बाल पत्रिकाएँ/समीक्षा बाल साहित्य की कसौटी पर खरा उतरते यह ‘बाल विशेषांक’ उमेश चन्द्र सिरसवारी राजकुमार जैन राजन मूलतः राजस्थान के गा...
बाल पत्रिकाएँ/समीक्षा
बाल साहित्य की कसौटी पर खरा उतरते यह ‘बाल विशेषांक’
उमेश चन्द्र सिरसवारी
राजकुमार जैन राजन मूलतः राजस्थान के गाँव ‘आकोला’ (चित्तौड़गढ़) के रहने वाले हैं। यह एक मिसाल ही है कि एक साधारण से गाँव आकोला से आने वाले इस व्यक्ति ने देशभर में बाल साहित्य की अलख जगा दी है। बाल साहित्य के लिए समर्पित और लखनऊ ‘राष्ट्रगौरव सम्मान’ समेत विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित राजन जी की बाल साहित्य की लगभग चौबीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार आपकी रचनाएँ स्थान पाती रही हैं। सन् 1983 ई. से लगातार आपकी रचनाएँ आकाशवाणी से प्रसारित भी हो रही हैं।
राजन जी ने बाल साहित्य के सृजन, उन्नयन एवं बाल साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने के लिए चित्तौड़गढ़ में ‘राजकुमार जैन राजन फाउन्डेशन’ की स्थापना की है। इस मंच के बैनर तले आकाशवाणी पर कार्यक्रम आयोजित कराना, पुस्तकें प्रकाशन हेतु अनुदान देना, विद्यालयों, संस्थाओं, शोध छात्रों को निःशुल्क पुस्तकें प्रदान करना आदि कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं।
अभी हाल ही में भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साहित्य समीर दस्तक’, नीमच से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘राष्ट्र समर्पण’, भोपाल से ही प्रकाशित ‘सार समीक्षा’ और भीलवाड़ा, राजस्थान से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साहित्यांचल’ के क्रमशः मार्च-अप्रैल 2016, फरवरी-मार्च 2016, मार्च 2016 और मार्च-अप्रैल 2016 के ’बाल साहित्य विशेषांकों’ को लेकर राजकुमार जैन राजन चर्चा में हैं। अपने उत्कृष्ट सम्पादकीय, स्तरीय रचनाओं से साहित्य में अहम स्थान बना चुकीं ‘साहित्य समीर दस्तक’, ‘सार समीक्षा’, ‘राष्ट्र समर्पण’ और ‘साहित्यांचल’ पत्रिकाओं से मैं लम्बे समय से परिचित हूँ। आज जिस तरह से हमारे बच्चों का जीवन इंटरनेट, मोबाइल ने छीन लिया है। वे किताबों से दूर होते जा रहे हैं। उन्हें किताबें नहीं भाती बल्कि सीरियल, गेम, इंटरनेट अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। यह हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है। ऐसे में बाल साहित्यकारों का दायित्व बन जाता है कि बच्चों के लिए कुछ हटकर सोचे, ऐसी रचना करे जिससे बच्चे पत्र-पत्रिकाओं की ओर आकर्षित हों। ऐसा ही बीड़ा उठाया है राजकुमार जैन ‘राजन’ ने। आइए आपको बाल साहित्य विशेषांकों से रूबरू कराते हैं-
‘‘साहित्य समीर दस्तक’’
भोपाल, मध्य प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका। सम्पादक- कीर्ति श्रीवास्तव। अपने चार साल के शिशुकाल में इस पत्रिका ने कीर्ति श्रीवास्तव के सम्पादन में कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। अच्छे रचनाकारों को मंच उपलब्ध कराया है। इसी क्रम में ‘साहित्य समीर दस्तक’ का मार्च-अप्रैल 2016 का अंक ‘बाल साहित्य विशेषांक’ के रूप में निकाला गया है जिसका सम्पादन ‘राजकुमार जैन राजन’ ने किया है।
