ब्रजभाषा व उसकी काव्य-यात्रा / आलेख / डॉ. श्याम गुप्त

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विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा के रूप...

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विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत के मध्यदेश की मुख्य साहित्यिक भाषा एवं साथ ही साथ समस्त भारत की साहित्यिक भाषा के रूप में रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ ‘भाखा’ व "भाषा" नाम प्राप्त किया और "ब्रजबोली" नाम से नहीं, अपितु "ब्रजभाषा" नाम से विख्यात हुई। विभिन्न स्थानीय भाषाई समन्वय के साथ समस्त भारत में विस्तृत रूप से प्रयुक्त होने वाली हिन्दी का पूर्व रूप यह ‘ब्रजभाषा‘ अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" के नाम से भी पुकार सकते हैं।

ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में हिन्दी-काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों, रीतिकालीन कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। हिन्दी फिल्मों के गीतों में भी बृज के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया गया है। वस्तुतः उस काल में हिन्दी का अर्थ ही ब्रजभाषा से लिया जाता था |

ब्रजभाषा का जन्म, विस्तार ,विकास व काव्य यात्रा -

भारतीय आर्य भाषाओं की परंपरा में विकसित होने वाली "ब्रजभाषा" शौरसेनी भाषा की कोख से जन्मी है | संस्कृत का प्रचलन कम होने पर प्राकृत व अपभ्रंश के उपरांत विक्सित साहित्यिक भाषा - भाखा या भाषा ही ब्रजभाषा के नाम से देश–राष्ट्र की साहित्यिक भाषा बनी | गोकुल में बल्लभ सम्प्रदाय का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।

इसका विकास मुख्यत: पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश में हुआ। मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर ज़िलों में आज भी यह संवाद की भाषा है। पूरे क्षेत्र में ब्रजभाषा हल्के से परिवर्तन के साथ विद्यमान है। इसीलिये इस क्षेत्र के एक बड़े भाग को ब्रजांचल या ब्रजभूमि भी कहा जाता है।

यद्यपि पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूं की बोली से भिन्न नहीं हैं। इन सब ज़िलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कहा जा सकता है| बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली को 'दक्षिणी ब्रज' कहा जा सकता है |

साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। महानुभाव सम्प्रदाय तेरहवीं शताब्दी के अंत में सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। कालान्तर में साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में तंजौर और केरल में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। सौराष्ट्र व कच्छ में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी । उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ब्रजबुलि नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर मणिपुर तक हुआ। साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर बूंदी, मेवाड़ , किशनगढ़ की चित्रकारी का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं। गढ़वाल के मोलाराम का नाम उल्लेखनीय है। गुरु गोविन्दसिंह के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग था।

उन्नीसवीं शताब्दी तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का अक्षुण्ण देशव्यापी वर्चस्व रहा। इस प्रकार लगभग आठ शताब्दी तक बहुत बड़े व्यापक क्षेत्र में मान्यता प्राप्त करने वाली साहित्यिक भाषा रही। इस देश के साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा ने जो अवदान दिया है उसके बिना देश व साहित्य की रसवत्ता और संस्कारिता का मूल ही हमसे छिन जायगा | आधुनिक हिन्दी ने साहित्यिक भाषा के रूप में जो ब्रजभाषा का स्थान लिया है, वह स्थान भी ब्रजभाषा की व्यापकता के ही कारण सम्भव हुआ है। इस प्रकार से साहित्यिक ब्रजभाषा आधुनिक हिन्दी की धरती है। प्रारम्भिक अवस्था से ही ब्रजभाषा की धरती ने ही आधुनिक खड़ीबोली की कविता को अधिक लचीला बनाने की शक्ति दी उसके उक्ति विधान व सादृश्य विधान व मुहावरों ने प्रेरणा दी | सूक्ष्मता से यदि प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी की काव्यधारा का अध्ययन करें तो हमें ब्रजभाषा के प्रभाव से आई हुई लोच नज़र आयेगी।

