राहुल सिंह / कहानियों के बहाने : कहानियों पर इशारे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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आलोचना राहुल सिंह कहानियों के बहाने : कहानियों पर इशारे किसी अंक की कहानियों पर बात करना कई कारणों से चुनौतिपूर्ण हो जाता है। एक तो उन प...

आलोचना

राहुल सिंह

कहानियों के बहाने : कहानियों पर इशारे

किसी अंक की कहानियों पर बात करना कई कारणों से चुनौतिपूर्ण हो जाता है। एक तो उन पर दी जानेवाली राय एक चश्मे का काम करने लगती है, जिसकी निगाह से उस कहानी को देखे जाने का खतरा बना रहता है। दूसरे आपको हर कहानी के साथ अचूक होना पड़ता है, अन्यथा कोई चूक ही आपके संदर्भ में यादगार बन कर न रह जाये। इसके साथ ही सबसे बड़ी मुसीबत यह कि गर कहानियाँ अच्छी हुईं तो उनके सारे पहलुओं को खोला नहीं जा सकता है और औसत या उससे बुरी हुई तो धर्मसंकट पैदा हो जाता है कि क्या उसके प्रकाशन के साथ उसकी मरम्मत की एक नैतिक कार्यवाही अंजाम दी जा सकती है? दुश्वारियाँ यहीं खत्म नहीं होती हैं, और भी गम हैं। मसलन् किसी प्रतिष्ठित कहानीकार की ऐसी कहानी भी सामने आ जाती है, जो उसकी प्रतिष्ठा में कुछ जोड़ने की बजाय घटाने का काम करती है। पर इसका सबसे सुखद पहलू यह होता है कि किसी अज्ञातकुलशील की कोई रचना चमकती हुई-सी नमूदार होती है, और दुनिया के सामने प्रकाशित होने-से पहले, आपको पढ़ने के एक अनिर्वचनीय सुख से भर जाती है। कहानियों पर बात करने की अपनी बंदिशें तो होती ही हैं और उस पर आपके अचूक होने का दबाव बना रहता है। इन्हीं कुछ कहे-अनकहे के साथ इस अंक की कहानियों पर अपनी राय जाहिर कर रहा हूँ, इस गुजारिश के साथ की कहानियों को पढ़ने के बाद ही लेख की इन पंक्तियों से गुजरा जाये तो बेहतर होगा। बाकी आपकी मर्जी।

इस अंक में सात स्त्री कहानीकार हैं। उन्हीं से बात शुरू करने के मूल में ‘लेडिज फर्स्ट’ जैसा कोई प्रचलित आग्रह नहीं है। बस, बात आरंभ करने की निजी सहूलियत है। किरन सिंह की कहानी ‘पता’ को छोड़ दें तो बाकी कहानियों में केन्द्रीयता स्त्री की है। बल्कि इन बची आधा दर्जन कहानियों में समरूपता के कई बिन्दु मौजूद हैं। इन बची कहानियों में एक तो ‘विवाह संस्था’ की अनिवार्य मौजूदगी ‘नोटिस’ ली जानेवाली चीज है और दूसरा उन स्त्रियों की अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक स्तरों की नुमाइंदगी और उनसे निर्मित होता स्त्री का देश-काल। इनमें जयश्री रॉय की ‘संधि’ को छोड़ दें तो बाकी पाँच कहानियों में विवाह संस्था की आलोचना ही निहित है। उपासना की ‘उदास अगहन’ का परिवेश सामंती है, ग्रामीण है। जमींदार के द्वारा दूसरी ब्याहता के तौर पर आई वृंदा इसकी केन्द्रीय चरित्र है। पौरुष के मोर्चे पर हांफते जमींदार के भाई से अवैध संबंध के जरिये संतानोत्पत्ति की कामना को पूरी करती वृंदा की इस कहानी में कुछ ऐसा नहीं है, जिसके लिए इसको अलग से रेखांकित किया जाये। गनीमत इतनी है कि कहानी दलित विमर्श में एक समय प्रचलित सवर्ण औरतों और दलित पुरुषों के फार्मूले पर नहीं लिखी गई है। बाकी उपासना की अपनी भाषा और उसमें लोक की छौंक से कहानी पठनीय है। अंजलि देशपांडे की ‘घूंघट’ सामंती और ग्रामीण परिवेश से इतर किसी निम्नमध्यवर्ग की डेढ़ कमरे में एक संस्कारी बहू के घुटन को दर्शाती है, जिसके नसीब में पंखे की हवा उतनी ही देर लिखी है, जितनी देर उसके ससुर बाथरूम में हैं। एक बेहद संस्कारी औरत, जिसने शायद ही शादी के बाद अपने ससुर से कोई बात की हो। उसका पति दफ्तर में अपने ब्रांच मैनेजर श्याम कुमार के खिलाफ एक झूठी शिकायत दर्ज करा देता है कि उन्होंने उनकी पत्नी के साथ बलात्कार किया है। इस मामले की जाँच के लिए अचानक दिल्ली हेडऑफिस से एक टीम उनके घर आ जाती है। इससे पहले इसकी कोई चर्चा उसके पति ने अपनी पत्नी से नहीं की है। उस दिन पूछे जाने पर वह कहती है कि श्याम कुमार कभी घर पर नहीं आये हैं। सफाई में उसका पति रात में उससे कहता है कि ‘ऐसे ही ऑफिस में झगड़े हो जाते हैं। उसको सबक सिखाना था। हो गई गलती। चल, चल बात खत्म कर।’ उसे लगता है मानो सबको पता है कि उसके पति ने उसके बारे में क्या लिख कर अपने ऑफिस में दे दिया है। इसलिए वह अब सोते-जागते, उठते-बैठते हर-हमेशा डेढ़ हाथ का घूंघट काढ़े रहती है। महीनों यह सिलसिला यूं ही बदस्तूर चलता रहता है। उसके इस प्रतिरोध से आजिज आकर उसका पति एक रात उसके साथ जर्बदस्ती करता है और अगली सुबह वह पंखे से लटके मिलती है। उसके पास वही प्रति पड़ी है, जिसमें उसके पति ने बलात्कार के आरोप की लिखित शिकायत की थी। फर्क इतना है कि उसमें बॉल पेन से टेढ़े-मेढ़े, बड़े-बड़े हर्फों में अलग से लिखा है ‘मेरा पति यही किया। बलात्कार। इस आदमी के साथ रह नहीं सकती। मेरा पति मेरी मौत का जिम्मेवार है।’ प्रज्ञा और जयश्री रॉय की कहानी की नायिकायें एक-सी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को साझा करती हैं। प्रज्ञा की कहानी में एक मध्यवर्गीय स्त्री के संघर्ष को उसके रोजमर्रे की जीवन में बड़े यथार्थपरक ढंग से दिखलाया गया है। बस, प्रज्ञा की कहानी की एकमात्र दिक्कत यह है कि वह इस रूप में खुलती है, मानो पाठक भी घटनाक्रम से परिचित है। पात्र अचानक से इतनी बड़ी संख्या में कहानी के धरातल पर उतर आते हैं, कि उनको अलग-अलग पहचानने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। वे अपनी विशेषताओं के साथ नहीं बल्कि संबंध सूत्रों के आधार पर प्रकट होते हैं। इससे पात्रों की निजता खतरे में पड़ जाती है, वे नाम भर रह जाते हैं। यदि इसे नजरंदाज कर दें तो फिर कहानी ठीक बन पड़ी है। पर इस अंक में स्त्री कहानीकारों की जो दो कहानियाँ अच्छी बन पड़ी हैं। उनमें एक तो जयश्री रॉय की ‘संधि’ है और दूसरी किरन सिंह की ‘पताज्। पहले बात जयश्री रॉय की ‘संधि’ पर।

