कामिनी कामायनी का व्यंग्य - मोहे ब्रज बिसारत नाही।

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र ह रह कर उनकी आँखें भर आती थी। मन एकदम बेचैन होकर सभी ज्ञात सीमाओं को तोड़ने के लिए उकसाने लगता। हृदय की धड़कनें बेतहाशा बढ़ती जा रही थी। ...


ह रह कर उनकी आँखें भर आती थी। मन एकदम बेचैन होकर सभी ज्ञात सीमाओं को तोड़ने के लिए उकसाने लगता। हृदय की धड़कनें बेतहाशा बढ़ती जा रही थी। दूसरे शब्दों में, उनकी नींद खो गई थी, उनका चैन लुट गया था। रात भयानक कालरात्री बन गई थी। किसी किसी तरह सूरज की पहली किरण फूटी होगी कहीं, और उसके धुंधले से आलोक में, उन्हें कुछ सुकून मिला, वह उठे, मार्निंग वाक के लिए, अपनी छड़ी और जूते के साथ। छड़ी हाथ में और जूते पैर में ही थे।

पार्क के बजाय वे दिल्ली के उस सड़क पर घूम रहे थे जहां कभी उनके चपल चरण पड़े ही नहीं थे। चलते चलते लगभग तीन किलो मीटर की दूरी पर अवस्थित एक नव निर्मित अवैध कालोनी के एक भव्य मकान के दरवाजे की घंटी बजा उठे। हुजूरे आला को साक्षात सामने देखकर उधो भाव विभोर हो उठे। उनके घर में भी शायद रतजगा थी, जूते पहने ही वह बाहर निकल आए थे।

“सर, आप कुछ ज्यादा परेशान, पशेमान नजर, ’। उन्होने उसकी बात जुबान के अंदर ही काट कर कहा “उधो, अब तुमसे क्या छुपाना, इधर कुछ दिनों से इतना लुटा लुटा महसूस कर रहा हूँ किलगता है आखिर ऐसा क्यों हुआ ? क्या क्या नहीं किया हमने उन लोगों के वास्ते। इन पाँच सालों में कितनी रुबाईयाँ, कितनी गज़लें, शेर, शायरी मैंने उन लोगों को सुनाई थी। मेरी शायरी सुन सुन कर वे भूखे नंगे कितने जोश से भर भर कर तालियाँ बजाया करते थे ॰ हजारों कि संख्या में वे मेरे भाषण सुनने आते थे। आज वही हमसे रूठ गए हैं क्यों ?’

“तुम हर पल साथ ही रहे थे हमारे। हाँ हाँ, जब वहाँ कड़ाके की सर्दी पड़ी थी, अपना घर जलाकर तापने की सलाह मैंने ही दी थी। जब वहाँ भीषण बाढ़ का प्रकोप हुआ था, गाँव के गाँव जलमग्न हो गए थे, तब उन्हें पानी में डूब कर मरने की सलाह मैंने ही दी थी, जब वहाँ भयानक सूखा पड़ा, नाले परनाले सूख गए थे, तब मैंने ही उन्हें जहरीले पौधे, चूहे, बिल्ली खाने की सलाह दी थी, और जब वहाँ असह्य बेरोज़कारी फैलने लगी, डिग्री धारी स्नातकों, डाक्टरों, इंजीनियरों वकीलों को मैंने ही बंदूक उठा कर दूसरे राज्यों में आतंक वादी गतिविधियां फैलाने, हफ्ता वसूली आदि वीरता पूर्ण कार्यों में लगवा दिया था। वही लोग, एहसान फरामोश मुझे भूल गए, मुझे?’।

“सुन उधो, मुझे अपने ब्रज की बेहद याद सता रही है। कैसे मैं उस पोखर में नहाते –नहाते भैंस पर कूद कर चढ़ जाता था। कैसे मैं पास के बगीचे से आम तोड़कर बच्चों में बाँट दिया करता था, और तो और मैंने अपने जीवन को उन्हीं लोगों की सेवा में समर्पित करने का व्रत रखा था। इसके लिए मैंने हवालात की कष्टप्रद रात भी  काटी थी’।

“मगर सर, हवालात की रात तो आप मुखियाजी की नाबालिग कन्या को भगाने के आरोप पर कटे थे”।
“ओफ़्फ़ो उधो, दो टके का आदमी, आज तू भी मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। सच है विपत्ति में अपना साया भी साथ छोड़ देता है, फिर तू तो नामुराद एक छोटा सा चमचा, आज अपना पालतू ही मुझे काट खाने को दौड़ रहा है”।

“सौरी सर, मैं तो अभी तक आपका वफादार चौपाया हूँ। क्या मेरी वफादारी पर आपको कहीं कोई कमी नजर आई है?”

