व्यापार करना एक अपराध-कर्म है, जो मानवता को खतरे में डालकर रोगाक्रांत कर देती है, जबकि दूसरे जीव अमृत तुल्य शहद बनाकर उन्हें नया जीवन व स्वास्थ्य प्रदान करते है।। प्रकृति का यह रहस्य जब उसके समक्ष प्रकट होता है तो वह अपराध कर्म नहीं करने का संकल्प लेती है। जिसके साक्षी बनते है, निर्भय प्रेम और उल्लास से नाचते बादल, उनकी ओट से निकलता चंद्रमा तथा टिमटिमाते सितारे। सारी प्रकृति झूम उठती है।

जैसे ही केशू की यह किताब पढ़कर सोना चाहता है, उसकी एकाग्रचित्त लगन देखकर दयाल बाबू की पत्नी प्यार से उसका सिर सहलाते हुए कहती है ‘‘बेटा, कल से तुम स्कूल जाओगे।’’

अध्याय-तीन

किशोर उपन्यास

बच्चे राष्ट्र के भविष्य हैं’, ‘बाल-मन कच्ची मिट्टी की तरह होता है। उसे जैसे संस्कार दिए जाएँगे वो वैसा ही बन जाएगा’ – ये तमाम नारे विभिन्न मंचों से ज़ोर-शोर से लगाए जाते हैं। किन्तु बच्चों को यह संस्कार देगा कौन? माँ-बाप,जिसके पास आज की भागम-भाग भरी जिंदगी में पल भर का भी वक्त नहीं है ? तो फिर क्या यह जिम्मेदारी समाज की है ? किन्तु आज समाज के नैतिक मूल्य और आदर्श जिस तेजी से विखंडित हो रही है, उस स्थिति में क्या वह अपने इस दायित्व का पालन कर रहा है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर आज अनुत्तरित-से हैं। ऐसी स्थिति में एक बाल-साहित्यकार की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उससे उपेक्षा की जा सकती है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करेगा, जिससे बच्चों का चरित्र का विकास होगा,उसमें नैतिक मूल्यों कि वृद्धि होगी और वे एक अच्छे नागरिक बन सकेंगे।

किशोर उपन्यास पठनीय व श्रवणीय ही नहीं बल्कि किशोरों के लिए उसका दर्शनीय भी होना अत्यावश्यक होता है। कुशल कहानीकार बालक के मानसिक धरातल के अनुरूप कथ्य का चयन कर सशक्त प्रस्तुतीकरण-हाव-भाव,भावपूर्ण शब्द,चित्रों की भाषा के द्वारा बालक में जिज्ञासा और कौतूहल जागृत कर देता है।‘आगे क्या हुआ – जानने की उत्सुकता बालक के संवेगों से तादात्म्य कर लेती है। बालक कहानीकार की कल्पनाओं और प्रतीकों में बहता हुआ अपने मानस पटल पर अनदेखे पदार्थों, व्यक्तियों तथा दृश्यों को प्रत्यक्ष देखने लगता है। उसकी आँखों के समक्ष वर्णित पर्वत श्रेणियाँ, बीहड़ जंगल, समुद्र, नदी, गुफाएँ,देवलोक की परी,आकाशचारी राक्षस-दैत्य,चमत्कारी बौने,करामाती अंगूठी,वंशी,डंडे,धनुष-बाण,उड़न खटोले,राजा,रानी,साहसी वीर बालक और राजकुमार, राक्षस के चंगुल में फंसी राजकुमारी, पानी की गहराई में बसा कश्मीर जैसा सुंदर नगर, आलीशान महल, बाग-बगीचे, विचित्र जीव-जंतु, घमासान युद्ध आदि सभी दृश्यमान हो उठते हैं। ऐसी कहानियाँ और उपन्यास बच्चों को संस्कारित करते हैं, उनकी कुंठित मनोदशाओं, दमित इच्छाओं और मानसिक गुत्थियों को सुलझाकर उनके मनोभावों को परिष्कृत एवं विकसित करती है। ये उपन्यास केवल बच्चों को ही नहीं अपितु युवाओं, प्रौढ़ों और वृद्धों के भी कौतूहल शमन कर उनकी कल्पना को आंदोलित करती है। अतः आज के वैज्ञानिक उन्नत युग में भी इनकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। ऐसा ही एक बहुत चर्चित उपन्यास है डॉ॰ विमला भण्डारी का "कारगिल की घाटी"।

1॰ सितारों से आगे

डॉ. विमला भंडारी का यह बाल-उपन्यास है।  जिसे सन् 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है(ISBN 978-81-237-6606-5)   इस उपन्यास में महानगरों की भागम-भाग जिंदगी में खत्म होते सामाजिक मूल्यों तथा नैतिक पतन को दर्शाते हुए एक बड़े आवासीय काॅम्पलेक्स में मां के साथ सफाई का काम करते बारह साल के छोटे बच्चे ‘‘दल्ला’’ की जिन्दगी को केन्द्रित कर कहानी प्रारंभ होती है। उसे साक्षर करने के सौम्या के अपने भरसक प्रयासों के बावजूद भी गरीबी की विवशता से उसे बाल-मजदूर के रूप में दल्ला को सुक्खा के गैराज में काम करना पड़ता है। जहां पेट्रोल के कैन गिरने की मामूली गलती पर गैराज मालिक द्वारा सिर पर पेचकस फेंककर मारने के कारण जख्मी होकर अस्पताल पहुंच जाता है। वह इस प्रहार से मरते-मरते बचता है मानो मौत के चंगुल से छूट गया हो। महानगरों में जहां मानवीय संवेदनाओं का अभाव होता है, अपने पड़ौस में रहने वाले व्यक्तियों से भी पूरी तरह जान-पहचान नहीं होती है, उस महानगर में लेखिका सौम्या किसी अखबार के संपादक के अधीन विज्ञापन बनाने का काम देखती है। अपने अपार्टमेंट में सफाई कर ‘बाड़ू’ अर्थात खाना मांगते ‘दल्ला’ व उसकी मां को दयनीय अवस्था में देखकर उसका मन पसीज जाता है और वह राष्ट्र-सेवा के रूप में मन में संकल्प लेकर ‘दल्ला’ को पढ़ाकर एक अच्छा इंसान बनाना चाहती है। अपने इस नेक मकसद को वह अपने ऑफिस के चीफ साहब के समक्ष प्रस्तुत करती है तो वह उसे नुसरत की कहानी सुनाता है कि आजकल के जमाने में पढ़ाई का जीवन में क्या महत्त्व है। नुसरत का पढ़ाई में बिलकुल मन नहीं लगता था। उसकी मां ऋषभ से प्रार्थना कर उसे पढ़ाने के लिए कहती है। मगर नुसरत खेलकूद और इधर-उधर के कामों में रूचि होती है मगर पढ़ाई में बिल्कुल भी रूचि नहीं होती है। जिससे ऋषभ उसे विद्याादान नहीं दे पाता है उधर उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। नुसरत और ज्यादा आजाद। उसकी माँ क्षुब्ध होकर उसकी शादी करा देती है। पढ़ी-लिखी नहीं होने के कारण अच्छे वर से शादी नहीं हो पाती है। उसका पति भी कम पढ़ा-लिखा और कमाने में भी कमजोर होता है। दुर्भाग्यवश सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है और तेईस साल की उम्र में वह विधवा हो जाती है। घर में तीनों बच्चों को पालन की जिम्मेदारी अकेले नुसरत पर आ गिरती है। पति की मौत के बाद बच्चों के पालन-पोषण का सारा दायित्व नुसरत के कंधों पर आ जाता है तब उसे समझ आता है पढ़ाई का महत्त्व। ऋषभ की यह कहानी सौम्या को दल्ला को पढ़ाकर ‘दलीचन्द’ बनाने के लिए प्रेरित करती है। इस नेक काम को अंजाम देने से पूर्व वह उसे अक्षर ज्ञान करवाना चाहती है ताकि किसी अच्छी स्कूल में दाखिला होने में कोई परेशानी न हो। जब उसे अंग्रेजी वर्णाक्षर पढ़ाए जाते है तो दलीचन्द एकाग्रचित्त उन्हें सीखने का प्रयास करता है। देखते ही देखते वह अक्षर ज्ञान में निपुण हो जाता है। इसी दौरान सौम्या के बचपन का सहपाठी जोसफ से मुलाकात हो जाती है। जिसके पिताजी का अहमदाबाद से उदयपुर (राजस्थान) में स्थानांतरण हो जाता है। इस घटनाक्रम में लेखिका ने अपने मूल-निवास स्थान अर्थात उदयपुर की खूबियों को उजागर करने में पीछे नहीं रही है। यह लेखिका के लिए सहज भी था। जो उपन्यास में अपनी जगह की गरिमा को न केवल उजागर करने में आसानी से अभिव्यक्त की जा सकती है वरन तथ्यों में यथार्थता का आकलन भी इतना ही सहजता से अनुभव किया जा सकता है। जहां उदयपुर को ‘‘राजस्थान का कश्मीर’’, ‘‘पूर्व के वेनिस’’ से तुलना कर उदयपुर की हरी-भरी पहाड़ियां, बाग-बगीचे तथा पानी से भरी लबालब झीलों के साथ-साथ ‘‘सहेलियों की बाड़ी की सफेद पत्थरों की बनी हुई फुहारों वाली छतरी के चारों तरफ बने पानी के हौज चारों ओर से सावन की झड़ी की तरह फुहारों के अतिरिक्त ऐतिहासिक स्थलों जैसे महाराणा प्रताप का स्मारक, खतरनाक चीरवे का घाटा, मोती मगरी, लोक-कला मंडल, कठपुतलियों के खेल और तरह-तरह के मुखौटों, पिछोला झील में बोटिंग, राजमहल, गणगौर घाट, चिड़ियाघर और यहां के लाल रंग के बंधेज दुपट्टों का इतनी खूबसूरती से लेखिका ने चित्रण किया है कि अगर आपने अभी तक राजस्थान के सर्वोत्कृष्ट जगह उदयपुर की सैर नहीं की हो तो एक बार पर्यटन के तौर पर अवश्य मानस बना लेंगे। ऐसे भी एक सर्वे के अनुरूप उदयपुर को एशिया के सुन्दरतम नगर में एक गिना जाता है। वह वहां से डाक्टरी की पढ़ाई कर रेडियोलोजिस्ट का कोर्स करता है जबकि सौम्या पत्रकारिता में डिप्लोमा पूरा करने के बाद किसी अखबार के संपादक के अधीन विज्ञापन विभाग का काम देखती है। लेखिका की एक और खासियत इस उपन्यास में नजर आती है कि उन्होंने हर पेशे जैसे पत्रकारिता हो या मेडिसीन, उसकी अर्थात गहराई में जाकर उसके मानव-संसाधन का गहन अध्ययन कर जहां समझने में पाठकों को किसी भी प्रकार का भ्रम हो, उसे सरल भाषा में समझाने का विशिष्ट प्रयास किया है। जैसे ‘एडीटर’ और ‘रिपोर्टर’ में क्या अंतर होता है? जैसे प्रधान संपादक, प्रबंध संपादक, सह संपादक तथा उप संपादक पदों के कार्य का वर्गीकरण किस तरह किया जाता है? जैसे खेल संवाददाता कौन होते है और उनके क्या काम होते है? कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी और उनके क्या काम होते है? रेडियोलोजिस्ट और रेडियोग्राफर में क्या अंतर होता है? सोनोग्राफी, अल्फा किरण, गामा किरणों के प्रभाव? इन सारी चीजों को जानने के लिए लेखिका को इन सारे कामों से व्यक्तिगत रूप से परिचित होने के साथ-साथ नजदीकी से गुजरना पड़ा होगा।

किसी का जीवन संवरता देख सौम्या के मन में एक अनोखी खुशी झलकती है, वह ‘दल्ला’ के लिए कुछ उपहार भी लाती है। जब दल्ला को चोट लगती है, तो वह परेशान हो जाती है। कुछ दिनों के बाद जब दल्ला (दलीचन्द) ने गणित की काॅपी में गुब्बारे का एक चित्र बनाता है और सौम्या जब उसका अर्थ पूछती है तो वह कहने लगता है, उसके काम नहीं करने की वजह से घर नहीं चल पा रहा है। वह सोच रहा है कि खाली समय में गुब्बारे बेचकर कुछ घर के लिए अगर वह पैसा कमा सके तो उसकी पढ़ाई जारी रह सकती है अन्यथा नहीं,और उसके लिए उसे एक पंप चाहिए ताकि गुब्बारों में हवा भर वह उनको बेच सके। पंप खरीदने के लिए उसे पैसे चाहिये। मगर सौम्या उन पैसों का जुगाड़ नहीं कर पाती है तो दलीचन्द का पिता उसे सुक्खे के गैरेज में नौकर रखवा देता है, जहां वह पढ़ाई छोड़कर टायर निकालने, सुक्खे की सेवा करने तथा गैरेज का झाड़ू निकालने का काम करता था। बदले में मिलती थी उसे सुक्खे की गालियां, मारपीट, क्रूरतापूर्वक चिऊंटी और कान उमेठे जाना। थोड़ी-सी भी गलती होने पर बुरी तरह पीटा जाना। एक बार तो वह पेचकस से पीटा गया जो सिर में दो इंच भीतर घुस गया। फिर लात-घूंसों से मारपीट कि उसकी हाथ की हड्डी टूट गई। उसकी, क्रूरता, प्रताड़ना को उजागर करने के साथ लेखिका ने उसे बाल-श्रम अपराध अधिनियम के प्रावधानों का सरे आम उल्लंघन करने के कारण सुक्खे को जेल भेजना चाहती है मगर दलीचन्द का पिता कुछ पैसे लेकर सारा मामला रफा-दफा कर देता है। दलीचन्द की मां को अपना सपना  कि दल्ला कभी बाबू बन जाए साकार होते हुए नजर नहीं आता है तो पल्लू से आंसू पोंछ-पोंछकर रोने लगती है। इधर दलीचन्द की दुनिया में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव चल रहे थे। कभी वह किसी हिमालय माल के परिसर के फर्श को मशीन से साफ करने लगा,तो कभी उसके उस्ताद के बेटे ने ‘दलित का बच्चा’ कहकर न केवल उसे गाली दी, वरन उसके माता-पिता और खानदान को भी बुरी तरह कोसने लगा। इस तरह लेखिका ने यहां उपन्यास को न केवल वैविध्यपूर्ण बनाने में सफल प्रयास किया है, बल्कि आज भी समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव, ऊंच-नीच और छुआ-छूत की मानसिकता से बच्चों के मन में होने वाले घाव को दिखाने में उनकी सशक्त कलम अधिकारिक तौर पर चली है। जिस सामंतवादी ढर्रे को कभी गोदान, गबन जैसे कालजयी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में उजागर करते थे। दलित शब्द से आहत होकर दल्ला अपने उस्ताद के बेटे को मार डालता है और उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। जीवन के थपेड़े खाते दलीचन्द नशे का आदी हो जाता है और धीरे-धीरे म्युनिस्पिल्टी के चुनाव में नेताओं की गलत संगत में पड़कर किसी को चाकू मार देता है और पुलिस उसे गिरफ्तार कर जेल भेज देती है। लेखिका यहां आकर पशोपेश में पड़ जाती है, महज चार-पांच साल के भीतर दलीचन्द एक कुख्यात अपराधी बन जाता है। पता नहीं, ऐसे कितने दलीचंद होंगे जो जमाने की मार खाकर सलाखों के पीछे अपना जीवन काट रहे होंगे, जबकि उनके घर वालों ने क्या-क्या सपने नहीं बनें होंगे! इतना छोटा-सा बच्चा और इतनी ज्यादा पेट की भूख। और तो और, उससे भी ज्यादा चारों तरफ क्रूर व असंवेदनशील समाज। महानगरों में इन चीजों का कोई अर्थ नहीं होता है।

उपन्यास का पटाक्षेप सुखांत करने के लिए लेखिका ने प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से ‘स्वप्न मंजिल’ की परिकल्पना की हैं । उपन्यास के सारे पात्रों को एक जगह लाकर खड़े करने का सार्थक प्रयास किया है। ‘स्वप्न मंजिल’ पथ से भटके बच्चों के लिए केवल आशा की किरण है वरन लेखिका द्वारा सुझाया गया एक समाधान भी है। प्रेस-कांफ्रेंस में ‘ब्लड कैंसर’ से जूझते बच्चे हरभजन के जीवन की मार्मिक गाथा है, जिसकी इस खौफनाक बीमारी के कारण दसवीं से पढ़ाई छूट जाती है और साढ़े तीन साल तक लंबे अर्से तक कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी चलने के कारण वह स्कूल जाने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाता है। मगर घर में अपने पिता की घरेलू लाइब्रेरी से सभी धर्मों के महापुरुषों की जीवन संबंधी पुस्तकें पढ़ने तथा टी.वी॰ पर महापुरुषों के प्रवचन/गुरूवाणी सुनने से उसके मन प्रेरक-प्रसंग लिखने की इच्छा उमड़ पड़ी। धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उसके लेख छपने लगे, पाठकों के प्यार भरी प्रतिक्रियाएं मिलने लगी और धीरे-धीरे वह व्यस्त रहने लगा। उसकी व्यस्तता में न केवल वह अपनी बीमारी भूल गया, वरन उच्च आत्मिक अवस्था के आगे उसे अपनी बीमारी छोटी लगने लगी। उसने अपनी खुशी जाहिर की कि उसके लिखे प्रेरक प्रसंग हर रोज सुबह स्कूलों की प्रार्थना-सभा में भी पढ़कर सुनाये जाते है। और उन प्रेरक प्रसंगों का संकलन कर वह ‘‘जीत आपकी’’ नामक पुस्तक को प्रकाशित भी करवाया। यहीं ऋषभ और डाॅ. जोसफ मिलकर जरूरतमंद लोगों का सहयोग करने का बीड़ा उठाते है। ‘स्वप्न मंजिल’ की परिकल्पना को सार्थक कर। यह मंजिल उन लोगों को समर्पित है जो किसी कारणवश अपने बचपन में नहीं पढ़ पाए और जिनके मन में आज भी इस बात का अफसोस है कि वे बुनियादी शिक्षा से वंचित रहे। इस इमारत से उन वंचित लोगों को शिक्षा दी जाएगी जो कहीं सफाई कर्मचारी है और घरों में काम करते व करती है। जो किसी अपराध के कारण सलाख्खें के पीछे चले गये। जो अब पढ़कर अपना जीवन सुधारना चाहते है। इन वंचितों को देश की मुख्य-धारा से जोड़ने का नाम है ‘स्वप्न-मंजिल’।

लेखिका ने यहां एक सवाल खड़ा किया है कि यह मंजिल इतनी शीघ्र ही कैसे? उन्होंने सुझाया कि हर पढ़े-लिखे लोग अपनी कमाई का एक प्रतिशत हिस्सा भी बचाकर रखें तो ‘स्वप्न मंजिल’ जैसी संस्थाओं का निर्माण कर देश से अज्ञानता मिटाकर और उन वंचित लोगों को मुख्य-धारा से जोड़कर देश के विकास में अहम भूमिका अदा की जा सकती है। अंत में लेखिका अपना यह संदेश छोड़ने में सफल हुई है, स्वप्न मंजिल के माध्यम से दबे कुचले लोग टोकरी बुनकर, कारपेट बनाकर, दस्तकारी कर पापड़-बड़ी बनाकर, छोटे-छोटे लघु उद्योगों के सहारे स्वावलंबी बनकर दलीचन्द जैसे लड़के और नुसरत जैसी लड़कियां खुशहाल जिन्दगी जी सकते है। विश्व में जितनी भी क्रांतियां हुई है पेट की भूख से हुई है। एक छोटी शुरूआत हुई। सौम्या विज्ञापन कंपनी की मालकिन बन जाती है, जिसके विज्ञापन अखबार से लेकर टी.वी. चैनल में छाए रहते हैं और डॉ. अरूण लूसी रिसर्च सेंटर का मालिक। धूमिल के शब्दों में-

‘‘कौन कहता है आसमां में सूराख नहीं होता

तबीयत से पत्थर तो उछालो यारो।’’ अंत में, एक दार्शनिक तरीके से वह अपना उपन्यास पूरा करती है, यह कहते हुए, ‘‘आओ, हम चलें सितारों से आगे।’’

इस उपन्यास के रोचक कथानक,चुटीले संवाद, उदात्त गुणों से भरपूर पात्रों,बालकों के मानसिक शैली और सोद्देश्यता के कारण बाल उपन्यास साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती हैं। स्थान-स्थान पर दिए चित्र कहानी के प्रवाह को गतिशील, कथानक को रोचक और पत्रों तथा देशकाल की विशिष्टताओं को व्यंजित करने के साथ पुस्तक को आकर्षक साज-सज्जा प्रदान करते हैं और बालकों की जिज्ञासाओं की की संतुष्टि,कल्पना-शक्ति का विकास,मनोविकारों का उन्नयन कर उन्हें रोमांचित तथा उत्साहित करती है। यह उपन्यास प्रौढ़ रचनात्मकता की गवाही देकर विमला भण्डारी को श्रेष्ठ बाल साहित्यकारों की में बैठने का अधिकार देती हैं।

2.कारगिल की घाटी

कुछ दिन पूर्व मुझे डॉ॰ विमला भण्डारी के किशोर उपन्यास “कारगिल की घाटी” की पांडुलिपि को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। इस उपन्यास में उदयपुर के स्कूली बच्चों की टीम का अपने अध्यापकों के साथ कारगिल की घाटी में स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए जाने को सम्पूर्ण यात्रा का अत्यंत ही सुंदर वर्णन है। एक विस्तृत कैनवास वाले इस उपन्यास को लेखिका ने सोलह अध्यायों में समेटा हैं, जिसमें स्कूल के खाली पीरियड में बच्चों की उच्छृंखलता से लेकर उदयपुर से कुछ स्कूलों से चयनित बच्चों की टीम तथा उनका नेतृत्व करने वाले टीम मैनेजर अध्यापकों का उदयपुर से जम्मू तक की रेलयात्रा,फिर बस से सुरंग,कश्मीर,श्रीनगर,जोजिला पाइंट,कारगिल घाटी,बटालिका में स्वतंत्रता दिवस समारोह में उनकी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ-साथ द्रास के शहीद स्मारक,सोनमर्ग की रिवर-राफ्टिंग व हाउस-बोट का आनंद,घर वापसी व वार्षिकोत्सव में उन बच्चों द्वारा अपने यात्रा-संस्मरण सुनाने तक एक बहुत बड़े कैनवास पर लेखिका ने अपनी कलमरूपी तूलिका से बच्चों के मन में देश-प्रेम,साहस व सैनिकों की जांबाजी पर ध्यानाकर्षित करने का सार्थक प्रयास किया है। अभी इस समय अगर लेखन के लिए सबसे बड़ी जरूरत है, तो वह है- हमारे बच्चों तथा किशोरों में देश-प्रेम की भावना जगाना ताकि आधुनिक परिवेश में क्षरण होते सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक मूल्यों के सापेक्ष राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की संप्रभुता,सुरक्षा व सार्वभौमिकता की रक्षा कर सके। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि बचपन में जिन आदर्श मूल्यों के बीज बच्चों में बो दिए जाते हैं,वे सदैव जीवन पर्यंत उनमें संस्कारों के रूप में सुरक्षित रहते हैं। इस उपन्यास में एक प्रौढ़ा लेखिका ने अपने समग्र जीवनानुभवों,दर्शन और अपनी समस्त संवेदनाओं समेत बच्चों की काया में प्रवेश कर उनकी चेतना,उनके अनुभव,उनकी संवेदना,जिज्ञासा,विचार व प्राकृतिक सौन्दर्य को विविध रूपों में परखने को उनकी पारंगत कला से पाठक वर्ग को परिचित कराया है।

उपन्यास की शुरूआत होती है,किसी स्कूल के खाली पीरियड में बच्चों के शोरगुल,कानाफूसी और परस्पर एक-दूसरे से बातचीत की दृश्यावली से,जिसमें क्लास-मोनिटर अनन्या द्वारा सारी कक्षा को चुप रखना और अध्यापिका द्वारा पंद्रह अगस्त की तैयारी को लेकर स्टेडियम परेड में अग्रिम पंक्ति में अपने स्कूल के ग्रुप का नेतृत्व करने के लिए किसी कमांडर के चयन की घोषणा होती है। तभी कोई छात्र अपनी बाल-सुलभ शरारत से कागज का हवाई-जहाज बनाकर अनन्या की टेबल के ओर फेंक देता है,जिस पर अनन्या का कार्टून बना होता है। यह देख अनन्या चिल्लाकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है,तभी क्लास में दूसरी मैडम का प्रवेश होता है। उसे ज़ोर से चिल्लाते हुए देख मैडम नाराज होकर सूची से परेड में शामिल होने वाली उन सभी बच्चों के नाम काट देती है,जिनका एक प्रतिनिधि मंडल स्वाधीनता दिवस पर कारगिल की घाटी में शहीद-स्मारक पर देश की सेना के जवानों के साथ मनाने जाने वाला था।इस घटना से सारी कक्षा में दुख के बादल मंडराने लगते हैं, मगर मैडम की नाराजगी ज्यादा समय तक नहीं रहती है।इन सारी घटनाओं को लेखिका ने जिस पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत किया है,मानो वह स्वयं उस स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा हो, या फिर किसी प्रत्यक्षदर्शी की तरह छात्र-अध्यापकों के स्वाभाविक,सहज व सौहार्द सम्बन्धों स्कूल की दीवार के पीछे खड़ी होकर अपनी टेलिस्कोपिक दृष्टि से हृदयंगम कर रही हो। क्लास टीचर के क्षणिक भावावेश या क्रोधाभिभूत होने पर भी उसे भूलकर दूसरे दिन प्राचार्याजी विधिवत प्रतिनिधि मंडल के नामों की घोषणा करती है। कुल तीन छात्राओं और साथ में स्कूल की एक अध्यापिका के नाम की,टीम मैनेजर के रूप में। बारह दिन का यह टूर प्रोग्राम था जम्मू-कश्मीर की सैर का। ग्यारह अगस्त को उदयपुर से प्रातः सवा छः बजे रेलगाड़ी की यात्रा से शुभारंभ से लेकर वापस घर लौटने की सारी विस्तृत जानकारी सूचना-पट्ट पर लगा दी जाती है। सूचना-पट्ट पर इकबाल का प्रसिद्ध देशभक्ति गीत “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा” भी लिखा हुआ होता है। यहाँ एक सवाल उठता है कि लेखिका इस देशभक्ति वाले गीत की ओर क्यों इंगित कर रही है? अवश्य, इसके माध्यम से लेखिका ने स्कूली बच्चों के परिवेश तथा उनकी उम्र को ध्यान में रखते हुए उनमें स्व-अनुशासन,स्व-नियंत्रण,शरारत,उत्सुकता तथा देश-प्रेम के गीतों से उनमें संचारित होने वाले जज़्बाती कोपलों का सजीव वर्णन किया है।

दूसरे अध्याय में रेलयात्रा के शुभारंभ का वर्णन है। सूचना-पट्ट पर कारगिल टूर के लिए चयनित लड़कियों में तीनों अनन्या (कक्षा 9 बी),देवयानी (कक्षा 8 बी) तथा सानिया (कक्षा 10 बी) के नाम की तालिका चिपकी होती है। अनन्या का यह रेलगाड़ी का पहला सफर होता है। अनन्या मध्यम-वर्गीय परिवार से है,मगर अत्यंत ही कुशाग्र व अनुशासित, और साथ ही साथ ट्रूप लीडर के अनुरूप ऊंची कद-काठी वाली। लेखिका ने अनन्या द्वारा घर में माता-पिता व दादी से कारगिल जाने की अनुमति लेने के प्रसंग से एक मध्यमवर्गीय परिवार की मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत किया है,जिसमें दादी अभी भी लड़कियों को बाहर भेजने से कतराती है,कारगिल तो बहुत दूर की बात है,दूध की डेयरी तक किसी के अकेली जाने से मना कर देती है। इस प्रसंग के माध्यम से लेखिका के नारी सुरक्षा के स्वर मुखरित होते है। आज भी हमारे देश में छोटी बच्चियाँ तक सुरक्षित अनुभव नहीं करती है। दादा-दादी के जमाने और वर्तमान पीढ़ियों के बीच फैले विराट अंतराल को पाटते हुए आधुनिक माँ-बाप लड़कियों की शिक्षा तथा टूर जैसे अनेक ज्ञानवर्धक कार्यक्रमों के लिए तुरंत अपनी सहमति जता देते है तथा लड़का-लड़की में भेद करने को अनुचित मानते है। मगर यह भी सत्य है, मध्यमवर्गीय परिवार में आज भी लड़कियों को घर के काम में जैसे झाड़ू-पोंछा,रसोई,कपड़ें धोना आदि में हाथ बंटाना पड़ता है।अनन्या की यह पहली रेलयात्रा थी,उसका उत्साह,उमंग और चेहरे पर खिले प्रसन्नता के भाव देखते ही बनते थे। ऐसे भी किसी भी व्यक्ति के जीवन की पहली रेलयात्रा सदैव अविस्मरणीय रहती है। पिता का प्यार और माँ की ममता भी कैसी होती है!इसका एक अनोखा दृष्टांत लेखिका ने अपने उपन्यास में प्रस्तुत किया है। इधर अनन्या की बीमार माँ चुपचाप उसके सारे सामानों की पैकिंग कर उसे अचंभित कर देती है,उधर पिता उसकी यात्रा को लेकर हो रही बहस के अंतर्गत जीजाबाई,रानी कर्मावती और झांसी की रानी के अदम्य शौर्य-गाथा का उदाहरण देकर नई पीढ़ी में देश-प्रेम और देश-रक्षा की भावना के विकास के लिए उठाया गया सराहनीय कदम बताकर दादी को संतुष्ट कर देते है कि चौदह-पंद्रह वर्ष की उम्र में झांसी की रानी ने अंग्रेजों से लोहा लिया था,तब अनन्या को किस बात का डर? पिता के कहने पर दादी के प्रत्युत्तर में “वह जमाना अलग था पप्पू,अब तो घोर कलयुग आ गया है” कहकर आधुनिक जमाने की संवेदनशून्यता की ओर इंगित करती है। मगर दादी द्वारा अनन्या को घर से बाहर परायों के बीच रहने पर किस-किस चीज का ध्यान रखना चाहिए,किन चीजों से सतर्क रहना चाहिए,अकेले कहीं नहीं जाना चाहिए,तथा कुछ भी अनहोनी होने पर तुरंत अपनी अध्यापिका से कहना चाहिए, जैसी परामर्श देकर समस्त किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखने वाली लड़कियों के हितार्थ संदेश देना लेखिका का मुख्य उद्देश्य है ताकि किस तरह कठिन समय में वे अपनी बुद्धि-विवेक,धैर्य व हौंसले से पार पा सकती है। अनन्या के माता-पिता की बूढ़ी आँखों में शान से लहराते तिरंगे के सामने सेना के जवानों को सैल्यूट देने में भविष्य के सपने साकार होते हुए नजर आते हैं।बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति जागरूकता लाने के साथ-साथ लेखिका ने यह प्रयास किया कि बच्चों व किशोरों को रेलवे के आवश्यक सुरक्षा नियमों व अधिनियमों की जानकारी भी हो,जैसे कि रेलवे प्लेटफार्म टिकट क्यों खरीदा जाता है?,किस-किस अवस्था में चैकिंग के दौरान जुर्माना वसूला जाता है? आरक्षित डिब्बों में किन-किन बातों का ख्याल रखना होता है ? आदि-आदि।