एक निर्लिप्त, निरावेग, शांत, कुछ-कुछ थकी और निढाल-सी भाषा में लिखी गई यह कहानी भाषा की अपनी इस अदा से कहानी की अंतर्वस्तु की हमजोली-सी बन जाती है। कई बार जीवन में कुछ बेबसी ऐसी होती है कि तमाम प्रयत्नों के बावजूद उनसे पार पाना मुमकिन नहीं होता है। यह कहानी उसी बेबसी से उबरने के उपक्रमों की कहानी है। कहानी सिर्फ बेसबब नहीं बढ़ती है। बढ़ती कहानी के साथ उसके बंद खुलते चलते हैं। बेबसी की परतें खुलती चलती हैं। कहानी बेहद मामूली प्रसंगों के जरिये आगे बढ़ती है। रोजमर्रे के जीवन-अनुभवों से धीरे-धीरे गुजरती यह कहानी समग्रता में कहानी की एक पूर्णता का अहसास करा जाती है। कहानी को मोटे तौर पर दो कोणों से पढ़ा जा सकता है। एक तो माँ के दृष्टिकोण से और दूसरे उसकी बेटी मानसी के, जिस पर जयश्री रॉय का जोर है। सहानुभूति निश्चित तौर पर मानसी के साथ है। पर माँ की बात करें तो ‘संधि’ में माँ हमारी चिंता के दायरे में नहीं आ पाती हैं। लेकिन ठीक इसके उलट ममता सिंह की ‘राग-मारवा’ में माँ चिंता की धुरी हैं। नालायक बेटा और मतलबी बहू के फेर में पड़ कर कुसुम जिज्जी की जिंदगी नारकीय हो रखी है। यद्यपि इस कहानी में संगीत अच्छा स्थान घेरती है, पर यह अपनी सांगीतिक पृष्ठभूमि से ज्यादा बहू की धनलिप्सा और अमानवीय होते वक्त की कहानी लगती है। कहानी में बार-बार कुसुम जिज्जी के बुढ़ापे को एक टेक की तरह इस्तेमाल किया गया है, पर कहीं उनके उम्र का खुलासा नहीं है। उनकी अवस्था से उनकी दयनीयता को और उनके बहू-बेटे के आचरण से उनकी अमानवीयता का ‘कंट्रास्ट’ रचा गया है। मध्यवर्गीय लालसा, लिप्सा ने किस कदर जीवनमूल्यों को लीलने का काम किया है, कहानी इसे अपनी सीमाओं के बावजूद दिखा जाती है।

इन स्त्री कहानीकारों की कहानियों में आई स्त्रियाँ अलग-अलग आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को सामने रखती हैं। पर जया जादवानी की नायिका उस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे राजेन्द्र यादव आजीवन बेहद जतन से हंस की कहानियों और अपने स्त्री विमर्श के मार्फत् रचने में जी-जीन से जुटे रहे। स्नोवा बार्नो की कहानियों में संचरण करनेवाली स्त्री की छाप जया जादवानी की कहानी ‘क्या आपने हमें देखा है’ में देखी जा सकती है। कामुकता की एक मद्धिम आंच, उस पर ऐंठती-चटकती देह। अरमानों पर फलसफे का लिहाफ, जिसके विस्तार के लिए अपेक्षित एकांत और इन सबको साहित्य के दायरे में रखने की यथासंभव कलात्मक कोशिश, नहीं तो मामला ‘सोफ्ट पोर्न’ की हद तक जा पहुँचे। एक आजाद खयाल, आत्मनिर्भर और अपनी शर्तों पर जीनेवाली स्त्री को रचकर भी जया जादवानी की यह कहानी अपने पूर्वाग्रह के कारण आलोचना के घेरे में आ जाती है। विवाहिताओं के लिए उनके द्वारा कहानी में प्रयुक्त विशेषण ‘पालतू जिन्दा औरतें’ खासा अपमानजनक लगता है। और स्त्री की स्वच्छंदता का, स्वतंत्रता का नहीं, जो आख्यान वे रचती हैं। वैसी स्त्रियों को गौरवान्वित करती हुई ‘पालतू जिन्दा औरतों’ के बरक्स वे ‘जिन्दा औरतों’ का उद्बोधन सामने रखती हैं। एक सुखद साहचर्यपूर्ण जीवन के अभाव में टूटी हुई, एकाकी औरतें महत्त्वाकांक्षा की जिस निर्जन टापू पर रहती हैं, उसे देखते हुए इस किस्म के विशेषणों की दयनीयता खुद-ब-खुद उजागर होनेवाली वस्तु है। उस पर अलग से कागद कारे करने की आवश्यकता नहीं है।