एक प्रकार से ब्रजभाषा ही मुक्तक काव्य भाषा के रूप में उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में एकमात्र मान्य भाषा थी। उसकी विषयवस्तु श्री कृष्ण प्रेम तक ही सीमित नहीं थी, उसमें सगुण-निर्गुण भक्ति की विभिन्न धाराओं की अभिव्यक्ति सहज रूप में हुई और इसी कारण ब्रजभाषा जनसाधारण के कंठ में बस गई। 1814 में एक अंग्रेज़ अधिकारी मेजर टॉमस ने ‘सलेक्शन फ़्रॉम दि पॉपुलर पोयट्री ऑफ़ दि हिन्दूज’ नामक पुस्तक में सिपाहियों से संग्रहीत लोकप्रिय पदों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस में अधिकतर दोहे, कवित्त और सवैये हैं, जो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के द्वारा रचित हैं एवं केशवदास के भी छन्द इस संकलन में हैं। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि, मौखिक परम्परा से ब्रजभाषा के छन्द दूर-दूर तक फैले और लोगों ने उन्हें कंठस्थ किया। उनके अर्थ पर विचार किया और उन्हें अपने दैनिक जीवन का एक अंग बनाया। इस मायने में साहित्यिक ब्रजभाषा का भाग्य आज की साहित्यिक हिन्दी की अपेक्षा अधिक स्पृहणीय है।

रचना बाहुल्य के आधार पर प्राय: यह समझा जाता है कि ब्रजभाषा काव्य एकांगी या सीमित भावभूमि का काव्य है। ब्रजभाषा काव्य का विषयमूल रूप से शृंगारी चेष्टा-वर्णन तक ही सीमित है। साधारण मनुष्य के दु:ख-दर्द या उनके जीवन-संघर्ष का चित्र नहीं है पर जब हम भक्ति-कालीन काव्य का विस्तृत सर्वेक्षण करते हैं और उत्तर मध्यकाल की नीति-प्रधान रचनाओं में यह संसार बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है। चाहे सगुण भक्त कवि हों अथवा निर्गुण भक्त कवि; आचार्य कवि हों, स्वछन्द कवि या सूक्तिकार सभी लोक व्यवहार के प्रति बहुत सजग हैं और इन सबकी लौकिक जीवन की समझ बहुत गहरी नुकीली है।

भारतेन्दु की मुकरियों में व्यंग्य रूप में सामान्य व्यक्ति की प्रतिक्रिया, सामान्य-जीवन के बिम्ब पर आधारित प्रस्तुत मिलती है-

सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै।
लै भागै मोहि खेलहि खेल, क्यों सखि साजन ना सखि रेल।।
भीतर-भीतर सब रस चूसै, हंसि-हंसि तन मन धन सब मूसै।
ज़ाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन नहिं अंगरेज़।|

भूषण की तो बात ही क्या अनेक कवियों के भीतर धरती का लगाव, जो जन-जन के अराध्य आलंबनों से जुड़े हुए हैं, बहुत सरल ढंग से अंकित मिलता है। देव का एक प्रसिद्ध छन्द है, जिसमें बारात के आकर विदा होने में और उसके बाद की उदासी का चित्र मिलता है-

काम परयौ दुलही अरु दुलह, चाकर यार ते द्वार ही छूटे।
माया के बाजने बाजि गये परभात ही भात खवा उठि बूटे।
आतिसबाजी गई छिन में छूटि देकि अजौ उठिके अँखि फूटे।
‘देव’ दिखैयनु दाग़ बने रहे, बाग़ बने ते बरोठहिं लूटे।

ब्रजभाषा की काव्ययात्रा में एक मूल स्वर अवश्य ही मिलता है वह है तरह-तरह के भेदों और अलगावों को बिसराकर एक सामान्य भाव-भूमि तैयार करना। इसी कारण ब्रजभाषा कविता हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सभी में व्याप्त हुई।

उत्तर भारत के संगीत में चाहे ध्रुपद धमार, ख्याल, ठुमरी या दादरे में सर्वत्र हिन्दू-मुसलमान सभी प्रकार के गायकों के द्वारा ब्रजभाषा का ही प्रयोग होता रहा और आज भी जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहा जाता है, उसके ऊपर ब्रजभाषा ही छायी हुई है और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के कारण सम्भव हुई|

