पागलपन का इलाज, भाग-३ (कहानी)- प्रदीप कुमार साह

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(पिछले भाग 2 से जारी..)   इससे आगे वह कुछ कहने-सुनने हेतु तैयार नहीं हुए. अंततः मैं निराश होकर चेंबर से बाहर आ रहा था कि एक युवक दरवाजे ...

(पिछले भाग 2 से जारी..)

  इससे आगे वह कुछ कहने-सुनने हेतु तैयार नहीं हुए. अंततः मैं निराश होकर चेंबर से बाहर आ रहा था कि एक युवक दरवाजे को धक्का देते हुए चेंबर में धड़ल्ले से अंदर घुस आया. युवक शराब के नशे में था और उसके मुँह से शराब की वास आ रही थी. उस युवक को देखकर डॉक्टर अपनी कुर्सी पर ही भय से मानो बुत बन गये. युवक उनके मेज की दराज से रुपये के बंडल निकाल लिये, किंतु डॉक्टर साहब उसका तनिक भी प्रतिरोध नहीं कर सके. युवक रुपये लेकर उसी तरह निर्विध्न बाहर जाने लगा तो मैं ने प्रतिरोध की कोशिश की. डॉक्टर साहब अभी भी भयभीत ही थे, किंतु दरवाजे के साथ खड़ा कम्पाउंडर ने मुझे चुप रहने का इशारा किया और इशारे से बाहर भी बुला लिया. मैं चेंबर से बाहर आ गया.

बाहर आकर मैं ने कम्पाउंडर से उसके वैसा संकेत देने का कारण पूछा तो वह पहले तो अनसुनी कर दिया, किंतु बार-बार पूछने पर उसने जवाब में अपना सिर बार-बार हिलाकर अपने साथ बाहर आने हेतु संकेत किया मानो वह कोई बात गोपनीय ढंग से बताना चाहता हो. बाहर आकर उसने धीमे स्वर में बोला,"डॉक्टर साहब के पूरे हुनर, दया और कमाई के असली लाभार्थी और हकदार तो उनका वह नालायक बेटा ही है. वह अपने मौज-मस्ती के लिये रुपये भी लेता है और प्रतिरोध करने पर साहब की पिटाई भी करते हैं." सुनकर मैं अवाक् रह गया, किंतु इतना बताकर कम्पाउंडर तेजी से वापस लौट गया. जब राम खेलावन ने मुझे झकझोरा तो मेरी तंद्रा भंग हुई. मैं ने देखा कि राम खेलावन मुझसे पूछ रहा था कि मेरी डॉक्टर साहब से क्या बातचीत हुई.

राम खेलावन उक्त रोगी के पिता थे, जिसके इलाज हेतु डॉक्टर से बातचीत करने मैं आया था. वह मेरे नजदीकी रिश्तेदार थे. मैं ने ना में अपना सिर हिलाया, तो वह हतोत्साहित हो गये. अब मुझसे धन की जो सहायता बन सकती थी, वह मैं पहले ही कर चूका था. फिर अभी तो मुझे मेरा तनख्वाह मिलने में भी दस दिन के समय बाकी थे. कोई दूसरा सम्बंधी वैसा नजर नहीं आ रहे थे जो धन से सहायता कर पाने में सक्षम हो. मेरे द्वारा अपने चिकित्सक मित्र से सहायता मांगी जा सकती थी. किंतु सहायता मिलने की उम्मीद कुछ ज्यादा नहीं थी, क्योंकि महीना का अंत चल रहा था और तनख्वाह मिलने में अभी समय था. फिर किसी प्राइवेट टेलीफोन बूथ से फोन-कॉल करने में भी पैसे खर्च होने थे, किंतु यहाँ चुप होकर बैठे रहने से कुछ भी फायदा होना नहीं था.

इस सम्बंध में मैं ने राम खेलावन से बात की और उसके सहमति से अपने चिकित्सक मित्र से फोन कॉल के माध्यम से सहायता माँगी. किंतु आश्चर्यजनक तरीके से वह आशानुकूल यथासम्भव सहायता पहुंचाने के आश्वासन दीये और उसके वहाँ आने तक कुछ समय इन्तजार करने बोला. तब मैं ने अनुमानित किया कि शायद वह शाम तक सहायता उपलब्ध करा सके, क्योंकि उन्हें भी धन की कुछ समस्या थी. फिर यहाँ तक आने में रास्ते का सफर तीन घँटे का था. हमलोग इंतजार करने लगे. किंतु साथ में यह भय भी सता रहा था कि कोई चोर-उचक्के हमारे पास के रुपये भी न झपट ले. क्योंकि हजार रुपये भी उस जमाने में एक बड़ी रकम होती थी. आशा से अधिक और महज चार घँटे के इंतजार के बाद जल्दी ही मेरे चिकित्सक मित्र सहायतार्थ उपस्थित हुए.