इन सात कहानियों में से पाँच में विवाह संस्था के अंतर्गत स्त्रियों को घुटते-सिसकते और संघर्ष करते दिखाया गया है। जो इस बात की तस्दीक करती है कि केवल विचार के धरातल पर नहीं बल्कि अपने अनुभव में वे विवाह संस्था के ‘पितृसत्तात्मक संरचना’ को महसूस कर रही हैं और अपने तईं उसके अतिक्रमण की कोशिश भी दबे-छिपे-खुले ढंग से कर रही हैं। इन कहानियों में एक बात और है। जीवन परिस्थितियों से घुटी इन स्त्रियों के लिए कोमलता का बाहरी संस्पर्श नये संबंधों को प्रस्तावित कर रहा है। इनकी कहानियों में छुअन के अहसास से नई रिश्तों की कोंपलें फूटती दिख रही हैं। चाहे वह उपासना का ‘उदास अगहन’ हो जिसमें ‘एक भारी हाथ कोमलता से वृंदा का सिर व पीठ सहलाता है’ या जयश्री रॉय की ‘संधि’ हो जिसमें डॉक्टर पार्थसारथि की हार्दिकता का संस्पर्श मानसी के मन को नम कर जाता है या अंजली देशपांडे की ‘घूंघट’ हो जिसमें कोमलता से इतर पति की कठोरता उसके तन-मन को रौंदती है। पर कोमलता के इन अस्फुट गूंजों से इतर पंकज सुबीर ‘कोमल स्पर्श की महिमा’ पर ही ‘रेपिश्क’ जैसी कहानी लिख डालते हैं। गजब यह कि ‘रेपिश्क’ की अशिमा जिसके साथ रेप हुआ है। वह अपने रेपिस्ट को इसलिए खोजना चाहती है कि ‘वह बहुत सॉफ्ट था, पोयटिक, जैसे कोई सॉफ्ट-सी फ्ल्यूट बज रही हो। मद्धम मद्धम मद्धम।’ अब ‘रेप’ को इस कदर कहानी में उतारने का मौलिक प्रयास कहीं और हुआ हो तो नहीं मालूम, पर हिन्दी में इसका सेहरा पंकज सुबीर के सर बांधा जा सकता है। जो रेप करे उससे इश्क हो जाये तो वह रेपिस्ट न होकर ‘रेपिश्क’ हो जाता है। कहानी की मूल थीम स्त्री की बुनियादी अस्मिता के विरोध में जाती है। बाकी पंकज सुबीर की कहानी फिल्मी है, वह भी सी ग्रेड की।

किरन सिंह की ‘पता’ एक ‘मैच्योर’ कहानीकार की कहानी लगती है। बतौर कहानीकार उनके आत्म विश्वास को उनके कहन में दमकता हुआ पा सकते हैं। इस कहानी की ध्वन्यात्मकता में इसकी खूबसूरती समाहित है। नक्सल को पृष्ठभूमि में रखते हुए यह कहानी ‘देश’ की बहुत-सी बातों पर संकेत करती चलती है। बस्तर के अपने साथियों को अपने अधमरेपन से अवगत कराता हुआ जो संदेश वह भेजता है। उस संदेश की अभिधात्मकता में जो ध्वन्यात्मकता है गर उसे आप पढ़ सकें तो इस कहानी को पसंद करने की मेरी वजहों को आप समझ सकते हैं। वह लिखता है- ‘रोहिला! अजित! तुम मुझे ढूंढ रहे होगे- मेरा पता है देश, जहाँ से नदी पाट छोड़ कर मुड़ गई है, जो अब सरकारी कूड़ाघर है।’ इस पते के आधार पर उसे ढूंढ पाना मुश्किल है और उसका मरना तयशुदा। पर इसे ही दूसरे स्तर पर जाकर देखें तो आज पूरे देश में नदी अपना पाट छोड़ रही है और पूरा देश सरकारी कूड़ाघर में तब्दील होता-सा दीख रहा है। देश और उसके पते की जो रूपकात्मकता या प्रतीकात्मकता है। इस दृष्टि से उनकी परिपक्वता का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह परिपक्वता ही उनको और उनकी कहानी को इस अंक की अन्य स्त्री कहानीकारों से अलग करती हैं और इसे अलग से रेखांकित करने योग्य बनाती हैं।