‘‘मुस्कराते बच्चे, प्रफुल्लित राष्ट्र की पहचान’’ जैसे स्लोगन के साथ इस अंक का कलेवर सुन्दर बन पड़ा है। वास्तव में मुस्कराते बच्चे समृद्धशाली देश की पहचान होते हैं। बच्चे हैं तो कल है, बिना बच्चों के घर सूना-सूना लगता है। भावी पीढ़ी के चरित्र निर्माण में बालसाहित्य की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। राजन जी की चिन्ता कि ‘शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में पढ़ने-पढ़ाने की घटती प्रवृत्ति’ जायज है। आज बच्चों में नैतिक मूल्यों का विघटन इसीलिए आया है। माता-पिता अपने बच्चों को चालीस रूपये का कुरकुरे का पैकेट तो दिला देंगे लेकिन एक तीस रूपये की बाल पत्रिका खरीदकर नहीं देंगे। यह एक गंभीर समस्या है। इन समस्याओं के निदान के लिए उन्होंने बाल साहित्यकारों से आगे आने का आह्वान किया है और बाल साहित्य को बच्चों तक पहुँचाने की वकालत की है।
इस अंक में आठ लेख, नौ बाल कहानियां, चैदह विविध रचना सामग्री और चालीस रचनाकारों की बाल कविताएं प्रकाशित हुई हैं। पत्रिका में इस अंक के बाल साहित्य सम्पादक राजकुमार जैन ‘राजन’ हैं। इस अंक के सभी बाल रचनाकार बालसाहित्य में अपनी अद्भुत रचनाशैली के लिए पहचाने जाते हैं। इस अंक में भी यह रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से बच्चों को आगे बढ़ने, विपत्तियों में न घबराने और खेल-खेल में पढ़ाई का संदेश देते नजर आते हैं तो वहीं उन्मुक्त आकाश में अपने सपने साकार करने का संदेश देती हैं इस अंक की रचनाएँ।
आलेख पर बात करें तो डॉ॰ नागेश पांडेय ‘संजय’ अपने आलेख ‘बाल साहित्य का भविष्य’ में बच्चों के भविष्य को लेकर बेहद चिंतित हैं। वह कई विमर्श की बातों को उठाते हैं। वह लिखते हैं कि आज की दुनिया का बच्चा हर सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण है। वह बड़ों को सॉरी कहने में भी हिचकता है। लेकिन फिर भी आशा और प्रयास नहीं छोड़ना चाहिए। वे अपने समग्र लेख में बहुत सारी बातों की ओर इशारा करते हैं। मसलन वे कहते हैं कि आखिरकार बाल साहित्य के मूल उपभोक्ता तो बच्चे ही हैं। वे ही इससे कट गए हैं। पहले ऐसा नहीं था। समाचार पत्रों से बाल साहित्य लगभग नदारद है। वे उन बाल-साहित्यकारों से सवाल करते हैं जो यह कहते फिरते हैं कि बाल साहित्य में उत्कृष्ट बाल साहित्य का अभाव है। वह कहते हैं कि जो ऐसा कहते है वे खुद क्यों नहीं लिखते ? वे लिखते हैं कि आज के बच्चे की जो स्थिति है उसके पीछे का मूल कारण माता-पिता का उसे मानसिक भूख उपलब्ध न कराना है। आज के मात-पिता की स्थिति बच्चों के सामने उसकी जिदों को पूरा करने वाले पायदान जैसी ही है। वे आलेख में बाल साहित्यकारों की मनस्थिति का भी चित्रण करते हैं। वह शिक्षकों पर भी बाल साहित्य की जानकारी न होने की स्थिति पर भी चर्चा करते हैं। ‘संजय’ जी बाल साहित्य के भविष्य के प्रति आशावादी हैं। वह कहते हैं कि विश्व पुस्तक मेले यह सिद्ध करते हैं कि आज बच्चों की सर्वाधिक पुस्तकें छपती हैं।