उसने आते ही मुझसे यथास्थिति पूछे. सारी बात जानकर उसे बेहद दुःख हुआ. उसने रुपये देते हुए शीघ्रता से रोगी को दिखवाने बोला. मैं ने काउंटर पर पूरा चिकित्सकीय फ़ीस जमा कर दिया. तत्पश्चात रोगी को दाखिला मिली और उसके परीक्षण हुए. चिकित्सक ने कुछ दवाइयाँ लिखीं. मैं ने वह दवाई और कुछ रुपये लाकर राम खेलावन को दे दिया. अब रोगी को कुछ दिन यहाँ ठहर कर अपने इलाज करवाने थे. इसके बाद मैं ने राम खेलावन से जाने की अनुमति मांगी. राम खेलावन से अनुमति पाकर मैं ने राहत की साँस ली. अब डॉक्टर के चेंबर के तरफ संकेत करते हुए मैं अपने चिकित्सक मित्र से पूछा कि क्या वह अपने उस मनोरोग विशेषज्ञ मित्र से मिलना चाहता है? किंतु उसने वैसा करने से इंकार कर दिया.

उसने कहा,"अब वास्तव में उससे मिलने का कोई औचित्य समझ नहीं आता. मैं समझता हूँ कि हम दोनों के मध्य स्वार्थ की एक बहुत गहरी विभाजक रेखा खिंच गई है जो हमारे आपस के प्रेम और आत्मीयता से अधिक भारी है. फिर मैं तो जैसा के तैसा रह गया और वह अब अमीर हो गए हैं. अमीरों के अपने बड़े-बड़े मुसीबत हैं तो गरीब की छोटी-छोटी परेशानी भी उसके लिये उतनी ही बड़ी होती है. इसलिए बेहतर यही है कि हम दोनों अपनी-अपनी जगह पर और अपने-अपने समाज में रहें. फिर अपनी मुसीबत को अपने-अपने तरीके और प्रयत्न ही से हल करना चाहिये. "मुझसे कुछ प्रतिउत्तर करते नहीं बने. अब हम दोनों नर्सिंग होम से बाहर आ चुके थे. हम वापस अपने ड्यूटी पर लौट गये, क्योंकि तब स्वास्थ्य विभाग में नौकरी पेशा व्यक्ति ज्यादा दिन छुट्टी पर नहीं रह सकते थे.

एक दिन राम खेलावन का मेरे लिये फोन-कॉल आया. उसने बताया कि डॉक्टर का कहना है कि उसका लड़का मानसिक असंतुलन जनित रोग से मुक्त हो गया है, इसलिये उसका अवतारण (डिस्चार्ज) किया जायेगा. लड़के में भी वांछित सुधार नजर आ रहे हैं. वैसे शुभ खबर सुनकर मुझे ख़ुशी हुई. मुझे मेरे और अपने चिकित्सक मित्र द्वारा उसकी सहायता करना सफल जान पड़ा. मैं ने राम खेलावन को बधाई दिया और उक्त खुश खबरी से अवगत कराने के लिये उसका धन्यवाद भी किया. किंतु उसने अपनी बात पर जोर देकर कहा कि अवतारण से पहले मेरा वहाँ आकर स्वयं लड़के का निरीक्षण करना आवश्यक है तभी उसे सन्तुष्टि मिलेगी. मैं उसका कहना मान लिया और अर्जी देकर विभाग से दो दिन की छुट्टी प्राप्त किये.