इस प्रकार लेखिका ने अपने उपन्यास लेखन के दौरान वर्तमान जीवन-प्रवाह से संबंधित सभी चरित्रों व घटनाओं का चयन रचना-प्रक्रिया के प्रारम्भ से ही प्रतिबद्धता के साथ किया है। यह प्रतिबद्धता लेखिका के मानस-स्तर की अतल गहराई में बसती है,तभी तो उन्होंने काश्मीर की यात्रा-वृतांत पर आधारित इस उपन्यास में अपनी मानसिक प्रक्रिया से गुजरते हुए भाषा के जरिए नया जामा पहनाकर अधिक सशक्त और प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। उपन्यास के तीसरे अध्याय ‘आपसी परिचय का सफर’ में इधर रेलगाड़ी का सफर शुरू होता है, उधर उसमें बैठे हुए यात्रियों के आपसी परिचय का सफरनामा प्रारंभ होता है। जोगेन्दर चॉकलेट का डिब्बा आगे बढ़ाकर अनजान अपरिचित वातावरण में जान-पहचान हेतु हाथ आगे बढ़ाने का सिलसिला शुरू करता है। सानिया, देवयानी,जोगेन्दर,अनन्या, कृपलानी सर व उनकी पत्नी सिद्धार्थ,आशु,श्रद्धा,मिस मेरी (स्कूल की पीटी आई),रणधीर,जीशान, मैडम रजनी सिंह सभी एक दूसरे का परिचय आदान-प्रदान करते हैं। सेठ गोविन्ददास उच्च माध्यमिक विद्यालय से टीम इंचार्ज कृपलानी सर, सेवा मंदिर स्कूल की टीम इंचार्ज रजनी सिंह मैडम। सभी का परिचय प्राप्त होने के साथ-साथ चिप्स, नमकीन जैसी चीजों का नाश्ते के रूप में आदान-प्रदान शुरू हो जाता है। रेल की खिड़की से बाहर के सुंदर प्राकृतिक नजारों में लगातार कोण बदलती हुई अरावली की हरी-भरी पहाड़ियां और उनकी कन्दराओं में फैले लहलहाते खेत नजर आने लगते हैं, जिन पर गिर रही सूरज की पहली किरणों का खजाना दिग्वलय के सुनहरे स्वप्निल दृश्यों को जाग्रत करती है। ट्रेन के भीतर मूँगफली,चिप्स,चाय,कॉफी,बिस्कुट, पानी,वडापाऊ,समोसे बेचने आए फेरी वालों का ताँता शुरू हो जाता है। बच्चे लोग जिज्ञासापूर्वक उनसे बातें करने लगते हैं। अब तक अपरिचय की सीमाएं परिचय के क्षेत्र में आते ही हंसी-मज़ाक,चुट्कुले,अंताक्षरी,फिल्मी गानों की द्वारा सुबह की नीरवता को चीरते हुए दोस्ताना अंदाज में दोपहर के आते-आते विलीन हो चुकी थी। रेलगाड़ी अलग-अलग स्टेशनों को पार करती हुई निरंतर अपनी गंतव्य स्थल की ओर बढ़ती जा रही थी। चितौडगड, भीलवाडा, विजयनगर,गुलाबपुरा,नसीराबाद से अजमेर। फिर अजमेर से शुरू होता है, जम्मू काश्मीर का सफर दोपहर दो बजे से। अपना-अपना सामान वगैरह रखने के कुछ समय बाद शुरू हो जाती है फिर से रोचक चुटकुलों की शृंखला, जिसे विराम देते हुए हिन्दी के व्याख्याता शिवदेव जम्मू-प्रदेश की कथा सुनाते है कि कभी महाराज रामचन्द्रजी के वंशज जाम्बूलोचन शिकार के लिए घूमते-घूमते इस प्रदेश की ओर आ निकले थे। जहां एक तालाब पर शेर और बकरी एक साथ पानी पी रहे थे, इस दृश्य से प्रभावित होकर प्रेम से रहने वाली इस जगह की नींव रखी, जो आगे जाकर जंबू या जम्मू के नाम से विख्यात हुआ। (मुझे लगता है कि यह कहानी बहुत पाठकों को मालूम नहीं होगी।) दूसरी खासियत यह भी थी, 1947 में भारत-पाक के विभाजन के दौरान जम्मू-कश्मीर में एक भी व्यक्ति की हत्या नहीं हुई और जम्मू काश्मीर की राजधानी सर्दियों में छः महीने जम्मू और गर्मियों में छः महीने कश्मीर रहती है। जम्मू को मंदिरों का नगर भी कहा जाता है, इसकी जनसंख्या लगभग दस लाख है। भारत के प्रत्येक भाग से जुड़ा हुआ है यह नगर। श्री वैष्णो देवी की यात्रा भी यहीं से शुरू होती है। जम्मू में डोगरा शासन काल के दौरान बने भवनों और मंदिरों में रघुनाथ मंदिर,बाहु फोर्ट, रणवीर केनाल, पटनी टॉप का व्हील रिसोर्ट प्रसिद्ध है। काश्मीर कोई अलग से नगर नहीं है, गुलमर्ग, पहलगाँव, सोनमार्ग सभी काश्मीर के नाम से जाने जाते है। मुगल बादशाह शाहजहां ने काश्मीर की सुंदरता पर कहा था – “अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है,तो यहीं है,यहीं है,यहीं है।”

डल झील में शिकारा पर्यटकों को खूब लुभाते हैं। श्रीनगर का खीर भवानी मंदिर व शंकराचार्य मंदिर भी न केवल विदेशी,बल्कि भारत के लाखों सैलानियों को काश्मीर की ओर खींच लाते हैं। काश्मीर का इतिहास भी भारत के इतिहास की तरह अनेकानेक उतार-चढ़ावों से भरा हुआ है। सर्वप्रथम मौर्यवंश के सम्राट अशोक के अधिकार में जब यह आया तो यहाँ के लोग भी तेजी से बौद्ध धर्म के ओर झुकने लगे,फिर बाद में तातरों और फिर सम्राट कनिष्क के अधिकार में काश्मीर रहा। ऐसा कहा जाता है कि महाराज कनिष्क ने बौद्ध की चौथी सभा कनिष्टपुर काश्मीर में बुलवाई थी। उस समय के प्रसिद्ध पंडित नागार्जुन कश्मीर के हारवान नामक क्षेत्र में रहते थे। काश्मीर के पतन के बाद हूण जाति के मिहरगुल नामक सरदार ने काश्मीर पर आक्रमण किया और यहाँ के निवासियों पर बर्बरतापूर्वक अत्याचार किए। उसकी मृत्यु के बाद इस देवभूमि ने पुनः सुख की सांस ली। आठवीं शताब्दी में ललितादित्य नामक एक शक्तिशाली राजा ने यहाँ राज्य किया। उसके समय में काश्मीर ने विद्या और कला में बहुत उन्नति की। श्री नगर से 64 किलोमीटर दक्षिण की ओर पहलगांव मार्ग पर जीर्ण अवस्था में खड़ा मार्तण्य के सूर्य मंदिर की मूर्तिकला आज भी देखने लायक है,जबकि सिकंदर के मूर्तिभंजकों ने कई महीनों तक इस क्षेत्र को लूटा व नष्ट-भ्रष्ट किया। नवीं शताब्दी में चौदहवीं शताब्दी तक हिन्दू राजाओं का राज्य रहा। सन 1586 में अकबर ने यहाँ के शासक याक़ूब शाह को हटाकर अपने कब्जे में कर लिया। अकबर की मृत्यु के बाद उसके पुत्र व पौत्र जहाँगीर व शाहजहां यहाँ राज्य करते रहे। उन्होंने यहाँ उनके सुंदर उद्यान व भवन बनवाएं। डल झील के आसपास शालीमार,नसीम और निशांत बाग की सुंदरता देखते बनती है। उसके बाद जब औरंगजेब बादशाह बना तो मुगल काल में फिर से अशांति की लहर दौड़ आई। उसने हिंदुओं पर जज़िया कर लगाया और हजारों हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया। इसके बाद काश्मीर पर आफ़गान अहमदशाह दुरगनी ने अधिकार कर लिया जिसके कुछ समय बाद महाराजा रणजीत सिंह ने इसे अफगानों से छीन लिया फिर काश्मीर सिक्खों के अधीन हो गया। फिर सिक्खों और अंग्रेजों ने जम्मू के डोगरा सरदार महाराजा गुलाब सिंह के हाथों 75 लाख में बेच दिया। उनकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र प्रताप सिंह यहाँ का राजा बना और चूंकि उसके कोई संतान नहीं थी, इसीलिए उसकी मृत्यु के बाद हरी सिंह गद्दी पर आसीन हुआ। यह वही हरी सिंह था,जिसने भारत में काश्मीर के विलय से इंकार कर दिया था और जब 22 अक्टूबर 1947 की पाकिस्तान की सहायता से हजारों कबायली लुटेरे और पाकिस्तान के अवकाश प्राप्त सैनिकों ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया तब उसने 26 अक्टूबर को भारत में विलय होने की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। तब यह भारत का अटूट अंग बन गया।

चूंकि लेखिका इतिहासकार भी है,अंत जम्मू और काश्मीर के इतिहास की पूरी सटीक जानकारी देकर इस उपन्यास को अत्यंत ही रोचक बना दिया। न केवल उपन्यास के माध्यम से काश्मीर की यात्रा बल्कि सम्राट अशोक के जमाने से देश की आजादी तक के इतिहास को अत्यंत ही मनोरंजन ढंग से प्रस्तुत किया है,जिसे पढ़ते हुए आप कभी भी बोर नहीं हो सकते हो,वरन पीओके (पाक अधिकृत काश्मीर) के जिम्मेदार तत्कालीन भारत सरकार तथा महाराजा हरी सिंह की भूमिका से भी परिचित हो सकते है,जिसकी वजह से 50 -60 हजार वीर सैनिकों को अपनी जान कुर्बान करनी पड़ी। इस प्रकार लेखिका ने हमारी किशोर पीढ़ी को तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था से परिचित कराते हुए अपने कर्तव्य का बखूबी निर्वहन किया है।

चौथे अध्याय ‘जम्मू से गुजरते हुए’ में स्कूली दलों की ट्रेन का जम्मू पहुँचकर कनिष्का होटल में बुक किए हुए कमरों में ठहरकर जम्मू-दर्शन का शानदार उल्लेख है। आठ बजे जम्मू में पहुंचकर ठीक ग्यारह बजे कारगिल जाने वाले दल के सभी सदस्य एक-एककर नाश्ते के लिए होटल के लान में इकट्ठे होने के बाद किराए की टैक्सी पर जम्मू दर्शन के लिए रवाना हो जाते हैं। जीशान द्वारा अपनी डायरी में टैक्सी ड्राइवर का नाम व नंबर लिखता है। कहीं न कहीं लेखिका के अवचेतन मन में आए दिन होने वाली रेप जैसे घटनाओं से छात्राओं को सतर्क रहने की सलाह देना है, कि किसी कठिन समय में यह लिखा हुआ उनके लिए मददगार साबित हो सके। जम्मू-दर्शन का वर्णन लेखिका ने अत्यंत ही सुंदर भाषाशैली में किया है,रघुनाथ मंदिर की भव्य प्राचीन स्थापत्य कला,कई मंदिरों के छोटे-बड़े सफ़ेद कलात्मक ध्वज,वहाँ की सड़कें,वहाँ की दुकानें,वाहनों की कतारें,फुटपाथिए विक्रेता,बाजार की दुकानों के बाहर का अतिक्रमण,रेस्टोरेंट यहाँ-वहाँ पड़े कचरे का ढेर ...... जहां-जहां लेखिका की दृष्टि पड़ती गई, उन्होंने अपनी नयन रूपी कैमरे ने सारे दृश्य को कैद कर लिया।

इस मंदिर के दर्शन के बाद उनका कारगिल जाने वाला ग्रुप श्रीनगर की ओर सर्पिल चढ़ावदार रास्ते पार करते हुए आगे बढ्ने लगा। रास्ते में कुद पहाड़ पर बना शिव-मंदिर शीतल जल के झरने,देशी घी से बनी मिठाइयों की दुकानें,पटनी टॉप,बनिहाल,पीर-पांचाल पर्वतमाला और उसके बाद आने वाली काश्मीर घाटी की जीवन रेखा ‘जवाहर सुरंग’ का अति-सुंदर वर्णन। यही वह सुरंग है जिसकी वजह से काश्मीर वाला मार्ग सारा साल खुला रहता है। बर्फबारी की वजह से या ग्लेशियर खिसक जाने की वजह से अगर कभी यह रास्ता बंद हो जाता है या वन-वे हो जाता है,तो वहाँ के लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सुरंग के भीतर से गुजरने का रोमांच का कहना ही क्या,जैसे ही टैक्सी की रोशनी गिरती इधर-उधर के चमगादड़ फड़फड़ाकर उड़ने लगते हैं। गाड़ियों के शोर और रोशनी से उनकी शांति भंग होने लगती हैं।

लेखिका जीव-विज्ञानी की विद्यार्थी होने के कारण वह बच्चों की चमगादड़ के बारे में जमाने की उत्सुकता को अत्यंत ही सरल,सहज व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रणधीर जैसे पढ़ाकू चरित्र के माध्यम से सबके सामने रखती है। चमगादड़ दीवारों पर क्यों लटकते है? क्या इनके पंख होते हैं? क्या इन्हें अंधेरे में दिखाई देता है? चमगादड़ के लिए ‘उड़ने वाला स्तनधारी’ जैसे शब्दों के प्रयोग से विज्ञान के प्रति छात्रों में जिज्ञासा पैदा करता है। रात के घुप्प अंधेरे में राडार की तरह काम करने वाले सोनार मंत्र की सहायता से बिना किसी से टकराए किस तरह चमगादड़ अपनी परावर्तित ध्वनि तरंगों से किसी आबजेक्ट की दूरी या साइज का निर्धारण कर लेते हैं। जिस पर आमेजन घाटी जैसी कई कहानियाँ भी लिखी गई है। चमगादड़ छोटे-छोटे कीड़ों फलों के अतिरिक्त मेंढक,मछ्ली,छिपकली छोटी चिड़ियों को खा जाते है और पीने में वे फूलों का परागण चूसते हैं,जबकि अफ्रीका में पाए जाने वाली चमगादड़ मनुष्य का खून चूसते हैं। विज्ञान से संबंधित दूसरी जानकारियों में यह दर्शाया गया है कि चमगादड़ के पंख नहीं होते वह उड़ने का काम अपने हाथ और अंगुलियों की विशेष बनावट से कर पाता है। उनके हाथ के उँगलियाँ बहुत लंबी होती है। उनके बीच की चमड़ी इतनी खींच जाती है कि वह पंख का काम करने लगती है। इसी तरह उनके पैरों की भी विशेषता होती है। इनके पैर गद्देदार होते है। सतह से लगते ही दबाव के कारण उनके बीच निर्वात हो जाता है यानि बीच की हवा निकल जाती है और ये आराम से बिना गिरे उल्टे लटक जाते हैं। इस तरह डॉ॰ विमला भण्डारी ने छात्रों को दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता का पुट लाने के लिए जिज्ञासात्मक सवालों के अत्यंत ही भावपूर्ण सहज शैली में उत्तर भी दिए हैं। जैसे-जैसे सुरंग पार होती जाती है, गाड़ी के लोग ऊँघने लगते है। रात को ढाई बजे के आस-पास उधर से गुजरते हुए वर्दीधारी हथियारों से लैस फौजी टुकड़ी बैठते आतंकवाद के कारण मुस्तैदी से गश्त करते नजर आती है। यह पड़ाव पार करते ही उन्हें होटल “पैरेडाइज़ गैलेक्सी” का बोर्ड दूर से चमकता नजर आया।अब वह दल श्रीनगर पहुँच जाता है।

छठवाँ अध्याय श्रीनगर की सुबह से आरंभ होता है। वहाँ बच्चों की मुलाकात होती है,इनायत अली नाम के एक बुजुर्ग से। जब उसे यह पता चलता है कि यह दल 15 अगस्त फौजियों के साथ मनाने के लिए कारगिल आया है तो वह बहुत खुश हो जाता है। कभी वह भी फौज का एक रिटायर्ड़ इंजिनियर था। वह सभी बच्चों को एक एक गुलाब का फूल देता है तथा अपने बगीचे से पीले,हरे,लाल सेव,खुबानी,आड़ू सभी उनकी गाड़ी में रखवाकर अपने प्यार का इजहार करता है,तब तक मिस मेरी सभी बच्चों को कदमताल कराते हुए व्यायाम कराने लगती है। गर्मी पाकर उनकी मांस-पेशियों में खून का दौरा खुलने लगता है। गुलाबी सर्दी में दूध–जलेबी,उपमा,ब्रेड-जाम का नाश्ता कर काश्मीर घूमने के लिए प्रस्थान कर जाती है ।

सातवाँ अध्याय ‘आओ काश्मीर देखें’ में काश्मीर में दर्शनीय व पर्यटन स्थलों की जानकारी मिलती है। कभी जमाना था की मुगल बादशाह काश्मीर के दीवाने हुआ करते थे। जहांगीर और शाहजहाँ के प्रेम के किस्सों की सुगंध काश्मीर की फिज़ाओं में बिखरी हुई मिलती है।जहांगीर अपनी बेगम नूरजहां के साथ 2-3 महीने शालीमार बाग में ही गुजारता था और शाहजहां अपने बेगम मुमताज़ महल के साथ चश्मेशाही की सैर करता था। इस तरह यह स्कूली दल पहलगाँव,डल झील,मुगल बागों में चश्मे-शाही बाग,शालीमार बाग,नेहरू पार्क, शंकराचार्य मंदिर सभी पर्यटनों स्थलों का भ्रमण करता है। शिकारा,हाउसबोट की नावें झेलम नदी पर बने सात पुल, डल झील के अतिरिक्त नगीन झील,नसीम झील और अन्वार झील जैसे सुंदर झीलों का भी आनंद लेते है। इतनी सारी झीलें होने के कारण ही काश्मीर को ‘झीलों का नगर’ कहा जाता है। जिज्ञासु छात्र अपनी डायरी में पर्यटन स्थलों का इतिहास लिखने लगते हैं,उदाहरण के तौर पर चश्मेशाही को 1632 में शाहजहाँ के गवर्नर अली मरदान ने उसे बनवाया और बाग के बीच में एक शीतल जल का चश्मा होने के कारण उसे ‘चश्मेशाही’ के नाम से जाना जाता है। काश्मीरी कढ़ाई की पशमिजा शॉल दस्तकारी के उपहार देखकर सभी का मन उन्हें खरीदने के लिए बेचैन होने लगता है। ‘शिकारों’(नौका) में भी चलती-फिरती दुकानें होती है,जिसमें आकर्षक मोतियों की मालाएँ, केसर,इत्र जैसी चीजें मिलती है। वे लोग काश्मीर में पूरी तरह से घूम लेने के बाद वे दूसरे दिन कारगिल की और रवाना होते हैं।

अगले अध्याय में जोजिला पॉइंट की दुर्गम यात्रा का वर्णन है। ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के दुर्गम रास्तों को पारकर यह यात्री-दल जोजिला पॉइंट पर पहुंचता है। इस यात्रीदल का नामकरण अनन्या करती है,जेम्स नाम से;पहला अक्षर ‘जी’ गोविंद दास स्कूल के लिए,‘एम’ महाराणा फ़तहसिंह स्कूल और अंतिम अक्षर ‘एस’सेवा मंदिर स्कूल के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए। सुबह-सुबह उनकी यात्रा शुरू होती है। मगर बाहर कोहरा होने के कारण अच्छी सड़क पर भी गाड़ी की रफ्तार कम कर हेड लाइट चालू कर देते है थोड़ी दूर तक कोहरे की धुंध को चीरने के लिए। चारों तरफ धुंध ही धुंध,आसमान में सिर उठाए बड़े पहाड़, उनके सीने पर एक दूसरे से होड़ लेते पेड़,गाड़ी के काँच पर पानी की सूक्ष्म बूंदें अनुमानित खराब मौसम का संकेत करती है। ऐसे मौसम में भी यह कारवां आगे बढ़ता जाता हैं, बीच में याकुला,कांगन व सिंधु आदि को पार करते हुए। गाड़ी से बाहर नजदीकी पहाड़ों पर चिनार के पेड़ की लंबी कतार देखकर ऐसा लग रहा था मानो कोई तपस्वी आपने साधना में लीन हो या फिर प्रहरी मुस्तैदी से तैनात हो, दूर-दूर तक छितरे हुए आकर्षक रंगों वाले ढालू छतों के मकान घुमावदार सड़कों को पार करते हुए जम्मू काश्मीर के सबसे ऊंचे बिन्दु (समुद्र तल से 11649 फिट अर्थात 3528 मीटर ) जोजिला पॉइंट पर आखिरकर यह यात्रीदल पहुँच जाता है। यहाँ पहुँच कर रणधीर बताता है कि समुद्र-तल से जब हम 10,000 फीट की ऊंचाई पर पहुँच जाते हैं तो वहाँ में आक्सीजन कि कमी होने लगती है,इस वजह से कुछ लोगों को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है,दम घुटता है,सिरदर्द होने लगता है। इस तरह इस उपन्यास में लेखिका ने हर कदम पर जहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जरूरत महसूस हुई है,वहाँ उसे स्पष्ट करने में पीछे नहीं रही है। यहाँ तक कि ग्लेशियर,लैंड स्लाइडिंग के भौगोलिक व भौगर्भीक कारणों आदि के बारे में भी उपन्यास के पात्रों द्वारा पाठकों तक पहुंचाने का भरसक प्रयास किया है। बीच रास्ते में वे लोग सोनमर्ग तक पहुँचते हैं,जहां मौसम खुल जाता है। नीले आसमान में छितराए हुए सफ़ेद बादलों की टुकड़ियाँ इधर-उधर तैरती हुई नजर आने लगती है। दूर-दूर तक फैले घास के मैदानों में इक्के-दुक्के खड़े पेड़ मनोहारी लगने लगते हैं। कलकल बहती नदिया,ठंडा मौसम,ठिठुराती हवा काश्मीर घाटी के सोनमर्ग को स्वर्ग तुल्य बनाती हुई नजर आती है। वहीं से थोड़ी दूर थाजवास ग्लेशियर,मगर एकदम सीधी चढ़ाई।घोड़ों से जाना होता है वहाँ। यहां पहुँचकर हिन्दी शिक्षिका रजनीसिंह काश्मीर यात्रा के दौरान लिखी अपनी कविता सुनाती है। सभी लोग तालियों से जोरदार स्वागत करते हैं। फिर कैमरे से एक दूसरे के फोटो खींचना तथा एक दूसरे पर बर्फ के गोले फेंककर हंसी मज़ाक करना जेम्स यात्रीदल के उत्साह को द्विगुणित करता है।

सोनमर्ग की यात्रा के बाद यह दल कारगिल की घाटी से गुजरने लगता है। दोनों किनारों में पहाड़ी काटकर यह रास्ता बनाया गया। आड़े घुमावदार सड़कों का लुकाछिपी खेल, भूरे-मटमैले पहाड़ों पर फैले-पसरे ग्लेशियर, वहाँ की नीरवता,वनस्पति का दूर-दूर तक नामों निशान नहीं, पक्षियों की चहचहाहट तक नहीं-यह था कारगिल की घाटी का परिचय। ऐसे खतरनाक रास्ते से पार करते समय उन्हें सांस लेने में सभी को तकलीफ होने लगती हैं। जाते समय रास्ते में उन्हें सैनिकों का एक रेजीमेंट तथा स्मारक स्थल दिखाई देता है। जोजिला दर्रे के आसपास की सड़क दुनिया की सबसे खतरनाक सड़कों में से एक है, यह बात का रणधीर जोजिला पास के यू-ट्यूब में वीडियो देखकर रहस्योद्घाटन करता है। देखते-देखते वे अपने जीवन की सबसे ऊंचाई वाले स्थान जोजिला पॉइंट पर पहुँच जाते हैं। इस खूबसूरत लम्हे को सभी अपने कैमरे में कैद करने लगते है। कृपलानी सर अत्यंत खुश होते है कि किसी को ‘एलटीट्यूड इलनेस’ की परेशानी नहीं हुई। अब यह दल द्रास की ओर बढ़ता है, जो सोनमर्ग से 62 किलोमीटर तथा कारगिल से 58 किलोमीटर पर है। यह दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा ठंडी जगह है। स्विट्जरलैंड के बाद द्रास का नंबर आता है। द्रास की तरफ जाते समय रास्ते में एक पवित्र कुंड नजर आता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि अज्ञातवास के दौरान द्रौपदी के नहाने और शिवपूजन के लिए अर्जुन ने बाण से पृथ्वी को भेद कर पानी के फव्वारे से इस कुंड का निर्माण किया था। इस पवित्र जगह का पानी पिलाने से निसंतान महिला को संतान प्राप्ति हो जाती है,ऐसी मान्यता है। इस कुंड को द्रौपदी कुंड के नाम से जाना जाता है। इस कुंड को पार कर जब यह कारवां आगे बढ़ता है तो सामने शहीद सैनिकों की याद में बनाया हुआ एक चौकोर आयताकार स्मारक नजर आता है, जिस पर पाकिस्तान के हमले के दौरान कारगिल युद्ध में शहीद हुए सेना के कुछ जवानों के नाम पद व विवरण लिखा हुआ है। चबूतरे के मध्य में खड़ी बंदूक पर सैनिक टोपी लगी हुई है। इस स्थल पर शहीद सैनिकों को भावभरी श्रद्धांजलि देते “कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट कर घर ना आए” की पंक्तियाँ याद आते ही सभी की आँखें नम हो जाती है। लगभग 6-8 किलोमीटर आगे चलने के बाद भारत सरकार द्वारा कारगिल युद्ध के शहीदों की याद में बनवाया शहीद स्मारक व स्मारक का उद्यान दिखाई देने लगता है। अंदर जानेवाले रास्ते पर लोहे की बड़ी फाटक लगी हुई है। इस जगह पर इस यात्री दल का 15 अगस्त शाम को पहुँचने का निर्धारित कार्यक्रम है। सामने तलछटों से बनी आकृतियाँ वाले भूरे पहाड़,जिन पर पीली,लाल,काली रंग की करिश्माई रेखाओं के निशान बने हुए है। इन्हें ‘फोसिल्स’ के पहाड़ कहते है। इन पर वनस्पति का नामोनिशान नहीं, केवल शीशे की धातु जैसे चमकीले पथरीले पहाड़। सभी ने वहाँ फोटोग्राफी की और लक्ष्यानुसार सूर्यास्त से पहले कारगिल पहुँच गए। कारगिल में यह यात्रीदल 14 अगस्त को पहुँच जाता है। कारगिल शहर की अच्छी चौड़ी सड़कों को पार करते पतली सड़क की ओर से लगभग दो घंटों तक पहाड़ी वादियों में गुजरने के बाद एक बस्ती में उतरकर वे स्थानीय निवासियों से मिलने लगते हैं। सामने फिर ग्लेशियर नजर आने लगते है। हँसते-खिलखिलाते पहाड़ी चट्टानों पर बैठे प्राकृतिक आनंद के क्षणों को भी प्रकृति के साथ अपने कैमरे में कैद करते जाते है वे। 15 अगस्त को सभी अपने स्कूल ड्रेस पहनकर बटालिका जाने के लिए तैयार हो जाते है और सेना की छोटी गाडियों में बैठकर सैनिक छावनी पहुँच जाते हैं। जहां वर्दी में खड़े सैनिक दिखाई पड़ते हैं और सड़क के किनारे से जुड़ी सफ़ेद मुंडेर हरी सीढ़ियों की ओर बने चौकोर चबूतरे के बीच में लोहे के लंबे पाइप के ऊपरी सिरे पर बंधे तिरंगे झंडे, सीढ़ियों के दोनों तरफ गेंदे और हजारी के फूलों की क्यारियाँ,सामने अग्नि-शमन के उपकरण,ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ और वहाँ से दिखाई देने वाले पेड़ों के झुरमुट देखकर सभी के चेहरे खुशी से चमकने लगते है। मिस मेरी से कमांडर चीफ का परिचय व बातचीत होने के बाद आगामी कार्यक्रम की रूपरेखा पर संक्षिप्त में चर्चा की जाती है। मंच पर लगी कुर्सियों में अतिथियों के विराजमान होने के बाद कमांडर चीफ ने मिस मेरी को झंडे के नीचे इशारा करके बुलाया और राइफल धारी सेना की टुकड़ी झंडे की तरफ मुंह करके कतारें विश्राम की मुद्रा में खड़ी थी। बीच-बीच वाद्यमंत्र से सजे तीन जवान खड़े थे और ध्वज के नीचे दोनों और गार्ड। सभी बैठे लोगों का खड़ा होने का आदेश मिलता है। कमांडर ने सभी को सावधान किया और पलक झपकते ही स्तंभ पर बंधी डोरी को जैसे ही खींचता है,वैसे ही फूलों की बौछार के साथ तिरंगा हवा में लहरा उठता है और राष्ट्रगान "जन गण मन ...... " वाद्ययंत्रों की धुन के साथ गूंजता है। राष्ट्रगान के खत्म होते ही कमांडर के आदेश पर सेना की टुकड़ी कदमताल करती हुई तिरंगा झंडा को सलामी देने लगती है, जयहिंद के नारों से बट्टालिका घाटी गुंजायमान हो उठती है। अनन्या अपने दल का नेतृत्व करते परेड के साथ आगे बढ़ते हुए, रणधीर अनन्या के पीछे हाथ में ध्वज लिए और उसके बाद अगली पंक्ति में जुनेजा बिगुल बजाते हुए। सभी परेड करते हुए। जैसे ही यह दल ध्वज के नीचे पहुंचता है तो अनन्या सीढी चढ़कर चीफ के पास जाकर सैल्यूट करती है और चीफ भी बदले में जवाबी सैल्यूट। फिर सेआ राइफलों की गूंज के साथ जयहिंद की आवाज घाटी में गूंज उठती है। सभी के लिए यह दृश्य अत्यंत ही रोमांचक होता है, देश-भक्ति की भावना सभी के चेहरों पर दिखाई देने लगती हैं। साथ ही साथ समूह-गान ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा ... ‘ शुरू होता है। चीफ कमांडर सभी को संबोधित करते है। सम्बोधन के बाद सभी को चाय नाश्ते का आमंत्रण मिलता है। लड़के अपनी डायरी में सैनिकों के आटोग्राफ लेते हैं और लड़कियों फौजी भाइयों की कलाई पर राखी बांधकर कुमकुम से तिलक लगाकर उनका मुंह मीठा करती है। बाजू में एक प्रदर्शनी हाल है, जिसे देखने के लिए जेम्स यात्रीदल आगे बढ़ता है। पास में ही बायीं ओर मेजर शैतान सिंह की काले संगमरमर की फूलमाला पहनी हुई प्रतिमा,जिसके नीचे अँग्रेजी में लिखा हुआ था मेजर शैतान सिंह,पी॰वी॰सी। दूसरी लाइन में लिखा था, 1 दिसंबर 1924 से 18 नवंबर 1962। आखिरी लाइन में प्रेजेंटेड बाय श्री मोहनलाल सुखाडिया द चीफ मिनिस्टर ऑफ राजस्थान आन 18 नवंबर 1962। सभी ने राजस्थान के महान सपूत की प्रतिमा को माला पहना कर नमन किया और उसके बाद सभी कतारबद्ध प्रदर्शनी हाल में प्रविष्ट हुए जहां शहीद हुए जवानों की खून सनी सैन्यवर्दी,हथियार,युद्ध में काम आने वाले गोले सभी को काँच के बने संदूकों व आलमीरा में पूरे वितरण के साथ रखा हुआ था। भारत चीन युद्ध के श्वेत-श्याम छायाचित्र भी टंगे हुए थे। कुछ मानचित्र भी लटके हुए थे। वहाँ से बाहर निकलकर भारत नियंत्रण रेखा को नमन करते हुए अपनी अपनी गाड़ियों में बैठकर वे सभी विदा लेकर दूसरा पड़ाव शुरू करते है।

ग्यारहवाँ अध्याय में द्रास में बने कारगिल के शहीद स्मारक का जिक्र है। जेम्स यात्रीदल कारगिल की होटल ग्रीनपार्क को खाली कर फिर से अपनी गाड़ी में सवार होकर वापसी के लिए निकल पडते है। 15 अगस्त के शाम उन्हें कारगिल में शहीद हुए वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि भी देनी हैं। सूर्यास्त होते-होते बावन किलोमीटर की दूरी तय अपने लक्ष्य स्थल शहीद स्मारक पर वे पहुँच जाते है। उधर सामने की पहाड़ियों में लंबे पतले स्तम्भ पर राष्ट्रीय ध्वज शान से फहरा रहा था । पहाड़ी पर लिखा हुआ था टोलोलिंग। शायद यह पहाड़ी का नाम होगा। स्मारक के बाईं ओर हेलिपेड़ बना हुआ था और स्मारक की बाहरी दीवार पर बोर्ड बना हुआ था जिस पर लिखा हुआ था आपरेशन विजय। यह उन शहीदों को समर्पित था, जिन्होंने हमारे कल के लिए अपना आज न्यौछावर कर दिया। जीओसी 14 कॉर्प ने ने उसे बनवाया था। युवा नायाब सूबेदार ने जेम्स यात्रीदल को यह स्मारक दिखाते हुए कहा – शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशान होगा। आपरेशन विजय लिखे हुए स्मारक स्थल के चौकोर पत्थर के चबूतरे के बीच काँच की पारदर्शी दीवार के भीतर बीचो-बीच अमर ज्योति जल रही है और नीचे राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ खुदी हुई है –

मुझे तोड़ लेना वनमाली,उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ जाए वीर अनेक ।

यहाँ सभी खड़े होकर सुर में ‘ए मेरे वतन के लोगों’ गीत गाने लगे। यह गीत सुनकर सभी के रोंगटे खड़े हो जा रहे थे। इस गीत को 1962 में भारत चीन के युद्ध के दौरान कवि प्रदीप ने लिखा था,जिसे स्वर दिए लता मंगेशकर ने। सूबेदार दिलीप नायक ने बताया कि दो महीने से ज्यादा चले कारगिल युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को मार भगाया था और अंत में 26 जुलाई को आखिरी चोटी भी जीत ली गई थी। इस दिन को ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यहाँ फहरा रहे झंडे के बारे में बताते हुए भारत के राष्ट्रीय फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कमांडर (रिटायर्ड) के॰वी॰सिंह के अनुसार यह झण्डा 37 फुट लंबा,25 फुट चौड़ा,15 किलोग्राम वजन का है और जिस पोल पर यह फहरा रहा है उसका वजन तीन टन और लंबाई 101 फुट है। दिलीप नायक कारगिल युद्ध कि विस्तृत जानकारी देते है। दूर पहाड़ों की तरफ इशारा करते हुए उसने बताया कि वह टाइगर हिल है जिसे हमने जीता। आज भी हमारे सैनिक वहाँ पहरा देते है और रक्षा कर रहे है। सर्दी में वहाँ का तापक्रम-60 सेल्सियस रहता है। ऐसे में वहाँ रहकर काम करना आसान नहीं होता है। टाइगर हिल की छोटी-छोटी चोटियों को वे लोग ‘पिंपल्स’ कहकर पुकारते है। पास में एक प्रदर्शनी कक्ष भी बना हुआ था जिसमें परमवीर चक्र और वीर चक्र पाने वाले शहीदों के फोटोग्राफ लगे हुए थे, युद्ध स्थल का काँच की पेटी में रखा गया एक पूरा मॉडल, दूसरी तरफ सैन्य टुकड़ियों (13जेएके आरआईएफ़,2 आरएजे आरआईएफ़ ) की स्थिति का नामांकन, हाथ से गोले फेंकने वाले सैनिकों की तस्वीर तथा हरिवंश बच्चन की हस्त लिखित कविता ‘अग्निपथ!अग्निपथ!' रखी हुई थी। ये सारी चीजें जीवंत देखना जेम्स यात्रीदल के लिए किसी खजाने से कम नहीं था। कुछ समय बाद वे लोग द्रास पहुँच जाते हैं।

