कृष्णा मुंशी / मधुरिमा प्रसाद

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१५ - कृष्णा मुंशी कुछ ऐसे भी सत्य होते हैं जो सीधी नज़रों से देखने पर तो व्यंग्यात्मक लगते हैं ज़माने को हंसी का मसाला देते हुए दिखलायी पड़ते ह...

१५ - कृष्णा मुंशी

कुछ ऐसे भी सत्य होते हैं जो सीधी नज़रों से देखने पर तो व्यंग्यात्मक लगते हैं ज़माने को हंसी का मसाला देते हुए दिखलायी पड़ते हैं लेकिन उस मज़ाकिया तस्वीर के पीछे छिपा हुआ उनका दर्द वही देख पाता है जो संवेदनशील हो कर उसकी तलहटी तक झांकने का प्रयास करता है। सड़क पर घूमती उस विक्षिप्त काया को देख कर ऐसा ही कहने का मन होता था जिसे बच्चे तो बच्चे बड़े भी छेड़ने से बाज़ नहीं आते थे। बहुत पहले की बात है एक नामी-गिरामी एडवोकेट थे श्री राजनारायण पण्डे। मुवक्किलों के मसीहा कहे जाते थे वे अपने ज़माने में। मुक़दमा तो ईमानदारी से लड़ते ही थे साथ ही मुवक्किलों की हर तरह से मदद भी करते थे। शहर से बाहर के जो केस आते, उनके रहने खाने की व्यवस्था भी अपने स्तर से वे स्वयं करवाया करते थे अपने ही निवास पर, जिसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क भी नहीं लिया जाता था। कभी-कभी तो किसी मुवक्किल के पास पैसे न होने पर फीस भी छोड़ देते थे। ईमानदारी की कमाई से भगवान ने उन्हें भरपूर सम्पदा दे रखी थी। हर दृष्टिकोण से सम्पन्न थे वक़ील साहब। वो कहावत है न ---बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभानल्लाह।  वकील साहब का एक मुंशी था ----कृष्ण कान्त तिवारी। जिसे वकील साहब और क़रीबी सभी लोग कृष्णा कह कर पुकारते थे। राजनारायण और कृष्णा का सूई-धागे का सा संबन्ध था। दोनों, दोनों के बिना अधूरे थे। सेवा, प्यार, सहयोग, अपनापन दोनों के बीच इतना था कि उसे तौलने के लिये किसी तराज़ू का निर्माण उस समय तक तो नहीं ही हुआ था।

हत्या का एक बहुत ही ख़तरनाक केस जीत कर वकील साहब कृष्णा के साथ अपनी जीप पर घर लौट रहे थे कि हारी हुई पार्टी ने उन पर बम से हमला करवा दिया था कृष्णा तो छिटक कर दूर जा गिरा, हल्का-फुल्का घायल भी हुआ पर वकील साहब के चीथड़े उड़ गये थे। कृष्णा की मरहमपट्टी हो गई। चलने-फिरने लायक़ भी वह हो ही गया था। वकील साहब के अंतिम संस्कार के सभी कार्यक्रमों में भी शामिल हुआ; वह हर क्रियाकलाप को एक मूक दर्शक की भांति देखता रहा। उसके दिल की हालत किसी की भी समझ से परे थी और जो समझ सकता था वह तो बहुत दूर जा चुका था। अंत्येष्टि की सारी तैयारी हो गई थी। वक़ील साहब की मृत देह की सजावट खूब बढ़-चढ़ कर की गई थी। फूल-मालाओं से सजी उनकी अर्थी तरह-तरह के इत्र-फुलेलों की सुगंधों से मह-मह कर रही थी। धूप, अगरबत्ती और गूगल-लोहबान की सुगंध वातावरण में भरी हुई थी। वकील साहब के व्यवहार और मिलनसार स्वभाव के कारण भीड़ बेहिसाब हो चुकी थी। बाक़ी बची हुई तैयारी पूरी करने में सब तेज़ी से जुटे हुए थे। कृष्णा गुमसुम सा इधर-उधर सिर्फ घूम रहा था; न तो किसी से कुछ बोल रहा था, न किसी काम को करने में हाथ बंटा रहा था और न वक़ील साहब की अर्थी के पास ही जा रहा था। उसके चोटिल होने के कारण कोई उससे किसी काम के लिए कह भी नहीं रहा था।

तैयारी पूरी हो चुकी थी। एक बुज़ुर्ग ने इशारा किया तो भीड़ को हटाते हुए कुछ लोग आगे बढ़ आये। दोनों बेटे आगे की और से और बाक़ी लोग पीछे की और से अर्थी को कांधा दे कर खड़े हुए ---'रामनाम सत्य है' का स्वर पूरे वातावरण को हिला गया और साथ ही कृष्णा की दर्दनाक चीख ----'आज तो जीत कर ही आयेंगे। छोड़ेंगे नहीं स्सालों को' फिर 'तड़ाक' की आवाज़।