अब बात गर पुरुष कहानीकारों की करें तो तेजेन्द्र शर्मा की ‘बुशी का भूत’ किसी संस्मरणात्मक रेखाचित्र-सा लगता है। कहानी का प्लॉट दिलचस्प है। ‘निकल एलर्जी’ जैसी चीज से परिचित होने का मौका मिलता है। यह अमूमन उस किस्म की कहानियों में से है, जिसे बतौर कहानीकार आप अपने जीवन में गाहे-बगाहे घटते देखते हैं और कहानियों की शक्ल में वक्त-बेवक्त परोसते हैं। कहानी का परिवेश ब्रिटेन का है, पर कहानी में फिल नाम का जो किरदार है, भारतीय परिवेश में उसकी पुनरावृत्ति किसी ईमानदार सरकारी कर्मचारी की कार्यशैली में देखी जा सकती है। कहते हैं न बिन घरनी घर भूत का डेरा। फिल अविवाहित है। जीवन के एकाकीपन को फिल काम के प्रति अपने समर्पण से भरता है। समर्पण भी वह जो जुनून या दीवानगी की हदों को छूती हो। ‘बुशी का भूत’ में यह जुनून और दीवानगी ही भूत का पर्याय है। ‘बुशी का भूत’ के समान ही हरि भटनागर की कहानी ‘शार्ट स्टोरी’ वाली परंपरा में है। कुछ ऐसा जो आपके रोजमर्रे के जीवन में यों ही बात-बेबात में घट जाये, पर आपके मन में गड़ जाये। इसलिए कि आप गलती पर थे, पर उसको स्वीकार करने का सामर्थ्य आप में तत्क्षण न हो। फिर रगों में दौड़ता खून जब थोड़ा थिर हो आये और आपका विवेक आपकी लानत-मलानत करे तो संवेदना के कष्ट से मुक्त होने के लिए आप ‘पाप-स्वीकार’ की मुद्रा में आ जायें और जब आप फिर से उस बीते लम्हें का रफू करना चाहें तो वह आपसे छिटक कर दूर जा खड़ा हो जाये और आप अपराध बोध की एक ऐसी स्थिति में खड़े हो जायें जहाँ एक साथ आप उसे डराना भी चाहें और उससे डर भी रहे हों। हरि भटनागर की ‘आँच’ ऐसी ही कहानी है। यह हमारे जीवन में आये दिन घटनेवाली घटना को संबोधित करती कहानी है। घरों में ऐसे अनेक काम रोज निकल आते हैं, जिसके मरम्मत की क्या कीमत हो इसकी कोई जानकारी हमारे पास नहीं होती। मसलन् प्लम्बर या इलेक्टि्रशयन के द्वारा की जानेवाली मरम्मत की मजदूरी। और अक्सर उस काम की कीमत हम अपने तईं बेहद कम करके आंकते हैं। यह काइंयापन हम सबों के स्वभाव में कहीं न कहीं समाया हुआ है। पर उसकी लगातार अनदेखी कर, हमने उसे जीवन की स्वभाविक स्थितियों के तौर पर स्वीकार कर लिया है। इस किस्म की बेहद मामूली-सी घटना पर ‘आँच’ आधारित है। पर इसको पढ़ने के बाद इसकी आँच आपके भीतर भी हल्की तपन पैदा कर जाती है। और कबीर की साखी की इस पंक्ति का अर्थ भी समझा जाती है कि ‘मुई खाल की आह से लौह भस्म हो जाये।’ चन्द्रकिशोर जायसवाल की ‘विक्लव’ भी एक उल्लेखनीय कहानी हो सकती थी, गर वह अतिकथन का शिकार नहीं हो जाती। ‘विक्लव’ का आशय होता है जो हर वक्त डरा-डरा हो, बेचैन हो, घबराया हुआ हो, शंकाओं से घिरा हो। अवध बाबू इस कहानी के वही चरित्र हैं। पर उनके डर और उनके संशय और शंकाओं को बुनने में चन्द्रकिशोर जायसवाल ने थोड़े ज्यादा पन्ने खर्च कर दिये हैं, इसलिए एक सीमा के बाद कोफ्त होने लगती है। गर विस्तार और अतिकथन का लोभ संवरण वे कर गये होते तो कहानी अच्छी संरचना के धरातल पर भी कसी हुई हो गई होती। संजीव की कहानी उनकी ‘प्रमेय वाली शैली’ के कारण बहुत उल्लेखनीय नहीं रह जाती। जैसे एक सधा हुआ चित्रकार अपने दो-चार स्ट्रोक्स से किसी रेखाचित्र को रच सकता है, पर वह रेखाचित्र जरूरी नहीं कि बहुत उल्लेखनीय है। संजीव के पास लिखने का जो लम्बा तजुर्बा है, उससे वह ‘कोकिला व्रत’ जैसी चीजें बेहद सहजता से लिख सकते हैं। पर कहानी के धरातल पर ऐसी कोशिशों का अवसान बहुत सुखद नहीं होता है। संजीव की शैली रही है कि कहानी के जरिये किसी बात को रेखांकित करना, साबित करना। इसके लिए कहानी तयशुदा पगडंडियों, मोड़ों, चौक-चौराहों से गुजरती है, और यह परेड अपने गंतव्य पर ही जाकर थमती है। इस क्रम में कहीं न कहीं कहानी का लुत्फ गुम हो जाता है। ‘कोकिला व्रत’ संजीव की वैसी ही कहानियों में शामिल है। कुछ ऐसे ही हादसों का शिकार शेखर मल्लिक की कहानी ‘रे अबुआ बुरु’ भी हो गई है।

