प्राची - मार्च 2016 - जर्मन कहानी - बंजो / आइजक पेरेज

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जर्मन कहानी यिद्धिश यहूदियों द्वारा बोली जाने वाली जर्मन भाषा की एक बोली है . इस बोली में साहित्य-रचना मुख्य रूप से पोलैंड तथा रूस में आरं...

जर्मन कहानी

यिद्धिश यहूदियों द्वारा बोली जाने वाली जर्मन भाषा की एक बोली है. इस बोली में साहित्य-रचना मुख्य रूप से पोलैंड तथा रूस में आरंभ हुई. यिद्धिश के अधिकांश लेखक अब अमेरिका में रहते हैं. आइजक पेरेज यिद्धिश के एक श्रेष्ट कहानी लेखक थे. प्रस्तुत है उनकी यिद्धिश बोली की यह कहानी.

बंजो

आइजक पेरेज

हां, इस संसार में, बंजो की मृत्यु का किसी पर भी प्रभाव नहीं पड़ा. कोई जानता भी नहीं था कि वह कौन था, कहां रहता था, और उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई. क्या उसका हार्ट-फेल हो गया, अथवा वह इतना दुर्बल हो गया कि अधिक दिन तक नहीं जिया, अथवा किसी भारी चीज से ही दबकर वह मर गया, कोई भी नहीं बता सकता कि उसकी मृत्यु किस प्रकार हुई. संभवतः वह अधिक दिन तक भूखा नहीं रह सकने के कारण मर गया था.

अगर किसी बोझा ढोने वाली गाड़ी का घोड़ा गिरकर मर जाता तो शायद लोग उसमें अधिक दिलचस्पी लेते, उसकी खबर समाचार-पत्रों में छपती, घटनास्थल पर हजारों की भीड़ जमा हो जाती, उत्सुक जनता और न सही घोड़े की लाश देखने के लिए ही चारों ओर से उमड़ पड़ती.

लेकिन बंजो जैसा भाग्य उस घोड़े को भी न प्राप्त होता, चाहे दुनिया में करोड़ों-अरबों की संख्या में जितने आदमी हैं उतने घोड़े भी क्यों न होते.

बंजो जब तक जीता रहा, उसने किसी से किसी दिन एक शब्द नहीं कहा और जब मरा तब भी किसी से कोई शब्द नहीं कहा. किसी छाया की भांति वह पृथ्वी पर से विलीन हो गया.

जब वह जन्मा था, तब भी कोई उत्सव नहीं मनाया गया था.

जिस प्रकार समुद्र-तट के निकट बालू के असंख्य कण बिछे रहते हैं, उनकी ओर शायद ही किसी की दृष्टि जाती है, उसी प्रकार बंजो भी अपना जीवन व्यतीत करता रहा और एक दिन आंधी आई और उस बालू के कण को समुद्र-तट के दूसरे छोर पर उड़ा ले गई. किसी ने ध्यान भी नहीं दिया.

बंजो एक छाया की भांति था. उसकी मूर्ति किसी के हृदय मंदिर में स्थापित न हो सकी थी, न किसी के मन में उसकी स्मृति तक शेष थी.

उसके पास कोई जमीन-जायदाद न थी, न कोई वारिस ही था. वह जीवन में अकेला रहा और अकेला ही मर गया.

अगर दुनिया में इतना कोलाहल न होता तो शायद किसी के कानों में भनक पड़ जाती कि बंजो बोझ के दबाव से कराह रहा है. अगर दुनिया में सब लोग अपने-अपने काम-धंधे में फंसे न होते तो शायद किसी की दृष्टि उस पर पड़ जाती और वह देखती कि बंजो की आंखों में जीवन की ज्योति बुझ चुकी है, उसके गाल एकदम पीले पड़ गए हैं और जब उसके सिर पर बोझ नहीं होता तब भी उसका सिर जमीन की ओर झुका रहता है, मानो वह जीवितावस्था में ही अपने लिए कब्र तलाश करता हुआ चलता है.

अगर दुनिया में उतने ही आदमी होते जितने बोझा ढोने वाले घोड़े हैं, तब शायद कोई अवश्य ही यह पूछता, ‘‘बंजो, अब जी कैसा है?’’