अर्चना डालमिया का चिंतन कहता है कि गैजेट बच्चों का बचपन छीन रहे हैं। उन्हें चिंता है कि आज बच्चों की मासूमियत छीनी जा रही है। वह लिखती हैं कि नई दुनिया लंबे बचपन के प्रति उदार नहीं है। बच्चे ऐसे माहौल में बढ़ रहे हैं, जो उतना उनके अनुकूल नहीं है। डॉ॰ प्रीती प्रवीण खरे का विहंगम आलेख ‘मीडिया, समाज और बाल साहित्य’ बाल साहित्य की पड़ताल करता है। वह एक साथ कई मुद्दों पर लिखती हैं। वे भी मानती है कि देश का भविष्य बच्चों के हाथों में ही है। वे अत्याधुनिक साधनों के आने से बच्चे तेजी के साथ असामान्य रूप से परिपक्व होते जा रहे हैं। वे भी नैतिक मूल्यों और संस्कार के पक्ष में लिखती हैं। वह कुछ बाल पत्रिकाओं का उदाहरण देती हुई समाज और सिनेमा का भी उल्लेख करती हैं। राजकुमार जैन ‘राजन’ का आलेख कार्टून फिल्मों के नकारात्मक प्रभाव पर फोकस करते हैं। वह कहते हैं कि बच्चे की भाषा जो खराब हो रही है, वह आज के कार्टून फिल्मों की ही देन है। कार्टून देखने के चक्कर में वह आउडडोर गेम्स खेलते ही नहीं। उनकी दुनिया कार्टून फिल्में हो गई हैं। अधिक समय बिताने से बच्चों में असामान्य गतिविधियां देखने को मिल रही हैं। खान-पान की गलत आदतें बच्चों मंे शामिल हो गई हैं। सामाजिक जीवन कमजोर हो चला है। वे हिंसा की ओर उन्मुख हो रहे हैं। अधिकतर समय कंप्यूटर पर बिताने के कारण आंखों की नजरें कमजोर हो रही है। एक महत्त्वपूर्ण आलेख जार्डन सौपाइरा का है, जिसका अनुवाद आशुतोष उपाध्याय ने किया है। यह आलेख बेहद खास है। यह आलेख कहता है कि आज के बच्चों को दोष देने से पहले हम बड़े अपने भीतर भी झांके। आज के बच्चे नहीं पढ़ते तो कहीं न कहीं हम नहीं पढ़ते। नए और पुराने के बीच सोच का अंतर होता ही है। लगातार पढ़ने की आदत में कमी आती जा रही है। जार्डन कहते हैं कि आज तो हर कोई ज्यादा पढ़ने लगा है, यह और बात है कि पढ़ने की विधि गूगल है, मोबाइल है, नेट है। किताब के तौर पर पढ़ना कम हुआ है लेकिन नए साधनों ने पढ़ने के कई विकल्प भी दिये हैं। वह कहते हैं कि जब हम पढ़ते हुए दिखाई देंगे तो बच्चे भी पढ़ेंगे। लेख बेहद खास है। आप अपने बच्चों को जैसा देखना चाहते हैं, पहले व्यवहार और तौर तरीकों से वैसा आदर्श तो पेश कीजिए।
इस अंक में अनन्त कुशवाहा जी का भी खास लेख है- ‘बाल साहित्य में चित्रों का महत्त्व’। यह आलेख चित्रों की महत्ता को रेखांकित करता है। काल्पनिकता जगाने और सोचने में चित्रों की भूमिका कारगर है। पाठ्य-पुस्तकों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में चित्रों की भूमिका महती है। लेकिन इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। ‘सिनेमा के आईने में बच्चे और उनका भविष्य’ पर केन्द्रित आलेख आशुतोष श्रीवास्तव का है। यह एक अलग तरह की तस्वीर प्रस्तुत करता है। वाकई सिनेमा कई तरह के स्कोप