द्रास से वे लोग श्रीनगर पहुंचते है, जहां पहुँचकर शंकराचार्य मंदिर के दर्शन और हाउसबोट में रात्री विश्राम करना था। मगर वापसी के व्यस्त कार्यक्रमों के कारण वे गुलमर्ग नहीं देख पाते है। जेम्स यात्रीदल लेह-लद्दाख देखने के चक्कर में घर लौटना नहीं चाहते hain। जोगेन्दर भी घर जाना नहीं चाहती है। बातों-बातों में पता चला कि जोगेन्दर के माता-पिता दोनों हो इस दुनिया में नहीं है। दिल्ली में हुई दंगों के दौरान दोनों को ही दंगाइयों ने मार दिया था। यहाँ लेखिका ने देश में व्याप्त आतंकवाद के कारण होने वाले दुष्परिणामों के प्रति पाठकों को आगाह किया है कि वे इस उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते जोगेन्दर जैसे मासूम बच्ची की मानसिक अवस्था से भी परिचित हो सकें।किस तरह आतंकवाद हमारे देश को और हमारे देश के बचपन को खोखला बना रहा है,इससे ज्यादा और क्या क्रूर उदाहरण हो सकता है। घर जाने के नाम से सभी के चेहरे पर उदासी देखकर कृपलानी सर सोनमार्ग में सभी को रिवर राफ्टिंग दिखलाने का निर्णय लेते है। रिवर राफ्टिंग के दौरान आपातकालीन अवस्था में रेसक्यू बैग, फ्लिप लाइन, रिपेयर किट, फर्स्ट-एड-किट जैसी चीजों के प्रयोग के बारे में सभी को बताया जाता है। पंद्रह-बीस साल पुराने खेल रिवर-राफ्टिंग की तेजी से बढ़ रही लोकप्रियता के कारण इसे ऋषिकेश के पास गंगा नदी जम्मू-कश्मीर की सिंध और जांसकर, सिक्किम की तीस्ता आदि और हिमाचल प्रदेश की बीस नदी पर खेला जा रहा है। बहुत ही रोमांचक खेल है यह! रिवर राफ्टिंग का मजा लेने के बाद शाम के उजाले-उजाले में उनकी गाड़ी श्रीनगर के शंकराचार्य के मंदिर के तरफ चली जाती है। इस मंदिर को तख्ते-सुलेमान भी कहा जाता है। लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की चढ़ाई पार कर शिवलिंग के दर्शन के बाद मंदिर के परिसर में घूमते-घूमते श्रीनगर के सुंदरों नजारों जैसे डल झील और झेलम नदी को देखने लगते है। इस मंदिर की नींव ई 200 पूर्व ॰ के सुपुत्र महाराज जंतुक ने डाली थी। वर्तमान मंदिर सीख राजकाल के राज्यपाल की देन है। यह डोरिक पद्धति के आधार पर पत्थरों से बना हुआ है। रात को कार्यक्रम के अनुसार इस दल ने ‘पवित्र सितारा’ हाउस बोट में विश्राम लेने के लिए सभी ने अपना आवश्यक सामान लेकर शिकारा में बैठ गए। हाउस बोट के अंदर और बाहर की सुंदरता देखकर वे लोग विस्मित हो गए। खूबसूरत मखमली कालीन,नक्काशीदार फर्नीचर,शाही सोफा,बिजली के सुंदर काँच के लैंप,झूमर, झिलमिलाते बड़े बड़े दर्पण सबकुछ नवाबी दुनिया जैसा लग रहा था। इस यात्रा दल ने अलग-अलग स्थिति,जगह और धर्म के लोगों के साथ इतना दिन इस तरह गुजारे जैसे सभी एक ही परिवार के सदस्य हो। एक दूसरे से भावुकतावश गलवाहिया करते,फोटो खींचते यह कारवां अपने घर जाने के लिए रवाना हो गया, अपनी गाड़ी को जम्मू में छोडकर अगला सफर रेल से करने के लिए।

जैसे ही सभी बच्चे अपने घर पहुँचते हो तो बच्चों की परिजनो में खुशी की लहर दौड़ जाती है। सभी अपने-अपने बच्चों को लपककर गले लगा देते हैं। सब अपनी-अपनी ट्रिप की बातें सुनाने लगे तथा वहाँ से खरीदे गए उपहार अपने माता-पिता तथा सगे-संबंधियों को देने लगे। अनन्या ने तो अपने लिए कुछ न खरीदकर घरवालों के लिए बहुत सारे उपहार खरीदे,इस प्रकार घर का माहौल कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो गया। यू-ट्यूब और इन्टरनेट के जरिए एक दूसरे को आपने घूमे हुए जगह को दिखाने लगे कि जोजिला पास का रास्ता कितना खतरनाक था और पहाड़ी रास्तों पर फौज के सिपाही किस मुस्तैदी से निर्भयतापूर्वक काम कर रहे थे? टाइगर हिल के दृश्य और वहाँ के सारे संस्मरण दूसरे को सुनाने लगे।

इस उपन्यास का अंतिम अध्याय सबसे बड़ा क्लाइमेक्स है।हल्दीघाटी के संस्कारों से सनी यह यात्रा कारगिल की घाटी में जाकर समाप्त होती है और खासियत तो यह है कि कारगिल की घाटी में शहीद हुए परम वीर चक्र मेजर शैतान सिंह को हल्दीघाटी की संतति राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा उनके स्मारक का विधिवत उदघाटन होता है। कारगिल घाटी और हल्दीघाटी के उन पुरानी वीर स्मृतियों को फिर से एक बार ताजा करने में इस उपन्यास ने सेतु-बंधन के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है,जो लेखिका के कार्य और इसके पीछे की पृष्ठभूमि की महानता को दर्शाती है। उदयपुर शहर के विख्यात सुखाडिया मंच के सभागार में सिटी क्लब द्वारा आयोजित वार्षिकोत्सव में कारगिल की ट्रिप करके लौटे बच्चे विशेष आकर्षण के तौर पर आमंत्रित किए जाते है। सर्वप्रथम इस यात्रीदल का परिचय देने के उपरांत उनके टीम इंचार्ज कृपलानी सर, टीम गार्जिन मिस मेरी तथा रजनीसिंह मैडम का स्वागत किया जाता है। उन्होंने अपने उद्बोधन में क्लब के इस पुनीत कार्य की प्रशंसा करते हुए बालकों को कम उम्र में देश के प्रति जोड़ने तथा उनमें राष्ट्र प्रेम जगाने वाले इस पदक्षेप की भूरि-भूरि सराहना की। फिर सारे प्रतिभागी बच्चों को अपनी स्कूल यूनिफ़ोर्म पहने मंच पर बुलाया जाता है,अपने-अपने संस्मरण सुनाने के लिए। सबसे पहले दल की लीडर अनन्या ने मंचासीन अतिथियों का प्रणाम कर कहना शुरू किया, “हमने ऐसे जगहों का दौरा किया,जहां कारगिल की युद्ध लड़ा गया। कौन भारतीय इससे परिचय नहीं होगे? जब भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान घुसपैठियों ने 1999 में कारगिल क्षेत्र की 16 से 18 हजार फुट ऊंची पहाड़ियों पर कब्जा जमा किया था और फिर श्रीनगर लेह की ओर बढ़ने लगे। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत सरकार वे इन घुसपैठियों के विरुद्ध ‘आपरेशन विजय’ के तहत कार्यवाही की। इसके बाद संघर्षों का सिलसिला आरंभ हो गया। यह कहते-कहते भारतीय सेना की सारी रणनीति का उल्लेख करते हुए (भारतीय सेना के सबसे कम उम्र वाले वीर योद्धा जिसे परमवीर चक्र प्राप्त हुआ) जांबाजी की खूब तारीफ की। भावुकतावश उसकी आँखों में आँसू निकल आते है और वह आगे कुछ नहीं बोल पाती है। इसी तरह जीशान ने काश्मीर के इतिहास,होटल मालिक इनायत की मोहब्बत,बटालिका की सैनिक-छावनी तथा नायाब दिलीप नायक का शेर, "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर साल मेले" सुनाते हुए सभी में देशप्रेम की भावना की उद्दीप्त कर देता है। इसके बाद श्रद्धा ने मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘चाह नहीं,मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ’ तो देवयानी ने सोनमार्ग की रिवर-राफ्टिंग, तो सानिया ने अभिभावकों से बच्चों को ऐसे आयोजन में भाग लेने की अनुमति देने, जोगेन्दर ने आतंकवादियों द्वारा अपने माता-पिता की हत्या पर विक्षुब्धता जताते हुए शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि प्रदान करते और अंत में रणधीर ने कारगिल युद्ध के तीनों चरणों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए टाइगर हिल पर फहरा रहे तिरंगा झंडे की याद दिलाकर सभी से जाति-धर्म से ऊपर उठकर देश की रक्षार्थ आगे आने का आह्वान किया जाता है। इस प्रकार सभी बच्चों का संस्मरण ने सभागार में एक पल के लिए खामोशी का माहौल पैदा कर देते हैं, राष्ट्र के समक्ष आतंकवाद महजबी खतरों से लिपटने के लिए कुछ प्रश्नवाचक छोड़ते हुए। ‘राष्ट्रहित सर्वोपरि’ कहकर अंत में सिटी क्लब ने अध्यक्ष सहित सभी मंचस्थ अतिथियों ने जाति-धर्म के नाम पर दंगे न होने देने की शपथ लेते है व सभी शहरवासियों को इसमें सहयोग करने की शपथ दिलाते है। राष्ट्रगान की गूंज पर सभागार में उपस्थित सभी दर्शकगण खड़े हो जाते है।

इस तरह लेखिका ने अपने उपन्यास को चरम सीमा पर ले जाकर पाठको के समक्ष समाप्त करती है। मेरी हिसाब से यह उपन्यास केवल किशोर उपन्यास नहीं है, वरन हर देशभक्त के लिए पठनीय,स्मरणीय व संग्रहणीय उपन्यास है। इस उपन्यास में तरह-तरह की रंग बिखरे हुए हैं, बाल्यावस्था से बच्चों में देश-प्रेम के संस्कार पैदा करना,अद्भुत यात्रा-संस्मरण, सैनिक छावनियों व प्रदर्शनियों का वर्णन,कारगिल युद्ध की परिस्थितियों का आकलन, जम्मू-कश्मीर का सम्पूर्ण इतिहास का परिचय,देशभक्ति से ओत-प्रोत गाने,बाल सुलभ जिज्ञासा,वैज्ञानिक दृष्टिकोण सब-कुछ समाहित है। इस उपन्यास की विकास-यात्रा पाठकों की चेतना को अवश्य स्पंदित करेगी। मैं अवश्य कहना चाहूँगा कि ‘कारगिल की घाटी’ उपन्यास में देश-प्रेम के जज़्बात,यात्रा संस्मरणों की विविधता, संवेदनशीलता की शक्तिशाली धारा प्रवाहित होती हुई नजर आती है। ऐतिहासिक व सैद्धान्तिक रूप से वर्तमान युग की सच्चाई की व्याख्या की जरूरत आज के समय हमें राष्ट्रीय, सामाजिक और मानवीय स्तरों पर झेल रहे चहुंमुखी समस्याओं में आतंकवाद,सांप्रदायिकता और धर्मांधता से मुकाबला करना अनिवार्य है। भारत पाकिस्तान के बिगड़ते सम्बन्धों द्वारा निर्मित भयानक और आतंकपूर्ण माहौल में मानवीय संवेदनशीलता के बचे रहने या उसकी पहचान करने की कसौटी की तलाश में डॉ॰ विमला भण्डारी का यह उपन्यास एक अहम भूमिका अदा करता है। मैं इतना कह सकता हूँ कि हिन्दी उपन्यास लेखन के इस दौर में लेखिका ने समय की मांग के अनुरूप यथार्थ को प्रस्तुत करके नई गरिमा और ऊंचाई को हासिल किया है। एक और उल्लेखनीय बात यह है कि इस उपन्यास में कोई राजनैतिक पात्र नहीं है, मगर तीन स्कूलों के सामूहिक यात्रीदल जेम्स को देश की एकता और समाज माध्यम के भविष्य की चिंता का अंकुर देश के भावी कर्णधारों में बोकर देश-प्रेम की जो अलख जगाई है, वह चिरकाल तक जलती रहेगी। लेखिका में एक ऐसी प्रतिभा का विस्फोट हुआ है, जो कभी देश की आजादी से पूर्व देशभक्त,उपन्यासकार,कवियों,समाज सुधारकों जैसे प्रेमचंद्र,शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय, बंकिम चन्द्र बंदोपाध्याय, रवींद्र नाथ टैगोर,स्वामी दयानंद सरस्वती में पैदा हुई। मैं विश्वास के साथ यह कह सकता हूँ कि हिन्दी जगत में यह उपन्यास बहुचर्चित होगा और एक अनमोल कृतियों में अपना नाम दर्ज कराएगा।

 

अध्याय:चार

प्रौढ़-साहित्य

बच्चों की मानसिकता को समझना, फिर इस तरह लिखना कि रचना उस मानसिकता के अनुकूल भी हो और बच्चों की समझ को कुछ बढ़ाने वाली भी – यह बहुत कठिन काम है। शायद इसीलिए बंगला साहित्य में बड़े लेखकों को तब तक साहित्यिक जगत में शिद्दत के साथ स्वीकार नहीं किया गया, जब तक उन्होंने बाल-साहित्य नहीं लिखा। हिन्दी में स्थिति भिन्न रही। यहाँ बड़े लेखकों के लिए भी बाध्यता नहीं रही कि वे अपने आपको स्थापित करने के लिए अनिवार्यतः बाल साहित्य रचें। इसलिए हिन्दी में प्रौढ़ साहित्य-लेखकों कि जितनी बड़ी संख्या दिखती रही है, उतनी बाल साहित्य लेखकों कि नहीं दिखती। यद्यपि इस क्षेत्र में हरिवंश राय बच्चन, भवानी प्रसाद मिश्र, चिरंजीत, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बाल स्वरूप राही जैसे कुछ स्वनामधन्य प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अपनी कलाम चलायी है, लेकिन उनकी पहचान प्रौढ़ साहित्य के कारण ही बनी है, बाल-साहित्य के कारण नहीं बनी।डॉ विमला भण्डारी अपवाद हैं, जिन्होंने प्रौढ़ों के लिए कहानी, नाटक,सम्पादन आदि साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा है और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है तो बच्चों के लिए लिखे साहित्य के कारण साहित्य-जगत उन्हें पहचानता रहा है।

1. औरत का सच

डॉ. विमला भंडारी का कहानी-संग्रह ‘औरत का सच’ नारी केन्द्रित है। यह उनका पहला कहानी-संग्रह है, मगर इस संकलन की सारी कहानियों के कथानकों में आधुनिक समाज का दर्पण साफ झलकता है। जिसमें प्रतिबिम्बित होते हैं प्रेम, प्रेरणा, पलायन, प्रतिबद्धता, विरक्ति, असारता, क्षण-भंगुरता, दर्द, टीस बहुत कुछ। जहां ‘सत्यं शिवं सुन्दरम' कहानियों में नारी कहीं पर धुरी है तो कहीं पर परिधी तो कहीं-कहीं वह पेंडुलम की तरह इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। सारी कहानियां बहुत कुछ सीखा जाती है। दोनों संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना।  

‘गोमती का दर्द’ एक ऐसी बूढ़ी गाय की कहानी है जो अपनी आत्म-कथा पाठकों के समक्ष रखती है। जिस तरह प्रसिद्ध साहित्यकार गिरीश पंकज की अद्यतन पुस्तक ‘गाय की आत्म कथा’ पढ़कर छत्तीसगढ़ के कई मुसलमानों लोगों ने न केवल गाय का मांसाहार खाना छोड़ दिया, वरन गाय की रक्षा के लिए प्रवचन देना भी शुरू किया। ठीक इसी तरह ‘गोमती का दर्द’ गाय मारने वाले तत्त्वों में अवश्य कुछ कमी लायेगी और उसके अंतरात्मा की आवाज समझने में मदद करेगी। ‘गोमती’ गाय की काया में प्रवेश कर उसकी आत्मा में अपनी आत्मा मिलाकर लेखिका ने उसके दुख, अंतर्द्वंद्व सहानुभूति और दर्शकों की प्रतिक्रियाओं का यथार्थ चित्रण किया है, वह पाठकों को प्रकाशित किए बगैर नहीं रह सकता। आधुनिक वातावरण में पढ़ी-लिखी बहू जहां उसके प्रति घृणा, उपेक्षा के भाव रखती है, यहां तक कि उसके मरने के बाद भी मृत देह उठाने के लिए आए मेहतर के साथ मोल-भाव करती है, जबकि सास का व्यवहार पूरी तरह उल्टा होता है। जब बहू उसे खेत भेजने के लिए षड्यंत्र करती है तो वह कहती है, ‘‘मैं भी वृद्ध हूं, मेरे भी हाथ पांव नहीं चलते तो क्या उसे भी घर से निकाल दोगे? बिचारी ने पूरी उम्र तुम्हें दूध पिलाया है, गोमती कहीं नहीं जाएगी।’’ इस तरह उन लोगों के सामने वह गोमती के दूध की इज्जत रख लेती है। कहने का तात्पर्य यह है कि साधारण जनमानस में जैव-मैत्री का संदेश देती लेखिका की यह कहानी कथ्य, कथानक और शैली में अत्यन्त ही अनुपम है।

इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी ‘अनुत्तरित प्रश्न’ पाठकों के सामने ऐसे प्रश्न छोड़ जाती है जिनके किसी के पास जवाब नहीं है। एक दलित परिवार की कहानी है, जिसमें एक चपरासी पति शराब का आदी हो जाता है और घर में ऐसी नौबत आती है कि पत्नी को दूसरों के घर बर्तन मांजने का काम करना पड़ता है। इतना ही नहीं, अहसान मानने की बजाय वह अपनी पत्नी को जलील करने लगता है। उसे मारने-पीटने लगता है। ऐसी अवस्था में जो औरत अपने सुहाग की रक्षा के लिए रात-दिन भगवान से प्रार्थना किया करती थी, वही औरत गुस्से में आकर उसकी मृत्यु के लिए मन्नत मांगने लगती है। इंसान के बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बदलते मनोभावों जैसे वेदना, व्यथा, आशा, आकांक्षा आदि का लेखिका ने सशक्त-भाव से वर्णन किया है।

अभी ‘जन्मदिन के गुलाब जामुन’ कहानी तो प्रेमचंद की ‘बूढ़ी काकी’ की याद दिला देती है। बेटे का जन्मदिन है, पार्टी का आयोजन हो रहा है। दूर-दराज के दोस्त लोग बधाई देने आ रहे हैं उन्हें गुलाब जामुन और तरह-तरह के व्यंजन खिलाए जा रहे है। मगर दादी को? शायद भूल गये वे लोग। अपनी गलती का अहसास तो तब होता है, जब पींटू रसोई घर में से छिपाकर गुलाब जामुन अपनी दादी के लिए ले जाता है। तब जाकर बेटे-बहू को अफसोस होता है और वे दादी से क्षमा याचना करते है। अक्सर हमारे परिवार में बुजुर्गों के प्रति हो रही अवहेलना को उजागर करती इस कहानी का मुख्य किरदार इतना प्रभावशाली है कि किसी भी संवेदनशील पाठक की आंखों की कोरों से आंसू टपके बिना नहीं रह सकती।

आजकल राजनीति में महिला-आरक्षण की बात हमेशा चर्चा में रहती है, मगर जब वास्तविकता में कोई अनपढ़ महिला राजनीति में प्रवेश करती है तो उसके पिता हो चाहे पति अपनी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं व मंशाओं की पूर्ति के लिए अपनी आशा, आकांक्षाओं व निर्णयों को उस पर थोपते है। भले ही, उन निर्णयों पर वह राजी न हो। उसके लिए तो एक ही मंत्र रहता है ‘चुप रहो।’ डॉ. विमला भंडारी की कहानी ‘तुम चुप रहो!’ में लेखिका ने राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु पति और पिता दोनों द्वारा अनपढ़ महिला राजनीति पर अपने निर्णय थोपते हुए उसे चुप रहने के लिए कहते है व बोलने पर झिड़कते है।

‘आमंत्रण’ कहानी में एक अलग कथानक है, जो किसी स्त्री के रजस्वला न होने की बीमारी से समाज, घर-परिवार, सगे-संबंधियों द्वारा उसके प्रति जिस तरह भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है उससे ज्यादा तो वह अपने आप घुट-घुट कर अपनी परिधि में सिमटकर संकीर्ण होती जाती है। इस तरह के अनछुए कथानकों का चयन करने के लिए लेखिका का व्यापक दृष्टिकोण, संवेदनशीलता, भाव-प्रवणता और चिंतन-मनन प्रशंसनीय है, वहीं उनकी भाषा-शैली उतनी ही प्रबुद्ध, सशक्त व पठनीय है। इस कहानी में दो बहिनें हैं, बड़ी बहिन कामिनी और छोटी बहिन माधुरी। बड़ी बहिन का गर्भाशय अपरिपक्व है इसलिए वह रजस्वला नहीं हो सकती है। इस तरह उसे शादी की आवश्यक शर्तों के बारे में जानकारी नहीं  होती है। कामिनी की पहले शादी न करके मां-बाप माधुरी की शादी कर देते हैं, जिससे वह भीतर से पूरी तरह टूट जाती है। जब उसे अपनी इस बीमारी के बारे में पता चलता है तो डाक्टर से सलाह-मशविरा करने जाती है, मगर इस प्राकृतिक कमी का कोई इलाज हो तब न! उसे अपने बांझपन का अहसास हो जाता है। जब किसी पत्रिका में छपे विज्ञापन ‘किसी से पुत्रों के विधुर पिता के लिए निःसंतान या बांझ कन्या चाहिए’ को पढ़कर उसका मन अनजानी खुशी से झूम उठता है मानो उसे ऐसे एक नए जीवन का आमंत्रण मिला हो, जिसमें वह केवल पत्नी ही नहीं बन रही है, वरन मां भी बनने जा रही है। लेखिका की यह कहानी पूरी तरह नारीवादी है। एक अरजस्वला नारी के मन पर क्या बीतती है, उन विचारों का अत्यंत ही सूक्ष्म तरीके व मनोवैज्ञानिक ढंग से लेखिका ने विश्लेषण किया है।

इस कहानी-संग्रह के शीर्षक ‘औरत का सच’ वाली कहानी सही में इस संग्रह की सर्वोत्कृष्ट रचना है। लेखिका ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिक भारतीय समाज का एक ऐसा खाका खींचा है जिसमें विधवा नारी के साथ पीहर में भेदभाव, उसके बच्चे या बच्चियों को बात-बात में यह अहसास दिलाना कि वे उस घर पर एक बोझ-स्वरूप है तथा शीघ्रातिशीघ्र उसका पुनर्विवाह करवा कर छुटकारा पाये जाने की यथार्थ घटनाओं को स्पर्श किया है और वही वास्तव में किसी भी भारतीय ‘औरत का सच’ है।  सुम्मी एक विधवा नारी है। उसकी बेटी है कुंती। वह अपने पीहर में रहकर जीवन-यापन करती है। एक बार उसकी दीदी बच्चे राहुल समेत पीहर आती है। राहुल और कुंती में किसी खिलौने को लेकर लड़ाई होती है, तो सुम्मी अपनी बेटी कुंती का पक्ष लेती है तो उसकी दीदी उसके विधवापन का अहसास कराती है। जबसे उसने घर में पुनर्विवाह के लिए इंकार किया है, तभी से सारे घर वालों का व्यवहार उसके प्रति बदलने लगता है। सभी यही चाहते है कि वह विवाह करके चली जाएं, भले ही, अपनी बच्ची को वहां छोड़ दे। मगर सुम्मी अपनी बच्ची को किसी भी हालात में वहां छोड़ना नहीं चाहती है। तकदीर से उसकी एक विधुर आदमी से शादी हो जाती है, जिसके खुद दो-तीन बच्चे होते है। वह उसे अपनी लड़की समेत स्वीकार कर लेता है। मगर जब वह अपने ससुराल जाती है और कुंती को अपने साथ लेकर सोती है सीने से छिपाकर तभी पतिदेव का आदेश होता है कि कुंती उसके दूसरे बच्चों के साथ सुलाने का। आखिर में वह मन-मसोस कर कुंती को अपने पीहर में छोड़ने का निर्णय लेती है। यही है ‘औरत का सच’। इस सत्य पर आधारित कहानी में लेखिका ने घर के स्वार्थ पर आधारित रिश्तों को उकेरते हुए किसी भी असहाय नारी की सामाजिक जिंदगी का बारीकी से मनोविश्लेषण किया है।

‘तराशे हुए रिश्ते’ में एक बुजुर्ग बहिन अपने लीवर कैंसर ग्रस्त भाई को राखी बांधने घर जाती है, तो अपने भाई की वहां उपेक्षा देखकर उसका मन विचलित हो जाता है। उसे पानी पिलाने के लिए बहू की जगह नौकर आता है ओर जब बहू घर आती है तो उसके मायके से राखी के अवसर पर मिले सामानों का प्रदर्शन करने से नहीं थकती है वह। इस प्रकार लेखिका ने समाज में ह्रास होते मूल्यों की ओर पाठकों का ध्यानाकृष्ट किया है कि किस तरह बाहरी चमक-धमक व प्रदर्शन में कभी तराशे हुए रिश्ते अपनी अहमियत खोते चले जाते है।

‘....और समीकरण बदल गए’ कहानी दहेज पर आधारित एक कहानी है, जिसमें गणगौर पर सुनाई जाने वाली शिव पार्वती कथा को शामिल कर लेखिका ने यह स्पष्ट किया है, जब शिव अपनी पार्वती पर अत्याचार करने से नहीं चूके तो आधुनिक समाज के लिए क्या बड़ी बात है। जहां पार्वती शिव के लिए सोलह पकवान व बत्तीस व्यजंन परोसती है ओर खुद अपना व्रत ‘राख’ की पींडियां खाकर खोलती है। वहां एक साधारण नारी दहेज-पूर्ति के लिए क्या त्याग नहीं कर सकती है। गणगौर के अवसर पर  जब कहानी की नायिका का पति उससे अपने भाई से स्कूटर लाने के लिए कहता है, तो वह अपने पीहर जाने का फैसला बदल देती है, ताकि कम से कम भैया-भाभी की गणगौर बर्बाद न हो जाए, भले ही, कुछ समय के लिए मां-बाप को उसकी कमी क्यों न खले। इस तरह आधुनिक शिक्षित नारी दूसरों के सुख के लिए अपने समीकरण बदल देती है।

‘रंग जीवन में नया आयो रे’ कहानी में एक मां द्वारा अपनी बच्ची के शोषण की अनोखी दास्तान है। घर का सारा कामकाज करती है टुलकी, उसके बावजूद भी घर वालों का उस पर अत्याचार, उपेक्षा और शोषण। मां नौकरी करती है, इसका अर्थ ये तो नहीं होता है कि वह अपनी बेटी की घोर-उपेक्षा करें। बालों में जूं न पड़े, इसलिए उसके बाल छोटे करवा दें। घर के कामकाज के कारण जब वह परीक्षा में फेल हो जाती है तो भी सारा दोष उसके सिर मढ़ दिया जाता है। स्नेह का आंचल न पाकर उसका मन कुढ़ने लगता है और साथ ही साथ, कठोर भी होने लगता है। वह जल्दी से जल्दी शादी करके नए जीवन में प्रवेश करना चाहती है। मायके से विदा होते समय जहां माता-पिता, भाई और बहिन की आंखों में आंसू होते है, वहां टुलकी की आंखें खामोश होती है। उसकी आंखों में कोई नमी नहीं दिखाई देती है। उसकी खामोशी कह रही है, मानो किसी बंद पिंजरे की मैना अपनी ऊंची उड़ान को तैयार हो और उस ऊंचाई का स्वागत भला आंसुओं से कैसे कर सकती है।

‘मर्यादाओं के घेरे में’ में कहानी नायिका की छद्म मर्यादाओं की परिधि में फंसे रहने के कारण उसकी आंखों के सामने पति द्वारा किए जा रहे व्यभिचार को बर्दाश्त करते हुए भी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं कर पाती हैं, जबकि उसके घर दिहाड़ी मजदूरी पर काम करने वाली गरीब छबीली अपने शराबी पति के दूसरी लुगाई लाने पर अपने प्रेमी के साथ भागने का साहस रखती है। एक उच्चकुलीन वधू को हमेशा मर्यादाएं घेरे रहती है, जिस घेरे के नीचे दबा उसका नारी मन क्यों नहीं बुरी तरह लहूलुहान हो जाए। जिस तरह बोरवेल (ड्रिल) मशीन पृथ्वी का दोहन करता है मगर कब तक? जब तक कि बूंद पानी क्यों न चूस लिया जाए। उसी तरह परिजन, सगे संबंधी, मित्र आदि हमारी जिंदगी का दोहन करते हैं जब तक कि उनकी स्वार्थ-पूर्ति के लिए कोई कसर बाकी न रह जाए। लेखिका की कहानी ‘मोड़ पर’ इसी कथानक का विस्तार है। इस कहानी में नीलप्रभा एक शिक्षिका है जो घर के कामकाज करने के साथ-साथ नौकरी भी करती है। तीन-तीन बच्चे, देवर-नन्द, सास-ससुर सारी जिम्मेवारियां बखूबी वह निभाती है, मगर घर-परिवार के उन सेवाओं का कोई मूल्यांकन नहीं होता है जबकि नौकरी में शिक्षक-दिवस पर उसकी कर्मठता को सम्मानित किया जाता है। उसके विद्यार्थी अपने आप पर उनके शिष्य कहे जाने पर गर्व अनुभव करते हैं। जबकि उसका पति और बच्चे उसका पदोन्नति  होने पर भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने का आग्रह करते हैं ताकि मिलने वाली भविष्य-निधि, ग्रेच्युटी, पेंशन से उनके स्वार्थों की पूर्ति की जा सके। नया मकान बनाया जा सके, बेरोजगार बेटे को भी कहीं एडजस्ट किया जा सकें। नीलप्रभा की इच्छा को  जाने बगैर सभी को अपनी-अपनी पड़ी रहती है। यही है दुनिया की रीत, पृथ्वी का दोहन तब तक किया जाएगा, जब तक कि पानी की आखिरी बूंद उससे सोख न ली जाए। तब नीलप्रभा एक ही बात कह उठती है मेघाच्छन्न आसमान से ‘‘यदि तुम समय से बरसते रहो और अपना जल बरसाते रहो तो यूं धरती की छाती फोड़ उसके भीतर सलिल का दोहन न हो।’’

‘उजाले से पहले’ एक ऐसी मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो मन के किसी भी शक्ल, हुलिया या बाहरी रूप को देखकर ग्रंथि घर कर जाती है कि वह आदमी बुरा है या अच्छा। जबकि हकीकत में उससे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। अनु किसी टकले, ऊंचे कद-काठी और कसरती बदन वाले आदमी को खलनायक समझ बैठती है। उसे लगता है कि वह बहुत बड़ा गुंडा हैं चाकू और पिस्तौल की नोंक पर उसे अगुवा कर सकता है। उसके पति को मार सकता है और उसके सतीत्व को लूट सकता है। रेस्तरां में खाना खाते समय होटल के परिसर में चहलकदमी करते उस आदमी को देखकर उसे लगता है कि वह अवश्य उसका पीछा कर रहा है। मगर उसे पता चलता है कि वह एक प्रसिद्ध हाट सर्जन है और दो दिन के लिए हर बार गोवा आते है कल्पना नर्सिंग होम में अपने पेशेंट देखने। तब अनु बुरी तरह झेंप जाती है और साथ ही साथ निरुत्तर भी। इस तरह लेखिका ने मन में सुषुप्त ग्रंथि या ‘परसेप्शन’ से किसी के व्यक्तित्व का आकलन करना गलत बताया है,कोई जरूरी नहीं है कि बाहरी रूपरेखा किसी के अंतस की झांकी का प्रतीक हो।  

इस कहानी संग्रह की अंतिम कहानी ‘मैं......मैं’ एक अनोखी कहानी है। पारंपरिक कहानियों से एकदम पृथक। वह विश्व-बंधुत्व बेचना चाहता है, मगर कोई नहीं खरीदता है। मगर जब कोई दूसरा अस्त्र-शस्त्र बेचना चाहता है तो देखते-देखते वहां लोगों की कतार लग जाती है। दूसरे दिन वह फिर दया, ममता, करुणा आदि की साकार प्रतिमाओं के विश्व-बंधुत्व की पोटली रखकर बेचने लगा, तो प्रकृति की वे ललनाएं जैसे ही उसे खरीदने लगी, वैसे ही युद्ध-देवी की दानवी काया उन्हें धमकाने लगती है कि जहां तुम्हारे पुरुष हथियारों के जखीरे खरीदने लगे है ओर तुम लोग? फिर विश्व-बंधुत्व को कोई नहीं खरीदता है। जब वह बच्चों को बेचना चाहता है तो गुब्बारे वाले, मिठाई वाले, चाकलेट वाले, समोसे वाले सभी उसके रास्ते की रुकावट बन जाते हैं। अंत में तीसरे दिन पक्षियों का एक झुंड विश्व-बंधुत्व की पोटली खरीद लेता है, यह कहते हुए ‘‘हमारी नजरों में समूचा विश्व एक है। न कोई आस्ट्रेलिया, न कोई फ्रांस और न कोई ब्रिटेन है। समूची धरती हमारी माता और समूचा आकाश हमारा पिता है। प्रकृति का नैसर्गिक सौन्दर्य हमारा है। मौसम जब-जब बदलेगा हम एक जगह से दूसरी जगह जाएंगे,  विश्व-बंधुत्व फैलाएंगे।’’

इस तरह विश्व-बंधुत्व फैलाने के एक ही हकदार है विहंग पखेरू। वे ही सही अर्थों में मानवता के वाहक है।

इस प्रकार विमलाजी की सारी कहानियां जीवंत व समाज का दर्पण है, जो उनकी लंबे समय तक अनुभव की हुई संवेदनाओं के ताप से तपकर सोने जैसे उज्ज्वल कथानकों के सृजन का असाधारण परिचय देती है।

शीर्षक - औरत का सच

प्रकाशक - अनुपम प्रकाशन, सलूम्बर-राज.