भाषा के विन्यास से कोई कोई रचना कविता या कहानी होती है। और उसी भाषा को बरतने की अदा से कहानी में ‘पन’ आता है। कहानी में इस कहानीपन का होना निहायत जरूरी है। इसके बाद ही कहानी अच्छी-बुरी आदि के वर्गों में आती है। शेखर मल्लिक की कहानी इस आरंभिक और बुनियादी मोर्चे पर ही बिखर जाती है। कहानी और सरोकार दो अलहदा चीजें हैं। उनका एकमएक हो जाना उस भाषा और विधा में आपकी पकड़ पर निर्भर करता है। उस नियंत्रण के बगैर इस किस्म की कोशिशें दयनीय जान पड़ती हैं। ‘रे अबुआ बुरु’ एक साथ प्रेम, स्मृति, प्रकृति, नास्टेल्जिया, पलायन, रोजगार, जल-जंगल-जमीन के सवाल, अपने जड़ों की ओर लौटने की प्रत्याशा आदि को कहानी में उठाने का जतन करती है। पर यह सब उसके अन्तर्वस्तु के साथ एकाकार होने की बजाय चिप्पियों की शक्ल में सामने आता है। कहानी की बहुकेन्द्रीयता को पिरोनेवाले सूत्र के अभाव में कहानी का फोकस लगातार शिफ्ट होता रहता है। कहानी अपना मचान नहीं बांध पाती है, जहाँ से वह पूरे कथानक की निगहबानी कर सके। वह रह जगह मचान बांधने की फिराक में कहीं की नहीं रह जाती है। यहाँ तक कि कहानी के बीच-बीच में आये संताली-पहाड़िया गीतों के टुकड़े भी कहानी के प्रवाह को खंडित करने का ही काम करते हैं। शेखर कहानी के मार्फत् जो कहना चाहते हैं, अपने गन्तव्य तक वह अभिप्रेत तो पहुँच जाता है, पर कहानी की सतरें पर नहीं। कहानी के खत्म होने पर स्वप्न का जो टुकड़ा वह आखिर में टांकते हैं, वह टुकड़ा पूरी कहानी पर भारी है। वह टुकड़ा उनके सामर्थ्य और संभावनाओं का संकेत देता है। शेखर मल्लिक के युवकोचित उत्साह के बरक्स महेश कटारे के अनुभव को रखें तो कहानी के संदर्भ में इस बात को समझा जा सकता है कि कैसे एक-एक कर के अलग-अलग पहलुओं को कहानी में पिरोया जाता है। कृषक चेतना किस कदर कहानीकार की सवारी करती है, इसे महेश कटारे के ‘उलझन के दिन’ में देखा जा सकता है। आषाढ़ के दिन से कहानी आरंभ होती है, पर संदर्भ खेती-किसानी है। इसलिए आषाढ़ के होने के बावजूद कहानी में कहीं रूमानियत नहीं है। किसानों के आत्महत्या के सवालों को तंज करनेवाले अंदाज में छूती यह कहानी आगे बढ़ती है। वहाँ सुस्ताने नहीं लगती है। गांवों की बदलती मानसिकता पर थोड़ी रोशनी डालते हुए आगे बढ़ जाती है। गांव की राजनीति को अपने घेरे में लेती है। सरपंच की करतूतों और ग्रामीणों के रोजमर्रे की दुश्वारियों को निशाने पर लेती है। इस बीच कहानी में नाटकीयता के क्षण आते हैं, उस क्षण में कहानी थोड़ा सफर और तय करती है। कहानी कहीं टिकती नहीं है बस चलती रहती है और एक गांव का पूरा नाक-नक्श उभर कर सामने आ जाता है। इसमें वह तमाम चिंतायें शामिल हो जाती हैं, जो किसानों को लेकर हम आये दिन सुनते रहते हैं। और यह सब करते हुए कहानी अपने शीर्षक ‘उलझन के दिन’ को चरितार्थ भी कर रही होती है। रोचकता के मार्फत् कहानी को पठनीय बनाने की अदा में महेश कटारे और शिवमूर्ति सहोदर जान पड़ते हैं। इन दोनों की कहानियों में बहुत-सी साम्यताओं को सहजता से देखा जा सकता है। जमीन से जुड़े किसी भी कहानीकार के यहाँ उनके जनपद की भाषा की रंगत साफ तौर पर देखी जा सकती है। उनकी भाषा में व्यवहृत होनेवाली बोली, लोकोक्ति, कहावत और मुहावरों से उनकी स्थानिकता का बोध हमें होता है। महेश कटारे के यहाँ भाषा की यह धज पूरे मौज में दिखती है। भूमंडलोत्तर पीढ़ी में जिस एक नाम के साथ भाषा की यह जुगलबंदी जगजाहिर है, वे पंकज मित्र हैं। संयोग से उनकी भी ‘कफन रिमिक्स’ इस अंक में शामिल है। पंकज मित्र इस पीढ़ी के हस्ताक्षर हैं। कहानी में भाषा के मोर्चे पर जब कोई अपनी पहचान कायम कर ले तो वह शैली बन जाता है।