बंजो जब अस्पताल ले जाया गया तो उस छोटी-सी जगह के लिए उसी की भांति एक दर्जन और आदमी प्रतीक्षा कर रहे थे और वह छोटी-सी जगह उस मरीज को दे दी गई जिसने सबसे

अधिक दाम दिए. जब बंजो अस्पताल की चारपाई पर लिटाकर खैराती कमरे में ले जाया गया तो उसकी भांति बीस और नर-कंकाल चारपाई-भर जगह मिलने की प्रतीक्षा कर रहे थे. और जिस समय वह खैराती कमरे के एक दरवाजे से अर्थी पर उठाकर ले जाया जा रहा था, उसी समय दूसरे दरवाजे से उसी कमरे में और बीस मरीज दाखिल किए जा रहे थे. वे सब एक मकान की दीवार गिर जाने से दब गए थे.

कौन जानता है, बंजो को कब्र में भी पैर फैलाने की जगह मिली या नहीं? कौन जानता है, उसी की भांति और सबको भी इतनी जगह मिलेगी या नहीं?

बंजो चुपचाप इस दुनिया में पैदा हुआ, चुपचाप ही उसने जिंदगी बिताई और चुपचाप मर गया. और इससे अधिक चुपचाप रीति से वह जमीन में गाड़ दिया गया.

लेकिन परलोक में बंजो की मृत्यु पर इतनी अधिक चुप्पी नहीं साधी गई. वहां तो भारी हलचल मच गई.

सातों आसमान में जगन्नियंता ने यह घोषणा कर दी थी कि बंजो मर गया. एक से एक सुंदर फरिश्ते घूम-घूमकर एक-दूसरे को यह समाचार दे रहे थे कि बंजो प्रधान न्यायालय के सामने बुलाया गया है. सारा स्वर्ग बंजो की जयध्वनि से कांप-सा रहा था.

फरिश्ते अपने सुनहरे परों को समेटे, हर्ष से चमकती आंखों से बंजो को देखते हुए, चांदी जैसे पैरों पर उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे थे. उनके सुनहरे परों की सरसराहट और कोमल गुलाबी हंसी से सारा स्वर्ग भर रहा था और विधाता को पहले से ही सूचना मिल गई थी कि बंजो का आगमन हुआ है.

न्यायालय के द्वार पर द्वारपाल ने अपना दाहिना हाथ फैलाकर बंजो का स्वागत किया. उसकी आंखों में एक मधुर

स्निग्धता थी और चेहरा हर्ष से चमक रहा था.

‘‘अच्छा, यह कैसी आवाज आ रही है?’’

‘‘यह सोने का सिंहासन है, जिसे दो फरिश्ते बंजो के बैठने के लिए ले जा रहे हैं.’’

‘‘अच्छा, आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करने वाली यह चीज कौन है.’’

‘‘यह सोने का मुकुट है, जिसमें संसार के सबसे अधिक मूल्यवान हीरे लगे हैं. यह भी बंजो के लिए ले जाया जा रहा है.’’

‘‘तो क्या विधाता का फैसला होने से पहले ही यह सब सम्मान बंजो को प्राप्त हो जाएगा?’’

‘‘हां!’’ फरिश्तों ने जवाब दिया, ‘‘फैसला तो बस हुआ समझो. यहां किसी को बंजो के विरुद्ध कोई शिकायत नहीं है. न्यायालय की कार्यवाही में शायद पांच मिनट से अधिक समय नहीं लगेगा.’’

जब बंजो की आत्मा फरिश्तों ने अपने सरंक्षण में ले ली और उसे बहुत-सी मधुर लोरियां सुनाईं, जब प्रधान न्यायालय के द्वार पर उसका तिरस्कार होने के बदले भारी स्वागत हुआ, जब उसने सुना कि मेरे बैठने के लिए सोने का सिंहासन और पहनने के लिए सोने का मुकुट लाया गया है तो बंजो उसी प्रकार भय से कांप उठा जिस प्रकार वह पृथ्वी पर कांप जाया करता था. उसका हृदय बैठने लगा. उसे निश्चय हो गया कि मैं या तो स्वप्न देख रहा हूं या इन लोगों को भारी भ्रम हुआ है.

पृथ्वी पर उसके जीवन में ऐसे कितने ही अवसर आ चुके थे. वह बहुधा स्वप्न देखा करता था कि उसके सामने सोने की ढेरी लगी है और वह हाथ बढ़ाकर उसे समेट रहा है. पर नींद खुलने पर वह देखता कि वह पहले से भी अधिक गरीब हो गया है. कितनी ही बार कुछ लोग उससे हंसकर बोल दिए थे, पर अपने भ्रम का पता लगते ही उन्होंने घृणा से मुंह फेर लिया था.