प्रस्तुत करता है। वह अच्छी फिल्मों के निर्माण पर जोर देते हैं। कई फिल्मों का उदाहरण देते हुए आशुतोष बाल केंद्रित भावों को रेखांकित करते हैं। डॉ॰ ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ का लेख ‘बच्चे, समाज और साहित्य’ गूढ़ लेख है। वह एक साथ कई सारे पक्षों पर सरलता से चर्चा करते हैं। खलील जिब्रान के सहारे वे बाल मनोविज्ञान की कई महत्त्वपूर्ण बातों की ओर इशारा करते हैं। बच्चों के बालमन पर भूमंडलीकरण का असर भी रजनीश जी मानते हैं। वे लिखते हैं कि संयुक्त परिवार के घटते जाने का असर भी बालमन पर हुआ है। उपभोक्तावाद ने भी बच्चों के कोमल मन पर प्रत्यक्ष असर डाला है। आज की स्कूली व्यवस्था ने भी बच्चों के बचपन का समय कम कर दिया है। बाजार में परोसी गई चीजों ने मल्टीनेशनल कंपनियों के सामने बच्चों का बाजार खोल दिया है। काटॅूनों ने भी बच्चों के समक्ष एक नई दुनिया खोल दी है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों की दुनिया में आज भी आम मूलभूत चीजें मयस्सर नहीं है। बच्चों में काम का बोझ आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में दिखाई पड़ता है। रजनीश जी का आलेख कई शिक्षाविदों के साथ आम अभिभावक की बात करता नजर आता है। बच्चों की बेहतर दुनिया के निर्माण में बाल साहित्य ही उम्मीद की किरण है।
राजकुमार जैन ‘राजन’ का लेख ‘बाल साहित्य अभी भी बच्चों की पहुँच से दूर’ पठनीय है। सही बात है, यदि बच्चों की कुल आबादी और उसमें भी पढ़ने वाले बच्चों की संख्या देखें तो हिंदुस्तान में समस्त बाल पत्रिकाओं की प्रसार संख्या का प्रतिशत निकालें तो 100 में 1 बच्चे के हाथ में एक पेज बाल साहित्य नहीं आ रहा है। पढ़ने-लिखने की बात तो और भी दूर रही। कुंवर प्रेमिल का आशावादी लेख बहुत अच्छा बन पड़ा है। वह लिखते हैं कि ‘बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं बाल पत्रिकाएं’। आखिर हम कितना उपलब्ध करा रहे हैं। हमारे घर में कितनी बाल पत्रिकाओं की आजीवन सदस्यता है ? कितनी बाल पत्रिकाएँ और पत्र आते हैं जिनका वे शुल्क देते हैं ? आज नहीं तो कल, हमें इस पर विचार करना ही होगा। सुभाष जैन का आलेख ‘बाल-साहित्य: प्रकाशन की समस्याएं’ भी खास आलेख बन पड़ा है। वे भी अप्रत्यक्ष तौर पर बाल साहित्यकारों को यह संदेश देना चाहते हैं कि पहले अपनी रचना को कालजयी बनाने का महती प्रयास करें। प्रकाशन की स्थिति यदि उत्साहजनक नहीं है तो इसके पीछे संग्रह पर संग्रह छपवाने की होड़ भी गुनहगार है।
मैं ‘साहित्य समीर दस्तक’ पत्रिका की सोच, भावना और टीम को बधाई देता हूँ।
पत्रिका साहित्य समीर, मासिक
इस अंक का मूल्य- 50 रुपए
सम्पादक- कीर्ति श्रीवास्तव
प्रबंध संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’
पता- चित्रा प्रकाशन, आकोला- 312205, (चित्तोड़गढ, राजस्थान)
Email- sahityasameer25@gmail.com
‘राष्ट्र समर्पण’
