संपूर्ण महाभारत - आदि पर्व - 2

SHARE:

(पिछले अंक से जारी…) इधर देव सावधान हुए तो इन्द्र ने अमृत-कलश लेकर जाते हुए गरुड़ पर वज्र से प्रहार किया, परन्तु गरुड़ पर जब वज्र का कुछ ...


(पिछले अंक से जारी…)
इधर देव सावधान हुए तो इन्द्र ने अमृत-कलश लेकर जाते हुए गरुड़ पर वज्र से प्रहार किया, परन्तु गरुड़ पर जब वज्र का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो इन्द्र ने उससे मित्रता कर ली। इन्द्र ने गरुड़ से निवेदन किया कि. वह सर्पों को अमृत पिला कर देवों के लिये -शाश्वत विपत्ति की सृष्टि न करे। गरुड़ ने अपने इस अभियान का कारण बताते हुए कहा कि मैं जहां कलश रखूं वहां से आप उसे उठा लीजिये। मुझे कोई आपत्ति नहीं, मुझे तो केवल एक बार अमृत ले जाकर अपनी माता को दासता से मुक्त कराना है।
इन्द्र ने गरुड़ के अभियान को युक्तियुक्त मानते हुए उसके द्वारा सुझाये प्रस्ताव-कलश के अपहरण-को स्वीकार किया और वह स्वयं उसके साथ चल दिया। इन्द्र ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा तो गरुड़ बोला-
हे इन्द्र। यद्यपि मैं अमृत-कलश को अपने अधिकार में रखने और जिस किसी को इसका सेवन कराने में समर्थ हूं, पुनरपि मैं आपका अभीष्ट सिद्ध करूंगा अर्थात् आपको यह कलश लौटा दूंगा। इसके बदले मैं आपसे यह वर मांगता हूं कि. भयंकर और बलशाली सर्प मेरा भोजन बनें।
इन्द्र ने ' तथास्तु' कहकर गरुड़ के मैत्री-सम्बन्ध को सुदृढ़ रूप दिया। गरुड़ ने अमृत-कलश कद्रू को दिखाते हुए कहा-मौसी। लीजिये मैं अमृत-कलश कुशों पर रख देता हूं। तुम स्नान आदि से पवित्र होकर अपने पुत्रों के साथ इसका पान करो। गरुड़ ने कहा- अब क्योंकि मैंने अपना वचन निभा दिया है, अतः मेरी माता आपकी दासता से आज से मुक्त हो गई है, ऐसा आप लोग उद्‌घोष करें। सर्पों ने प्रसन्न भाव से विनता को अपनी दासता से मुक्त होने का उद्‌घोष कर दिया।
इधर जब सर्प स्नान के लिये गये तो इन्द्र अमृत-कलश उठाकर स्वर्ग में ले आया। सर्पों ने लौट कर जब कलश न देखा तो उन्होंने इसे विनता के साथ किये कपट (-श्वेत पूंछ को काली दिखा देना) का फल मान कर सन्तोष कर लिया। उन्होंने कुशों पर कलश के रखने से उन पर गिरी बूंदों को चूसने के लिये कुशों को चाटना प्रारम्भ कर दिया जिससे उन बेचारों की जीभ ही कट गई और इसी से वे द्विजिह्व' कहलाये। कुशों पर अमृत-कलश रखे जाने के कारण ही कुश पवित्र माने जाते हैं।
.शौनक जी ने पृछा-सूतनन्दन। कद्रू के .शाप को उसके पुत्रों ने किस रूप में लिया-यह आप हमें बताने. की कृपा करें।
उग्रश्रवा जी बोले-ऋषिश्रेष्ठो। सर्पों को अपनी मां के शाप से बहुत चिन्ता हुई और वे आपस में मिल कर इस 'शाप से मुक्त होने का उपाय सोचने लगे। एक ने कहा-मां के शाप का तो कोई भी प्रतिकार नहीं-
बन्धुओ। अन्य सभी लोगों के शापों से उद्धार का उपाय निकल आता है, परन्तु माता द्वारा दिये गये शाप से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।