अगले दिन मैं राँची के लिये रवाना हुआ. मैं वहाँ राम खेलावन से मिला और उक्त लड़के (रोगी) के हाव-भाव के निरीक्षण से उसके मानसिक स्थिति का जायजा लिया. लड़का स्वस्थ और मानसिक असंतुलन जनित रोग से मुक्त प्रतीत हुआ. मैं राम खेलावन से उसका अवतारण करवाने की सलाह दी. ततपश्चात राम खेलावन के सहमति से मैं लड़के के अवतारण हेतु डॉक्टर से मिलने का निर्णय किया. मैं डॉक्टर के चेंबर में लड़के के अवतारण की उनके निर्णय में रोगी के परिजन के रूप में अपनी सहमति देने गया. अभी मैं डॉक्टर से बातचीत कर ही रहा था कि उनके वही नशेड़ी युवा पुत्र बेधड़क अंदर आया और पूर्व के भाँति सभी को नजर-अंदाज करते हुए एवं डॉक्टर के बिना इजाजत किंतु निर्विरोध उनके रुपये निकाल ले गया.

युवक रुपये लेकर जा चूका था, किंतु डॉक्टर साहब अभी तक भयाक्रांत थे. मैं ने डॉक्टर से पूछा कि वह आपका पुत्र ही था न? तब डॉक्टर साहब कुछ बोले तो नहीं, किंतु मेरे चेहरे पर टकटकी लगा दिये. मानो वह मेरा चेहरा देख कर मेरे मन पढ़ने की चेष्टा कर रहे हों ताकि मेरे द्वारा बोले गये वाक्य के आशय समझ सकें. थोड़ी देर प्रत्युत्तर के आशा में ठहर कर मैं पुनः कहने लगा,"डॉक्टर साहब, आप निःसंदेह पागलपन के एक सफल चिकित्सक हैं. रोगी आपके हाथों इलाज करवाकर और आपके अनुशंसा के अनुरूप दवाई के सेवन से मानसिक असंतुलन जनित रोग से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. किंतु गहन मानसिक असंतुलन जनित रोग का क्या उपचार हो सकता है, जिसके इलाज इन स्थूल दवाई से संभव ही नहीं हैं. किंतु वह महारोग जो इसी रोग की तरह अन्य कारण से आनुवंशिक रोग की तरह अपनी जड़ जमाने में सक्षम हैं."

थोड़ा ठहर कर मैं पुनः कहने लगा,"वह गहन मानसिक असंतुलन जनित रोग अतृप्ति, दयाहीनता, अनैतिकता, अविवेक, लालच, ईर्ष्या इत्यादि हैं. फिर कोई रोगी अपने रोग का सटीक इलाज स्वयं नहीं कर सकते, क्योंकि अधिकांश लोगों को अपने रोग के लक्षण स्वयं उनके समझ में आते ही नहीं. फिर वह रोगी उस रोग के स्वयं एक सफल चिकित्सक ही क्यों न हो, यथा ब्रह्मा-पुत्र और मुनि-श्रेष्ठ नारद. तब वह महारोग धीरे-धीरे रोगी के परिवार के प्रत्येक सदस्य में अपना पैठ बना लेता है. अन्य कारण से अनुकूल परिस्थिति पाकर उस परिवार में अंततः मानो वह आनुवंशिक रोग बन जाते हैं."

इतना सुनते ही डॉक्टर साहब आग्नेय नेत्र से देखते हुए अपने हाथ की अनोखी मुद्रा बनाते हुए मुझे चेंबर से बाहर जाने का इशारा किया. वास्तव में मनुष्य जब इन महारोग के भव बंधन में पड़े होते हैं तब उसे मित्र भी शत्रु, अमृत भी जहर, मधुर वचन भी कटु और सदुपदेश भी कूट वाचन जान पड़ता है. मैं चेंबर से बाहर आ गया. फिर रोगी के अवतारण की सारी प्रक्रिया का निष्पादन करते हुए हम लोग रोगी का अवतारण करवाया और वापस अपने-अपने घर लौट आया."अध्यक्ष महोदय एक ही साँस में अपनी आपबीती और अपने कटु अनुभव कह सुनाये.

"क्या श्री राम चरित मानस वैसे महारोग के शमन में सक्षम हैं?"मेरे मन में जिज्ञासा जगी.

