ईबुक - सरहदों की कहानियाँ - 10 / बीमार आकांक्षाओं की खोज - मुश्ताक़ अहमद शोरो/ अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी

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  बीमार आकांक्षाओं की खोज मुश्ताक़ अहमद शोरो क्या ये सब जिल्लते, यंत्रणाएँ, अपमान, मानसिक यातनाएँ, अनाड़ीपन, महत्वहीनता के नगण्य भाव मेरे...

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बीमार आकांक्षाओं की खोज

मुश्ताक़ अहमद शोरो

क्या ये सब जिल्लते, यंत्रणाएँ, अपमान, मानसिक यातनाएँ, अनाड़ीपन, महत्वहीनता के नगण्य भाव मेरे हिस्से में आने वाले थे? दोष भी किसे दें, मेरी ऐसी दयनीय दशा के लिए! वैसे तो मैं अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों, उम्मीदों, नाकामियों, निराशाओं और नाउम्मीदों में ज़िन्दा था, जीता रहा ऐसे ही, पर यह अहसास? शायद मेरे चेहरे की तरह, मेरी रूह, मेरे वजूद और सोच में भी सिलवटें पड़ गई हैं या शायद मैं ग़लत मौक़े, ग़लत वक़्त और ग़लत जगह पर पैदा हुआ हूँ या मौजूद हूँ।

पर यह कोई ख़ास नई या हैरान करने वाली बात तो नहीं है। मैं जो कुछ भी सोचता हूँ, वह कह नहीं सकता। ये तो शुरू से ही था। और उसके सवालों के जवाब, उन की सोच विचार और राय पर जवाब, और उन जवाबों की दलीलें बाद में ही दिमाग़ में आती हैं। "ऐसे जवाब देता तो यह दलील देता।" सामने बात करते तो जैसे साँप सूँघ जाता है। होश गुम हो जाते हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ, कौन सा जवाब दूँ?

मेरे लिये लोगों का धिक्कार, नफ़रत, नज़रअंदाज़ी और अहमियत न देने का कारण तो मान लें, मेरा अनाड़ीपन और पागलपन ही हो। पर मेरे साथ ऐसा क्यों है? कोई कितनी भी बेइज़्ज़ती करे, ज़लील करे, ठिठोली करे, ताने मारे, पर बदले में देने के लिये मेरा पास कुछ भी नहीं। पहले तो मन ही मन में उस आदमी को अपने हाथों ज़लील ओर अपमानित करने की फिल्म बार बार चलाता था, पर अब ज़िन्दगी के उस पायदान पर कौन बैठकर लेखा-जोखा करे। बचा ही क्या है अब, हिसाब किताब के लिये! शोलों की प्रतीक्षा की पीड़ा, संताप व यातना जो मौत की सज़ा क़रार क़ैदी अपनी जिऩ्दगी की आख़िरी रात महसूस करता है, इसे इस क़ैदी से ज़्यादा और कौन कैसे जान, समझ, महसूस कर सकता है?

मैं जो अपने वजूद के पहले दिन से अंधेरों में भटकता, खिसकता, ठोकरें खाता साफ़-शफ़ाक़, उजली रोशनी और उजाले की खोज करता रहा, मिला क्या? अंधकूप, प्रकाशरहित काली रातें मुक़दर बनती रहीं। मुक़दर, तक़दीर, भाग्य पता नहीं क्या है!

पर सच में अजीब दस्तूर है कि एक जैसी ही परिस्थितियों में, एक जैसे अवसर पाने पर भी कोई जीत जाता है, कोई हार बैठता है। कोई बच जाता है तो कोई ज़िन्दगी से हाथ धो बैठता है। एक ही बस के हादसे में कोई मर जाता है तो किसी को खरोंच भी नहीं आती। और मैं जिस किसी काम में हाथ डालता हूँ तो बस गड़बड़ पैदा करने का सबब बन जाता हूँ। सीधा-सरल काम तो मुझसे कभी हुआ ही नहीं है। मेरा वजूद ही एक ‘क्रिमिनल जोक’ है।