प्रथम संस्करण - 2002 मूल्य - 110/-

2.थोड़ी सी जगह

डॉ. विमला भंडारी का दूसरा कहानी संग्रह है। यह संग्रह शिल्प, शैली, कथ्य और कथानक की दृष्टि से अत्यंत ही समृद्ध है। भले ही, विमला जी इतिहास की अध्येता रही हो या बाल-साहित्य को प्रथम पंक्ति में लाने के लिए सतत प्रयासरत रही हो, मगर उनके कहानी-संग्रह भी अपने आप में हिन्दी साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी कहानियों में अधिकांश जगह पर स्त्री केन्द्रित होती है, इसके बावजूद भी उनके कथानकों की व्यापकता पात्रों की विवशता और व्यक्तिगत जिंदगी के उतार-चढ़ाव देखने की पारदर्शी दृष्टि पाठकों को स्वतः आकर्षित करती है। इन कहानियों में लेखिका केवल कल्पना-लोक में विचरण नहीं करती है, बल्कि समाज सेविका के तौर कार्य करते समय अपने जीवन के अनुभवों को यथार्थ-पटल पर उतारते हुए पात्रों की स्वाभाविक जीवन-शैली, उनकी भाषा, उनकी भाव-भंगिमा, उनके दृष्टिकोण का बहुत ही सूक्ष्म रूप में विश्लेषण कर अपनी कलम की स्याही से अक्षरों का रूप देती है। कोई भी पात्र झूठे आदर्शों से मंडित नहीं है, बल्कि परंपराओं और आधुनिकता के मध्य संघर्ष करते अपने-अपने समाज, परिवार, गांव, शहर, कार्यस्थल के अनुरूप रचनाकार की कठपुतली बने बगैर परिस्थितियों के अनुसार सारी जीवित क्रियाओं को रूप देते हैं। इस कारण ये  कहानियां पाठकों के हृदय को उद्वेलित करती है, सोचने के लिए झकझोरती है, चिन्तन-मनन करने के लिए विवश करती है। इस कहानी संग्रह में उनकी पन्द्रह कहानियां है और सभी के कथानक पृथक-पृथक हैं ।

‘नभ के पंछी’ कहानी में हरीमन अपने बहू की डिलेवरी को लेकर समाज की सुनी-सुनाई बातों से शंका-ग्रस्त होकर किसी प्राइवेट नर्सिंग होम में करवाना चाहती है। उसके आम बेचने के पुश्तैनी धंधे की कमाई से पाई-पाई जोड़ती है और अच्छे से अच्छे मेटरनिटी होम में प्रसव-क्रिया हेतु स्वयं जाकर वहां की सफाई-स्वच्छता का निरीक्षण करती है। यहां तक कि दस हजार रुपए की अग्रिम-राशि जमा भी करवा देती है, यह सोचकर पता नहीं, कब बेटे का फोन आ जाए और बहू को लेकर घर पहुंच जाएं। मगर ऐसा नहीं होता है। उनका बेटा खलीफा अपनी बहू के कहने के अनुसार अपनी सास को वहीं पर बुलाकर प्रसव करवा लेता है। तब हरीमन स्तब्ध रह जाती है। उसे लगने लगता है, उसका बेटा खलीफा नभ का एक पंछी बन गया है, पता नहीं किस डाल पर अपना बसेरा बसाएगा। उसकी सारी प्रतीक्षा, मन के सपने, यहां तक कि फलों को ठीक-ठीक पहचानने वाली पारखी नजरें भी धुंधला जाती है। लेखिका ने बदलती पीढ़ी के रवैये तथा माता-पिता की आशा, आकांक्षाओं के प्रति उनकी घटती संवेदनाओं को जीवंत रूप से प्रस्तुत से प्रस्तुत किया है कि हरीमन के पात्र में खोकर पाठकों की आंखें स्वतः अश्रुल हो जाती है। जिस प्रकार जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘छोटा जादूगर’ आज भी ऐसे ही दर्द के लिए स्मरणीय है वैसे यह कहानी भी आधुनिक परिवेश में उसी दर्द की व्याख्या करती है।

‘माटी का रंग’ हिन्दू और मुस्लिम के मध्य प्रेम, भाईचारा और एकता को दर्शाती है। दो सहेलियां शारदा और गुलनारा बचपन में किसी सरकारी स्कूल में एक साथ पढ़ती थी, मगर उनमें कभी बातचीत  नहीं होती थी। बड़े होने पर किसी शहर में उनकी मुलाकात होती है तो सारा बचपन उनकी स्मृतियों में तरोताजा हो जाता है, मगर दुर्भाग्यवश उस कस्बे में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो जाता है, और उन दोनों की दोस्ती पर भी ग्रहण लग जाता है। बातचीत तक बंद हो जाती है। लेखिका ने यहां दर्शाया है कि किस तरह धर्म पुरानी से पुरानी दोस्ती को भी खंडित कर सकता है। एक बार शारदा का बेटा विक्रम और गुलनारा का बेटा सिकन्दर की स्कूल जाते समय बस के सड़क किनारे झील में गिर जाने की वजह से दोनों के परिवारों में मातम छा जाता है, मगर विक्रम और सिकन्दर दोनों एक दूसरे को बचा लेते हैं तथा दूसरे बच्चों की जान बचाने में भी आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। इस तरह फिर से शारदा और गुलनारा के बीच में सौहाद्र्राता स्थापित करने के लिए लेखिका ने इस मोड़ का यहां जिक्र किया, जो धर्म से परे अपनी माटी की गंध को याद दिलाते हुए दोनों के बीच पहले जैसा संबंध स्थापित हो जाए। यही है माटी की गंध, माटी का रंग। व्यक्तिवाद को धर्म से श्रेष्ठ घोषित करते हुए लेखिका एक जगह लिखती है- ‘‘झगड़ा तो हिन्दू और मुसलमान के बीच हुआ था। हमारे बीच तो नहीं।’’

‘लकी ग्रीन’ एक ऐसी कहानी है, जो समाज में व्याप्त रूढ़िवाद, कर्मकांड-पाखंड, अंधविश्वास को खुली चुनौती देती है। इस कहानी में लकी ग्रीन साड़ी पहनने से ही घर की महिलाओं की सगाई होती है, मगर घर की बेटी इस बात को नहीं मानती है। बिना लकी ग्रीन साड़ी के भी उसका संबंध पक्का हो जाता है। इस तरह लेखिका ने देश की जनता को जाग्रत करने के लिए रूढ़िवाद, जड़ता के बंधन, अज्ञान और अंधविश्वास को काटने का आवाहन किया है। आज भी हमारे समाज में यहां तक की फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों के नाम के पहले अक्षरों से जुड़ी सफलता और असफलता की मान्यता, पसंद के टेलीफोन नंबर, परीक्षा पास करने के लिए लकी पेन, शगुन के लिए दही की कटोरी, लकी पर्स, लकी हाऊस आदि कई अंधविश्वास हमारे समाज में व्याप्त है। यह कहानी उन पर पर एक करारी चोट है। किस तरह मधुर वचन, आत्मीय संबोधन और व्यवहार बड़े-बड़े से खूंखार, खतरनाक व हिसंक पुरूषों को हृदय को भी परिवर्तित कर देते हैं। उसकी जीती जागती मिसाल दे रही है विमला जी की कहानी ‘किलर’। ट्रेन में सफर करते समय सामने बैठे एक हत्यारे को भाई संबोधन करने से किस तरह वह द्रवित होकर लेखिका को लूटने का इरादा बदल देता है।

कहानी ‘सोने का अंडा’ आधुनिक वैज्ञानिक युग में खो रही मानवीय संवेदनाओं को उजागर करती है। जिसमें एक कलियुगी पति अपनी अनपढ़ पत्नी की कोख को चन्द पैसों की खातिर किराए पर देता है वह भी बिना उसकी पत्नी की अनुमति के। अपने पेट में पनप रहे बीज में अपने रक्त और मांस-मज्जा के संबंध को ताक पर रखकर ‘सेरोगेट मदर’ वाली धारणा को लेखिका ने अनुचित ठहराया है। कुछ ही वर्ष पहले अभिनेता शाहरूख खान के ‘सेरोगेट मदर’ से बच्चा पैदा करने की कवायद पर मुस्लिम धर्म ने घोर आपत्ति जताई थी। ठीक इसी तरह हूîमन क्लोनिंग को लेकर भी आधुनिक समाज के कई वर्ग भर्त्सना करते नजर आते है।

‘रोशनी’ कहानी में लेखिका ने मानवीकृत धर्मो के ऊपर मानव धर्म को महत्त्व दिया है। बेसिला बनी संन्यासिनी मांझल कूड़े-करकट बीनने वाले बच्चों को अपने साथ ले जाते अपने पूर्व पड़ोसी अतुल को उनका सहारा बनने तथा भविष्य बनाने के इरादे से कहती है, जब वह पूछता है उन धर्मान्तरण करोगी इनका- ‘‘धर्म? धर्म किसे कहते हैं? ये अबोध जिन्हें दो जून की रोटी नसीब नहीं। जिन्हें कंपकंपाती ठंड में कपड़े भी नसीब नहीं। जिनके सिर पर है नंगा आकाश और पैरों तले ऊबड़-खाबड़ जमीन। स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों से भी वंचित है जो वे क्या जानेंगे धर्म को।’’ 

‘अहसास’ में एक गरीब गायक लड़के इन्द्रजीत की मदद करने के स्थान पर झूठे कारण बताकर कहानी की नायिका बरखा ठुकरा देती है, यह कहकर कि तुम्हारी उम्र कम है इसलिए रेडियो वाले तुम्हें नहीं लेंगे। मगर बरखा के व्यक्तित्व का दोहरापन उच्च समाज के मुखौटे को उजागर करते हुए उसका पति इंदर की मदद करता है और उसे एक ‘स्टार’ बना देता है। यहां तक कि ‘भारत महोत्सव’ में गाना गाने के लिए उसका चयन हो जाता है। इस तरह नारी संवेदना के नाम पर अपने आप को धोखा देती बरखा को उसका पति इस बात का अहसास करा देता है कि अभावग्रस्त बचपन देखने वाला साधारण व्यक्ति बिना किसी प्रसिद्धि की चाह के किसी अनाम प्रतिभा को अपने उचित स्थान पर पहुंचा सकता है।

‘थोड़ी सी जगह’ इस कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी है। ठसाठस बस में अपने बैठने के लिए थोड़ी-सी जगह पाने के लिए किस तरह श्रुति सीट पर बैठे किसी वृद्ध तथा वृद्धा से मधुरता पूर्वक बातें करती है और बैठने की जगह प्राप्त कर लेती है। धीरे-धीरे वह आराम से बैठने के लिए पूरी जगह ले लेती है। मगर जब वह वृद्ध अपनी कहानी सुनाने लगता है तो उसे नीरस लगने लगती है। और जब उसे पोपले मुंह से पिक की छिटके लगने लगते है तो वह छिः! अनुभव करने लगती है। इस तरह लेखिका ने समाज के उस यथार्थ को उजागर किया है जिसमें कोई भी इंसान जब तक अपनी स्वार्थपूर्ति नहीं होती है, वह गिड़गिड़ाता है। मगर जैसे ही स्वार्थ पूरा हो जाता है वह उसे अपना अधिकार समझकर सामने वाले की अवहेलना करना शुरू कर देता है।

‘कलियुगी देवता’ लेखिका की एक ऐसी कहानी है जो एक डाक्टर के अंतर्मन को झकझोरती है। डाक्टर जिसे लुटेरे लोग भी देवता समझते हैं और एक बार सुनसान जगह में लुटेरों से मुठभेड़ होने के बाद भी उनका सरदार रमैया उसे श्रद्धापूर्वक छोड़ देता है कि कभी उसने उसकी बीमार मां का इलाज किया था। मगर उसे क्या पता था वह इलाज एक नाटक था उसकी बीमार मां की किडनी चुराने का। डाॅ. धीरज कुमार के सामने रमैया के तीन रूप प्रकट होने लगते हैं- मां को भर्ती कराने आया गबरू नौजवान,उनके कदमों में नतमस्तक रमैया और लुटेरा मुजरिम रमैया। डाॅ. कुमार के मन में उसकी तुलना में ज्यादा अपराध-बोध जागृत हो उठता ओर उसकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। इस तरह लेखिका ने हर समय अपनी आत्मा की आवाज सुनने के लिए प्रेरित किया है कि हमारे द्वारा किया जाने वाला कौनसा कार्य विधि-सम्मत है अथवा नहीं?

‘घटाव का जोड़’ एक ऐसे कंजूस आदमी की कहानी है, जिसे बहिन नहीं होने पर अपार हर्ष होता है और वह सोचा करता है कि कम से कम उसकी वजह से पैसे तो नहीं खर्च होते। जैसे रक्षाबंधन पर उपहार देते समय उसके साले की कितनी फिजूल खर्ची होती है। मगर जब उसके साले की दुर्घटना हो जाती है तो उसकी पत्नी द्वारा की जा रही सही-सलामती की दुआ, मुंह में तीन दिन से अन्न का एक दाना नहीं लेना और आंखों से लगातार गंगा-जमुना बहाकर उसके लिए मन्नत मांगती और गरीबों में उदारतापूर्वक दान देती देखकर उसे अपने सारे जोड़ों की तुलना में यह घटाव ठीक लगा। भाई-बहिन के प्रेम के आगे दुनिया की सारी संपत्ति तुच्छ है। इस बात को चरितार्थ करती इस कहानी की कथ्य-शैली व भाषा-प्रवाह उत्कृष्ट है।

‘दिव्य लोक’ कहानी ब्रेन ट्यूमर से जूझते फोटोग्राफर पति की बिखरती सुखी जिंदगी को संवारती पत्नी के धैर्य, अटल निश्चय और कर्मनिष्ठा का अनुपम उदाहरण है। ऐसी अवस्था में पत्नी न केवल घर में बच्चों का ट्यूशन करती है वरन अपने पति का बंद पड़ा स्टूडियों खुद फोटोग्राफी सीखकर अपने बलबूते पर खड़ा कर देती है। इस तरह अपने चरमराते परिवार को फिर से स्थापित करने में वह सफल हो जाती है। लेखिका की यह कहानी ऐसे अनेक परिवारों के लिए प्रेरणादायक है जिनके घर-गृहस्थी का बोझ उठाने वाले लोग कारणवश, परिस्थितिवश असक्षम हो जाते हैं तो उनकी गृहिणियां अगर कंधे से कंधा मिलाकर उनकी मदद करें तो परिवार को ऋणग्रस्त होने अथवा कर्ज के बोझ तले डूबने से बचाया जा सकता है।

‘शर्मसार’ कहानी जीजा और साली में पैदा हो रहे अवैध संबंधों को देखकर पत्नी द्वारा आत्महत्या करने के कारणों को मनोवैज्ञानिक ढंग से उजागर करती है। बदनामी का अंधेरा आवर्त पास-पड़ौस और समाज द्वारा भर्त्सना, दुख, हताशा और अपराध-बोध का दंश- सब कुछ इस कहानी में देखने को मिलता है।

‘रीमिक्स’ राजस्थान के उस प्रवासी परिवार की कहानी है जिनमें बहुएं गुजरात तथा दक्षिण भारत की है। घर के मुखिया श्रीपाल भाई को राजस्थान की संस्कृति से अथाह प्रेम है मगर उनकी पत्नी को राजस्थान की घूंघट-प्रथा, औरत पर पुरूष समाज का हावी होना तथा सास द्वारा किए जा रहे  अत्याचार पसंद नहीं आते हैं। किसी परिजन की शादी के अवसर पर इस परिवार को राजस्थान जाने का मौका मिलता है, तो वहां हुए सांस्कृतिक बदलाव को देखकर मुंबईवासी श्रीपाल अंचभित रह जाते हैं। वह तो अपने परिवार को राजस्थान की संस्कृति से परिचित करवाना चाहता था, मगर वहां की सलवार-सूट, जीन्स-टाॅप, मिडी पहने ब्यूटी-पार्लर की शृंगारित लड़कियों को मोबाइल पर बातचीत करते और ‘एक्सक्यूज मी’ कहते देख उनके परिवार को आश्चर्य होने लगता है। पुरातन ढर्रे की जगह आधुनिकता पांव पसारने लगी थी। ‘अटैचड लेट-बाथ’ टी.वी. सेट से चिपके बैठे ‘बच्चे-बूढ़े’, ‘इडली डोसा और पाव भाजी’ ‘फिल्मी धुनों पर बनता महिला संगीत’, ‘बिजली के बल्बों में चमकते पंडाल’, ‘पारंपरिक देशी वेशभूषा के साथ-साथ फैशनेबल परिधान’, ‘पारंपरिक विनायक मंगल गीत’ पुरानी आधुनिक संस्कृति के  रीमिक्स को दर्शा रही थी। कहानी का क्लाईमैक्स तो तब शुरू होता है जब श्रीपाल की गुजराती बहू  राजस्थानी लोकगीत पर राजस्थानी परिधान पहनकर अपने नृत्य प्रस्तुति से सबको चकित कर देती है। दूसरी दक्षिण भारत वाली बहू कत्थक नृत्यांगना होने के बाद भी राजस्थानी गीत ‘‘म्हारी घूमर छे नखराली एं मांएं’’ पर अपना नृत्य प्रस्तुत कर दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से सभी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करती है। इस तरह भले ही, श्रीपाल का परिवार राजस्थान प्रवासी था मगर उनके घर में राजस्थान की संस्कृति के प्रति गहरा लगाव था, जबकि खुद राजस्थानी परिवार अपनी संस्कृति से विमुख होते हुए आधुनिक रीमिक्स संस्कृति को अपनाने में लगे हैं।

इस कहानी-संग्रह की कहानी ‘टूटती कली’ अत्यंत ही मार्मिक व मनोवैज्ञानिक है। घर में होने वाले छोटे-मोटे झगड़ों के दौरान गैस स्टोव से आधी-जली औरत की एक दर्द भरी दास्तान। जो कभी बचपन में स्कूल के भवन ढ़हते समय तक बाल-बाल बची थी, उस किरण की कहानी। जिसके जलने पर पति ने कास्मेटिक सर्जरी करवाई, उसके पक्ष में बयान देने पर। उसको तलाक देने की एवज में उसे मिला एक बड़ा घर और बहुत सारा धन। मगर उसका विकृत चेहरा, अधजले बाल और ऊपर से जला आधा शरीर उसकी जिंदगी को भयावह बना दे रहे हैं। वह छत के ऊपर जाना चाहती थी, मगर अंधेरे के समय ताकि कोई उसकी तरफ देख न सके। उसका भयावह रूप देखकर दर्पण भी डर जाता था।  कहानी का अंत होता है, माता-पिता द्वारा उसके कमरे में किसी साध्वी को लाकर जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए दृष्टांत सुनाकर। लोक-सेवा, लोक-कल्याण और दुखियों का संबल बनकर उनकी सेवा करना इतना आसान नहीं है, फिर भी दुखी अतीत को भूलकर दुनिया के लिए जीना ही सही अर्थों में जीने का उद्देश्य होना चाहिए। इस तरह लेखिका किसी ‘टूटती कली’ का पूरी तरह से टूट जाने से रोककर उसके नए जीवन का मार्ग प्रशस्त करती हुई दुःखद अतीत को भूलने की प्रेरणा देती है।

‘खूबसूरती' कहानी राजनीति में भाग ले रही मान-शान, स्वाभिमान और जमाने के साथ समझौता कर रही महिला-नेत्रियों को अपने क्षेत्र में नई ऊंचाई पाने के लिए अपनी खूबसूरती के साथ बिना किसी प्रकार का समझौता किए। जहां चांदनी जैसी महिला अपने उत्थान के लिए किसी भी प्रकार के पुरुषों का सहारा लेने से नहीं चूकती, उसके लिए वह सब कुछ अपना न्यौछावर करने को तैयार हो जाती है, वही इस समारोह की नायिका मैडम प्रेमा अमृत यह संदेश देती है, हमें आगे बढ़ना है अपने बलबूते पर अपनी कर्मठता से। मगर यह याद रखते हुए कि वे औरतें हैं ओर यही उनकी खूबसूरती है। मगर चांदनी जैसी महत्त्वाकांक्षी महिलाओं के सारे सारगर्भित उद्बोधन, उपदेश मात्र और अवास्तविक लगने लगते हैं। इस प्रकार लेखिका ने बड़ी खूबसूरती से अपनी कहानी ‘खूबसूरती’ में समाज-सेवा और राजनीति में प्रवेश लेने वाली महिला जनप्रतिनिधियों को उन्नत समाज और भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए अपनी मर्यादा को बिना ताक पर लगाए नेतृत्व करने की प्रेरणा देती है।

इस तरह डॉ. विमला भंडारी की सारी कहानियां स्त्री-चरित्र के इर्द-गिर्द विद्वतापूर्ण कथानकों के साथ घूमती हुई नजर आती है।

मेरा ऐसा मानना है कि कहानियों की संवेदनाएं, इनके पात्र, इनके मंतव्य-गंतव्य पाठकों के हृदयों को अवश्य स्पंदित व मुखरित करेंगे।

पुस्तक: थोड़ी सी जगह

प्रकाशक: पराग प्रकाशन, जयपुर

प्रथम संस्करण: 2008

मूल्य: 140 रूपए

ISBN ः 978-81-904731-6-3

3. सिंदूरी पल

सिन्दूरी पल डॉ॰ विमला भंडारी का अद्यतन कहानी-संग्रह है। जिसमें अधिकांश कहानियां राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित है और उनमें कई जगह मेवाड़ी-राजस्थानी शब्दों का प्रयोग हुआ है। जो पात्रों की आंचलिकता न केवल प्रमाणित करती है, वरन उनकी सहज अभिव्यक्ति की गरिमा व विश्वसनीयता को भी हमारे सम्मुख उजागर करती है। उनकी कहानियों में नारी-हृदय की भावुकता, ममता, आत्मीयता एवं घरेलूपन की झलक साफ देखने को मिलती है। इन कहानियों में लेखिका के जीवन के यथार्थ अनुभूतियों को जीवन्त भाषा-शैली का प्रयोग हुआ है।

‘‘तेरे रूप कितने’’ कहानी में एक ऐसी स्त्री के अनेक रूपों का वर्णन है जो अपने चरित्रहीन पति से दूरियां बनाकर अलग रहती है मगर उनकी मृत्यु के बाद रातीजगा किए बिना किसी के घर का पानी तक नहीं पीती है। इस आस्था के साथ कि वह मृत्यु के बाद देवता बनकर प्रकट हुआ है और बहू के शरीर में प्रवेश कर ‘रात्रि जागरण’ मांगने पर किसी घर का पानी तक नहीं पीने का वचन दिया है। दुश्चरित्र पति के मरणोपरांत इतना अनुराग किसी पतिव्रता स्त्री को छोड़कर किसी और में हो सकता है? अपनी बहू-बेटे से नहीं बनने के कारण वह किसी घर में काम कर अपना गुजारा करती है, मगर उसके अंधविश्वास का फायदा उठाकर उसकी चालाक बहू अपने शरीर में फिर से उस देवता पति के प्रकट होने का बहाना बनाकर अपने घर में काम करवाने के लिए दूसरी जगह काम नहीं करने की आज्ञा देती है। उस देव-आज्ञा के खिलाफ काम करने की हिम्मत कहां उसमें? इस तरह राजस्थान की पृष्ठभूमि वाले गांव की नारी में सहनशीलता, मर्यादा, पतिव्रता, अनुराग, पति-भक्ति, धर्म-भीरूता, अंधविश्वास तथा आंतरिक शक्ति के अनेक रूपों का सशक्त वर्णन किया है, जो अपने अतीत इतिहास में पन्ना, पद्मिनी, कर्मावती और मीरा जैसी ललनाओं की स्मृति जीवंत कर जाती है। जिनके सदियों पुराने संस्कार आज की द्रुत-गति से होने वाले शहरीकरण और वैश्वीकरण के बाद भी भारतीय नारियों में विद्यमान है।

इस कहानी-संग्रह की दूसरी कहानी ‘‘स्थगन’’ भले ही एक छोटी कहानी है, मगर भागदौड़ जमाने की आराम परस्त जिन्दगी के लिए कई अहम सवाल छोड़ जाती है। यह जानते हुए कि घर की नौकरानी चोरनी है, एक-दो बार घर के सामान साबुन, अगरबत्ती, माचिस या केसर डिब्बी, पपड़ी यहां तक की नई विवाहिता दुल्हन का पर्स खोलने पर घर वालों द्वारा बहुत लताड़ी गई और उसे काम से निकाल देने की धमकी भी दी गई। लेखिका की सोच में शायद यह प्रतीत होता है कि कुछ आवश्यकता होने के कारण ही वह घर की छोटी-छोटी चीजों की चोरी करती होगी, मगर उसे अचरज का ठिकाना नहीं रहता है जब उसकी मुलाकात अचानक काम वाली से आजाद मोहल्ले में हो जाती है और उसके साफ-सुथरे पक्के दो मंजिला मकान, छोटे पुत्र की वीडियो शूटिंग की दुकान, दो-तीन किराएदार और उसकी समृद्ध स्थिति। लेखिका ने घर से चोरी हुई छोटे-मोटे सामानों को देखकर जब वह उनके बारे में पूछने लगती है तो वह झूठ बोलती है। और वह अब उसे सहन नहीं कर सकती है और उसे निकालने का दृढ़ संकल्प लेती है। तभी छोटी नन्द के परिवार सहित छुट्टियों में उनके घर आने की सूचना मिलती है तो फिर से ‘भुआ’ (नौकरानी) को निकालने का प्रोग्राम स्थगित हो जाता है। इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने दो मनोभावों की ओर ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है। पहला, आदमी अपनी स्वतंत्रता, खुशियों तथा घरेलू कामों से बचने के लिए कितना परवश हो जाता है कि वह काम वाली नौकरानी की गलत आदतों को जानकर भी उसे निकालने का पक्का मानस नहीं बना पाते हैं। यह है परवशता। दूसरा, चोरी कोई जरूरी नहीं कि कोई गरीब लोग अपना पेट भरने के लिए या कुछ दुःखद क्षणों में ऐसी घटनाओं को अंजाम देते है। यहां तक कि एक समृद्ध आदमी भी आदतन चोरी कर सकता है। ‘भुआ’ के पास किस चीज की कमी थी। बड़ा घर, बच्चों की दुकानें, अपने घर में किरायेदार की आवक बहुत कुछ ऐसी चीजें है, जो उसके समृद्धिशाली परिवार की पुष्टि करते हैं, मगर वह लेखिका के घर से छोटी-छोटी चीजें जैसे साबुन, सर्फ, आटा-दाल, अगरबत्ती यहां तक संडासी तक चुराने लगती है। यह देखकर यह सवाल अवश्य उठता है, क्या चोरी एक मानसिक बीमारी है? जो केवल बच्चों में वरन बड़ों में उससे ज्यादा व्यापक होती है। चोरी करते पकड़े जाने पर शर्म लाज से  जलील होने के बावजूद भी किस मुंह से वह लेखिका के घर काम करती है। यह है बेशर्मी की पराकाष्ठा। इस तरह लेखिका ने अपने संवेदनाओं को एकाग्र कर समाज में व्याप्त इस तरह के दुर्गुणों, दुराचारों तथा बेशर्मी का पर्दाफाश करते-करते अपनी कमजोरियों के कारण आदमी किस तरह किसी के हाथ की कठपुतली बन जाता है।

संकलन की तीसरी कहानी ‘ताजा अंक’ एक अलग से हटकर है। मानो अखबार का ‘ताजा अंक’ अपनी आत्मकथा सुना रहा हो। बोर्ड की परीक्षा परिणाम के उसने पृष्ठों का फैलाव और उस पर अचानक पानी से गीले होकर भीग जाने पर अपने अतीत में झांकने की याद दिलाता है। वह सोचने लगता है कभी ऐसा भी जमाना था कि भागवंती और कृष्णा के बीच पहले मुझे पढ़ने की होड़ मचती थी। भागवंती कम उम्र में विधवा हो जाती है और कृष्णा उसके दूर का रिश्तेदार होता है, और भागवंती को आगे पढ़ाने के लिए वह अपनी तरफ से भरसक प्रयास करता है। रोज-रोज वह मुझे पढ़ता और समाचारों पर दोनों चर्चा करते। धीरे-धीरे समय गुजरता गया। ओर उन लोगों ने अपनी हरिद्वार यात्रा में अखबार के कुछ अंकों के साथ ले जाना उचित समझा, मगर अचानक पानी गिर जाने से मैं भीगकर बिखर गया और फिर वह किस काम का? बर्थ पोंछने और सिवाय खिड़की से बाहर फेंकने तो कभी जूता पोंछने तो कभी हाथ पोंछने के। इस तरह उनसे साथ छूटता गया। हरिद्वार तर्पण के बाद भागवंती और कृष्णा में आकर्षण बढ़ने लगा और धीरे-धीरे प्रेम में तब्दील होने लगा। उसकी सूनी कलाइयों में अचानक से चूड़ियों की प्रगाढ़ता इस बात का संकेत दे रही थी कि उसका वैधव्य-जीवन नई करवट बदलने वाला था। भांगवंती बी.ए. पास कर नौकरी करने लगी। अखबार का उनके घर में आना बंद हो गया, मगर भागवंती स्कूल के स्टाॅफ-रूम में उलट-पलट लेती थी। उसके ताजा अंक पर उनके शादी का विज्ञापन प्रकाशित हुआ। कहीं हर्ष तो कहीं गम तो कहीं आश्चर्य था। अखबार बहुत खुश था। नए-नए प्रतीकों की खोजकर एक अलग कथ्य-शैली में बहुत बड़ी बात कह जाना उनकी एक खास खूबी है। इस कहानी-संग्रह की पठनीयता तो इतनी ज्यादा अच्छी है कि आप बिना किसी अवरोध के लगातार पढ़ते जायेंगे तो अखबार को भागवंती और कृष्णा के संबंधों की पल-पल जासूसी करने वाली कोई तीसरी उपस्थिति वहां अनुभव की जा सकती है। वह भी मार्मिक सह-संबंधों को इस तरह उजागर करने वाली जैसे वह भौतिक शरीरधारी हो। सुख-दुख, ईर्ष्या-द्वेष, मान-अपमान सभी की शृंखलाओं से गुजरते हुए अपनी भावाभिव्यक्ति की अटूट छाप पाठक के मानस-पटल पर अंकित करते हुए भाषा-वैशिष्ट्य की ओर ध्यान आकर्षित करती है।

कहानी ‘आज का दिन’ का कथानक किसी खूनी फिल्म के दृश्य से कम नहीं है। सुबह-सुबह की बात कुछ नकाबपोश हमलावर किसी आदमी पर 6 इंच तक कील ठुके लट्ठ के तड़ातड़ प्रहार से जानलेवा हमला। बचाने वाला कोई नहीं, तभी आस-पास सफाई करने वाली मेहतरानी की नजर उस पर टिकती है। वह उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ती है और हमलावरों से अपने बलबूते पर संघर्ष करने लगती है, जबकि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर अपने घर के कोनों में दुबके बैठे मिलते हैं। उसके ललकारने पर कुछेक लोग दरवाजा खोल बाहर आते है और कोई उसे ‘यशोदा मैया’ तो ‘नवजीवन देने वाली मां’ जैसे भावनात्मक संबोधनों से आपस में तारीफ करने लगते है, मगर उस आदमी की बेहोशी की अवस्था देखकर जब वह मुहल्लों वालों से पानी की गुहार करने लगती है तो अधिकांश वहां से खिसकने लगते है, कोई कहता है क्यों हम अपना धर्म-भ्रष्ट करें तो कोई कहता है कि सड़क बुहारने वाली स्त्री के क्या मुंह लगना। एक आदमी ने पानी दिया, मगर डिस्पोसेबल ग्लास में पानी भरकर दूर रखते हुए। इस मार-धाड़ की पृष्ठभूमि को लेखिका ने बड़ी बखूबी से यथार्थता को अंगीकार करते हुए पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है, जैसा कि अक्सर होता है कुछ गुंडा-तत्त्वों के हाथ से टेंडर निकल जाए तो वह उसका बदला लेने वाले के खिलाफ साजिश रचकर अथवा अपने बाहुबलियों का सहारा लेकर उसे अपने रास्ते से हमेशा-हमेशा हटाने के लिए कुछ भी कर सकते है, क्योंकि उनके पास राजनीतिक संरक्षण होता है। पुलिस-थाने भी उनके अपने होते है। यह कहानी पढ़ते हुए मुझे अपने व्यवसायिक जीवन में घटी ऐसी ही घटना की स्मृति ताजा कर गई, जिसमें किसी परियोजना कार्यालय के सामने बने बगीचे के रख-रखाव का टेंडर किसी गुंडे तत्व को नहीं मिलकर किसी भद्रजन को मिलता जाता है। और नतीजा क्या निकलता है, सिवाय कंपनी के रीजनल हास्पीटल में ही दौड़ा-दौड़कर मुक्के, लात, घूंसे, लाठियों की मार से उसके प्राण निकाल दिए। आज तक किसी ने उसका विरोध तक नहीं किया, क्योंकि वे जानते है कि उन्हें बड़े-बड़े महारथियों का सहयोग व वरद्-हस्त प्राप्त है। इस तरह ‘राजनैतिक संरक्षण’ व बाहुबलियों के तथाकथित कारनामों पर बिना कुछ बोले बहुत सारे जाने-अनजाने सवालिया निशान छोड़ जाते है। इस तरह लेखिका की सूक्ष्म-ग्राह्य संवेदनाओं को रेखांकित किया है।

