सुधाकर शेंडगे का आलेख - संत कबीर की कविता का वैचारिक मूल्य

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  डॉ .सुधाकर शेंडगे भारत संतों, समाज सुधारकों, समाज चिंतकों और दार्शनिक नेताओं की भूमि है। सदियों से समाज में व्याप्त अनैतिकता, अंधविश्वास...

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डॉ.सुधाकर शेंडगे

भारत संतों, समाज सुधारकों, समाज चिंतकों और दार्शनिक नेताओं की भूमि है। सदियों से समाज में व्याप्त अनैतिकता, अंधविश्वास, दुष्ट प्रथा परम्पराओं और विषम सामाजिक परिवेश को समाप्त करने की कोशिश संत करते आये हैं। समाज सुधारकों, संतों की परंपरा में भारत के पहले क्रांतिधर्मी कवि, विचारक संतसूर्य कबीर का शीर्षस्थ स्थान है। उनकी कविता में व्यक्त सामाजिक विचार सभी युगों और कालों में प्रासंगिक सिद्ध हुए हैं। भारतीय संत साहित्य की विश्वबंधुत्व और मानवता की भावना विकसित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सदियों से संत कबीर का साहित्य समाज का पथदर्शक बनकर इस कार्य की पूर्ति करता आया है। इसलिए ही कबीर का कार्य कालजयी एवं प्रेरणाप्रद रहा है।

कबीरदास मध्ययुगीन संत परंपरा में एक ऐसी बेजोड हस्ती है, जिनका समग्र व्यक्तित्व क्रांतिकारी, विद्रोही, संघर्षशील, आक्रमक एवं प्रगतिशील रहा है। उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व का सर्वप्रमुख तत्व प्रखर एवं गहरी संवेदनशीलता है। संतश्रेष्ठ कबीर जैसे कालजयी पुरुष में ही ऐसी गहरी संवेदनशीलता संभव है। वे स्वभाव से निर्भीक, निडर एवं स्पष्टवादी थे। कबीरदास का अविर्भाव ऐसी परिस्थितियों में हुआ था कि, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अस्थिरता फैली हुई थी। राजनीतिक उथल-पुथल का युग था, धर्म में बाह्याडम्बर और कर्मकांड का बोलबाला था, वर्णव्यवस्था जोरों पर थी, हिंदू-मुस्लिम संघर्ष फैला हुआ था, ऐसी स्थिति में कबीर के पास अखंड आत्मविश्वास था। उनके पास विलक्षण प्रतिभा थी, इसलिए वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। इसी कारण कबीर को पहला क्रांतिकारी कवि कहा जाता है। कबीर भारतीय साहित्य के पहले प्रगतिशील मूल्यों की स्थापना के लिए ही संघर्षरत रहें।

हिंदू समाज जिस वर्णाश्रम और षटदर्शन पर आधारित था उस पर कबीर ने सीधा आक्रमण किया है। कबीर पहले पुरुष थे जिन्होंने अपनी बुध्दि और ज्ञान के आधार पर वर्णाश्रम षटदर्शन पर आधारित समाज की तीखे शब्दों में आलोचना की है। मनुष्य का मूल्यांकन धर्म के आधार पर नहीं बल्कि उसके कर्म के आधार पर आंका जाना चाहिए यही उनकी धारणा थी, इसलिए वे लिखते हैं-

"जाति न पूछो साधू की, पूछ लिजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पड़े रहन दो म्यान।।"

कबीर का मानना है कि, जाति और धर्म ईश्वर द्वारा नहीं मनुष्यद्वारा निर्मित हैं। मनुष्य-मनुष्य में भेद उत्पन्न करना धर्म नहीं अधर्म हैं लेकिन धर्म के ठेकेदार अपनी व्यवस्था बनाये रखने के लिए गूंगे और बहरे बन बैठे हैं। धार्मिक व्यवस्था का इंद्रजाल कबीर समझा चुके हैं। इसलिए वे लोगों को समझते हैं कि हम सब एक ही ज्योति से उत्पन्न हुए हैं, फिर यह उँच-नीच का भेद किसलिए और क्यो? इसीलिए वे लिखते हैं-