दूसरे ने कहा-मां का .शाप भयंकर अवश्य होता है, परन्तु फिर भी हमें निराश न होकर उसके निवारण का उपाय सोचना चाहिये। मेरा विचार है कि हम ब्राह्मण बन कर जनमेजय के पास जायें और उससे सर्प-यज्ञ न करने का अनुरोध करें। तीसरे ने कहा-हम यज्ञ के लिये .वरण किये गये पुरोहितों को ही डस लें। चौथे ने कहा-हम बादल बन कर यज्ञ की अग्नि को बुझा डालें। तभी वासुकि ने सभी सर्पों के सुझावों से असहमति प्रकट करते हुए कहा-
बन्धुओ! तुम्हारे विचार सात्त्विक नहीं, अतः मैं किसी के सुझाव से भी सहमत नहीं। इसी समय एलापत्र नामक सर्प अपने बन्धुओं की समस्या का समाधान न मिलने से उत्पन्न चिन्ता को दूर करते हुए बोला- जब हमारी मां शाप दे रही थी तो उस समय मैं उसकी गोदी में घुस गया था। मैंने उस समय देवों की ब्रह्मा जी से हुई बातचीत सुनी थी। देवों ने ब्रह्मा जी से स्वयं माता द्वारा अपने पुत्रों के विनाश के शाप पर आश्चर्य प्रकट किया तो ब्रह्मा जी बोले देवों! बात यह है कि इस समय भूतल पर क्रोधी भयंकर तथा लोकपीड़क सर्पों की संख्या बहुत बढ़ गई है। जनमेजय के यज्ञ में ऐसे ही सर्पों का नाश होगा। जरत्कारु नामक ऋषि वासुकि की मनसा नामक बहन से विवाह करके उससे आस्तीक नामक पुत्र को जन्म देंगे। इसी आस्तीक के प्रयत्न से जनमेजय नागयज्ञ बन्द करेंगे- जिससे धर्मात्मा सर्पों की रक्षा होगी।
एलापत्र बोला बन्धुओ। इस समय हमें महर्षि जरत्कारू की खोज करनी चाहिये। वासुकि को अपनी बहन उन्हें भिक्षा में देकर हम सब को निश्चिन्त करना चाहिये-यही हमारे कल्याण का एकमात्र सुनिश्चित मार्ग है। सभी सर्पों ने एलापत्र के कथन का समर्थन किया।
जरत्कारु ऋषि का परिचय देते हुए उग्रश्रवा जी बोले-महात्मा। जरत्कारु बड़े ही उग्र संयमी तथा कठोर तपस्वी थे। उन्होंने ब्रह्मचर्य तथा तपस्या में ही जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया था। एक दिन तीर्थ- भ्रमण करते हुए जरत्कारु ने अपने पितरों को अधोमुख होकर एक गड्ढे में लटकते देखा तो उन्होंने सहज करुणावश उनका परिचय पूछा तथा अपनी व्यथा-कथा सुनाने का उनसे अनुरोध किया। पितरों ने कहा-वत्स। हम लोग यायावर नाम के ऋषि हैं। वंश-परम्परा क्षीण हो जाने से हमारी यह अधोगति हो रही है। हमारे वंश में एक ही व्यक्ति बचा है जो नहीं के बराबर है क्योंकि उसने तप-संयम का मार्ग ग्रहण किया है। उसके द्वारा आश्रम-व्यवस्था का पालन न करने से हमारा वंश लुप्त हो जाने वाला है। यह कह कर पितर रोने लगे और रोते हुए बोले-हमारा अवशिष्ट वंशज जरत्कारु है। यदि वह आपको कहीं मिले तो उसे हमारी दशा बता कर हमारी ओर से कहिये कि वह विवाह करके सन्तान उत्पन्न करे ताकि हमारा उद्धार हो सके। पितरों ने जरत्कारु को न पहचान कर उससे अपना सन्देश पहुंचाने का अनुरोध करते हुए कहा -महात्मन्। हमारे वंशज से कहना-
वत्स। धर्मकार्यों के सम्पन्न करने से मिलने वाले पुण्य फलों तथा घोर तपों से संचित पुण्यों से भी अपने को तथा पितरों को वह गति नहीं मिलती, जो गति पुत्र वालों को सहज भाव से मिल जाती है, क्योंकि पुत्र-परम्परा से श्राद्ध-तर्पण की परम्परा चलती रहती है।