“ नहीं, रे, मगर वो मुखिया की बेटी वाली बात तो सिर्फ तुम्हें ही बताया था न”। “माफी सर, कान पकड़ता हूँ। मगर क्या है, भावुक होकर आपके समक्ष ही बहक गया। हाँ, कभी किसी गैर के सामने इसकी चर्चा भी की हो तो माँ भवानी की सौगंध”। “अरे जानता हूँ तेरी वफादारी, तभी तो जो बातें अपनी पत्नी से कहना चाहिए, वह तुम से कहने के लिए इस ब्रम्ह वेला में पैदल तुम्हारे घर तक पहुँच गया हूँ तू तो सही अर्थ में मेरा उद्घव है माधव ”। कहते हुए उन्होने उधो को आलिंगन बद्ध कर लिया।

“हाँ तो उधो, मुझे बार बार अपने निर्वाचन क्षेत्र की याद आ रही है, पता नहीं वहाँ के लता गुल्म कैसे होंगे, पेड़ पौधे कैसे होंगे, नदी तालाबों का क्या हाल हुआ होगा, मुझे वहाँ के नर नारियों की यादें मर्माहित कर रही है। नींद बैरिन हो गई आँखों की। दिन में भी चित्त उदास और खिन्न रहता है। हे सखा, तुम मेरा हाल वहाँ जाकर उन्हें सुनाओ, मंत्री जी की आँखों के सामने दुख से व्याकुल गोप गोपियों का चेहरा उभर आया, जो उद्धव से कहने वाले थे “कि मन नाही दस बीस”। बड़े उदास और लूटे लूटे अंदाज में, जमीन में नजर गड़ा कर कहा “ मैं तो उन्हें इक्कीसवी सदी से आगे की ओर ले जाना चाह रहा था, जहां न भूख हो न प्यास, ना व्यर्थ की आकांक्षाएँ,,, ’। “हाँ, वह क्यों नहीं, ख्वाब देखने पर कौन से पैसे खर्च होते हैं। वैसे ही, आपने अपने नाम आबंटित सारे फंड मॉरीशस में होटल रिसोर्ट बनाने में खर्च कर दिए”। उद्धव ने अपने खिजाब लगे बालों पर हाथ फेरते हुए कहा, तो वे मरखाने बैल की तरह एकदम भड़क गए “गड़े मुरदे उखड़ता है, मिरजाफ़र, ब्रूटस, मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊँ”।

“क्या मंत्री जी, तब से आप मुझे गद्दार, कुत्ते, बिल्ली कहे जा रहे हैं, आप पराजित हैं, शून्य हैं, फिर भी मैं आप को मंत्री जी कहे जा रहा हूँ इज्जत से। जाईए, मैं नहीं सुनता आप का  दर्द जो बिगाड़ना है बिगाड़िए”। वह भी बुरी तरह खुट्टे उखाड़कर भागते जानवर का रुख अख़्तियार करने लगा था कि नेता जी बिलख बिलख कर रो उठे “अरे, देखो, देखो, कैसे मुझे डांट रहा है, मुझे, जिसने इस कुंवे के मेंढक को समुद्र में रखा, जिसे लंदन घुमाया, पेरिस घुमाया अमेरिका, कहाँ कहाँ नहीं, वही आज दुर्दिन में मुझे आँख दिखा रहा है”। वे वहीं सड़क के किनारे घास पर बैठ कर एक निर्दोष बालक की भांति फूट फूट कर रो पड़े।

उधो को चंद लमहों में ही वास्तविकता का भान हो गया था। कई बार उसने गरल का घूंट पिया था। अपने आप को संयत कर उनके करीब जा कर पुचकारते हुए कहा “भाई साहब, आप नाहक भावुक हो रहे हैं। मुझसे गुस्ताखी हुई, मारिए मुझे जूते, निकालिए पैर से,, मैं मामूली एक चमचा, मेरी कौन सी इज्जत ?मगर आप पराजित होने के बाद भी रसुखदार तो हैं ही। तुरत अखबार वाले, मीडिया वाले हेड लाईन बनाएँगे “पराजित मंत्री का मानसिक संतुलन बिगड़ा, फिर क्या? भविष्य में फिर कभी चुनाव लड़ भी पाएंगे ? सोचिए ?अब चुप हो जाईए आप जो आदेश करेंगे, पालन करूंगा, जाऊंगा एक बार फिर निर्वाचन क्षेत्र में। देखिए लोग हमी को घूर रहे हैं। अब आप ज़ोर से ठहाका लगाईए। चलिए नेहरू पार्क में”।

