प्राची अप्रैल 2016 : कहानी / पत्नी / रवीन्द्र कालिया

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  पत्नी रवीन्द्र कालिया प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार और संपादक रवीन्द्र कालिया का 9 जनवरी, 2016 को नई दिल्ली में निधन हुआ था. वह 11 नवम्...

 

पत्नी

रवीन्द्र कालिया

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प्रसिद्ध कथाकार, उपन्यासकार और संपादक रवीन्द्र कालिया का 9 जनवरी, 2016 को नई दिल्ली में निधन हुआ था. वह 11 नवम्बर, 1938 को जालंधर शहर में एक शिक्षक परिवार में पैदा हुए थे. हिन्दी के प्रति उनका लगाव बचपन से ही था. वहीं रुझान उन्हें साहित्यिक पत्रकारिता की ओर ले गया और भाषा, धर्मयुग, गंगा जमुना में सम्पादन के बाद कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद् की मासिक पत्रिका ‘वागर्थ’ में सम्पादक हुए और तद्नन्तर भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रहे. उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’ का सम्पादन भी किया. श्रद्धांजलि स्वरूप हम यहां उनकी कहानी ‘पत्नी’ दे रहे हैं. यह कहानी माया के जनवरी, 1965 अंक में छपी थी.

रतेज गली में आया, तो उसने महसूस किया, कि लोग बहुत ही पराई नजरों से उसे देख रहे हैं-ठीक उस तरह, जैसे कल भरपाई अटैचीकेस से चोली निकाल कर देख रही थी, या बच्चे होंठों पर लिपस्टिक लगा कर आईने में अपना चेहरा. चरनी की हवेली के सामने उसने औरतों के झुण्ड की ओर देखा, तो उसकी रफ्तार तेज हो गई. एक ही नजर में तमाम स्त्रियों की ओर देख कर उसने सोच लिया, कि कोई भी स्त्री उसकी परिचित नहीं है, या वह शहर से लौट कर शर्माऊ हो गया है. शर्माऊ वह नहीं है. उसे कल की एक बात याद आई, और वह कहीं भी न देखने के इरादे से फिफ्टी ठीक करता हुआ गली के बाहर आ गया.

गांव में इतनी स्त्रियां कहां से आ गयीं? वह सोचने लगा, कि परिचित चेहरे कहां खो गए-सत्या, नानकी, तेजो, फूलपति, फूलपति, फूलपति? साल, दो साल के बाद गुरतेज जब भी छुट्टी से लौटता है, तो उसे लगता है, कि एक पीढ़ी-की-पीढ़ी लुढ़क गई है. कुछ परिचित चेहरे इस दुनिया से उठ जाते हैं, और अधिक अपरिचित चेहरे जन्म ले लेते हैं. पिछली बार जब वह आया था, तो गांव का लंगड़ा, हकीम दोपहर में उसके साथ शतरंज खेला करता था, परंतु इस बार लंगड़े हकीम की बैठक के बूढ़े दरवाजे पर जंग लगा रोपड़ी ताला लटक रहा था, और बैठक की छत ढल गई थी. बूढ़ा जगीर सिंह था. सुना, कि वह पागलखाने में है. कालू राम पिछली बार भी चारपाई से चिपका था, और इस साल भी चारपाई से चिपका है. फूलपति? उसे लगा कि गली के कोने में लगा नीम का पेड़ उसके रक्त की तरह उसका अपना है. वह उसकी एक-एक डाल, एक-एक पत्ती को पहचान रहा है. उसने सांस ली, तो गोबर, उपलों और नीम के पेड़ के बराबर में बहने वाले गंदे नाले की चिरपरिचित गंध उसके तन-बदन पर छा गई. मटमैली सांझ के परिचित साये निकली मिट्टी की बनी हवेलियों पर उतर रहे थे.