पितरों की दशा से भाव-विह्वल होकर जरत्कारु ने उन्हें आत्म-परिचय देकर उनकी इस आज्ञा को शिरोधार्य करने का आश्वासन दिया। पितरों की अनुमति लेकर जरत्कारु ने अपने निश्चय को प्रचारित किया तो सर्पों से सूचना पाकर वासुकि ने ऋषि से अपनी बहन का पाणि-ग्रहण करने का प्रस्ताव किया, जिसे ऋषि ने स्वीकार कर लिया।
जरत्कारु विवाह के उपरान्त वासुकि के भवन में रहने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को इस तथ्य से परिचित करा दिया कि जिस दिन भी वह उनकी रुचि के विरुद्ध कुछ करेगी वह उसे छोड़ कर चल देंगे। ऋषि का दाम्पत्य-जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा और यथासमय ऋषि-पत्नी गर्भवती हो गई।
एक दिन ऋषि जरत्कारु अपनी पत्नी की गोद में सिर रख कर सोये तो सूर्यास्त हो गया। पत्नी धर्मसंकट में पड़ गई, क्योंकि ऋषि को जगाने पर उनके क्रुद्ध होने का भय था और न जगाने पर व्रत-नियम के भंग होने की आशंका थी। बहुत सोच-विचार के उपरान्त देवी ने पति को जगाना ही उचित समझा। जगाये जाने पर ऋषि इस कारण क्रोधाविष्ट हो उठे कि उनकी पत्नी को उनकी .शक्ति में विश्वास ही नहीं था कि उनके सोते रहने पर सूर्य अस्त हो ही नहीं सकता था। अपनी पर्व-प्रतिज्ञा के अनुसार जरत्कारु पत्नी को छोड़ कर चल दिये। जरत्कारु को पत्नी ने अपने भाई से जब अपने पति के चले जाने की बात कही तो वह अत्यन्त व्यथित स्वर में बोला-बहन! उनको लौटाने का प्रयास निरर्थक ही है, क्योंकि वे तो दृढ़ निश्चय के महात्मा हैं।
यथासमय नागकन्या ने जरत्कारु के वीर्य से एक सुन्दर बालक को जन्म दिया। इससे एक ओर जरत्कारु के पितरों के पतन की आशंका मिट गई तथा दूसरी ओर सर्पों के नाश की आशंका भी जाती रही। इस प्रकार यह बालक पितृवंश और मातृवंश का सुदृढ़ अवलम्ब बन कर ही उत्पन्न हुआ। अतः इसके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था बड़े ही प्रयत्न से की गई। जनमेजय द्वारा अपने पिता की मृत्यु का कारण पूछने पर वैशम्पायन जी बोले – राजन्! कुरुवंश के परिक्षीण होने के कारण ही आपके पिता का नाम परीक्षित् रखा गया था। वे अत्यन्त ही धर्मात्मा दयालु परोपकारी और प्रजावत्सल राजा थे। वे अपने पूर्वज महाराज पाए के समान शिकार के बहुत ही व्यसनी थे। यहां तक कि उन्होंने राज -काज का सारा भार मन्त्रियों पर ही छोड़ रखा था।
एक दिन उन्होंने एक मृग का पीछा किया और बहुत दूर तक अकेले ही चलते चले गये। बहुत समय बीतने और धूप में भटकने के कारण वे न केवल थक गये थे अपितु भूख-प्यास से व्याकुलता भी अनुभव करने लगे थे। उसी समय उन्होंने अपने. आश्रम के बाहर बैठे शमीक मुनि को देखा। वे मौनी तथा साधनारत थे, अतः उन्होंने न तो राजा का स्वागत किया और न ही उनके किसी प्रश्न का उत्तर दिया। राजा ने क्रुद्ध होकर धरती पर पड़ा एक मरा सांप धनुष की नोक से उठा कर ध्यानमग्न ऋषि के गले में डाल दिया। मौनी बाबा तो इस घटना से जरा भी विचलित नहीं हुए परन्तु उनके पुत्र श्रृंगी को राजा का यह व्यवहार उचित न लगा। अपने मित्र से अपने पिता के अपमान की घटना सुनते ही श्रृंगी ऋषि ने तत्काल .शाप दिया-