सो बंजो सिर झुकाए, आंख मूंदे खड़ा था.

उसे डर लग रहा था कि कहीं मेरा यह स्वप्न टूट न जाए और जागने पर मैं अपने को सांप और बिच्छुओं से भरी हुई गुफा के भीतर न पाऊं. उसे अपनी पलकें तक हिलाने में भय लग रहा था कि कहीं पहचान न लिया जाऊं और तब मुझे नरक का रास्ता देखना पड़े.

बंजो इतना अधिक भयग्रस्त था कि उसके कानों ने फरिश्तों की जयध्वनि तक नहीं सुनी और जब उसे विधाता के सामने लाकर खड़ा कर दिया गया तो उसे इतनी सुध भी नहीं रही कि वह प्रणाम करे.

सारे न्यायालय की आंखें बंजो पर जमी थीं, पर बंजो अपने मन में सिमटा जा रहा था. विधाता ने जब पाप-पुण्य का लेखा रखने वाले अपने सहकारी को आज्ञा दी कि बंजो का मुकदमा पेश किया जाए तो वह एक लंबा पुलिंदा लेकर आगे बढ़ा. विधाता ने उसे संक्षेप में पढ़ने का आदेश दिया.

बंजो को आश्चर्य हो रहा था, सह सब किसकी प्रशंसा में पढ़ा जा रहा था.

सहकारी पढ़ता जा रहा था, ‘‘इसने अपने जीवन में कभी ईश्वर या मनुष्य के विरुद्ध कोई शिकायत नहीं की. इसकी आंखों ने कभी घृणा को आश्रय नहीं दिया. इन्होंने कभी स्वार्थ-भरी प्रार्थना की दृष्टि से आसमान की ओर नहीं निहारा.’’

बंजो की समझ में कुछ भी नहीं आया. एक कर्कश ध्वनि ने शासक के स्वर में आज्ञा दी, ‘‘केवल मुख्य-मुख्य बातें बताओ.’’

सहकारी ने संभलकर पढ़ना शुरू किया, ‘‘इसकी मां मर गई तब भी यह चुप रहा. तेरह वर्ष का था, जब दूसरी मां भी आई. वह पूरी सांपिन थी, एकदम डाइन...’’

इन सब बातों का क्या तात्पर्य है, बंजो अपने मन में सोच रहा था.

विधाता ने सहकारी को टोकते हुए कहा, ‘‘आप दूसरों पर दोषारोपण न करिए.’’

‘‘वह इसे दाने-दाने को तरसाती थी...बचा-खुचा, सड़ा-गला इसे दे देती थी और स्वयं अच्छा भोजन करती थी. जाड़ों में इसे फटे चिथड़ों में नंगे पैर जंगल से लकड़ी काटने के लिए भेज देती थी. इसके छोटे-छोटे हाथों से कुल्हाड़ी ठीक तौर से पकड़ते भी नहीं बनती थी. कितनी ही बार इसने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली, हाथ लहूलुहान कर लिया, पर यह सदा चुप रहा. पिता से कुछ भी नहीं कहा.’’

बंजो के सारे शरीर में एक सनसनी-सी दौड़ गई.

विधाता ने एक बार फिर टोककर कहा, ‘‘संक्षेप में सारी बातें बताओ.’’

‘‘पिता शराबी था. एक बार उसने नशे की झोंक में इसे खूब पीटा और अंधेरी रात में बाल पकड़कर घर से बाहर निकाल दिया. तब भी यह चुप रहा. इसका कोई दोस्त या साथी नहीं था. चुपचाप बर्फ से ढकी हुई सड़क पर से उठा और जिधर टांगें चलीं,

उधर चल पड़ा. इतने दुःख में भी वह चुप रहा. पेट जब भूख से व्याकुल होता तब भी वह चुप रहता. मुंह से एक शब्द भी न निकलता, केवल आंखों से भीख मांगता.

‘‘सर्दी की एक बर्फीली अंधेरी रात थी, जब इसने एक बड़े नगर में प्रवेश किया. इसके पैरों पर बरफ जम गई थी, फिर भी यह चुप था. पुलिस ने जब इसे जेल में बंद कर दिया, तब भी यह चुप रहा, एक बार भी नहीं पूछा कि मुझे किस अपराध में पिंजड़े के अंदर कैद किया गया है. जेल में इसे बहुत अधिक परिश्रम का काम दिया गया, फिर भी यह चुप रहा.