यह मासिक पत्रिका है, इसका यह अंक संयुक्तांक है। ग्यारह वर्षों से यह पत्रिका पाठकों तक पहुँच रही है। मध्य प्रदेश के नीमच से प्रकाशित इस विशेष अंक को ‘बाल विशेषांक’ पर केंद्रित रखा गया है। इस अंक में चार लेख, दस बाल कहानियां, तीन विविध रचना सामग्री और पच्चीस रचनाकारों की बाल कविताएं प्रकाशित हुई हैं। इस अंक के संपादकीय में साहित्य संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’ लिखते हैं कि एक ओर बाल साहित्य का अंबार हमारे चारों ओर है वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बच्चों को कल्पनाओं की अंधेरी दुनिया में धकेल रहा है। वे आगे लिखते हैं कि जब घर में ही पठनीयता के प्रति उदासीन रूख हो, सकारात्मक माहौल की कमी हो, तो बच्चों में अच्छी पुस्तकें, अच्छे साहित्य पढ़ने में रूचि कैसे पैदा होगी ? वे सवाल उठाते हैं कि कितने ऐसे परिवार हैं जहाँ अच्छी सुरुचिपूर्ण किताबों की एक छोटी-सी लाइब्रेरी है अथवा जिससे बच्चों में पढ़ने के प्रति ललक पैदा हो। उनमें अच्छे गुणों के प्रादुर्भाव के लिए बाल साहित्य की पत्र-पत्रिकाएं मंगवाई जाती हैं ? गोविन्द शर्मा का आलेख ‘बाल साहित्य से संस्कृति की रक्षा’ पठनीय है। वे लिखते हैं कि बाल साहित्य बच्चों के लिए बड़ों द्वारा लिखा जाता है। साहित्य के पुरोधा बाल साहित्य को साहित्य से दोयम दर्जे का मानते हैं। बाल मनोविज्ञान और बच्चों की दुनिया से दूर साहित्यकार अपने नाम के दम पर फुरसत के क्षणों में जो अंशकालिक रचना लिख देते हैं, वह बाल साहित्य होता नहीं। वे आगे लिखते हैं कि आज के अभिभावक के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है। ऐसे में संस्कृति की रक्षार्थ बाल साहित्यकारों को उत्कृष्ट बाल साहित्य रचने के लिए आगे आना होगा। डॉ. राजकिशोर सिंह का आलेख ‘हिन्दी बाल साहित्य: दशा और दिशा’ पर केन्द्रित है। वे कई बाल पत्रिकाओं के बहाने बाल साहित्य की दिशा पर बात करते हैं। वे लिखते हैं कि नकल की प्रवृत्ति पर आज भी लगाम नहीं लगी है। बाल साहित्यपरक शोधकार्यों में स्तरीयता का अभाव है तो ऐसे शोधकार्य से लाभ क्या ? डॉ. जाकिर अली ‘रजनीश’ का आलेख ‘कैसी हों बाल कहानियां’ अंक में शामिल हुआ है। वे कई पुरानी पत्रिकाओं के बहाने और कई अच्छी कहानियों और कहानीकार के जरिए कहानी के भाव बोध पर विस्तार से चर्चा करते हैं। वे अवैज्ञानिक, वैज्ञानिक और मिथक रचना सामग्री के साथ बच्चों की यथार्थवादी दुनिया की कहानियों पर चर्चा करते हैं। अनन्त कुशवाहा जी का बहुप्रसारित लेख भी इस अंक में है। यह समग्रता के साथ बालक, अभिभावक और रचनाकारों को संबोधित है। पुस्तकालयों की दशा और दिशा के साथ-साथ यह आलेख बच्चों के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर भी चर्चा करता है। यह लेख रचनाकारों का बाल साहित्य के प्रति समर्पण भी चाहता है। वे कहते हैं कि बाल मनोविज्ञान, लोक जीवन, लोक संस्कृति तथा ज्ञान के विविध क्षेत्रों का गहन अध्ययन और बालकों की जिंदगी के यथार्थ का सूक्ष्म अवलोकन, स्वस्थ बाल साहित्य के निर्माण में प्रतिभा, ज्ञान व अनुभूति तीनों का समन्वय अत्यंत आवश्यक है। वे एक खास बात