पंकज मित्र की कहानियों इस बात की तस्दीक करती हैं कि उनकी अपनी एक शैली बन चुकी है। चित्रकला की दुनिया में आपकी शैली यानी स्टाईल एक समादृत वस्तु हैं, पर क्या कहानी की दुनिया में भी यह उतने ही आदर की हकदार है? अब वे एक साथ ‘टाइप्ड’ और ‘प्रेडिक्टबिल’ हो रहे हैं। इनसे उनकी कहानी लिखने की क्षमता का कोई अवमूल्यन नहीं हुआ है, पर वह एक ‘सैचुरेशन प्वांइट’ को छू गया है। और उनकी कहानियों का प्रशंसक रहने के कारण उनसे हमारी मुरादें थोड़ी ज्यादा हैं। इसके लिए अपेक्षित वैयक्तिक्ता का अतिक्रमण कुछ वैसा ही है जैसे किसी उपग्रह को अपने धुरी में स्थापित होने के लिए बारम्बार अपने खोल को त्यागना पड़ता है। पंकज मित्र अपने शिल्पगत आग्रहों से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। बहरहाल, उनकी ‘कफन रिमिक्स’ पर फौरी तौर पर दो ढंग से बात की जा सकती है। एक विचार के धरातल पर और दूसरा बर्ताव के धरातल पर। पूरी दुनिया में जो ‘क्लैसिक्स’ हैं, उसको बदले देश-काल में फिर से लिखने की एक परिपाटी रही है। अकेले शेक्सपियर को संसार की न जाने कितनी भाषाओं में कितनी बार अपने ढंग से उतारने की कोशिश की गई है। हिन्दी सिनेमा में विशाल भारद्वाज इसके सबसे बड़े आशिकों में से है। पंकज मित्र की कहानियों पर मैंने विस्तार से लिखा है और उसमें प्रेमचंद की किस्सागोई से अर्जित कुछेक संस्कारों की ओर संकेत भी किया है। इस लिहाज से देखें तो यह अपने पुरखे को याद करने का भी एक तरीका है। कहना न होगा कि पंकज मित्र ने कफन को बदले देश-काल में उतारने में अपने जानते कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। किस्सागोई, कहानीपन से लबरेज पंकज मित्र की ‘कफन रिमिक्स’ कहानी की धरातल पर खुद को सफलतापूर्वक स्थापित करती है। पर इस कहानी के बारे में जो एक बात सबसे ज्यादा अखरती है, वह है इसका शीर्षक। ‘रिमिक्स’ और ‘रिमेक’ जैसे शब्द पूंजीवादी दौर की उपभोक्तावादी संस्कृति की मुनाफाखोर मानसिकता के सूचक हैं, जो एक ओर मौलिकता के क्षरण को रेखांकित करते हैं तो दूसरी ओर सृजनात्मकता के क्षरण को। प्रेमचंद का पूरा लेखन ही इस मानसिकता के मुखर विरोध में खड़गहस्त था। इसलिए बाजारू मुहावरे में उनको याद करने की यह अदा भली नहीं लगी। यद्यपि पंकज मित्र ने एहतियातन शीर्षक के साथ ही शपथपत्र जैसा ही कुछ लगा दिया है कि (बाबा-ए-अफसाना प्रेमचंद से क्षमायाचना सहित)। पर यह क्षमायाचना इस शीर्षक के कारण नहीं ‘कफन’ को फिर से लिखने के दावे के कारण है। गर इस एक नुक्ते को छोड़ दिया जाये तो कहानी अपने अंदाजे बयां और विषय को बरतने की अपनी अदा से खासा पठनीय और रोचक बन पड़ा है, जो पंकज मित्र की ख्याति के अनुरूप है और संभव है कि पंकज मित्र के प्रशंसक पाठकों की कतार थोड़ा और लम्बा करे।

पंकज मित्र के अलावे इस अंक में और एक कहानीकार हैं जिनकी अब तक की कहानी-यात्रा पर बेहद नजदीक से निगाह रखी है, वे हैं तरुण भटनागर। तरुण भटनागर की ‘प्रथम पुरुष’ बस्तर की पृष्ठभूमि पर लिखी जा रही कहानियों में संभवतः दसवीं हैं। इससे पहले भी बस्तर की पृष्ठभूमि पर वे आठ-नौ टुकड़े लिख चुके हैं। किश्तों में लिखी जा रही इन कहानियों की औपन्यासिक सौंदर्य इनके एक साथ आने पर दिखेगा। बहुत हद तक संभव है कि हिन्दी में जिस ‘जादुई यथार्थवाद’ की चर्चा किताबों के ब्लर्ब में प्रायः रचनाकारों के संदर्भ में की जाती है। इन कहानियों के एक साथ आने पर पाठक उसे बेहतर ढंग से महसूस कर पायेंगे। लिखी गई किश्तों में ‘प्रथम पुरुष’ का अपना सौंदर्य है। यह सौंदर्य उसकी प्रस्तुतिकरण में है। प्रस्तावना में है। बस्तर की आदिवासी जीवन पर केन्दि्रत लोकश्रुति, लोकस्मृति में बची गाथाओं, गल्पों को, जो अब मिथकों में बदल गये हैं, अपने ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहें हैं। महत्त्वपूर्ण है, इनको कहानी में बरतने का तरीका। इन कहानियों का प्रस्थान बिन्दु तरुण भटनागर की दृष्टि है। कहानी के बीच-बीच में उपस्थित होनेवाली इस दृष्टि के कारण इन कहानियों के आस्वाद में एक सुखद-सा अहसास जुड़ गया है। ‘यह कथायें जो प्रक्षिप्तियों से भरी लगती हैं।’ उन प्रक्षिप्तियों पर अपनी ओर से यथाप्रसंग की जानेवाली टिप्पणियाँ उसकी एक बेहतर व्याख्या उपलब्ध कराती हैं। कहानी के दौरान कहीं लोककथाओं में व्यवहृत प्रतीकों की डिकोड न कर पाने की असमर्थता का विनम्र स्वीकार तो कहीं कहानी बयां करने के दौरान खुद को दुरुस्त करने की कवायद बतौर कहानीकार तरुण की विषयगत ईमानदारी को दर्शाता है। यह कहानी उस समय की है जब ‘जंगल के भीतर और जंगल के बाहर पूरे दस हजार सालों का अंतर था।’ ‘तब जंगल के भीतर पता नहीं सौंदर्य की कोई चेतना थी भी या नहीं। ...पता नहीं भाई की पत्नी के लिए तब क्या संबोधन रहा होगा। तब न पत्नियाँ होतीं थी न भाभियाँ। तब वे औरतें थीं, सिर्फ औरतें।’ ऐसे में जब कोई जंगल का आदमी बाहर आ गया और बाहर की दुनिया जंगल में दाखिल हो गई तो कैसी स्थितियाँ पैदा हुईं? कहानियों की अब तक की कड़ियों में यह मंजर दरपेश हुए हैं। जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि कैसे शताब्दियों का झूठ सच बनता गया और कैसे उनका सच एक आदिम गप्प में बदल गया। आदिम किस्सों को तरतीब देते हुए उसके संदर्भों को व्याख्यायित करने की यह पूरी कोशिश इतनी दिलचस्प और बहसतलब है कि मैं इन सबको एकमुश्त पढ़ने के लिए बेसब्र हूँ।

