सूर्यकांत मिश्रा का आलेख - जागरण ही जिनका मिशन

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12 जनवरी युवा दिवस पर विशेष∙∙∙∙ जागरण ही जिनका मिशन 0 युवा भारत की पहचान विवेकानंद जी से आज हम नये भारत के निर्माण क्षेत्र में अपने कदम बढ...

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12 जनवरी युवा दिवस पर विशेष∙∙∙∙

जागरण ही जिनका मिशन

0 युवा भारत की पहचान विवेकानंद जी से

आज हम नये भारत के निर्माण क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रहे है। भारत की कुल आबादी में 60 से 70 प्रतिशत युवाओं की मौजूदगी ने ही हमें नया भारत गढ़ने की शक्ति प्रदान है। हमारे युवकों का सपना और उनके दिमाग में नये भारत की तस्वीर उभरने लगी है। आज की दुनिया मोबाईल युग से लेकर इंटरनेट, फेसबुक और ट्विटर तक यात्रा कर चुकी है। अब हमारे देश के युवा पूरी दुनिया में भारत वर्ष की एक नई तस्वीर पेश करना चाहते है। वे किसी भी प्रकार के अविष्कार से लेकर राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य को बदल डालना चाहते है। युवाओं की सोच अच्छी हो सकती है, किंतु सकारात्मक और नकारात्मक विचारों के बीच सृजनात्मकता का ध्यान रखना जरूरी है। 12 जनवरी को हमारे देश में जन्म ऐसे ही युवा क्रांतिकारी स्वामी विवेकानंद के प्रभावी विचारों ने हमें विश्वस्तर पर पहचान दिलाई। यही कारण है कि उस युवा संत की याद में 12 जनवरी युवा दिवस के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका है। वे कहा करते थे। ‘सत्य, मनुष्य जाति और अपने देश के प्रति सदैव प्रेम और बलिदानी विचार रखो, यह मान लो ऐसा करते हुए तुम पूरी दुनिया को हिलाने की शक्ति पास सकते हो।’

इसलिए नहीं पैदा हो रहे विवेकानंद

19वीं शताब्दी में 1863 को भारत भूमि में पैदा होने वाले स्वामी विवेकानंद (बालक नरेन्द्र)  अब हमारी इस धरती पर पैदा नहीं हो रहे है। संतों और महंतों की जननी भारत भूमि की कोख से अब ऐसे ही बिरले लोग क्यों जन्म नहीं ले रहे? यह एक विचारणीय मुद्दा हो सकता है। आज का युवा वर्ग ऐसे दूषित माहौल में जन्म ले रहा है, जो उसे धरती पर कदम रखते हुए दुख और चिंता से साक्षात्कार कर रहा है। आदर्शहीन समाज में उसे वह मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है, जो भारत की पहचान बनाने में कारगर हो सके। दिशाहीन शिक्षा पद्धति उसे और भी भ्रमित कर अंधेरी कोठी में धकेल रही है। पाश्चात्य अप संस्कृति का आक्रमण उसे कदम कदम पर विचलित कर रहा है। जिन विश्व विद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में  युवाओं को धर्म और संस्कृति की दिशा दी जाती थी, वे भी अराजक और उच्छृंखल हो गए है। नैतिक मूल्यों और आदर्शों के प्रति निष्ठा का अभाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। जहां देखो नकारात्मक और विध्वंसक गतिविधियों का बोल बाला है। इन्हीं सारी विषमताओं के चलते अब विवेकानंद जी की तरह सोच रखने वाले युवाओं का जन्म कठिन हो गया है। अपने संपूर्ण लघु जीवन में  देश और देश की मर्यादा का पर्याय बने विवेकानंद जी के त्याग आज के बदले समय में युवा ग्रहण कर पाएंगे इसमें संदेह है। यदि हम उनके आदर्शों का कुछ अंश ही अपने जीवन में उतार ले तो इस भ्रष्टाचारी युग में एक पहचान कायम कर सकते है।

स्वामी जी की सोच में अशिक्षा सबसे बड़ा अवगुण

स्वामी जी ने विशेष रूप से युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था कि अपने अंदर की ऊर्जा को व्यर्थ न जाने दे। युवा चाहे तो अपने दम पर हर लक्ष्य को पा सकते है। उन्होंने पूरे विश्व के साथ इस बात को कहा था कि अपनी ताकत और क्षमता को पहचानो फिर मुश्किल शब्द तुम्हारी दुनिया में फटकने भी नहीं पाएगा। स्वामी जी कहा करते थे कि उच्च शिक्षा के बल पर हर विकास की सीढ़ी चढ़ी जा सकती है। अशिक्षा ही ऐसा दुर्गुण है जो हर प्रगति पर रोड़े का काम करता है। स्वामी जी के विचार आज कितने प्रासंगिक है, इसे बताने की जरूरत शायद नहीं है। धर्म और आध्यात्म पर आस्था रखने वालों से स्वामी जी कहा करते थे कि ऐसे ही लोगों के सहारे संसार पर विजय पाई जा सकती है। आधुनिक भारत के सृजनकर्ता माने जाने वाले स्वामी विवेकानंद ने वास्तव में युवाओं के शक्ति को पहचाना था। उनके विचारों में हर धर्म की शिक्षा व्यक्तित्व निर्माण की आधार थी। शिकागो की धर्मसभा में भी स्वामी विवेकानंद जी ने सारे वरिष्ठों के बीच इसी आधार पर श्रेष्ठता सिद्ध कर दिखायी थी। शिक्षा को विकास की धुरी मानते हुए स्वामी विवेकानंद जी ने महिलाओं को शिक्षित करने पर जोर दिया था। वे कहा करते थे कि जिस देश की नारी शिक्षित नहीं होगी उस देश का विकास ठीक उसी तरह अवरूद्ध हो जाएगा जैसे खाद, पानी के अभाव में फूलदार पौधों का विकास भी रुक जाता है।

