मस्ती चाहें तो स्वाभिमान न छोड़ें - डॉ. दीपक आचार्य

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मस्ती चाहें तो स्वाभिमान न छोड़ें - डॉ. दीपक आचार्य 9413306077 जीवन का सबसे बड़ा दर्शन है आनंद से जीवनयापन और मानवीय लक्ष्यों की पूर्णता। ...

मस्ती चाहें तो स्वाभिमान न छोड़ें

- डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

जीवन का सबसे बड़ा दर्शन है आनंद से जीवनयापन और मानवीय लक्ष्यों की पूर्णता। इसके लिए विभिन्न मार्ग हैं जिन पर चलकर आनंदमय जीवन जीया जा सकता है।  एक मार्ग परम्परा से चला आ रहा है और वह है ईश्वरीय विधान को सहजता से प्रसन्नतापूर्वक अपनाते हुए स्वाभिमान से जीना और व्यक्तित्व में उन गुणों का समावेश करना जिनके माध्यम से हमारे पूर्वजों ने अपनी मातृभूमि को विश्वगुरु की प्रतिष्ठा दिलायी थी।

दूसरा मार्ग है मनुष्य होते हुए अपने पूर्वजन्मी पशु योनियों का स्मरण करते हुए उन्हीं के अनुरूप आचरण। तीसरा मार्ग है उदासीनता के साथ जिन्दगी की गाड़ी को घसीटते-घसीटते अन्त तक ले जाना और फिर खो जाना।

उदासीन व्यक्तित्व वाले लोगों पर चर्चा करना व्यर्थ होगा क्योंकि इनका समाज और जीवन के लिए कोई उपयोग नहीं होता, ये मनुष्य योनि का फेरा पूरा करने मात्र के लिए ही जन्म लेते हैं।

लोग जिनके लिए आत्म अभिमान का कोई मूल्य नहीं होता, वे समझदारी आने से लेकर मौत आने तक सैकड़ों बार मर चुके होते हैं। इन लोगों का ध्येय न मनुष्यत्व होता है, न मुमुक्षत्व। बल्कि इनके लिए पेट और पिटारे ही प्रधान होते हैं जिनको भरने के लिए रोजाना हथकण्डों के सहारे जीना इनकी सबसे बड़ी विवशता हो जाती है।

ईश्वर की दी हुई शक्ति और सामथ्र्य से बेखबर ये लोग अपने छोटे-छोटे कामों के लिए पराश्रित रहते हैं और नए-नए आकाओं की तलाश में लगे रहते हैं।  लोगों को अपना बनाने और काम निकलवाने लायक माहौल बनाने के लिए कभी ये खुद बन जाते हैं, कभी दूसरों को बना देते हैं। अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए ये अपने ईमान-धरम से लेकर वह सब कुछ त्याग देने को तैयार रहते हैं जो हमारी परंपरा में वर्जित कहा गया है।

वृहन्नलाओं से लेकर बहुरूपियों तक के सारे काम करते-करते ये महान लोग ऎसे हर कामों में माहिर हो जाते हैं। इस किस्म के लोगों में स्वाभिमान की बजाय चापलुसी कूट-कूट कर भरी रहती है और उनका यह स्वभाव ही है जो च्युंइगम की तरह हर कहीं तेजी से चिपक जाने का माद्दा पैदा कर लेता है।

चापलुसी का मार्ग ही ऎसा है कि इसमें कोई स्थायी श्रद्धापुरुष नहीं होता, इसमें स्वार्थ और समय के अनुसार आकाओं का बदलाव होता रहता है। कभी पाँच साला आका तो कभी कुछ और।

पालतु पशुओं की तरह इनके माथे भी स्लेट की तरह होते हैं जिन पर कभी एक का तो कभी दूसरे मालिक का नाम लिखा रहता है। कुछ-कुछ दिनों में एक नाम मिटता है,दूसरा लिखा जाता है। टैग भी बदलते रहते हैं।

विनयी इतने कि छोटे-छोटे कामों के लिए चाहे जिसके चरणों में लोट जाएं, गिड़गिड़ाते रहें और वह सब कुछ करें जो वांछित हो। रोजाना नई-नई इच्छाओं के पूरे होते रहने के बावजूद ये लोग कभी खुश नहीं रह सकते।

इन लोगों में अभिमान इतना घर कर लेता है कि सोते-जागते, उठते-बैठते इनकी बॉड़ी लैंग्वेज से यह अभिमान निरन्तर टपकता दिखता है। फिर इनकी जयकार और हाँ में हाँ मिलाने वाले दूसरे लोग भी साथ जुड़ते चले जाते हैं। जैसे गली में कहीं एक जगह से भौंकने की आवाज आती है तो थोड़ी देर में सारे भौंकने वाले एक जगह जमा होकर शोर मचाने लगते हैं।