‘नीला रंग’ कहानी में एक अधीनस्थ कर्मचारी अपने अधिकारी को जिज्ञासावश  पूछता है कि ‘नीला रंग’ किस ग्रह का होता है, राहू या केतु का? तथा अपनी जन्मपत्री के खराब होने की जब कहता है तो वह अधिकारी इन सारी चीजों को फालतू का वहम कहकर जन्मपत्री, अंक-ज्योतिष, अंक-गणना, हस्त-रेखा सभी के फिजूल के विषय बताते हुए उसे अपने भविष्य को केन्द्रित कर कार्य करने की प्रेरणा देते है। उसी दौरान वह कर्मचारी अपनी पारिवारिक दास्तान को सुनाता है कि उसकी पत्नी डेढ़ महीने से घर से भाग गई है। अपने ड्राइवर यार के साथ। जिसका साथ विगत 13 वर्षों से उसका याराना चल रहा था। तभी दूसरी तरफ उस अधिकारी के पास फोन आता है कि यह कर्मचारी उसका पति है ओर उसके साथ कुछ ज्यादा ही ज्यादती कर रहा था, इसलिए और वह कुछ भी उसके साथ न तो निभा पाएगी और न ही कुछ सहन कर पाएगी। और वह उनसे न्याय की गुहार लगाने लगी। तभी वह कर्मचारी कह उठता है कि हो न हो यह उसकी पत्नी का ही फोन होगा, मगर यह कैसे संभव होगा? वह तो पन्द्रह दिन पूर्व उसे मारकर अपने हाथों से अग्नि देकर आया था। अधिकारी को इस बात पर जब यकीन नहीं होता है तो मोबाइल में रिसीव काल हिस्ट्री सर्च करने लगता है। उस हिस्ट्री में उसके अधीनस्थ कर्मचारी द्वारिका प्रसाद का ही अंतिम काल सेव था। मगर अभी-अभी आए उसकी पत्नी का काल दर्ज नहीं हुआ था। उसके हतप्रभ होने पर वह कर्मचारी कह उठता है यह है उसका ‘नीला रंग’ साब। बीच-बीच में कहानी के सातत्य को बनाये रखने के साथ-साथ मनोरंजक बनाने हेतु पतंगे उड़ाने, पेंच लड़ने, पतंग कट जाने वाली घटनाओं का कथानक के पात्रों के मनोभावों से तुलना कर लेखिका ने एक नूतन प्रयोग किया है। मगर अंत में एक रहस्य का पर्दाफाश पाठकों के लिए छोड़ दिया है कि उसके मोबाइल द्वारा पत्नी का फोन सेव क्यों नहीं हुआ? क्या जब वह कह रहा है कि उसने अपनी पत्नी को मार दिया है, उस अवस्था में फोन पर कोन बात कर रहा था? वह या उसकी आत्मा? तरह-तरह के रहस्यमयी उलझनों में फंसकर वह रह जाता है। उन्हीं अनसुलझी उलझनों को वह कर्मचारी यह नीला रंग है सा’ब कहकर अपनी कहानी का पटाक्षेप करता है। विज्ञान के अनुसार सूर्य की किरण में सात रंग होते है, बैंगनी, नीला,आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल रंग। सभी की तरंग-दधैर्य नियत होती है, जिसे किसी प्रिज्म के द्वारा आसानी से निकाला जा सकता है। जहां लेखिका ज्योतिष शास्त्र के अंग-उपांगों से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है, वही वह ‘नीले रंग’ की रहस्यमयी उपस्थिति से पाठक के सामने अनसुलझी पहेली छोड़ जाती है कि क्या भूत-प्रेत भी हो सकते है? आजकल पुरानी हवेलियों में तरह-तरह के वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से वैज्ञानिक विभिन्न रंगों के माध्यम से फोटो लेते हुए उसका विश्लेषण करते है कि अलग-अलग कलर सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा के प्रतीक है, जिसके माध्यम से वे कंप्यूटर उनके ग्राफिक्स बनाते है, मगर अभी तक ये सारे प्रयोग किसी तरह के ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे है सिवाय किसी विशेष शोध-पत्र की तैयारी के। इस कहानी के निर्माण के पीछे लेखिका के दिमाग में जो भी उद्दिष्ट कारण रहे होंगे या जो भी आस पास पृष्ठभूमि रही होगी, उन्होंने पाठकों को खुद से यह प्रश्न पूछने का आवाहन किया है कि क्या वैज्ञानिक धरातल पर ही सारी अनसुलझी पहेलियों का समाधान किया जाए या विज्ञान से परे भी कुछ दूसरा विज्ञान होता है? हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है, जहां विज्ञान खत्म होता है, वहां से आध्यात्म की शुरूआत होती है। लेखिका का उद्देश्य समाज में अंधविश्वास फैलाना कतई नहीं है, बस उन पर वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेते हुए रहस्य की तह तक पहुंचने का निवेदन है।

‘मन मंदिर’ कहानी में लेखिका ने मेवाड़ी-राजस्थानी के अनेकानेक व्यंजक शब्दों का समावेश कर हिन्दी को समृद्ध बनाने का ठीक उसी तरह प्रयास किया है, जिसे कृष्णा सोबती ने अपने कहानी संसार में पंजाबी शब्दों की भरमार तो फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने बिहारी भाषा के शब्दों को पिरोकर स्थानीय रंगत तथा आंचलिक प्रभविष्णुता को हिन्दी-सागर से जोड़ते हुए उसके विस्तार हेतु अथक व अनुकरणीय प्रयास किया था। बजरंगी एक मजदूर का बेटा है और वह भी पोलियो से ग्रस्त। पढ़ाई करने के साथ-साथ महीने में वह दस बारह दिन मकानों के निर्माण हेतु दिहाड़ी मजदूरी का काम करता है, और तो और खेत की फसलों की कटाई-ढुलाई का काम न देखने के लिए अपने पिता के ताने सुनने पड़ते हैं वह घर छोड़कर कहीं भाग जाने की सोचता है कि रास्ते में उसकी मुलाकात अपनी सहपाठी मगनी से हो जाती है। वह गांव के वार्ड पंच की बेटी है। पढ़ने में अव्वल। सरकार ने उसे चलाने के लिए साइकिल भी दी है। जब मगनी उसे स्कूल जाने की सलाह देती है तो वह खीझ उठता है। मगर जब वह उसके सामने अपना मोबाइल निकालकर ‘हैलो कुण?’’ कहकर अपने दोस्तों से बतियाने लगती है तो बजरंगी के इरादे भी बदल जाते है। न वह घर जाना चाहता है और न वह स्कूल। उसे भी ऐसा ही एक मोबाइल चाहिए। उसे पाने के लिए वह अपनी गायक मित्र मंडली के साथ मिलकर रामदेवरा घूमने की योजना बनाते है, ताकि खाने के लिए रामरसोड़े भी मिल जाए, साथ ही साथ घर वालों को एक सबक मिल जाए उस पर ताना मारने का। मगर उसके मन में तो मगनी का मोबाइल ही घूमता है। बजरंगी का मीठा कंठ होने के कारण उसके सत्संग आयोजन में अच्छा-खासा चढ़ावा मिल जाता है और अपने ‘मन-मंदिर’ में बिराजमान मगनी के मोबाइल खरीदने का दृढ़-संकल्प पूरा हो जाता है ओर पहला नंबर वह अमल करते हुए कहता है ‘‘हैलो मगनी, मूं बजरंगी।’’ इस कहानी में लेखिका ने जहां बखूबी से एक मजदूर परिवार के पोलिया-ग्रस्त बेटे के कोमल मनोभावों का सशक्त चित्रण किया है वही उसके कुछ कर गुजरने की हिम्मतवर्धन् के लिए मगनी का मोबाइल एक खास भूमिका अदा करता है। अगर आपके जीवन में कोई सार्थक, सकारात्मक उद्देश्य हो तो आप अवसाद की अवस्थाओं को पार करते हुए जीवन की कठिनाइयों का सफलता से सामना कर सकते हो। लेखिका ने मेवाड़ी शब्दों जैसे ‘जीमना पांव’ (दायां पांव), ‘नौरतां’ (नवरात्रि), ‘लीमड़े की लीली कामड़ी (नीम की हरी टहनी), ‘जातरूं’ (यात्री लोग), ‘चलो आज संज्या से पहले ही पूगा जाय’ (शाम से पहले पहुंचना), जैकारे (जय का उद्घोष), ‘मोड़ो होवै है’ (विलंब हो रहा हैं), ‘हेलो कुंण? मूं बजरंगी’ जैसे शब्दों व वाक्यांशों में आंचलिकता के प्रभाव की नई जान फूंकी है। वरन वहां के लोकजीवन, लोक-संस्कृति को हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रभावी शैली में प्रस्तुत किया गया है। विश्व के बड़े-बड़े साहित्यकारों का भी यह मानना है कि किसी भी रचनाकार को उसके अंचल से जुड़कर लिखना ही एक कालजयी कृति को जन्म देती है, जिस अंचल के आबोहवा ने उसके व्यक्तित्व निखारने के साथ-साथ उसकी सृजनधर्मिता की बंजरभूमि में नए-नए पौधों को लहलहाने के लिए अनुकूलित वातावरण प्रदान किया हो। कल्पनाशक्ति को आधार बनाकर किया जा रहा साहित्य सृजन एक जुगनू की तरह होता है, जो कुछ समय के लिए अवश्य रोशनी देता है, मगर फिर बुझ जाता है। साहित्य का ध्रुव तारा बनने के लिए आपको अपने अंचल पर अच्छी पकड़ होने के साथ-साथ यायावरी जीवन सर्वश्रेष्ठ लेखन को जन्म देता है। ऐसा ही सब-कुछ मिलता है डॉ.विमला जी के सृजन में।

‘पहली बार’ कहानी में लेखिका ने टेनिस खिलाड़ी सिलबट्टो को टी.बी. से लड़ रहे बीमार पिता के इलाज के लिए डाॅ. कान्ता प्रसाद (रेडियोलोजिस्ट) स्वयं सिलबट्टो के खेल से प्रभावित होकर उसके प्रशंसक बन पचास हजार रुपये उपहार में देकर उसे केवल भारत के लिए टेनिस में गोल्ड मेडल लाने की अपेक्षा रखते है। जबकि वह उसे मैच फिक्सिंग के लिए उकसाने वाला कोई कदम समझकर मन ही मन एक विचित्र अपराध-बोध के तले दबती चली जाती है। तरह-तरह की शंकाओं की काली छाया उसका पीछा करती है, उसकी रगों में खून सर्द होकर जमने लगता है। मगर जब वह डरते हुए लिफाफा खोलकर देखती है, तो डॉ॰कान्ता प्रसाद ने उसके नाम यह संदेश भेजा है कि तुम्हारा लक्ष्य देश के लिए गोल्ड-मेडल जीतना है, अपने पिता की सारी चिन्ता छोड़कर। वे शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेंगे। इस आधुनिक जमने में इस तरह की घटनाएं लाखों में एक आध ही होती है, यह सोचकर सिलवेनिया अर्थात सिलबट्टो ‘पहली बार’ अनुभव करती है कि कभी-कभी भगवान किसी की मदद करने के लिए तरह-तरह के रूप धारण कर प्रकट होते है। डाक्टर स्वयं मरीज पिता की रक्षा कर उसकी खुद्दार टेनिस खिलाड़ी बेटी का प्रशंसक बन कर मदद करने के लिए आगे आते हैं।

‘विश्वास’ कहानी में लेखिका ने एक सार्वभौमिक सत्य को एक उदाहरण के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए सुसाइड कर रही सुखबीर को बचा लेती है। वह सत्य यह होता है, विश्वास पर दुनिया कायम होती है। जब विश्वास टूट जाता है तो दुनिया खत्म हो जाती है। जो उदाहरण इस कहानी में आता है वह यह होता है। दुर्भिक्ष के समय में मां-बाप अपने बच्चों को घर में अकेले छोड़कर अपना जीवन-यापन करने के लिए कहीं दूर चले जाते हैं। यह आश्वासन/विश्वास दिलाकर कि वे उनके लिए रोटी लेने जा रहे हैं। जब वे छः-सात महीने बाद घर लौटते है, यह सोचकर कि बच्चे मर गये होंगे। मगर तब तक बच्चे जिन्दा थे। जब उन्होंने पूछा कि क्या वे रोटी लाये? जैसे ही मां-बाप ने मना किया, वैसे ही उनके प्राण-पखेरू उड़ गये। कहने का अर्थ यह होता है विश्वास पर ही दुनिया टिकी हुई होती है। इसी तरह सुखबीर को अपने पति को बिना बताए अपनी दीदी के साथ उसका मकान देखने चली जाती है तो उसका पति सामान पैक करके उसके पीहर पहुंचा देता है। इस कारण वह आत्महत्या करना चाहती है,मगर जब लेखिका का यह कथन कि अपने आपको निर्दोष साबित करने के लिए भी जीवित रहना पड़ता है, अन्यथा मरने के बाद कलंक को निर्दोष साबित करने का अवसर नहीं मिलता है। ‘‘मरने के लिए भी तुम्हें इतनी तत्परता, सुखबीर?’’ जैसे कठोर शब्दों का प्रयोग उस अवसादग्रस्त इंसान को यथार्थ धरातल पर लाने के लिए उपयुक्त प्रतीत होता है। किसी भी इंसान के मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने व जानने के लिए कुछ मूलभूत दार्शनिक विचारधारा को अपनाना जरूरी होता है, ताकि उसे विषय परिस्थितियों में भी साहसपूर्वक संघर्ष कर सकें। यही ही नहीं, लेखिका ने इस कहानी के माध्यम से पति-पत्नी के बीच विश्वास की मजबूत डोर बंधी रहने का आवाहन किया ताकि सुखमय जीवन बिताया जा सकें।

‘आरोह-अवरोह’ मनुष्य के मन के अंतर्द्वंद्व की स्थिति को प्रस्तुत करता है, जब वह अपने प्रिय परिजन से कभी बिछुड़ना नहीं चाहता है और एक समय ऐसा आता है कि वह उसे मुक्त कर दें, इनकी ये हालत मुझसे देखी नहीं जाती। ईश्वर से जीवन मांगना अगर आरोह है तो उसकी मौत मांगना अवरोह। जबकि दोनों ही अवस्थाओं में साक्षी एक है।

‘हूक’ कहानी एक मां के सीने में बारबार पैदा होने वाले दर्द का बयान करती है जब बेटा पहली बार घर छोड़कर बाहर पढ़ने जाता है तो बार-बार उसका मन बेटे के हाॅस्टल में रहने, खाने-पीने की सुविधा-असुविधा में उलझकर भीतर-ही भीतर एक हूक महसूस करती है। पिता के मरने के बाद बेटे के विदेश जाने का सपना टूट जाने पर जब वह आक्रोशित होकर अपनी मां से यह कहता है, काश! तुम्हारी व दीदी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर नहीं होती तो..... मैं भी किसी विदेश फर्म में काम कर रहा होता। इस प्रकार के कटु शब्द फिर से एक बार उसके हृदय में हूक को जन्म देती है। हद तो सबसे ज्यादा तब होती है, बेटा किसी काम से चीन गया होता है तो मां उसके बारे में सोचते-सोचते परेशान हो जाती है कि कहीं और किसी दूसरे आयोजन में तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह इंतजार करती रहती है, जितना जल्दी उसका बेटा लौटकर उसे मिलने आए? बेटा चीन से एक दिन पूर्व लौटता है तो मां के पास नहीं जाकर वह अपनी पत्नी व परिवार को ज्यादा अहमियत देते हुए अपने घर में रहना उचित समझता है। फिर से मां के हृदय में पैदा होने लगती हे ‘हूक’।

‘बड़े साईज की फ्राॅक’ एक ऐसे गरीब परिवार की दास्तान है, जिसे कमला जैसी छोटी-सी लड़की को अपने मां काली बाई के काम पर नहीं आने पर लेखिका के घर बर्तन साफ करने जाती है। जब वह उसे पढ़ाने की बात करती है तो वह उसे पैसे वालों का चोंचला बताती है तथा उनके लिए ज्यादा बच्चे पैदा करना तो भगवान की कृपा के साथ-साथ उन जैसे गरीब वर्ग के लोगों के लिए पैसा कमाने का एक खास माध्यम भी है। झाड़-फूंक, अंधविश्वास, अशिक्षा, गरीबी, अज्ञान, परिवार-नियोजन के प्रति अविश्वास आदि विषयों पर लेखिका की कलम ने खूब अच्छी तरह से अपने सकारात्मक उद्देश्य को उजागर किया है। लेखिका द्वारा दान में दी गई पुरानी बड़ी फ्राॅक में कमला बहुत छोटी तथा फ्राॅक बढ़ता हुआ नजर आ रहा था कि काश उसकी मां कालीबाई पहले ही आपरेशन करवा लेती तो उसकी असमय मौत नहीं होती और कमला के बचपन को ये दिन नहीं देखने पड़ते।

‘अचीन्हा स्पर्श’ में लेखिका ने जहां दर्शना के नगर अध्यक्ष का चुनाव जीतने के बाद लगातार सन्ध्या-समारोह, उद्घाटनों व मीटिंगों में देर रात तक व्यस्त रहने के कारण अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के तले अपनी छोटी बेटी नंदिता की न चाहते हुए भी उपेक्षा करने लगती है। उसे स्कूल जाने में तैयार करना तो बहुत दूर की बात उसके लिए कविता प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कविता चयन नहीं कर पाने के दुख से उसकी आंखें अकेले में इस अपेक्षा के कारण डबडबा जाती है कि आज उसके पास समय ही समय है मगर नंदिता बहुत दूर उच्च शिक्षा के लिए कब से हाॅस्टल जा चुकी है। और एक वह समय था कि स्कूल के कार्यों में नंदिता मदद मांगती थी, मगर समयाभाव के कारण मदद करना तो दूर की बात, बदले में जोर से वह थप्पड़ भी जड़ देती थी। इसी ‘अचीन्हा स्पर्श’ को पश्चाताप के रूप में लेखिका ने समाज के मूल्यों के प्रति जवाबदेही व महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के कारण हो रहे लगातार ह्रास को सामने लाकर किस तरह दोनों के बीच संतुलन बनाया जा सके, इस पर ध्यानाकृष्ट करने का प्रयास किया है।

‘मैं और तुम’ एक ऐसी कहानी है जो भारतीय समाज की यथार्थता को प्रस्तुत करती है कि पेट में गर्भधारण से लेकर लड़का और लड़की में किए जा रहे भेद-भाव, अंतर तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से लेखिका ने गर्भस्थ जुड़वा भ्रूण के जन्म लेने में एक लड़का व दूसरा लड़की बनने पर मां का दुग्धपान, पिता की उपेक्षा, दादी व नानी की नफरत व पक्षपातपूर्ण रवैये किसी तरह एक नवजात लड़की अपनी उदासी, खिन्नता व शिकवे-शिकायत को अत्यंत ही मार्मिक तौर से कथानक के रूप में सामने लाती है।

यद्यपि लिंगभेद पर हिन्दी साहित्य में बहुत कुछ लिखा जा चुका है मगर डॉ. विमला भंडारी की यह एक नूतन प्रयोग है, जो न केवल पाठकों के कोमल दिलों में एक विशेष स्पंदन पैदा करती है और साथ ही साथ आपको अपने इर्द-गिर्द समाज व परिवेश में जन्म से ही लड़कियों के साथ किए जा रहे भेदभाव के रेखांकन से रूबरू कराती हुई आपके मन में इस तरह के पक्षपातपूर्ण व्यवहार के प्रति टीस पैदा करती है। आधुनिक समाज में आज जहां लड़का व लड़की दोनों समान है, अगर उन्हें अपनी उन्नति के समुचित अवसर प्रदान किए जाए। दुनिया में शायद कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें महिलाओं ने अपनी अहम उपस्थिति दर्ज नहीं कराई हो।

इस तरह विमला भंडारी की सारी कहानियां जीवन की उन रहस्यमयी संभावनाओं को अभिव्यक्त करती है, जो एक के बाद एक परत-दर-परत खुलती हुई जीवन की प्रक्रिया के सतत सजीव होने का संदेश देती है। यह कहानी-संग्रह एक नारी हृदय के सुकोमल भावों को सिंदूरी रंग के कैनवास पर उकेरती हुई सारे रंगों जैसे क्रोध, लज्जा-भाव के अलग-अलग पलों को साफ-साफ पृथक करती है। इन कहानियों में जहां प्राकृतिक सुषमा का भरपूर वर्णन है, वहां उनकी कलम वीणा-वादिनी के गुंजायमान स्वरों, अनुभव व अभिव्यक्ति के सृजनशील परिधान पहनाकर ऐसे कथ्य व शिल्प को गढ़ती है जो न केवल वैदिक ऋचाओं की तरह श्रवण, मनन चिंतन द्वारा कालजयी होने की ओर अग्रसर होती है, वरन उनकी कहानियों की व्यापकता मानवीय मूल्यों को अंगीकृत कर ममता, आत्मीयता तथा स्थानीय आंचलिक रंगों को सारे ब्रह्मांड में प्रकीर्णित करती है।

पुस्तक: सिंदूरी पल

प्रकाशक: डायमंड प्रिंटिंग प्रेस, जयपुर

प्रथम संस्करण: 2012

मूल्य: 125 रूपए

ISBN: 13-978-93-82275-07-7

 

अध्याय :पाँच

नाटक

मां! तुझे सलाम

डॉ. विमला भंडारी के ऐतिहासिक नाटक (एकांकी) को पढ़ने से पूर्व मेरे मन में हमेशा यह ख्याल आता था कि उन्होंने इस एकांकी की रचना करने के लिए हाड़ी रानी जैसे महान ऐतिहासिक पात्रों को ही क्यों चुना? यह किताब पढ़ते-पढ़ते मुझे लु-शून जैसे महान चीनी समाजवादी लेखक की याद आने लगी, जिन्होंने अपने नगर का इतिहास लिखकर चीनी-साहित्य में जहां न केवल हलचल मचा दी थी, वरन वहां के तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक वातावरण में पुरातन गौरव को स्थापित कर एक अभूतपूर्व साहित्य-साधना को जन्म दिया। वैसे ही राजस्थान के गौरवमयी इतिहास के धुंधले पन्नों को नया जीवन प्रदान कर विमला जी ने ‘सलूम्बर का इतिहास’, ‘आजादी की डायरी’, ‘मां! तुझे सलाम’ जैसे दुर्लभ ग्रंथों की रचना कर आधुनिक समाज के सामने उन गौरव-गाथाओं को सामने लाने का सार्थक प्रयास किया। जो शायद ही विश्व के इतिहास में देखने को मिलें। आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा, जहां आधुनिक नारीवादी लेखिकाएं अधिकांश नारियों की दैहिक मुक्ति, यौनता व उलझे सामाजिक तानाबानों पर अपनी कलम चला रही है, वहीं विमला भंडारी जैसी समर्पित लेखिका न केवल बच्चों के मूल्य-बोध व सार्वभौमिक सत्य को अपनी सृजनधर्मिता से सामने लाने का प्रयास कर रही है, वरन उन ऐतिहासिक मूल्यों को आधुनिक दिग्भ्रांत पीढ़ी के सामने रख रही है, जिन पर उन्हें नाज होना चाहिए। जहां बड़े-बड़े लेखक, विचारक, दार्शनिक इतिहास को विकास में अवरोधक मानते हैं, वहां विमला जी भंडारी उन ऐतिहासिक उदाहरणों को सामने रख वैचारिक संवेदनशीलता को जगाते हुए बाहरी भौतिकी विकास की दिखावटी दुनिया को हमारी पीढ़ी के अंतस में प्रवेश करने से रोककर उसे पतनोन्मुख होने से बचा रही है। ओशो रजनीश ने कहा था, इतिहास पर भरोसा मत करो। इतिहास झूठा होता है, वर्तमान में जिओ। उन्होंने एक दृष्टांत दिया- मानो किसी दुमंजिला या तीन मंजिला इमारत से कोई आदमी या औरत कूद कर मर जाती है । उसके आत्मघाती पटाक्षेप को देखकर वहां अनेकानेक लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। अब आप उन लोगों की बातें सुनिए, कोई कहेगा ‘‘शायद उसे चक्कर आ गये होंगे।’’ या ‘‘शायद जहर खा लिया होगा।’’ पता नहीं, कितने-कितने तर्क-वितर्क। जितने मुंह उतनी बातें।। इस घटना को माध्यम बनाकर ओशो रजनीश कहते है, जो घटना कुछ मिनट पूर्व हमारे सामने घटित हुई उस पर लोगों के तरह -तरह के विचार, मंतव्य और अपना-अपना दृष्टिकोण। सिवाय मरने वाले के सही कारण कौन बता सकता है? एक दार्शनिक के तौर पर भले ही वह किसी मामूली घटना से इतिहास में ‘श्रुति विप्रतिपन्ना’ मानने की कोशिश कर रहे हो। मगर उनका विपरीत पक्ष भी सही है, एक दूसरे पहलू के रूप में। स्व. इंदिरा गांधी ने हमारे देश के बड़े-बड़े नामी गिरामी लेखकों व इतिहासकारों को बुलाकर अपने-अपने क्षेत्र के इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया और भारत के सारे इतिहास को एकत्रित कर किसी सुरक्षित जगह पर रखवा दिया, ताकि जरूरत पड़ने पर आने वाली पीढ़ी को अपने गौरवशाली इतिहास की जानकारी हो सकें। जहां आज इतिहास पर आधारित कई धारावाहिकों जैसे वीरपुत्र महाराणा प्रताप, चाणक्य, द स्वोर्ड आफ टीपू सुल्तान, झांसी की रानी, वीर दुर्गादास का निर्माण हो चुका है, वैसे ही हाड़ीरानी के शौर्य की गाथा पर कभी न कभी धारावाहिक या डोक्यूमंेटरी फिल्म बनेगी जो न केवल सलूम्बर व हाड़ीरानी के इतिहास को विश्व-पटल पर लायेगा, वरन विश्व के सामने अपनी आन-बान-शान की इज्जत मातृभूमि की रक्षा के लिए हिंस्र, हब्शी आक्रांताओं के अधीन हुए बिना भारत की हाड़ी व पदमिनी जैसी महान नारियां अपने प्राणों का उत्सर्ग कर अपनी शूरवीरता का परिचय देती है। मगर कभी-कभी बाजारवादी लेखक तथ्यों का बिना शोध -संशोधन किए अपने मनगढ़ंत किस्से जोड़कर उनकी विश्वसनीयता को दांव पर लगा देते है। जो कि किसी भी साहित्यिक कृति के लिए खतरनाक सिद्ध होते हैं एवं तरह-तरह के विवादों को जन्म देते हैं। ‘अकबर-जोधा’ फिल्म पर गहराए विवाद से आप सभी परिचित होंगे। फिल्म-निर्माताओं को केवल कथानक चाहिए और दर्शकों को लुभाने वाला परिवेश। इन ऐतिहासिक विषयों पर आधिकारिक विद्वान तभी हो सकते हैं, जब आपको उस विषय का गहन अध्ययन हो और साथ-ही-साथ उस परिवेश की आबोहवा आपके सृजन को स्पर्श कर रही हो। डाॅ. विमला भंडारी की सलूंबर में शादी होने के कारण वहां की ऐतिहासिक धरोहरों का दीर्घ काल तक अध्ययन करने, तत्कालीन राजघरानों से संबद्ध रखने वाले पीढ़ियों के वर्तमान जीवित सदस्यों से लगातार मुलाकात कर उनकी वंशावलियों की उपलब्ध जानकारी तथा शोधार्थियों से संपर्क स्थापित कर वहां के ऐतिहासिक माहौल की अविस्मरणीय घटना को लिपिबद्ध कर ऐतिहासिक नाटक ‘मां! तुझे सलाम’ (हिंदी) ‘सत री सैनाणी’(राजस्थानी) की रचना करने में लेखिका सक्षम हुई। ये दोनों किताबें पढ़ने से पहले मैं स्वयं दो बार विमला जी के घर सलूंबर गया। वह मुझे अपने घर से थोड़ी दूर स्थित रावली पोल में होते हुए सलूंबर के राजमहलो की ओर ले गई। इस महल के बायीं ओर की सीढ़ियां चढ़ दूसरी या तीसरी मंजिल पार करने पर एक कक्ष आया, वह कक्ष खुला हुआ था जिसमें प्लास्टर आफ पेरिस का एक प्रतिरूप पड़ा हुआ था। जिसमें शादी के लाल रंग के परिधान में सजी नव विवाहिता राजकुमारी के एक हाथ में खून से सनी तलवार और दूसरे हाथ में एक थाली और उसमें उसका कटा हुआ सिर। सामने वाली दीवार पर लाल-लाल खूनी हाथों के निशान। एक बार तो देखकर मन सहम-सा गया था। वह मूर्ति इतनी जीवंत थी, मानो अपने हाथ से सिर काटने की घटना अभी-अभी घटी हो। कुछ समय तक मैं वहां रुका, मगर फिर हिम्मत नहीं हुई कि उस कमरे में जाऊं। बस इतिहास की कुछ भयानक स्मृतियों के साथ नीचे उतर आया। मानो मेरी सांसें सामान्य होना चाह रही हो। मगर यह क्या, महल के परिसर में एक चबूतरे पर एक घुड़सवार योद्धा। पास में कोई सेवक थाली में लिए किसी नारी का मुंड, जिसे वह योद्धा उठाने का प्रयास कर रहा है। किसी भी संवेदनशील दर्शक के रोंगटे खड़े हो जायेंगे उसे देखकर। मैं स्तब्ध था। विमला जी उनके पति श्रद्धेय जगदीश भंडारी, बेटी और पोता साथ में थे। हमने वहां एक सामूहिक फोटोग्राफ अवश्य लिया, मगर बस में सलूंबर से सिरोही जाते समय वे इतिहास पुरुष मानो मेरी कल्पना में बातें करने लगे हो। रह रहकर ओडि़या कवि रमाकांत रथ की कुछ पंक्तियां याद आने लगी-  वह चेतना एक यादगार/हजारों हजारों साल पुरानी यादें/फिर लौट आ रही हो/ मरणोपरांत लोगों के दल जीवित होकर आ रहे हो/ धूपबत्ती के सुवास में/ मैं जो कुछ कहने जा रहा था/ वे सारे शब्द विलुप्त हो गए/ मेरे शैशव अरण्य के नीले कोहरे जैसे। मुझे मानो रावत चूंडावत कह रहा हो, ‘‘मैंने औरंगजेब की सेना को/ मार दिया है। हाड़ीरानी को मैंने ऐसी कोई निशानी नहीं मांगी थी कि वह मुझे छोड़कर चली गई। मैंने तो जैसे राम ने हनुमान के साथ अंगूठी भेजी थी, अशोक वाटिका में सीता को देने के लिए। बस, मेरे मन में सिर्फ ऐसा ही ख्याल था। मैं कोई अग्नि- परीक्षा लेना नहीं चाहता था हाड़ी रानी की। मगर....’’

कहते कहते रावत मानो स्मृतियों के धुंधलके में कहीं खोता चला जा रहा हो। तभी सामने राजकुमारी इंदर कंवर अर्थात हाड़ीरानी का अपने हाथ से सिर काटने वाला क्षण याद आने लगा। कैसा रहा होगा क्षण? क्या मानसिक स्थिति रही होगी हाड़ा रानी की? क्या लोक-परलोक के बारे में सोच रही होगी वह? क्या वह आगामी पीढ़ियों के सम्मुख सतीत्व का आदर्श रखना चाहती थी? या सरदार द्वारा शक किए जाने की आशंका ने उसे उस हद तक मर्माहत कर दिया निशानी मांगकर, कि उसने क्रोधवश में आकर तत्क्षण अपनी गर्दन काट दी? क्या वह आत्महत्या कर रावत को निरासक्त व वैरागी बनाना चाहती थी? मेरी आंखों के सामने दृश्य में जैसे ही वह अपनी गर्दन काटने जा रही थी, कोई कह रहा था, ‘‘रूको, ऐसा मत करो महारानी।’’ मगर महारानी के शौर्य ने किसी की नहीं सुनी। एक सेकंड के लिए भी नहीं। थाली में कटा हुआ उसका रक्ताक्त मुंड मानो हंसते हुए कह रहा हो, ‘‘मेरा जीवन धन्य हो जाएगा। मैं पहले ही सती हो गई। मेरी वजह से मेरी मातृभूमि म्लेच्छों की गुलाम हो, यह उसे कतई बरदाश्त नहीं था। मेवाड़ के राजा राजसिंह किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमति से विवाह कर उसे शरण देकर हिंदुओं की रक्षा करें, यही मेरी अंतिम इच्छा है।’’   मुझे नहीं समझ में आ रहा था, राजकुमारी को अपने घर में वीरता और सतीत्व के इतने उच्च संस्कार मिले होंगे या परिस्थितिवश अनियंत्रित क्रोध के कारण आगे-पीछे का सोचे बिना उसने यह पदक्षेप उठा लिया होगा। कुछ लागों की नजरों में वह अवश्य सनकी रही होगी। मगर मुझे उस घटनाक्रम में सनकीपन कतई नजर नहीं आ रहा था। वह यह जानती थी, औरंगजेब दिल्ली का शासक है। लंबी-चौड़ी उसकी सेना है। रावत रत्नसिंह चूंडावत का भयभीत होना मानवोचित्त था। मेघराज मुकुल की कविता ‘‘हाड़ीरानी’’ में उस व्यवहार को अनुचित नहीं ठहराता है। उन्होंने अपनी सृजनशीलता के आधार पर उस घटनाक्रम को अपनी राजस्थानी कविता में कलमबद्ध किया है, उसका कितना भी साहित्यिक हिंदी में अनुवाद क्यों न कर लो, वह मिठास, वह लहजा, वह भाषा, वह वीर-रस, दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, अनुवाद में सिवाय शाब्दिक अर्थ के। हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है:-

हाथों में थे मेंहदी के निशान

सिंदूर मांग में भरा हुआ

सातों फेरों की लिए आन

था शीशफूल दमदमा रहा

'कांगण-डोरा' कलाई में

चूड़ी सुहाग की लाल-हरी

चुनरी का रंग छूटा न था

बिछिया भी छम-छम रंग भरी

अरमान सुहाग रात के ले

क्षत्राणी महलों में आई

ठुमके संग ठुमक-ठुमक

छम-छम करती शरमाई

ले अमर मिलन की मधुर आश

प्यासी आँखों में लिए हेत

चूड़ावत ने खोला गठबंध

ली तन-मन की सुध-बुध समेट

शहनाई बज रही मधुर

महलों में गूँजा शंखनाद

अधरों पर झुके अधर पल भर

सरदार भूल गया आलिंगन

पड़ गया पीत राजपूती मुखड़ा

बोला,रण में नहीं जाऊंगा

रानी! तेरी पलकें सहला

मैं गीत प्रेम के गाऊँगा

क्या है यह उचित

शादी के बाद भी चैन नहीं

मेवाड़ भले हो जाए गुलाम

मैं और युद्ध नहीं जाऊंगा

बोली क्षत्राणी

हे प्राणनाथ ! न जाओ रण में आप आज

तलवार थमा दो मेरे हाथ

चूड़ियाँ पहन बैठे रहो घर में

कह कूद पड़ी वह सेज त्याग

आँखों में ज्वाला धधक उठी

चंडी बन गई क्षण भर में

विकराल भवानी भभक उठी

कहने लगी,

यह बात उचित है किस हद तक

पति को मैं चाहूँ मरवाना

पति तो मेरा कोमल-कोपल

फूलों-सा क्षण में मुरझाना

पहले तो कुछ न समझ सका

पागल जैसे बैठे रहा,मूर्ख

मगर बात समझ में जब आई

आँखें हो गई एकदम सुर्ख

ढाल कवच ले सीढ़ी उतरा

बिजली-सी दौड़ी रग-रग में

हुंकार उठी,बम-बम महादेव

ठक,ठक-ठक ठपक पड़ी घोड़ी

पहले रानी को हर्ष हुआ

फिर लगा जान-सी निकल गई

उन्मत-सी भागी महलों में

फिर टिके झरोखे बीच नयन

बाहर दरवाजे पे चूड़ावत

उच्चार रहा था वीर वचन

आँखों से आँखें मिली क्षण भर

सरदार ने वीरता दिखलाई

सेवक को भेजा रावले में

अंतिम निशानी मंगवाईं

सेवक पहुंचा अंतःपुर में

रानी से लेने सैनाणी

सहमी-सी रानी गरज पड़ी

बोली,कह दो -'मर गई रानी'

फिर कहा,ठहर! यह ले लेजा,निशानी

झपटकर खड्ग खींच डाली

कटा सिर सेवक के हाथों में उछला

सेवक ले भागा सैनाणी

सरदार उछल पड़ा घोड़ी पर

बोला,लाओ मेरी सैनाणी

फिर देखा,कटता हँसता हुआ शीश

बोला,रानी,रानी,मेरी रानी

तूने अच्छी दी सैनाणी

धन्य-धन्य तू क्षत्राणी

मैं भूल गया था रणपथ को

अच्छा स्मरण तूने करवाया

कहकर एड लगाई घोड़ी की

रण बीच भरते भयंकर नाद

और करते गर्जन भारी

अरि पर पड़ी गाज

फिर कटा शीश गले में डाला

बेनी की बना करके गांठ

उन्मत हो सुध-बुध बिसरकर

मुस्लिम फौजों को दल डाला

सरदार विजयी हुआ रण में

सारी दुनिया जयकार उठी,जय हो

जय हो रणदेवी हाड़ी रानी की !

