महावीर सरन जैन का आलेख - साहित्यकार और सृजनात्मक प्रतिरोध

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  साहित्यकार एवं कलाकार अपनी रचना-कृति से, जाने या अनजाने, मनुष्य मात्र के लिए मानदंड स्थापित करता है। इनकी प्रकृति एवं इनका स्वरूप विधि-शा...

 

साहित्यकार एवं कलाकार अपनी रचना-कृति से, जाने या अनजाने, मनुष्य मात्र के लिए मानदंड स्थापित करता है। इनकी प्रकृति एवं इनका स्वरूप विधि-शास्त्र तथा नैतिक-शास्त्र के विधि विधानों से भिन्न होता है। साहित्य एवं कला का महत्व सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक है। इस कारण इनके मानदंडों से संसार के मानव मात्र की स्वतंत्रता, अस्मिता की रक्षा, समता तथा सामाजिक बंधुत्व और भाईचारे के आदर्श प्रस्थापित होते हैं अथवा होने चाहिएँ। यदि साहित्यकार एवं कलाकार मानव की आदिम पाशविक वृत्तियों को भी अभिव्यंजित करता है तो भी उसकी रचना-कृति में कुरूपता, नग्नता, भदेसपन नहीं होता। साहित्य में श्रृंगार भी पोर्नोग्रॉफ नहीं होता। इसका कारण यह है कि साहित्यकार एवं कलाकार अपनी रचना प्रक्रिया से पाशविक वृत्तियों का उन्नयन करता है।

साहित्यकार एवं कलाकार अपनी रचना प्रक्रिया से पाशविक वृत्तियों का उदात्तीकरण करता है। इस कारण उसकी रचित कृति में ‘काम’, ‘वासना’ ‘रति भाव’ भी व्यंजित होकर ‘रस’ बन जाता है। यह मन में जुगुप्सा पैदा नहीं करता, एक प्रकार के इंद्रियेतर सुख का मानसिक बोध कराता है। साहित्यकार एवं कलाकार वैज्ञानिक की भाँति ‘ब्रह्माण्ड’ को ‘एक विराट मशीन’ के रूप में नहीं देखता। साहित्यकार एवं कलाकार भौतिकविदों की भाँति मनुष्य को ‘भौतिक तत्त्वों का संघटन मात्र’ नहीं मानता। साहित्यकार एवं कलाकार राजनेताओं की भाँति मनुष्य को अपने पक्ष में वोट डालने का संसाधन नहीं मानता। साहित्यकार एवं कलाकार डॉर्विन की भाँति मनुष्य को अन्य पशुओं के समान रखकर उसके विकास की व्याख्या करने में विश्वास नहीं करता। साहित्यकार एवं कलाकार अध्यात्मवादियों की भाँति मनुष्य को केवल ‘एक परमसत्ता का अंश मात्र’ नहीं मानता।

साहित्यकार एवं कलाकार पौराणिक पंथियों की भाँति मनुष्य को ‘किसी के हाथ की कठपुतली’ नहीं मानता। साहित्यकार एवं कलाकार की दृष्टि सौन्दर्यपरक होती है। वह संसार के प्रत्येक मनुष्य में तथा प्रकृति के कण-कण में अन्तर्निहित एवं अन्तर-व्याप्त एकता, समता तथा सौन्दर्य को अपने मन की आँख से देखता है। इसी कारण वह प्रकृति के जड़ पदार्थों में मानवीय चेतना का साक्षात्कार कर पाता है। उनका मानवीयकरण कर पाता है। उसका कथ्य तथ्यपरक नहीं अपितु सत्यपरक होता है। उसका शिवत्व उपदेश नहीं देता। इसके विपरीत वह मनुष्य मात्र की पाशविकता, वन्यता, अपवित्रता तथा सामाजिक जीवन की कुरूपता, भद्दापन, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा आदि राक्षसी दुष्प्रवृत्तियों को उपदेश के माध्यम से नहीं अपितु अपने रचना कौशल से निर्मूल करने का कला-कर्म करता है। अपने इसी कला-दृष्टि से वह यह लिख पाने में समर्थ हो पाता है –

परहित सरिस धरम नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।

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- अलि मैं कण कण को जान चली, सबका दुख पहचान चली।

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रचनाकार जब सामाजिक अन्याय का प्रतिरोध करता है तो भी हिंसा का सहारा नहीं लेता। पुरुष वर्ग से जीवन पथ में सहयोग न मिल पाने की एक नारी की पीड़ा तथा विवशता का अपने ढंग से व्यक्त करता है जिसको पढ़कर अध्येता को उसका अहसास सहज रूप में हो पाता है –

किन्तु हाय,

रूढ़ि, धर्म के विचार

कुल, मान, शील, ज्ञान,

उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे

घेर लेते बार-बार,

जब मैं संसार में रखती थी पद मात्र

छोड़ कल्प निस्सीम पवन विहार-मुक्त।

रवीन्द्रनाथ टैगोर भी परम्परागत रूढ़ियों पर प्रहार करते हैं मगर वे खूनी क्रान्ति का सहारा नहीं लेते। वे अपनी वाणी से चोट करते हैं –