‘‘जेल से भी अधिक कठोर परिश्रम इसे जेल के बाहर करना पड़ा, फिर भी इसने एक शब्द नहीं कहा.

‘‘अजनबी लोग इसे गालियां देते थे, इसके मुंह पर थूकते थे, पर यह खाली पेट सरदी से ठिठुरता हुआ, गाड़ियों और मोटरों के बीच-जहां किसी क्षण भी मृत्यु इसका गला दबोच सकती थी-सिर पर भारी बोझ लाते हुए दौड़ता था. इसने कभी भी एक शब्द मुंह से नहीं निकाला.

‘‘इसने कभी इस बात की ओर ध्यान तक नहीं दिया कि मेरा बोझ भारी है, मुझे कितनी मजूरी दी गई है, या अपना पेट भरने के लिए मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया है. इसने कभी अपने दुर्भाग्य पर आंसू नहीं बहाए, और न दूसरों के सौभाग्य पर ईर्ष्या की. यह सदा चुप रहा.

‘‘इसने कभी भी अपनी मजूरी तक के लिए झगड़ा नहीं किया. भिखारी की तरह यह दुकानदारों के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता था, और ‘फिर आना’ जवाब मिलते ही कुत्ते की तरह दुम दबाकर लौट आता था. दूसरी बार इससे भी अधिक विनीत भाव से मजूरी की याचना करता था.

‘‘दूसरे लोगों ने इसकी मजूरी मारी, इसे खोटे पैसे दिए, पर यह सदा चुप रहा.’’

बंजो ने एक सांस ली और मन ही मन कहा, ‘‘अच्छा, यह तेरा बखान हो रहा है.’’

सहकारी ने प्रशंसा से उज्ज्वल नेत्रों से अपने चारों ओर देखते हुए कहा, ‘‘एक बार इसके जीवन में परिवर्तन हुआ. इसके बगल से एक बेतहाशा भागती हुई घोड़ागाड़ी गुजरी. कोचवान जमीन चूम रहा था. उसके सिर के दो टुकड़े हो गए थे. घोड़ों के मुंह में बुरी तरह झाग भर रहा था. उनके पैर जब जमीन पर पड़ते थे तो चिनगारियां निकलती थीं. उनकी आंखें अंधेरी रात में लाल अंगारे की तरह चमक रही थीं और गाड़ी के भीतर गाड़ी के मालिक अधमरे हो गए थे.

‘‘बंजो ने बिगडैल घोड़ों को संभालकर उनकी जान बचाई.’’

‘‘वह उदार हृदय सज्जन थे. वह बंजो का ऋण भूले नहीं. उन्होंने बंजो को अपना कोचवान नियुक्त कर लिया. बंजो कोचवान हो गया. उन्होंने बंजो के साथ इतनी ही भलाई नहीं की, उसे एक स्त्री भी दिला दी और इतना ही नहीं, उसे पिताजी भी बना दिया!...’’ फिर भी बंजो चुप रहा.

‘‘मेरा ही बखान हो रहा है, मेरा!’’ बंजो ने बुदबुदाकर कहा. उसे जरा दम आया. फिर भी अभी उसमें इतना साहस नहीं था कि आंख उठाकर विधाता की ओर देख सके.

वह सुनने लगा.

बंजो के मालिक का जब दिवाला निकल गया और उसने बंजो को तनख्वाह नहीं दी, तब भी वह मौन रहा. इसकी पत्नी इसकी गोद में दूध पीता बच्चा छोड़कर जब किसी दूसरे के साथ भाग गई, तब भी यह मौन रहा.

पंद्रह साल बाद जब वह बच्चा, जिसे इसने अपने खून से पाला था, हट्टा-कट्टा जवान हो गया और उसने अपने कमजोर बाप को घर से बाहर निकाल दिया, तब भी वह मौन रहा.

बंजो की आंखें खुशी से चमक उठीं. उसे पूरी तौर से विश्वास हो गया कि मेरा ही बखान हो रहा है.

सहकारी ने बताया, ‘‘जब इसके मालिक ने सबों का बाकी रुपया चुकता कर दिया, पर इसकी तनख्वाह नहीं दी, तब भी यह मौन रहा...और यह उस समय भी मौन रहा जब वह एक तेज घोड़ागाड़ी पर चढ़ा हुआ इसे रौंदता हुआ इसके ऊपर से निकल गया...

