समीक्षा - जलधारा बहती रहे / अशोक चक्रधर

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भूमिका अपर्णा शर्मा की पुस्तक - जलधारा बहती रहे और तट निहारता रहे -अशोक चक्रधर कविता अपनी परिभाषाएं समय- समय पर बदलती रही है । अकेली क...

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भूमिका अपर्णा शर्मा की पुस्तक

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जलधारा बहती रहे और तट निहारता रहे

-अशोक चक्रधर

कविता अपनी परिभाषाएं समय- समय पर बदलती रही है । अकेली कविता है जिसकी कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती, क्योंकि वह एक तरह से चलती ही नहीं है । कभी समय के पीछे, कभी समय के साथ, कभी समय के आगे । अच्छी कविता वह होती है तो गुजरे समय से सीख ले, वर्तमान का आकलन करे और भविष्य की ओर देखे । अपर्णा शर्मा की कविताएं अतीत पर गोली नहीं दागती और न भविष्य पर तोप के गोले बरसाती हैं । वे वर्तमान के पालने में यथार्थ को बिठाकर उसको झुलाता हैं और चाहती हैं कि डोर उनके हाथ में रहे ।

कई बार वे बडे कडुवे सच अपनी कविता में बखानती हैं । कभी गांधी जी के अनुयायियों पर, कभी उनके झंडे के नीचे पलते भ्रष्टाचार पर और सवाल करती हैं कि जनता क्यों मूक है । जवाब भी देती हैं कि मजबूरी इतनी गहरी है कि लोग अपनों से ही हार गए हैं । लीपा- पोती करते हैं और झेलना सीख गए हैं । कालाबाजारी, लूटपाट, बेबसी, और वहशी पिता का बढ़ना इस प्रजातंत्र की हार है । ये हार निराश की ओर ले जा सकती है, लेकिन उन्हें दिखाई देते हैं भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे हुए लोग । फिर वे दिग्भ्रमित हो जाती हैं कि जो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे हैं वे स्वयं कितना सदाचारी आचरण कर रहे हैं । इसीलिए वे कहती हैं कि उनकी कविता चिर अनंत है । वह काल में बंधी हुई नहीं है । वह अतीत से और भविष्य से उस प्रकार नहीं जुड़ी हुई है, क्योंकि उसका कोई आदि और अंत नहीं है । वे डंके की चोट कहती हैं- ' कविता है मेरी चिर अनंत, ढूंढो न इसका आदि अंत । '

चिर अनंत अध्यात्म में ले जाता है, लेकिन वे सदैव अध्यात्म में नहीं रहना चाहती । वे भावनाओं को बुद्धि के आवेग से बहाना चाहती हैं और कई बार चुनौती देती हैं तट को, तट जो कि धारा के सामने पुरुष के समान है । धारा बहती है, तट तटस्थ रहता है । वहीं जहां है और धारा आज की कहती है कि तट बस उसे छू भर ले, उसे रोके नहीं, धारा बहती रहे । तट जब भी धारा के साथ बहने की कोशिश करेगा ढह जाएगा, मर जाएगा । यह आज की स्त्री की चुनौती है । आज की स्त्री बहना चाहती है समय के साथ और वह जो रुढ़िवादी विचार रखे हुए एक जगह स्थित तट है, वह उसका स्वयं का ढहना है, उसका मरघट है ।

बहुत सारे सवाल उस तट पर टिकी सभ्यता के बारे में उठाती हैं अपर्णा । खुद से समाज बनकर पूछती हैं कि किस कदर सभ्य हो रहे हैं हम । उस समय जबकि कितने ही घुसपैठिए जमीर को तार-तार करने पर आमादा हैं । क़दम-कदम पर खुदकुशी की राह पर बढ़ते जाना लाचारी बन गया है । झूठी दिलासाओं से स्वयं को ढकते हुए हम आँख खोलकर भी सो रहे हैं और समझते हैं कि सभ्य हो रहे हैं । महानगर में जिन्दगी तलाशते लोगों को जीने की राह दिखाने की कोशिश करती हैं वे । लेकिन बेखौफ जिन्दगी भला कैसे जी जा सकती है, जबकि इस बाजारवादी युग में लोग बोतलों में बन्द जहर पी रहे हैं और फास्ट फूड के आदी हो चुके हैं ।