इन अभिमानी लोगों को लगता है कि वे जो कर रहे हैं वही दुनिया का सच है और वे जिन हथकण्डों का सहारा ले रहे हैं उनके बारे में आम लोग अनभिज्ञ हैं। जबकि ऎसा नहीं होता। इन पालतु और चापलुसों का हर कर्म और इनकी हरकत सब कुछ साफ-साफ बता देती है कि माजरा क्या है। स्वाभिमानहीन लोग ईश्वर से तो दूर रहते ही हैं, इनकी नापाक हरकतों और रोज किए जाने वाले समझौतों से उनके पितर भी उनसे रुष्ट रहते हैं।

स्वाभिमान मानव का सर्वोपरि गुण है जो उसे दूसरे मनुष्यों और पशुओं से दूर करता है। स्वाभिमान वह दैवीय गुण है जो भगवत्कृपा से प्राप्त होता है। या यों कहें कि स्वाभिमान ईश्वरीय गुण है। सारे गुण विद्यमान हों और अकेला स्वाभिमान न हो तो वह मनुष्य मरे हुए जैसा ही रहता है।

जहाँ स्वाभिमान है वहाँ दैवीय गुण एक  के बाद एक अपने आप जुड़ते चले जाते हैं। ऎसे लोेग अपनी अलग ही मस्ती में जीते हैं और इनके लिए हर दिन आनंद से सरोबार होता है। स्वाभिमानी होना अपने आप में बड़े साहस का काम है। यह स्वाभिमान ही होता है जो ईश्वर के सिवा किसी का दासत्व स्वीकार नहीं कर सकता।

किसी निगुरे और नाकारा में स्वाभिमान का गुण कभी आ ही नहीं सकता। स्वाभिमान तभी जग सकता है जब व्यक्ति में मौलिक प्रतिभाएं और संस्कार हों। इन संस्कारों का आश्रय और भगवदीय कृपा का अनुभव ही स्वाभिमान के बीजों का अंकुरण कर सकता है। संस्कारहीन व्यक्ति न स्वाभिमानी हो सकता है न अच्छा आदमी।

स्वाभिमानी व्यक्ति खुद के भरोसे जीता है जबकि इससे हीन लोग पराश्रित रहते हैं। स्वाभिमान को जीवन में अपनाने वाले लोगों के लिए समाज और दुनिया की बड़ी से बड़ी समस्याएं बौनी हो जाती हैं। स्वाभिमानी लोग हर समस्या व संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते हैं और इन सारी समस्याओं के जंजाल को अभिनय से ज्यादा महत्त्व कभी नहीं देते।

जिन लोगों को स्वाभिमानी जीवन जीना होता है वे अच्छी तरह जानते और समझते हैं कि यह मार्ग अत्यन्त दुष्कर और कण्टकाकीर्ण है, पग-पग पर दुविधा और बाधाएं सरे राह आड़े आती हैं और कई बार बड़े-बड़े नुकसान उठाने पड़ते हैं।

इसके बावजूद स्वाभिमान से जीने का मजा ही कुछ अलग है और इसकी मस्ती एक-दो दिन नहीं बल्कि पूरी जिन्दगी छायी रहती है।  ऎसे लोगों की कीर्ति अमिट रहती है। इस आत्म आनंद को वे लोग कभी नहीं समझ सकते जो पशुवत लोगों के चरणों की वंदना में लगे रहते हैं।

जो लोग स्वाभिमानी हैं उन्हें अच्छी तरह पता होता है स्वाभिमानी होने के सांसारिक खतरों का। इन खतरों से बेपरवाह होकर जीना ही स्वाभिमान का मूत्र्त आनंद स्वरूप है।

स्वाभिमानियों पर ईश्वरीय कृपा खूब बरसती रहती है और लोग इनका दिल से आदर और सम्मान करते हैं, भले ही ऊपर से कुछ भी सोचें। स्वाभिमानी लोगों का हर शब्द वज्र की तरह प्रभाव छोड़ता है।

लोग इनके बारे में कुछ भी समझें और कहें, मगर स्वाभिमान जहाँ होता है वहीं पर देवों और पितरों की कृपा होती है और जीवन का वास्तविक एवं शाश्वत आनंद भी वहीं रहता है।

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रचनाकार: मस्ती चाहें तो स्वाभिमान न छोड़ें - डॉ. दीपक आचार्य
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