जिस दुष्ट एवं पापी राजा ने तपोरत एवं ज्ञानवृद्ध मेरे निरपराध पिता के कंधे पर मृत सर्प फेंकने की धृष्टता की है, ब्राह्मणों का अपमान करने वाले तथा कुरुवंश को कलंकित करने वाले उस नीच राजा को आज से ठीक सातवें दिन मेरे वचन की .शक्ति से प्रेरित सर्पराज तक्षक अपने अत्यन्त तीखे, घातक व विषैले दांतों से काट कर यमलोक को भेज देगा।
श्रृंगी द्वारा महाराज परीक्षित् को दिये .शाप की जानकारी उसके पिता शमीक को मिली तो उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा। ऋषि ने अपने पुत्र के कार्य ( शाप देने) की निन्दा करते हुए कहा--
पुत्र। यदि राजा आततायियों, दस्युओं तथा तस्करों से हम तपस्वियों की रक्षा न करे तो हम वनवासी ऋषि निश्चिन्त होकर धर्मकार्य में प्रवृत्त ही नहीं हो सकते। अतएव राजा अपराध करने पर भी अदण्डच माना गया है। राजा के न रहने पर अराजकता फैल जाती है और सभी धर्मकार्य विच्छिन्न हो जाते हैं अतः तुम्हारे शाप का मैं किसी प्रकार समर्थन नहीं कर सकता-
वत्स! हम तो क्षमाशील साधु हैं, हमें अपने प्रति अपराध करने वाले को -शाप न देकर अपनी सहनशीलता का परिचय देना चाहिये, वस्तुतः तुमने बचपने के कारण अविचारपूर्वक जो किया है, उसे उचित नहीं कहा जा सकता।
इसके उपरान्त ऋषि ने एक तापस को भेज कर तत्काल राजा को अपने पुत्र के शाप से सूचित किया तथा राजा से उपयुक्त उपचार करने के रूप में यथोचित सतर्कता बरतने का अनुरोध किया।
इधर सातवें दिन जब तक्षक राजा को डसने जा रहा था तो उसने कश्यप ऋषि को .शीघ्रता से राजधानी की ओर जाते देखा। तक्षक द्वारा पूछे जाने पर मुनि बोले-मैं राजा को तक्षक के विषदंश से मुक्त करने जा रहा हूं। तक्षक ने ऋषि से अपनी शक्ति का परिचय देने को कहा। इसी उद्देश्य से तक्षक ने एक वृक्ष को डस कर भस्म कर दिया तो कश्यप जी ने अपने मन्त्रबल से तत्काल उस वृक्ष को पूर्ववत् हरा-भरा कर दिया। तक्षक ने इससे विस्मित और प्रभावित होकर ऋषि से पूछा- भगवन्! आप राजा को जीवित करके श्रृंगी ऋषि के शाप को मिथ्या क्यों करना चाहते हैं? ऋषि ने धन की प्राप्ति को प्रयोजन बताया तो तक्षक ने उन्हें मनोभिलषित धन देकर वहीं से वापस भेज दिया और राजभवन में पहुंच कर उसने राजा को डस लिया। मन्त्रियों ने परीक्षित् जी को बताया था कि जिस समय तक्षक और कश्यप जी में शक्तिपरीक्षण और प्रलोभन द्वारा लौटने की घटना घटी थी, उसी समय एक लकड़हारा लकडी काटने के लिये उसी वक्ष पर चढ़ा हुआ था जिसे तक्षक ने जलाया और कश्यप जी ने हरा- भरा किया था। वह बेचारा भी वृक्ष के साथ जला और पुनः जीवित हुआ था। उसी ने इस घटना की सूचना मन्त्रियों को दी थी, परन्तु उस समय कोई क्या कर सकता था!
