दीपक आचार्य का प्रेरक आलेख - अपनों की कद्र करें वरना निगल जाएंगे पराये

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  अपनों से अर्थ यह नहीं है कि कोई अपने क्षेत्र, जाति या परिचय क्षेत्र वाला है। अपनों का मतलब है वे लोग जो हमारे लिए सोचते हैं, हमारे शुभच...

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अपनों से अर्थ यह नहीं है कि कोई अपने क्षेत्र, जाति या परिचय क्षेत्र वाला है। अपनों का मतलब है वे लोग जो हमारे लिए सोचते हैं, हमारे शुभचिन्तक हैं और हमारे सुख-दुःख में सहयोगी हैं।

संसार पूरा भरा हुआ है उस भीड़ से जो सदियों से किसी की सगी नहीं हो सकी है, वह तमाशों के लिए पैदा हुई है, तमाशा होती है, देखती है और तमाशा करती है। भीड़ का चरित्र तमाशा ही है और तमाशा किए बगैर न भीड़ को सुकून मिल पाता है, न इस भीड़ में शामिल भेड़ छाप लोगों को।

बेतहाशा बढ़ती जा रही इस भीड़ के समंदर में कुछ लोग ही होते हैं जिन्हें हम अपना मान सकते हैं, अपना कह सकते हैं। हालांकि जिन लोगों को हम अपना मानते हैं उनमें से भी बहुत सारे लोग अपने नहीं होते।

कुछ लोग किसी न किसी स्वार्थ से अपने साथ जुड़ जाते हैं, काफी लोग किसी भय से हमारे आस-पास मण्डराते रहते हैं, और खूब सारे ऎसे भी हैं जो किसी भावी आवश्यकता को देख दूरदर्शिता का इस्तेमाल करते हुए हमारा सामीप्य पाना चाहते हैं।

पूरी दुनिया में गिनती के लोग ही होते हैं जो हमारे अपने कहे जा सकते हैं। इनमें कुछ को हम अपने अनुकूल और समान विचारों का मानकर सायास अपने साथ रखते हैं। और कुछ अनायास हमसे जुड़ जाया करते हैं। दोनों ही प्रकार के हमारे संपर्कितों और परिचय क्षेत्र वालों में चुनिन्दा लोग हमारे अपने होते हैं।

दोनों ही पक्षों में अपेक्षाएं होना निहायत जरूरी और स्वाभाविक है क्योंकि हम उस मानवी समुदाय से हैं जिसे सामाजिक प्राणियों का समूह कहा जाता है। नगण्य संबंध ऎसे हो सकते हैं जिनमें किसी एक को दूसरे से कोई अपेक्षा न हो। पर ऎसा दैवीय संयोग और दिव्य संबंध मिल पाना भगवान की कृपा से ही संभव हो सकता है।

आम हो या खास, हर तरह के इंसानों की फितरत में यही होता है कि वह अपने लोगों के बारे में बेपरवाह रहता है। इसका मूल कारण यही होता है कि ऎसा इंसान भीड़ और भेड़िया छाप रेवड़ों की सफलता को जीवन का लक्ष्य मान बैठता है।

और इसी भ्रम के कारण उसे लगने लगता है कि वह जिन सीमित लोगों से घिरा हुआ रहा है, उससे कहीं अधिक अच्छा यह है कि असीमित मानवी समुदाय से सम्पर्क करता रहे, परिचय बढ़ाता रहे।

परिचय बढ़ाने और भावी स्वार्थों या लोकप्रियता के भूत को अपने कब्जे में करने के लिए आदमी अपने सहोदरों, खून के रिश्तों, दाम्पत्य सूत्रों, शुभचिन्तकों, करीबियों और नाते-रिश्तेदारों से लेकर उन घनिष्ठ लोगों की उपेक्षा करना आरंभ कर देता है जो हमेशा उसके आस-पास बने रहते हैं, उसके सुख-दुःख, तनावों और पीड़ाओं के बारे में चिन्ता करते हैं, हर वक्त उसके लिए तैयार रहते हैं।

सीमित को उपेक्षित कर असीमित को पाने का भूत इंसानों में महामारी की तरह फैला हुआ है और इसी का परिणाम यह है कि हम घरेलू, कौटुम्बिक संबंधों एवं सज्जनों का तिरस्कार या उपेक्षा कर भीड़ की तरफ उन्मुख होते जा रहे हैं और वह भी टुच्चे स्वार्थों की पूर्ति या अपने आपको लोकप्रिय साबित करने भर के लिए।