ब्रजभाषा साहित्य का कोई अलग इतिहास नहीं है, इसका कारण यह है कि हिन्दी और ब्रजभाषा दो सत्ताएँ नहीं हैं अपितु एक-दूसरे की पूरक हैं।

नानक के इस पद में देखिये---- ब्रजभाषा व हिन्दी का मिला जुला रूप है ---

जो नर दुख नहिं माने।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै।
नहिं निन्दा नहिं अस्तुति जाकें, लोभ मोह अभिमाना।

गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्ही तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोविन्द सौ ज्यों पानी सँग पानी।

ब्रजभाषा की समृद्धता, सर्वसुलभता व साहित्य में लाक्षणिक सौन्दर्य की वृद्धि ---

ब्रजभाषा के माध्यम से पूरे देश की कविता में एक ऐसी भावभूमि बनी जिसमें सभी वर्ग के जन भागी हो सकते थे और राष्ट्र ने एक ऐसी भाषा पाई, जिसकी गूँज मन को सौम्य तथा भक्त- भाव एवं लास्य से समन्वित बना सकती थी। इस युग में भाषा में सुन्दर व्याकरणीय प्रयोग हुए एक ओर घनानन्द जैसे कवियों में लाक्षणिक प्रयोगों का विकास हुआ, जिसमें लगियै रहै आँखिन के उर आरति’ जैसे प्रयोग अमूर्त को मूर्त रूप देने के लिए उदभूत हुए। दूसरी ओर सीधे मुहावरे की अर्थगर्भिता प्रदर्शित की गई। जैसे-

‘अब रहियै न रहियै समयो बहती नदी पाँय पखार लै री।...(ठाकुर)

प्रसाद गुण और लयधर्मी प्रवाहशीलता का उत्कर्ष भी इस युग में पहुँचा। जैसे-

आगे नन्दरानी के तनिक पय पीवे काज
तीन लोक ठाकुर सो ठुनकत ठाड़ौ है...(पद्माकर)

गंध ही के भारन मद-मंद बहत पौन...द्विजदेव

रैदास के पद ब्रजभाषा के और अधिक विक्सित रूप में हैं ---जो आधुनिक हिन्दी के निकट आते हुए हैं----

अब कैसे छूटे नाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी। जाकी अंग अंग बास समानी।
प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करी रैदासा।।

धर्मदास के ब्रजभाषा पदों में हल्की सी भोजपुरी छटा है

झर लागै महलिया गगन महराय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम आनन्द ह्वै साधु नहाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय।

मूलतः उपदेश की भाषा या फटकार की भाषा में अनेक क्षेत्रीय भाषाओं के तत्त्व मिलते हैं, किन्तु जहाँ साहित्यिकता एवं रागात्मक संवेदना तीव्र है, वहाँ भाषा परिनिष्ठित है और यह परिनिष्ठित भाषा ब्रज है।

गेय पद रचना पर तो ब्रजभाषा का अक्षुण्ण अधिकार है। तुलसीदास जी ने स्वयं भिन्न प्रयोजनों से भिन्न-भिन्न प्रकार की भाषा का प्रयोग किया। अवधी, ब्रज व अन्य विभिन्न प्रांतीय भाषाओं से मिश्रित हिन्दी ‘भाखा’ में उन्होंने रामचरित मानस लिखा। ब्रजभाषा में विनय-पत्रिका, गीतावली, दोहावली, कृष्ण-गीतावली लिखी | ठेठ अवधी में पार्वती-मंगल, जानकी-मंगल लिखा और साहित्यिक ब्रजभाषा के भी अनेक रूप उन्होंने प्रस्तुत किए।

स्थानीय भाषा-रुपों पर आधारित शैली वस्तुगत व विषयगत भाषा के साथ चलती है और अपने स्वतंत्र शैली-द्वीप या उपनिवेश बनाने लगती है। जब रामचरित्र की मर्यादाएँ, दिव्य श्रृंगार -माधुर्य में निमज्जित हो जाती हैं, निर्गुण वाणी से निर्गत रहस्यमूलक श्रृंगारोक्तियाँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने लगती है और राज्याश्रित श्रृंगार में राधाकृष्ण प्रतीक हो जाते हैं, तब आरंभिक स्थितियों में माधुर्य- श्रृंगार की ब्रजभाषा शैली अन्य भाषा- द्वीपों में भी विस्तार करने लगती है और ब्रजभाषा शैली अन्य स्थानीय भाषाओं से मैत्री शैली क्षेत्रों की सीमाओं का निर्धारण करती है।

