पंचायती राज : सपनों को मंज़िलों तक ले जाने की ज़रुरत / आलेख / चन्द्रकुमार जैन

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आज़ादी के बाद संवैधानिक रूप से पंचायती राज व्यवस्था राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था कि ‘‘आजादी नीचे से श...

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आज़ादी के बाद संवैधानिक रूप से पंचायती राज व्यवस्था राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की इच्छा के कारण लागू हुई। उनका मानना था कि ‘‘आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।’’

गांधीजी की इसी अवधारणा को फलीभूत करने के उद्देश्य से आजादी के बाद संविधान में पंचायती राज की व्यवस्था करते हुए अनुच्छेद-40 में राज्यों को यह निर्देश दिया गया कि वे अपने यहां पंचायती राज का गठन करें।अक्तूबर,1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम आरंभ किया गया, जिसके तहत सरकारी कर्मियों के साथ सामान्य लोगों को भी गांव की प्रगति में भागीदार बनाने की व्यवस्था की गई। बाद में पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने के लिए सुझाव देने के लिए 1957 में बलवंत राय मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने ग्राम समूहों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के तहत निर्वाचित पंचायतों, खंड स्तर पर निर्वाचित और नामित सदस्यों वाली पंचायत समितियों और जिला स्तर पर जिला परिषद् गठित करने का सुझाव दिया। इसके बाद अशोक मेहता समिति, डॉ राव समिति, डॉ एलएम सिंघवी समिति, आदि का समय-समय पर गठन किया गया और इनके द्वारा दिए गए सुझावों पर कमोबेश अमल भी हुआ। 

आगे श्री राजीव गांधी ने पंचायती राज को ज़मीनी हकीकत में बदलने का बीड़ा उठाया था जिसके परिणामस्वरूप आने वाले वर्षों में संविधान संशोधन भी किए गए। तिहत्तरवां और चवहत्तरवाँ संविधान संशोधन दोनों बेहद महत्त्वपूर्ण पड़ाव रहे। इसके तहत त्रिस्तरीय पंचायती राज की व्यवस्था की गई। फिलहाल आवश्यकता यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को जागरूक करने की तरफ ध्यान दिया जाए। जागरूकता आने पर लोग पंचायत के कार्यों को समझेंगे। मत की ताकत समझ जाने पर वे व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठ कर काम करेंगे। इसके अलावा पंचायत चुनाव प्रणाली में सुधार की भी दरकार है।

लोकतंत्रीय व्यवस्था में पंचायती राज वह माध्यम है, जो शासन को सामान्य जनता के दरवाजे तक लाता है। पंचायती राज व्यवस्था में स्थानीय जनता की स्थानीय शासन के कार्यों में लगातार रूचि बनी रहती है, क्योंकि वे अपनी स्थानीय समस्याओं का स्थानीय पद्धति से समाधान कर सकते हैं। इस तरह पंचायती राज व्यापक भागीदारी का पर्याय है।15 मई 1989 को संसद में जो 64 वाँ संविधान संसोधन बिल पेश किया गया था उसकी रजत जयन्ती का यह साल है। यही वह बड़ा क़दम था जिसके कारण धीरे-धीरे जो संशोधन हुए उनके आधार पर सन 2008 से 24 अप्रेल को हम राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस के रूप में मना रहे हैं। भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की अवधारणा को साकार करने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम है। 

पंचायती राज की चुनौतियां कम नहीं हैं। कई बार हम सभी जानते है कि योग्य प्रशासकों एवं विशेषज्ञों के अभाव में नियोजन कार्य असफल हो जाता है। अधिकारियों व पदाधिकारियों के बीच संबंधों की चुनौती भी हमारे सामने है। संबंधों के अभाव के कारण विभागीय तनाव, मनमुटाव, ईर्ष्‍या की भावना का विकास होता है। जिससे आपसी सहयोग व समन्वयन का अभाव दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है। विकासात्मक योजनाओं के क्रियान्वयन में अनियमितता न हो। चुने हुए जन प्रतिनिधियों की शक्ति को कम न आंका जाये। योजनाओं में जन सहभाग की कमी भी एक चुनौती है।योजना के क्रियान्वयन में ढीलापन भी चुनौती है। ऎसी चुनौतियों का सामना करने के लिए विशेषज्ञों के सुझाव इस प्रकार हैं - 

1. अधिकारियों एवं आम जनता को योजनाओं के सफल क्रियान्वयन में सहयोग देना चाहिए, ताकि ग्रामीण विकास के लिए प्रशासन को सहयोग मिल सके।

2. विकासात्मक कार्यों को करने के लिए प्रशासकों एवं विशेषज्ञों को स्वतंत्रता हो लेकिन उनका रुख पारदर्शी होने से बेहतर नतीजे मिलेंगे। 

3.    किसी भी  समस्या के वास्तविक आकड़े व तथ्य प्रशासन को प्राप्त कराने में संबंधित व्यक्ति को सहयोग प्रदान करना चाहिए।

4. अधिकारियों एवं कर्मचारियों को प्रस्तावित फाइलों की यथोचित कार्यवाही के साथ एक निश्चित अवधि के अंदर पूर्ण करना चाहिए।

5. राजनीतिक दल व हाई कमानों का नियंत्रण समय-समय पर होना चाहिए ताकि उनका मनोबल, लगन एवं इमानदारी से कार्य करते रहें, इससे भ्रष्टाचार को बढ़वा नहीं मिलेगा। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि ज्यादा नियंत्रण ही भ्रष्टाचार का दूसरा नाम है।

6. विकास कार्यों का नियोजन, क्रियान्वयन एवं उसका मूल्यांकन समय-समय पर किया जाना चाहिए, जिससें पिछड़े हुए क्षेत्रों का विकास तीव्र गति से हो सकेगा।

7. व्यक्तिगत हितों को ध्यान रखकर योजनाएं नहीं बनानी चाहिए वल्कि जनहित को ध्यान रखकर योजनाओं का निर्माण व क्रियान्वयन करना चाहिए।

8. आय के पर्याप्त एवं स्वतंत्र स्रोत पंचायती राज संस्थाओं को दिये जाने चाहिए, ताकि उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बन सके। 

9. जिला स्तर के योजनाकार क्षेत्रों में जाकर ग्रामीण वास्तविकताओं को जानने के लिए अपने समय का उचित अंश गांव में गुजारें। यह न केवल आयोजन को कम गूढ़ व अधिक अर्थवान बनाएगा बल्कि अधिक अच्छे क्रियान्वयन की संभावना होगी।

शासन एवं जनता अपनी जिम्मेदारियों एवं जबावदारियों को सक्रियता से निभाने का प्रयास करें। जब तक जनता व शासन अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वहन नहीं करेगी तब तक गांधी जी और पंचायती राज के सपनों को साकार करने की कल्पना अधूरी रहेगी। आवश्यक है कि जनता और शासन दोनों अपनी भूमिका को समझे। हम हमेशा याद रखें कि पंचायती राज को अधिकतम लोकतंत्र और अधिकारों के अधिकतम हस्तांतरण का दूसरा नाम है। 

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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

राजनांदगांव

मो.9301054300

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रचनाकार: पंचायती राज : सपनों को मंज़िलों तक ले जाने की ज़रुरत / आलेख / चन्द्रकुमार जैन
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