उग्रश्रवा जी बोले-ऋषियो। राजा जनमेजय को अपने पिता की मृत्यु के समाचार से बड़ा दुःख हुआ। दुःख और क्रोध के आवेश में राजा ने अपने पिता की मृत्यु के लिये उत्तरदायी तक्षक के नाश का संकल्प कर लिया। राजा जनमेजय का निश्चित मत था कि श्रृंगी ऋषि का शाप तो बहाना था। यदि तक्षक कश्यप को धन देकर न लौटाता तो ऋषि का .शाप भी पूरा हो जाता और महाराज परीक्षित् के प्राण भी बच जाते। महाराज जनमेजय ने पुरोहितों और ऋत्विजों को बुला कर तक्षक से प्रतिशोध लेने का उपाय बताने -का अनुरोध किया तो उन्होंने राजा को नागयज्ञ करने का सुझाव दिया। राजा ने इसके लिये उपयुक्त सामग्री के संग्रह का आदेश दे दिया।
विप्रो! यज्ञशाला को देख कर किसी संत ने यह भविष्यवाणी की कि जिस स्थान और समय में यज्ञ-मण्डप को मापने की क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देख कर ऐसा लगता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो पायेगा। जनमेजय को जब यह पता चला तो उन्होंने बिना अपनी. पूर्व अनुमति के किसी भी बाहरी व्यक्ति के भीतर आने पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया।
यथासमय विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ। ऋत्विजों के मन्त्र-पाठ के साथ सफेद, काले, नीले, पीले बच्चे, जवान तथा बड़े सर्प, तड़पते 'त्राहि-त्राहि' पुकारते, उछलते लम्बी सांसें भरते, पूछों-फनों से एक-दूसरे से लिपटते हुए जलते यज्ञकुण्ड की अग्नि में आ- आ कर गिरने लगे। नाम ले-लेकर आहुति देते ही बड़े-बड़े भयंकर सर्पों के अग्नि में गिर कर जलने से चारों ओर दुर्गन्ध फैल गयी तथा सर्पों की चिल्लाहट से आकाश गूंज उठा।
जनमेजय के सर्पयज्ञ की जानकारी तक्षक को मिली तो वह इन्द्र की शरण में गया। इन्द्र ने उसे अभयदान देते हुए अपने भवन में ठहरा लिया। इधर नागों के भारी विनाश से वासुकि व्यथित हो उठा। उसने अपनी बहन मनसा के पास जाकर कहा-देवि। अब तुम हम लोगों की रक्षा करो, नहीं तो इस धधकती आग में गिरने की मेरी बारी भी दूर नहीं।
मनसा ने अपने भाई के वचन सुन कर अपने पुत्र आस्तीक को सर्पयज्ञ बन्द कराने के लिये प्रेरित किया। औस्तीक ने अपने मामा को कद्रू के .शाप से मुक्त कराने का आश्वासन दिया। वासुकि को आश्वस्त करते हुए आस्तीक नेँ कहा-मामाजी। आप मुझ पर विश्वास कीजिये मैं अपनी शुभ वाणी से महाराज जनमेजय को प्रसन्न करके यज्ञ बन्द करने को मना लूंगा।
विप्रो। घर से चल कर आस्तीक राजा के यज्ञ-मण्डप में पहुंचा तो द्वारपालों ने उसे बाहर ही रोक दिया, परन्तु उसके मधुर भाषण से प्रसन्न होकर अधिकारियों द्वारा उसे भीतर जाने की अनुमति दे दी गई। भीतर जाकर उसने अपने सुन्दर वचनों से ऋत्विजों, पुरोहितों, सभासदों तथा राजा को शीघ्र ही प्रसन्न कर दिया। राजा उसे वर देने को उत्सुक हो उठा। उसने ऋत्विजों को शीघ्र ही मन्त्र-पाठ द्वारा तक्षक को भस्म करने का आदेश दिया ताकि प्रमुख शत्रु के नाश के उपरान्त अन्यत्र ध्यान दिया जा सके।