कहते हैं। यह आज भी बदस्तूर जारी है। वे लेख में लिखते हैं कि बाल साहित्य के कितने ही रचनाकारों के प्रकाशित साहित्य का काफी बड़ा अंश उनकी मौलिक कृति न होकर कई पुस्तकों से संकलित की गई सामग्री होती है। प्रकाशन की सुविधा प्राप्त कर लेने से उनके प्रकाशित साहित्य की सूची लम्बी हो जाती है परन्तु ईमानदारी से सोचें तो उन्होंने क्या योगदान दिया है। रचनाकारों को अपनी मौलिक व नई रचनाओं से हिन्दी बाल साहित्य को समृद्ध करना है और इसमें बहुत कुछ करना शेष है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस तरह के विशेषांक बाल साहित्य की धमक तो पैदा करते ही हैं। अब समय आ गया है कि बाल साहित्य तो छपे, पर कैसा ? इस पर भी विचार करना होगा ? क्या आधुनिक बाल साहित्य जो छप रहा है वह आधुनिक भाव-बोध का है ? इस पर विचार करना होगा। यह भी कि जो कुछ छप रहा है क्या वह बच्चों द्वारा पढ़ा जा रहा है ? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ प्रयास हो रहे हैं वे शून्य ही पैदा करते है ? ऐसा नहीं है। मौलिक रचनाओं पर बात करना, उसे पढ़ लेने के बाद ही संभव है। लेकिन मुझे लगता है कि किसी भी पत्र और पत्रिका में लेख तो कम से कम सम-सामयिक स्थिति के हों।
पत्रिका राष्ट्र समर्पण, मासिक
इस अंक का मूल्य- 25 रुपए
सम्पादक- शारदा संजय शर्मा
साहित्य संपादक- राजकुमार जैन ‘राजन’
पता- गंगा वाटिका, 32 एमआईजी, न्यू इंदिरा नगर, विस्तार, नीमच- 458441
Email- rastrasamarpan@gmail.com
‘सार समीक्षा’
इस अंक में चार लेख, दस बाल कहानियां, पाँच विविध रचना सामग्री और बाईस रचनाकारों की बाल कविताएं प्रकाशित हुई हैं। इस अंक के विशेष सम्पादक राजकुमार जैन ‘राजन’ हैं। इसके संपादकीय में साहित्य संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’ लिखते हैं कि समाज का निर्माण चरित्रवान व्यक्ति ही करते हैं। चरित्र का निर्माण बचपन से ही होता है। बचपन को संरक्षित करना आवश्यक है। वह लिखते है कि असंख्य असहाय बच्चे अपने अधिकारों से वंचित हैं। उनसे श्रमिक का काम लिया जा रहा है। वे आगे लिखते हैं कि बच्चे तो अबोध हैं लेकिन उनका मनोविज्ञान अबोध नहीं है बल्कि बड़ा गूढ़ और जिज्ञासु है और उनका मन संवेदनशील, प्रतिभासंपन्न और अद्भुत क्षमतावान है। संपादकीय में राजन जी आशावादी हैं। वे व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। बाल साहित्य उन्नयन में हर एक प्रयास का अपना एक दृष्टिकोण होता है। उसकी एक धमक होती है। कई जाने-माने बाल साहित्यकार सालाना के ऐसे निजी आयोजनों को कोरी जुगाली बताते हैं। संपादकीय लिखता है कि वर्ष में एक बार ‘बाल साहित्य विशेषांक’ का एक अंक प्रकाशित करने के लिए कई पत्रिकाएं तैयार हो गई हैं। यह प्रयास आज नहीं तो कल, रेखांकित अवश्य होंगे।