"एकै बूँद, एक मलमूतर, एक गुदा।

एक जोती से सब उतपना, कौन बामन कौ सुदा।।"

अगर सभी के शरीर में खून की बूँद है, सभी को समान अवयव हैं तो फिर एक उँचा और दूसरा नीचा कैसे? ये प्रश्न कर कबीर ने समाज में समताधिष्ठित मूल्यों के बीजारोपण का काम आज से पाँच-सौ साल पहले ही किया था। इससे कबीर के उँचे विचार और विशाल दृष्टिकोण का परिचय हमें हो जाता है।

इस प्रकार समाज में फैले कर्मकांड और बाह्याडम्बर पर भी वे चोट करते हैं। कबीर ईश्वर को मान्यता देते हैं लेकिन उसके विविध रुपों को नकारते हैं, उसके लिए किये जानेवाले कर्मकांड को नकारते हैं। उनके अनुसार ये केवल दिखावा है ढ़ोंग है। उनकी मान्यता है कि, सृष्टी के कण-कण में ईश्वर का वास है। हर मनुष्य के र्‍हदय में ईश्वर वास करता है। इसलिए उसे यहाँ-वहाँ ढूँढने की आवश्यकता नहीं है-

"मोको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।

खोजत होय तो तुरत मिलै, पलभर की तालाश में।

कहत कबीर सुन भाई साधौ, मैं सांसों सास में।।"

कबीर तैंतीस कोटी देवों को नकारकर यहाँ की धार्मिक व्यवस्था को चुनौती देते हैं जहाँ मंदीर को नकारते हैं वही मस्जिद को भी नकारते हैं। उनका मानना है कि, सृष्टि का हरेक रुप ईश्वर का ही अंश है, मनुष्य में भी ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं बशर्त आप इन्सान को इन्सान के नजरिये से देखे तो सही। भगवान पत्थर में नहीं मनुष्य के दिलों में वास करते हैं। ढकोसला करनेवाले हिंदुओं को वे फटकारते हैं-

"पाथर पूजन हरि मिलै, मैं पूजॅू पहार।

ताते वह चाकी भली, जाको पिसी खाय संसार।।"

कबीर की विशेषता यह है कि, वे ना हिंदू का पक्ष लेते हैं न मुसलमानों का बल्कि वे सत्य दुनिया के सामने रखते हैं फिर वह कितना ही कडुवा क्यों न हो। मुस्लिमों को फटकारते हुए कहते हैं-

"कांकर पाथर जोरी कै, मस्जिद लई चुनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।"

अर्थात कंकर-पत्थर से मस्जिद का निर्माण किया गया, उसको चुना लगाया गया और उस मस्जिद पर चढ़कर मुल्ला बड़ी-बड़ी आवाजे लगाकर बांग दे रहा है। क्या खूदा बहरा हो गया है जो उसे तुम्हारी आवाज सुनाई नहीं दे रही है। अरे भगवान अगर किसी चिंटी के पैरों में बँधे घुंगरु की आवाज सुन सकते हैं तो क्या तेरे दिल की आवाज नहीं सुन सकते? फिर तुझे चिल्लाने की क्या आवश्यकता है? पंद्रहवीं शती में मुस्लिमों का शासन होते हुए तत्कालीन धर्म व्यवस्था को ललकारना टेढ़ी खीर थी लेकिन कबीर जैसे फक्कड़ संत और स्पष्टवक्ता विचारक ने यह साहस दिखाया और अपनी व्यापक दृष्टि का परिचय समाज को कराया।