ऋत्विजों ने राजा को बताया कि तक्षक इन्द्र का शरणागत हो गया है। राजा ने पुरोहितों को इन्द्र के साथ तक्षक को अग्नि में भस्म करने के लिये मन्त्र पढ़ने को कहा। ऋत्विजों ने मन्त्र-पाठ किया तो तक्षक और इन्द्र आकाश में दिखाई दिये। इन्द्र घबरा कर तक्षक को छोड़कर चलने लगा और इधर तक्षक अग्नि-कुण्ड के निकट आने लगा। इस समय पुरोहितों ने राजा से कहा-महाराज! अब आपका शत्रु अग्नि की भेंट होने वाला है। यज्ञ-नियमों के अनुसार आप पहले प्रतीक्षारत इस ब्राह्मण को वर दीजिये। जनमेजय ने ब्राह्मण से उसका अभीष्ट पूछा तो आस्तीक ने तत्काल यज्ञ बन्द करने की तथा सर्पों को अभयदान देने की प्रार्थना की-
हे राजन्! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो कृपया अपने इस यज्ञ को और इसमें सर्पों के विनाश! को तत्काल बन्द करा दीजिये।
राजा ने ब्राह्मण से सोना रुपया, भूमि तथा अन्यान्य पदार्थों के मांगने और यज्ञ बन्द करने की मांग छोडने का बहुत अनुरोध किया परन्तु ब्राह्मण अपनी मांग पर डटा रहा। फलतः वेदपाठी ब्राह्मणों ने राजा को अभ्यागत की याचना स्वीकार करने का परामर्श दिया। राजा ने अनिच्छा से यज्ञ बन्द करा दिया। आस्तीक ने जब यह समाचार अपने मामा वासुकि को दिया तो वासुकि के साथ-साथ उपस्थित सभी सर्पों ने आस्तीक का अभिनंदन किया और उसके प्रति आभार प्रकट किया। सर्पों ने तब से यह विधान किया कि जो भी हमें आस्तीक द्वारा प्राणरक्षा का स्मरण करायेगा, हम उसे कभी नहीं डसेंगे-
जरत्कारु के वीर्य और उनकी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न महायशस्वी तथा सत्यशील आस्तीक सर्पों से मेरी रक्षा करें। इस प्रकार जो दिन अथवा रात में असित, आर्त्तिमान् और सवीर्य, का स्मरण करेगा उसे सर्पों से भय नहीं होगा।
जो भी सर्प इस नियम का उल्लंघन करेगा अर्थात् आस्तीक की शपथ देने वाले को डसेगा उस सर्प के सिर के इस प्रकार सौ टुकड़े हो जायेंगे, जैसे शीशम का फल धरती पर गिरते ही शत- शत खण्डोँ में बिखर जाता है-
उग्रश्रवा जी बोले-विप्रो। सर्पयज्ञ की समाप्ति पर जनमेजय ने अपने यहां पधारे व्यास जी के मुख से कौरवों और पाण्डवों के चरित्र को सुनने की इच्छा प्रकट की तो व्यास जी ने यह कार्य अपने पट्टशिष्य वैशम्पायन जी को सौंपा।
जनमेजय की जिज्ञासा पर उन्हें कुरुवंश का परिचय देते हुए वैशम्पायन जी बोले-राजन्। कुरुवंश के प्रवर्तक का नाम राजा दुष्यन्त था जो बडे ही प्रतापी नरेश थे। उनके राज्य में जहां प्रचुर सम्पन्नता थी वहां धर्म का भी बड़ी तत्परता से पालन होता था। महाराज दुष्यन्त धर्मप्रेमी, प्रजावत्सल तथा समर्थ नरेश थे।