क्रिमिनल!.... क्राइम.... क्या है क्राइम? क्रिमिनल अपराधी बनना आदमी का अपना चुनाव तो नहीं। इन्सान तो बिलकुल ख़ाली और कोरा है। उसके पास देने के लिये अपना कुछ भी नहीं है। वह तो सिर्फ़ समाज को वही लौटाकर देता है, जो समाज उसे देता है। और यही समाज! इस समाज के पास तो क्रिमिनल अपराधी, अशक्त मरीज़ या पागल पैदा करने के सिवा है भी क्या? यह रचना एक बड़ा कारख़ाना है, गुनहगार और दुर्बल मरीज़ पैदा करने का। अपनी पैदाइश के लिये सज़ाएं भी समाज ख़ुद ही तय कर बैठा है।

ज़िन्दगी मैं नहीं गुज़ार रहा, ज़िंदगी ही मुझे धीरे-धीरे जी रही है। कभी न कम होने वाली यातनाओं में, ना उम्मीदों और मायूसियों के कभी न ख़त्म होने वाले सिलसिले में। ज़िन्दगी के हाथों मैंने हर क़दम पर, हर मोड़ पर मार खाई है और मेरे हिस्से में अपने ही ज़ख्मों को चाटने के सिवा आया ही क्या है?

आगे क्या होगा? भले कुछ भी हो पर बेहतरी की उम्मीद बेवकूफ़ी है। कभी-कभी धोखे और नखलिस्तान भी बेहतर होते हैं। कुछ वक़्त के लिये आदमी में जीने की तमन्ना तो पैदा हो जाती है। जब वह ज़िंदगी में आई तो मैं समझ बैठा, कि कुछ भी हो वह मेरे लिये किसी घने दरख़्त की छाँव है। मैंने सोचा, उस पेड़ के तने के सहारे उसके सांवली घटाओं जैसे बालों में मुँह छुपाकर, बाक़ी की बची ज़िन्दगी गुज़ार लूँगा- कुछ भी सोचे बिना उन दुखों, उन यातनाओं, उन बेग़ैरत व्यवहारों और ज़िल्लतों को बाजू रखकर। पर वह छायादार था, टिक न पाया।

ख़्वाहिशों और आशाओं की भीड़ में रौंदते, कुचलते हुए भी, उस भीड़ से अलग रह पाना कितना कठिन है, अपने बदसूरत पाजीपन और मामूली वजूद को भुलाकर। चाहा मैंने भी था कि कोई हो जो टूटकर मुझे चाहे, किसी और के नाम से जुड़ी हुई न हो। सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिये हो और उसकी आँखों में सिर्फ़ मैं ही समाया रहूँ। उसकी आँखें भी उसकी तरह कुँवारी हों, और मैंने अपने सपनों को उसके रूप में वास्तविक रूप धारण करते हुए पाया।

उसने कहा-

"उसका पहला प्यार कोई था, जो उसे छोड़कर चला गया। इसीलिए वह अपने आप में खोई रहती है। वैसे भी औरत को प्यार से ज़्यादा सामाजिक शिनाख़्त की ज़रूरत होती है। वह तो सिर्फ़ शादी के चक्कर में है। उसका दिल, सोचें, ख़्याल बंटे हुए हैं। वह टुकड़ों टुकड़ों में जीती है। लफ़्ज़ न थे, बम के धमाके थे। मेरे पाँवों तले से ज़मीन खिसक गई और मैं ख़ुद को ज़मीन और आसमान के बीच में लटका हुआ महसूस करने लगा। ये सदमें भाग्य हैं। दुख फिर भी हुआ, पीड़ा और तकलीफ़ का कारण तो इतना महत्वपूर्ण भी नहीं था, फिर भी जाने क्यों? पता नहीं मैंने अवकाश क्यों लिया- सुकून पाने से ज़्यादा यातना और मानसिक संताप यूँ घेर लेते हैं, जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हस्तक्षेप करने से मधुमक्खियाँ घेर लें। दोष उसका नहीं था, हस्तक्षेप मैंने ही किया था।

उसने कहा- "एक बात कहूँ?"

मैं चुप!

मेरी किसी प्रतिक्रिया के बिना उसने कहा- "शादी औरत के लिये बीमा-पालिसी है, जिसका प्रीमियम वह सेक्स की सूरत में अदा करती है।"

मैंने ही कहा था उस बात के भद्देपन को बहलाने के लिये- "नहीं, ऐसा बात भी नहीं है, औरत का बच्चों में भी तो मोह होता है, वह भी तो असामान्य है....!"