इस अंक में प्रभाकर द्विवेदी का आलेख ‘बाल साहित्य और आधुनिक दृष्टि’ में आधुनिक दृष्टि की मांग करते हैं। सही भी है, आखिर हम कब तक जादू-टोने, पंचतंत्र, राजा-रानी सरीखा साहित्य बच्चों को परोसते रहेंगे ? वे कहते हैं कवि ने बच्चों के लिए गीत लिख लिया अथवा चित्रकार ने बच्चे के लिए चित्रांकन कर लिया तो क्या सृजन यहीं समाप्त हो जाता है ? यह तो पहली सीढ़ी है। वे स्वीकारते हैं कि आधुनिक तकनीक की मदद से रचना को लाखों बच्चों तक पहुँचाया जा सकता है। कृष्ण कुमार यादव अपने आलेख ‘समकालीन परिवेश में बाल साहित्य’ में लिखते हैं कि बाल सुलभ रचनाओं का हर समय स्वागत होता रहा है। वे आगे लिखते हैं कि बाल साहित्य के नाम पर जो कुछ छप रहा है उसमें मौलिकता और सार्थकता का अभाव है। यही नहीं, ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों को बाल साहित्य की समझ ही नहीं और वे जो कुछ छापते हैं, लोग उसे ही बाल साहित्य समझ कर उसका अनुसरण करने लग जाते हैं, जिससे बाल साहित्य की स्तरीयता प्रभावित होती है। इन पत्रिकाओं में बाल साहित्य आधारित दूरदर्शी सोच का अभाव है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस तरह के विशेषांक बाल साहित्य की धमक साहित्य में पैदा करते हैं। हम सभी प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों को बाल साहित्य विशेषांक प्रकाशित करने के लिए प्रोत्साहित करें। कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं ने तो बाकायदा दो से चार पृष्ठ नियमित अंक में बाल साहित्य के लिए सुरक्षित रख लिया है। ‘सार समीक्षा’ के इस बाल साहित्य प्रकाशन के लिए बधाई। उम्मीद है कि वह अगले ‘बाल विशेषांक’ के लिए भी तैयारी करेंगे।
पत्रिका सार समीक्षा, मासिक
इस अंक का मूल्य- 20 रुपए
सम्पादक- अरविन्द शर्मा
इस अंक के संपादक- राजकुमार जैन ‘राजन’
पता- बीएम 49, नेहरू नगर, भोपाल, मध्य प्रदेश
‘साहित्यांचल’
यह द्विमासिक पत्रिका है। बारह वर्षों से लगातार यह पत्रिका पाठकों तक पहुँच रही है। अपनी निरंतरता का यह अट्ठावनवां अंक है। राजस्थान के भीलवाड़ा से प्रकाशित इस विशेष अंक को बाल साहित्य पर केंद्रित रखा गया है। इस अंक में तीन लेख, सोलह बाल कहानियां, एक नाटिका, दो संस्मरणात्मक आलेख, लगभग पाँच विविध रचनाएं और अड़तालीस बाल कविताएं प्रकाशित हुई हैं। संपादकीय में इस अंक के संपादक राजकुमार जैन ‘राजन’ लिखते हैं कि बच्चों के दिलों में उतरती हिंसा, बढ़ते अवसाद और खोते जा रहे मानवीय मूल्यों को नियंत्रित करने वाले नैतिक और मानवीय दायित्वों का न कोई अर्थ रह गया है न कोई संदर्भ। वे आगे लिखते हैं कि बच्चे घर में रहते हुए भी अकेले हैं। संपादकीय कहता है कि आज बालसाहित्य को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। आज अभिभावक बच्चों के लिए खाने-पीने, खेलने-पहनने के लिए हजारों रुपए खर्च कर देते हैं लेकिन उत्कृष्ट और बाल साहित्य खरीदने के लिए बीस रुपए खर्च नहीं करते। संपादकीय कहता है कि बच्चे के आस-पास ऐसा माहौल बनाना आवश्यक है जिससे बच्चे में पढ़ने लिखने की संस्कृति पैदा हो सके। वह स्वतः पुस्तकें पढ़ने के लिए आकृष्ट हो। टिंकल के जनक और अमर चित्रकथा को पुस्तकों में विशिष्ट स्थान देने वाले ‘श्री अनंत पै’ का भी