एक दिन दुष्यन्त अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ आखेट को गये तो घूमते-फिरते उन्हें एक अत्यन्त पवित्र एवं अनुपम रमणीय आश्रम दिखाई दिया। वहां की आध्यात्मिक पवित्रता तथा नयनाभिराम मनोरमता से आकृष्ट होकर दुष्यन्त ने अपने मन्त्री और पुरोहितों के साथ आश्रम में प्रवेश किया। शकुन्तला नाम की सुन्दरी बाला ने राजा का सम्मानपूर्वक स्वागत किया। पाद्य, अर्ध्य तथा आचमन आदि देने के उपरान्त कन्या ने मुस्करा कर राजा से पधारने का कारण पूछा तो राजा ने महर्षि कण्व के दर्शन की इच्छा प्रकट की। .शकुन्तला ने राजा को बताया कि उसके पिता आश्रम से बाहर फल-फूल लेने गये हैं और घड़ी दो घड़ी में आते ही होंगे। दुष्यन्त की रुचि शकुन्तला में हो गई। उन्होंने शकुन्तला की ओर उन्मुख होकर पूछा कि वह बाला बाल-ब्रहमचारी कण्व की पुत्री कैसे हो सकती है? दुष्यन्त ने शकुन्तला से कहा देवि!
तुमने प्रथम दृष्टि में ही मेरा मन मोह लिया है। मैं तुम्हें जानने को उत्सुक हूं अतः तुम अपना पूरा विवरण मुझसे स्पष्ट रूप में कह सुनाओ।
.शकुन्तला ने कण्व के मुख से अपने जन्म की कहानी-विश्वामित्र का तपोभंग करने वाली मेनका के गर्भ से उत्पन्न होना, मेनका का शकुन्तों के संरक्षण में नवजात बालिका को छोड़ जाना और कण्व द्वारा उसे आश्रम में लाकर अपनी पुत्री के समान ही उसका लालन-पालन करना आदि राजा को सुनाई और उसे बताया कि वह महर्षि कण्व को पिता मानती है, क्योंकि धर्मशास्त्र में जन्मदाता, प्राणदाता तथा अन्नादि से पोषण करने वाला ये तीनों ही पिता कहे गये हैं-
दुष्यन्त ने शकुन्तला को राजपुत्री जान कर उससे अपने साथ गन्धर्व, विवाह करने का प्रस्ताव किया। शकुन्तला ने अपने उदर से उत्पन्न पुत्र को अपने जीवन-काल में ही युवराज बनाने की शर्त रखी जिसे दुष्यन्त ने स्वीकार कर लिया और शकुन्तला ने आत्मसमर्पण कर दिया।
इस प्रकार दुष्यन्त ने गन्धर्व-विधि से शकुन्तला से विवाह किया और उससे आनन्दपूर्वक समागम किया। राजा ने शकुन्तला को विश्वास दिलाया कि वह राजधानी जाकर उसे सम्मानपूर्वक महल में ले जाने की व्यवस्था करेगा। कण्व के भय से राजा उनके आने से पूर्व ही आश्रम से चल दिया। आश्रम लौटने पर कण्व को सारी घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने दोनों के संयोग का समर्थन किया और अपनी शुभकामनायें प्रकट की।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)











































COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: संपूर्ण महाभारत - आदि पर्व - 2
संपूर्ण महाभारत - आदि पर्व - 2
https://lh3.googleusercontent.com/-hOLdWnghSeg/Vyh6AVtr23I/AAAAAAAAtYM/eDIFacPgb-E/image_thumb.png?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-hOLdWnghSeg/Vyh6AVtr23I/AAAAAAAAtYM/eDIFacPgb-E/s72-c/image_thumb.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/05/2.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/05/2.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content