अब और कुछ तो याद नहीं, बस इसी तरह कुछ बकता रहा यह साबित करने के लिये कि सब कुछ नार्मल है। कुछ भी अचानक और सदमे जैसा नहीं है, सब ठीक है, ऐसा ही जैसा था।

चौराहे पर मेरा खड़ा होना स्वाभाविक है, जब मंज़िल का अता पता न हो। मेरा पीड़ादायक सफ़र तो जन्म से शुरू हुआ है, मरने पर ख़त्म होगा। मौत भी जाने कैसे और किस हालत में आएगी। वह भी दर्दनाक ही होगी.

... शायद, नहीं.... निश्चित ही भयानक होगी।

सज़ाएँ तो काट रहा हूँ। ‘सेसफस’ को सज़ा दी गई थी कि वह भारी पत्थर कंधे पर उठाकर पहाड़ की चोटी पर चढ़े और जब वहाँ पहुँचे तो पत्थर हाथ से छूटकर फिर पहाड़ की तलहटी पर आ जाये और वह उस निष्फल कार्य पर हर वक़्त अफ़सोस करता रहे- बेमक़सद परिश्रम की सज़ा, सेसफस की तरह मुझे भी न जीतने का संताप एवं बिना किसी मंज़िल के सफ़र करने की सज़ा मिली हुई है। मेरी रूह की दर्दनाक चीखें गूँगे बहरे कानों तक नहीं पहुँच सकतीं, सब बेकार है।

यह रात की उन अनेक अद्वितीय रातों में से है, जिसमें रातों की नींद उड़ जाती है और उसकी जगह अनिद्रा ले लेती है। अक्सर ऐसा होता है, नींद भी रूठे हुए महबूब की तरह होती है, ज़िद्दी, कठोर, मिन्नतें न मानने वाली। जागरण आँखों में यूँ बस जाता है जैसे खाली वीरान और उजड़ी जगहों पर भूत-प्रेत अपना निवास कर बैठते है। अब होगा यूँ कि सूरज निकलने के बाद ऊँघता सा, बेहाल होकर बेहोशी की हालत में आज का सारा दिन और कल भी बेकार चला जाएगा। कोई काम-धाम करने की कोई सुध-बुध न रहेगी। यह ऐसा ही होता रहा है। पर करने के लिये ऐसा कुछ है भी तो नहीं!

अब इस ज़िन्दगी के लिये बैठकर क्यों सोचा जाए, कौन सा आराम और सुकून मिला है और फिर ज़िन्दगी कौन से निर्बाध ढंग से गुज़री है।

यह जीवन तो क्या-क्यों के सवालों में ही बीत गया। शराब क्यों पीते हो?

गंदी वेश्याओं के पास क्यों जाते हो? ऐसे क्यों हो? वैसे क्यों हो तुम? पर कभी किसी ने यह नहीं पूछा कि तुम ज़िंदा किसलिए हो? मर क्यों नहीं जाते?

कोई भी मेरे अंदर झाँककर मुझमें छुपा हुआ, डरा हुआ मासूम बच्चा न देख पाया है, न पहचान पाया है! मेरे सख़्त चेहरे और व्यवहार के पीछे छुपे हुए कमज़ोर दुर्बल शख़्स को तो वह भी नहीं देख पाई। हमेशा मुझे पत्थर दिल ही कहती रही। ज़िंदगी के ज़ख़्मों की ख़लिश को उसने महसूस नहीं किया, जो मुझसे जुड़ी थी।

उसने कहा- "तुम्हारे रवैये में भी निराशा है, तुम हमेशा निगेटिव सोचते हो। ‘पोज़िटिव’ रवैया तो तुम्हारे पास में भी नहीं गुज़रता।"

मैंने कब कहा और सोचा है कि जीवन का फ़क़त एक ही पहलू है। मैं तो सिर्फ़ उस ज़िन्दगी की बात कर रहा हूँ जो मेरे हिस्से में आई। वर्ना सुबह की उज्जवल किरणों में जीने की आशा किसे नहीं होती। हर इन्सान

ख़ुशी चाहता है और दुख से छुटकारों की चाह रखता है। पर क्या यह मुमकिन है? इन्सान के नियंत्रण में है? सब कुछ ऐसा ही है?