इन सब कहानियों से इतर मनोज पांडेय की ‘पैर’ एक बिलकुल अलग ‘लेबल’ की कहानी है। असामान्य मनोविज्ञान की यह कहानी ‘साहस के अभाव’ का शिकार हो गई है। साहस के अभाव में यह कहानी संज्ञा के बजाय सर्वनाम और विशेषण के धरातल पर संचरण करती है। सर्वनाम और विशेषणों की अधिकता के कारण इसमें एक किस्म के अमूर्तन की अधिकता व्याप गई है। यह अमूर्तन इस कहानी की संप्रेषणीयता के धरातल पर कठिनाइयाँ खड़ी करता है। चूंकि मनोज पांडेय की कहानियों की जमीन बहुत ठोस रहती आई है तो पहली दफा इस किस्म के दलदली जमीन पर उनके पाँव ठीक से जमे नहीं हैं। एक खास ऐन्दि्यजन्य आवेग के ‘ट्रिगर प्वांइट’ के बतौर वे जिस अंग विशेष (पैर) की प्रस्तावना करते हैं, वह सामान्यतः सबके हिस्से का सत्य नहीं है। यह जो अनुभूति की निजता है, वह इतना एकांतिक है कि उसका सामान्यीकरण सहजता से संभव नहीं है। और संभवतः इन्हीं कारणों से कहानी ‘कनेक्ट’ नहीं कर पाती है। इसकी तुलना में पाकीजा में मीना कुमारी के ‘पैरों’ पर कहे गये राजकुमार के दो-ढाई वाक्य उस भाव को ज्यादा नफासत से व्यक्त कर सके हैं।

आशुतोष की ‘अगिन असनान’ अपने शीर्षक से पहले-पहल तो चौंकाती है। पर कहानी से गुजरते हुए उसका अर्थ जल्द ही खुल जाता है। कहानी के तीन हिस्से हैं। आदि, मध्य और अवसान। कहानी की शुरुआत में जहाँ कहानी की भूमिका बांधी जा रही है, वह मामला थोड़ा खींच गया है। बहावलपुर और अगिन असनान की पृष्ठभूमि बुनने में मामला थोड़ा ‘पिपली लाइव’ सरीखा हो जाता है। देश-काल को प्रामाणिकता से सिरजने के लोभ में कहानी की शुरुआत थोड़ा ज्यादा फुटेज खा जाती है। ब्यौरों से परिवेश को जरूर प्रामाणिक बनाया जा सकता है, पर ब्यौरों की भी एक सीमा होती है। ब्यौरे गर अपने विस्तार में कहानी की संरचना को ही कमजोर करने लगे तो उसे फिर से देखने की जरूरत बनती है। अगर कहानी की इस शुरुआती लड़खड़ाहट को नजरंदाज कर दें तो कहानी का उठान शानदार है। यह उठान ही है जो उसकी पृष्ठभूमि को थोड़ा न्यायसंगत ठहराता दिखता है। क्योंकि इस उठान में ही कहानी ‘यू टर्न’ लेती है, और कहानी के भीतर एक नई कहानी दिखती है। कहानी की यह पलटी पाठकों को अपने गिरफ्त में लेती है। कहानी में जब कहानी के दो ‘वर्जन’ उपलब्ध हो जाते हैं, तो सवाल उठता है कि वास्तव में हुआ क्या था? यहाँ आशुतोष कहानी में उस टोटके को लेकर आते हैं, जो इसका उत्तर आधुनिक पहलु है। अर्थात् आधिकारिक सत्य की जगह सापेक्षिक सत्य की प्रस्तावना वे करते हैं। हांलाकि यह स्पष्ट है कि हुआ क्या है। पर कहानी में उसकी आधिकारिक पुष्टि करने की बजाय वह सत्य की संदिग्धता को सामने रखते हैं। इस कहानी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा इसका अवसान है। जहाँ आशुतोष अपनी पिछली लेखनी से अर्जित ख्याति के साथ न्याय करते हैं। वे जिस ‘नोट’ पर कहानी खत्म करते हैं, वह हमारे समय की एक भयावह विडम्बना को उजागर करती है। कायदे से उसका पूरी कहानी से सीधे कोई लेना-देना नहीं है। पर जिस कदर वे ‘विक्टिम’ बन जाते हैं। वह एक साथ ‘अंधेर नगरी’ और ‘महाभोज’ की याद दिलाते हैं। कहानी के मुहाने से उसके उद्गम को अनुमान कर पाना नामुमकिन है। और कहानी में अनुस्यूत यह अप्रत्याशित मोड़ कहानी को विचारणीय बनाते हैं। कहानी के कई पहलू हैं और इसके कई तरह के पाठ किये जा सकते हैं। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया को लेकर कहानी में बिखरे संकेतों से मीडिया की भूमिका पर बात की जा सकती है। भारतीय न्याय व्यवस्था और उसकी प्रक्रिया पर बात की जा सकती है। लोक-आस्था और अंधविश्वास के बरक्स बात की जा सकती है। और यह सब गांधी के देश में घटित हो रहा है, इस पर भी बात की जा सकती है। कहानी का एक मजबूत स्त्री पक्ष भी है, बात उस दिशा में भी की जा सकती है। पर यहाँ इसके सारे तन्तुओं को खोलने का अवकाश नहीं है। इसलिए संकेत-सूत्र भर छोड़ रहा हूँ।

