‘‘सनातन’’ कैलाश प्रसाद यादव श्री गणेशाय नमः आओ हम गणतंत्र मनायें।। आओ गण से तंत्र मिलायें, नया कोई हम मंत्र बनायें। झंकृत कर दें अवनि अ...
‘‘सनातन’’ कैलाश प्रसाद यादव
श्री गणेशाय नमः
आओ हम गणतंत्र मनायें।।
आओ गण से तंत्र मिलायें,
नया कोई हम मंत्र बनायें।
झंकृत कर दें अवनि अंबर,
अदभुत् वीणा यंत्र बनायें।
विश्व-पटल पर छाये तिरंगा,
आओ हम गणतंत्र मनायें।।
अखिल विश्व में राग अलापें,
अमन का सबको पाठ पढ़ायें।
दूर करें हम दीवारों को,
घर-घर रोशन दान बनायें।
पग- पग पर हम फूल बिखेरें,
इंद्रधनुा बन जग पर छायें।
विश्व-पटल पर छाये तिरंगा,
आओ हम गणतंत्र मनायें।।
रंगभेद और कट्टर पन को,
दफन करें हम अपने अंदर।
मन की आंखें फिर से खोलें,
फिर से झांकें अपने अंदर।
देखो कितना भरा हुआ है,
सबमें इकसा प्रेम समंदर।
आओ मिलजुल करें प्रार्थना,
जग में जीवन-ज्योति जलायें।
विश्व-पटल पर छाये तिरंगा,
आओ हम गणतंत्र मनायें।।
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रमेश शर्मा
दोहे रमेश के, मकर संक्राँति पर
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मकर राशि पर सूर्य जब, आ जाते है आज !
उत्तरायणी पर्व का,........हो जाता आगाज !!
कनकौओं की आपने,ऐसी भरी उड़ान !
आसमान में हो गये ,.पंछी लहू लुहान !!
घर्र-घर्र फिरकी फिरी, ..उड़ने लगी पतंग !
कनकौओं की छिड़ गई,.आसमान में जंग !!
अनुशासित हो कर लडें,लडनी हो जो जंग !
कहे डोर से आज फिर , उडती हुई पतंग !!
भारत देश विशाल है, अलग-अलग हैं प्रांत !
तभी मनें पोंगल कहीं, कहीं मकर संक्रांत !!
उनका मेरा साथ है,...जैसे डोर पतंग !
जीवन के आकाश मे, उडें हमेशा संग !!
मना लिया कल ही कहीं,कही मनायें आज !
त्योंहारो के हो गये,.अब तो अलग मिजाज !!
त्योहारों में घुस गई, यहाँ कदाचित भ्राँति !
मनें एक ही रोज अब, नहीं मकर संक्राँति !!
रमेश शर्मा ९८२०५२५९४०
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कविता "किरण"
"नारी"
जीवन का आधार है नारी
उत्सव और त्यौहार है नारी
कभी शारदा कभी लक्ष्मी
दुर्गा का अवतार है नारी
मत समझो लाचार है नारी
मत समझो बेकार है नारी
स्वागत और सत्कार इसी से
मन्नत और मनुहार इसी से
नियम नीति और परम्पराएं
संस्कृति और संस्कार इसी से
ग्रहस्थी की पतवार है नारी
व्यक्ति नहीं परिवार है नारी
मत समझो लाचार है नारी
मत समझो बेकार है नारी
पन्ना का बलिदान यही है
पद्मिनी का अभिमान यही है
रण में है झाँसी की रानी
गिरधर का गुणगान यही है
प्रेम प्रीत श्रृंगार है नारी
सृष्टि का उपहार है नारी
मत समझो लाचार है नारी
मत समझो बेकार है नार
फूल कभी अंगार बनी है
ढाल कभी तलवार बनी है
कभी है श्रद्धा कभी समर्पण
त्याग कभी अधिकार बनी है
खुद अपने अनुसार है नारी
जय है जय जयकार है नारी
मत समझो लाचार है नारी
मत समझो बेकार है नारी
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अंजली अग्रवाल
“ कागज ”
मामूली सा कागज का टुकड़ा हूँ मैं‚
कभी किसी के गम का तो‚
किसी के खुशी का साथी हूँ मैं ।
कहीं बेजुबाँ होंठों की आवाज हूँ मैं‚
तो कहीं सत्य का प्रमाण हूँ मैं ।
कभी बारिश के पानी में बहती नाव हूँ मैं‚
तो कभी आसमान को छूती पतंग हूँ मैं ।
सुबह घरों मे डेरो घबरो के साथ आता हूँ मैं‚
वही श्याम होते ही रद्दी बन जाता हूँ मैं‚
तो कहीं किसी के जिन्दगी भर की कमाई हूँ मैं।
मिट—मिट कर बनता हूँ मैं‚
कलम के लाखो जख्मों को सहता हूँ मैं‚
न जाने कितने भेस बदलता हूँ मैं‚
तब कहीं किताब बनता हूँ मैं ‚
वरना तो बस मामूली सा कागज का टुकड़ा हूँ मैं ।
कागज का टुकड़ा हूँ मैं ।
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दिनेश कुमार 'डीजे'
अंधेरों से दुश्मनी कई दुश्मन बना देती है,
सरफीरी हवाएँ अक्सर दीया बुझा देती है।
सक्रांत की कटी पतंगों से मैंने जाना है,
बुरी सोहबत ऊंचे किरदार गिरा देती है।
परिंदों को तालिम उड़ने की कौन देता है?