उपेक्षा से विचलित न होने वाली शख्सियत

स्वामी विवेकानंद जी ऐसे शख्सियत थे जो अपनी उपेक्षा से भी विचलित नहीं हुआ करते थे, बल्कि वही करते थे जो उन्हें राष्ट्रहित में लगता था। दुनिया की सोच और स्वामी जी के सोच के अंतर ने ही उन्हें बालक नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद बना दिया। शिकागो सम्मेलन और गुरु रामकृष्ण परमहंस के दो दृष्टांतों से यह स्पष्ट होता है कि बालक नरेन्द्र अपनी उपेक्षा को भी प्रगति से जोड़कर देखा करते थे। उनके संस्मरणों का अध्ययन करने से पता चला है कि एक बार वे अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस से मिलने दक्षिणेश्वर गये। उनके गुरु ने न तो उनसे बात की और न ही उनके ओर ध्यान दिया। यह क्रम लगातार चलता रहा, फिर भी वे गुरु के आश्रम की राह से नहीं भटके और प्रतिदिन उपदेश के समय अपनी उपस्थिति बनाये रखी। आखिर उनके गुरु ने स्वयं ही थककर उनसे पूछा जब मैं तुम्हारी ओर ध्यान नहीं दे रहा हूं और न ही बातें कर रहा हूं, तो भी तुम रोज यहां क्यों चले आते हो? क्या तुम्हें तुम्हारी उपेक्षा का भान नहीं? बालक नरेन्द्र ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया, उससे गुरु राम कृष्ण परमहंस का हृदय उदारता से भर गया। बालक नरेन्द्र ने अपने गुरु से कहा कि ‘मैं यहां आपसे बातें करने नहीं आता हूं, और न ही आपके उपदेशों को सुनने, मुझे तो आपके दर्शनों की लालसा रोज यहां खींच लाती है?’ इस पर गुरू रामकृष्ण परमहंस ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा कि मैं तो तेरी परीक्षा ले रहा था, जिसमें तू पास हुआ।

सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के जनक

हम स्वामी विवेकानंद जी को सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के जनक के रूप में सम्मान प्रदान कर सकते है। कारण यह कि उन्होंने स्वयं कहा है कि ‘मुझको ऐसा धर्मावलंबी होने पर गर्व है, जिससे संसार को सहिष्णुता तथा सभी धर्मों को सम्मान देने की शिक्षा मिलती है।’ उन्होंने यह भी कहा कि मुझे गर्व होता है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूं, जिसकी मूल भाषा संस्कृत है, जिसने अन्य भाषाओं को जन्म दिया। मुझे ऐसे देश का नागरिक होने पर भी अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी की समस्त पीड़ित और शरणागत जातियों को शरण दिया। अभिजात यहूदी वर्ग को जिस प्रकार भारत वर्ष ने अपनी छाती से लगाया और उसे शरण दी। मैं उस कृत्य से अभिभूत हूं। मेरे भारत वर्ष ने पारसी जाति की न केवल रक्षा कि बल्कि शरण देते हुए उन्हें सुरक्षा का वचन भी दिया। आज भी भारत वर्ष पारसियों को सम्मान दे रहा है। आज भले ही हमारे बीच स्वामी विवेकानंद नहीं है, किंतु उनकी यादें और शिक्षा हम सबके बीच जीवित है। एक ऐसा शिष्य जिसने अपने गुरु के विचारों को देश दुनिया तक फैलाया और भाईचारे का संदेश दिया। उसे हम भला कैसे भुला सकते है। देखा जाए तो हमारे धार्मिक ग्रंथ पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ एवं उन्नत है। इतना ही नहीं हमारा इतिहास भी गौरवान्वित करने वाला रहा है। इस बात से भी नहीं नकारा जा सकता है कि सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का जन्म सबसे पहले हमारे देश में ही हुआ, और सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के जन्म कोई और नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद जी ही रहे है।

                                                                                 

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  (डॉ∙ सूर्यकांत मिश्रा)

   जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

    मो∙ नंबर 94255-59291

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(ऊपर का चित्र - धनिया बाई की कलाकृति)

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रचनाकार: सूर्यकांत मिश्रा का आलेख - जागरण ही जिनका मिशन
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