प्राची अप्रैल 2016 : संपादकीय / राकेश भ्रमर

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संपादकीय शिक्षा, संस्कार और संस्कृति प्रा चीन काल से अब तक शिक्षा पद्धति में अनेक बदलाव आए हैं. युग बदले, संस्कार बदले और संस्कृति में...

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संपादकीय

शिक्षा, संस्कार और संस्कृति

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प्राचीन काल से अब तक शिक्षा पद्धति में अनेक बदलाव आए हैं. युग बदले, संस्कार बदले और संस्कृति में भी उचित-अनुचित बदलाव होते रहे हैं. मनुष्य के शिक्षित समाज में शिक्षा के अनुसार संस्कारों में भी बदलाव आया. कुछ संस्कारों को कुसंस्कार कहा जा सकता है. यह विषय विवादास्पद हो सकता है, परन्तु हमें स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि हिन्दू समाज के कुसंस्कारों ने इसका बहुत नुकसान किया है.

समय परिवर्तन के साथ सभ्य समाज ने अपनी संस्कृति में जो परिवर्तन किए, उनमें भी बहुत सारी बुरी बातें पनपती रही हैं. बुद्धिजीवियों ने कभी-कभी इसके विरोध में अपने स्वर ऊंचे किए, परन्तु धर्म के ठेकेदारों की बुलंद आवाज के नीचे उनकी आवाज ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ की तरह दबकर रह गयी.

अब प्राचीन युग के गुरुकुल कहीं नहीं रहे. अगर कहीं हैं, तो कुछ धर्म के ठेकदारों के आश्रमों में चल रहे होंगे, परन्तु

आधुनिक समाज में उनका प्रभाव रंचमात्र भी दिखाई नहीं देता. मुस्लिम काल के मदरसे अभी भी चल रहे हैं, परन्तु वह केवल मुसलमानों की शिक्षा तक ही सीमित होकर रह गये हैं. अब उनमें हिन्दुओं को शिक्षा नहीं दी जाती. युगों से चलती आ रही अनेक शिक्षा पद्धतियों में जितना असर भारतीय समाज पर पाश्चात्य शिक्षा पद्धति ने डाला, उतना किसी और शिक्षा पद्धति ने नहीं. आज भारत में जितनी भी शिक्षण संस्थाएं चल रही हैं, वह सभी अंग्रेजी या पाश्चात्य शिक्षा पद्धति पर आधारित हैं. प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है. इस शिक्षा पद्धति के कारण देशी भाषाओं का ह्रास होता जा रहा है. यह कहना उचित होगा कि देशी भाषाओं को पढ़ने की रुचि इने-गिने विद्यार्थियों में ही होती है.

स्वतंत्रता के बाद समाज के सभी वर्गों और जातियों में शिक्षा का प्रसार और प्रचार बहुत तेजी से हुआ, परन्तु आज भी हमारी शिक्षा का प्रतिशत संतोषजनक नहीं है. देश की अधिकांश जनसंख्या, विशेषतः ग्रामीण जनसंख्या अभी भी उच्च शिक्षा ही नहीं, प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित है. इसका प्रमुख कारण गरीबी और जागरूकता का अभाव है.

शिक्षा मनुष्य के अंदर उत्तम संस्कारों का निर्माण करती है, यह सत्य हो सकता है; परन्तु आधुनिक शिक्षा के संदर्भ में ऐसा कहना अनुचित होगा. लोग पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण करते हैं, परन्तु पाश्चात्य संसार के अच्छे संस्कारों को ग्रहण करना स्वीकार नहीं करते. भारतीय समाज उच्च शिक्षित होते हुए भी अभी तक पुरातन भारतीय कुसंस्कारों और कुरीतियों से लिपटा हुआ है. वह हद दर्जे का अंधविश्वासी है, अनुपयोगी पूजा-पाठ करने में विश्वास करता है. धर्म के नाम पर वह हवा को ही नहीं, जल को भी प्रदूषित करता है, फिर भी उसमें चेतना नहीं आती. लोभ और लालच का मारा हुआ भारतीय मनुष्य लाखों-करोड़ों रुपया और सोना-चांदी मंदिरों में चढ़ा देता है, और बदले में भगवान से उससे दस गुना पाने की आशा करता है. स्त्री को देवी मानने के बावजूद वह उसकी भ्रूण हत्या करता है और जीवित अवस्था में महिलाओं को समान अधिकार देने का पुरजोर विरोध करता है. दहेज के नाम पर वह स्त्री को प्रताड़ित करता है. पुत्री के बजाय वह पुत्र को वरीयता देता है, ताकि वह उसके वंश को आगे बढ़ा सके. भले ही अपने वंश को आगे बढ़ता वह कभी नहीं देख पाता.

आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर भारतीय समाज ने पश्चिम से भले ही अच्छे संस्कार नहीं लिये हैं, परन्तु बुरी बातें अवश्य ग्रहण कर ली हैं. युवा वर्ग धड़ल्ले से वैलेन्टाइन डे, रोज डे, फ्रेंडशिप डे आदि मनाता है. लड़के-लड़कियां खुलेआम एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर दोस्ती का दंभ भरते हैं. युवतियां मां-बाप की मर्जी के बगैर लड़कों के साथ लिव-इन-रिलेशनशिप में रहने लगी हैं. भले ही इस तरह के संबंध बहुत ज्यादा टिकाऊ नहीं होते और इनमें से अधिकांश संबंध महिला द्वारा पुरुष पर बलात्कार का आरोप लगाने पर समाप्त होते हैं.

कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक शिक्षा ने भारतीय समाज को पाश्चात्य जगत के बुरे संस्कार ग्रहण करना सिखा दिया, परन्तु अच्छा संस्कार एक भी नहीं ग्रहण किया, जिससे वह एक आदर्श समाज की स्थापना कर सकता. वह हिन्दू समाज के पुरातन और रूढ़िवादी बुरे संस्कारों से जकड़ा हुआ है, और पश्चिम के बुरे संस्कार भी ग्रहण करता जा रहा है. भारतीय समाज के लिए यह कहावत बहुत उपयुक्त है, ‘‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’’. मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारतीय समाज जैसी शिक्षा ग्रहण कर रहा है और जिस तरह के संस्कार नई पीढ़ी को दे रहा है, उससे समाज पतन की ओर ही अग्रसर हो रहा है.

आधुनिक शिक्षा ने युवा पीढ़ी को डॉलर के रोग से बुरी तरह ग्रस्त कर दिया है. इसका परिणाम यह हुआ कि आज सभी युवा अमेरिका और आस्ट्रेलिया भागने की फिराक में लगे हुए हैं. भारत का एक लाख माह का पैकेज भी उन्हें अच्छा नहीं लगता. वह लाखों के पैकेज का भूखा व्यक्ति बन गया है. इसके लिए वह अपने बूढ़े मां-बाप का भी त्याग करने से नहीं चूकता. और हम देख ही रहे हैं कि बुजुर्ग पीढ़ी किस तरह से अकेली और अपनों से दूर हो गयी है. हमारे पास बहुत सारा पैसा है, परन्तु अपनों का सुख नहीं है. यह कैसा युग है, जहां भौतिकता की चमक तो है, सुख-सुविधाओं की प्रचुरता है, परन्तु आंतरिक सुख किसी के हृदय में नहीं है.

और अंत में बात करते हैं भारतीय संस्कृति की. हमारी संस्कृति विश्व-बंधुत्व और भाईचारे की रही है. विश्व-बंधुत्व की धारणा को हमने सत्य प्रमाणित कर दिया, क्योंकि भारत का युवा संसार के प्रत्येक देश में नौकरी कर रहा है. विश्व सिमट कर सभी के हाथों में आ गया है, परन्तु क्या हम भाईचारा स्थापित करने में सफल हो सके हैं? विश्व की बात छोड़ दें, तो देश के अंदर भी भाईचारा दृष्टिगोचर नहीं होता. परिवार बिखर गये हैं और जिस परिवार में दो-चार व्यक्ति हैं, वह अपने परिजनों से भी बहुत कम मिलते और बातें करते हैं. दिन के अधिकांश घंटे उनके मोबाइल फोन पर बातें करने में बीत जाते हैं, शेष समय में वह मोबाइल पर ही गाने सुनते हैं, फेस बुक में अनजान लोगों से चैटिंग करते हैं और घर में रहते हुए भी वह एक दूसरे से बातें करने के बजाय या तो टी.वी. देखते हैं या लैपटॉप में कोई न कोई साइट तलाश करते रहते हैं. यानी की हमारे पास समय बहुत है, परन्तु हम उस समय का उपयोग निरर्थक काम करने में व्यतीत करते हैं और सदा इस बात का रोना रोते हैं कि हमारे पास समय नहीं है.