पंखों की छटपटाहट उड़ना सीखा देती है।
किताबों के साथ मैं रस्ते भी पढ़ लेता हूँ,
किताबों से ज्यादा ठोकर सीखा देती है।
आशिक और जिहादी मुझे एक से दीखते हैं,
नादानी इन दोनों को काफ़िर बना देती है।
©डीजे
सक्रांत-Makar Sakranti,
सोहबत- company, संगति,
जिहाद-a war or struggle against unbelievers.
काफ़िर- जो ख़ुदा को नहीं मानता, a person who is not a Muslim (used chiefly by Muslims).
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बेलुत्फ जिंदगी में मैं जिन्दा हूँ ये सोचकर,
कहीं मेरी कायराना हरकत पर,
सियासत न शुरू हो जाए।
मेरी जाति और धर्म जो मेरे नाम से भी नहीं जुड़े,
कहीं उसकी खबर पुरे देश को न लग जाए।
कहीं मेरी लाश पर बैठकर
सियासतगार देश को दलित-गैर दलित में
बांटने का काम न करने लगें।
कहीं मुझे नेता दलित, पिछड़ा, गरीब किसान या मुसलमान कहकर मेरी बुजदिली को शहादत का नाम देकर देश के बहादुर सैनिकों का अपमान न कर दे।
कहीं मेरा परिवार, मेरे दोस्त मेरी मौत पर रो ना पड़े।
कहीं मेरे चाहने वालों की खुशहाल जिंदगी,
मेरी मौत से ग़मगीन ना हो जाए।
कहीं मेरी माँ की जिंदगी इस सदमे से नरक से भी बदतर न हो जाए।
बेलुत्फ जिंदगी में मैं जिंदा हूँ ये सोचकर,
जिंदगी का बुरा दौर यक़ीनन बदलेगा,
जिंदगी यक़ीनन नई खुशियाँ लेकर आएगी।
मैं मुश्किलों से लड़ूंगा और जीत कर दिखाऊंगा।
जय हिन्द, जय भीम
©डीजे
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जो जरुरी नहीं वो अक्षर भूल जाते हैं,
लोग चेहरे और नाम अक्सर भूल जाते हैं।
परिंदों का सफ़र है दाना-पानी की खोज में,
नए तिनके पाकर पुराने शज़र भूल जाते हैं।
वफ़ा और वक्त से भी जो तेज़ चलते हैं,
नींद खुलते ही वो बिस्तर भूल जाते हैं।
लाश तो मिली पर कौन था कातिल?
अदालतों में गवाह भी मंजर भूल जाते हैं।
शहर जाकर महलों को जो ख़ुदा मान बैठे,
गांव के मंदिर के वो पत्थर भूल जाते हैं।
ए दोस्ती के अंगोछे तुझे कौन याद रखेगा?
गर्मियां आते ही लोग मफलर भूल जाते हैं।
© दिनेश कुमार 'डीजे'
शज़र-पेड़
कवि परिचय
दिनेश कुमार 'डीजे'
जन्म तिथि - 10.07.1987
सम्प्रति- भारतीय वायु सेना में वायु योद्धा के रूप में कार्यरत
शिक्षा- १. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण २. समाज कार्य में स्नातकोत्तर एवं स्नातक उपाधि
३. योग में स्नातकोत्तर उपाधिपत्र
प्रकाशित पुस्तकें - दास्तान ए ताऊ, कवि की कीर्ति एवं प्रेम की पोथी
पता- हिसार (हरियाणा)- 125001
फेसबुक पेज- facebook.com/kaviyogidjblog
फेसबुक प्रोफाइल- facebook.com/kaviyogidj
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अक्षय आजाद भण्डारी
मिलावट खोरो को भगाना होगा
कभी मिलावट खोरो के लिये
किसको जागना होगा
घर बैठेने से अच्छा है
आज ही दो कदम बढ़ाना होगा
सेहत अगर हमे प्यारी है तो
अच्छा खाने-पीने के लिये
आज जानना होगा,
सीख जाएगे तो हमे
दिनचर्या में भी लाना होगा
जिन्हे सेहत की फिक्र है उसे
मिलावट खोरो को भगाना होगा।
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खिलाने पिलाने वाले सारे
सेहत के दुश्मन हो गए,
कहते है ,ये दुनिया
जागती है फिर सो जाती है
जब से मिलावट खोर बैखोफ हो गए।
अक्षय आजाद भण्डारी राजगढ़
तहसील सरदारपुर जिला धार मध्यप्रदेश
मों. 9893711820
ई मेल -bhandari.akshay11@gmail.com
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जयप्रकाश श्रीवास्तव
परिन्दे संवेदना के
........
अब नही आती खबर
अमराइयों से
मर चुके हैं परिन्दे
संवेदना के
फूल पत्ते सिसकते हैं
पेड़ डाली हैं उदास
उग नही पाते जरा भी
बंजरों में अमलतास
कटे पर लेकर उजाले
जीते पल आलोचना के
प्रकृति के पालने में
ध्वंस के सजते हैं मंच
झांकते वातायनों से
अंधेरों के छल प्रपंच
सुनाई देते नहीं हैं
स्वर कोई आराधना के
......
जयप्रकाश श्रीवास्तव आई सी 5 सैनिक
सोसायटी जबलपुर मो. 7869193927
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