‘‘यह सदा मौन रहा. इसने पुलिस से एक शब्द भी शिकायत के रूप में नहीं कहा.

‘‘अस्पताल में कराहने पर रोक नहीं है, पर यह वहां भी मौन रहा.

‘‘यह उस समय भी मौन रहा जब डॉक्टरों ने फीस लिए बगैर इसे देखने से इनकार कर दिया और नौकरों ने पैसा पाए बगैर इसका काम करना नामंजूर किया.

‘‘भारी से भारी दुःख पड़ने पर भी यह सदा मौन रहा और मरते समय भी एक शब्द नहीं कहा...

‘‘इसने एक शब्द भी ईश्वर या मनुष्य के विरुद्ध नहीं कहा.’’

बंजो एक बार फिर इस आशंका से कांप उठा कि अब इसके बाद क्या होगा? सहकारी के वक्तव्य के बाद क्षण-भर सारे न्यायालय में निःस्तब्धता रही. इसके बाद एक स्नेहासिक्त मृदु स्वर सारे न्यायालय में गूंज उठा-

‘‘बंजो, मेरे पुत्र! मेरा हृदय गद्गद् है. तुम मेरे सबसे प्रिय पुत्र हो!’’

बंजो के हृदय में आनंदाश्रु उमड़ रहे...फिर भी वह विधाता की ओर आंखें उठाकर नहीं देख सका, उसकी आंखें आंसुओं से धुंधली हो रही थीं. ऐसे आनंदाश्रु उसकी आंखों में कभी नहीं आए थे...बंजो!...मां के मरने के बाद से बंजो को कभी भी ऐसी

मधुर वाणी सुनने का अवसर नहीं मिला था.

‘‘मेरे पुत्र!’’ विधाता कहते रहे, ‘‘तुम सदा दुःख सहते रहे, पर सदा मौन रहे. तुम्हारे शरीर का कोई ऐसा भाग नहीं है जहां एक घाव न छिपा हो और उस घाव से खून न टपकता हो...पर तुम सदा मौन रहे...

‘‘पृथ्वी के लोगों ने तुहें पहचाना नहीं. शायद तुमने खुद अपने को नहीं पहचाना कि तुम भी मुंह से हाय निकाल सकते थे और तुम्हारी हाय सारे संसार को उलट-पलट सकती थी. तुम्हें खुद अपनी गुप्त शक्ति का पता नहीं था.

‘‘पृथ्वी पर तुम्हें इस सहनशीतला का पुरस्कार नहीं मिला, परंतु यह मायावी संसार है. यह सत्य संसार है. यहां तुम्हें पुरस्कार मिलेगा.

‘‘यहां तुम्हारे मूल्य का अंकन तराजू में बटखरे से नहीं होगा. तुम्हारी जो इच्छा हो, ले लो. सारा स्वर्ग तुम्हारा है.’’

बंजो ने पहली बार दृष्टि उठाई. चारों ओर के प्रकाश से उसकी आंखें चौंधिया गईं. सब ओर प्रकाश ही प्रकाश था. दीवारों से, फरिश्तों से, विधाता से प्रकाश ही प्रकाश फूट रहा था, जैसे असंख्य सूर्य एक स्थान पर इकट्ठा हो गए हों.

उसने अपने चकित नेत्र नीचे कर लिए. ‘‘सचमुच?’’ उसने कुछ संदेह से और कुछ लज्जा से पूछा.

‘‘सच!’’ विधाता ने कहा, ‘‘मैं सच कहता हूं, स्वर्ग की सारी संपदा तुम्हारी है. तुम्हारी जो इच्छा हो ले लो.’’

‘‘सच?’’ एक बार फिर बंजो ने पूछा, इस बार कुछ दृढ़ स्वर में.

‘‘हां, सच!’’ सब ओर से उसे आश्वासनयुक्त उत्तर मिला.

‘‘तब,’’ बंजो के मुख पर मुस्कराहट दौड़ गई, ‘‘मुझे प्रतिदिन मक्खन और गरम रोटी मिला करे.’’

फरिश्तों ने लजाकर अपनी आंखें नीची कर लीं. विधाता की हंसी से सारा न्यायालय प्रतिध्वनित हो उठा.

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रचनाकार: प्राची - मार्च 2016 - जर्मन कहानी - बंजो / आइजक पेरेज
प्राची - मार्च 2016 - जर्मन कहानी - बंजो / आइजक पेरेज
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