गुरतेज का इरादा था, कि वह पूरन की दुकान पर जाकर चिलम पियेगा और गपबाजी में सांझ गुजार देगा, परंतु वह दुआ-सलाम से घबरा रहा था. वह पूरन से इस तरह मिलना चाहता था, जैसे मुद्दत से उससे रोज मिल रहा हो. परंतु पूरन पूछेगा-कब आए? कैसे आए? लड़ाई में क्यों नहीं गये? और फिर ट्रांजिस्टर क्यों नहीं लाये? वह सीधा ही चलता गया रेल की लाइन की तरफ, जिसने गांव के रेतीले टीलों को काट कर पठानकोट से संबंध जोड़ लिया है. रेल की लाइन पर एक कुत्ता सो रहा था. गुरतेज ने एक छोटा-सा ढेला मार कर कुत्ते को उठा लिया. उसे कुत्ते की मूर्खता पर हंसी आ रही थी.

वह और दूर नहीं जा पाया. वहीं टीले पर बैठ गया. मिट्टी के घरौंदे थे, पर वे नहीं थे, जिन्होंने घरौंदे बनाए थे. उसे उनका अभाव खटकने लगा. लगा, कि जैसे एक खालीपन से वह अपने को भर रहा है. वह रात तक के लिए सो जाना चाहता था, परंतु नींद का हलका-सा बोझ भी उनकी पलकों पर नहीं था. ये बातें उसे शहर में भी परेशान किया करती है. और यहां भी. गुरतेज को याद है, कि वह गांव में नहीं होता, तो चुपचाप अपने क्वार्टर में बैठा, गांव के बारे में (इस टीले के बारे में भी) सोचा करता है, और पोस्टमैन की प्रतीक्षा किया करता है. जब एक दिन गांव के मास्टर बख्तावर सिंह से लिखवाया गया उसकी पत्नी का खत पहुंचता है, तो वह मुस्करा दिया करता है. मुस्करा वह इसलिए दिया करता है, कि उसे किसी सहज ज्ञान के द्वारा खत पढ़ने से पहले ही यह एहसास हो जाता है, कि पत्र में अवश्य यही लिखा है-भरपाई के पांव भारी हैं. उसे उलटियां आ रही हैं. उसकी पिंडलियों में दर्द रहता है. और उसका मन उदास रहता है. गुरतेज उसे अपने पास क्यों नहीं बुला लेता? इस बार अवश्य लड़का होगा. भरपाई ने सपने में शेर देखा है. गुरतेज जानता है, कि भरपाई को हर साल सपना आता है, और हर बार भरपाई का सपना पलट जाता है. भरपाई से उसकी इस सिलसिले में कोई बात नहीं हुई थी, परंतु टीले की ठंडी रेत छूते हुए गुरतेज को लगा, कि उसके गांव से लौटते ही भरपाई का एक उसी आशय का खत उसे मिलने वाला है. खत क्यों नहीं मिलेगा, उसने सोचा. वह खत की वैसी इबारत लिखाने ही तो गांव आता है. लड़का हो या लड़की, गुरतेज को बच्चे कभी प्यारे नहीं लगे. आती बार वह उनके लिए टाफियों का डिब्बा अवश्य लाता है. जब उसके एक बच्ची थी, तब भी वह एक ही डिब्बा लाता था. अब तीन बच्चियां हैं. यह दूसरी बात है, कि जब बच्चे चीलों की तरह उसके अटैची की ओर लपकते हैं, तो वह उनकी तरफ से मुंह मोड़ लिया करता है. वह देखा करता है, कि बच्चियां सुबह उठते ही ओंठ रंग लेती है, और सांझ घिरते-घिरते उनकी कमीजों पर मां के लिए लाई गई लिपस्टिक के रंग के फूल खिल उठते हैं, और गले में पहनी माला के मोती अनाज की तरह घर में बिखर जाते हैं.