कितने महीनों के बाद आया था उद्धव वहाँ। कितना सब कुछ बदल गया दिखता था। क्या यह दृष्टि भ्रम थी या हकीकत। जहां दूर दूर तक सुखाड़ नजर आता था, वहीं आज हरियाली थी। हाँ, उसे याद आया, मंत्री जी के साथ तो वह सिर्फ रामलीला मैदान तक ही आया करता था। वहीं दूर दराज इलाकों से मतदाता हांक हांक कर, या गाड़ियों, ट्रेक्टरों, रिक्शों में ठूंस ठूंस कर लाये जाते मंत्री जी का भाषण सुनने के लिए, मुफ्त का शराब या ठर्रा पीने, पकौड़े खाने के लिए। उसके बाद मंत्री जी के साथ गेस्ट हाउस में विश्राम करता, वायुमार्ग से सीधे राजधानी पहुँच जाया करता था।

उसे याद आया अपना गाँव, मटारी, पाँच साल पहले आया था यहाँ। उसके चक्षु खुले के खुले रह गए। जगह जगह सुंदर सुंदर पार्क, साफ सुथरे पक्के  घर, गोशाला तक पक्के। चौड़ी चिकनी सुंदर सड़क। कुछ और बढ़ने पर आगे जो कभी सूखा तालाब कहलाता था, अब पानी से लबालब भरा था, उसके चारों ओर पेड़ लगे थे, जगह जगह सीमेंट के चबूतरे बने थे। महिलाएं रंग बिरंगे परिधान में एक दूसरे से वार्तालाप करती हुई, मंगल गीत गाती हुई, सामने के मंदिर की ओर बढ़ रही थी।

सड़क के दाहिने किनारे सफ़ेद  बड़े से बोर्ड पर लिखा, “माध्यमिक विद्यालय मटारी” चीख चीख कर कह रहा था कि देखो यहाँ स्कूल खुल गया। तनिक आगे बढ़कर उसने उस सुंदर से बने स्कूल परिसर में झाँका, शिक्षक पढ़ा रहे थे और छात्र मनोयोग से पढ़ रहे थे।

चकित भ्रमित सा वह कुछ और आगे रास्ते पर बढ़ा, सामने बाँए ओर दूसरा बड़ा बोर्ड सफ़ेद पर लाल लाल बड़े अक्षर “राजकीय औषधालय”। हस्पताल में डाक्टर अपने सहयोगियों के साथ मौजूद थे। बहुत सारे मरीज वहाँ दिखाई पड़ रहे थे।

लूटा लूटा सा दूत आगे बढ़ता चला जा रहा था। आगे पुराने विशाल बरगद के नीचे चारों तरफ चबूतरा बना दिया गया है। कुछ कटघरे नुमा दुकान खुल गए हैं, वहाँ चौपाल का बोर्ड टंगा था। कुछ रिक्शे वाले भी सवारी की प्रतीक्षा में खड़े मिले।

यहाँ से बायी दिशा की तरफ गोबर गैस और सोलर ऊर्जा का प्लांट लगा हुआ था। वहीं एक दुमंजिले मकान में महिला उद्योग संघ का दफ्तर दिखाई दे रहा था।
उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थी। मात्र तीन में इतना कुछ,,, ये गँधाते गाँव, डबरे नाले, मैले कुचैले लोग, किस डिटेर्जेंट से धुलकर इतने चमकदार हो गए। स्कूल, अस्पताल, लघु उद्योग। उसने दांतों तले उंगली दबाई, तो कर लिया यहाँ का सीट सुरक्षित हरगंगे ने। इतने कम समय  में इतना, पाँच साल में क्या जाने, मुलायमजी का, सैफई ही बना दे।

किस मुंह से जाए वह यहाँ की जनता के सामने, कितने वर्षों से वह भी तो उन्हें इन्हीं चीजों का सब्जबाग दिखा रहे थे “ गनौरी काका, सोचिए, आपके गाँव में ही डाक्टर आ कर रहेगा तो कितना कल्याण होगा, हारी बीमारी में खटौले पर लाद के दस कोश दूर भागना पड़ता है शहर, वहाँ कौन सुनता है किसकी ? पैसा खर्च अलग, गाय, गोरू, जमीन तक गिरवी रखते हैं, बिक भी जाता है”। गनौरी काका की आँखों में चमक आ जाती थी, वे भी अपने इलाके के दशरथ मांझी ही थे, पर कोई पहाड़ नहीं काट सके। सोहन, रमेसर, गनेशी भोला न जाने कितनों को उसने नौकरी का वादा किया था, स्वरोजगार के लिए ऋण दिलाने, सड़क बनाने आदि आदि। पर जीतने के दिन ही वह मंत्री जी के साथ वायु मार्ग से राजधानी पहुँच कर आकाश कुसुम हो जाया करता था।