सारगर्भित आलेख इस अंक में है। अनंत पै ने लिखा था कि बाल साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही होना चाहिए, लेकिन यह मनोरंजन जीवन के मूल्यों की अवहेलना करके न हो। जीवन के मूल्य बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे, लेकिन कुछ स्थायी मूल्य है, जो चिरंजन है और हर समाज में जिनका महत्व है। अनंत पै कहते हैं कि बाल साहित्य उसमें चित्रकथा भी शामिल है- ऐसा हो जिसे पढ़कर बच्चा अपने ऊपर विश्वास करना सीखे, सारे सद्गुण इसी एक गुण में निहित है। इस अंक में हरिकृष्ण देवसरे जी का भी लेख है। यह लेख ‘हिन्दी बाल साहित्य में आधुनिक बोध’ की पुरजोर सिफारिश करता है। वे लिखते हैं कि आज का समाज कितना विषैला हो रहा है, भ्रष्टाचार की सुरंगें कदम-कदम पर बिछी हैं। वर्ग, धर्म, जाति के नाम पर राजनीति, प्रशासन और समाज बंट रहे हैं, ये सारी विभीषिकाएं बच्चों के सामने हैं और हम सब जानते हैं कि भविष्य का समाज इससे भी बदतर होगा। तब क्या हमारा बाल साहित्य बच्चों को वर्तमान और भविष्य के लिए कोई सोच, कोई दिशा दे रहा होगा या हम उन्हें कुत्ता बिल्ली, तोता-मैना, परियों, चांद, बुढि़या, राजा-रानी की कहानियों में भुलाए रहेंगे। आज भी देवसरे जी का यह आलेख बाल साहित्यकारों को पढ़ना चाहिए।
आलेख ‘कैसे पहुँचे बच्चों तक बाल साहित्य’ में बाल साहित्यकार महावीर रवांल्टा लिखते हैं कि बाल साहित्य तो विपुल लिखा जा रहा है लेकिन वह उस मात्रा में बच्चों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा है। वे लिखते हैं कि किताब पढ़ने-लिखने की संस्कृति विकसित करने की महती जरूरत है। वे लिखते हैं कि केवल गोष्ठियों में बाल साहित्य सम्मेलन पर चर्चा करने से काम नहीं चलेगा धरातल पर भी काम करना होगा। वे लिखते हैं कि बाल साहित्यकारों को सोचना होगा कि बाल साहित्य को बच्चों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने क्या और कितना प्रयास किया ? कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस तरह के विशेषांक बाल साहित्य की धमक तो पैदा करते हैं। अब समय आ गया है कि बाल साहित्य तो छपे, पर कैसा ? इस पर भी विचार करना होगा। क्या आधुनिक बाल साहित्य जो छप रहा है वह आधुनिक भाव-बोध का है ? इस पर विचार करना होगा। यह भी कि जो कुछ छप रहा है क्या वह बच्चों द्वारा पढ़ा जा रहा है ?
पत्रिका साहित्यांचल द्विमासिक
वार्षिक सदस्यता- 150 रुपए
आजीवन- 1500
प्रधान संपादक- सत्यनारायण व्यास ‘मधुप’
इस अंक के संपादक- राजकुमार जैन ‘राजन’
पता- रूक्मिणी निवास, 16 ए, 14 बापूनगर, भीलवाड़ा- 311001 (राजस्थान)
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समीक्षक- उमेशचन्द्र सिरसवारी
पिता- श्री प्रेमपाल सिंह पाल
ग्रा. आटा, पो. मौलागढ़, तह. चन्दौसी
जि. सम्भल, (उ.प्र.)- 244412
ईमेल- umeshchandra.261@gmail.com
+919410852655, +919720899620, +918171510093
Pathneey Samiksha hai, aabhar. -Anu Sri
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