इस बार गुरतेज ने भरपाई को देखा, तो लगा कि जैसे वह किसी महायुद्घ के बाद घर लौटा हो. पहले की भरपाई अब की भरपाई नहीं थी. वह यौवन-गंध भी अब नहीं थी. तूअर की दाल की तीखी गंध थी, जो गुरतेज को भरपाई के पास से आई. भरी-पुरी भरपाई की लंबी पलकें बुढ़िया गई थीं. उसके स्पर्श से गुरतेज को लगा था, जैसे आटे का थैला ढीला हो गया हो, जैसे भरपाई ने उसका जीवन भी जी लिया हो, और वह वैसे-का-वैसा ही हो-तगड़ा, जबान, गबरू.

शहर से रवाना होने के पहले गुरतेज देर तक सोचता रहा था, कि उसे भरपाई के लिए क्या ले जाना चाहिए. बहुत सोच-विचार के बाद उसने एक चोली खरीदी थी. भरपाई ने सांझ के धुंधलके में चोली की दोनों तनियां पकड़ते हुए गुरतेज की ओर ऐसे देखा था, जैसे भरपाई के लिए चोली लाना उसे गाली देना हो. भरपाई ने चोली खाट पर रख दी, और डिब्बे से हेयरपिन निकाल कर, नाखूनों में फंसी मैल कुरेदती रही. गुरतेज का मन वितृष्णा से भर गया. उसने सोचा, कि वह परे हट जाए, या गाली बकता हुआ लौट जाए. परंतु भरपाई कैसी निरीहता, मासूमियत और अपराध-भावना से गुरतेज के सामने खड़ी थी. गुरतेज विवश-खड़ा रहा. वह पास पड़े मोढ़े पर बैठ गया, और बोला-‘‘क्यों, भरपाई, भूखी रहती हो क्या? यहां खाने को नहीं मिलता? तुमने कैसी सूरत बना रखी है? तुम्हारी लंबी पलकें कहां हैं...?’’

गुरतेज सहसा चुप हो गया. भरपाई पल्लू से आंखें मल रही थी. जैसे घर की कोई कीमती चीज उसे ठूंट गई हो, या उससे खो गई हो. गुरतेज का मौन उससे बरदाश्त नहीं हुआ, तो बोली-‘‘तुम दूसरा ब्याह कर लो. मैं अब तुम्हारे जोग नहीं रही.’’

‘‘तुम पागल हो,’’ गुरतेज बोला-‘‘तुम्हारी तो सोने-सी देह थी.’’

भरपाई के आंसूओं का वजन बढ़ गया. गुरतेज ने जेब से रूमाल निकाल कर, भरपाई की आंखों के ऊपर रख दिया. फिर बच्चों की तरह पुचकारता हुआ बोला-‘‘देखो भरपाई, मेरी तरफ देखो, मैं कितनी आस ले के आता हूं और तुम खुश होने के बजाय रोने लगती हो. मैं तुम्हें अच्छा नहीं लगता, तो लौट जाता हूं.’’

भरपाई की समझ में नहीं आ रहा था, कि ऐसे वक्त पर क्या उत्तर दिया करते हैं. वह कुछ देर तो आंखें झुकाए खड़ी रही और फिर कटोरे में दूध की लस्सी ले आई. बोली-‘‘फूलपति बड़ी खुश होगी तुम्हें देखकर. दिन में बीस-बीस बार तुम्हें याद करती थी.’’

गुरतेज को लगा, कि भरपाई अपने मूल्य पर उसे खुश कर रही है. गुरतेज खुश भी हुआ. न चाहते हुए भी पूछा-‘‘याद करती थी?’’

‘‘हां. कहती थी, ‘गुरतेज से मेरी नमस्ते कहना.’’’ गुरतेज के होंठ सूखने लगे. वह होंठों पर जीभ फेरने लगा.

‘‘वहां तुम्हें मेरी याद आती है?’’ भरपाई ने सिर झुका लिया था. उसकी ठुड्डी कालरबोन को छू रही थी. ‘‘क्यों? मैं तो हर वक्त याद करती हूं.’’