भारत माता की जय हो

जय हो भारत माँ की !  

मेघराज मुकुल की कविता वह सारा चित्रण आंखों के सामने प्रस्तुत करती है, मनोभावों, परिस्थितियों तथा सामाजिक नियमों का यथार्थ चित्रण विमला जी ने अपने नाटक में किया है। तत्कालीन परिवेश में जाकर उन सभी चीजों को आत्मसात कर अपने हृदय की पीड़ा को विमला जी ने अपने नाटक में ऐसे उकेरा है, मानो वह प्रत्यक्षदर्शी बन सारे पात्रों की विवशता को अपने भीतर संवेदनात्मक अनुभव कर रही हो। इस नाटक में एक-एक वाक्य या वाक्यांश जो पात्रों के मुliiख से निकले तत्कालीन सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था, क्षत्रियों तथा उनकी पत्नियों के सुख-दुख को साफ प्रदर्शित करते हैं। ‘हाड़ीरानी’ के बारे में सोचते, सोचते मेरा ध्यान अचानक गोदावरीश मिश्र की कविता ‘कालिजाई’ की तरफ गया, जिसमें चिलिका झील पर रह रहा एक पिता अपनी बेटी की शादी किसी दूर-दराज जल के बीचों-बीच पारिकुद टापू पर करवाने का निश्चय करता है, वहां पहुंचते-पहुंचते अचानक ‘कालिजाई’ भयंकर आंधी तूफान के समय प्रचंड पवन प्रगल्भ लहरों के बीच अंतर्ध्यान हो जाती है, हजारों साल के बाद भी रहस्य का पर्दाफाश नहीं हो पाता है। भक्तजन उस पहाड़ के शिखर पर कालिजाई भव्य मंदिर बना देते हैं और यह पहाड़ ‘कालिजाई’ पहाड़ के नाम से विख्यात हो जाता है। मगर कुछ समय पहले ‘कालिजाई’ शीर्षक वाली एक दूसरी ओडिया कविता मुझे पढ़ने को मिली। कवियित्री थी ओडिया साहित्य के पितामह फकीर मोहन सेनापति की पोती मोनालिसा जेना। इस कविता में उन्होंने ‘कालिजाई’ को एक काले रंग की साधारण लड़की बताया है। जो मां-बाप की इच्छा के अनुरूप शादी नहीं करना चाहती है, इसलिए वहां जबरदस्ती शादी करवाने ले जाते समय चिलिका झील में कूद कर आत्महत्या कर लेती हैं। उसकी भटकती आत्मा की शांति के लिए शायद परिजन वहां एक मंदिर बनवा देते है और वह मंदिर ‘कालिजाई’ के नाम से विख्यात हो जाता है। मेरा कहने का तात्पर्य था कि एक ही कथ्य कथानक पर बनी कविता किस तरह से समय के सापेक्ष अपनी शैली, अपने भाव बदल देती है। ठीक इसी तरह, ‘हाड़ीरानी’ पर जुटाई कुछ इंटरनेट सामग्री में विरोधाभास नजर आता है, वह यह कि राव रतनसिंह चूंडावत मेवाड़ के राजा की खबर मिलते ही दिल्ली से आ रही औरंगजेब की सेना को रोकने के लिए चला जाता है, तीन-चार दिन बाद युद्ध लड़ते-लड़ते उसे हाड़ी रानी की याद सताने लगती है तो वह अपने किसी सेवक को उसके पास अपने प्रेम की निशानी लेने के लिए भेजता है। इधर मातृभूमि की रक्षा, उधर घर संसार। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रानी भावावेश वेश में आकर प्रेम निशानी के रूप में अपना सिर काटकर भेज देती है। खैर, जो भी कारण या परिस्थितियां रही हो। सवाल उठता है, आत्म बलिदान का? एक क्षत्राणी अपने क्षात्र-धर्म को निभाते हुए अपने रण भूले पति को रण की याद दिलवाने के लिए यह कदम उठाती है। अदम्य साहस की आवश्यकता पड़ती है ऐसे बलिदान के लिए। भारत की धरती ऐसे शूरवीरों व वीरांगनाओं को पाकर गौरवान्वित है। कभी-कभी सोचने पर ऐसा लगता है, वह भी कोई समय रहा होगा, जब सीता को जगत जननी माना गया होगा और एक समय यह है जब सीता को अपने कायर पति राम द्वारा प्रताड़ित साधारण नारी माना जाता है।इस संदर्भ में अपर्णा महांति ने अपनी कविता ‘नष्ट नारी’ में युगों-युगों से नारियों पर तत्कालीन सामाजिक बंधनों और रीति-रिवाजों के नाम से हो रहे अत्याचार व शोषण को दर्शाया है।

अपर्णा

पहचानो

एक साधारण नारी के

हस्ताक्षर

पलक झपकते ही

मिटाने से मिट जाएंगे

पढ़ने बैठोगे तो पढ़ते रह जाओगे

युग-युग तक

आदिकाल से आज तक

कितनी माया, कितना मोह

कितना दाह, कितना द्रोह

कितने आंसू, कितना लहू

इतिहास के सजीव शिलालेखों में

कलात्मकता से अंकित

कई साहसी नष्ट-नारियों

के कुछ अक्षर

तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के सामने

दुर्गा के निर्वस्त्र होने से लेकर

अहिल्या का पत्थर बनना

सीता की अग्नि-परीक्षा

और पाताल में प्रवेश

पांचाली का जुए में बाजी लगाना आदि

जाने सुने असाधारण असहायता के उदाहरण।

ऐसी ही एक कविता शुभश्री मिश्रा की ‘अग्नि कन्या’

मैं नहीं वीभत्स पांचाली

न पाषाण अहिल्या, न प्रताड़ित सीता

न ग्राम-वधू की जलती चिता

न ही हाड कंपाती शीत रात में

राजपथ की बलात्कृत निर्भया

मैं अग्नि-कन्या

मैं अग्नि-कन्या।

जबकि लेखिका विमला भंडारी ने इस अनोखी शौर्य गाथा को भ्रूण हत्या जैसी आधुनिक कुरीतियों से जोड़कर समाज को सचेतन करने का प्रयास किया है, कि अगर हम भ्रूण-हत्या करते हाड़ी जैसी देशभक्त, साहसी क्षात्रधर्म को निभाने वाली कन्याओं को इस धरती पर नहीं आने देंगे और इससे न केवल लड़का-लड़की का संतुलन बिगड़ेगा वरन् सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाली प्रथाओं का समाज में बढ़ावा देकर जघन्य आपराधिक पृष्ठभूमि वाला खाका हम तैयार करेंगे अपने आने वाली पीढ़ियों के लिए।यह नाटक छः भागों में लिखा गया है, जिनमें बूंदी राज्य, सलूंबर, किशनगढ़, मेवाड़ राज्य की विरासतों, उनके ठिकानों और राजमहलों के दृश्यों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों खासकर विवाह के गीत, मंगलाचरण, सुहागरात तथा संवाद के माध्यमों का लेखिका की सशक्त कलम से जीवंत वर्णन किया गया है। नाटक के ओजस्वी संवादों के रूप में। दोनों बारी-बारी राजस्थान की धरती, उज्ज्वल संस्कृति, प्राकृतिक सौंदर्य, विरासत में मिले शूरवीरों देश-प्रेम और बलिदान के उदाहरण राणा सांगा, महाराणा प्रताप तथा वीरांगनाओं की शक्ति और भक्ति के अनुपम उदाहरण में पन्ना धाय, मीराबाई, पद्मिनी और हाड़ी रानी के जीवनवृत्त के माध्यम से दिग्भ्रमित नई पीढ़ी को हमारी पुरातन पहचान व गौरव को याद दिलाकर हमारी ऋषि संस्कृति के आदर्शों तथा आन-बान-शान के लिए वतन पर मर मिटने वालों को इतिहास के गवाक्षों में झांकने के लिए प्रेरित करती है। यहां तक कि राजस्थानी के प्रसिद्ध कवि का निम्नलिखित दोहा चरितार्थ होता है-

जनकपुरी बीच सौ गुणी, नगर सलूंबर बात

हाड़ी निज सिर तोडियो, धनु तोडियो रघुनाथ।

इस दोहे के अनुसार सलूंबर का माहात्म्य जनकपुरी से सौ गुणा ज्यादा है, क्योंकि वहां तो भगवान राम ने केवल शिव धनुष तोड़ा था किन्तु यहां तो हाड़ी जी ने अपने निज हाथों से सिर काटकर भेज दिया। यहां चारणी अपने संवादों में सीता की तुलना हाड़ी से करते हुए कहती है अगर हाड़ी का दशानन अपहरण कर लेता तो वह उसके दसों सिर काटकर फेंक देती। यह बात चार सौ साल पुरानी होगी, जब सलूंबर ठिकाने पर चूंडावत वंश और बूंदी पर हाड़ा वंश राज्य किया करते थे। उस समय हाड़ा राव की सोलह वर्षीय बेटी इन्द्र कंवर की शादी सलूंबर के रावत रतनसिंह के साथ होती है। सलूंबर एक ऐसी सुंदर जगह है जिसकी रक्षा उसके चारों तरफ बने ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर माता सोनारी करती हो, पास में कल-कल करती नदी सरनी प्रवाहमान हो तथा चित्ताकर्षक सैरिंग तालाब के किनारे शान से खड़ी ‘रावलीपोल’ और उसके बीचो-बीच जनाना महल हो। इस तरह लेखिका ने अपने शैक्षिक अनुभव जन्य ज्ञान ओर ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर नाटक का शुभारंभ राजस्थान की लोक-पारंपरिक संस्कृति के अनुरूप चारण-चारणी के प्रोजेक्टर से अध्यारोपित हो रहे संवादों के माध्यम से शुरू किया है, जो न केवल पाठकों में अनवरत जिज्ञासा पैदा करता है वरन वहां की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक व ऐतिहासिक वंश परम्पराओं की पृष्ठभूमि को आत्मसात करने के लिए बाध्य करता है।

भाग-1

नाटक के प्रथम भाग में लेखिका ने बूंदी के राज्य के बारे में वर्णन किया है, जिसमें विशेष संवाद हाड़ा राव, जयसिंह, राजकुमारी व राजमाता के है। इसके अतिरिक्त थोड़े-बहुत संवादों में राजगुरू, राजपुरोहित, राजवैद्य, धायमां, कवि, ज्योतिष, भाई-भाभी, सरदार ओर सखियां है। दृश्य की शुरूआत होती है, बूदी के राजमहल में सिंहासनरूढ़ हाड़ाराव तथा उनके खचाखच भरे दरबार में विशेष अतिथि उनके साला जी जयसिंह जी की उपस्थिति में कवि की रामरस युक्त कविता से। राम-भक्ति का यह प्रसाद उन्हें अपने पूर्वज काव्य- प्रेमी और विद्वानों के आश्रयदाता महाराव बुद्धिसिंह जी से मिला था। सत्यवादी हरिश्चंद्र के नाटक में उपसंहार में कुछ पंक्तियां दोहराई जाती थी-‘‘सूर्य टले, चन्द्र टले, टले सकल संसार’’ पर टल नहीं सकते राजा हरिश्चंद्र की शपथ व संकल्प। ठीक इसी तरह जयसिंह जी अपनी बात रखते है-

‘‘गाड़ा टले पर हाड़ा न टले।’’

यहां गाड़ा का अर्थ बैलगाड़ी से है होता है। अर्थात् हाड़ा किसी भी अवस्था में अपने वचनों से नहीं मुकर सकते। कुछ इस तरह की औपचारिक बातें चलने के बाद जयसिंह जी और हाड़ाराव जी अपनी सोलह वर्षीय बेटी राजकुमारी इन्द्र कंवर की शादी के बारे में चिंतन-मनन करने लगते हैं। तो जयसिंह जी उन्हें सलूंबर ठिकाने के प्रथम श्रेणी के पाटवी मेवाड़ी सरदार रावत रघुनाथसिंह जी के पुत्र रतनसिंह जी को उसके योग्य वर बताकर उनके नाम पुरोहित से लगन-पत्र लिखवाकर हल्दी-कुमकुम के पीले छींटे लगवाकर भेजने का प्रस्ताव देते हैं। यह बात जब राजकुमारी को पता चलती है, तो धाय मां से इस बात की सच्चाई जानना चाहती है। महल के मुख्य द्वार पर ढ़ोलनियों को विरद विनायक गाते व राजमहलों में रणत भंवर को न्यौते की तैयारियों को प्रमाण बताते हुए धाय मां उसके विशेष शृंगार हेतु राजमाता (मां सा) द्वारा उसे दिया गया विशेष आदेश बताती है। उसी दौरान सखियों द्वारा मेंहदी लगाना, बूटा बनवाना, ढोल नगारों के चित्र, चुंदड़ी भर बताशे भरना, फूल और बगीचे के मांडने बनवाने की तैयारी शुरू हो जाती है। यह सब देखकर राजकुमारी अपनी मां से इस बारे में बात करती है। अपने हृदय के टुकड़े को दूर भेजने की सोचने मात्र से पिता की आंखों में आंसू आ जाते हैं। इस तरह के संवेदनशील वार्तालाप के माध्यम से लेखिका ने बिछोह के उस दुख का मार्मिक वर्णन किया है, जिसे लड़की के मां-बाप को अपने जीवन में कभी न कभी करना ही पड़ता है, न चाहते हुए भी। इसी दौरान भाई-भाभी भी उसे मिलने वहां आ जाते है, तभी बात करते-करते राजकुमारी को बिच्छू डंक मार देता है। महल में कोहराम छा जाता है। तभी राजवैद्य को बुलाया जाता है तो वह कांटा खींच कर बाहर निकालते है और दवा-पेटी खोलकर मलहम लगा देते हैं। राजकुमारी के मेंहदी वाले पांव पर बिच्छू का डंक मारा हुआ देख एक सरदार कह उठता है कि सगुन ठीक नहीं हो रहे हैं शादी के लिए। सगुन के फल की जांच करने के लिए हाड़ाराव ज्योतिषी को बुलाते है, तो वह नक्षत्रों की गणना के अनुसार सलूंबर के यशस्वी रावत रतनसिंह जी के साथ उल्लासपूर्वक शादी करवाने की सलाह देता है, मगर जब हाड़ाराव उसे मेंहदी के दिन ही बिच्छू काटने के बारे में बताते है तो वह पंचांग के अनुसार दो वर्ष विवाह रूकवाने के लिए कहते हैं, ताकि कठिन ग्रह गोचर सूर्य बुध के साथ राहू के विचित्र योग के दुष्प्रभाव से बचा जा सके। मगर तब तक तो पीला कागज जा चुका होता है ओर ऐसे भी ‘गाड़ा टले पर हाड़ा नीं टल।’ इस अवस्था में ज्योतिषी जी अनर्थ ग्रह गोचर के कारण पति पक्ष की हानि और स्व-कीर्ति में वृद्धि की होने वाली अटल स्थिति की वजह से राजकुमारी को वीरांगना के चरित्र शिक्षा व वीतराग के दोहे सुनाने के लिए हाड़ा से अनुनय करता है, क्योंकि ऐसे लग्नेश में पति की कीर्ति पर थोड़े समय के लिए ग्रहण अवश्य लगता है। यद्यपि आज भी भारत के लगभग हर प्रांत में पंचांग देखकर ज्योतिष फलन का आकलन करना विद्यमान है, मगर लेखिका के सिद्धहस्तों ने चार सौ साल पुराने अतीत में जाकर तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं में ज्योतिष की महत्ता को उजागर करते हुए उनके सही परिणामों की पुष्टि होने के तथ्य को सामने लाया है। जिससे न केवल नाटक में जिज्ञासा जन्म लेती है, वरन पात्रों की रोचक गतिशीलता एक अध्याय से दूसरे अध्याय में अनवरत बनी रहती है।

भाग - 2

भाग - 2 में लेखिका हमें सलूंबर के महलों की ओर ले जाती है, जहां रावत रतनसिंह के पिता रघुनाथ सिंह अपनी रानी सोहन कंवर से महलों की छत पर कबूतरों को मक्की का दाना चुगाते-चुगाते अपने अंतर्मन की व्यथा को प्रकट करते हैं कि कभी किसी जमाने में उदयपुर के राणा राजसिंह उनके बचपन के साथी हुआ करते हैं, यहां तक कि अपने हाथों से उन्हें मेवाड़ की गद्दी पर वे बैठाते है और उदयपुर के राणा उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे मगर सिंहासन से चिपके चापलूसों ने उनके मन में विष-वृक्ष के बीज बो दिया है। अन्यथा डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, मालपुरा और देवलिया जैसी जगहों को जीतने का यश देना तो दूर की बात सलूंबर की जागीर का पट्टा भी किसी दूसरे राव के नाम उदयपुर के महाराणा राजसिंह लिख देते हैं। इन्हीं संवादों के मध्य बड़ी साफगोई से लेखिका ने चाकरी शब्द का तात्पर्य समझाया है, जब सेनापति कुछ कारण अपने खेमे छोड़कर दुश्मन की सेना में जुड़ जाते थे, जहां उन्हें उचित सम्मान दिया जाता था। ऐसा ही सम्मान रघुनाथ सिंह जी को दिल्ली दरबार की चाकरी करते समय औरंगजेब ने एक हजारीजात और तीन सौ सवारों का मनसब प्रदान किया था। मगर उस चाकरी में गुजरे हर पल उनकी आत्मा धिक्कारती थी, इसलिए वह बादशाह की नौकरी छोड़कर चले आए थे। लेखिका के राजकीय प्रबंधन से संबंधित निम्न वाक्य यथार्थता को दर्शाते है- ‘

‘सिंहासन के साथ तो चापलूस चिपके ही रहते है। राजा को चाहिए कि वह दूध और पानी को अलग रखे।’’

‘‘राज्य कार्य में रात और प्रभात नहीं देखी जाती वाघैली जी। जरा-सी चूक हो जाने से बहुत-कुछ चुक जाता है। धरणी का धनी बनना इतना आसान नहीं है।’’

उपरोक्त संवादों का अगर विश्लेषण किया जाए तो आप पाएंगे कि लेखिका की दार्शनिक सोच अत्यंत ही उच्च कोटि का है, जो न केवल चार सौ साल पुरानी रजवाड़ों की राजनैतिक व्यवस्थाओं की पारदर्शिता को पाठकों के सम्मुख लाती है, वरन आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू होने वाली उन उक्तियों को पूर्णरूपेण प्रभावशाली शैली में शिक्षा के रूप में प्रतिपादित करती है। रावत और रानी में आंतरिक विचार-विमर्श के दौरान पुत्र रतनसिंह का प्रवेश होता है, जिनकी वे शादी कर सलूंबर का रावत बनाना चाहते हैं। तभी बूंदी से राजकुमारी इंदर कंवर की शादी का पीला कागज लिए दो आगंतुकों का प्रवेश होता है, जिसे रावत खुशी-खुशी स्वीकार कर लेता है और रतनसिंह की शादी की तैयारी की जाने लगती है। इस हेतु कंकु पत्रियां तैयार की जाने लगती हैं।इसी भाग के अगले दृश्य में वर निकासी दिखाई जाती है। एक वर निकासी दिखाई जाती है। एक वर की साजो-सज्जा का लेखिका ने काफी खूबसूरती से वर्णन किया है। नाहरमुखी मूठ की तलवार, सोने की नक्काशी युक्त लाल रंग की मखमल से जड़ी मोती जड़ी म्यान, गैंडे के खाल की ढ़ाल, हल्के गुलाबी रंग की शेरवानी, जरीदार सुआपंखी कमरपट्टा, सतरंगी मोठड़ा (साफा), मोतियों से जड़ी मोजड़ी , गले का कंठी माला, पहुचिया, चन्द्रहार, चंद्रमा, बीठिया, लंगर जैसे आभूषण आदि के वर के शृंगार का जीवंत वर्णन लेखिका ने किया है। सााथ ही साथ, सारा लवाजमा जैसे बिछौने की जाजम, तम्बूओं के डेरे, अस्त्र-शस्त्र, अतिथियों के ठहरने-खाने का प्रबंध सभी कुछ। हाथियों की झूलें और उनके हौद, घोड़े पर जीण, उनकी सजावट और आभूषण, ऊंटों पर रंग रंगीले गौरबंध, बैलों के रथ उनके सिंघों की चमचमाहट और घुंघरू की रूनझुन, नगाड़े और सारंगी की जुगलबंदी, घूमर जैसे नाच-गाने की व्यवस्था आदि से ऐसा दृश्य आंखों के सामने प्रस्तुत होता है, मानो एक शक्तिशाली ऐश्वर्ययुक्त राजपुरूष अपनी बारात लेकर निकला हो। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से युक्त रंग रंगीलो राजस्थान की याद दिलाते हो और साथ ही साथ सुसंस्कार की भी। जैसा कि वेदों में भी विवाह को सोलह संस्कारों में एक उत्तम संस्कार माना गया है, वैसे ही रावत रघुनाथ जी अपने बेटे को शिक्षा देते है-

‘‘विवाह सोलह संस्कारों में से एक खास संस्कार है पुत्र। जीवन का सबसे मीठा और रसीला संस्कार है। पितरों का ऋण उतारने तथा अपने वंश की बेल बढ़ाने का पवित्र संस्कार। दो परिवारों के बीच आत्मीय संबंध का। दो आत्माओं के मिलन का। ब्याह की भी अपनी मर्यादा होती है।’’

इस तरह लेखिका ने आधुनिक सभ्यता में ह्रास होते सामाजिक मूल्यों की तरफ नई पीढ़ी का ध्यान आकृष्ट किया है। उसके साथ-साथ, मायरे की प्रथा, पीठी का दस्तूर,घीमरी पिलाने का रिवाज तथा शादी के लिए जाते समय मां का स्तनपान जैसे सामाजिक नियमों के प्रति सम्मान, आस्था और विश्वास का प्रदर्शन करते हुए लेखिका किसी भी शादी-शुदा जीवन के उज्ज्वल भविष्य की कामना करने वाले प्रतीकों को स्पष्ट करती है। मां अपने स्तनपान करते बेटे से कहती है, ‘‘मेरे दूध की लाज रखना, उसे लजाना मत। उसे उज्ज्वल रखना।’’

इस प्रकार के संस्कार केवल पारिवारिक पृष्ठभूमि से ही मिल सकते है इसलिए तो परिवार को शिशु की प्रथम पाठशाला कहा जाता है। इस प्रकार लेखिका ने राजस्थानी राजघरानों के पारिवारिक व सामाजिक मान-मर्यादा, रीति-रिवाजों का गहन अध्ययन कर उन्हें अत्यंत ही प्रभावोत्पादक भाव से समझते हुए पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

भाग - 3

इस नाटक के भाग - 3 में सलूंबर के रावत रतनसिंह जी की बारात का बूंदी के राजमहलों में पहुंचने का दृश्य है। घोड़ो की टाप, नगाड़ों के स्वर, तेजस्वी वर का ओजस्वी व्यक्तित्व व सुन्दर शृंगार। तोरण द्वार से वर का आगमन, वधू का विवाह-मंडप में प्रवेश। ढोल, शहनाई और महिला संगीत के शुभ मांगलिक वातावरण में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ दूल्हा-दूल्हन के सात फेरे पूरे होते हैं। ‘रखड़ी-शीशफूल(सिर पर बांधने वाला गहना), हथलेवा(पाणिग्रहण), डायचा(दहेज)’ जैसे आंचलिक शब्दों का प्रयोग कर लेखिका ने अपने लेखन में नवप्रयोग किया है, जो पाठकों को राजस्थान की संस्कृति की तरफ बरबस आकर्षित करती है। राजस्थानी महिला संगीत तथा राजपुरोहित के संस्कृत मंत्रोच्चारण दृश्य को सजीव बना देते हैं।

भाग - 4

इस भाग में लेखिका किशनगढ़ राज्य की ओर पाठकों को ले जाती है। जहां एक पनघट पर ननद भाभी के बीच में हंसी-मजाक होती है, तभी कुछ घुड़सवार वहां से गुजरते है और पानी पीने के बहाने उनका चेहरा देखना चाहते हैं। उनका सुंदर चेहरा देखकर वह कह उठता है अब मुझे पता चला कि हमारे बादशाह ने रूपनगर की राजकुमारी को अपना दिल क्यों दिया! लेखिका यहां नेपथ्य के माध्यम से कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करती है, किशनगढ़ और रूपनगर के स्वामी रूपसिंह जी राठौड़ का स्वर्गवास हुए कुछ दिन बीते है और उनका पांच-सात वर्षीय लड़का मानसिंह पीतांबर ओढ़कर राजा रूपसिंह रचित भजन पर आंखें बंदकर आरती कर रहा होता है, तभी वे घुड़सवार दूत औरंगजेब बादशाह का पैगाम लेकर पहुंचते हैं, वहां की राजकुमारी चारूमति से अपना विवाह रचने का। यह संदेश सुनकर किशनगढ़ के सुकुमार राजा मानसिंह के हृदय में हलचल पैदा हो जाती है। अगले दृश्य में राजमाता, गुसांई और भट्टजी के बीच वार्तालाप होती है। राजमाता वैष्णव भक्त महाराज रूपसिंह जी की मृत्यु से उद्विग्न होकर सत्संग करवाना चाहती है। बीच-बीच में महाराजा की वीरता का उल्लेख करते हुए भट्टजी कहते है कि उन्होंने कंधार(वर्तमान अफगानिस्तान) और बलख(वर्तमान बलूचिस्तान) जाकर दिल्ली राज्य की जय पताका फहराई थी। उसके लिए औरंगजेब द्वारा वर मांगने पर सिकंदर लोदी के समय किसी बड़े चित्रकार द्वारा बनाई गई महाप्रभु की तस्वीर मांगी थी। किशनगढ़ में वैष्णव भक्ति का प्रचलन इस राज्य के संस्थापक महाराज किशनसिंह जी के समय से थी, जिसका वर्णन छप्पन भोग चंद्रिका में मिलता है। यह आध्यात्मिक चर्चा चल रही होती है कि बालक राजा मानसिंह दिल्ली के शाही हुक्म पर चर्चा करने के लिए राजमाता के पास आते है और सब कुछ सविस्तार बता देते हैं। राजमाता को यह सुनकर बहुत दुख लगता है, कि जिनके पूर्वजों ने दिल्ली तख्त की भरपूर सेवा की हो, वह बादशाह आज कृतघ्नता पूर्वक बालक राजा समझकर उसकी बेटी समान राजकुमारी से विवाह रचना चाहता है। राजमाता मानसिंह को युद्ध करने का आदेश देती है, मगर दीवान, प्रधान और सेनापति मिलकर ऐसे संकट की घड़ी में मेवाड़ राज्य की सहायता लेने की सलाह देते है। ‘मरो या विवाह करो’ के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं दिखता है। दिल्ली की सेना किशनगढ़ की सेना से बहुत ज्यादा होती है, इस अवस्था में वे लोग घर, खेतों में, गांव में आग लगाकर निहत्थी प्रजा को गाजर मूली की तरह काट सकते हैं। यह सोच राजमाता अपनी राजकुमारी चारूमति का विवाह बादशाह से कर देना चाहती है, मगर चारूमति विद्रोह कर देती है यह कहकर कि इज्जत ही स्त्री का सबसे अमूल्य धन होता है उसे मरना मंजूर है, मगर किसी भी अवस्था में बादशाह के साथ शादी नहीं करेगी। उसे रानी पद्मिनी का जौहर याद आ जाता है, और वह जहर खाकर प्राण उत्सर्ग करना चाहती है। तभी एक दासी हस्तक्षेप कर उसे धीरज से काम लेने की सलाह देती है। तरह-तरह की बातें याद कर, कभी पद्मिनी और रतन सिंह तो कभी कृष्ण और रुक्मिणी की प्रेम-लीला, वह विक्षिप्त-सी हो जाती है। जब उसका भाई मानसिंह मेवाड़ से सहयोग लेने के लिए पत्र लिखने की बात कहता है, तो उसे याद हो आता है कि अगर वह मेवाड़ सम्राट राजसिंह से विवाह कर ले तो उसके रक्षार्थ सूर्यवंशी राजा से भला और कौन बेहतर हो सकता है? यही दृश्य पर पर्दा गिर जाता है।

भाग - 5

भाग - 5 में मेवाड़ का राज्य दिखाया गया है, जिसमें तीन दृश्यों व सातवां(महाराणा राजसिंह के बारे में), आठवां(पधारो म्हारे देश) और नौवां(चारूमति की अर्जी) वर्णन है।

सातवें दृश्य में युद्ध-शिविर में मशाल लिए सादे वस्त्रों में महाराणा राजसिंह घायलों का निरीक्षण करते नजर आते हैं। घायलों को देखकर जब अरिसिंह दुश्मनों का रक्त पिपासु हो जाता है, तो महाराणा राजसिंह युद्ध-विराम के बाद शस्त्रघात करना युद्ध की मर्यादा के खिलाफ मानता है। तभी हरकारा चित्रकुट की एक विशेष खबर लेकर आता है कि गुरू श्रेष्ठ ब्राह्मण भट्ट मधुसूदन जी ने बादशाह के मंत्री शार्दुलखां से भेंट की और राणा प्रताप के काल की दुहाई देते हुए कहा कि उस समय शक्तिसिंह और रावत मेघसिंह मेदपाट(मेवाड़) से दिल्ली पहुंचे और दिल्लीपति ने उन्हें लवाजमा बख्शा और वे लोग मेवाड़ लौट आए। तब शार्दुलखां ने आपके घुड़साल के घोड़ों की गिनती के बारे में उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया बीस हजार। यह सुनकर खान खुश हुआ और कहने लगा कि बादशाह के पास तो एक लाख घुड़सवार है। तब भट्ट ने कहा महाराणा के बीस हजार घुड़सवार दिल्ली के एक लाख घुड़सवार के तुल्य है। यह सुन अरिसिंह महाराणा की तारीफ में कह उठता है, ‘‘आपकी तुलना राजा रामचन्द्र जी से की जाती है। भारत की चारों दिशाओं में मेवाड़ की विजय पताका फहरा रही है। अश्वमेध यज्ञ करने के बाद संवत 1714 के वैशाख सूद दशमी के दिन से आपकी विजय यात्रा चारों दिशाओं में जारी है। पूर्व में अंग, कलिंग, बंग, उत्कल, मिथिला,  गौड और दक्षिण में कोकण, कर्णाट, मलय, द्रविड़ चोल पश्चिम दिशा में सेतुबंध, रामेश्वर से लेकर लंका तक और गुजरात के सौराष्ट्र, कच्छ जीतने के बाद उत्तर-दखिण में कंधार, बलख आदि सीमा पर्यन्त तक आपकी विजय गाथाएं गाई जा रही है।"

मगर महाराणा राजसिंह प्रसन्न नहीं होते हैं। उनका मन युद्ध की विभीषिका देखकर सम्राट अशोक की तरह दुखी हो उठता है। जिस तरह प्रसिद्ध ओडिया कवि पदमचरण पटनायक ने अपनी कविता ‘‘धवलगिरि’’ में सम्राट अशोक की मनोव्यथा को प्रदर्शित किया है-

अदम्य साहस से लड़ी कलिंग संतान

शत्रु-संग भरकर अपने बाजुओं में बल

हजारों हजारों शव गिरे कटे पड़े भूतल

दिखने लगा लाल, दया नदी का जल

विजय उल्लास में अशोक राजन

गिनने लगा शत्रुओं की गर्दन

धवलगिरि

धीरे से उसके कान में तुमने क्या

********

‘‘कैसा युद्ध? कैसा युद्ध’’ कहां आ गया मैं

फंस गया घोर जिगीषा जाल में

ये सब पाप मैंने किया किसलिए?