ब्रजभाषा का अन्य भाषाओं से सह अस्तित्व---

१. सधुक्कड़ी -----संत कवियों के सगुण भक्ति के पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्यभाषा है, पर निर्गुनबानी की भाषा नाथपंथियों द्वारा गृहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा है। प्राचीन रचनाओं में ब्रजी और खड़ी बोली के रुपों का सहअस्तित्व मिलता है।ऐसा प्रतीत होता है कि पद- काव्यरुप के लिए ब्रजी का प्रयोग रुढ़ होता जा रहा था। नाथ और संत भी गीतों में इसी शैली का प्रयोग करते थे। सैद्धांतिक चर्चा या निर्गुन वाणी सधुक्कड़ी में होती थी|

२. गुजरात और ब्रजभाषा--- गुजरात की आरंभिक रचनाओं में शौरसेनी अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है। हेमचंद्र के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका है | गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कवि कृष्णदास भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परंपरा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है। इस प्रकार ब्रजभाषा गुजराती कवियों के लिए निज- शैली ही थी।

3.मालवा और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परंपरा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलतीहै |

४.बुंदेलखंड-- ब्रजभाषा के लिए “ग्वालियरी’ का प्रयोग भी हुआ है ब्रजभाषा शैली की सीमाएँ इतनी विस्तृत थीं कि ब्रजी और बुंदेली की संरचना प्रायः समान है। साहित्यिक शैली तो दोनों क्षेत्रों की बिल्कुल समान रही। ब्रज और बुंदेलखंड का सांस्कृतिक संबंध भी सदा रहा है। ब्रजभाषा का एक नाम ग्वालियरी भी था।

५.सिंध और पंजाब----में गोस्वामी लालजी का नाम आता है। इन्होंने १६२६ वि. में गोस्वामी विट्ठलनाथजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। सिंध में वैष्णव धर्म का प्रचार ब्रजभाषा में आरंभ हुआ। लालजी ब्रजभाषा के मर्मज्ञ थे। इस प्रकार सिंध में ब्रजभाषा साहित्य की पर्याप्त उन्नति की। पंजाब में ---गुरु नानक ने भी ब्रजभाषा में कविता की। आगे भी कई गुरुओं ने ब्रजभाषा में कविता रची। गुरुगोविंद सिंह का ब्रजभाषा- कृतित्व महत्त्वपूर्ण है ही। गुरु दरबारों में व राजदरबारों में भी ब्रजभाषा के कवि रहते थे इन कवियों में सिक्खों का विशेष स्थान है। सिख संतों ने धार्मिक प्रचार के लिए ब्रजभाषा को भी चुना । इस प्रकार पंजाब जो खड़ी बोली, पंजाबी, हरियाणवी की मिश्रित शैली का क्षेत्र माना जा सकता है, ब्रजभाषा की शैली के विकास में योग देता रहा।

६. बंगाल : सार्वदेशिक शौरसेनी के प्रभाव क्षेत्र में बंगाल था ही। बल्कि यों कहना चाहिए कि पूर्वी अपभ्रंश पश्चिम भारत से ही पूर्व में आई। अवह का प्रयोग मैथिल कोकिल विद्यापति ने कीर्तिलता में किया। इसमें मिथिला और ब्रज के रुपों का मिश्रण है। बंगाल के सहजिया- साहित्य की रचना भी मुख्यतः इसी में हुई है।

वैष्णव साधु समाज की जो भाषा बनी उसका नाम ब्रजबुलि है। इसके विकास में मुख्य रुप से ब्रजी और मैथिली का योगदान था। बंगाल के कविवृंद मैथिली, बंगाली और ब्रजभाषा के मेल से घटित ब्रजबुली शैली को अपनाने लगे। इसी भाषा में गोविंददास, ज्ञानदास आदि कवियों का साहित्य मिलता है। मैथिली मिश्रित ब्रजी आसाम के शंकरदेव के कंठ से भी फूट पड़ी। बंगाल और उत्कल के संकीर्तनों की भी यही भाषा बनी।