गुरतेज कुछ सोच रहा था. उसने कहा-‘‘बहुत. वहां रोज शाम को हम अपनी-अपनी बहुओं की बातें किया करते हैं.’’

‘‘कोई अच्छी बात थोड़े ही करते होंगे.’’ भरपाई बहुत कुछ जान लेना चाहती थी. ‘‘मर्द तो मिल कर गंदी-गंदी बातें ही करते हैं.’’

विषयांतर में गुरतेज की कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह खिड़की में से नजर आ रहे तारों की तरफ उल्लू की तरह घूरता रहा. फिर बच्चों की तरह गिनता रहा. तारों और चांदनी में उसे कभी दिलचस्पी नहीं रही है, परन्तु चांदनी में अकसर उसके दिल में कुछ सरसराया करता है. और ऐसे में उसके जी में फिल्मी किस्म की बातें करने की इच्छा करवट लिया करती है.

भरपाई से गुरतेज का उचटना बरदाश्त नहीं हो रहा था. गुरतेज जो कुछ देर पहले उसके आंसू पोंछ रहा था, अब वह गुरतेज नहीं था. एक रहस्यमय आशंका से वह मन-ही-मन टूटी जा रही थी. गुरतेज उसके सम्मुख देर तक अनमना-सा बैठा रहा था, ठीक इसी तरह जैसे अब टीले पर बैठा है. टीले पर मिट्टी के घरौंदे थे, पर वे नहीं थे, जिन्होंने घरौंदे बनाए थे.

गांव एक मटमैले धब्बे की तरह क्षितिज से चिपक जाता था. जैसे किसी ने शून्य पर उपले थाप दिए हों. टीले की रात और ज्यादा ठण्डी हो गई थी. धूल से धूल सट गई थी. गांव की तरफ से आ रही ध्वनियों को काटता हुआ स्त्रियों का एक समूह-गान सोई पगडंडियों और टीले की रेत को छूता हुआ सूखे पत्तों की तरह भटक रहा था. गुरतेज गीत के स्वर नहीं पकड़ पा रहा था, परन्तु आरोह-अवरोह और लय उसकी चिरपरिचित थीं. वह अनुमान से गुनगुनाते लगाः

‘कोठे तां चढ़ के कूक दी,

नीवें तां खड़ के रोंदी

वे किते न दिस आऊंदा

बावल तेरा देस...’

गुरतेज वहां से उठा, और गीत के साथ बंधा हुआ, ठीक उस घर के सामने पहुंच गया, जहां से स्वर उठ रहे थे. वह घर उसके पुराने दोस्त अनवर का था. अनवर की बहन गांव छोड़ते हुए बहुत रोई थी. और अब यहां विभाजन के बाद रावलपिंडी से आए एक परिवार के लोग रह रहे थे. गुरतेज को उम्मीद नहीं थी, कि यहां कोई उसे आवाज देगा. पीछे से ‘‘गुरतेज सिंह सुनो’’ की आवाज आई, तो वह ठिठक गया. पीछे मुड़ कर देखा, तो एक युवती अन्य स्त्रियों से अलग खड़ी, मुंह पर दोनों हथेलियों से भोंपू बना कर आवाज दे रही थी. गुरतेज को उसे पहचानने में देर नहीं लगी. बोला-‘‘कुड़े, तू रसालों ऐं? तू तां जनानी हो गई ऐं. तेरा ब्याह कदों हुआ? परसाल तां तू छोटी-सी गुड़िया सी.’’

‘‘मुझे तो फूलपति ने बताया, कि तुम गली में से गुजर रहे हो. फूलपति ने कहा, और खुद छिप गयी,’’ रसालो ने कहा-‘‘भरपाई से झगड़ा तो नहीं हो गया? तुम इतने गुमसुम क्यों हो?’’

गुरतेज गुमसुम नहीं था. वह सोच रहा था, कि एक उम्र की बात दूसरी उम्र में दुहराई नहीं जाती. वह छिपी हुई फूलपति को ढूंढ़ नहीं पायेगा. फूलपति वही फूलपति है. अब भी उसे देख कर छिप जाती है. वह उसके छिपने की जगह भी जानता है. भूसे वाला कमरा.