और अंत में जिस कहानी की बात करने जा रहा हूँ वह इस अंक की ही नहीं, बल्कि इधर हाल के वर्षों में आई उल्लेखनीय कहानियों में शामिल होने की क्षमता रखती है। कहानी के किसी भी पहलू से विचार करें तो यह एक ऐसी बेदाग कहानी है, जिस पर एकबारगी इसलिए भी यकीन कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इससे पहले राकेश दुबे के पहले कहानी संग्रह में संकलित किसी भी कहानी में यह बेदागपना अनुपस्थित है। राकेश दुबे की इस शानदार कहानी का शीर्षक है- ‘कौने खोतवा में लुकइलू ए बालम चिरई’। इस कहानी को पढ़ते हुए हिन्दी की जिस एक कहानी की याद आपको बेतरह आ सकती है, वह हिन्दी की अमर कहानियों में से एक, ‘उसने कहा था’ है। इस संग्रह में ‘कफन’ को फिर से लिखने की कोशिश पंकज मित्र ने की है। राकेश दुबे की यह कहानी एक अर्थ में बिना किसी ऐसे आग्रह के ‘उसने कहा था’ के मर्म को कहानी के धरातल पर फिर से उतार लाती है। कहना न होगा कि इस कहानी में इस दौर का ‘उसने कहा था’ होने की पूरी संभावना है। गजब की प्रेम कहानी रच डाली है, राकेश दुबे ने। एक कहानी जो सम्पूर्ण है। एक कहानी जो कहीं भी एक लम्हें के लिए ढीली नहीं पड़ती है। कहानी जहाँ से आरंभ होती है और जहाँ पर्यवसित होती है, उसके बीच आनेवाली करवटों और अंगड़ाइयों से कहानी न सिर्फ चौंकाती है, बल्कि बांधे रखती है। घटनायें कथानक की दिशा तय करते हैं और चरित्र उन घटनाओं के आलोक में प्रकाशित होते हैं। कहानी अपनी कोख में मार्मिकता के इतने क्षण संजोये है कि एक के बाद एक जब वे नियमित अंतराल पर आना शुरू होते हैं तो उसका संयोजन आपको किस्सागोई के एक नये धरातल पर ले जाता है। बहुत कम कहानियाँ होती हैं, जिनको पढ़ कर भी उतना ही सुखी हुआ जा सकता है, जितना सुन कर। यह उन खुशनसीब कहानियों में से है, जिसे पढ़-सुन कर हम भी खुशकिस्मत हो सकते हैं। वंशी काका को कोई छू ले तो उनकी निरीहता दयनीयता की सीमा को छूने लगती है। उनकी यह निरीहता जो मनोरोग-सा प्रतीत होती है, जब उसकी परतें खुलती हैं, तो मन थोड़ा नम हो जाता है। उनकी गायकी के जलवे को राकेश दुबे केवल एक टूल्स के तौर पर नहीं आजमाते हैं। उनके व्यक्तित्व के उस खासियत को वे अंत तक थामे रहते हैं। इससे एक ओर तो वंशी काका के चरित्र की विश्वसनीयता अखंड बनी रहती है, वहीं कहानी में यह गायकी, कहानी के मर्म को भी संप्रेषित करने में एक केन्द्रीयता अर्जित करता चलता है। वंशी काका और सोना के मध्य भरी सभा में जो ‘नयनों का नयनों से गोपन प्रिय संभाषण’ है, उसकी खूबसूरती को कहानी पढ़ कर ही महसूसा जा सकता है। स्पर्श की एक संक्षिप्त-सी स्मृति को जीवन की लेई पूंजी मान लेने का जो निष्पापना है और उसकी पवित्रता का निर्वाह जिस कदर कहानी में हैं, वह विलक्षण है।

कहानी जहाँ खुलती है और जहाँ खत्म होती है, उनके बीच वह जिन पड़ावों से होकर गुजरती है, उसमें पूरा जीवन गुजरता है, व्यक्ति की पूरी आयु गुजरती है, कहानी स्मृति, आकांक्षा, स्वप्न, प्रतीक्षा के फेर में पड़ कर नष्ट हो सकती थी। पर कहानी बिलकुल जमीन पर चलती है। और जहाँ खत्म होती है, उस एक क्षण में पूरी कहानी मौजूद होती है। मानो पूरी कहानी उस क्षण में तर्पण के लिए मौजूद हो। आमतौर पर हमारे मानस में सत्यवान को बचाने के लिए सावित्री की कटिबद्धता की कहानी सुरक्षित है। यह उसके उलट सावित्री को बचाने के लिए सत्यवान की प्रतिबद्धता की कहानी है। उस क्षण में वंशी काका की निरीहता देखने लायक है, पर वे दयनीय नहीं रह गये हैं। यह राकेश दुबे की हतप्रभ करनेवाली परिपक्वता है जो आखिरी क्षणों में कहानी को इस कदर निभा ले गई है कि जिसकी जितनी तारीफ की जाये वह कम है। उन्होंने कसक को शब्दों में बिखरने नहीं दिया है। कहानी के अंत में एक वाक्य है ‘दो और भी आंखें थीं, जिनमें पानी छलछला रहा था, लेकिन उनमें किसी की नजर नहीं पड़ी थी।’ इस वाक्य की संगति उससे दो पन्ने पहले आये एक वाक्य से बैठती है। जहाँ मरीज की नब्ज को छूकर वे मुस्कराये थे और उस पर भी किसी की नजर नहीं पड़ी थी। एक प्रेम जो भरे समाज के बीच अंकुरित हुआ, उसी प्रेम का अवसान उसी भरे समाज के बीच हुआ। इस पूरे क्रिया व्यापार के बीच उस समाज के मध्य प्रेम की निजता बची रह गई। सब इतने कलात्मक रचाव और शालीनता के साथ कहानी में घटित होता है कि बस आँखें बंद कर के इस कहानी को अपने भीतर जिया ही जा सकता है। ऐसी कहानियाँ रोज-रोज नहीं लिखी जाती हैं और उन कहानियों को बाकी दुनिया से पहले पढ़ सकने का जो सुख है। फिलहाल उसी सुख में डूबते-उतरते रहना चाहता हूँ।

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रचनाकार: राहुल सिंह / कहानियों के बहाने : कहानियों पर इशारे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
राहुल सिंह / कहानियों के बहाने : कहानियों पर इशारे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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रचनाकार
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