खून की नदिया बहा दी थोक

अब कैसे मिटेगा मेरा जीवन-शोक?

कितने जीवन को चिंता में झोंक दिया!

कितने प्राणियों का मैंने संहार किया!

कितने देशों को मैंने श्मशान घाट बना दिया!

कितने सुख-महलों में मैंने आग लगा दी!

कितने जीवों को मैंने भयभीत कर दिया!

कौन-सी पिपासा के साथ लिया मैंने जन्म

हुई नहीं जो काल-कालांतर में खत्म

सारा जीवन हुआ व्यर्थ अशांत

होकर असार आशा मधुर भ्रांत।

ऐसे ही ख्याल महाराणा के मन में आ रहे थे। घायल वीर सिपाहियों को देखकर मन में उल्लास नहीं था। माटी रक्त से लाल हो गई। लाशों के पर्वत चुन गए। कितने घर उजड़े। कितने घर चूल्हा नहीं जला। कितनी गोद आज सूनी हो गई। कितनी मांगे उजड़ गई। कितने बच्चे अनाथ हो गए। यह सोचकर महाराणा राजसिंह युद्ध से छुटकारा पाने के उपाय के लिए मोक्षीमां से सलाह लेते है। वह अपने मन की बात मोक्षीमां को बताते है, ‘‘प्रजा के लिए जलाशय बनवाना चाहते है ताकि अकाल के समय प्रजा प्यासी न रह सके। प्रजा प्रसन्नचित्त त्यौहार मना सके। राज्य में उत्सवों की धूम हो, कलाकार अपनी साधना में लीन रहें। मैं धर्म और भक्ति में डूबा रहूं। मुझे राणा कुंभा जैसा सोने का मेवाड़ चाहिए।’’

मोखीमां राजसिंह को मनोरथ पूर्ण होने का आशीर्वाद देती है। तभी हरकारा फिर प्रवेश करता है और दारा शिकोह के पराजित होने ओर औरंगजेब के दिल्ली की गद्दी पर बैठने की सूचना देता है। साथ ही साथ, हिन्दुओं पर जजिया कर, गुजरात में लूट, मारकाट, खून-खराबा और मूर्तिभंजन। यह तो आपका प्रताप है कि गोवर्द्धन के द्वारकाधीश को कांकरोली में स्थापित करने की आपने इजाजत दी। आपकी विजय से सारा मेवाड़ खुशी से जगमगा रहा है।

आठवें दृश्य ‘पधारो म्हारे देश’ में उदयपुर में महाराणा के आगमन की तैयारी को दिखाया गया है। नगर द्वार तोरणों से सजा हुआ। चंग की थाप पर नाचती हुई स्त्रियों के समूह, घुंघरू की रूनझुन। हंसी-ठिठोली। तभी बांकी मूंछों वाले मारवाड़ की वेशभूषा पहने पगड़ी बांधे, ऊंट पर सवार युवक का मेवाड़ राज्य में प्रवेश होता है। वहां का उत्सव वाला माहौल देखकर वह सवार बहुत खुश हो जाता है। प्रजा-वत्सल राजा की खूब तारीफ करता है। जब उसे वहां पहुंचने का कारण पूछा जाता है तो वह कहता है, वह अपनी सात फेरो वाली पत्नी से मिलने आया हैं मगर ससुराल वाले उसे साथ नहीं भेजते हैं। जब वह साथी युवकों को अपने ससुराल का पता बताता है, तो वे उसके ससुर को पहचान लेते हैं और उसकी पत्नी से मिलवाने का उपाय खोजते हैं। शरबत विलास बगीचे में फूल सेवरे गूंथती पत्नी के पास ले जाकर उसकी मुलाकात करवा देते हैं। तभी राणा जी के पधारने का संदेश आता है। और सभी लोग उधर दौड़ पड़ते हैं। तभी पर्दा गिरता है।

नवें दृश्य में लेखिका ने उदयपुर के महलों में महाराणा राजसिंह के दरबार का दृश्य दिखाया है, जहां चारूमति का दूत किशनगढ़ की राजकुमारी की अर्जी लेकर उस दरबार में प्रवेश करता है और किशनगढ़ पर दुख के बादल मंडराने के समाचार सुनाते हुए कहता है कि राजकुमारी चारूमति से विवाह करने दिल्ली के बादशाह औरंगजेब की तलवार लेकर फौज आ रही है, जिसमें उसने वक्त, तिथि, वार और दिन सब-कुछ तय कर भेजा है। यह सुनकर महाराणा राजसिंह दिल्ली तख्त को गाली देते हुए कहता है कि क्या वह महाराजा रूपसिंह के सारे यश गुण भूल गया?इस तरह लेखिका ने कुछ ऐतिहासिक घटनाओं तथा उनकी संवेदनहीनता की व्याख्या की है। दिल्ली की सल्तनत संभालने वाले औरंगजेब के पास चारों दिशाओं में राज्य विस्तार के लिए समय के साथ-साथ व्यक्तिगत उपस्थिति नहीं होने के कारण तलवार भेजकर उस तलवार के साथ अपनी मनपसंद राजकुमारी की शादी करवा कर उसे हरम में डाल दिया जाता था, उसके लिए कोई जरूरी नहीं कि वह उसका चेहरा तक देखे। केवल यह शासन-विस्तार का एक जरिया था। इसी तरह औरंगजेब एक संवेदनहीन तथा कृतघ्न शासक है, जो राजकुमारी के पिता की दिल्ली तख्त के लिए की गई सेवाओं को भूलकर उसकी जगह गद्दी पर बैठे नाबालिग राजकुमार को देखकर उसे हथियाने के लिए इस तरह का षड्यंत्र करने से भी नहीं चूकता था। ऐसी परिस्थिति देखकर राजकुमारी चारूमति उदयपुर के महाराणा राजसिंह के नाम एक खत लिखती है तथा उससे शादी कर उसकी सुरक्षा करने का अनुनय-विनय करती है जिस तरह शिशुपाल का वध कर रुक्मिणी को श्रीकृष्ण ने बचाया था। राजसिंह जी के दरबार में इस अर्जी पर विचार-विमर्श होता है। सभा इसी निष्कर्ष पर पहुंचती है, नारी का अपमान देखना पाप है। नारी-हत्या का कलंक लेकर जीना सबसे बड़ा पाप है तथा नर्क भुगतने तुल्य है। मंत्री-परिषद अपने फैसले पर पहुंचती है, सिवाय युद्ध के और कोई चारा नहीं है। तभी यह रणनीति बनाई जाती है, सेना को दो भागों में बांटकर एक भाग राजकुमारी से विवाह करने किशनगढ़ जाएगा और दूसरा भाग दिल्ली सेना का रास्ता रोकेगी। दूसरी सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करने के लिए सलूंबर स्वामी रघुनाथसिंहजी का नाम सामने आता है। मेवाड़ की शान की रक्षा करने के लिए वही कुछ कर सकते है और दूसरे शब्दों में, उनके सिवाय और कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा था। तब तक पाटवी स्वामी रघुनाथसिंह जी के पुत्र रावत रतनसिंह जी ने मेवाड़ की भांजगड़ संभाल ली होती है और एकाध दिन पहले ही परिणय-सूत्र में बंधकर सलूंबर लौटे होते हैं। फिर भी महाराणा के हुक्म के अनुसार सलूंबर दिल्ली की सेना रोकने का संदेश भेजने का निश्चय किया जाता है।

भाग - 6

इस भाग में सलूंबर के राजमहल का दृश्य दिखाया गया है। रात का पहला पहर बीत चुका होता है। चांदनी रात में गवाक्ष में खड़े रावत रतनसिंह और उनकी नवविवाहित पत्नी राजकुमारी इंदर कंवर सैरिंग तालाब को निहारते है। दीपों की रोशनी में झिलमिलाता पानी अत्यन्त ही पावन लगने लगता है, जिसमें असंख्य खिले कमल शोभा बढ़ा रहे होते है। मगर तालाब में उठती तरंगों से वातावरण अशांत हो उठता है। रतनसिंह जी और हाडीरानी एक दूसरे से प्रेमालाप करते है। कभी अग्नि-साक्षी मानकर लिए गए सात फेरों की दुहाई, साथ-साथ जीने का प्रण तो कभी मेंहदी की रंगत की बात। जितनी गहरी मेंहदी रचती है, प्रीत उतनी ही प्रगाढ़ होती है। जब रतनसिंह जी पीहर और ससुराल की तुलना करते है तो हाड़ीरानी कहती है, ‘‘विवाह स्त्री का दूसरा जन्म होता है। जहां नए रिश्ते जुड़ते है और मान मिलता है। पिताश्री के घर जब मैंने जन्म लिया था उस समय थाली बजाना तो दूर एक छाजला भी नहीं था। परन्तु आप आप मुझे ढोल बजाते हुए लेने और गाजे-बाजे के साथ मुझसे परिणय किया। फेरों के सम्पन्न होते ही पुराने रिश्ते छूट गए। नए रिश्ते बने। आप मेरे भरतार बने। अब आपके परिवार और वंश की मान-मर्यादा सब मेरी हुई।’’

हाड़ीरानी का यह कथन आज का यथार्थ प्रतीत होता है। लड़का-लड़की में लिंगभेद की प्रथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्थाओं में भी साफ झलकती थी। लड़का होने पर थाली बजाई जाती थी, लड़की होने पर नहीं। और एक सती औरत को शादी के बाद अपने पति के परिवार और वंश की मान-मर्यादा का पूरा-पूरा ध्यान रखना पड़ता था।यह उनकी सुहागरात थी। अधरों से अधरों का मिलन होने ही वाला था कि अचानक दासी के पायल झनकार की आवाज सुनाई पड़ती है। पूछने पर वह बताती है कि उदयपुर से कोई जरूरी संदेश लेकर दूत आया है। जब रावत रतनसिंह उस आदेश-पत्र को देखते है तो जड़वत रह जाते है। हाड़ीरानी के पूछने पर सारा वृतांत सुना देते है- रूपनगर की राजकुमारी चारूमति से जबरदस्ती विवाह करने बादशाह औरंगजेब की फौज आ रही है, उसे रास्ते में ही रोकने के लिए मेवाड़ स्वामी ने तत्काल कूच करने का कठोर आदेश दिया है। इस पर रतनसिंह जी दुख प्रकट करते हुए कहते है कि मेरे सारे पूर्वज युद्धों में खप गए। मेवाड़ ध्वज फहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी, मगर उसका यह परिणाम....? तब हाडी उन्हें समझाती है कि मातृभूमि को आपकी जरूरत है। मगर रतनसिंह टस से मस नहीं होता है। इस समय हाड़ीरानी क्रोधित होकर कहने लगती है, आप मत जाइए युद्ध में। मैं जाऊंगी। तलवार मुझे दो और आप बैठे रहो घर में। ऐसे प्रचंड व्यंग-बाण से रतनसिंह का खून खौल उठता है और वह यह जानते हुए भी उनके पास मुट्ठी भर सिपाही है, युद्ध जाने के लिए तैयार हो जाता है, यह प्रतिज्ञा लेते हुए कि- ‘‘जब तक महाराणा रूपनगर की कुल-कन्या चारूमति से विवाह करके उदयपुर नहीं पधारते हैं तब तक बादशाही फौज रूपनगढ़ के कंगूरे नहीं देख पाएगी।’’

यह सुनकर हाडीरानी शुरू में खुश हो जाती है, मगर उन्हें युद्ध करने जाता देख दुख से कराहने लगती है। यहीं पर यह दृश्य समाप्त हो जाता है।

अंतिम दृश्य में लेखिका ने सलूंबर महलों के विस्तृत प्रागंण से युद्ध करने जा रही सेना, रणभेरी के स्वर, नगाड़ों की आवाज, घोड़ों की हिनहिनाहट के साथ वीरों की हर हर महादेव, बम बम बोले की हुंकार तथा वीर-रस से आप्लावित चारण-चारणी के दोहें सुनाने के दृश्य को दिखाया है। जहं चारण-चारणी सूत्रधार का काम करते हैं। चारणी कहती है, रावत के वीर वचन सुनकर हाड़ीरानी खुश हुई, अपने हाथों से दुधारी तलवार थमाई, तिलक लगाकर आरती उतारी। तो चारण देव कहता है, चूंडावत घोड़े पर उछलकर बैठा। हुंकार भरते हुए घोड़ी की लगाम खींची और जैसे ही युद्ध क्षेत्र में जाने के लिए वह रवाना हुआ, उसकी आंखें झरोखे पर जा टिकी, जहां हाड़ीरानी देख रही थी। रावत अपनी सुध-बुध खो बैठा और सेवक को भेज अंतिम निशानी मंगवाईं। यहीं पर आकर राजस्थान के बड़े-बड़े साहित्यकार, इतिहासज्ञ, आलोचक, कवि, लेखक सब अटक जाते हैं। आखिर रावत ने ऐसा क्यों किया होगा? पत्नी की अंतिम निशानी में उसे क्या आशा थी? उसके मरणोपरांत पत्नी के हालात पर वह शंकित था? क्या वह जान गया था कि इस युद्ध में उसकी मौत अवश्यंभावी है? पता नहीं, कितने-कितने विचार उस समय उसके मन में कौंध रहे होंगे। जिस तरह राम ने सीता की खोज में हनुमान के साथ मुद्रिका उसकी निशानी के रूप में भेजी थी, क्या इसी तरह रावत को भी उसके किसी कंगन या सामान की जरूरत थी, निशानी के रूप में।मगर जैसे ही सेवक ने हाड़ीरानी से निशानी मांगी तो वह भभक उठी और कहने लगी, जाकर कह दो, मर गई रानी और तुरंत आव देखा न ताव, सामने पड़ी तलवार उठाकर एक हाथ से अपने बाल पकड़ दूसरे हाथ में तलवार लेकर अपना शीश काट दिया। मुंड थाली में और रूंड धड़ाम से नीचे। यहां पर बहुत बड़ा प्रश्न हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है। अचानक रानी का उत्तेजित होकर यह पदक्षेप उठाना स्वाभाविक था? क्या वह अपने आसक्त पति को अनासक्त करना चाहती थी? क्या वह अपने पति के वहम को हमेशा-हमेशा के लिए दूर करना चाहती थी कि वह उसके मरणोपरांत सती होने की सामर्थ्य रखती है? मरने के बाद तो क्या सती, मरने से पहले ही वह सती हो सकती है, इस विचार ने उसे यह कदम उठाने के लिए प्रेरित किया? क्या वह सोच रही थी कि उसकी वजह से मेवाड़ की धरती म्लेच्छ की गुलाम न हो जाए? बहुत सारे सवाल आज भी पाठक-वृंद के समक्ष अनुत्तरित है। इससे बढ़कर और क्या निशानी हो सकती थी, जिसे लेकर रणभूला रावत महाकाल की तरह दुश्मन की सेना पर टूट पड़ता है और अस्पतखां की फौजों को खूब दलता है। हाड़ीरानी का यह त्याग इतिहास में अमर है, जो देश को त्याग और वीरता का पाठ पढ़ाता है। नाटक का उपसंहार होते-होते चारणी मां कहती है, और हाड़ीरानी जन्म नहीं लेगी क्योंकि हम कन्या-भ्रूण हत्या कर हाड़ीरानी जैसी वीरांगनाओं जननी जठर में ही खत्म कर देते हैं। यहीं पर नाटक का पटाक्षेप होता है।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि ‘मां! तुझे सलाम’ नाटक की कथावस्तु पूरी ऐतिहासिक है जो राजस्थान के मेवाड़-भूमि की 17 वीं सदी के राजाओं के गौरवमयी शौर्य-गाथाओं के साथ-साथ उनकी रानियों के त्याग और वीरता को उजागर करती है। इस नाटक के सारे पात्र कथावस्तु के अनुरूप है। रावत रघुनाथसिंह जी, रावत रतनसिंह, राजकुमारी चारूमति, राजकुमारी इंदरकंवर(हाड़ीरानी) आदि पात्रों का सजीव और प्रभावशाली चरित्र व व्यक्तित्व ही इस नाटक की जान है। इसके अतिरिक्त, इस नाटक के अलग-अलग भागों में वीर-रस के साथ-साथ शृंगार-रस की प्रधानता है, जिससे पात्रों का अभिनय दर्शकों को बरबस लुभाता है। पात्रों का वाक्चातुर्य और अभिनय कला भले ही, आंगिक, वाचिक, आहार्य(वेशभूषा संबंधित) या सात्विक(अंतरात्मा से किया गया अभिनय) क्यों न हो, दर्शकों को प्रभावित करती है। सलूंबर में सलिला संस्था द्वारा आयोजित राष्ट्रीय बाल-साहित्यकार सम्मेलन के दौरान स्क्रीन पर दिखाई गई इस नाटक आधारित डाक्यूमेंटरी फिल्म हाड़ीरानी (जिसका निदेशन व पटकथा लेखन का काम खुद लेखिका विमला भंडारी ने किया था) देखने का अवसर मुझे मिला था। वह अपने आप में बालीवुड के किसी हिंदी नाटक से कम नहीं होगी। पारंपरिक राजसी वेशभूषा, पात्रों का चयन, पार्श्व-संगीत, पात्रों के संवाद, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और बीच-बीच में नेपथ्य से आने वाली आवाज न केवल दर्शकों को मंत्र-मुग्ध कर रही थी, वरन हाड़ी रानी के सिर काटकर अंतिम निशानी के रूप में देने वाला लोमहर्षक दृश्य दर्शकों को विचलित कर देता था और उनके समक्ष यह प्रश्न छोड़ जाता था कि कभी हमारे पूर्वज इतने शूरवीर रहे होंगे। मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना शीश काटकर देने वाली वीरांगना की हम संतति है। हमें हमारे अदम्य साहसी पूर्वजों पर गर्व है। ऐसी अनुभूति मैंने यह फिल्म देखते समय स्वयं अनुभव की थी।जैसा कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है इस नाटक की समीक्षा लिखते समय मेरे मन में यह ख्याल अवश्य आया था कि डाॅ. विमला भंडारी ने अपने नाटक के लिए हाड़ी रानी के त्याग की कथावस्तु ही क्यों चुनी? उसका जवाब मैंने अपने तर्कों के आधार पर अवश्य लगाया था कि वह सलूंबर की रहने वाली है, इतिहास-प्रेमी है और अपनी पूर्व-पीढ़ी पर गर्व अनुभव करती है आदि-आदि। मगर जब मैंने डॉ. विमला भंडारी की किताब ‘सलूंबर का इतिहास’ पढ़ी तो कुछ वास्तविक तथ्य मेरे समक्ष आए। श्रवण परंपरा पर जीवित इस ऐतिहासिक घटनाक्रम का 6 अगस्त 1994 को 300-400 वर्ष पुराना इतिहास प्रसिद्ध सलूंबर के हाड़ी रानी महल के धराशायी होने के साथ पटाक्षेप होने जा रहा था, जिस महल के कक्ष में जनश्रुति के अनुसार हाड़ी रानी ने अपने वीरवर चूंडावत सरदार को युद्धभूमि में अपना सिर काटकर भेजा था। इतिहास के पन्नों से गुम हो रही इस शौर्य गाथा से जुड़े ऐतिहासिक स्मारक को संरक्षण तथा पुरातत्व पर्यटन से जोड़ने की बात तो दूर, वरन साक्ष्य के अभाव के कारण सरकार का ध्यान इस ओर नहीं गया। यहां तक की राजस्थान पत्रिका में 7 नवंबर 1993 में प्रकाशित लेखिका के लेख ‘संरक्षण मांगता हाड़ी रानी का महल’ के बाद भी सरकारी संस्थाओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी, जिसकी वजह से उपेक्षित महल के महत्त्वपूर्ण भाग जिस पर सुंदर चित्रकारी के बेलबूटों व कांच की पच्चीकारी से बने गुंबजो सहित नीचे गिरकर धूल धूसरित हो गया। शायद इसी क्रोध के कारण लेखिका का मन दुखी होकर ऐतिहासिक धरोहर की रक्षा के लिए ‘मां! तुझे सलाम’ जैसे ऐतिहासिक नाटक की रचना करने के लिए प्रेरित किया। जिसे उन्होंने पहले राजस्थानी नाटक ‘सत री सैनाणी’ के रूप में लिखा था। यह सहज काम नहीं था, वरन लेखिका को राजस्थान के अतीत में कितनी आधिकारिक गहन दृष्टि से झांकना पड़ा होगा, सलूंबर के इतिहास के कितने पन्नों को खंगालना पड़ा होगा, कितनी वंशावलियों को टटोलना पड़ा होगा, सब सोचने मात्र से कल्पनातीत-सा लगता है। कर्नल जेम्स टाॅड की पुस्तक ‘‘एनाल्स एण्ड एक्टिक्विटीज आफ राजस्थान’’ से चारूमति प्रसंग और हाड़ीरानी के बलिदान के प्रसंग की पुष्टि की, मगर भले ही आधुनिक इतिहास लेखक जिसमें कविवर श्यामल दास कृत वीर विनोद, गौरी शंकर हीराचंद ओझा द्वारा लिखे गए इतिहास ग्रंथ इस विषय पर मौन है। जबकि राजसमुद्र पर खुदी राज प्रशस्ति, राजविलास(कवि मान द्वारा लिखित काव्य ग्रंथ), शिशोद वंशावली और देबारी के शिलालेख चारूमति के साथ औरंगजेब के विवाह करने की इच्छा की पुष्टि मिलती है। यही नहीं, लोक वार्ताओं, जनश्रुतियों में हाडीरानी की यशोगाथा गद्य व पद्य में ओज पूर्ण शब्दों में गाई जाती है। मेघराज मुकुल कृत ‘‘सैनाणी’’ तथा प्रख्यात लेखिका लक्ष्मी कुमारी चूंडावत ने अपनी पुस्तक ‘‘मांझल रात’’ में हाड़ीरानी कहानी को लिखा है। जब राजघराने में पली बढ़ी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत को इस कहानी के कथानक के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि अपने बाल्यकाल में पूर्वजों के मुख से यह घटनाक्रम सुना था। उस समय टी.वी. देखने का प्रचलन नहीं था, बल्कि ‘‘वातां’’ अर्थात कहानी-सुनने की प्रथा अत्यधिक प्रचलित थी। उपरोक्त सारे तथ्य यह दर्शाते है कि लेखिका द्वारा किया गया यह कार्य कालजयी कृति को जन्म देती है, आने वाली पीढ़ियों के समक्ष अमरता प्रदान कर ऐतिहासिक धरोहर के साथ-साथ ऐतिहासिक स्मृतियों को फिर से एक नया कलेवर पहनाती है। उनकी इस सृजनशीलता के लिए धन्यवाद देने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है। अंत में, मैं केवल इतना कह सकता हूं कि हाड़ी रानी के बलिदान पर न केवल क्षत्रिय लोगों को, या न केवल राजस्थानियों को बल्कि सारे राष्ट्र को गर्व होना चाहिए और उम्मीद करता हूं कि इस निर्वासित खंडहर की तरफ किसी फिल्म-निर्माता का ध्यान जाए और लेखिका के इस कालजयी नाटक की कथा वस्तु पर फिल्म बनाकर विश्व-पटल पर राजस्थान की वीरांगना के बलिदान को पहुंचाए जो हमारे पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

पुस्तक: माँ!तुझे सलाम

प्रकाशक: देवनगर प्रकाशन, जयपुर

प्रथम संस्करण: 2009

मूल्य: 125 रूपए

ISBN: 81-8036-021-0

अध्याय :-छ

कविता

काव्य-संसार

`भले ही,डॉ॰ विमला भण्डारी का नाम हिंदी साहित्य जगत में एक प्रसिद्ध कथाकार,बाल-साहित्यकार, इतिहासज्ञ और राजस्थान की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था सलिला के संस्थापक के रूप में जाना जाता है, मगर उनकी कलम कविताओं के क्षेत्र में भी खूब चली है। “डॉ॰ विमला भण्डारी की रचना-धर्मिता” विषय पर एक मौलिक स्वतंत्र आलेख लिखने की परिकल्पना करते समय मुझमें उनके लेखन की हर विधा को पढ़ने,जानने और सीखने की तीव्र उत्कंठा पैदा हुई,जिसमें कविताएं भी एक हिस्सा थी। इसी संदर्भ में मुझे हरवंश राय बच्चनजी का एक कथन याद गया कि ईश्वर को जानने के लिए किसी साधना की आवश्यकता होती है, मगर यह भी सत्य है कि किसी इंसान के बाहरी और आंतरिक व्यक्तित्वों को जानना किसी साधना से कम नहीं होता है। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत था,इस प्रगल्भ साधना हेतु मैंने विमलाजी के व्यक्तित्व का चयन किया और इस कार्य के निष्पादन हेतु कुछ ही महीनों

में मैंने उनका समूचा बाल-साहित्य,कविताएं,शोध-पत्र,नाटक और इतिहास संबन्धित पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। मगर कविताएं? कविताएं अभी तक अछूती थी। एक बड़े साहित्यकार के भीतर कवि- हृदय की तलाश करने के लिए मैंने उनकी कविताओं को खँगालने का प्रयास किया। मेरे इस बारे में आग्रह करने पर उन्होंने अपनी कम से कम पचास से ज्यादा प्रकाशित और अप्रकाशित कविताओं की हस्तलिखित पाण्डुलिपि पढ़ने के लिए मुझे दी। पता नहीं क्यों,पढ़ते समय मुझे इस चीज का अहसास होने लगा,हो न हो, उनकी साहित्य यात्रा का शुभारंभ शब्दों के साथ साँप-सीढी अथवा आँख-मिचौनी जैसे खेल खेलते हुए कविताओं से हुआ होगा,अन्यथा उनके काव्य-सृजन-संसार में विषयों की इतनी विविधता,मनुष्य के छुपे अंतस में झाँकने के साथ-साथ इतिहास के अतीतावलोकन के गौरवशाली पृष्ठ सजीव होते हुए प्रतीत नहीं होते। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था, शायद उनकी प्रखर विस्तारित लेखन-विधा मेरे पाठक मन पर हावी हुए जा रही थी। मेरे मानस-पटल पर कभी ‘सलूम्बर का इतिहास’, कभी ‘माँ,तुझे सलाम’ में हाड़ी रानी का चिरस्मरणीय बलिदान, कभी बाल-साहित्य तो कभी “थोड़ी-सी जगह” जैसे कहानी-संग्रह के पात्र अपने-अपने कथानकों की पृष्ठभूमि में अपनी सशक्त भूमिका अदा करते हुए उभरने लग रहे थे। इसलिए मेरे यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि डॉ॰ विमला भण्डारी खुली आँखों से संवेदनशील मन और सक्रिय कलम की मालकिन है। दूसरे शब्दों में,वह मर्म-संवेदना से कहानीकार,दृष्टि से इतिहासकार,मन से बाल-साहित्यकार और कर्म से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं,यह बात उनकी थोड़ी-सी कविताएं और कहानियाँ पढ़ने से उजागर हो जाती है। उनकी कविताओं व अन्य साहित्यिक रचनाओं से गुजरते हुए मैंने पाया कि हर युवा कवि व साहित्यकार की भांति अतीत के प्रति मोह,वर्तमान से असंतोष और भविष्य के लिए एक स्वप्न है। हर युवा की भांति प्राकृतिक और मानवीय दोनों तरह के सौन्दर्य की तरफ वह आकृष्ट होती है। रूढ़िओं को तोड़ने का उत्साह उनमें लबालब भरा है। प्रगतिवाद का प्रभाव उनके सृजन में स्पष्टतः परिलिक्षित होता है। हिन्दी कविता की शब्दावली और बनावट इस बात की पुष्टि करती है। कुछ उदाहरण :-

1- गिरते सामाजिक मूल्यों को दर्शाती पंक्तियाँ कविता बूढ़ा जाते हैं माँ-बापसे :-

धीरे-धीरे उनमें चढ़ने लगती है

स्वार्थों की फूफंद

बरगद-सी बाहें फैलाए

आकाशीय जड़े महत्वाकांक्षा की

तोड़ लेती है

सारे सरोकार और

क्षणांश में

बूढ़ा जाते हैं माँ बाप।

इस तरह, दूसरी कविता ‘विश्व सौंदर्य लिप्सा में’ कवयित्री बदलते परिवेश पर भारत के इंडिया बन जाने पर अफसोस व्यक्त करती है। सन 1955 तक स्त्रियाँ घूंघटों में ढकी रहती थी, मगर चालीस साल के लंबे सफर अर्थात निन्यानवे के आते-आते सब-कुछ विश्व सौंदर्य लिप्सा में उघड़ा हुआ नजर आने लगता है। कविता में लोकोक्ति ‘नाक की डांडी’ अद्भुत सौंदर्य पैदा कर रही है। सत्ता और पूंजी के देशी-विदेशी गठबंधन ने मध्यवर्गीय इच्छाओं को कुलीनवर्गीय संस्कृति से जोड़ दिया है।

2॰ नारी शिक्षा के प्रति आज भी राजस्थान के ग्रामीण परिवारों में अजागरूकता को लेकर उनकी कविता ‘वो लड़कियां’-जिन्हें शिक्षा लाभ लेना चाहिए/वे आज भी ढ़ोर डंगर हाँकती है/ जंगलों में लकड़ियाँ बीनती हैं/सूखे कंडे ढोती हैं/बर्तन माँजती हैं/ झाड़ू–पोछा करती हैं/पत्थर काटती हैं/अक्षय तृतीय पर ब्याह दी जाती हैं/वे स्कूल जा पाएगी कभी ?

किशोरी कोख से

किल्लोलती

जनमती है फिर

वो लड़कियां

जिन्हें जाना चाहिए था स्कूल

किन्तु कभी नहीं

जा पाएगी वो स्कूल

इसी तरह,उनकी दूसरी कविता ‘लड़कियां’ में हमारे समाज में लड़कियों पर थोपे जा रहे प्रतिबंधों, अनुशासन में रहने के निर्देशों तथा अपने रिश्तेदारों के आदेशों के अनुपालन करते-करते निढाल होने के बावजूद उन्हें पोर-पोर तक दिए जाने वाले दुखों के भोगे जाने का यथार्थ चित्रण किया गया है।यथा:-

खुली खिड़की से

झांकना मना

घर की दहलीज

बिना इजाजत के

लांघना है मना

अपने ही घर की छतपर

अकेले घूमना मना

इन दृश्यों की मार्मिकता इनके विलक्षण होने में नहीं है। ये दृश्य इतने आम हैं कि कविता में दिखने पर साधारणीकृत हो जाते हैं। इनका मर्म उनकी करुणा में है। कहा जा सकता है कि कवयित्री के मार्मिक चित्र स्त्री-बिंम्बो से संबंधित है। यही उनकी निजता का साँचा है जिसमें ढलकर बाह्य वास्तविकता कविता का रूप लेती है। उनके मार्मिक-करुण चित्रों के साथ उनकी कविता की शांत-मंथर-लय और अंतरंग-आत्मीय गूंज का अटूट रिश्ता है।उनमें स्त्री-अस्तित्व की चेतना है और अपने संसार के प्रति जागरूकता भी है। अलग-अलग जीवन-दृश्य मिलकर उनकी कविता को एक बड़ा परिदृश्य बनाते हैं।

कवयित्री का एक दूसरा पक्ष भी है आशावादिता का।‘तुम निस्तेज न होना कभी’ कविता में कवयित्री के आशावादिता के स्वर मुखरित हो रहे हैं कि निराशा के अंधकार में रोशनी हेतु सूरज आने की बिना आशा किए दीपक का प्रयोग भी पर्याप्त है।‘आदमी की औकात’ कविता में सपनों के घरौंदे और रेत के महलों जैसे प्रतीकों में समानता दर्शाते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव,सुख-दुख में यथार्थ धरातल पर उनके संघर्ष को पाठकों के सम्मुख रखने का प्रयास किया है। ‘प्यार’ कविता में प्रेम जैसी संवेदनशील अनुभूति के समझ में आने से पूर्व ही उसके बिखर जाने की मार्मिक व्यथा और वेदना का परिचय मिलता है। ठीक इसी तरह,‘दरकते पल’ कविताओं में उन स्मृतियों की धुंध को ‘राख़ के नीचे दबी चिंगारी’,‘पीले पत्ते’,‘झड़ते फूल’,‘उघाड़ते पद-चिन्ह’जैसे बिंबो का उदाहरण देकर कवयित्री ने न केवल अपने अंतकरण की सुंदरता, बल्कि पृथिवी की नैसर्गिक सुंदरता के नजदीक होने का अहसास भी कराया है।‘दो बातें प्रेम की’ कविता में अपनेपन की इबादतें सीखने का आग्रह किया गया है।‘एक सूखा गुलाब’ में कवयित्री ने पुरानी किताब और नई किताब को प्रतीक बनाकर अपनी भूली-बिसरी यादों को ताजा करते हुए वेलेंटाइन-दिन के समय पुरानी किताब के भीतर रखे गुलाब के सूख जाने जैसी मार्मिक यथार्थ अनुभूतियों को उजागर करने का सशक्त प्रयास किया है। ‘लाड़ली बिटिया’ कविता में कवयित्री ने अपनी बेटी के जन्म-दिन पर खुशिया मनाने के बहाने अपने आत्मीय प्रेम या वात्सल्य का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। बेटी का चेहरा,उसकी आवाज,उसकी आँखें,उसके बाल, सभी अंगों में प्यार को अनुभव करते हुए उसे अपने जीवन का सहारा बना लिया है। ऐसे ही उनकी दूसरी कविता ‘अब के बरस’ भी बेटी के जन्मदिन के उपलक्ष में है। इन कविताओं को पढ़ते समय सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराली’ की अपनी पुत्री की स्मृति में लिखी कविता ‘सरोज-स्मृति’ याद आ गई है। चाहे कवि हो या कवयित्री, चाहे पुरुष हो या नारी दोनों का बेटियों के प्रति एक विचित्र वात्सल्य,अपनापन,स्नेह व सहानुभूति होती है। इसी तरह ‘कहां खो गए’ कविता में बेटी बनकर अपने माँ के एकाकीपन व निसंगता को अनुभव करती कवयित्री आधुनिक समाज की हकीकत से सामना करवाती है कि माँ के नंदलाल,झूलेलाल, बाबूलाल आदि संबोधनों वाले बेटे अब सामाजिक स्वार्थ और लिप्सा में विलुप्त हो गए है। इसलिए माँ आज अकेली है। नितांत अकेली।

“तदनुरूप” कविता में कवयित्री डॉ॰ विमला भंडारी के दार्शनिक स्वर मुखरित होते हैं कि जब आदमी अपने जड़े खोजने के लिए अतीतावलोकन करने लगता है, तो वहाँ मिलता है उसे केवल घुप्प अंधेरा,स्मृतियों के अनगिनत श्वेत-श्याम, धवल-धूसर चलचित्र और सन्नाटे में किसी एक सुरंग से दूसरी सुरंग में कूच करता अक्लांत अनवरत दौड़ता,अकुलाता अगड़ाई लेता घुड़सवार। इसी तरह उनकी ‘याद’ कविता में यादों को ‘रोटी’को माध्यम बनाकर रूखा सूखा खाकर जीवन बिताने का साधन बताया है। ‘अंधेरे और उजालों के बीच’ और ‘चंचल मन’ कविताओं में कवयित्री की दार्शनिकता की झलक स्पष्ट दिखाई देती हैं।

‘तेजाबी प्यार’ कविता में आधुनिक भटके हुए नवयुवकों के एक तरफा प्यार के कारण अपनी प्रेमिकाओं के चेहरे पर एसिड डालने और उनके रास्ते में आ रही रुकावटों के ज़िम्मेवार लोगों की हत्या तक कर डालने का मर्मांतक वर्णन किया हैं। इस तरह ‘रिंगटोन’ कविता में दहेज के दरिंदों द्वारा बेटी को घोर-यातना देने का मार्मिक विवेचन है, इस कविता में कवयित्री कि नारीवादिता के स्वर मुखरित होते हैं।

जैसे :-

बेटी का फोन था

‘मुझे बचा लो माँ’ का रिंगटोन था

कल फिर उन्होंने

मुझे मारा और दुत्कारा

तुम औरत हो

तुम्हारी औकात है ?