‘‘तू कब ब्याही गई?’’ उसने रसालों से फिर पूछा. रसालो, जो निहायत भोलेपन से उसकी ओर ताक रही थी, बोली कि उसका ब्याह हुए तो एक साल से भी ऊपर हो गया. वह साथ वाले गांव में है, और उसका पति भी सेना में है. वह लड़ाई पर गया है. गुरतेज लड़ाई पर क्यों नहीं गया? फिर उसने डरते-डरते पूछा-‘‘क्यों, गुरतेज सिंहा, क्या लड़ाई होगी? खसम खाने लड़ाई क्यों करते हैं? तुम लड़ाई पर क्यों नहीं गए?’’

‘‘मेरी जरूरत पड़ी, तो मैं भी जाऊंगा.’’

गुरतेज झूठ बोलते-बोलते रह गया, कि वह लड़ाई से ही लौट रहा है. उसे खेद हुआ, कि उसे लड़ाई पर नहीं बुलाया गया. गुरतेज ने रसालों के पति के बारे में, उसकी सास के बारे में, उसके गांव और उसकी ननद के बारे में पूछ-ताछ की. उसकी सहेलियों और उसके बाप की फसल का हाल जानना चाहा, परंतु फूलपति के बारे में कुछ न पूछ पाया, जो शायद भूसे वाले करमे में उसकी पदचाप की प्रतीक्षा में पसीने से नहा रही होगी, जिसने सूंघ लिया था, कि गुरतेज गली में से गुजर रहा है.

उसने रसालो को घर आने का निमंत्रण दिया. और जब वह चला तो उसके मन का धुंधलका छट चुका था. उसने महसूस किया, कि वह वाकई अपने गांव में है. उसने चलते-चलते रास्ते से थोड़ी-सी मिट्टी उठा ली, और बच्चों की तरह उसे गिराते हुए चलने लगा. रास्ते में पूरन की दुकान पड़ती थी. पूरन से मिलते ही वह वाचाल हो गया. वह देर तक पीपल के नीचे बैठे गांव के बड़े-बूढ़ों को शहर की बातें और लड़ाई के ताजा समाचार सुनाता रहा. उसे आशा नहीं थी, कि लोग उसमें इतनी रुचि रखते हैं. लोग प्रश्न-पर-प्रश्न पूछ रहे थे-शहर के बारे में, महंगाई के बारे में, सर्कस-सिनेमा के बारे में, युद्घ और लड़कियों के बारे में. वह धारा-प्रवाह उत्तर देता गया. उसके अनुमान लोगों के निष्कर्ष बन रहे थे, उसकी आशंकाएं लोगों की आशंकाएं. उसने घर जाने की सोची, तो एक गहरी अपराध-भावना ने उसे जकड़ लिया. उसने सोचा, कि वह समय से लड़ने की व्यर्थ कोशिश कर रहा है. उसने रास्ते में रबड़ी का दोना लिया, और तेज-तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा. भरपाई को खुश करने का एक ढंग वह किसी भी समय इस्तेमाल कर सकता है. वह छत पर लेट कर बच्चों को टांगों पर बिठा कर चंदा मामा की सैर करवायेगा. उसकी पगड़ी सिर से उतर कर नीचे की ओर सरक जायेगी. भरपाई पगड़ी उठा कर ताक पर रख देगी, और उसके सिर के नीचे तकिये. तकिये सरकते हुए भरपाई के नीचे पहुंच जायेंगे.

गुरतेज पर पहुंचा, तो अंधेरा घना हो चुका था. दालान में लालटेन जल रही थी. और आंगन में भरपाई तंदूर पर रोटियां सेंक रही थी. और कुछ औरतें भी खड़ी थीं. तंदूर का प्रकाश उनके चेहरे पर इस तरह पड़ रहा था, जैसे उनके सामने सूर्यास्त हो रहा हो. गुरतेज की आहट सुनते ही आवाज आईं-‘‘सत सिरी अकाल, भरा जी!’’