अपर्णा की कविता युग के साथ सयानी होती हुई कविता है, जो राष्ट्र के बारे में, व्यक्ति के बारे में, उसके साधारण जीवन की विलक्षण प्रतिभाओं के बारे में, प्रजातंत्र के महानाटक और भ्रमजन्य संसार के बारे में टिप्पणी करती हैं । वे जानती हैं कि ये देश सबसे युवा देश है । और ये युवा अपने घुंघराले बालों और काली आंखों के साथ नाचते गाते कितना देखना सीख पाए हैं, यह एक सवाल है । महीना जून का हो या जनवरी का, सवाल दो जून की रोटी का ही सालता रहता है । सालती है महंगाई, सालता है नारीत्व का रास्ता कि कब कहां कमजोर और मजबूर होती है । वह जानती है और अवसरों को भी पहचानती है । सहज गति से उसको चलने दिया जाए, ऐसा मानती हैं अपर्णा ।

अपर्णा नारी के अस्तित्व को बार-बार रेखांकित करती हैं । भारत की नारी के बारे में बात करती हैं जो खेती और खलिहानी, बागों की निगरानी करते हुए पशुओं को चारा देती है, जो खडे पहाड़ी पर अकेली चढ जाती है और मेहनत से उतरती नहीं है । जो बछेन्द्री की तरह एवरेस्ट पर झंडा फहराती है और विधि-ज्ञान को आज समझने लगी है । वेद-पुराण का गोपन रहस्य भी जानती है । वह घर की डोरी थामे हुए समाज का पूरा ड्रामा देखती है । खुद्दारी के साथ जीने की कामना करती है और बार-बार कहती है कि मैं हूं, यदि जान सको मुझको, पहचान सको मुझको तो मानो कि मैं हूं ।

इस संकलन की प्राय : सारी कविताओं में कुछ अधूरे सपनों को पूरा करने का

सपना है । जहां कलुषता को निष्ठा से जीतने का संकल्प है और सन्मार्ग पर चलने वाले क़दम के लिए अभिनन्दन है । उन्हें नहीं लगता कि सब कुछ इसी जन्म में हो । उन्हें याद आते हैं कृष्ण जो कहते हैं कि यदा-यदा ही धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारतः.... शायद कृष्ण दुबारा आएंगे । आतंकी की चिट्ठी पढेंगे, उसकी भी जानेंगे और शायद महाभारत के युद्ध के समान देश के अर्जुनों को कहेंगे कि जिनको मारना है उनको तो मारना ही है । यहां कोई अपना पराया नहीं है, धर्मयुद्ध है । समय एक धर्मयुद्ध है, जिसने जीवन को मोड़ा है ।

अंधकार कितना भी आए वह हमें विचलित न करे, ऐसा उनकी कविताएं चाहती हैं । श्रम की ज्योति जलाकर जीत को निश्चित अवसर प्रदान करना चाहती हैं और पुकारती हैं अतीत को । पुकारती हैं गांधी को । ढूंढती हैं अहिंसा को, क्योंकि शासन विखंडित होता दिखाई नहीं देता और दिखाई देता है कबीर का रोना कि वह क्यों चदरिया तानकर सोया हुआ है? क्यों नहीं बदलता इस समाज को? क्यों नहीं आज कविता मुक्त होती काव्यशास्त्र से? क्यों नहीं मन मुक्त होता शास्त्रीयता से? मन जिन्दगी को कैसे आगे बढ़ाए और कविता कैसे अतीत, वर्तमान और भविष्य का सेतु बने, ये चाहती हैं अपर्णा शर्मा की कविताएं । मेरी कामना है कि कविता की जलधारा बहती रहे और तट वहीं स्थित रहकर निहारता रहे, देखता रहे जलधारा का बहना । अब और क्या कहना। खूब सारी शुभकामनाएं।!

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रचनाकार: समीक्षा - जलधारा बहती रहे / अशोक चक्रधर
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