“पुजारी, आँख खोल कर देख तू किसकी पूजा कर रहा है। तेरा ईश्वर यहाँ नहीं है। वह वहाँ है जहाँ किसान पसीने में भीगा हुआ हल चला रहा है”। साहित्यकार एवं कलाकार की मूल भावना होती है कि –

हिमालय के आंगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार।

उषा ने हँस अभिनन्दन किया, और पहनाया हीरक द्वार।

जगे हम लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक

व्योम तम-पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक।

साहित्यकार एवं कलाकार सम्पूर्ण संसार के दुखों को दूर करना चाहता है। उसकी चेतना विश्व को आत्म दृष्टि से देखती है। उसको कोई सत्ता यह निर्देश नहीं दे सकती कि वह किस विचारधारा को पुरस्सर करे। वह स्वतंत्रचेता होता है। वह समाज और विश्व के मनुष्य मात्र के मन में प्रेम, करुणा, मुदिता, स्नेह, अपनत्व तथा आत्मीयता के भाव रोपित करता है। उसका कथ्य मन के गहरे अँधियारे को अन्ततः कलात्मक सौन्दर्य के उजियारे से जगमगा देता है।

विगत समय के कुछ मार्क्सवादी एवं अति-यथार्थवादी साहित्यकारों एवं कलाकारों की रचनाओं में हमें संघर्ष एवं तनाव की स्थितियाँ भी मिलती हैं। उन्होंने मानवीय सम्बंधों, सामाजिक संरचना के ताने-बाने तथा प्रकति में सौन्दर्य के साथ-साथ कुरूपता, सौम्यता के साथ-साथ बर्बरता, प्रेम के साथ-साथ घृणा तथा आस्था के साथ-साथ अनास्था भी परिलक्षित की है तथा कुछेक ने जीवन के अँधेरे को अधिक अपना समझा है। उनको चाँद का मुँह टेढ़ा ही नजर आया है। जब मैंने ऐसे रचनाकारों से साहित्य की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए हैं तो उन्होंने मुझे जबाब दिया है कि हमारे चारों ओर विसंगतियाँ हैं, बुराइयाँ हैं, कुरूपताएँ हैं, दुराचारों से भरी व्यवस्था है, मूल्यों का क्षरण हो गया है तो क्या हम इनसे अपनी आँख मूँदलें। मैंने हमेशा यह जबाब दिया है कि यदि दर्पण खंडित है और उसमें हम जब अपना चेहरा देखते हैं, तो हमें अपना चेहरा खंडित नजर आता है। इससे क्या हम अपने चेहरे को खंडित कर लेते हैं अथवा दर्पण को बदलने की कोशिश करते हैं। साहित्यकार एवं कलाकार को मानवीय एवं सामाजिक सम्बंधों के संत्रास का तथा जिंदगी में अभावग्रस्त आम आदमी की थकन, टूटन, अवसाद का इतना अतिरेकी चित्रांकन नहीं करनी चाहिए कि उसको पढ़ने के बाद उसकी जिंदा रहने की इच्छा ही चुक जाए। इसके विपरीत साहित्यकार को थके, टूटे, अवसादग्रस्त आदमी के मन में समस्याओं से जूझने की ताकत और आस्था प्रदान करनी चाहिए। रावण तो ‘रथी’ था और रघुबीरा ‘विरथी’। मगर रामकथा आम आदमी में इस कारण लोकप्रिय है कि उसमें अन्ततः विरथी रघुबीरा की जय होती है।

राजनीति के या तो मूल्य होते ही नहीं, यदि होते भी हैं तो वे तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए तात्कालिक ही होते हैं। गिरगिट की तरह रँग बदलना इनकी प्रकृति और इनका स्वभाव होता है। संस्कृति, साहित्य और कलाओं के मूल्य अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं। इनकी पहुँच सार्वदेशिक होती है। आज संसार में कट्टरवादी, विध्वंसक, असहिष्णु ताकतें बहुत ताकतवर हो गई हैं। एक ओर मनुष्य विकास के सोपानों की तरफ कदम बढ़ा रहा है, अपनी तकदीर को अपने श्रम और संसाधनों की बढ़ोतरी के रास्ते बदलने की कोशिश कर रहा हैं वहीं ये नापाक ताकतें धर्म अथवा मजहब के नाम पर भोलेभाले नौजवानों के दिमाग में नफरत, घृणा और द्वेष का जहर भरकर उनको विध्वंस के जीते जागते औजार बनाने का खूनी खेल खेल रही हैं। आज मानव समाज के पुनर्जागरण की जरूरत है। यह काम राजनेता नहीं कर सकते। इस दिशा में संसार की सकारात्मक ताकतों को पुनर्गठित करने के लिए पूरे संसार के चिन्तकों, साहित्यकारों एवं कलाकारों को आगे आना होगा तथा सृजन की शक्ति से नकारात्मक ताकतों के खिलाफ सार्थक लड़ाई लड़नी होगी।

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प्रोफेसर महावीर सरन जैन

123 हरि एन्कलेव

बुलन्द शहर – 203001

mahavirsaranjain@gmail.com

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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महावीर सरन जैन का आलेख - साहित्यकार और सृजनात्मक प्रतिरोध
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रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2015/10/blog-post_108.html
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