अमित शाह का आलेख - मरीजों की मजबूरी पर इलाज की बोलियां

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साक्षात भगवान का रूप माने जाने वाले डॉक्टर आजकल कटघरे में है। कुछ कतिपय लोगों की व्यापारिक सोच ने भी इस भगवान के नाम को बिगाड़ा है। ईमानद...



साक्षात भगवान का रूप माने जाने वाले डॉक्टर आजकल कटघरे में है। कुछ कतिपय लोगों की व्यापारिक सोच ने भी इस भगवान के नाम को बिगाड़ा है। ईमानदारी को शर्मसार किया है। मरीजों के इलाज की मजबूरी पर जांच और दवाओें के नाम पर जो लूटमार हो रही है वह वाकई देश की आम जनता के लिए खतरनाक है। एक ही देश में हर इलाज के अलग-अलग दाम ऐसा लगता है जैसे हम इलाज नहीं बल्कि अस्पताल से जूते खरीद रहे हैं। जिसमें कंपनी वाइज हमें पैसा लग रहा है। एक ही शहर में एक ही जांच के शुल्क अलग-अलग मिल जाएंगे। उदाहरण के तौर पर हम एंजियोग्राफी को ही ले लें। जिसके दाम 4 से 8 हजार रुपए तक है। हर जगह-जगह अलग-अलग। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है? निजी अस्पतालों पर सरकार लगाम नहीं लगा पा रही है। जब दवाओं की प्रिंट रेट एक हो सकती है तो देश छोड़ो बल्कि एक राज्य में जांच का शुल्क समान क्यों नहीं हो सकता ।
बढ़ते निजी अस्पतालों के साथ सुविधाओं के नाम पर प्रतियोगी भावना ने मरीजों का दुश्वार किया है। गरीब जनता सरकारी इलाज से उठते भरोसे के कारण निजी अस्पतालों की ओर रुख करती है। लेकिन यहां अच्छे-खासे बजट के अभाव में वह जिंदगी को न्यौछावर करने के लिए मजबूर हो जाती है। इन अस्पतालों में दलालों की भी कमी नहीं है। हर जगह एक दूसरे के तार जुड़े हुए हैं। इलाज के लिए कम शुल्क करवाने का लालच भी दिया जाता है। मरीज और उसके परिवार की भावनाओं के साथ यह खेल आजकल कुछ जोरों से ही चल रहा है।

इसके लिए जिम्मेदारी हमारी शिक्षा प्रणाली भी है। डॉक्टर बनने के लिए लाखों रुपए की भारी भरकम रकम चुकानी पड़ती है। भारत में नहीं तो रईसदार लोग विदेशों से डॉक्टर की डिग्री लाकर भारत में अपना भाग्य आजमाते है। अपनी डॉक्टरी करने में खर्च पैसों की वसूली के लिए वह मरीजों से भारी भरकम शुल्क के रूप में पैसा वसूल करते है। यह उनकी मजबूरी है। लेकिन इन मजबूरी और कमजोर प्रणाली के बीच आम जनता जो दो वक्त की रोटी के लिए रात-दिन मेहनत करती है वह पीस जाती है। बेशक सरकारी अस्पतालों में टैलेंट पड़ा है। लेकिन कुछ कतिपय डॉक्टर ने घर पर ही जांच करने की मंशा ने ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ डॉक्टरों की छवि को भी खराब किया है। आम लोगों के मन में एक तरह की भ्रांति बन गई कि इलाज डॉक्टर के घर पर बताने पर ही सही होता है। अस्पताल में वह मरीज को समय नहीं देते। अस्पताल में और घर में इनका व्यवहार ही अलग होता है। ऐसे में आम लोग निजी अस्पतालों के दरवाजे खटखटाते हैं। यहां इलाज तो महंगा होता है, लेकिन डॉक्टर अपनी मिलनसार प्रवृत्ति से मरीज को संतुष्ट कर देते हैं।