"यदि श्री राम चरित मानस जी के सप्त सोपान का मन लगाकर अध्ययन, मनन और पालन किया जाय तो वह निःसंदेह अनेक महारोग के कई भव-बंधनों का एक साथ शमन करने में सक्षम हैं. क्योंकि इस मर्यादित ग्रन्थ के आदर्श स्वयं तपस्वी राजा और भक्त वत्सल परब्रह्म; मर्यादापुरुषोत्तम सियावर रामचन्द्र जी हैं, प्रेरणा श्रोत स्वयं देवों के देव महादेव काशीश्वर विश्वनाथ हैं और इस ग्रन्थ को काव्य रूप में लिपिबद्ध करने वाले रचनाकार गोस्वामी तुलसी दास जी स्वयं धर्म-शास्त्र, ज्योतिष और संगीत इत्यादि के प्रकांड विद्वान थे. इसलिये श्री राम चरित मानस जी का अध्ययन त्रिगुण में संतुलन प्रदान करने वाले हैं और श्री हरि एवं काशीश्वर के कृपा से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप का स्वतः शमन करने में पूर्ण सक्षम हैं." अध्यक्ष महोदय बोले.

"किंतु श्री राम चरित मानस जी आदर्श ग्रन्थ किस प्रकार हैं, जबकि उसमें कहीं श्री राम निकृष्ट भीलनी शबरी के बेर सप्रेम स्वीकार कर उसे ग्रहण करते हैं, निषाद राज केवट को गले से लगाते हैं और गिद्धराज जटायु को अपने बाँहों में भरते हैं, इस प्रकार सम्पूर्ण रूप में सर्वोत्तम समता को बढ़ावा देते हैं. तभी दूसरे तरफ वर्णाधम जो तेली, कुम्हार कहकर जैसे जातिवाद, विषमता और सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा देते हैं. फिर ढोल, गंवार, पशु, शूद्र, नारी कहकर स्त्री शक्ति की अवमानना भी करते हैं? इस तरह यह ग्रंथ अपने उत्तम लक्ष्य से भटक कर अपने आदर्श नायक के चरित्र-चरितार्थ के विपरीत पवित्र गंगाजल में मदिरा का संयोजन करवाते हुए से निकृष्टतम पहलू का संरक्षण कर स्वयं त्याज्य बन जाता है."

अध्यक्ष महोदय बोले,"यह सच है कि निकृष्ट पात्र में होने से उत्तम वस्तु की महत्ता भी प्रभावित होती है. उतना ही सच यह भी है कि ईश्वर की महिमा से अभी तक कोई भी अंश मात्र ही परिचित हो पाये हैं. फिर किसी भी मजहब-सम्प्रदाय के संस्थापक अथवा ऋषि-मुनि उतने पूर्ण नहीं हुए कि ईश्वर-लीला के सम्बंध में उन्होंने जितना जाना उसका निष्कलंक और सटीक वर्णन कर सकें. फिर जितने भी सनातन हिन्दू धर्म ग्रन्थ हैं, सम्भवतः मैं ने सभी का अध्ययन किया. किंतु मुझे सबसे अधिक पूर्ण और मर्यादित श्री राम चरित मानस ही प्रतीत हुए एवं वह हृदय को छूने वाला, मानवीय व्यवहार को सामाजिक-पारिवारिक स्तर से सुधारने वाला है. फिर भिन्न-भिन्न टीकाकार और अलग-अलग प्रकाशक द्वारा प्रकाशित श्री राम चरित मानस भी मैं ने पढ़े हैं. प्रत्येक पुस्तक में भिन्न-भिन्न टीकाकार द्वारा अलग-अलग व्याख्या किये गये हैं. यहाँ तक कि पाठ और चौपाई के भेद भी दृष्टि गोचर होते हैं, फिर श्री तुलसी दास जी द्वारा रचित मूल ग्रन्थ भी पूर्ण रूपेण किसी प्रकाशक के पास उपलब्ध नहीं हैं. जो प्राप्य हैं उसमें भी कुछ अंश नष्ट हो गये हैं जिसमें टीकाकार विद्वानों द्वारा कुछ चौपाई-दोहों की रचना कर उस अंश को पूरा करने की कोशिश की गई है."