७. महाराष्ट्र ब्रजभाषा शैली का प्रसार महाराष्ट्र तक दिखलाई पड़ता है। सबसे प्राचीन रुप नामदेव की रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास प्रभृति भक्त-संतों की हिंदी रचनाओं की भाषा, ब्रज और दक्खिनी हिंदी है।

मुस्लिम काल में भी शाहजी एवं शिवाजी के दरबार में रहने वाले ब्रजभाषा के कवियों का स्थान बना रहा। कवि भूषण तो ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि थे ही।

८.दक्षिण में खड़ीबोली शैली का ही दखनी नाम से प्रसार हुआ | इन मुस्लिम राज्यों के आश्रित साहित्यकारों ने ग्वालेरी कविता का उल्लेख बड़ी श्रद्धा के साथ किया है। तुलसीदास के समकालीन मुल्ला वजही ने सबरस में ग्वालेरी के तीन दोहे उद्धृत किए हैं। ब्रज-शैली के या ब्रज के प्रचलित दोहों का प्रयोग वजही ने बीच-बीच में किया है| अतः दक्खिन क्षेत्र खड़ी बोली शैली के विकास का क्षेत्र था। प्रायः गद्य रचनाओं में हरियाणवी बोली का प्रयोग मिलताहै, पद्य रचना में ब्रजभाषा शैली का मिश्रण है। गद्य में लिखित प्रेमगाथाओं के बीच में ब्रजभाषा शैली के दोहे प्रयुक्त मिलते हैं। ब्रजभाषा शैली का संगीत समस्त भारत में प्रसिद्ध था। केरल के महाराजा राम वर्मा -स्वाति-तिरुनाल के नाम से ब्रजभाषा में कविता करते थे।

ब्रज शैली क्षेत्र --ब्रजभाषा काव्यभाषा के रुप में प्रतिष्ठित हो गई। कई शताब्दियों तक इसमें काव्य- रचना होती रही। सामान्य ब्रजभाषा- क्षेत्र की सीमाओं का उल्लंघन करके ब्रजभाषा- शैली का एक वृहत्तर क्षेत्र बना। रीतिकाल के कवि आचार्य भिखारीदासजी ने स्पष्ट कहा कि- ‘यह नहीं समझना चाहिए कि ब्रजभाषा मधुर- सुंदर है बस, इसके साथ संस्कृत और फारसी ही नहीं, अन्य भाषाओं का भी पुट रहता है। फिर भी ब्रजभाषा शैली का वैशिष्ट्य प्रकट रहता है।‘ इससे यह भी सिद्ध होता है कि ब्रजभाषा शैली अनेक भाषाओं से समन्वित थी। वास्तव में १६ वीं शती के मध्य तक ब्रजभाषा की मिश्रित शैली सारे मध्यदेश की काव्य- भाषा बन गई थी।

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार “ब्रज की वंशी- ध्वनि के साथ अपने पदों की अनुपम झंकार मिलाकर नाचने वाली मीरा राजस्थान की थीं, नामदेव महाराष्ट्र के थे, नरसी गुजरात के थे, भारतेंदु हरिश्चंद्र भोजपुरी भाषा क्षेत्र के थे। …बिहार में भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषा क्षेत्रों में भी ब्रजभाषा के कई प्रतिभाशाली कवि हुए हैं। पूर्व में बंगाल के कवियों ने भी ब्रजभाषा में कविता लिखी।’

पश्चिम में राजस्थान तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा ,गुजरात और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। कच्छ के महाराव लखपत बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था।

पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा- शैली का जन्म हुआ| पिंगल शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।

रासो की भाषा को इतिहासकारों ने ब्रज या पिंगल माना है। वास्तव में पिंगल ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी, यह जनभाषा नहीं थी। इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है। ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रुपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है। इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम ( १२ वीं- १३ वीं शती ) के समय हो गया था, पर इसका प्रयोग चारण बहुत पीछे के समय तक करते रहे। पीछे पिंगल शैली भक्ति- साहित्य में संक्रमित हो गई।