चूंकि उच्च शिक्षा के कारण लोग अच्छी नौकरियां प्राप्त करने में सफल हुए हैं. बच्चे विदेश में रहकर डॉलर कमा रहे हैं, इसलिए रहन-सहन के स्तर में बहुत बदलाव आया है. मध्य वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक के सभी लोगों के पास गाड़ी और कोठी है. कई लोगों के पास तो इतनी गाड़ियां हैं, जितनी उनके घर में सदस्य भी नहीं है. यही स्थिति मकानों की है. लोगों ने कई-कई मकान ले रखे हैं, खाली प्लॉट खरीदकर ऐसे ही छोड़ रखे हैं, जो कुछ समय बाद बेचने पर उन्हें अच्छा पैसा दे जाते हैं.

भौतिकवाद के कारण लोगों में विलासिता बढ़ी है. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह दृष्टिगत होती है. वह चाहे रहन-सहन में हो, या पारंपरिक विवाह जैसे संस्कार हों. यहां तक कि आज समाज का प्रत्येक वर्ग, यहां तक कि निम्न वर्ग भी अपने बच्चों का जन्म दिन धूमधाम से मनाना पसंद करता है. अति अमीर व्यक्ति पांच सितारा होटलों या फार्म हाउसों में ऐसे आयोजन करते हैं.

मनुष्य के पास पैसा अवश्य आया है, परन्तु उसके मन से लालच फिर भी नहीं गया है. करोड़पति हो या लखपति, वह शादी-ब्याह में दिखावे के नाम पर साज-सजावट, बाजे-गाजे, भोजन और आतिशबाजी में लाखों रुपया खर्च कर देता है, परन्तु दहेज लेने से कभी नहीं चूकता. कई बार तो दहेज के लिए बात बिगड़ जाती है और बारात वापस ही नहीं, हवालात तक पहुंच जाती है, परन्तु फिर भी मनुष्य सुधरने का नाम नहीं लेता. यह प्रवृत्ति पढ़े-लिखे और उच्च नौकरीशुदा व्यक्तियों में अधिक पाई जाती है, जो एक गाड़ी या दस-पांच लाख के लिए लड़कीवालों को हैरान-परेशान करने से बाज नहीं आते और अंततः विवाह जैसा पवित्र बंधन टूट जाता है.

अंत में निष्कर्ष यहीं निकलता है कि आधुनिक शिक्षा हमें अच्छी नौकरी और पैसा अवश्य दे रही है, परन्तु वह हमारे अंदर उच्च संस्कार विकसित करने में अक्षम है. बुरे संस्कारों के कारण हमारी संस्कृति भी विकृत हो रही है. मां-बाप और नारी के प्रति हमारा आदर और सम्मान समाप्त हो गया है. वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या और बलात्कार के बढ़ते मामले इसका प्रमाण हैं. इसके अतिरिक्त छोटी-छोटी बातों पर सड़क पर होनेवाली मारपीट और क्षणिक गुस्से में किसी की हत्या कर देना यह बताता है कि हमें अपनी पुरातन और आदर्शवादी संस्कृति की कोई चिंता नहीं रह गयी है. मनुष्य व्यक्तिवादी हो गया है. परिवार और समाज से उसे कोई लेना-देना नहीं है.

उचित होगा कि शिक्षा के साथ हम अपने अंदर अच्छे संस्कार भी विकसित करें और आगे आनेवाली पीढ़ी को एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज देकर एक आदर्श स्थापित करें.

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रचनाकार: प्राची अप्रैल 2016 : संपादकीय / राकेश भ्रमर
प्राची अप्रैल 2016 : संपादकीय / राकेश भ्रमर
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