अध्यक्ष महोदय थोड़ा ठहर कर पुनः कहने लगे,"जब भिन्न-भिन्न टीकाकार द्वारा एक ही ग्रन्थ के अलग-अलग व्याख्या किये गये हैं और उनके विचारानुरूप मूल रचना के शब्द के मात्रा वगैरह में बदलाव किये जाते हैं, तब क्या संभव नहीं हैं कि जो अंश बाद में जोड़े गये वह उनके विचारानुरूप हो? क्योंकि उनके समय-काल में हिंदु समाज में वर्ण-व्यवस्था और सामाजिक विद्वेष अपने चरम पर थे. हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग को शिक्षा और शास्त्र से दूर रखे गये थे. फिर हिन्दू समाज के अस्तित्व के समक्ष भी विदेशी आक्रमणकारी के द्वारा संकट उत्पन्न थे. उपरोक्त वजह से उन्हें स्वयं श्री राम चरित मानस जी के लोकार्पण करने में अनेकों कठिनाई का सामना करने पड़े. श्री मानस में गोस्वामी तुलसीदास और श्री मानस की रचना के सम्बंध में बताया गया है कि उस समय के महापंडित से श्री राम चरित मानस जी की अनुशंसा करवाना भी बेहद कठिन रहा.

यहाँ तक कहा जाता है कि उनके समय में ही उस ग्रन्थ को हिन्दू समाज के सर्वोच्च समुदाय द्वारा ही नष्ट करने के प्रयत्न भी हुए. उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे थे, किंतु दैव योग से और हरि-कृपा से वह सुरक्षित रहा. फिर उस ग्रन्थ की रचना महादेव के उत्प्रेरणा से हुआ, उस बात की परीक्षण हेतु श्री राम चरित मानस जी ग्रन्थ को एक मंदिर के प्रकोष्ठ में रखा गया और दरवाजा को ताला-चाबी से बंद कर दिये गये. जबकि मंदिर के उस बंद प्रकोष्ठ में किसी का जाना संभव नहीं था, किंतु सुबह देखा गया तो उस पर अनुशंसा स्वरूप स्वयं महादेव के हस्ताक्षर थे. तब इस बात की पूरी संभावना बनती है कि समयांतराल में उनके मृत्यु पश्चात अथवा ग्रन्थ के नष्ट अंश के प्रतिपूर्ति के रूप में मनमाना तरीके अपनाये गये हों. फिर यह भी उचित है कि एक सज्जन को सदैव सद्गुण ही ग्रहण करना चाहिये, जैसा हंस करते हैं. "इतना कहने के पश्चात अध्यक्ष महोदय चुप हो गये.

"निःसंदेह, धर्म के नाम पर आज भी कोड़े पाखंड ही फैलाया जा रहा है. ग्रन्थ के समुचित तथ्य से साधक को यथासम्भव भटका कर पूर्ण अंधविश्वासी बनाने के कुकृत्य धड़ल्ले से किये जाते हैं. फिर महान गुरु और कूटनीति शास्त्र के रचैयता आचार्य चाणक्य भी कहते हैं कि विश्वास और अन्धविश्वास में, धार्मिक कृत्य में और पाखंड में एक महीन विभाजक रेखा हैं, इसलिये दोनों में फर्क करना कठिन हैं. तब उस पाखंड के पहचान हेतु समुचित और आसान उपाय क्या हैं?"

"वास्तव में विश्वास और अन्धविश्वास में, धार्मिक कृत्य में और पाखंड में एक महीन विभाजक रेखा हैं, इसलिये दोनों में बिना हरि-कृपा और गहन विवेक प्राप्त किये बिना फर्क करना अत्यंत कठिन हैं. किंतु जो अंतर्मुखी होकर प्रेम और धैर्य पूर्वक श्री राम चरित मानस जी का अध्ययन एवं मनन करते हैं, उसके लिये हरि कृपा से उस पाखंड के पहचान हेतु वह समझ अत्यंत सहज और सुलभ है. क्योंकि श्री राम चरित मानस जी के निरंतर मनन से मनुष्य मात्र में केवल सच्चे और सृजनात्मक गुण ग्रहण करने की प्रवृति प्राप्त होती है और उसमें जागृति आती हैं. "अध्यक्ष महोदय ने मेरे जटिल प्रश्न के सहजता से समाधान किये. मैं धन्य-धन्य हुआ और सत्संग सेवन का संकल्प लेते हुए उनसे जाने की अनुमति माँगा. अनुमति पाकर मैं ने उनका अभिवादन किया और बारंबार सत्संग सेवन के संकल्प के साथ अपने घर लौट गया.

(समाप्त)

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रचनाकार: पागलपन का इलाज, भाग-३ (कहानी)- प्रदीप कुमार साह
पागलपन का इलाज, भाग-३ (कहानी)- प्रदीप कुमार साह
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