‘‘सत सिरी अकाल!’’ गुरतेज ने आगे बढ़ते हुए कहा.

‘‘भरा जी, हमारी भाभी आप से रूठ गई है.’’ यह रसालो का स्वर था. रसालो उससे पहले ही घर पहुंच गई थी. बोली-‘‘आप कब के निकले अब लौटे हैं. और इस बेचारी की राह तकते-तकते आंखें सूज गईं. राह क्यों नहीं देखेगी? साल-दो साल बाद तो आप लौटते हैं.’’

उसने भरपाई के चुटकी काट ली. भरपाई हंस कर अलग हो गई. कांटे में अटका फुलका तन्दुर में जा गिरा.

‘‘इसकी तो बोलने की आदत है.’’ भरपाई हाथ पर कपड़ा लपेट कर रोटी निकालने लगी. उसने कहा-‘‘रसालो, तुम्हें देर हो रही होगी. तुम जाओ.’’

‘‘हमें क्या देर होगी? वह अभी चण्डाल-चौकड़ी में ही बैठा होगा. रात को धुत्त लौटेगा, और फिर सोने भी नहीं देगा. भरा जी, आप अमरू को भी अपने साथ ही ले जाइए.’’

गुरतेज चुप खड़ा था. रसालो बात-पर-बात पूछ रही थी. ‘‘आप कब तक ठहरेंगे? इस बार भरपाई को भी शहर ले जाइए. हम भी शहर घूम लेंगे.’’

गुरतेज से कुछ भी कहते नहीं बना. उसने देखा, कि भरपाई ने अंगिया पहनी हुई थी-वहीं अंगिया, जो वह शहर से लाया था. उसे खुशी हुई. भरपाई की आंखों में रोशनी भी पहले से अधिक थी.

लेकिन भरपाई को यह खुशी नसीब नहीं हुई थी. अभी कुछ देर पहले उसने स्नान किया था, तेल में बेसन मिला कर मुंह की मैल धोई थी, आंखों में सुरमे की लकीरें भी खींची थीं. परंतु जब आईने में उसने आंखों के इर्द-गिर्द फैली झुरियों और झांइयों को देखा था, तो उसका उत्साह ठंडा पड़ गया था. उसे लगा था, कि वह अपने प्रेत को या अपनी मां को आईने में देख रही है, अंदर से वह अपने में जितनी ही स्निग्धता अनुभव करती थी, बाहर से उतनी ही कृश थी.

गुरतेज ने रबड़ी का दोना भरपाई के हाथ में पकड़ा दिया, और रसालो से बोला-‘‘तुम जरूर हममें लड़ाई करवाओगी.’’

‘‘लड़ाई क्यों करवाऊंगी? मेल करवाऊंगी. लो, मैं चली.’’ और वह एक बार फिर भरपाई के चुटकी काट कर, यह जा, वह जा.

भरपाई ने खाना परोस दिया, और खुद भी हाथ में रोटी पकड़ कर गुरतेज के पास ही बैठ गई. बच्चे जाने कब से सो रहे थे.

‘‘मैंने कल आप से एक बात कही थी.’’ भरपाई ने कहा.

‘‘कौन-सी बात?’’

‘‘वही बात, जिसे ले कर आप उदास हैं, चुप हैं.’’

‘‘मैं चुप कहां हूं? मुझे कोई बात परेशान नहीं करती.’’

गुरतेज को लगा, कि वह किसी महा कलह में से गुजरने वाला है. भरपाई बहुत संयम से बात कर रही थी. परंतु उसने पाया कि उस सब के पीछे भी उत्तेजना की महाग्नि धधक रही है.