सभी ने इधर-उधर देखा तो कृष्णा ज़मीन पर बेहोश पड़ा हुआ था। कुछ लोग उसकी तरफ दौड़ पड़े। उसका शरीर बुख़ार से तप रहा था। अंतिम यात्रा न किसी की रुकी है न वकील साहब की रुकी। 'रामनाम सत्य है' का स्वर वातावरण में बड़ी देर तक गूंजता रहा। वक़ील साहब तो अपना जीवन जी कर चले गये पर होश में आने के बाद कृष्णा की जीवन यात्रा जहाँ-की-तहाँ थम कर रह गई। वह वापस अतीत में जा कर जीने लगा था और फिर वह वकील साहब के साथ बिताये पलों में ही जीता रहा जब तक उसकी सांस चली।  डॉक्टरों ने बहुत जांच-पड़ताल के बाद यही बताया कि वकील साहब के जाने का धक्का इतना गहरा लगा हैं उसे कि सुधरने की कोई गुंजायश दिखाई नहीं पड़ रही है  कुछ सुधार आ जाये तो चमत्कार ही कहा जायेगा। देखने सुनने वाला कोई भी उसे पागल या विक्षिप्त किसी भी हाल में नहीं कह सकता था। सभी से बड़े सलीके से बातें करता, अपने अनुभव सुनाता अगले की भी सुनता। उसकी दिन चर्या निर्धारित हो गई थी ---सुबह उठता, नित्य कर्मों से निवृत होता, थोड़ा बहुत पूज-पाठ भी करता फिर कोर्ट का बस्ता उठा कर पहले वकील साहब के घर जाता; वहाँ जो भी मिलता उससे खूब इधर-उधर की बातें करता और उसके बाद कोर्ट चला जाता। वहां भी अलग-अलग कोर्टों में जाता, लोगों से लम्बी-लम्बी हाँकता अपनी और अपने स्वर्गीय वकील साहब के बारे में खूब बड़कई बतियाता। ऐसे ही कुछ-न-कुछ करते हुए कोर्ट का समय पूरा हो जाता तो अपनी सायकिल ले कर पहले वकील साहब के घर आता, वहाँ उनके ऑफिस में कभी किताबें सरियाता, इधर का सामान उठा कर उधर रखता।  कुछ भी कर कुरा के थोड़ा समय वहां बिता कर तब अपने घर जाता। वकील साहब के घर के लोग सब जानते समझते थे इसलिए उसे कुछ कहते भी नहीं थे उन्हें लगता की इसे इतने से कुछ संतोष मिलता है तो यही सही। यहाँ तक तो सब ठीक था पर अधिक दुखदायी तब हो गया जब उसने बीच रात को घर से निकल जाना, खाना न खाना, बेसिरपैर की ऊल-जुलूल बातें बोलना , चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। मस्तिष्क तो विक्षिप्त था ही और जैसा कि डॉक्टरों ने कहा था उम्र के साथ बीमारी ने बढ़ना भी था ही।  

यूँ ही कृष्णा का जीवन चल रहा था। परिवार के लोग भी उससे तंग आने लग गये थे। वकील साहब की पत्नी और दोनों पुत्र उसके लिए हर मदद करने को तैयार थे, कर भी रहे थे पर जब भगवान की मर्ज़ी न हो तो इंसान कितना भी ज़ोर लगा ले सफलता भला कहाँ मिल सकती है। कृष्णा सड़कों पर घूमता जाड़े की सन्नाटी रात में कभी उसकी आवाज़ कानों में पड़ती तो कोई तो उसके दर्द से अपने को जोड़ कर कराह उठता तो उस ठण्ड और सन्नाटे में भी न जाने कुछ मज़ा लेने वाले कहाँ से ताक लगाये बैठे रहते थे जो कि उसे घेर ही लेते थे। कृष्णा कभी अपने परिवार की तो कभी वक़ील साहब के परिवार की तारीफ़ करता। कभी किसी को गाली देता तो कभी किसी की बड़ाई करता। एक वाक्य तो उसका तय था जिसे वह रोज़ बोला करता था। मनचले लड़के उसके मुंह से उसे सुने बिना हटते ही नहीं थे। वह खूब खुश होता तो कहता --'मैं उच्च कुल का ब्राह्मण हूँ, मेरी पत्नी मुझसे भी ऊंचे कुल की है,तभी तो मैंने उससे शादी किया। इसी लिए मैं कहता हूँ कि जिस पंडित ने उससे शादी नहीं किया वह असली पंडित ही नहीं है।'  बस उसके इतना कहते ही सब ठठा कर हँस पड़ते और उससे सवाल करते ---'तो फिर बताओ कृष्णा अब तक कितने लोग तुम्हारी बीवी से शादी कर चुके हैं ?' 

अब उसके दर्द भरे मस्तिष्क की ऐसी बातें छोटे बच्चों और बड़े नासमझों के लिए तो खिलवाड़ का मसाला ही तो हुईं न ! कृष्णा का सड़कों पर डोलना एक आम बात थी। कुछ लोगों को तो मज़ा लेने के लिए रोज़ ही उसका बेसब्री से इंतज़ार रहा करता था। कभी-कभी तो वह तुनक भी जाता था तब जो भी ईंट-पत्थर, धूल-मिटटी उसके हाथ में आ जाता फेंक कर मार बैठता था। धीरे-धीरे कृष्णा की ज़बान बिगड़ने लगी थी। बात करना उसके लिए मुश्किल होने लगा था शब्द लड़खड़ाने लगे थे। फिर वह समय भी जल्दी ही आ गया जब वह सड़को पर सिर्फ चिल्लाता हुआ घूमता था और मुहल्ले के बच्चे उसे ढेले मारते थे। और -----और फिर कृष्णा का सड़कों पर दिखना बंद हो गया। शायद उसे कष्टों से छुटकारा मिल गया था।

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रचनाकार: कृष्णा मुंशी / मधुरिमा प्रसाद
कृष्णा मुंशी / मधुरिमा प्रसाद
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