अतः स्पष्ट हो जाता है कि ब्रजभाषा भाषा व ब्रज शैली के खंड-उपखंड समस्त भारत में बिखरे हुए थे। कहीं इनकी स्थिति सघन थी और कहीं विरल |

आधुनिक युग में भारतेंदु व उनके पिता गिरधरदास ब्रज भाषा में रचना करते थे यहाँ से खडीबोली व ब्रज भाषा का मिश्र रूप प्रारम्भ हुआ जो आधुनिक हिन्दी खड़ीबोली की पूर्व भूमिका बना | १८७५ में हरिश्चंद्र चन्द्रिका में अमृतसर के कवि संतोष सिंह का कवित्त ब्रज मिश्रित हिन्दी का उदाहरण है ---

हों द्विज विलासी वासी अमृत सरोवर कौ

काशी के निकट तट गंग जन्म पाया है |

शास्त्र ही पढ़ाया कर प्रीति पिता पंडित ने

पाया कवि पंथ राम कीन्हीं बड़ी दाया है ||

प्रेम को बढाया अब सीस को नबाया देखो,

मेरे मन भाया कृष्ण पांय पे चढ़ाया है ||

ब्रजभाषा साहित्य व गद्य ---

प्रायः ब्रजभाषा साहित्य की बात करते समय उसमें गद्य का समावेश नहीं किया जाता। इसका कारण यह नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य और साहित्यिक गद्य है ही नहीं। वैष्णवों के वार्ता साहित्य में, भक्ति ग्रन्थों के टीका साहित्य में तथा रीतकालीन ग्रन्थों के टीका साहित्य में ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, | छापाखाने के आगमन के बाद गद्य का महत्व बढ़ा , लल्लूलाल जी ने अपने प्रेमसागर में ब्रजभाषा से भावित गद्य की रचना की और वास्तव में वह गद्य ही आधुनिक गद्य की भूमि बना|

प्रारम्भ में ही भारत में आने के बाद मुसलमानों ने ‘जबान-ए-हिंदी’ का प्रयोग आगरा-दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा ( जो मूलतः ब्रजभाषा थी ) के लिए किया। जबान-ए-हिंदी’ माने हिंद में बोली जाने वाली जबान। इस इलाके के गैर-मुसलिम लोग बोले जाने वाले भाषा-रूप कोभाखा’ कहते थे, हिंदी नहीं। यह भाखा, ब्रजभाषा का देशभर की स्थानीय भाषाओं से प्रभावित खडीबोली प्रभावित रूप व हिन्दी का पूर्व रूप थी |

कबीरदास का कथन था--संस्किरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।

महात्मा गोरखनाथ ( तेरहवीं सदी ) ने सदाचार और धर्म के तत्व की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया और इसी सूत्र से हिन्दी के गद्य-साहित्य की सृष्टि कर प्रथम हिन्दी-गद्य-लेखक के रूप में वे कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हुए। गुरु गोरखनाथ की पद्य की भाषा में अनेक प्रान्तों के शब्दों का प्रयोग है। किन्तु गद्य की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा है तथा उसमें संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। यथा---

''सो वह पुरुष संपूर्ण तीर्थ अस्नान करि चुकौ, अरु संपूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि कौ दै चुकौ, अरु सह जग करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को संतुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकौ, जा मनुष्य के मन छन मात्रा ब्रह्म के विचार बैठो।''

गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ ने भी 252 एवं 84 वैष्णवों की वार्ता..नामक दो ग्रन्थ रचे | गोस्वामीजी की भाषा ब्रजभाषा व खड़ीबोली का मिश्र रूप है ----

. ''ऐसो पद श्री आचार्य जी महाप्रभून के आगे सूरदास जी ने गायौ सो सुनि के श्री आचार्य जी महाप्रभून ने कह्यौ जो सूर ह्वै के ऐसो घिघियात काहै को है कछू भगवल्लीला वर्णन करि। तब सूरदास ने कह्यौ जो महाराज हौं तो समझत नाहीं।

''नन्ददास जी तुलसीदास के छोटे भाई हते। सो बिनकूं नाच तमासा देखबे को तथा गान सुनबे को शोक बहुत हतो।''