कबीर सत्यधर्मी होने के नाते उनका सत्य पर अटूट विश्वास है। उनका कहना है कि आप अगर झूठ के साथ हैं तो फिर आप जैसा पापी नहीं। भगवान भी सत्यधर्मी के दिलों में वास करते हैं, झूठे लोगों के दिल में नहीं-

"साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।"

जिस दिव्य ज्योति से हम निर्मित है, उसी ज्योत से ज्योत जलाते चलते चलो और प्रेम की गंगा बहाते चलो कबीर जी का संदेश है। कबीर सामाजिक सौहार्द निर्माण करना चाहते हैं भाईचारा निभाने की बात करते हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि,यह केवल प्रेम के बलबूते पर ही संभव है। घृणा तोड़ने का काम करती है लेकिन प्रेम तो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का काम करता है। इसलिए उनकी दृष्टि में बड़ी-बड़ी पोथियाँ पढ़नेवाला भी तुच्छ है जो भाईचारा न समझता हो प्रेम का सही अर्थ ना जानता हो। वह अगर इन्सानियत भूल जाता हो तो उसका ज्ञानभंडार किस काम का। इसलिए उनको लिखना पड़ा-

"पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़ा सो पंडित होय।।"

कबीर की नजर में सत्य और प्रेम का अनन्य साधारण महत्व है। उनका मानना है कि, इसी प्रेम के बलबूते हमारा भगवान के साथ संबंध दृढ़ होता है। परमात्मा और आत्मा का अटूट रिश्ता प्रेम की नींव पर खड़ा होता है। भक्ति का आधार भी तो प्रेम ही है। जब परमात्मा में आत्मा लीन हो जाती है तो अलग अनुभव मिलता है-

"लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल।

लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल।।"

परमात्मा से आत्मा लीन हो तो किस प्रकार से हो यह कबीर समझना चाहते हैं। कबीर आगे यह भी कहते हैं कि, मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता। इसलिए हर मनुष्य ने सत्कर्म कर अपना जीवन सार्थक बनाने की आवश्यकता है। यह ससार विलासी हैं, मोह का मायाजाल है इससे दूर रहकर प्रेम और सत्य के रास्ते पर चलकर यह जीवन सुंदर बनाया जा सकता है। उन्हीं के शब्दों में-

"दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार।

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागै डार।।"

जैसे पेड़ से टूटकर गिरा पत्ता पुनः डाल से नहीं जुड़ सकता है, उसी प्रकार पानी के बुदबुदे समान यह मनुष्य जीवन भी क्षणभंगूर है। अतः सत्य और प्रेम के आधार पर इसे सार्थक बनाया जा सकता है। मानव के लिए यह बहुत मूल्यवान है। इसलिए समय पर जागना बहुत जरुरी है। आलस्य को ठुकरा कर मनुष्य चुस्त होना चाहिए कहीं ऐसा ना हो जाय कि,

"रात गंवाये सोइ कै, दिवस गंवाये खाय।

हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदला जाय।।"

मानव को वे चेतावनी देते हैं कि, दिन खाने में और रात सोने में ही गवाएंगे तो हीरा जन्म कवड़ी मोल हो जाएगा। इसलिए यह समझना बेहद जरुरी है कि-

"कल करे सो आज कर, आज करे सो अब।

पल में प्रलय हो जायेगा फिर करेगा कब।।"

सोये हुए समाज को समय पर जगानेवाला कबीर ऐसा प्रहरी है जिसने समाज जागृति का अभियान चलाया और मानव जीवन को विविध विकारों से मुक्ति दिलायी। कबीर का मत है कि, मानव सभी प्राणियों में इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास वाणी है। इस वाणी के माध्यम से ही मनुष्य अपने आपको व्यक्त करता है। लेकिन व्यक्ति के पास संयम और वाणी संयत होनी चाहिए। उन्होंने लिखा है-

"ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय।

अपना मन शीतल करे, औरन को सुख देय।।"