‘‘मुझ से आपकी यह चुप्पी, यह उदासी नहीं देखी जाती. मैं आपको इस तरह नहीं रहने दूंगी. मैं आप को खुश देख कर ही खुश हूं.’’ वह अंधरे में घूरती रही. रोटी का उसने एक ग्रास भी नहीं लिया.

‘‘तुम्हें क्या हो गया है? तुम कैसी बातें कर रही हो?’’

गुरतेज अंदर-ही-अंदर कांपने लगा. भरपाई ने पता नहीं क्या करने की सोची है. आत्म-हत्या? उसने चपाती थाल में रख दी, और भरपाई को अपने पास खींच लिया. भरपाई उसके इतिहास के किसी बीते परिच्छेद से तो नहीं टकरा गई? लेकिन उसका इतिहाास इतना काला तो नहीं, कि उस पर किसी प्रलय की भूमिका खड़ी की जा सके!

भरपाई उसके अंक में सिसक रही थी. चांद तहसीलदार की हवेली के नीचे सरक गया था. किसी की आहट सुन कर, दोनों अलग हो गए. भरपाई खाना खाने लगी.

‘‘जीजा जी, सत सिरी अकाल!’’

‘‘सत सिरी अकाल! कौन? फूलां? कुड़, तू इस वक्त कहां? मैं तो सोच रहा था, कि फूलपति भूसेवाले कमरे में छिपी होगी. मैं तो तुम्हें ढूंढ़ने के लिए आने ही वाला था.’’-गुरतेज ने अतिरिक्त संतुलन कायम करते हुए कहा.

भरपाई ने थाल उसके आगे सरका दिया. वह भोजन करने लगा. फूलपति पीढ़ा ले कर, पास ही बैठ गई.

‘‘तुम भी खाना खाओ,’’ गुरतेज ने कहा.

‘‘हम सुबह से बीस चक्कर लगा चुके हैं. भरपाई ने न बुलाया होता, तो हम कभी न आते. आप हमारे लिए शहर से क्या लाए हैं? आप तो हमें भूल गए, पर हम नहीं भूले.’’

फूलपति उसकी दूर की साली थी. गुरतेज महसूस कर रहा था, जैसे उसके इतिहास का कोई अपूर्ण परिच्छेद उसके सामने बैठा हो. इतिहास का यह परिच्छेद बहुत संक्षिप्त है, और इससे उसका रिश्ता बहुत नगण्य-केवल इतना ही उसे देखते ही यह भूसे वाले कमरे में छिप जाया करती है.

‘‘जीजी आपका कितना खयाल रखती हैं. और आप? आप को शहर जा कर किसी की भी चिंता नहीं रहती.’’

-फूलपति बोले जा रही थी.

गुरतेज को लगा, कि वह जलते तंदूर के पास बैठा है. भरपाई उठी, और नल पर हाथ धोकर, छत पर चली गई. कह गई, कि वह बच्चों को देख कर अभी लौटती है. भरपाई देर तक नहीं लौटी.

‘‘जीजा जी, हम छिप रहे हैं. आप हमें ढूंढ़िए,’’ फूलपति ने दालान की ओर जाते हुए कहा-‘‘ढूंढ़िए भी.’’

गुरतेज वैसे ही कितनी देर पीढ़े पर बैठा रहा. फिर वह उठा, और सीढ़ियां चढ़ गया. भरपाई बच्चों के बीच लेटी थी. वह उसके सिरहाने खड़ा, तारों की तरफ उल्लू की तरह घूरता रहा. फिर बच्चों की तरह गिनता रहा...

‘‘जीजा जी, ढूंढ़िए भी.’’ कुएं से जैसे एक आवाज आ रही थी.

गुरतेज भरपाई के सिर पर हाथ फेरने लगा. फिर उसकी अंगुलियां उसके बालों में फंस गईं.

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: प्राची अप्रैल 2016 : कहानी / पत्नी / रवीन्द्र कालिया
प्राची अप्रैल 2016 : कहानी / पत्नी / रवीन्द्र कालिया
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