सरकारी अस्पतालों और डॉक्टरों की छवि के लिए लोगों का नजरिया तभी बदल सकता है, जब डॉक्टर विश्वास दिलाए। यहां के टैलेंट को बिना किसी समाज-सेवा की भावना से बाहर लाना होगा। इस लेख के माध्यम से किसी डॉक्टर को आहत करने का उद्देश्य नहीं है। लेकिन हमें आमजनता के हित के लिए इलाज की प्रणाली को बदलने की आवश्यकता है। आजकल अधिकांश घरों में कोई न कोई सदस्य बड़ी बीमारी से ग्रसित मिल जाएगा। ऐसे में इलाज की जरूरत एक अधिकार है। सरकार को भी इसमें अपने स्तर पर प्रयास करने होंगे। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को पूरा करना होगा। निजी अस्पतालों की ओर रुख करने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह भी रहा है। निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से ज्यादा जिम्मेदार वहां का प्रशासन है। जो सुविधाओं के नाम में भारी-भरकम बिल बनाते है। ऐसे में यदि इन अस्पतालों में कोई समाजसेवी डॉक्टर हो भी सही तो वह अच्छे इलाज के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर सकता। इसलिए सरकार को निजी अस्पताल में भी शुल्क जांच के लिए निर्धारित फॉर्मेट तैयार करने की आवश्यकता है। हां, इसमें अस्पताल अपनी सुविधाओं के अनुसार कुछ ऊपर-नीचे कर सकता है, लेकिन जांच शुल्क तो एक ही होना चाहिए। ओपीडी रेट एक ही होनी चाहिए। इलाज को बाजारू नहीं बनाया जाए।

मैं यहां एक छोटी सी बात कहूंगा। यह जरूर हमें गौरवान्वित भी करती है। सरकारी अस्पतालों में प्रसव के केस में सफलता मिली है। आज बड़े-बड़े घराने के लोग अपनी बहू-बेटियों का प्रसव सरकारी अस्पताल में करवाने पर अधिक विश्वास करने लगे हैं। क्योंकि सरकार की कुछ सख्ती और डॉक्टरों की पहल से सरकारी अस्पतालों में प्रसव के लिए हर तरह के संसाधन मौजूद है। जननी सुरक्षा अपने आप में एक बड़ा अभियान है। इसका श्रेय डॉक्टरों को ही जाता है। डॉक्टर पर्सनली फैमिली की तरह व्यवहार कर केस को निपटाते हैं। जिससे लोगों का लगाव बढ़ा है। लेकिन अन्य इलाज में आम लोगों का विश्वास नहीं बना है। इसके पीछे जो कारण रहे वह सभी को ज्ञात है। देहात क्षेत्र में अभी भी शिकायतें आती रहती है कि डॉक्टर समय पर अस्पताल में नहीं आते। क्योंकि इनकी रूचि ज्यादा घर पर इलाज करने की रहती है। हालांकि यह कितना सच है या झूठ। यह जांच का विषय है। लेकिन ऐसी बातें होना भी कहीं-कहीं संदेह जैसी स्थिति बनी हुई है। हमें भी अपनी जिम्मेदारी को निभाना होगा। आप जनता के बीच एक विश्वास कायम रखना होगा।

मैं स्वयं एक छोटे से गांव में पला-बढ़ा हूं। वहां एक मेल नर्स है। जिनकी ड्यूटी गांव से 20 किमी दूर एक ब्लॉक अस्पताल में है। उनकी मेहनत देख में भी कभी –कभी अचंभित रह जाता हूं। पूरी के नाम से प्रसिद्ध यह मेलनर्स अपनी ड्यूटी में ईमानदार है। रात को इमरजेंसी में फ़र्स्ट ट्रीटमेंट देना और उनके साथ ही अस्पताल में ले जाना वह अपना कर्तव्य समझते है। नि:शुल्क भाव से कई बार उनको मरीजों की सेवा करते हुए मैंने देखा है। वह जिस क्षेत्र में है वहां यदि क्लीनिक खोल दे तो वह सरकारी नौकरी से ज्यादा कमा लेंगे। लेकिन उनकी सेवा की प्राथमिकता सरकारी नौकरी से नि:शुल्क इलाज करना है। मरीजों को उनके पास नहीं बल्कि वह मरीजों के घर जाकर उनको सलाह देते है। कहने का तात्पर्य यही है कि हम ठाण ले तो चिकित्सा के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित कर सकते है। मरीजों को अच्छी सेवा और कम शुल्क में इलाज करने का संदेश हम दूसरे देशों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं

- अमित शाह, लेखक युवा पत्रकार है।

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