बहुधा भीड़ में शामिल और पराये लोग हमारी प्राथमिकताओं में आगे ही आगे रहते हैं और केवल उन्हें अच्छा दिखाने, उनके सामने अपनी छवि को सर्वस्पर्शी, उदार और महान बनाने के लिए दिन-रात जायज-नाजायज जतन करते रहते हैं।

और इसी चक्कर में हम दिन-रात अपने करीब रहने वालों, अपने बारे में सोचने और कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने वाले, हमारे अपने काम में आने वाले लोगों की कीमत कम आँकते हैं या उन्हें भुला बैठते हैं।

अक्सर हम अपने लोगों की उपेक्षा करते हुए दूसरों को महत्व देने लगते हैं और इसका खामियाजा देर-सबेर हमें ही भुगतना पड़ता है क्योंकि जो लोग किसी न किसी स्वार्थ या प्राप्ति के उद्देश्य से हमारे करीब आते हैं वे लोग तभी तक हमारे शुभचिन्तक रहते हैं जब तक कि उनका उल्लू सीधा न हो जाए, उसके बाद वे अपनी राह पकड़ लेते हैं। 

ऎसा हर इंसान की जिंदगी में होता है लेकिन पूरी दुनिया को अपनी बनाने के फेर में जीवन के उत्तरार्ध तक इसी भ्रम में जीता है। यह भ्रम टूटता है अंतिम समय में, बीमारी में या कि विपन्नता के दिनों में।

ये दिन इंसान की कसौटी के दिन होते हैं जब किसी की भी अच्छी तरह पहचान हो जाती है। यही वह समय होता है जबकि हमें पराये और स्वार्थी लोगों की असलियत का पता चलता है लेकिन तब तक हमारे अपने अपनी घोर उपेक्षा और उनके प्रति हमारी निष्ठुरता का अनुभव करते हुए हमसे सायास दूर हो जाते हैं।

यह वह समय होता है कि जब हमें अन्तर्मन से यह अनुभव होता है कि दुनिया क्या और कैसी है। इस स्थिति में हम अपने आपको नितान्त अकेला पाते हैं। हमें अपने लोगों से सहयोग और उनका साथ पाने में शर्म आती है और तब लगता है कि जो हमारे अपने थे उन्हें निरन्तर बिसराते हुए हम यहां आकर अकेले रह गए हैं और जिन्हें हम अपना मानते रहे वे जाने कब से साथ छोड़कर चले गए।

कई बार हम अपने परिचितों का कोई सा काम आ जाने पर कुढ़ते हैं, गुस्सा होते हैं और उद्विग्नता के साथ अशांति की स्थिति में आ जाते हैं और वही काम कोई दूसरा मानवीय संवेदनाओं से हीन क्रूर इंसान बता दे तो इससे दस गुना समय निकालकर काम करने को मजबूर हो जाते हैं। यह स्थिति ठीक नहीं है।

बहुत बड़ी दुनिया में जितने लोग हमारे अपने हैं, हमें अपना मानते हैं, हमारे लिए सोचते, करते और साथ रहते हैं, उनसे दूरी न बनाएं, उनका आदर-सम्मान करें और उनके प्रति सदाशयी व्यवहार रखें। ये ही उन चंद लोगों में से हैं जो हमारे अपने हैं और रहने वाले हैं चाहे हम स्वीकारें या नहीं।

इसलिए जो अपने हैं उनकी कद्र करना सीखें। अपनों को अपने बनाए रखना और जिन्दगी भर विश्वास की डोर को मजबूती से थामे रखने की कला जो सीख जाता है उसके लिए जीवन निर्वाह आसान और आनंददायी हो जाता है।

अपनों की हम लोेग यों ही उपेक्षा करते रहेंगे तो एक समय वह आएगा कि पराये लोग हमें निगल जाएंगे और हमारा अपना कोई नहीं रहेगा।

 

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दीपक आचार्य के प्रेरक आलेख inspirational article by deepak aacharya

- डॉ0 दीपक आचार्य

  dr.deepakaacharya@gmail.com

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