अब लगता है ज़िन्दगी का समस्त लेखा-जोखा हो चुका है। एक तरफ़ा ही सही, इस जीवन में नफ़े-नुक़सान की तकरार में बैठ कर कौन रोए? लावारिस सवालों का जवाब हासिल होने वाला नहीं, ऐसे जैसे धिक्कारे हुए अहसास दिवालिये और कंगाल मुहब्बत के बदले में नहीं मिलते हैं। मैं चाहे कुछ भी कर लूँ पर यह तय है और यही मेरी अलिखित सज़ा है, जिसमें मेरा सारा वजूद एक ऐसी लगन और परिश्रम में लगा हुआ है,

जिसमें से कुछ हासिल होना नहीं है। कोई भी नतीजा निकलने वाला नहीं। फ्रांस के क़ौमी दिवस पर फ्रेंच एम्बेसी के राजदूत को निवास स्थान के एक चौड़े विशाल लॉन पर मिली एक दावत में, मैं व्हिस्की का एक पेग हाथ में लिये लॉन के एक ख़ाली कोने में सबसे अलग बैठा हुआ था, तो वह मेरी ओर बढ़कर आई, न जाने क्या सोचकर या शायद किसी ग़लतफ़हमी की तरह। इससे पहले तो ऐसा कभी हुआ न था।

"हेलो, कुछ अपने बारे में भी तो बताओ?"

वह कुछ आश्चर्य में थी।

"मैं.... बस एक आम आदमी हूँ- ऊँ....हाँ, ख़ूबियों की गणना में ख़ामियाँ शायद मुझमें बहुत हैं! शायद इसीलिये अपने बारे में कुछ ठीक से कहा नहीं जाता। अपने बारे में निर्णय सही नहीं होता। जीवन में नाकामियाँ बहुत हैं,

कामयाबिया नहीं के बराबर। उपलब्धियों की तुलना में विफलताएँ ही विफलताएँ हैं। मेरे साथ ऐसी कोई भी बात जुड़ी हुई नहीं है, जो मुझे औरों से अलग पहचान दे। ज़िंदगी में कोई भी उपलब्धि नहीं। बस यूँ समझ लो कि इस धरती पर छः अरबों की आबादी में मैं भी एक हूँ, ऐसे ही आम! और तो कुछ महत्वपूर्ण नहीं सुनाने जैसा।

"तुम तो शर्मीले हो और अपने आप में खोए हुए हो!"

"मुझे मालूम नहीं पर मैं डर से बावस्ता हूँ।"  चौबीस घंटे ही डर में जीता हूँ, कुछ अनजाना सा डर, अंधेरे का डर और...."

"कभी इस बात पर ग़ौर किया है कि तुम्हारी समस्या क्या है? तुम ऐसे क्यों हो, निराश-मायूस?"

"सोचा तो कई बार है पर मालूम नहीं.... मुझे लगता है कि मेरे जीवन में कुछ न्यूनता है और अपनेपन का अभाव मैं सदा महसूस करता रहा हूँ।  इसके सिवा मुझे पता नहीं, कुछ और भी हो! मेरी समझ के बाहर है।"

"सच क्या है?

"सच वो है जिसकी हमेशा तलाश रही है, पर कभी मिला नहीं है। किसी को भी नहीं, गौतम बुद्ध को भी नहीं...!"

वह कुछ देर चुप मेरे मुँह को तकती रही और फिर बिना कुछ कहे, अपनी पहचान दिए बिना, आहिस्ता आहिस्ता चलती हुई भीड़ का हिस्सा बन गई और मैं वहीं अकेला ही बैठा रहा।

अकेला तो सारी उम्र रहा हूँ। किसी को अपना बनाना भी तो मुझे नहीं आया है। ता-उम्र अकेले रहते रहते अब हालत ऐसी हुई है कि कोई अपने आप मेरी तरफ बढ़ने की कोशिश करता भी है तो मैं खुद दूर भाग जाता हूँ। शायद डर से, शायद बेयक़ीनी में, या शायद बेऐतबारी में। पर मुझमें कुछ ऐसा है भी नहीं कि कोई मेरे साथ सारी उम्र बिता सके। मूढ़ और अनाड़ी तो हूँ ही।

अब शायद वक़्त भी नहीं है मेरे पास रिश्ते-नाते जोड़ने का, और न ही साहस। शायद वक़्त और साहस दोनों मेरे पास नहीं। शायद....!

अब तो लगता है ज़िन्दगी से लड़ने के लिये मेरे पास कोई हथियार ही नहीं बचा है।

 

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ईबुक - सरहदों की कहानियाँ / / अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी

 

Devi Nangrani

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: ईबुक - सरहदों की कहानियाँ - 10 / बीमार आकांक्षाओं की खोज - मुश्ताक़ अहमद शोरो/ अनुवाद व संकलन - देवी नागरानी
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