वहाँ रह कर उसकी चमड़ी भी बड़ी पतली हो गई थी, ठंढ गर्म से नजात पाने के लिए एयरकौन का अभ्यस्त हो चला था। बड़े मकान और बड़ी गाड़ियों का वह भी मालिक बन गया था। वह काफी व्यस्त भी हो चला था, मंत्री जी की पत्नी, बेटी, बहू बेटा, आय दिन देश से विदेश और विदेश से देश आते जाते रहते, उनको एयरपोर्ट लाना ले जाना, के अलावे भी दसियों काम थे। जब कोई मुसीबत का मारा निर्वाचन क्षेत्र से आ टपकता, और काम याद दिलाता, वह झुँझला उठता “ मंत्री जी सबका ठेका ले रखा है ? क्या क्या करेंगे अकेले ?तुम लोग मूर्ख हो न, समझते नहीं, खुद ही झंझट में फंसे हैं विरोधी पार्टी कितने घोटालों का कलंक उनके सिर पर लगा दिया है, बेचारे, उधर से मुक्त हों तब न तुम लोगों की उल जलूल समस्या सुनेंगे’।

भला हो राम करण बाबू का जिन्होंने बीए में दो बार फेल और तीसरे बार रिस्टीकेट होते ही बाबू भजगोविंदम का हाथ पकड़ा दिया था। “पुरुषस्य भाग्यम” वर्षों से नेता जी चुनाव लड़ रहे थे, जीत भी रहे थे मगर मंत्री बने उसी के आगमन पर। फिर तो वह नेता जी के नाक का बाल हो गया था।

“ ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग’”, अचानक उसकी तंद्रा टूटी रामपुकार के साइकिल की घंटी सुनकर “भैया उधो, माधो ने तुम्हें भेजा होगा, ” राम पुकार हिन्दी में एम ए था और स्थानीय कौलेज में लेक्चरार,,, उस मामूली से प्राणी को इस कदर बोलते सुन कर गुस्सा तो उसे हठात इतना आया कि, वचन से क्या कहना, मगर जमाना बादल गया है, मजबूरी का नाम नैतिकता। यही सोच कर गुस्से को घबड़ा कर पी गया। अपनी खींसे निपोरते हुए बोला “भाई प्रोफेसर साहब, कैसे हैं ? कैसे कट रही है यहाँ की जिंदगी ?’ रामपुकार ने इधर उधर देखते हुए धीरे से उसके कान के नजदीक आकार कहा “जैसे आपकी राजधानी में कटती है”। और ठहाका मार कर हंस पड़ा था, फिर अपनी छोटी छोटी आँखों को मिच मिचाते हुए बोला, “ अरे भाई, जाकर अपने राजा साहब को कहना, यहाँ की जनता भरी बंदूक लिए उन्हें घूर रही है, बड़ा धोखा दिया, उल्लू बनाया, फूस की झोपड़ी का जनमा अपने को राजा कहलाने के लिए अपने गाँव, जिला, जवार वालों ही

बली का बकरा बना दिया था। देखो, अपनी आँखों से देखो, हमारे इलाके का कैसा काया कल्प हो गया है, और किस तेजी से विकास हो रहा है”। वह रामपुकार की चीख पुकार कहाँ सुन रहा था,, उसे लगा, वह ज्ञान का उपदेश क्या देगा, अगर भूतपूर्व की चर्चा तक भी किया, तो लोग उसे बैंगन की तरह भर्ता बना डालेंगे, मगर कुछ नौजवानों की नजर उस पर अटक ही गई, और गेंद की तरह मार मार कर लहूलुहान कर दिया, साथ में नेताजी के लिए एक बड़ी सी गठरी थमा दी, और उसे स्टेशन जा कर गाड़ी पर बैठा दिया।

मंत्री जी ने, दूत का हाल देखकर, और उससे प्राप्त संदेश की गांठ खोला, तो उसमें दूत के आगे के टूटे हुए चार दांत, जूते चप्पल, और चेहरे पर पोतने के लिए कालिख थी।

दूत ने कराहते हुए कहा “मंत्री जी अब भूल जाईए ब्रज को,, उन लोगों को नया माधव मिल गया है”।

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डॉ. कामिनी कामायनी ॥

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कामिनी कामायनी का व्यंग्य - मोहे ब्रज बिसारत नाही।
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