बोलते समय मनुष्य को इस बात का ध्यान होना चाहिए कि, हमारी बातों से किसी को दुख ना पहुँचे, किसी का दिल न टूटे। वाणी के अच्छे उपयोग से मित्र मिलते हैं और दुरुपयोग से शत्रु। यह हम पर निर्भर करता है कि, हम क्या चाहते हैं? व्यक्तित्व बनता है पर्वित्र वाणी और शुद्ध आचरण से। विशालता बर्हिगत गुणों से नहीं अंतरंग तत्वों से आँकी जाती है। इस सम्बन्ध में कबीर का कथन देखिए-

"बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।

पथिक को छाया नहीं, फल लागै अतिदूर।।"

अगर मानव के रुप में जन्म मिला है तो अपनी मनुष्यता का परिचय हरेक ने देना चाहिए। अपनी वाणी से अपने विचारों से, अपने आचरण से हम स्वयं का परिचय दें। हिंसा का उत्तर हिंसा नहीं होता, प्रेम से दुनिया जीती जा सकती है। इसलिए कोई हमारे रास्ते पर काँटे भी बिछाता हो तो हमें उसके रास्ते पर फू ल बिछाने चाहिए, यही मनुष्यता की सही पहचान है। उन्हीं के शब्दों में-

"जो तोको काटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।

तोहि फूल के फूल है, बाकी है तिरसूल।।"

कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि, वे व्यक्ति में बढ़ रहे अहं को तोड़ना चाहते हैं। उनकी नजर में सभी मानव प्राणी एक हैं। इनमें ना कोई छोटा है न बड़ा, ना कोई उँच है ना नीच। परंतु ऐसे लोग तो मिलते हैं जो अपनी शक्ति के बल पर अन्यों को दबोचना चाहते हैं, सबल द्वारा निर्बल पर अत्याचार होते रहते हैं। उनको कबीर चेतावनी देते हैं-

"माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदै मोहे।

एक दिन ऐसा आयेगा, मै रौदूगी तोहे।।"

कबीर कहते हैं जिस प्रकार कुम्हार माटी को रौंदता रहता है लेकिन अंत में इसी मिट्टी में मिल जाता है। इसी प्रकार सबल वर्ग आज कमजोर वर्ग पर अन्याय-अत्याचार कर रहा है, वे ध्यान रखें कि उनके पापों का भी अंत होगा और एकदिन वे भी मिट्टी में मिल जायेंगे। कबीर ने जो भी बात कही सत्य कही, स्पष्ट रुप से कही। उन्होंने जो भी कहा जनता की भाषा में कहा इसलिए कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहा जाता है। कबीर समाज में समता स्थापित करना चाहते थे। कबीर पहले प्रगतिशील कवि हैं जिन्होंने भारतभूमि को वैचारिक दृष्टि से उर्वर बनाने का काम किया। उनका कागज लेखी पर नहीं आँखन देखी पर विश्वास था। मानवीय मूल्यों में उनका अटूट विश्वास था इसलिए मानव जाति के हित में ही उन्होंने आजीवन कार्य किया। भारत में सबसे अधिक प्रगतिशील राज्य का गौरव आज महाराष्ट्र को प्राप्त हुआ है। इस महाराष्ट्र को वैचारिक गति प्रदान करनेवाले फुले-शाहू-आंबेडकर के सामने भी कबीर का ही आदर्श था। यहाँ के संतों ने भी कबीर द्वारा स्थापित मार्ग को ही प्रशस्थ किया है। अतः कबीर के विचार आज भी प्रासंगिक है, दिशादर्शक है। लौह पुरुष कबीर को हमारा विनम्र अभिवादन!

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हिंदी विभाग,

डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा

विश्वविद्यालय,औरंगाबाद.

drsudhakarshendge@gmail.com

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रचनाकार: सुधाकर शेंडगे का आलेख - संत कबीर की कविता का वैचारिक मूल्य
सुधाकर शेंडगे का आलेख - संत कबीर की कविता का वैचारिक मूल्य
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