देव महाकवि थे और साधारण सी बात को भी अत्यन्त अलंकृत शैली में लिखने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति थी-----उनकी ब्रज व खड़ीबोली मिश्रित भाषा का उदाहरण प्रस्तुत है ----

सिध्दि श्री 108 श्री श्री पातसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खास में तषत ऊपर विराजमान हो रहे और आम खास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निश बजाय जुहार कर के अपनी अपनी बैठक पर बैठ जाया करे अपनी-अपनी मिसिल से।''

ब्रजभाषा के गद्य में कथा-वार्ता का एकदेशीय विकास हुआ था। लल्लू लाल जी ने प्रेमसागर की रचना की। वे आगरा के रहने वाले थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के शब्दों की भरमार होना स्वाभाविक था। उस समय भाषा का कोई सर्वमान्य आदर्श उनके सामने नहीं था, लल्लूलाल जी ने प्रेम सागर अपनी अनुमानी हिन्दी में बनाई। ये उर्दू के आदर्श को त्याग कर चले, इसलिए आवश्यकता से अधिक ब्रजभाषा के शब्द उनकी रचना में प्रयोग हुए यथा---

''इतना कह महादेव जी गिरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय, नीर में न्हाय, न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती जी को वस्त्रा-'आभूषण पहिराने।''

. ''बालों की श्यामता के आगे अमावस्या की ऍंधोरी फीकी लगने लगी। उसकी चोटी सटकाई लख नागिन अपनी केंचुली छोड़ सटक गयी। भौंह की बँकाई निरख धानुष धकधकाने लगा। ऑंखों की बड़ाई चंचलाई पेख मृग मीन खंजन खिसाय रहे।''

मुन्शी सदासुख लाल ने धार्मिक कथा का वर्णन किया तो इन्शाअल्ला खाँ ने बहुत ही रोचक और सरल तथा मुहावरेदार ठेठ भाषा में प्रेम-कहानी लिखी, उन दोनों के सामने उर्दू का आदर्श था, इसलिए उनकी भाषा विशेष परिमार्जित और खड़ी बोली के रंग में ढली हुई है, इन्शा की भाषा के दो नमूने देखिए-

'एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने धयान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले।

''सिर झुका कर नाक रगड़ता हूँ, उस अपने बनाने वाले के सामने जिसने हम सबको बनाया है और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया।''

इस प्रकार पद्य की भाँति ब्रजभाषा का गद्य भी धीरे धीरे खड़ी बोली में परिवर्तित होने लगा | अतःब्रजभाषा का स्थान उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त से जो खड़ीबोली हिन्दी को मिला, उसमें गद्य की नयी भूमिका का महत्व के साथ साथ अन्य बड़ा कारण था, अंग्रेजों के द्वारा उत्तर भारत में कचहरी भाषा के रूप में उर्दू भाषा को मान्यता देना।

इस प्रकार स्वतन्त्रता पश्चात तक हिन्दी का अर्थ ब्रजभाषा ही बना रहा | देश की सांस्कृतिक एकता के लिए ब्रजभाषा एक ज़बर्दस्त कड़ी की भाँति सात शताब्दियों से अधिक समय तक बनी रही और आधुनिक हिन्दी की व्यापक सर्वदेशीय भूमिका इसी साहित्यिक ब्रजभाषा के विशद व व्यापक सर्वदेशीय प्रभाव के कारण सम्भव हुई है।

वास्तव में सरकार नहीं चाहती थी हिन्दी को और विद्वानों, साहित्यकारों व जनमानस को भय था कि सरकार को हिन्दी फूटी आँखों नहीं भाती और इस प्रकार हिन्दी कभी राजभाषा नहीं बनेगी अतः खडीबोली को आगे लाया गया परन्तु संस्कृत निष्ठ खडीबोली व उर्दूनिष्ठ हिन्दुस्तानी का द्वंद्व खडा करके हिन्दी को पुनः पीछे धकेल दिया गया, जो आज की हिन्दी की स्थिति है |

---डा श्याम गुप्त

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रचनाकार: ब्रजभाषा व उसकी काव्य-यात्रा / आलेख / डॉ. श्याम गुप्त
ब्रजभाषा व उसकी काव्य-यात्रा / आलेख / डॉ. श्याम गुप्त
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