कोई अच्छी कविता अज्ञात दृश्यों की खोज नहीं करती। वह ज्ञात स्थितियों के अज्ञात मर्म उजागर करती है। उसमें चित्रित दृश्यों को हम जीवन में साक्षात देखते हैं। फर्क यह होता है कि कविता में देखने के बाद उन जीवन दृश्यों को हम नई दृष्टि से देखने लगते है। बच्चा गोद में लेकर ‘बस में चढ़ती’रघुवीर सहाय की स्त्री हो या ‘छाती से सब्जी का थैला सटाए बिना धक्का खाए’ संतुलन बनाकर बस पकडनेवाली अनूप सेठी की ‘एक साथ कई स्त्रियाँ’हों, वे रोज़मर्रा के ऐसे अनुभव हैं जिनके प्रति कविता हमें एकाएक सजग कर देती हैं।

‘खबर का असर’ कविता में कवयित्री आए दिन अखबारों में सामूहिक बलात्कार की खबरें पढ़कर इतना भयभीत हो उठती है कि कब, किस वक्त, कहां,कैसे ये घटनाएँ घटित हो जाएगी,सोचकर उसका दिल दहल जाता है। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ ;-

स्त्री जात को नहीं रहा

किसी पर अब ऐतबार

प्यार,गली,मोहल्ले

दोस्त,चाँद और छतें

फिल्म,जुल्फ,रूठने

पायल की रुनझुन

इशारों में इशारों की बातें

सब वीरान हो गई

जबसे नई दिल्ली में

और दिल्ली जैसी

कई वारदातें

किस्सा-ए-आम हो गई

अनामिका ने अपनी पुस्तक “स्त्रीत्व का मानचित्र” में एक जगह लिखा है:-

“अंतर्जगत और बहिर्जगत के द्वन्द्वों और तनावों के सही आकलन की यह सम्यक दृष्टि जितनी पुरुषों के लिए जरूरी है,उतनी ही स्त्रियों के लिए भी। पर स्त्रियों का,खास कर तीसरी दुनिया की हम स्त्रियों का,बहिर्जगत अंतर्जगत पर इतना हावी है कि, कई बार हमें सुध भी नहीं आती,चेतना भी नहीं होती, कि हमारा कोई अंतर्जगत भी है और उसका होना महत्वपूर्ण है।”

विमलाजी की ‘’जिंदगी यहां’ कविता में ऐसे ही स्वरों की पुनरावृत्ति होती है :-

माँ, बहिन, बेटी,बीवी नहीं

सिर्फ औरत बनकर

बिस्तर की सलवटें बनती है जिंदगी यहां

जबकि ‘मैं हूँ एक स्त्री’ कविता में जमाने के अनुरूप नारी-सशक्तिकरण का आव्हान किया है, जो रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘अबला हाय! यही तेरी कहानी, आँचल में दुख और आँखों में पानी’ की रचना-प्रक्रिया के समय का उल्लंघन करती हुई अपने शक्तिशाली होने का परिचय देती है :-

“मैं कोई बुत नहीं जो गिर जाऊंगी

हाड़ मांस से बना जीवित पिंजर हूँ

कमनीय स्त्री देह हूँ तो क्या हुआ ?

मोड दी मैंने समय की सब धाराएँ”

किसी उपकरण को कलात्मक मानना और किसी को न मानना एक भाववादी तरीका है। भले ही कलावाद के नाम पर हो या जनवाद के नाम पर। कवयित्री के प्रयोगों से स्पष्ट है कि न कोई विवरण अकाव्यात्मक होता है,न बिंब,प्रतीक,सपाटबयानी,मिथक,उपमान,चरित्र वगैरह काव्यात्मक होते हैं। यह सभी कविता के उपकरण है। उपकरणों को कविता बनाती है संवेदना। वही विभिन्न उपकरणों में संबंध, संगीत और सार्थकता लाती है।

“कब तक ?” कविता में ‘बाय-पास”,”एरो’,’स्टॉप’,’फोरलेन’,’बैरियर’तथा ‘टोलनाका’ आदि शब्दों के माध्यम से कवयित्री ने समाज के समक्ष एक प्रश्न खड़ा किया है,आखिर कब तक अपनी मंजिल पाने के लिए एक औरत ‘टोलनाका’ चुकाती रहेगी?इसी तरह उनकी अन्य नारीवादी कविता ‘हरबार’ में‘ऐसा क्यों होता है ,हरबार मुझे ही हारना होता है’ का प्रश्न उठाया है। जहां  ‘अहसास’ कविता अवसाद की याद दिलाती है, वहीं उनकी कविता ‘समय’असीम संभावनाओं वाले नए सवेरे के आगमन, “मैं राधा-राधा’ कविता में पथिक से नए इतिहास के निर्माण का आव्हान तथा ‘विज्ञापनी धुएं के संग’कविता संचार-क्रान्ति के प्रभाव से आधुनिक समाज के विज्ञापनों के प्रति बदलते रुख पर प्रहार है।

कवयित्री लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़ी हुई हैं और यौवनावस्था से ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा ले रही हैं। उनकी प्रखर राजनैतिक चेतना लगातार उनके लेखन को तराश रही है और यही कारण है कि वह अपने राजनैतिक परिवेश से अभी भी पूरी तरह संपृक्त हैं। विमला भण्डारी की कविताएं यथार्थवादी है,सामाजिक दृश्यों से सीधा सरोकार रखने वाली। केदारनाथ सिंह सामाजिक दृश्यों का सामना नहीं करते,उनकी ओर पीठ करके उनका अनुभव करते हैं। इसलिए वे माध्यम संवेगों और अमूर्तताओं के कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। जबकि विमला भण्डारी सामाजिक दृश्यों का खुली आँख से सामना करती है,जिनके सारे दृश्य उनके निजी-आभ्यंतर के निर्मल साँचे में ढलकर आते हैं। जिस अर्थ में ‘व्यक्तिगत ही राजनीतिक’ होता है,उस अर्थ में विमलाजी का काव्य-संसार ‘व्यक्तिगत ही सामाजिक’ है! यह एक संयोग नहीं,परिघटना है।  ‘जब भी बोल’ कविता में कवयित्री ने हर नागरिक से जनहित में बोलने का आग्रह किया है:- –

अरे! कुछ तो बोल

जब भी बोल

जनहित में बोल

‘जनहित’ का यहां उन्होंने व्यापक अर्थ समझाया है अर्थात किसानों, मजदूरों, अबलाओं, कृशकायों, भूखे-नंगों के हित में आवाज उठाने वाले मार्क्सदी स्वर इस कविता में साफ सुनाई पड़ते हैं। जनहित के लिए वह प्रेरणा देती है।यथा:-

देखना एक दिन

न पद होगा

न होगा राज

मन की मन में रह जाएगी

तब कौन करेगा काज

जब भी बोल

जनहित में बोल।

इसी शृंखला में ‘गांव में सरकार आई’ कविता में आधुनिक लोकतन्त्र व प्रशासन से गांवों में धीमी गति से चल रहे विकास-कार्यों पर दृष्टिपात करते हुए व्यंगात्मक तरीके ने करारी चोट की है। कुछ पंक्तियाँ देखिए :-

सब की सब

कह रही है

गांवों में सरकार आई है

पपडाएँ होंठ, धुंधली नजर

मुख अब अस्ताचल की ओर है

निगोड़ी सब निपटे तो मेरा नंबर आए

प्रशासन गांवों की ओर है

राजनीति आधुनिक जीवन-प्रक्रिया का ढांचा है। वह समाज से बाजार तक पूरे जीवन को नियंत्रित करती है। इसीलिए हर प्रकार का संघर्ष एक मोर्चा राजनीति है। समाज और बाजार के विरोधी खिंचाव में राजनीति निर्विकार नहीं करती। वह एक न एक ओर झुकती है। इसीलिए वह सत्ता को कायम रखने की विद्या है, उसे बदलने की विद्या भी है। हमारे समय की प्रभावशाली राजनीति बाजारवाद के अनुरूप ढल गई है। जिस तरह डॉ॰ विमला भंडारी का कथा-संसार वैविध्यपूर्ण है, ठीक इसी तरह कविताओं को भी रचनाकार की कलम ने सीमित नहीं रखा है। सलूम्बर,नागौर,बूंदी,मेवाड़ आदि छोटे-बड़े ठिकानों,रियासतों के वीर राजपूतों द्वारा अपने आन-बान शान की रक्षा के लिए प्राणों को न्योछावर तक कर देने की गौरवशाली अतीत परंपरा को विमला जी ने अपनी रचनाओं का केंद्र बिन्दु बनाया। उनकी कविताओं ‘अंतराल’ और ‘अब शेष कहां?’ में अपने गांव के प्रति मोह तथा अतीत को याद करते हुए वह कहती है:-

किन्तु

जलाकर

खुद को

धुआं बनकर उड जाएँ

ऐसे बिरले

अब शेष कहां !

लेखिका की ख्याति पूरे देश में बाल साहित्यकार की तौर है। बाल साहित्य में विशेष योगदान के लिए उन्हे केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ, तब यह कैसे हो सकता है कि उनका कविता ससार भी बाल जगत से विछिन्न रह जाता। जीवन की विविध उलझनों,आजीविका के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों, जीवन की विविध व्यस्तताओं और पारिवारिक दायित्व-निर्वहन की आपाधापी के बीच भी विमला जी ने बाल-साहित्य पर लगातार लिखे हुए अपनी कलम की स्याही को सूखने से बचाया आज भी उनका रुझान बाल-साहित्य पर विशेष है। उनकी बाल-कविता जैसे ‘फोटू तुम्हारे’,‘मस्त है छोटू राम’,‘उफ! ये बच्चे’,‘माफ करो भाई’,‘घर धर्मशाला हो जाए’ ने हिंदी जगत में विशिष्ट ख्याति अर्जित की है। ‘इसी सदी का चाँद’ कविता में कवयित्री ने लिंग-भेद के कारण हो रहे भेदभाव, ‘सत्या’ कविता में गिरते सामाजिक मानदंडों पर करारा प्रहार करते हुए ‘यह सत्य भी क्या है?’ की कसौटी का आकलन, ‘हे गणतंत्र!’ में देश प्रेम के जज़्बात तथा मन की फुनगियों पर चिडिया बन आशाओं का संचार करने का अनुरोध है।

‘जलधारा’ कविता में किसी भी इंसान के इंद्रधनुषी जीवन-प्रवाह में नित नए आने वाले परिवर्तनों तथा उन्हें रोकने व बांधने के व्यर्थ प्रयासों का उल्लेख मिलता है। इन परिवर्तनों का आत्मसात करते हुए अनवरत आगे बढ़ते जाने का संदेश है, जबतक कि इस शरीर में प्राण न रहें। गीता के कर्मयोगी बनने के संदेश का आह्वान है इस कविता में।

यदि हम एक रचनाकार की बहुत सारी कहानियां और कविताएं एक साथ पढ़ते हैं तो उसकी मानसिक बनावट और उसके चिंतन,विचारधारा और रुझान का पता लग जाता है। उनका समग्र साहित्य पढ़ने के बाद कुछ बातें अवश्य उनके बारे में कहने कि स्थिति में स्वयं को पाता हूँ। पहला- विमलाजी अपने समाज के निचले व मध्यम वर्ग में गहरी रुचि लेती है। दूसरा – जहां भी शोषण होता है वह विचलित हो उठती है। तीसरा- एक नारी होने के कारण हमारे समाज में महिलाओं पर हो रही घरेलू हिंसा व यातनाओं के कारणों का अच्छी तरह समझ सकती है। चार- समाज का लगभग हर तबका अपने से कमजोर तबके का शोषण करता है। पांचवा- इतना सब-कुछ होते हुए भी लेखिका/कवयित्री इस ज़िंदगी और समाज से पलायन करने के पक्ष में नहीं है। उनकी दृष्टि आदर्शवादी है।

विमला भण्डारी के काव्य संसार की झलक से हम आश्वस्त हो सकते हैं कि जिस गहन चिंतन और नए प्रयोगों के साथ अपने अंतरंग-कोमल स्वर से बाल-साहित्य को समृद्ध किया हैं,उन्हीं स्वरों को मधुर संगीत देकर अपने काव्य-संसार को भी सुशोभित किया है।

 

अध्याय :- सात

अनुवाद

आभा

वरिष्ठ साहित्यकार निशिकांत ठकार के अनुसार अनूदित साहित्य की समीक्षा के प्रतिमान,मानदंड विधि निषेध के नियम,मूल्यांकन निकष निश्चित नहीं किए जा सकते क्योंकि इनका संबंध भाषाविज्ञान,चिह्न मीमांसा,शैली विज्ञान,साहित्य समीक्षा और संस्कृति अध्ययन आदि अनेक अनुशासनों से आता है। बहुत बार तो यह होता है कि प्रत्यति साहित्य-समीक्षा के निकषो के आधार पर ही यह समीक्षा की जाती है। स्रोत भाषा का ज्ञान समीक्षक को प्रायः नहीं होता है। लक्ष्य भाषा में उसका पुनर्वास हो जाने पर उसे लक्ष्य भाषा की ही रचना माना जाता है और आम तौर पर सामान्य समीक्षा प्रणालियों के आधार पर उसकी समीक्षा की जाती है। उसे वाच्यार्थ में ही अनूदित साहित्य की समीक्षा कहा जा सकता है। मगर मेरी लिए विमलाजी द्वारा अनूदित इस उपन्यास "आभा" का राजस्थानी अनुवाद “चार खूंट न दो पासा” समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि राजस्थान के ग्राम्याञ्चल में पैदा होने के कारण राजस्थानी भाषा का मूलभूत ज्ञान अवश्य था।

हिंदी व सिंधी भाषा में नंदलाल इदनदास परसारामानी जी के राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग में एलोरा प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स,जयपुर द्वारा प्रकाशित व पुरस्कृत उपन्यास “आभा”  का डॉ॰ विमला भण्डारी ने राजस्थानी में “चार खूंट न दो पासा” के नाम से अनुवाद किया है जिसे राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर के आंशिक आर्थिक सहयोग से राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर ने  प्रकाशित किया। अनुवाद की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है,मगर एक भाषा से से दूसरे भाषा में सेतु बंधन का कार्य करती है, जिससे दोनों भाषाओं के शब्द-भंडार में बढ़ोतरी होती है। राजस्थान के कई ऐसे शब्द आबकाई (मुसीबत) कजाणे (कौन जाने), खुलासा (स्पष्टता), भीत (दीवार), मोटियार (जवान) आदि हिंदी भाषा में समानार्थक के रूप में इस्तेमाल किए जा सकते है।

उपन्यास के कथानक बीमार पिता जीवन लाल,उनकी  वृद्ध पत्नी,दो जवान लड़कियां रति और आभा के चरित्र के इर्द-गिर्द घूमता है। अल्प आय के कारण रति को पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ती है। जवान लड़की का नौकरी करना तत्कालीन समाज को रास नहीं आता है। तब से इस छोटे परिवार का अपने समाज के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है।दोनों लड़कियों ने सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर सभी विपरीत परिस्थितियों का साहस पूर्वक सामना करती है। समाज की नकारात्मक सोच,वातावरण का भोगवादी होना,नौकरी पेशा महिलाओं के प्रति पुरुष वर्ग की अशोभनीय भाव-भंगिमा निकटता का दुरुपयोग आदि देख और सुनकर पाठकों का मन विचलित हो जाएगा।

'चार खूंट न दो पासा, केवल एक उपन्यास मात्र ही नहीं है,परंतु आज के परिवेश में भोगवादी माहौल पर एक सबल प्रहार है। मध्यम वर्ग की महिलाएं घर छोड़कर बाहर काम करने की इच्छुक है,उनके ही पिता,भाई,चाचा अथवा निकटतम पुरुष,अन्य कार्यरत महिला सहयोगियों के साथ आचरण करते समय कैसी मनोवृत्ति होती है, हमारी सुसंस्कृत भारतीय समाज के सामने एक ज्वलंत प्रश्न है।

यद्यपि यह उपन्यास कल्पना पर आधारित है एक फिल्मांकन की तरह,मगर हमारे समाज के समक्ष अनेक ज्वलंत प्रश्न छोड़ जाता है। रति और आभा दो बहिनें है, उनके पिता है जीवन लाल एक वृद्ध व्यक्ति। जिनकी पत्नी आत्महत्या कर लेती है,किसी सेठ मुरारी लाल की हवस का शिकार होने के कारण । उसी सेठ का बीज होता है रमेश। ये लोग किराए पर रहते है, जहां रमेश का आना जाना-होता है। रति और आभा रमेश को अपना भाई मानती है,मगर ताज्जुब तो तब होता है जब वह रति का अपने बॉस शर्मा के साथ सौदा करता है। जैसे-तैसे कर रति अपने आपको बचा लेती है, मगर रमेश उसकी नजरों से गिर जाता है। फिर श्याम का उस घर में आना-जाना होता है, धीरे-धीरे वह रति के प्रति आकृष्ट हो जाता है। मगर श्याम के पिता पुरुषोत्तम दाज किसी सेठ मुरारी लाल के दबाव में आकर उसकी लड़की शोभा के साथ सगाई कर देता है। सेठ मुरारी लाल अपनी अय्याशी के दौरान किसी महिला को (जीवन लाल की पत्नी) मरणासन्न अवस्था में जब पुरुषोत्तम उसकी मदद करता है तो वह फोटो खींचकर उसे ब्लैकमेल करता है। अपने पिता के अय्याश आचरण को देखकर शोभा किसी गुंडे आदमी के साथ प्यार करने लगती है वह श्याम से हुई सगाई को तोड़ देती है। इस प्रकार श्याम और रति एक दूसरे के और ज्यादा नजदीक आ जाते है।

आभा (रति की छोटी बहिन) कुशाग्र बुद्धि वाली है। उसे प्रोफेसर सुमन और उनकी धर्मपत्नी का वरद्हस्त प्राप्त होता है। प्रोफेसर सुमन के मार्गदर्शन में शोध करने वाली विश्राम की मुलाकात आभा से होती है और उसे पहली नजर में प्यार हो जाता है। उसी दौरान रति से हुई बेइज्जती का बदला लेने के शर्मा रमेश के साथ मिलकर आभा का अपहरण कर लेता है। मगर रमेश इस बार आभा की इज्जत बचाता है और शर्मा की अच्छी खासी धुनाई कर देता है । वह घटना जब विश्राम को पता चलती है तो वह आभा के चरित्र पर उंगली उठाने लगता है तथा रमेश,श्याम और यहाँ तक कि प्रोफेसर सुमन पर भी आरोप लगाता है। इस वजह से मानसिक तनाव के कारण आभा बीमार हो जाती है,यहाँ तक कि वह मरणासन्न अवस्था में पहुँच जाती है। जब विश्राम को सारी कहानी सच सच पता चल जाती है तो वह आभा के पास जाकर माफी मांगता है और अपनी भूल स्वीकार करता है। यह सारी कहानी आभा के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। उपन्यासकार ने अपनी रचना-प्रक्रिया के दौरान समाज के उस यथार्थ को सामने लाने का प्रयास किया है, जिसे पढ़कर पाठक यह अनुभव कर सकता है, कि उपन्यास के सारे पात्र और कहीं नहीं उसके इर्द-गिर्द ही विचरण कर रहे है। अनुवादिका ने राजस्थानी भाषा में उस संवेदनशीलता को शत-प्रतिशत उतारने को कोशिश की है।

“वह असत्य असत्य नहीं जिससे किसी की हानी नहीं होती” ।

“दान मांगा नहीं जाता,भीख मांगी जाती है। भीख भिखारी मांगा करता है” ।

“विवाह प्रेम का मकसद है और समाज के द्वारा प्रेम प्राप्ति की अनुमति”।

“यदि स्त्री अपनी पुरुष को नहीं पहचान सकी तो उसके स्त्रीत्व का महत्त्व-नगण्य रह जाता है” ।

“वह भली-भाँति इस सच से परिचित था कि ब्रह्मांड में कहीं भी वह स्थान नहीं है जहां धरती और आकाश मिलते हैं, परंतु फिर भी यह भ्रम उसे अच्छा लगा।”

“प्यार तो आत्मा है दादा, आत्मा देह से अलग है। इसका अस्तित्व अलग है”  

डॉ विमला भण्डारी द्वारा राजस्थानी में अनूदित इस उपन्यास तथा नंदलाल पारसमानी की मौलिक कृति  ‘आभा’ दोनों को एक साथ पढ़कर भाषा विज्ञान, चिह्न मीमांसा, शैली विज्ञान, संस्कृति अध्ययन आदि आदि इस पुस्तक पर मैंने अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया व्यक्त की। दोनों भाषाओं में इस उपन्यास के अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि राजस्थानी और हिन्दी साहित्य में अपनी-अपनी परंपरा,पर्यावरण व विश्व-दृष्टि के कारण अपनी-अपनी विशेषताएँ है। दोनों भाषाओं का समन्वय साहित्यिक दृष्टि से श्रेष्ठ है । अनूदित रचना भी मूल रचना से उसका महत्त्व,प्रभाव,साहित्य-परंपरा में स्थान,चयन का प्रयोजन सबकुछ स्वतः प्रकट हो जाता है। अतः यह रचना राजस्थानी भाषा जानने वालों को निश्चित रूप से प्रभावित करेंगी,साथ ही साथ,हिन्दी पाठकों को भी।

पुस्तक :- चार खूंट न दो पासा

प्रकाशक :- राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर

प्रथम संस्करण:- 2005

मूल्य :- 100/-

.

अध्याय :- आठ

सम्पादन

आजादी की डायरी

जैसे ही मैंने डॉ. विमला भंडारी द्वारा संपादित पुस्तक ‘आजादी की डायरी’ पढ़ी, वैसे ही मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था और मेरे पिताजी के आर्य समाजी मित्र स्व. कन्हैयालाल जी आर्य ने मुझे किसी योग-विशारद द्वारा लिखित पुस्तक ‘विद्यार्थी जीवन’ दी थी, जिसे पढ़कर मैंने दो चीजें सीखी थी। पहला, डायरी लिखना और दूसरा, समय-सारणी बनाकर सभी विषयों का समान रूप से अध्ययन करना। डायरी लिखना तो ज्यादा नहीं चल सका, दसवीं से लगाकर इंजीनियरिंग काॅलेज के प्रथम वर्ष तक। तीन साल प्रतिदिन मैंने डायरी लिखी अपने प्रतिदिन के कामों का ब्यौरा करते हुए। कितने घंटे पढ़ाई किया, कौन-कौन से विषय पढ़े, कौन-कौन मिलने आया, कौन-सी फिल्म देखी, पुस्तकालय से कौनसी किताबें लाई इत्यादि-इत्यादि। मगर डायरी-लेखन मेरी उन दिनों की आदत-सी बन गई थी। समय-सारिणी के अनुरूप पढ़ाई करना छात्र जीवन पर्यन्त चलता रहा। ‘आजादी की डायरी’ में विमलाजी ने स्वतंत्रता सेनानी मुकुन्दलाल पण्डया द्वारा लिखी गई खास तीन डायरियों को तिथि वार प्रस्तुत किया है, यद्यपि वर्ष 1933 से लेकर 1951 तक अर्थात 19 वर्षों की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के इतिहास एवं साहित्य का वर्णन करती कुल तैंतीस डायरियां है, जिनमें पांच-छः डायरियां अनुपलब्ध है।

प्रोफेसर एवं इतिहासविद् डॉ.जे.के. ओझा के अनुसार डायरी-लेखन इतिहास एवं साहित्य में नवीन एवं प्रमाणिक तथ्यों को जोड़ने का एक सर्वोत्तम स्त्रोत है। जिसे शोधार्थी मौलिक व प्राथमिक सामग्री के रूप में उपयोग कर सकते हैं। विमलाजी के इस ग्रंथ में सलूंबर के पास गींगला गाँव के निवासी मुकुन्दलाल पण्डया की डायरी न. 23, 24, 25 से उनकी निजी घटनाओं को छोड़कर हमें गींगला, मेवाड़ राजस्थान एवं भारतीय परिवेश के स्तर की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक घटनाओं का ज्ञान होता है। विशेषतया स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित कई नवीन तथ्य उजागर होते हैं। और उन तथ्यों का सरलीकरण करने के लिए मूल पाठ के साथ संपादकीय टिप्पणी कर विमलाजी ने स्तुत्य प्रयास किया है। संपादकीय में विमलाजी लिखती है, ‘‘जामरी नदी के किनारे बसे गांव गींगला का निवासी मुकुन्दलाल देवराम पंडया एक ऐसा पढ़ा-लिखा नवयुवक है जो कि महाराष्ट्र के नागपुर में किसी दवा कम्पनी में एजेंट का काम करता था। इस वजह से उसे भारत के कोने-कोने का भ्रमण करना पड़ता था। फलस्वरूप उसे तत्कालीन भारत की नब्ज़ को पहचानने में ज्यादा समय नहीं लगा। इस दौरान उसने सारी जानकारियों को डायरी लेखन के माध्यम से कलमबद्ध किया। किस तरह वह आजादी के लिए वह अपनी नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता-संग्राम में कूद पड़ा? किस प्रकार आस-पास के आदिवासी इलाकों को जाग्रत किया? कितने ओजस्वी भाषण दिए? कितनी कमेटियों का मैंबर बना? और अंत में, सलूंबर प्रजामंडल का उपाध्यक्ष बना"

यह डायरी पढ़ते समय पाठकों के समक्ष देश की तत्कालीन राजनैतिक घटनाओं के चित्र उभरने लगते है, आंदोलनकारी गतिविधियां, रियासतों का विलयीकरण, राजपूताना से राजस्थान का उदय, उदयपुर का प्रथम म्युनिस्पल चुनाव, मोहनलाल सुखाडिया का पारंपरिक पगड़ी के बजाय खद्दर की सफेद टोपी पहन मेवाड़ की मिनिस्ट्री में शपथ लेना इत्यादि के अतिरिक्त सामाजिक परिस्थितियों में सलूंबर क्षेत्र का मृत्युभोज, छुआछूत, जातिवाद, अंधविश्वास, रिश्वतखोरी, कालाबाज़ारी, अपराधवृत्ति, स्त्री-विक्रय, अशिक्षा, आटे-साटे की प्रथा, यौन-उत्पीड़न, बाल-विवाह, अश्लील गीतों का प्रचलन तथा प्रजामंडल की राजनैतिक गतिविधियों के। इस डायरी में मेवाड़ में आदिवासियों की स्थिति, पारिवारिक एवं कौटुम्बिक विद्रूपताएं मुकुंदलाल पण्डया का जीवन-परिचय, उनके यात्रा-वृतांत, उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व, मनोवृत्ति और देश-प्रेम के उदाहरण मिलते हैं। साथ ही साथ, स्थानीय नेताओं जैसे माणिक्यलाल वर्मा, भूरेलाल बया, रोशनलाल शर्मा, बलवन्त सिंह मेहता जैसे राजस्थान के प्रथम पंक्ति के कई नेताओं के अलावा भारत के सभी बड़े नेताओं के अधिवेशन व आंदोलनों के ब्यौरे मिलते हैं। इस डायरी में प्रथम स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त 1947 की आंखों देखा घटनाक्रम का वर्णन है, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का दिन 30 जनवरी 1948 भी अंकित है। हिंदू-मुस्लिमों के बीच दंगे फसाद, नेताओं और अंग्रेजों का रवैया, भारत का विभाजन आदि पर स्व. मुकुन्दलाल पंडया की कलम चली है।

विमलाजी ने संपादन के समय उनके द्वारा लिखे गए देशज शब्दों तथा बोलचाल की भाषा के शब्दों को ज्यों का त्यों रहने दिया है, ताकि उन आलेखों की न केवल विश्वसनीयता बनी रहे वरन हिंदी भाषा के प्रारंभिक स्वरूप की जानकारी शोधार्थियों को हो सके। जैसे अेक(एक), अेकाद(एकाध), बिल्कूल, बहूत, इलाखा(इलाका), आझाद(आजाद), साईझ(साइज), पोझीशन(पोजिशन), फिरहाल(फिलहाल), रेश्नकार्ड(राशनकार्ड), ज्यादाह(ज्यादा), संगटन(संगठन), सक्ते या सक्ता(सकते या सकता), हात(हाथ), गभडा(घबरा), इत्यादि मूल दस्तावेज से लिए गए है। यह डायरी पढ़ने से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक कलेवर, चाहे वह देश का हो, या राजस्थान का हो, या सलंबर का क्यों न हो, के सारे जीवंत दृश्यों का आंखों देखा वर्णन नजरों के सामने से गुजरने लगता है। इस प्रकार ‘आजादी की डायरी’ का उतना ही ऐतिहासिक महत्त्व है, जितना महात्मा गांधी के आयोजनों व समयबद्ध करती महादेव देसाई की गुजराती में लिखी तीन डायरियां जमनालाल बजाज, राजन्द्र प्रसाद, घनश्याम बिरला की डायरी के कुछ पन्ने तथा मनी बहन की डायरी ‘अकेला चलो रे’ का।

डायरी नं. 23 में मुकुंदभाई की आखिरी यात्राओं, नौकरी से इस्तीफा, घर वापसी, प्रजामंडल के उपाध्यक्ष बनने के अतिरिक्त तहलका और सरकारी जांच, नवली की हत्या, उदयपुर के प्रथम म्युनिस्पल चुनाव, नवरात्रि इत्यादि का विवरण है, जबकि डायरी नं. 24 व 25 में माणिक्यलाल वर्मा के साथ सत्याग्रह, प्रजामंडल का दमन, वली, कुराबड़ व रिखबदेव(ऋषभदेव), की सभाएं, बेगार विरोधी मोर्चा, मोहनलाल सुखाडिया का शपथ समारोह, भारत के कौमी दंगे व बंटवारा, प्रथम स्वतंत्रता दिवस व गांधीजी के निधन पर उन्होंने लिखा। सारी डायरियों का गहन अध्ययन करने के बाद उन्हें पठनीय बनाने के लिए डायरी की पृष्ठभूमि तथा अंत में अपनी संपादकीय टिप्पणी प्रस्तुत की है, ताकि किसी भी पाठक को वहां के स्थानीय व देशज शब्दों को समझने में किसी तरह की परेशानी न हो। कुछ शब्द उदाहरण के तौर पर नीचे दिए गए है-

हाली - भूमि वाले खेती के लिए उपज का निश्चित हिस्सा, भोजन, कपड़ा, तंबाकू आदि देकर मीणा जाति के लोगों को रखते थे, उन्हें हाली कहते है।

कंसार - गेहूं के आटे, घी व शक्कर का बना मेवाड़ का प्रचलित मिष्ठान्न।

कडुवा - शव दाह-संस्कार के बाद बनाया भोजन जिसे कुटुम्ब खाता है।

करियावर - मृत्यु के बारह दिन बाद बड़े भोज का आयोजन।

सीर/पांति - हिस्सा

दापा प्रथा - लड़की पक्ष वाले पैसा लेकर लड़की ब्याहते थे।

आटे-साटे की प्रथा - वधू के बदले पैसे नहीं लेकर उसके ससुराल की लड़की अपने घर में ब्याही जाती थी।

पियावा - कृषि-सिंचाई में उपयोग लेने वाले पानी के लिए वसूला जाने वाला कर।

बापीवार - मालिकाना हक

उजर - मांग या एवज में कोई वसूली

डेढ़-पावड़ा - पुराना नाप(100-150 ग्राम वजन)

दो आना - प्राचीन मुद्रा(12 पैसे)

अेकादशाह - मृत्यु का ग्यारवां दिन

शुक्ल - मृत्यु के निमित्त कर्मकांड करने वाला ब्राह्मण

अमलपापड़ी - अफीमपान

डौढ़ा - डेढ़ गुना

हाका करना - मीणा जाति के पुरूष महाराणा के शिकार को हल्ला करते हुए घेरते समय आवाज करते थे।

बेठ-बेगार - मुफ्त में क&#